परख सैंतीस
हवा होने से पहले !
गणेश गनी
वैश्वीकरण और बाज़ारवाद के इस अजीब समय में सबसे कठिन काम है सरलता बनाए रखना और साधारण होना। जबकि लोग एक ऐसी दौड़ में हैं जो जीवन को कठिन और जटिल बना रही है। दरअसल कवि मैं धैर्य भी चाहिए और संजय में यह बात है। कोई आठ माह पहले एक दिन मेरे मैसेंजर पर एक सन्देश आता है। संजय ने बताया कि वो बचपन से साहित्य पढ़ रहे हैं, लेकिन कविता पिछले चार माह से लिख रहे हैं। मैं थोड़ा आश्वस्त तब हुआ जब संजय ने बताया कि वो कैसा साहित्य पढ़ते आ रहे हैं। वरना कई लोग तो पल्प लिटरेचर से ही पुस्तकालय बनाए बैठे हैं। फिर भी सच कहूं तो मैं संजय की कविताओं को गम्भीरता से नहीं ले रहा था। कल एक कविता हवा और विचार ने मुझे संजय की कविताओं को फिर से पढ़ने पर मजबूर किया, तो पाया कि शुरू से अब तक कि कविताएँ कवि में लगातार ग्रोथ दिखा रही हैं। कवि संजय छीपा कहते हैं-
मैं साधारण ही बने रहना चाहता हूँ
एक साधारण प्रकृति की तरह
जैसे एक साधारण पेड़ के नीचे बिछी रहती हैं
विस्तृत छाँव
जैसे एक नदी बहती रहती हैं अपने मार्ग पर
बिना किसी असाधारण प्रतिक्रिया के
बनी रहती हैं मीठी साधारण और असाधारण के बीच
साधारण होना स्वीकारना है मौन को
साधारण होना विरोध नहीं करना है
साधारण होना जीना है विरोध के बीच
साधारण होना कोई अर्थ नहीं देता
वह देता है विचार अर्थहीन शब्दों को
हालांकि साधारण होना कविता भी नहीं है
पर वह कविता का विषय है
जिस पर लिखी जाती है कविता।
कवि ने एक बात कमाल की कही है। हालांकि साधारण होना कविता भी नहीं है, पर वह कविता का विषय है
जिस पर लिखी जाती है कविता। संजय जैसा कवि भले ही मशहूर नहीं है। कोई भी नहीं जानता इस कवि को। पर लगता है कि यह कवि पढ़ता बहुत है, इसे कविता से प्रेम है, यह चुपचाप लिखता रहता है, बिना यह सोचे कि उसकी कविता कहाँ तक पहुँचेगी। वो सवाल ही नहीं करता-
करो यदि सवाल तो
रहे जवाबदेही
सवाल की भी,
क्यूँकि जरूरी नहीं कि
आये जवाब
पर कम से कम
रहे खड़ा सवाल।
कवि संजय चाहता है कि जब सब को कोई न कोई साथ मिला है तो क्यों न आदमी को भी साथ न मिले। कवि दुःखी इसी बात से है कि आदमी ही आदमी के साथ नहीं-
रात के साथ है चाँद
सुबह के साथ सूर्य
जल हवा प्रकृति
है धरा के साथ
साथ सारी सृष्टि
रहती किसी न किसी के
किन्तु साथ नहीं
आदमी के आदमी।
संजय छीपा कहते हैं कि एक दिन नहीं बचेगा समय, तब बेशक सब कुछ बचा रहे-
भाग दौड़ उठा पटक के बीच
थोड़ी थोड़ी बँट जाती है साँसे
बची रहती हैं हताशा
दुबकी रहती है समझ मूल्यों की
बच जाती हैं मूर्खता
समय के साथ बची नहीं सभ्यता
बची नहीं मानवता
बस बची रहीं धूर्तता
बचे रहे ठग लुटेरे
मैं जानता हूँ एक दिन
इतना सबकुछ बच जाने के बावजूद भी
नहीं बचेगा समय
नहीं बचेगा जीना
हालांकि बची रहेगी पृथ्वी
बचे रहेंगे विचार।
कवि का विचार एकदम मजबूत है, विश्वास एकदम पक्का। कवि का इरादा है कि बस नज़र समय पर बनाए रखनी चाहिए। यह बहुत महत्वपूर्ण भी है-
जब खिल उठेंगे रंग
जमेंगे ॠतुओं के मुख पर
देखना खुल उठेगा नभ
हवाओं में बहेगी खुशबुएँ
खुलेंगे बंधन
आँखों में चमकेंगे सपनें
तुम अपना विश्वास बनाये रखना
नजर समय पर जमाये रखना।
संजय छीपा आश्वस्त हैं कि वो रोशनी भरकर आएंगे, जब भी आएंगे रोशनी से भरे आएंगे। कवि सूरज को भी चुनौती देने का दम रखता है-
लो गिरी दीवारें
सुनो तुम लगाकर कान
आसमान खुल गया समूचा
अब सबको दिखाई देगा चाँद
अब नये सिरे से टांगेगे सितारे
सुनो सूरज
तुम जरा देर से उगना
हमे देख लेने दो जी भरकर अंधेरा
अब हम आयेंगे तो
रोशनी भरकर आयेंगे।
संजय ने अलग अलग शेड की कविताओं को लिखा है, यह कवि के सामर्थ्य को दर्शाता है। कवि के पैरों को चलने का चाव है-
एक राह ऐसी भी हो
जो गुजरे होकर ह्रदय से
इस राह पर कहीं भी न हो पुल
सिर्फ बिछा रहे प्रेम
पैरों में चलने का चाव हो
धूप के चेहरे पर जमी छांव हो।
संजय पीपल की छाँव के नीचे बैठकर सोचते हैं कि कविता का फैलाव कितना है, शब्दों का वज़न कितना है, इंसान की सोच कितनी विराट है और उसने कविता के सिवा और क्या पाया-
मैं कविता में जितना फैला हूँ
भीतर से उतना ही संकुचित और मैला हूँ
मेरे पास शब्दों की आवाजाही हैं
गुजरती हुई दुनिया की कड़वाहट है
और एक अदद आदमी की तलाश हैं
मैं अपने को उस ओर ढ़ो नहीं पाता
जिस ओर रिश्तें हैं ख्वाहिशे हैं
मैं नितान्त अकेला हूँ
और कविता से चिपका हुआ हूँ
मैं पीपल की छाँव के नीचे बैठ कर
झूठ बोलने के तरीके ढूंढ रहा हूँ
और सोच रहा हूँ सच केवल यह पीपल है
और उसकी घनी छाँव हैं
मैं जो सोच रहा हूँ वह सब झूठ हैं
मैं जो जी रहा हूँ वह भी झूठ है
कविता ने बचा लिया हैं मुझे
शब्दों की आड़ में छुपा हुआ हूँ मैं
मुझे आईना पहचानता हैं
पर उसकी मजबूरी हैं वह बोल नहीं पाता
इस पीपल की छाँव के नीचे सोचता हूँ
कहाँ तक छुपाऊंगा खुद को
कहाँ ले जाऊँगा भीतर को
एक दिन उघड़ जाऊँगा मैं
हो जाऊँगा बाहर कविता से
एक निरा जिस्म बनकर
एक कड़वी साँस लेकर।
इस पीपल की छाँव के नीचे बैठ कर
बहुत कुछ सोच लिया हैं मैंने
एक अदद कविता के सिवा
कुछ नहीं पा सका मैं।
संजय ने महिलाएँ और गीत कविता बनाकर महिलाओं पर एक अनमोल कविता लिख डाली है-
महिलाएँ उघेर रहीं हैं गीत
अपने गीतों में मना रहीं देवों को
उनके हाथों में मेहंदी के रंग हैं
जो समृध्दि को लुभाने रिझाने में गहरे हो गये हैं
उनके गीतों में कहीं नहीं हैं चूल्हा
उनके गीतों की आवाज में दब गई हैं बरतनों की गूँज
उनके चेहरों पर एक खुशी हैं
जो दीवारों के इर्द गिर्द पुत गई हैं
और धीरे-धीरे एक मैल उतरता जा रहा हैं
एक गीत के अलावा कुछ नहीं महिलाओं के पास
धान भरने के कोठे को खाली होता देखकर
या अपने बच्चों के पिचके पेटों को देखकर
वह अक्सर उकेरने लगती हैं गीत
बाट जोहती हैं देवों की
अपनी मुसीबतों और कष्टों को बनाकर राग
उकेरती हैं गीतों में बिना किसी संगीत के
महिलाओं के गीत में कहीं नहीं हैं प्रेम
न ही कहीं कोई प्रेमी प्रियतम या साजन
पर एक समर्पण को शामिल कर
वह शामिल कर लेती हैं अपना प्रेम और प्रेमी
महिलाएं मुक्त होना चाहती हैं
अपनी पीड़ाएँ दबाना चाहती हैं
अपने गीतों के स्वर में,
अपनी पीड़ा और अपनी इच्छाएँ
अपने स्वर में भरकर वह सौंपना चाहती हैं देवों को
वह करना चाहती हैं हल्का अपने प्रियतम का बोझ
घर की देहरी द्वार पर छिड़कती हैं गंगाजल और गऊमूत्र
और अपने गीतों में भरकर निष्ठा
वह जगाती हैं अपना कंठ
महिलाएं कभी हताश या निराश नहीं होती
वह यातनाओं को अपने गीतों में भरकर
एक राग के सहारे
उतार देती हैं आकाश के पार
जगा लेती हैं चेतना।
वो लोग संजय की एक ऐसी कविता है जो समाज के हर उस आदमी को समर्पित है जो समाज के निर्माण में मरखप जाता है। हाशिए पर रहने वाला यह आदमी अलग अलग कार्य कर रहा है-
वो लोग कब आयेंगे
जो किसी कविता में नहीं थे
जिन्हें तलाश रहा फूल
जिन्हें ढूंढ रहा पेड़
जिन्हें ढूंढते ढूंढते सूख गई कई नदियाँ
खामोश हो गये झरने
ये वो लोग हैं
जिनकी आहट से पकती हैं फसलें
झूमती हैं बालिया
चहकते हैं पंछी
नाचते हैं मोर
गाती हैं कोयल
कोई खोज खबर तो लो उन लोगों की
जिनके पदचिह्नों पर खड़ी हैं सभ्यता
जो सच को दे गये अमरत्व
कहाँ हैं वे लोग
जिनके पसीने से खिलते थे फूल
जिनकी भुजाओं में रहती थी दुनिया
जिनके पैरों से बनती थी झीलें
हमें तलाशना होगा मिलकर
उन आदमियों को जो जरूरत हैं सभ्यता की
जिनसे मिलकर सच को मिलेगी रोशनी
जिनके बिना कविता अधूरी हैं और
अर्थ मरे हुए हैं
संजय ने आदमी और बाजार कविता के माध्यम से बाज़ारवाद का कड़वा सच सामने लाया है। कविता कितनी खूबसूरत है! कवि ने अपनी भाषा में शानदार शब्दों का प्रयोग किया है। बाज़ार पर आए दिन ढेरों कविताएँ लिखी जा रही हैं, लेकिन संजय ने सधे हुए शब्दों को कुशलता से पिरोया है। वो आदमी जो बाज़ार खड़ा करता है, बाज़ार में खड़ा भी नहीं रह पाता। वो हांफता हुआ घर पहुंचता है और केवल एक बात याद रखता है कि सांस लेना ज़रूरी है-
एक आदमी जो बाजार में होकर भी
बाजार में कहीं नहीं हैं
उस आदमी को कुछ खरीदना भी नहीं हैं
फिर भी वह रोज गुजरता हैं घूमता हैं
भरे हुए बाजारों के बीच
अपने भीतर को तलाशता
अपनी घुटन को तराशता
वह रोज देखता हैं संवेदना की मंहगाई
और प्रेम की कालाबाजारी
दिनोंदिन बाजार से गुम होते जा रहे रिश्तों की खरीदफरोख्त
अपनी जुबान पर तल्खी का स्वाद भरकर
यह आदमी घर पहुँचता हैं सिर्फ एक गुस्सा और टूटी थकी देह लेकर
अपनी संवेदना रिश्तों और प्रेम को दांव पर लगाकर
घर आया यह आदमी सिर्फ याद रखता हैं साँस लेना
बाकी सब छोड़ आता हैं संवेदनहीन बाजार की
भीड़ भरी सडक़ों पर।
संजय छीपा निराशा में भी सम्भावना तलाश लेते हैं। कविता आदमी की संभावना टटोलती है। कवि कहता है कि एक सम्भावना की धुरी पर ही तो टिकी है पृथ्वी-
हम हार कर भी
बिना हुए निराश
ढूंढते रहते हैं
जीतने की संभावनाएं
हमारी संभावनाओ के साथ साथ
चलती रहती हैं अदृश्य सी कामनाएं
हमारे हाथों में छुपी रहती हैं
हमारे हुनर की संभावनाएं
एक संभावना की धुरी पर
टिकी हुई है दुनिया
जैसे सागर के भीतर छुपी हुई हैं
मोती की संभावना
वैसे ही कितनी सुन्दर लगती हैं कविता
जब ढूंढती हैं आदमी की
संभावना।
कवि विचार और हवा के बीच के संबंधों को जानता है। जब सशक्त विचार हवा के भीतर घुलमिल जाते हैं तो फिर आँधी पैदा करते हैं। यह कविता कवि की एक सशक्त कविता है। यह ताकतवर कविता एक उदाहरण है कि वैचारिक कविता ऐसे भी लिखी जा सकती है। संजय कहते हैं हवा होने से पहले विचारों को एक दिशा देना ज़रूरी है-
हवा के साथ साथ करते हैं सफर
विचार भी
वो पहुँच जाते हैं हर जगह
होकर सवार हवा पर
कभी कभी हवा के भीतर घुलकर
पैदा करते हैं आँधी
हवा और विचार देते नहीं दिखाई
एक अदृश्य सी उनकी सता
किन्तु पैदा करते हैं ठंडक
बचाते है तपने से
हवा और विचारों की तीव्रता से
उठी है कई क्रांतियाँ
बदले है कई युग
एक लहूलुहान इतिहास को संभाला है
विचारों ने
एक दिशा दी हवा के साथ बहकर
मैं बहुत संभाल कर रखता हूँ
विचारों को
उन्हें देता हूँ एक दिशा
हवा होने से पहले।
000
परख छत्तीस नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2019/02/blog-post_73.html?m=1
हवा होने से पहले !
गणेश गनी
संजय छीपा |
वैश्वीकरण और बाज़ारवाद के इस अजीब समय में सबसे कठिन काम है सरलता बनाए रखना और साधारण होना। जबकि लोग एक ऐसी दौड़ में हैं जो जीवन को कठिन और जटिल बना रही है। दरअसल कवि मैं धैर्य भी चाहिए और संजय में यह बात है। कोई आठ माह पहले एक दिन मेरे मैसेंजर पर एक सन्देश आता है। संजय ने बताया कि वो बचपन से साहित्य पढ़ रहे हैं, लेकिन कविता पिछले चार माह से लिख रहे हैं। मैं थोड़ा आश्वस्त तब हुआ जब संजय ने बताया कि वो कैसा साहित्य पढ़ते आ रहे हैं। वरना कई लोग तो पल्प लिटरेचर से ही पुस्तकालय बनाए बैठे हैं। फिर भी सच कहूं तो मैं संजय की कविताओं को गम्भीरता से नहीं ले रहा था। कल एक कविता हवा और विचार ने मुझे संजय की कविताओं को फिर से पढ़ने पर मजबूर किया, तो पाया कि शुरू से अब तक कि कविताएँ कवि में लगातार ग्रोथ दिखा रही हैं। कवि संजय छीपा कहते हैं-
मैं साधारण ही बने रहना चाहता हूँ
एक साधारण प्रकृति की तरह
जैसे एक साधारण पेड़ के नीचे बिछी रहती हैं
विस्तृत छाँव
जैसे एक नदी बहती रहती हैं अपने मार्ग पर
बिना किसी असाधारण प्रतिक्रिया के
बनी रहती हैं मीठी साधारण और असाधारण के बीच
साधारण होना स्वीकारना है मौन को
साधारण होना विरोध नहीं करना है
साधारण होना जीना है विरोध के बीच
साधारण होना कोई अर्थ नहीं देता
वह देता है विचार अर्थहीन शब्दों को
हालांकि साधारण होना कविता भी नहीं है
पर वह कविता का विषय है
जिस पर लिखी जाती है कविता।
कवि ने एक बात कमाल की कही है। हालांकि साधारण होना कविता भी नहीं है, पर वह कविता का विषय है
जिस पर लिखी जाती है कविता। संजय जैसा कवि भले ही मशहूर नहीं है। कोई भी नहीं जानता इस कवि को। पर लगता है कि यह कवि पढ़ता बहुत है, इसे कविता से प्रेम है, यह चुपचाप लिखता रहता है, बिना यह सोचे कि उसकी कविता कहाँ तक पहुँचेगी। वो सवाल ही नहीं करता-
करो यदि सवाल तो
रहे जवाबदेही
सवाल की भी,
क्यूँकि जरूरी नहीं कि
आये जवाब
पर कम से कम
रहे खड़ा सवाल।
कवि संजय चाहता है कि जब सब को कोई न कोई साथ मिला है तो क्यों न आदमी को भी साथ न मिले। कवि दुःखी इसी बात से है कि आदमी ही आदमी के साथ नहीं-
रात के साथ है चाँद
सुबह के साथ सूर्य
जल हवा प्रकृति
है धरा के साथ
साथ सारी सृष्टि
रहती किसी न किसी के
किन्तु साथ नहीं
आदमी के आदमी।
संजय छीपा कहते हैं कि एक दिन नहीं बचेगा समय, तब बेशक सब कुछ बचा रहे-
भाग दौड़ उठा पटक के बीच
थोड़ी थोड़ी बँट जाती है साँसे
बची रहती हैं हताशा
दुबकी रहती है समझ मूल्यों की
बच जाती हैं मूर्खता
समय के साथ बची नहीं सभ्यता
बची नहीं मानवता
बस बची रहीं धूर्तता
बचे रहे ठग लुटेरे
मैं जानता हूँ एक दिन
इतना सबकुछ बच जाने के बावजूद भी
नहीं बचेगा समय
नहीं बचेगा जीना
हालांकि बची रहेगी पृथ्वी
बचे रहेंगे विचार।
कवि का विचार एकदम मजबूत है, विश्वास एकदम पक्का। कवि का इरादा है कि बस नज़र समय पर बनाए रखनी चाहिए। यह बहुत महत्वपूर्ण भी है-
जब खिल उठेंगे रंग
जमेंगे ॠतुओं के मुख पर
देखना खुल उठेगा नभ
हवाओं में बहेगी खुशबुएँ
खुलेंगे बंधन
आँखों में चमकेंगे सपनें
तुम अपना विश्वास बनाये रखना
नजर समय पर जमाये रखना।
संजय छीपा आश्वस्त हैं कि वो रोशनी भरकर आएंगे, जब भी आएंगे रोशनी से भरे आएंगे। कवि सूरज को भी चुनौती देने का दम रखता है-
लो गिरी दीवारें
सुनो तुम लगाकर कान
आसमान खुल गया समूचा
अब सबको दिखाई देगा चाँद
अब नये सिरे से टांगेगे सितारे
सुनो सूरज
तुम जरा देर से उगना
हमे देख लेने दो जी भरकर अंधेरा
अब हम आयेंगे तो
रोशनी भरकर आयेंगे।
संजय ने अलग अलग शेड की कविताओं को लिखा है, यह कवि के सामर्थ्य को दर्शाता है। कवि के पैरों को चलने का चाव है-
एक राह ऐसी भी हो
जो गुजरे होकर ह्रदय से
इस राह पर कहीं भी न हो पुल
सिर्फ बिछा रहे प्रेम
पैरों में चलने का चाव हो
धूप के चेहरे पर जमी छांव हो।
संजय पीपल की छाँव के नीचे बैठकर सोचते हैं कि कविता का फैलाव कितना है, शब्दों का वज़न कितना है, इंसान की सोच कितनी विराट है और उसने कविता के सिवा और क्या पाया-
मैं कविता में जितना फैला हूँ
भीतर से उतना ही संकुचित और मैला हूँ
मेरे पास शब्दों की आवाजाही हैं
गुजरती हुई दुनिया की कड़वाहट है
और एक अदद आदमी की तलाश हैं
मैं अपने को उस ओर ढ़ो नहीं पाता
जिस ओर रिश्तें हैं ख्वाहिशे हैं
मैं नितान्त अकेला हूँ
और कविता से चिपका हुआ हूँ
मैं पीपल की छाँव के नीचे बैठ कर
झूठ बोलने के तरीके ढूंढ रहा हूँ
और सोच रहा हूँ सच केवल यह पीपल है
और उसकी घनी छाँव हैं
मैं जो सोच रहा हूँ वह सब झूठ हैं
मैं जो जी रहा हूँ वह भी झूठ है
कविता ने बचा लिया हैं मुझे
शब्दों की आड़ में छुपा हुआ हूँ मैं
मुझे आईना पहचानता हैं
पर उसकी मजबूरी हैं वह बोल नहीं पाता
इस पीपल की छाँव के नीचे सोचता हूँ
कहाँ तक छुपाऊंगा खुद को
कहाँ ले जाऊँगा भीतर को
एक दिन उघड़ जाऊँगा मैं
हो जाऊँगा बाहर कविता से
एक निरा जिस्म बनकर
एक कड़वी साँस लेकर।
इस पीपल की छाँव के नीचे बैठ कर
बहुत कुछ सोच लिया हैं मैंने
एक अदद कविता के सिवा
कुछ नहीं पा सका मैं।
संजय ने महिलाएँ और गीत कविता बनाकर महिलाओं पर एक अनमोल कविता लिख डाली है-
महिलाएँ उघेर रहीं हैं गीत
अपने गीतों में मना रहीं देवों को
उनके हाथों में मेहंदी के रंग हैं
जो समृध्दि को लुभाने रिझाने में गहरे हो गये हैं
उनके गीतों में कहीं नहीं हैं चूल्हा
उनके गीतों की आवाज में दब गई हैं बरतनों की गूँज
उनके चेहरों पर एक खुशी हैं
जो दीवारों के इर्द गिर्द पुत गई हैं
और धीरे-धीरे एक मैल उतरता जा रहा हैं
एक गीत के अलावा कुछ नहीं महिलाओं के पास
धान भरने के कोठे को खाली होता देखकर
या अपने बच्चों के पिचके पेटों को देखकर
वह अक्सर उकेरने लगती हैं गीत
बाट जोहती हैं देवों की
अपनी मुसीबतों और कष्टों को बनाकर राग
उकेरती हैं गीतों में बिना किसी संगीत के
महिलाओं के गीत में कहीं नहीं हैं प्रेम
न ही कहीं कोई प्रेमी प्रियतम या साजन
पर एक समर्पण को शामिल कर
वह शामिल कर लेती हैं अपना प्रेम और प्रेमी
महिलाएं मुक्त होना चाहती हैं
अपनी पीड़ाएँ दबाना चाहती हैं
अपने गीतों के स्वर में,
अपनी पीड़ा और अपनी इच्छाएँ
अपने स्वर में भरकर वह सौंपना चाहती हैं देवों को
वह करना चाहती हैं हल्का अपने प्रियतम का बोझ
घर की देहरी द्वार पर छिड़कती हैं गंगाजल और गऊमूत्र
और अपने गीतों में भरकर निष्ठा
वह जगाती हैं अपना कंठ
महिलाएं कभी हताश या निराश नहीं होती
वह यातनाओं को अपने गीतों में भरकर
एक राग के सहारे
उतार देती हैं आकाश के पार
जगा लेती हैं चेतना।
वो लोग संजय की एक ऐसी कविता है जो समाज के हर उस आदमी को समर्पित है जो समाज के निर्माण में मरखप जाता है। हाशिए पर रहने वाला यह आदमी अलग अलग कार्य कर रहा है-
वो लोग कब आयेंगे
जो किसी कविता में नहीं थे
जिन्हें तलाश रहा फूल
जिन्हें ढूंढ रहा पेड़
जिन्हें ढूंढते ढूंढते सूख गई कई नदियाँ
खामोश हो गये झरने
ये वो लोग हैं
जिनकी आहट से पकती हैं फसलें
झूमती हैं बालिया
चहकते हैं पंछी
नाचते हैं मोर
गाती हैं कोयल
कोई खोज खबर तो लो उन लोगों की
जिनके पदचिह्नों पर खड़ी हैं सभ्यता
जो सच को दे गये अमरत्व
कहाँ हैं वे लोग
जिनके पसीने से खिलते थे फूल
जिनकी भुजाओं में रहती थी दुनिया
जिनके पैरों से बनती थी झीलें
हमें तलाशना होगा मिलकर
उन आदमियों को जो जरूरत हैं सभ्यता की
जिनसे मिलकर सच को मिलेगी रोशनी
जिनके बिना कविता अधूरी हैं और
अर्थ मरे हुए हैं
संजय ने आदमी और बाजार कविता के माध्यम से बाज़ारवाद का कड़वा सच सामने लाया है। कविता कितनी खूबसूरत है! कवि ने अपनी भाषा में शानदार शब्दों का प्रयोग किया है। बाज़ार पर आए दिन ढेरों कविताएँ लिखी जा रही हैं, लेकिन संजय ने सधे हुए शब्दों को कुशलता से पिरोया है। वो आदमी जो बाज़ार खड़ा करता है, बाज़ार में खड़ा भी नहीं रह पाता। वो हांफता हुआ घर पहुंचता है और केवल एक बात याद रखता है कि सांस लेना ज़रूरी है-
एक आदमी जो बाजार में होकर भी
बाजार में कहीं नहीं हैं
उस आदमी को कुछ खरीदना भी नहीं हैं
फिर भी वह रोज गुजरता हैं घूमता हैं
भरे हुए बाजारों के बीच
अपने भीतर को तलाशता
अपनी घुटन को तराशता
वह रोज देखता हैं संवेदना की मंहगाई
और प्रेम की कालाबाजारी
दिनोंदिन बाजार से गुम होते जा रहे रिश्तों की खरीदफरोख्त
अपनी जुबान पर तल्खी का स्वाद भरकर
यह आदमी घर पहुँचता हैं सिर्फ एक गुस्सा और टूटी थकी देह लेकर
अपनी संवेदना रिश्तों और प्रेम को दांव पर लगाकर
घर आया यह आदमी सिर्फ याद रखता हैं साँस लेना
बाकी सब छोड़ आता हैं संवेदनहीन बाजार की
भीड़ भरी सडक़ों पर।
संजय छीपा निराशा में भी सम्भावना तलाश लेते हैं। कविता आदमी की संभावना टटोलती है। कवि कहता है कि एक सम्भावना की धुरी पर ही तो टिकी है पृथ्वी-
हम हार कर भी
बिना हुए निराश
ढूंढते रहते हैं
जीतने की संभावनाएं
हमारी संभावनाओ के साथ साथ
चलती रहती हैं अदृश्य सी कामनाएं
हमारे हाथों में छुपी रहती हैं
हमारे हुनर की संभावनाएं
एक संभावना की धुरी पर
टिकी हुई है दुनिया
जैसे सागर के भीतर छुपी हुई हैं
मोती की संभावना
वैसे ही कितनी सुन्दर लगती हैं कविता
जब ढूंढती हैं आदमी की
संभावना।
कवि विचार और हवा के बीच के संबंधों को जानता है। जब सशक्त विचार हवा के भीतर घुलमिल जाते हैं तो फिर आँधी पैदा करते हैं। यह कविता कवि की एक सशक्त कविता है। यह ताकतवर कविता एक उदाहरण है कि वैचारिक कविता ऐसे भी लिखी जा सकती है। संजय कहते हैं हवा होने से पहले विचारों को एक दिशा देना ज़रूरी है-
हवा के साथ साथ करते हैं सफर
विचार भी
वो पहुँच जाते हैं हर जगह
होकर सवार हवा पर
कभी कभी हवा के भीतर घुलकर
पैदा करते हैं आँधी
हवा और विचार देते नहीं दिखाई
एक अदृश्य सी उनकी सता
किन्तु पैदा करते हैं ठंडक
बचाते है तपने से
हवा और विचारों की तीव्रता से
उठी है कई क्रांतियाँ
बदले है कई युग
एक लहूलुहान इतिहास को संभाला है
विचारों ने
एक दिशा दी हवा के साथ बहकर
मैं बहुत संभाल कर रखता हूँ
विचारों को
उन्हें देता हूँ एक दिशा
हवा होने से पहले।
000
गणेश गनी |
परख छत्तीस नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2019/02/blog-post_73.html?m=1
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें