दीपावली मुबारक!
कहानियों से बाहर निकलकर देखो
और बताओ
कि तुम्हारी अपनी ज़िंदगी में
तुम्हारे अपने अनुभव में
तुम्हारे बिल्कुल आसपास
कितना
और कितनी बार
अंधेरा हारा है
और मामूली सा दिया
सिर उठा कर जीता है
सच सच बताना
वाट्सऐप के संदेशों की तरह
लच्छेदार
ख़ूबसूरत झूठ मत बोलना
क्योंकि
बताना ख़ुद को है
मुझे नहीं
देखो!
अपने चारों ओर
पूरी दुनिया में देखो
यह जो रौशनी का साम्राज्य फैला हुआ है
वह अंधेरे की
पर्सनल प्रॉपर्टी है
भले
थोड़ा अग्ली
थोड़ा डर्टी है
पर है तो साम्राज्य ही
ज़्यादा दूर मत जाओ
अपने जन प्रतिनिधियों को ही देखो
और सीने पर हाथ रखकर कहो
कि ये सचमुच
नन्हें नन्हें मासूम दिये हैं
और विशाल अंधेरे से
लड़ रहे हैं
या रौशनी के दलाल हैं
जो संपत्ति के कचरे में
सड़ रहे हैं और फैला रहे हैं सड़ांध
तुम्हारे प्यारे देश में
जिसके गीत
खड़े होकर गाते हो
और फिर पांच साल के लिए
बैठ जाते हो
और दूर जाना ही है
तो गाज़ा पट्टी में जाओ
यूक्रेन रूस फिलीस्तीन
इज़राइल में जाओ
और देखो
दिया जीत रहा है
या बारूद के ढेर पर
फटने की तैयारी कर रहा है
आप जिस भी क्षेत्र में हो
जिस गांव में
जिस शहर में
जिस धंधे में
मुझे एक बार
सिर्फ़ एक बार सच सच बताओ
कि वहां
अंधेरा किस हाल में है
और दिया कितनी देर का
मेहमान है
उत्तर तुम भी जानते हो
उत्तर मैं भी जानता हूं
फिर भी हम
एक बासी मुहावरा दुहरा रहे हैं
क्योंकि
सच्चाई से अपना चेहरा छिपा रहे हैं
और एक मामूली से दिये के कंधे पर
अपनी ज़िम्मेदारियों का पहाड़ रखकर
शूगरफ्री मिठाइयां टूंग रहे हैं
दरअसल
सच तो यह है कि
अंधेरा बना रहे
अंधेरा बचा रहे
और अंधेरे में हमें भी अंधेरे के टुच्चे मौके मिलें
इस लिए
अंधेरे के ख़िलाफ़ हर बार
एक कमज़ोर
मासूम
असहाय सा दिया
अंधेरे की गोद में
छटपटाकर मरने को छोड़ देते हैं
कभी कभी
ऐसे लाखों दिये
अंधेरा ही स्पॉन्सर करता है
और एक पहर रात तक
उनकी अधमरी रौशनी में
दिये के बलिदान के गीत गाता है
जो जल नहीं पाए
वे भी प्रसन्न हैं
क्योंकि कवि की भाषा में
अंधेरे का उच्छिष्ट ही
उनका अन्न है
अंधेरा नहीं चाहता
कि कोई मशाल जले
और धधक कर पूरे आसमान को रौशन कर दे
इसलिए
वह कवियों से
चिंतकों से
दिये की स्तुतियां करवाता है
किसानों के पर्व को
उनसे मनवाता है
जो किसान शब्द की
वर्तनी तक भूल गए हैं
इन भावुक कविताओं
उबाऊ संदेशों
रंगीन चित्रों के नीचे
एक छोटा सा दिया
रात चढ़ने से पहले ही मर जाता है
जब आप
पेट भर खाकर
या तो जुआ खेल रहे होते हो
या बारूद का धुआं झेल रहे होते हो
और दिये का निरर्थक बलिदान
एक और साल के लिए
मुल्तवी हो जाता है
और साल भर
बुझा हुआ दिया
अंधेरे के गीत गाता है
०००
अमावस
दंडपाणि सम्राट ने
लाखों-करोड़ों दियोंं में
छटांक भर तेल
चुटकी भर बाती डालकर
धीर गंभीर स्वर में कहा
तुम हो
परंपरा और
संस्कृति के वाहक
इस अमावस के आगे
घुटने मत टेकना
जब तक जल सकते हो
जलो!
और लगे हाथों
धधकती मशालों को
आदेश किया
जाओ
दरबार को रौशन करो
हमारी महफ़िल में
अंधेरे का क़तरा भी
नज़र नहीं आना चाहिए
लपलपाती बिजलियों से कहा
बाज़ार को अंधेरे की
नज़र न लगने पाए
जाओ
दिन और रात का फ़र्क मिटा दो
और महफ़िल की ओर
रुख़ करने से पहले
मेहतरों से कहा
भोर में ही
सारे दिये बुहार दीजो
ज़रा सी भी गंदगी
इस पावन नदी के किनारे
बर्दाश्त नहीं की जाएगी
आख़िर
यह ईश्वर का दरबार है
और सम्राट
दियों को अंधेरे में छोड़
रौशनी का उत्सव मनाने
चले गए
दिये
इस बार भी
छले गए
०००
सर्वे भवन्तु सुखिन
जिन्हें जिलानी है
सिर्फ देह
भोगना है
निरे शरीर को
उनके लिए
दुनिया बड़ी ख़ूबसूरत है
हालांकि
वे धरती के
सबसे बदसूरत लोग हैं
जिन्हें जिलाना है
नेह भी
उन्हें जलानी पड़ती है
देह अपनी
समस्त कामनाओं सहित
उस दिये की तरह
जो कल परसों
शोभा था आपकी चौखट का
फ़िलहाल घूरे पर पड़ा है
और दुनिया की
सबसे ख़ूबसूरत शै है
जिन्हें जिलानी है
इन्सानियत
धर्म वर्ण जाति लिंग देश से परे
शुद्ध इन्सानियत
पवित्र इन्सानियत
उन्हें सबसे पहले
होना पड़ता है
शुद्ध और पवित्र
उन तमाम गंदगियों से
जिसे सिरजा है
धर्म वर्ण जाति लिंग देश ने
और धधकना पड़ता है
उस सूरज की तरह
अनायास
जिसे नहीं पता
कि वह रौशनी
लुटाने की कोशिश में
निरंतर मर रहा है
और भर रहा है
आंचल धरती का
पावन उजास से
दुनिया की सबसे पवित्र चीज़
यही है
किंतु
इतनी सी बात
समझने में
कई ज़िंदगियां
बीत जाती हैं
उस पतझड़ की तरह
जो छोड़ तो जाता है
अनगिन सूखे बदरंग पत्ते
पर कोंपलों के लिए
नहीं छोड़ पाता
ज़रा सी जगह
जहां सांस ले सकें
नये हरे पत्ते!
०००
तुकबंदी!
(प्रिय कवि धूमिल को उनकी जयंती पर याद करते हुए।)
वक़्त है
लबाड़
लंपट
लुच्चों का
या उनके
वैध अवैध बच्चों का
अनुप्रास की मजबूरी
ज़रूरी तो नहीं थी
लेकिन
बकौल धूमिल
निष्ठा का तुक
विष्ठा से मिलाना
कवि की हिमाकत से ज़्यादा
वक़्त की नज़ाकत थी
दुल्हन की पालकी
बलात्कारियों के
बेहया कंधों पर होना
और
सियासत का बोझ
नालायक अंधों पर होना
किन्हीं अनुबंधों का
सिला नहीं
दरअसल
वक़्त पर
देश की गाड़ी हांकनेवाला
कोई ठीक-ठाक
मिला ही नहीं
तो बैल की जगह
जनता को
और गाड़ीवान की जगह
गिद्ध को बिठाना
सौंदर्यशास्त्र की दृष्टि से
बेहतर लगा
जबकि
राजनीतिशास्त्र
शासक से अधिक
मेहतर लगा
जो पहले
सफ़ाई की बात कहता है
पीछे से
भितरघात करता है
अब
आप ही बताओ
क्या कोई
वक़्त से बड़ा है
वह भी
जो बढ़िया कपड़े में
खड़ा है
और दैत्याकार पोस्टर पर
भयावह हंसी हंस रहा है
और सार देश
रसातल में धंस रहा है
०००
मृत्यु!
मृत्यु
तथ्य है
सत्य नहीं
मृत्यु
जड़ता है
गति नहीं
मृत्यु
स्तब्ध कर सकती है
निस्तेज कर सकती है
निर्वाक कर सकती है
किंतु
कुछ काल के लिए ही
उसके बाद
स्तब्धता
निस्तेजता
निर्वाकता को
एक ओर धकेलती ज़िंदगी
चल पड़ती है
एक दिन
जब खत्म हो जाएगी पृथ्वी
पांच अरब बरस बाद
तब भी
बची रहेगी ज़िंदगी
इस ब्रह्माण्ड में
किसी और रूप में
किसी और ग्रह पर
फिर जनमेगा अमीबा
फिर अंखुआएंगे बीज
फिर उड़ेंगे परिंदे
रौंदेंगे बनैले पशु
उस ग्रह को
फ़िलहाल
जिसका नाम हमें पता नहीं
इस धरती से
इस ब्रह्माण्ड से
कोई भी
कही नहीं जाएगा
सब यहीं रहेंगे
रूप बदलकर
यह रूप बदलना ही तो
ज़िंदगी है
मौत तो
बदलाव की प्रक्रिया का
सिर्फ़ एक अनिवार्य मोड़ है
एक तथ्य
सत्य नहीं!
०००
सभी कविताये वैचारिकी से प्रछन्न और सुंदर संदेशप्रद झकझोरती हई... साधुवाद पांडेय जी, बिजूका.. कंडवाल मोहन मदन
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