यात्रा-संस्मरण
रेवा संग महेश्वर यात्रा
श्रीकांत तेलंग
ढलती शाम को महेश्वर में जैसे ही हमारी वैन दाखिल हुई एक अजीब सी अनुभूति ने मन को छू लिया।पुराने बाज़ारो की शाम की रौनक। तंग गालियाँ, जहाँ एक दूसरे से सटे हुए घर और दुकानें। अधिकांश घरो में पुराने मंदिर और अपने वैभवशाली इतिहास को याद करते हुए कुछ पुराने लकड़ी के नक़्क़ाशीदार घर। शहरों की आपाधापी से दूर कुछ लोग,जिनकी बाज़ार की दुकानों पर रोज शाम को बैठक हुआ करती है।
हमारी वैन ने सीधे घाट का रुख किया,और हम अपना सारा सामान वैन में रख कर अपने-अपने कैमरे संभालते हुए जा पहुँचे नर्मदा घाट पर। घाट जो शाम को अक्सर टहलने आने वाले लोगों से पटा हुआ रहता है। आज भी था।
नर्मदा अपने वही पुराने स्वरूप को लेकर पूर्व से पश्चिम की ओर अनवरत यात्रा कर रही थी। दोपहर की उमस से परेशान अधिकांश लोग स्नान के लिए तैयार थे। और कुछ वयस्क लोग थे जो अपने अंतिम पड़ाव में अपने किये हुए पाप को धोने की चेष्टा कर रहे थे। जिसे हिंदू धर्म में पुण्य स्नान कहा जाता है। पाप को धोकर पुण्य की कामना !!!!!अजीब है। परंतु हिन्दू धर्म में मान्यता है।
नर्मदा भी शायद यही कार्य अनवरत किये जा रही है। इतने भव्य और गौरवशाली इतिहास को अपने में समेटे अनवरत यात्रा। ये काम शायद कोई माँ ही कर सकती है। और शायद इसलिये नर्मदा सिर्फ कोई नदी ना होकर लोगों के लिए नर्बदा मैया है। शांत और स्थिर चित्त होकर दो पाटों के बीच अनवरत बहते रहना।नर्मदा ने ना जाने कितने युग देखे है जिनमें सहस्त्रार्जुन का राज युग था और रावण जैसे वीर और शिव भक्त को बंधित देखना भी शामिल है। इसके बाद न जाने कितने राजे-रजवाड़ो का राज आया और चला गया।कितने ही साधु और संतो ने अपनी तपस्या इन्हीं घाटों पर पूरी की। परंतु नर्मदा जैसी थी वैसी ही है। और इसे इस तरह से देखना आज भी अदभुत और अविस्मरणीय है।
अमरकंटक से निकल कर भरूच की खाड़ी में जाकर मिलने वाली नर्मदा का मतलब है नर्म-ददाति इति नर्मदा आनंद या हर्ष पैदा करने वाली । नर्मदा को कई और नामों से पहचाना जाता है,जैसे- रेवा, शंकरी, ऋक्षपादप्रसुता या मैकलसुता, हर्षदायिनी, त्रिकुटा, चिर कौमार्य आदि।
घाट पर घूमते हुए पूरे समय इंडियन ओसियन का "माँ रेवा थारो पानी निर्मल कल-कल बहतो जाये रे " मन में गूंज रहा था ।
घाट पर शाम को मंदिर की घंटियों की आवाज़ बहुत ही सुकून प्रदान कर रही थी । शाम को माँ रेवा की आरती घाट पर होना,पीछे मंदिर की घंटियों की आवाज़, गेंदे के फूलों की ख़ुशबू, लोबान का सौंदापन, अगरबत्ती की महक माहौल को धार्मिक बनाने के साथ मन को अजीब सी शांति और सुकून प्रदान कर रही थी । कुछ लोग दीपक को नर्मदा में तैरा रहे थे जिससे एक बहुत ही सुन्दर दृश्य निर्मित हो रहा था । और चूंकि एक फोटोग्राफर के लिए इस दृश्य को देख कर रुक पाना संभव नहीं था, हम लोग भी नहीं रुक पाये ।
घाट पर कुछ वृद्ध महिलाएँ सफ़ेद पोशाक पहने हुए भक्ति में लीन थी । उन्हें देखकर ये पंक्तियाँ सहसा मन में आयी-
"मनकस्तूरी रे, जग दस्तूरी रे
बात हुई ना पूरी रे
उम्र की गिनती हाथ ना आई
पुरखों ने यह बात बताई"
रात को जिस धर्मशाला में हमने खाना खाया, वह भी बहुत अच्छी जगह थी । जहाँ नीचे पटिये पर खाना परोसा जाता है और बैकग्राउंड में शिव महिम्न और रूद्राष्टक चल रहा था जो कानों में बहुत अच्छा लग रहा था । और मन को शांति प्रदान कर रहा था ।
नर्मदा को माँ जैसा स्थान देना और उसकी पवित्रता को बनाए रखने का जो काम अहिल्याबाई ने किया,वह आज भी उनके बाद 21वीं शताब्दी में भी अकल्पनीय और अद्भुत है । फिर वह चाहे सुंदर घाटों का निर्माण हो या लोगों के विश्राम स्थल बनवाना । यहां के बुनकरों का जो काम आज विश्व में प्रसिद्ध है उस काम का श्रेय भी अहिल्या माता को जाता है ।
अहिल्याबाई एक शिव भक्त थी जिन्होंने अपना संपूर्ण राज शिव को समर्पित किया था और उनकी आज्ञा से शासन भी किया था । होलकर राज्य का वैभवशाली इतिहास अहिल्याबाई के बिना अधूरा है । जितनी लोकप्रियता होलकर घराने को हासिल हुई हैं वो सब अहिल्याबाई की वजह से हुई है । अहिल्याबाई की न्यायप्रियता सम्पूर्ण भारत मे विख्यात थी । संपूर्ण भारत में उनके किये गए कार्य आज भी दिखाई देते है। अहिल्याबाई ने महेश्वर में सन् 1767-1795 तक राज्य किया था । महेश्वर के ये घाट आज भी माता अहिल्याबाई की याद दिलाते है । इस घाट पर अहिल्याबाई का दाह संस्कार सन् 1795 में हुआ था ।
पत्थरों की जीवंत कलाकृति महेश्वर के इन घाटों पर देखने को मिलती है । ये वैभवशाली और अद्भुत नक़्क़ाशी अपने उस कालखंड की याद दिलाती है जिस समय होलकर राजवंश अपने चरम पर था । और अहिल्याबाई उस समय इस राजवंश की राजमाता थी । इस नदी ने कई और भी दौर देखे हैं जैसे अंग्रेज़ों का राज ,भारत की आज़ादी और आज का बाज़ारवाद । तमाम तरह के दौर देखते रहने के बाद भी अनवरत बहते रहना (चलते रहना) शायद यही जीवन है । और यह भी सत्य है कि इन दौरों में कुछ ने नर्मदा को समृद्ध किया है और कुछ ने विनिष्ट ।
सुबह 5:45 पर सभी लोग नर्मदा के घाट पर इकट्ठा हुए। सुबह-सुबह जब हम लोग घाट पर पहुंचे तो कुछ लोग योग कर रहे थे । उन्हें देखकर हमने भी कुछ देर योग किया । इतनी सुबह नर्मदा के घाट पर योग करने का अपना एक अलग ही आनंद है।
इसके बाद हम सहस्त्रार्जुन मंदिर गए, वहाँ ऐसी मान्यता है कि सहस्त्रबाहु जी के काल से आज तक 11 अखंड दीपक प्रज्वलित है और सहस्त्रबाहु जी की पूरी वंशवाली भी यहाँ देखने को मिलती हैं। इसके बाद हम अहिल्याबाई की गादी देखने गए जिस पर बैठकर उन्होंने कई ऐतेहासिक फैसले लिए,और अपने राजवंश का नाम इतिहास में अमर कर दिया। यहाँ होलकर राजवंश के सैनिकों द्वारा उपयोग में की गई तलवारें भी मौजूद हैं। और पूरे होलकर राजवंश का इतिहास भी मौजूद है। अहिल्याबाई के इस वाड़े में एक बिल्वपत्र का पांच पत्तियों वाला पेड़ है, जो बहुत ही कम पाये जाते है। इस वाड़े में एक आत्मीय और आध्यात्मिक शांति मिलती है।
नर्मदा नदी के किनारे बैठना उसे महसूस करना ,नदी की गहराई और मन की गहराई जब एकाकार हो जाती है तब एक निस्तब्धता महसूस होती है जो सुकून प्रदान करती है। नदी की गहराई का जल ,जो हलचल से परे गहरा और ठहरा हुआ है,मन की खामोशी और एकांत के साथ एकाकार हो जाने के बाद नदी के साथ बहता हुआ एक अनंत यात्रा की ओर निकल पड़ता है।
नर्मदा भी इतिहास को छोड़ती हुई ,समय के साथ बदलती रही। जैसे इंसान बदलते गए। ऊपर से एकदम हँसमुख कलकल बहती हुई और अंदर से एकदम शांत ,ख़ामोश,अपने आप में चुपचाप सी। नर्मदा की गहराई और मन की गहराई लगभग एक जैसी अंतहीन।और इस अंतहीन गहराई में पनप रहे कई सारे विचार, जैसे पनपते है कई सारे जीव नर्मदा की गहराई में। और जन्म लेती है कई सारी अधूरी इच्छाएँ। जैसे शंख लेते है जन्म।
रात की चाँदनी में नदी किनारे बैठना ,अपने आप को मिलने और पा लेने का बहुत ही सुनहरा अवसर होता है । चाँद और तारों का प्रतिबिंब जब नदी में दिखाई देता है तो गुलज़ार याद आने लगते है-
जब तारें जमीं पर चलते है,आकाश जमीं हो जाता हैं
उस रात नहीं फिर घर जाता ,वो चाँद वही सो जाता हैं।
आधी रात को उस सोते ,अलसाये हुए चाँद को नर्मदा के काँधे पर सोते एकटक देखना और उस लम्हे को अपनी यादों में कैद करना अद्भत था। इस दृश्य को देखना और महसूस करना ,बिना एक भी शब्द कहें उस से ढेरों बातें करना, यही तो मौन की सर्वव्यापकता है। जो हमेशा से प्रकृति की सुंदरता रही है।
महेश्वर के घाट से सहत्रधार देखते हुए ऐसा प्रतीत होता हैं मानों नर्मदा क्षितिज छूकर पुनः धरती में समा रहीं हो।एक और सुंदर दृश्य जहाँ शाम को ढलते सूर्य की मद्धिम रोशनी एक अविस्मरणीय नज़ारा आपको पेश कर रही हो। इसी डूबती मद्धिम रोशनी में हम नर्मदा से विदा लेते हुए अपने घर की ओर प्रस्थान करते है।
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श्रीकांत तेलंग की कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए
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रेवा संग महेश्वर यात्रा
श्रीकांत तेलंग
ढलती शाम को महेश्वर में जैसे ही हमारी वैन दाखिल हुई एक अजीब सी अनुभूति ने मन को छू लिया।पुराने बाज़ारो की शाम की रौनक। तंग गालियाँ, जहाँ एक दूसरे से सटे हुए घर और दुकानें। अधिकांश घरो में पुराने मंदिर और अपने वैभवशाली इतिहास को याद करते हुए कुछ पुराने लकड़ी के नक़्क़ाशीदार घर। शहरों की आपाधापी से दूर कुछ लोग,जिनकी बाज़ार की दुकानों पर रोज शाम को बैठक हुआ करती है।
श्रीकांत तेलंग |
हमारी वैन ने सीधे घाट का रुख किया,और हम अपना सारा सामान वैन में रख कर अपने-अपने कैमरे संभालते हुए जा पहुँचे नर्मदा घाट पर। घाट जो शाम को अक्सर टहलने आने वाले लोगों से पटा हुआ रहता है। आज भी था।
नर्मदा अपने वही पुराने स्वरूप को लेकर पूर्व से पश्चिम की ओर अनवरत यात्रा कर रही थी। दोपहर की उमस से परेशान अधिकांश लोग स्नान के लिए तैयार थे। और कुछ वयस्क लोग थे जो अपने अंतिम पड़ाव में अपने किये हुए पाप को धोने की चेष्टा कर रहे थे। जिसे हिंदू धर्म में पुण्य स्नान कहा जाता है। पाप को धोकर पुण्य की कामना !!!!!अजीब है। परंतु हिन्दू धर्म में मान्यता है।
नर्मदा भी शायद यही कार्य अनवरत किये जा रही है। इतने भव्य और गौरवशाली इतिहास को अपने में समेटे अनवरत यात्रा। ये काम शायद कोई माँ ही कर सकती है। और शायद इसलिये नर्मदा सिर्फ कोई नदी ना होकर लोगों के लिए नर्बदा मैया है। शांत और स्थिर चित्त होकर दो पाटों के बीच अनवरत बहते रहना।नर्मदा ने ना जाने कितने युग देखे है जिनमें सहस्त्रार्जुन का राज युग था और रावण जैसे वीर और शिव भक्त को बंधित देखना भी शामिल है। इसके बाद न जाने कितने राजे-रजवाड़ो का राज आया और चला गया।कितने ही साधु और संतो ने अपनी तपस्या इन्हीं घाटों पर पूरी की। परंतु नर्मदा जैसी थी वैसी ही है। और इसे इस तरह से देखना आज भी अदभुत और अविस्मरणीय है।
अमरकंटक से निकल कर भरूच की खाड़ी में जाकर मिलने वाली नर्मदा का मतलब है नर्म-ददाति इति नर्मदा आनंद या हर्ष पैदा करने वाली । नर्मदा को कई और नामों से पहचाना जाता है,जैसे- रेवा, शंकरी, ऋक्षपादप्रसुता या मैकलसुता, हर्षदायिनी, त्रिकुटा, चिर कौमार्य आदि।
घाट पर घूमते हुए पूरे समय इंडियन ओसियन का "माँ रेवा थारो पानी निर्मल कल-कल बहतो जाये रे " मन में गूंज रहा था ।
घाट पर शाम को मंदिर की घंटियों की आवाज़ बहुत ही सुकून प्रदान कर रही थी । शाम को माँ रेवा की आरती घाट पर होना,पीछे मंदिर की घंटियों की आवाज़, गेंदे के फूलों की ख़ुशबू, लोबान का सौंदापन, अगरबत्ती की महक माहौल को धार्मिक बनाने के साथ मन को अजीब सी शांति और सुकून प्रदान कर रही थी । कुछ लोग दीपक को नर्मदा में तैरा रहे थे जिससे एक बहुत ही सुन्दर दृश्य निर्मित हो रहा था । और चूंकि एक फोटोग्राफर के लिए इस दृश्य को देख कर रुक पाना संभव नहीं था, हम लोग भी नहीं रुक पाये ।
घाट पर कुछ वृद्ध महिलाएँ सफ़ेद पोशाक पहने हुए भक्ति में लीन थी । उन्हें देखकर ये पंक्तियाँ सहसा मन में आयी-
"मनकस्तूरी रे, जग दस्तूरी रे
बात हुई ना पूरी रे
उम्र की गिनती हाथ ना आई
पुरखों ने यह बात बताई"
रात को जिस धर्मशाला में हमने खाना खाया, वह भी बहुत अच्छी जगह थी । जहाँ नीचे पटिये पर खाना परोसा जाता है और बैकग्राउंड में शिव महिम्न और रूद्राष्टक चल रहा था जो कानों में बहुत अच्छा लग रहा था । और मन को शांति प्रदान कर रहा था ।
नर्मदा को माँ जैसा स्थान देना और उसकी पवित्रता को बनाए रखने का जो काम अहिल्याबाई ने किया,वह आज भी उनके बाद 21वीं शताब्दी में भी अकल्पनीय और अद्भुत है । फिर वह चाहे सुंदर घाटों का निर्माण हो या लोगों के विश्राम स्थल बनवाना । यहां के बुनकरों का जो काम आज विश्व में प्रसिद्ध है उस काम का श्रेय भी अहिल्या माता को जाता है ।
अहिल्याबाई एक शिव भक्त थी जिन्होंने अपना संपूर्ण राज शिव को समर्पित किया था और उनकी आज्ञा से शासन भी किया था । होलकर राज्य का वैभवशाली इतिहास अहिल्याबाई के बिना अधूरा है । जितनी लोकप्रियता होलकर घराने को हासिल हुई हैं वो सब अहिल्याबाई की वजह से हुई है । अहिल्याबाई की न्यायप्रियता सम्पूर्ण भारत मे विख्यात थी । संपूर्ण भारत में उनके किये गए कार्य आज भी दिखाई देते है। अहिल्याबाई ने महेश्वर में सन् 1767-1795 तक राज्य किया था । महेश्वर के ये घाट आज भी माता अहिल्याबाई की याद दिलाते है । इस घाट पर अहिल्याबाई का दाह संस्कार सन् 1795 में हुआ था ।
पत्थरों की जीवंत कलाकृति महेश्वर के इन घाटों पर देखने को मिलती है । ये वैभवशाली और अद्भुत नक़्क़ाशी अपने उस कालखंड की याद दिलाती है जिस समय होलकर राजवंश अपने चरम पर था । और अहिल्याबाई उस समय इस राजवंश की राजमाता थी । इस नदी ने कई और भी दौर देखे हैं जैसे अंग्रेज़ों का राज ,भारत की आज़ादी और आज का बाज़ारवाद । तमाम तरह के दौर देखते रहने के बाद भी अनवरत बहते रहना (चलते रहना) शायद यही जीवन है । और यह भी सत्य है कि इन दौरों में कुछ ने नर्मदा को समृद्ध किया है और कुछ ने विनिष्ट ।
सुबह 5:45 पर सभी लोग नर्मदा के घाट पर इकट्ठा हुए। सुबह-सुबह जब हम लोग घाट पर पहुंचे तो कुछ लोग योग कर रहे थे । उन्हें देखकर हमने भी कुछ देर योग किया । इतनी सुबह नर्मदा के घाट पर योग करने का अपना एक अलग ही आनंद है।
इसके बाद हम सहस्त्रार्जुन मंदिर गए, वहाँ ऐसी मान्यता है कि सहस्त्रबाहु जी के काल से आज तक 11 अखंड दीपक प्रज्वलित है और सहस्त्रबाहु जी की पूरी वंशवाली भी यहाँ देखने को मिलती हैं। इसके बाद हम अहिल्याबाई की गादी देखने गए जिस पर बैठकर उन्होंने कई ऐतेहासिक फैसले लिए,और अपने राजवंश का नाम इतिहास में अमर कर दिया। यहाँ होलकर राजवंश के सैनिकों द्वारा उपयोग में की गई तलवारें भी मौजूद हैं। और पूरे होलकर राजवंश का इतिहास भी मौजूद है। अहिल्याबाई के इस वाड़े में एक बिल्वपत्र का पांच पत्तियों वाला पेड़ है, जो बहुत ही कम पाये जाते है। इस वाड़े में एक आत्मीय और आध्यात्मिक शांति मिलती है।
नर्मदा नदी के किनारे बैठना उसे महसूस करना ,नदी की गहराई और मन की गहराई जब एकाकार हो जाती है तब एक निस्तब्धता महसूस होती है जो सुकून प्रदान करती है। नदी की गहराई का जल ,जो हलचल से परे गहरा और ठहरा हुआ है,मन की खामोशी और एकांत के साथ एकाकार हो जाने के बाद नदी के साथ बहता हुआ एक अनंत यात्रा की ओर निकल पड़ता है।
नर्मदा भी इतिहास को छोड़ती हुई ,समय के साथ बदलती रही। जैसे इंसान बदलते गए। ऊपर से एकदम हँसमुख कलकल बहती हुई और अंदर से एकदम शांत ,ख़ामोश,अपने आप में चुपचाप सी। नर्मदा की गहराई और मन की गहराई लगभग एक जैसी अंतहीन।और इस अंतहीन गहराई में पनप रहे कई सारे विचार, जैसे पनपते है कई सारे जीव नर्मदा की गहराई में। और जन्म लेती है कई सारी अधूरी इच्छाएँ। जैसे शंख लेते है जन्म।
रात की चाँदनी में नदी किनारे बैठना ,अपने आप को मिलने और पा लेने का बहुत ही सुनहरा अवसर होता है । चाँद और तारों का प्रतिबिंब जब नदी में दिखाई देता है तो गुलज़ार याद आने लगते है-
जब तारें जमीं पर चलते है,आकाश जमीं हो जाता हैं
उस रात नहीं फिर घर जाता ,वो चाँद वही सो जाता हैं।
आधी रात को उस सोते ,अलसाये हुए चाँद को नर्मदा के काँधे पर सोते एकटक देखना और उस लम्हे को अपनी यादों में कैद करना अद्भत था। इस दृश्य को देखना और महसूस करना ,बिना एक भी शब्द कहें उस से ढेरों बातें करना, यही तो मौन की सर्वव्यापकता है। जो हमेशा से प्रकृति की सुंदरता रही है।
महेश्वर के घाट से सहत्रधार देखते हुए ऐसा प्रतीत होता हैं मानों नर्मदा क्षितिज छूकर पुनः धरती में समा रहीं हो।एक और सुंदर दृश्य जहाँ शाम को ढलते सूर्य की मद्धिम रोशनी एक अविस्मरणीय नज़ारा आपको पेश कर रही हो। इसी डूबती मद्धिम रोशनी में हम नर्मदा से विदा लेते हुए अपने घर की ओर प्रस्थान करते है।
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