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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

06 नवंबर, 2024

जयश्री सी. कंबार की कविताऍं

 

 

पॉंचवी कड़ी 

डॉ. जयश्री सी. कंबार वर्तमान में के.एल.ई.एस निजलिंगप्पा कॉलेज, बेंगलुरु में अंग्रेजी विषय के सहायक प्राध्यापक पद पर

कार्यरत हैं। उन्होंने 3 यूजीसी प्रायोजित राष्ट्रीय संगोष्ठियों का आयोजन किया है और विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों और सम्मेलनों में शोध पत्र प्रस्तुत किए हैं। उन्होंने 02 कविता संग्रह - 'विस्मय' और 'हसिद सूर्य', 03 नाटक- माधवी और एकलव्य और 1 अनुवाद- बुद्ध, कन्नड़ से अंग्रेजी में प्रकाशित किया है। उनके पास 2 अप्रकाशित नाटक, 2 अनुवादित नाटक और कविताओं का एक संग्रह है। उनकी लघु कथाएँ और कविताएँ कर्नाटक की प्रमुख समाचार पत्रिकाओं और जर्नलों में प्रकाशित हुई हैं। उन्होंने अपने नाटक माधवी के लिए इंदिरा वाणी पुरस्कार जीता है। कन्नड़ में यात्रा वृत्तांतों पर उनके लेख प्रमुख प्रकाशनों में प्रकाशित हुए हैं।

उन्होंने केरल में आयोजित तांतेडम महोत्सव- अखिल महिला लेखिका सम्मेलन में मुख्य भाषण दिया है, त्रिशूर में मध्यम साहित्य उत्सव में एक पैनेलिस्ट के रूप में, लिटिल फ्लावर कॉलेज, गुरुवायूर में राष्ट्रीय संगोष्ठी में मुख्य भाषण दिया है। इसके अलावा उन्होंने 9 जनवरी 2014 को गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर हैदराबाद में आयोजित ऑल इंडिया रेडियो, नई दिल्ली द्वारा आयोजित कवियों की प्रतिष्ठित राष्ट्रीय संगोष्ठी में कविता प्रस्तुत की है। उन्होंने पंजाब, तिरुपति, बैंगलोर, शोलापुर, शिमोगा, मैसूर, कालीकट, लक्षद्वीप और कर्नाटक में कई स्थानों पर आयोजित लेखक-कवि सम्मेलन में भाग लिया है। रंगमंच पर उनकी बातचीत ऑल इंडिया रेडियो, बैंगलोर द्वारा प्रसारित की गई थी। उन्होंने कई अवसरों पर दूरदर्शन पर अपनी कविताओं को भी प्रस्तुत किए हैं। आप 'कन्नड़ सेवा रत्न', 'इंदिरा वाणी राव पुरस्कार' दो बार कन्नड़ साहित्य में योगदान के लिए प्राप्त कर चुकी हैं।

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कविताऍं


सूखा तना जब अंकुरित होता


पडोससिन सिंगारी का एक ही सपना

वही हम और तुम ने जो देखा था

न जाने कितनी बहने देख

देखे सपनों को जला डाले

जानबूझकर भंड बनकर 

फूल सी हँसी के, पंछी सी उड़ान 

चांद को मन में भर लेने वाले

सपने देखती ही रहती है। 

आप के जैसे, मु जैसे।


निःश्वास के ताप से बरसे आँसू

माटी में धीरे से बहते 

करवटे लेती जड़ों की ओर

हमारी जड़ें भी हिलती हैं।

मन में ही उठे शोरगुल की आवाज से

सांस फूलकर कंगाल जब बने

बातें सारी बुदबुदाती हैं।

छाती के घाव पर हाथ फेरकर 

चुभे कांटे को उखाड़ फेंकने पर 

आ टपका देखो विस्मय

देरी से भी निकले चांद

अंधकार नभोमंडल में।

छाती पर गीली मिट्टि

करवट लेती देखकर

कसी हुई जड़ों को ढ़ील कर दी।

चित्त चित्त की पहुँच से भी परे

हाँ कहने वाले शब्द

गले में अभी जब छिपे रहे

मकबरा तोड़ उठकर

कैलाश की सिरि अंकुरित होकर

वटवृक्ष बनकर निहारती सिंगारी।


अब मैं और तुम?

वृक्ष न बने तो भी ऐ जाइए

बैठेंगे टहनियों पर पंछी बनकर।


*****


हे शिव यादों को नहीं दे पाती


खुले दरवाजे में घुसकर

खड़ा हो ही गया सामने?

दिगंत की ऊँचाई तक दिखने वाले ये

मेरे मकान से बढ़कर तो नहीं है।

हिम की आईना आँखों में बस गई है।

इसके आने के तेज आँधी का जुल्फ़

लपेटकर मुझे सर्प नुमा बंधित किया है।

"दे दो मुझे तुम्हारी सारी यादें"

कहते हाथ की झोली दिखा रहा था।


यह किस गांव का शिव है? रहने दो

हाथ आगे बढ़ा दिया तो सुलभ ही कल की 

हजडारों यदें क्या यूँ दे सकती?

तुम्हारी आँखों की रोशनी में

चुभने वाले प्रश्नों को

बिन आवाज के शब्दों से डरकर

यादों को नंगा कर देना आसान नहीं।

यादों की नसें जम गई हैं जड़ें गाड़ कर।


जमकर मन में बसी उन को 

तुम्हारी ओर बहाते हुए में खाली हो गई

फिर नई झील भर जाने की भीति।

हे शिव यादों को दे नहीं सकती

बीते हुए कल आनेवेले कल में

फिर से आने का डर। बजू की गई 

छायाएँ भूत बनकर कोने में 

आईने से हाँक सकती हैं। 

हे शिव, इसलिए 

दे नहीं सकती यादों को आप की 

झोली में।

*****

बात करना ही भूल गई


तब चेहरे भर आँखें खोलकर

जो देखा जता अच्छा लगता

आकाश चंद्रमा मुझे

दिला दो करके जोर कंठ से 

चिल्लाकर, हठ किया था।

हाथ बढ़ाने कहकर

मेरी हथेली मुट्ठी बंद कर

"चांद के पास का नक्षत्र, तुम 

अपने हाथ में पकड़, खोले तो सावधान!"

हथेली में बंदित नक्षत्र

उसकी चमक तब मेरी आँखों में ही!

न जाने कब उंगलियों के बीच में से 

कबी निकल चुका था नक्षत्र!


चाह अनचाह के बीच

चाह-इनचाह की पंक्ति

लेखा-जोका कि क्या चाहिए

सूची बनाकर पूछा तो

मिला आँखों के इशारे की धमकी

निःशब्द आंखों से आँसू की बूंदें....

अब क्या चाहिए क्या न इसकी 

प्रज्ञा है मुझे, अपार

आकाश क  तले झुंझलाहट के शोर

अब भी सूची बढ़ती ही है।

कोई भी डराते नहीं, न ही गाली देते

क्यों कि

मैं बात करना ही भूल गई हूँ।

*****


निषेध


उसकी व्यानिटी बैग

बहुत ही सुंदर और सुडौल है।

उसमें कंघी, पौडर, लिप्स्टिक

न दिखाते हुए आँसू पोंछने

रुमालें भी हैं।

इन सब को हमें ना देखना चाहिए

वह पुस्तक जैसी है

मन भाए सुंदर सी है।

मगर पढ़ना निषिद्ध है

उसमें फेंके गए संबंध हैं

टूटे दिल के टुकड़े हैं

घाव की निशानियाँ हैं

सताते मौन है। 

शब्द दर्द से भार बनकर

पृष्टों को लटक गए हैं। 

पुस्तक सुंदर दिखती है

खोल के न देखना।

*****


माँ क्या तुम्हें पता है ?


ममता की गरमी गोद में तुमसे

देनेवाले सपनों के लिए कातर हूँ।

एक नया रूप बनकर

उंगली चूसते, तुम्हारी

दिल की धड़कन के साथ मेरा

हृदय का लय जोड़ देता हूँ।

माँ तुम्हें मालूम?! तुम्हारे शब्दों को 

ध्वनि देकर अनुकरण करना जानता हूँ

तभी तुम्हारे लिए छोटे छोटे 

राग के टुकड़ों को पिरो रहा था।


आज-कल मुझे कोई आशंका,

ममतारहित स्पर्श

छूता है, लगता है

छाती के धरोहर में कोई उलाहना

सब कोलाहल, संकट

अंधकार में एकाएक आग की 

लाल लपटें निगल रही है।


लुढ़क-लुढ़क के हारकर

थकान से लथपथ हूँ।

दहकर राख बन गया हूँ। सिकुडे से

मेरे पैर. हाथ और मन।

निःश्वास निकलने से 

पहले ही एक और डरावना

कोई तनाव, गोदी के कवच को 

चुभ-चुभ कर और क्या

कहीं फिसलकर निकलते,

अंधकार में कहीं शून्य बन जाता?


और फिर तड़प रहा हूँ

गोदी के किनारे धंसकर

मुरझकर न हैठ सकता

तुम तो निराली बन गई हो।

सपनों को भी देने निराकरण कर गई

पल पल पर तीव्रतर बनता दर्द

साँस  बिलख रहा हूँ

हताश हो गई हूँ, हार गई हूँ।

तितली के पंखों जैसी हिलडुल 

करते मेरे हृदय का लय फिसल रहा है।

माँ, मैं छिद्र होती जा रही हूँ। 

मेरे ऊपर नाम का कवच भी 

न होते हुए बह रही हूँ, बह रही हूँ

टपकती रही हूँ लाल

ला...ल.. बनकर।

*****


 मेरे अंदर की आइना


सपनों सा झूठ नहीं है

सामनेवाली आईना नुमा सच है

जब भी खड़े होते हैं आईने के सामने

आईना जो मुझमें, हिलडुलकर हंगामा करती है।


चेहरे पर रेशा क्यों न हो,

चांद सी बाल देखने नहीं देते

अंदर से ही चुभकर 

उसकी ओर ताकने तक यूँही सताती है।


उसमें बिंब

भूत सेभी भयानक-

मेरी भुजा पर 

सरपट करते सांप

फन खोलकर नाचना दिखता है।

काले धागे जैसी जिह्वाएँ

चमकते मुझे चुभने।


क्या नहीं दिखता तभी बिंब में

एकाध घाव

बिन दुरुस्त बच गये ऐसे ही।

*****


नीड़ बुनती हूँ


नीड़ बुनती हूँ अकेली ही।

दूर से समान तिनके को पिरोते

बुनने रेशा ढूँढकर

तिनके की मिति में ही 

उड़कर आने इधर।


तिनकों को वर्तुलाकार जोड़कर

कंपास की नाप मिति से न परे

बुन-बुन कर कसना रेशे से।

इतना ही नहीं, एक गोल

रेशे समाप्ति से फिर

उड़ान, ढूँढना और तिनके

रेशे निकाल के लाने फिर यहीं।


टहनी में या आकाश में झूलती

मेरी नीड़ को न पकड़ पाए

हवा की झोंकों से झूलते

डराती है। सदा गिरने की भीति।

उड़ती हूँ, फिर तिनकों को जोड़कर

रेशे को ढूँढकर, फिर

फिर, बुनती हूँ।


अब तो न गिर जाए नीड़

किसीभी आँधी आने पर, हरबार

बुनने में निःश्वास को सहने

गाने के मेरे हर एक शब्द

टुकड़े बनी पंक्तियों को फिर जोड़ने जैसे

फिर कसती हूँ सुरक्षित रूप से

फिर बनाती हूँ नीड़ को।

*****

अनुवाद : डॉ.प्रभु उपासे 

 अनुवादक परिचय 

परिचयः- कर्नाटक के वर्तमान हिंदी साहित्यकारों में विशेषकर अनुवाद क्षेत्र में विशेष नाम के डॉ.प्रभु उपासे संप्रति सरकारी महाविद्यालय, चन्नुट्टण, जिला रामनगर में हिंदी प्राध्यापक के रूप में कार्यरत हैं। डॉ.प्रभु उपासे जी का जन्म कर्नाटक के विजयपुरा


जिला, तहसील इंडी के ग्राम अंजुटगी में हुआ। पिता श्री विठ्ठल उपासे तथा माता श्रीमती भोरम्मा उपासे। गांव में ही प्राथमिक शीक्षा पाकर श्री गुरुदेव रानडे ज्ञानधाम प्रौढ़शाला, निंबाळ, आर.एस. में हाइस्कूल की शिक्षा प्राप्त की। कर्नाटक विश्वविद्यालय से एम.ए तथा बेंगलोर विश्वविदायलय से डॉ.टी.जी प्रभाशंकर प्रेमी के मार्गदर्शन में "समकालीन काव्य प्रवृत्तियों के परिप्रेक्ष्य में दिविक रमेश की काव्य कृतियों का अध्ययन" शोध प्रबंध के लिए पी-एच.डी की उपाधि प्राप्त की। आप ने कर्नाटक मुक्त विश्वविद्यालय, मुक्त गंगोत्री मैसूरु से एम.एड. की उपाधि प्राप्त की है।  

आपने विविध छत्तीस राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में भाग लिया एवं शोध-पत्र प्रस्तुत किया है। अनुवाद क्षेत्र में गणनीय सेवाएं की है। कर्नाटक में हिंदी के प्रचार वं प्रसार एक अध्ययन विषय पर यूजिसी द्वारा प्रायोजित माइनर रिसर्च प्रैजेक्ट (20025-2007) पूर्ण की है। बसव समिति बेंगलूरु द्वारा प्रकाशित बसव मार्ग पत्रिका के ले पिछले बत्तीस वर्ष से लेख लिखते रहे हैं। इनकी अनूदित कृति "आत्महत्या, समस्याएँ एवं समाधान" कृति के लिए बेंगलूर विश्वविद्यालय द्वारा 2021 वर्ष का लालबहादुर शासत्री अनुवाद पुरस्कार प्राप्त हुआ है। नव काव्य प्ज्ञा फाउंडेशन द्वारा कई राष्ट्य पुरस्कारों से नवाजा गया है। प्रतिभारत्न-2023, साहित्य रत्न-2024, उत्कृष्ट शिक्षक सम्मान 2024 उल्लेखनीय हैं।



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