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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

03 नवंबर, 2024

 फेर्नान्दो पेस्सोआ की कविताऍं

 अनुवाद: सरिता शर्मा 

फेर्नान्दो पेस्सोआ बीसवीं सदी के आरम्भ के पुर्तगाली कवि, लेखक, समीक्षक व अनुवादक और दुनिया के महानतम कवियों में से एक हैं। उनका जन्म 13 जून 1888 को लिस्बन में हुआ था। अपने पूरे जीवन काल में उन्होंने 72 मिथ्या नामों या

हेट्रोनिम् की आड़ से सृजन किया, जिन में से तीन प्रमुख थे। और हैरानी की बात तो यह है कि इन सभी हेट्रोनिम् या छद्म नामों की अपनी अलग जीवनी, दर्शन, स्वभाव, रूप-रंग व लेखन शैली थी। पेस्सोआ के जीते-जी उनकी एक ही किताब प्रकाशित हुई। मगर 30 नवम्बर 1935 को उनकी मृत्यु के बाद, एक पुराने ट्रंक से उनके द्वारा लिखे 25000 से भी अधिक पन्ने  मिले, जो उन्होंने अपने अलग-अलग नामों से लिखे थे। पुर्तगाल की नेशनल लाइब्रेरी में इनके सम्पादन का काम आज भी जारी है।


कविताऍं

1.

मैं गडरिया हूँ

भेड़ें मेरे ख़याल हैं और 

हर ख़याल संवेदना।

मैं सोचता हूँ अपनी आँखों और कान से 

हाथ और पांव से, नाक और मुंह से भी।

फूल के बारे में सोचना उसे देखना और सूंघना है।

और फल को खाना उसका अर्थ जान लेना है।

इसी वजह से एक गर्म दिन में 

बहुत ख़ुशी के बीच मैं उदास हो जाता हूँ,

और घास पर लेट कर

मूंद लेता हूँ अपनी आँखें।

तो लगता है मेरा समूचा शरीर सच में लेटा हुआ है,

मैं सत्य जानता हूँ, और मैं खुश हूँ। 


2.

धीमे- धीमे बहुत धीमे 

हौले से हवा चलती है,

और गुजर जाती है यूं ही धीमे से,

नहीं जानता मैं क्या सोच रहा हूँ,

न ही जानना चाहता हूँ। 


3.

सिर्फ प्रकृति दैवी है, और वह दैवी नहीं है 

अगर मैं उसे कभी व्यक्ति कहता हूँ 

तो सिर्फ इसलिए क्योंकि मैं मनुष्य मात्र की भाषा बोल पाता हूँ 

जो चीजों का नामकरण कर देती है

और उन्हें व्यक्तित्व से संपन्न बना देती है।

मगर चीजें नाम या व्यक्तित्वविहीन हैं;

वे बस हैं, और आकाश विशाल है धरती विस्तृत 

और हमारा दिल मुट्ठी भर ..

आभारी हूँ अपने अज्ञान का 

मैं वस्तुतः वही हूँ...

आनंद लेता हूँ इन सबका वैसे ही 

जैसे कोई जानता हो सूरज विद्यमान है।


अगर आप मुझमें रहस्यवाद देखना चाहें तो ठीक है मेरे पास है 

मैं रहस्यवादी हूँ, पर शरीर में ही

मेरी आत्मा सीधी सादी है सोचती नहीं 

मेरा रहस्यवाद ज्ञान की कमी नहीं 

वह जीना और उसके बारे में न सोचना है।

मुझे नहीं पता प्रकृति क्या है: मैं इसे गाता हूँ,

एक पहाड़ की चोटी पर रहता हूँ

एकांत सफेदीपुते घर में, 

और वह मेरी परिभाषा है 


4.

आज पढ़े मैंने दो पन्ने 

किसी रहस्यवादी कवि की किताब के 

और हँस पड़ा हालांकि रोया भी सकता था 

रहस्यवादी कवि रुग्ण दार्शनिक हैं 

और दार्शनिक पगले होते हैं

जो कहते हैं फूल महसूस करते हैं 

और पत्थरों में आत्माएं हैं 

और चाँदनी में नदियां उन्मादी हो जाती हैं 

मगर फूल नहीं रहेंगे फूल अगर वे सोचने लगे

वे बन जायेंगे इन्सान

और यदि पत्थर आत्मवान होते वे जीवित हो जाते, पत्थर कहां रहते;

और नदियां अगर हो जाती उन्मादी चाँदनी में 

वे बीमार इन्सान हो जातीं।

जिन्हें समझ नहीं फूलों, पत्थरों और नदियों की 

वही बात कर सकते हैं उनकी आत्माओं की।

जो बताते हैं पत्थरों, फूलों और नदियों की आत्माओं के बारे में 

अपनी और अपनी मिथ्या धारणाओं की बात करते हैं।

शुक्र है पत्थर महज पत्थर हैं,

और नदियां सिर्फ नदियां 

फूल केवल फूल हैं। 

जहां तक मेरा सवाल है, अपनी कविताओं का गद्य लिखता हूँ 

और संतुष्ट हूँ 

कि जानता हूँ प्रकृति को बाहर से 

इसके भीतर क्या है नहीं जानता 

क्योंकि प्रकृति के भीतर कुछ भी नहीं 

कुछ होता तो वह प्रकृति न रहती।


5.

सब प्रेम पत्र होते हैं

बेतुके।

अगर बेतुके न होते तो प्रेम पत्र न होते।

अपने ज़माने में मैंने भी लिखे थे प्रेम पत्र 

ऐसे ही एकदम बेतुके 

प्रेम पत्र, अगर प्रेम है,

वह जरूर बेतुका होगा।

मगर सच यह है 

जिन्होंने नहीं लिखे कभी प्रेम पत्र


वे हैं बेतुके।

काश मैं लौट पाता उस काल में 

जब लिखे थे मैंने प्रेम पत्र 

बिना यह सोचे

कितना बेतुका था सब कुछ।

०००

अनूवादिका का परिचय 

सरिता शर्मा (जन्म- 1964) ने अंग्रेजी और हिंदी भाषा में स्नातकोत्तर तथा अनुवाद, पत्रकारिता, फ्रेंच, क्रिएटिव राइटिंग और फिक्शन राइटिंग में डिप्लोमा प्राप्त किया। पांच वर्ष तक

नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया में सम्पादकीय सहायक के पद पर कार्य किया। बीस वर्ष तक राज्य सभा सचिवालय में कार्य करने के बाद नवम्बर 2014 में सहायक निदेशक के पद से स्वैच्छिक सेवानिवृति। कविता संकलन ‘सूनेपन से संघर्ष, कहानी संकलन ‘वैक्यूम’, आत्मकथात्मक उपन्यास ‘जीने के लिए’ और पिताजी की जीवनी 'जीवन जो जिया' प्रकाशित। रस्किन बांड की दो पुस्तकों ‘स्ट्रेंज पीपल, स्ट्रेंज प्लेसिज’ और ‘क्राइम स्टोरीज’, 'लिटल प्रिंस', 'विश्व की श्रेष्ठ कविताएं', ‘महान लेखकों के दुर्लभ विचार’ और ‘विश्वविख्यात लेखकों की 11 कहानियां’  का हिंदी अनुवाद प्रकाशित। अनेक समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में कहानियां, कवितायें, समीक्षाएं, यात्रा वृत्तान्त और विश्व साहित्य से कहानियों, कविताओं और साहित्य में नोबेल पुरस्कार विजेताओं के साक्षात्कारों का हिंदी अनुवाद प्रकाशित। कहानी ‘वैक्यूम’  पर रेडियो नाटक प्रसारित किया गया और एफ. एम. गोल्ड के ‘तस्वीर’ कार्यक्रम के लिए दस स्क्रिप्ट्स तैयार की। 

संपर्क:  मकान नंबर 137, सेक्टर- 1, आई एम टी मानेसर, गुरुग्राम, हरियाणा- 122051. मोबाइल-9871948430.

ईमेल: sarita12aug@hotmail.com


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