संपूर्णानंद विश्वविद्यालय के खेल के मैदान में हर शाम सैकड़ो की संख्या में छात्र इकट्ठा हो जाते हैं, कुछ तीरंदाजी, फुटबॉल, बास्केटबॉल और वॉलीबॉल खेलते हैं, कुछ दौड़ लगाते हैं और कुछ लोग शहर की धूल, धुआं और उब से निकलकर हवा
खाने चले जाते हैं। कभी-कभी दोस्तों के साथ टहलने के लिए मैं भी चला जाता हूँ। इधर बीच तो रोज किसी नए मुद्दे पर बहस करने की आदत-सी हो गई थी। आज शाम को जब मैं पहुँचा तो मैदान के दक्षिण तरफ घेरानुमा बनी चन्द्राकार सीढ़ियों पर कुछ युवा छात्र मायूस बैठे हुए पुलिस भर्ती परीक्षा का पेपर लीक होने के विषय पर गंभीर चर्चा कर रहे थे। सबके चेहरे पर हताशा एवं निराशा का भाव स्पष्ट दिखाई दे रहा था।पिछले कुछ दिनों से कई छात्रों ने मैदान में दौड़ लगाना भी बंद कर दिया है। वे अपनी बढ़ती उम्र और नौकरी के लिए अवसर न मिल पाने के कारण चिंतित दिखाई दे रहे थे। रामचंद्र, केशव और जितेंद्र जैसे कुछ छात्र मैदान में अभी भी दौड़ लगा रहे हैं, उन्हें उम्मीद है कि सरकार जल्द ही पुलिस भर्ती परीक्षा दोबारा करावेगी।
बहस के बीच में रोहित ने कहा- "अब हमें सरकारी नौकरी की उम्मीद छोड़ ही देनी चाहिए।"
जवाब में अश्विनी ने कहा, "क्यों छोड़ देनी चाहिए ? कर्मचारियों और सैनिकों को सरकार अपने घर से तनख़्वाह देती है क्या ? क्या देश को रक्षा और सुरक्षा के लिए नौजवानों की अब जरूरत नहीं है? पढ़ाई लिखाई और परीक्षा की तैयारी कर रहे हमारे भाई बंधु आखिर कहाँ जाएंगे ?"
"थोड़ी और मेहनत करके हमें सिविल परीक्षा वगैरह की तैयारी करनी चाहिए।"
मैंने जैसे ही अपनी राय रखी गौरव ने लपक लिया- "तुम पढ़ने में तुर्रम् खां हो तो सब थोड़े न हैं, क्या आईएएस पीसीएस की परीक्षा निकलना मामूली बात है? तुम्हें घर से पढ़ाई के लिए पैसे अधिक मिलते हैं। तुम कर सकते हो, लेकिन हम जैसे सामान्य परिवेश से आने वाले सामान्य छात्र नहीं कर पायेंगे। यदि हमारे पास भी पर्याप्त पैसे होते हैं तो हम सिविल सर्विस के लिए भी नहीं सोचते, सीधे इंजीनियरिंग, मेडिकल या एमबीए करके कोई न कोई जॉब पकड़ लेते। हमें पुलिस, दरोगा, मिलिट्री, चपरासी, लेखपाल जैसी नौकरी के लिए इतना कशमकश न करने की जरूरत न पड़ती।"
"अरे भाई मैं भी सामान्य परिवेश से ही आता हूँ, कोई रईस का बेटा थोड़े न हूँ। लेकिन अब मैं बीटीसी या बीएड करके शिक्षक की नौकरी के लिए प्रयास करूँगा।"
बीटीसी और बीएड करने में भी हर वर्ष लाखों रुपए लग जाते हैं। इतनी क्षमता नहीं है हमारी। न केवल शहरों में बल्कि गाँवों में भी सुबह-सुबह सड़कों पर सैकड़ो की संख्या में युवा छात्र दौड़ लगाते हुए या अखाड़ों में पहलवानी करते हुए दिखाई दे जाते हैं। कई छात्र नौकरी मिलने की उम्मीद खोकर खेती-बाड़ी करने लगे हैं, कुछ तो महानगरों में कमाने चले गए। लेकिन हमारी उम्मीदें अभी बची हुई है। आखिर उम्मीद रखने के सिवा हम लोग कर ही क्या सकते हैं?"
"आंदोलन करेंगे! आंदोलन! हमें घर बैठे नौकरी कभी नहीं मिलेगी। बीटीसी-बीएड करके भी बहुत लोग घर बैठे माछी मार रहे हैं। सरकार नोकरियां देगी तब ना मास्टर बनोगे! मैं सही कह रहा हूं न?"
अश्विनी के इस कथन के बाद एक स्वर में सभी ने हां हां की हामी भरी तो वह सभा को नेतृत्व करने की अंदाज में कमर सीधी करके बैठ गया। वह हरिशचंद्र पीजी कॉलेज में कई प्रकार के आंदोलनों का हिस्सा रह चुका है ,कई बार पुलिस की लाठियां भी खा चुका है इसलिए उसके लिए आंदोलन और धरना प्रदर्शन सामान्य बात है। सारे छात्र उसकी बात भी आसानी से मान लेते हैं। उसके पिता कचहरी में प्राइवेट वकील है लेकिन उसका रुझान राजनीति की ओर जाता हुआ दिखाई दे रहा है। आंदोलन की बात आते ही उसके देह में फुर्ती आ जाती है।
"आप लोग आंदोलन का एजेंडा तैयार करो, मैं टीम बनाता हूँ। वैसे भी इलाहाबाद में पेपर लीक व नई भर्ती कराने के पक्ष में धरना प्रदर्शन का आगाज हो चुका है। हमें अपनी एकजुटता दिखाते हुए विशाल धरना प्रदर्शन का समर्थन करना चाहिए। इस धरने में अकेले हम ही थोड़ी न रहेंगे! हमारे साथ कई युवा संगठन के छात्र होंगे। सबकी अपनी-आपनी समस्या है। जो एजेंडा में नोट किया जायेगा।"
वह बात करते हुए मेरी तरफ ही देख रहा था। जैसे वह हमें संतुष्ट कर लेगा तो सब लोग उसकी बात मान जाएंगे। "अच्छा तुम ही बताओ एसएससी सीजीएल का फॉर्म भरे तीन साल हो गया, अभी एडमिट कार्ड तक जारी नहीं हुआ, इससे छात्र-छात्राओं का भविष्य खराब हो रहा है कि नहीं?"
"बिल्कुल खराब हो रहा है।"
"किंतु इसकी चिंता नहीं है सरकार को। यहाँ दिन-रात हम सब नाक रगड़के के पढ़ाई करते हैं और ये सरकार सारी भर्तियां अधर में लटका कर रख देती है! यह भी नहीं है कि आवेदन निःशुल्क होता हो। एक-एक फार्म का दो-दो हजार रुपया लगता है। ये सब पैसे कहाँ जा रहे हैं? जेब कटौती तो हमारी न हो रही है? पैसा तो पैसा, हमारे समय का भी तो नुकसान हो रहा है। साल्ला उम्र ढलती जा रही है, सर के बाल पके और झड़े जा रहे हैं , शादी-व्याह के लिए कोई पूछ नहीं रहा है। गाँव में जाओ तो सबसे नजरे चुरा के रहो, किसी से बात करो तो लोफरों में गिनती होती है। आखिर हम कैसे-क्या करें? अब हम शांति से बैठने वाले नहीं हैं। इस बार सरकार से अपनी बात मनवाकर दम लेंगे।"
उसके बोलने के अंदाज से लग रहा था कि उसके कुछ वाक्य रटे हुए हैं। केवल सु कहने की देरी भर रहती है फिर सुरहुरपुर तक वह आप ही पहुँचा जाता है।
"यदि सरकार नहीं सुनेगी तो?"
"अनशन करेंगे! आमरण अनशन!!" उसने आमरण अनशन पर विशेष बलाघात का प्रयोग किया।
"इच्छा मृत्यु की माँग करते हुए सरकार को पत्र लिखेंगे!" अश्विनी के साथ खड़े दूसरे लड़के ने उत्तेजित होकर बोला।
तब तक कुछ और लड़के हमारे पास इकट्ठा हो चुके थे। रामचंद्र, जितेंद्र और केशव भी दौड़ लगाकर बहस में शामिल हो गये थे। जैसे-जैसे शाम बढ़ती है विश्वविद्यालय और आस-पास के विद्यार्थी इस मैदान में इकट्ठा होते जाते हैं। लड़कों के बढ़ते हुजूम को देखकर अश्विनी का हौसला और बुलंद हुआ। वह जिह्वा और कंठ पर और अधिक बल का प्रयोग करते हुए बोला। "धरना तो होकर ही रहेगा। यहाँ जितने भी साथी हैं, सब धरने में चलेंगे। रामचंद्र भी चलेगा। जितेंद्र भी चलेगा और केशव तुम? तैयार हो न चलने के लिए ? आप अभी क्या देख रहे हैं? मैं काशी विद्यापीठ और बीएचयू के कई छात्र संगठनों से बातचीत करूँगा। सब चलने के लिए तैयार हो जायेंगे। कोचिंग सेंटरों पर तैयारी करने वाले लड़के तो एकदम से खौरियाये हुए हैं। इलहाबाद में कम लड़के हैं क्या! एक विशाल धरना प्रदर्शन होगा। आप लोग जानते ही हैं कि ये सरकार एक तो कोई भर्ती नहीं निकालती है, दूसरे निकाल भी देती है तो छः-सात साल तक उसमें अड़ंगा लगाकर लटकाए रहती है। इसमें सरकार का क्या? बर्बाद तो हम विद्यार्थियों का करियर हो रहा है न, साल्ला दस हजार रुपया एसएससी की तैयारी में लगाओ। दिन रात एक करके मेहनत करो, अंत में भर्ती ही रुक जाती है। या परीक्षा निरस्त हो जाती है या कोई और अड़ंगा आ जाता है, फिर दस-बारह हजार रेलवे की भर्ती के लिए कोचिंग में खर्च करो, उसके लिए भी वही फजीहत। इसी प्रकार छः-सात साल में हम लोग पुलिस, दरोगा, एसएससी, रेलवे, बैंक, एयरफोर्स, मिलिट्री, शिक्षक सारी भर्तियां देख लेते हैं, किंतु साल्ला बिना धरने का हिंदुस्तान में कोई काम होता ही नहीं है। तीन साल पहले वीडियो की भर्ती आई थी, 1905 छात्र उसमें चयनित हुए थे। जिसमें अपना लालचंद भी था, नियुक्ति पत्र जारी ही होने वाला था लेकिन क्या बताएं इस सिस्टम को ? अंत में पूरी भर्ती ही निरस्त कर दी गई। इसमें कोर्ट-कचहरी का अलग पेंच होता है। तो बताओ! आप लोग हमारे साथ धरने में चल रहे हो न?"
"हाँ, जरूर चलेंगे!" सभी नौजवान छात्रों ने जोर से हुंकार भरी।
युवाओं की यह आवाज सत्ता के विरोध में जाती हुई दिख रही थी। ये वही युवदल है जो जिसे चाहे सत्ता की कुश्ती पर बैठा देती है और जिसे चाहे विपक्ष में खड़ा कर देती है। प्रतिरोध की आवाज युवाओं को जल्दी प्रभावित कर लेती है। सरकार कोई भी हो सभी को प्रतिरोध की आवाज सुनाई पड़ती है।
बहुत देर से शांत रोहित ने पुनः अपना विचार प्रकट किया। -"यदि सरकार हमारी बात सुनने में आनाकानी करेगी तो?"
"सरकार की ऐसी की तैसी! बिना आंदोलन के हमें आजादी नहीं मिली है तो नौकरी कैसे मिलेगी? अबकी तय कर लो, परीक्षा का बिना लिखित आदेश लिए वापस नहीं आना है!
तभी उसके समर्थन में नारेबाजी शुरू हो जाती है- "जुल्मी जब-जब जुल्म करेगा सत्ता के गलियारों से, चप्पा चप्पा गूंज उठेगा इंकलाब के नारों से ।इंकलाब.....जिदावाद....."
अश्विनी उसी जोशो-फरोस में बोलना जारी रखा- "भाई ये सरकार तो केवल निजीकरण के पक्ष में है। सरकारी एजेंसियां कुछ पूंजीपतियों के हाथों लगातार बेची जा रही है। एक दिन हमारी मूलभूत आवश्यकता जैसे - शिक्षा चिकित्सा और रोजगार जो सरकार से पूरित होती है उसका भी निजीकरण हो जाएगा तो हम क्या करेंगे? सरकार किसानों और विद्यार्थियों के हित में काम करने के पक्ष में तो बिल्कुल ही नहीं है। किसानों की सरकारी मंडियों का निजीकरण करके एक दिन उनसे उनके ही खेत में कंट्रास्ट पर खेती कराएगी और उनकी फसलों का मूल्य कुछ पूँजीपति लोग तय करेंगे। प्राइवेट में काम के बदले इतनी सैलरी नहीं मिलती जितना सरकार के द्वारा दी जाती है। निजीकरण से हमारे आरक्षण और अधिकारों को भी खत्म कर दिया जाएगा। इसलिए अपनी लड़ाई हमें खुद लड़नी होगी।" अश्विनी का यह जोरदार भाषण युवाओं के रक्तचाप को बढ़ा रहा था। वहाँ पर बैठे सभी युवा छात्र धरने में चलने के लिए राजी हो गए।
"धरने में केवल लड़के ही जायेंगे तो हमारी बात हल्की हो जायेगी, हमे अपने साथ आधी आवादी वालों को भी लेकर चलना होगा।" भीम ने अपनी राय रखी और इस पर सभी की सहमतियाँ बन गयी। लेकिन अगले वाक्य में उसने कह दिया -"धरना स्थल पर पुलिस मोटी-मोटी लाठियाँ भी लेकर खड़ी मिलेगी, आँसू गैस और पानी की बौछारें भी छोड़ी जा सकती है!"
अब तक की बहस में यह बात सबसे हल्की साबित हुई। कुछ को गुस्सा भी आया। कुछ लोग उन्हें कायर कह दिए। कुछ ने हिदायत दिया कि यदि तुम्हें पुलिस की लाठियों से डर लगता हो तो मत चलना धरने में । घर बैठे ले लेना नौकरी। लाठियां और डंडे खाकर ही देश के नौजवानों ने देश को आजाद कराया है। तुम्हारे ही जैसे लोग हैं जो घर में बैठे-बैठे सोचते हैं सब आसानी से हो जाय, भीम भैया, सीधी उँगली से घी नहीं निकलती।
हालाकि भीम ने एक सामान्य बात कही थी जो और लोगों के भी मन की बात थी। इसमें उसका धरने के बहिष्कार करने का कोई इरादा न था। लेकिन ये बात युवाओं के मनोबल को कमजोर कर रहा था। इसलिए थोड़ी-थोड़ी भर्त्सना सबने कर दी। भीम मन ही मन पछता रहा था कि हमने ऐसा क्यों कह दिया। अंत में उसे माफी के साथ अपनी लाठी-डंडे और आँसू गैस वाली बात वापस लेनी पड़ी।
धीरे-धीरे रात हो चली और एक-एक करके लोग अपने घर को लौट गयें।
शाम को रामचंद्र ने मुझे अपने कमरे पर खाने के लिए बुलाया था। पिछले कुछ दिनों से खाने के लिए कभी मैं उसके यहाँ पहुँच जाता था तो कभी वह मेरे यहाँ आ जाता था। सारा काम हम लोग मिल-जुलकर कर लेते थे। मैं समय से पहले ही पहुँच गया। जब मैं पहुँचा तो वह अपने रूम पार्टनर के साथ पढ़ाई में व्यस्त था। मुझे देखते ही उसने किताब-कॉपी बंद करके मेरे स्वागत में चटाई बिछा दिया। दरअसल उसके कमरे में चौकी नहीं थी, केवल घर से लाया हुआ एक लंबा चौड़ा चटाई और साड़ी के कतरन का सिला हुआ लेउना-बिछोना था। वह चटाई के ऊपर जब बिछाने लगा तब मैंने उसे ऐसा करने से मना कर दिया। यह कहते हुए कि "हम मित्र हैं, मित्रों में अतिथि सत्कार की औपचारिकता नहीं होती।" मुझे लगा कि मैं समय से पहले आकर उन्हें पढ़ने में डिस्टर्ब कर दिया लेकिन रामचंद्र ने पूछ लिया कि इतना देर में क्यों आए?
"देर कौन सा हो गया है अभी तो नौ बज रहा है।" स्थिर होकर बैठने के बाद मैंने मन में चल रहे एक संशय को प्रकट किया "अश्विनी को भी बुलाये हो क्या?"
"नहीं यार अश्विनी हमारा मित्र जरूर है, मगर मैं उसे खाने पर नही बुलाता। वह आएगा तो उसे बियर और चखना जरूर चाहिए। मैं ऐसे लोगों से दूर रहना चाहता हूँ।"
मुझे झीझ लगा कि मैंने क्यों अश्विनी का नाम ले लिया, दावत तो रामचंद्र के घर है, हमें यह पूछने का क्या अधिकार है कि वह किसे बुलाये, किसे नहीं। फिर मैंने बात को पलटने की कोशिश करते हुए कहा- "अच्छा किया जो तुमने उसे नहीं बुलाया, बुलाते तो परेशान कर देता। वह जहाँ भी जाता है आंदोलन की बात करता है, नशाखोरी तो उसकी पुरानी आदत है, पूरा माहौल गरम कर देता है, सिगरेटों के धूआं से घर भर देता है। बियर तो उसके लिए अमृत है।"
"जिसके पास पैसा है, वह तो बियर पीयेगा ही। हम तो चाहकर भी नहीं पी सकते। हमारी बात को बहुत देर से सुन रहा रामचंद्र के रूम-पार्टनर रवि की यह पहली प्रतिक्रिया थी।
"चलो अच्छा, अब कुछ बनाने खाने की बात की जाए, क्या खाने की इच्छा है? रामचंद्र ने पूछा।
"पनीर, अंडा, मशरुम कुछ भी बना लिया जाय!" मैंने अपनी इच्छा जाहिर की।
"तो चलो आज मशरुम बनाते हैं।" रामचंद्र ने अंतिम फैसला कर दिया।
मैंने जेब से पैसा निकाला किंतु रामचंद्र और रवि दोनों ने एक साथ मुझे मना करते हुए मेरा हाथ पकड़ लिया और कहा -"नहीं! आप मेरे यहाँ आये हैं, पैसे आप नहीं दे सकते।"
मुझे पैसे वापस अपने जेब में रखना पड़ा। रवि झट से बगल वाली दुकान से मशरुम, प्याज, लहसुन और टमाटर लाकर रख दिया। मैं फर्श पर बैठकर प्याज काटने लगा। फिर सब कुछ न कुछ करने लगे। कुछ देर तक कमरे में ख़ामोशी रही, जिसे मैंने अपनी जांघ पर बैठे एक मच्छर को मारने से तोड़ी।
"मार्टिन जला दूं क्या ?" रामचंद्र ने पूछा।
नहीं! तुम बस गैस का चूल्हा जला दो!
"आप बैठिए, खाना हम लोग बना रहे हैं न!"
"खाना बनाना मुझे अच्छा लगता है। हम सब स्टूडेंट हैं, हम जानते हैं कि विद्यार्थी का जीवन बड़ा दुष्कर होता है, खासतौर से निम्न-मध्यम वर्ग के छात्रों के लिए। हम सब पूँजीपतियों या सेठों के घर से थोड़े न हैं कि हमारे लिए टाइल्स वाला हॉस्टल और स्वादिष्ट भोजन वाला मेस मुहैया है। हमें तो इसी समय और इसी पैसों में सब कुछ करना है, खाना, पीना, पढ़ना, लिखना, सोना और छोटा-मोटा काम भी कर लेना है। जीवन में कितना-कितना संघर्ष करके विद्यार्थी कामयाब होते हैं। हम ऐसे लोगों में हैं जिनके पास कोई ऐसी फैमिली बैकग्राउंड नहीं हैं जो हमारा कहीं जुगाड़ लगा दे। अपने पास सिर्फ और सिर्फ अपनी मेहनत है। उसी के दम पर हम कामयाब हो सकते हैं।"
"मैंने खुद पन्द्रह हजार रुपए कर्ज़ लेकर एसएससी कोचिंग में एडमिशन कराया है।" रामचंद्र ने कहा।
"यही दशा सब की है। जो अच्छी स्थिति में है वे सिगरा, दुर्गाकुंड, लंका जैसी स्थानों पर फ्लैट में रह रहे हैं।
उसने गैस का चूल्हा जला दिया तो मुझे याद आया कि इधर बीच गैस बड़ा मुश्किल से मिल रहा था। उसके पास गैस की एक छोटी सी टंकी थी, जो दो महीने से ज्यादा नहीं चल पाती है। ब्लैक में गैस भरने के कारण ढेलवरिया के दो दुकानदार पकड़े गए थे, इसलिए भयवश गैस भरना सभी दुकानदारों ने बंद कर दिया था। मैंने पूछा -"गैस कहाँ से करवाते हो?"
"राजकुमार के यहां से।" उसने जवाब दिया।
"वह अभी भी भर रहा है क्या ?"
"हां किंतु चोरी से भरता है। टंकी बोरा में भरकर ले जाना पड़ता है लेकिन अब पहले से दोगुना दाम ले रहा है, पहले गैस का दाम अस्सी रुपया प्रति लीटर था लेकिन पिछले एक महीने से डेढ़ सौ पार हो गया।"
"बाप रे! क्या करोगे खाना बनाने के लिए तो गैस भरवाना ही पड़ेगा।"
"और कोई उपाय भी तो नहीं है।" उसके इस आवाज में एक प्रकार का रूखापन था जैसे प्याज और तेल की महंगाई के बारे में भी वह सोच रहा हो।
"सरकार को चाहिए कि जो विद्यार्थी घर से बाहर कमरा लेकर पढ़ाई करते हों, उनके लिए कार्ड जारी करके गैस के दाम कम या निशुल्क कर देना चाहिए।"
"सरकार को इससे क्या लाभ मिलने वाला? उनके बच्चों को इसकी दिक्कत थोड़े न है। वे विदेशों में है या टॉप मॉडल स्कूल में। स़घर्ष तो हम निम्न-मध्यम वर्ग के लोग के लिए है न। फिर सरकार को क्या मालूम कि कौन विद्यार्थी है कौन अविद्यार्थी।"
"यह तो उनके कॉलेज या कोचिंग के आई कार्ड से अथवा मकान मालिक के प्रमाण-पत्र से सुनिश्चित हो जाएगा लेकिन सरकार इस दर्द को समझ पाए तब न।"
"यदि ऐसा हो जाए तो अति उत्तम होगा। हम लोगों के खर्च का आधा भार तो ऐसे ही कम हो जाएगा। आटा चावल तो हम घर से ही लाते हैं किंतु रोज सब्जी, दाल, प्याज वगैरह-वगैरह तो खरीदनी ही पड़ेगी।"
बातों ही बातों में कड़ाही से धनिया, मसाले, प्याज की सुगंध आने लगी अगल बगल के लोग नाक सिकोडकर इधर झाँकने लगे, कहीं गरमा-गरम कुछ छन तो नही रहा है।
"हाँ, अभी आप क्या कह रहे थे कि सेठों व पूँजीपतियो के घर के लड़कों की?" वह फिर से उसी जगह वापस आ गया जैसे इस विषय पर वह विस्तार से चर्चा करना चाहता हो।
"मैं कह रहा था कि वे लोग हमारी तरह गैस भरवाने, खाना बनाने, वर्तंन और कपड़ा धोने में अपना समय जाया नहीं करतें। उन लोगों को हॉस्टल में पूरी सुख-सुविधा मुहैया होती है। पैसे का खेल है। हम लोग को भी घर से उतने पैसे मिलते तो क्या हम लोग ऐसे हालात में रहतें?"
"शायद आप ध्यान नहीं दिए होंगे, उन लोगों में बहुत कम ऐसे होते हैं जो हमारी तरह रेलवे, पुलिस, एस आई, बैंक की तैयारी करते हैं, अधिकतर मेडिकल, इंजीनियरिंग, सिविल सर्विस, या बिजनेस की तरफ भागते हैं। उसमें लाखों रुपया एक साथ लगता है। इसीलिए हम उनकी बराबरी नहीं कर पातें।"
सब्जी करीब करीब तैयार हो गई और रवि आटा गुथने की तैयारी करने लगा, तभी मेरा ध्यान रवि की ओर गया तो मैंने पूछ लिया कि "रवि को भी धरने में साथ ले चलोगे?"
"नहीं मैं उसे जाने के लिए नहीं कहूँगा दस तारीख को उसकी बैंक की परीक्षा है। वह अभी तैयारी करने में व्यस्त है।"
"सेंटर कहाँ गया है?" मैंने रवि की तरफ देखते हुए पूछा।
"लखनऊ।" रवि ने उत्तर दिया।
"रात ठहरोगे कहाँ?"
"अभी तो कुछ इंतजाम नहीं है। देखा जाएगा कहीं भी ठहर सकते हैं।"
"कहीं भी क्या! फुटपाथ पर?"
"हाँ, फुटपाथ ही समझिए। एक रात की तो बात है, बस अड्डे, स्टेशन या कॉलेज के आसपास हम कहीं भी रुक जाएंगे। वैसे पहली बार परीक्षा देने थोड़े न जा रहा हूँ, धोड़ी दिक्कत तो होती ही है, लेकिन झेल लेने की आदत बन गयी है।"
"लखनऊ में मेरे पिताजी के एक दोस्त रहते हैं। उनके यहाँ रहने की पूरी व्यवस्था है। कोई दिक्कत नहीं होगी। कहिए तो बात करूँ!"
"नहीं मुझे किसी के यहाँ ठहरने में घुटन महसूस होती है और अच्छा भी नहीं लगता। इसकी चिंता आप न करें, हम आराम से रह लेंगेे।"
"रात में ठंड लगेगी तो?"
"मेरे पास कंबल है न, वैसे परीक्षा के पूर्व रात में स्टेशन, बस अड्डे व परीक्षा सेंटर के आसपास मेरे जैसे बहुत से विद्यार्थी ठहरे होते हैं।"
रवि के इस कथन के बाद रामचंद्र के दिमाग में बहुत अच्छी तरकीब आया। यह प्रस्ताव सरकार के समक्ष रखने योग्य है। उसने कहा कि "सरकार को चाहिए कि सेंटर पर ही दूर से आने वाले विद्यार्थियों के लिए रात ठहरने की व्यवस्था करा दें। कॉलेज में बहुत सारे कमरे होते हैं, कम से कम ठंड और बारिश से बचा तो जा सकता है। जगह कम पड़े तो अगल-बगल जो स्कूल और कॉलेज होते हैं, विद्यार्थियों को वहाँ ठहरने की छूट दे देनी चाहिए। माना कि लड़के लोग किसी तरह से मैनेज कर लेते हैं, किंतु लड़कियों को तो ठहरने में बहुत दिक्कत होती है। उनके नहाने- थोने, शौच, वॉसरुम के लिए कोई सुविधा नहीं होती, बड़े घरों के लोग तो पैसा लगाकर होटल में ठहर जाते हैं लेकिन हमारी हैसियत होटल में ठहरने की नहीं होती। जितना वे सब एक रात का होटल में रहने का पैसा दे देते हैं, उतना हम अपने कमरे का किराया देते हैं महीने भर का।"
उसके इस बात से सहमति जताते हुए मैंने कहा "सही कह रहे हो भाई। यह सुझाव सरकार को देना चाहिए।"
"सरकार हमारी बात क्यों सुनेगी? वह परीक्षा तो समय पर करा ही नहीं पाती है तो हमारे ठहरने की व्यवस्था क्या करेगी?"
खाना बनाकर तैयार हो गया। फिर हम खाकर अपने कमरे पर चले जाएं।
दूसरे दिन हम शाम को ग्राउंड में पहुँचे तो रामचंद्र के साथ जितेन्द्र नहीं था। वह काफी देर बाद आया। तब तक रामचंद्र, केशव और उसके सारे साथी मैदान में दौड़ लगा चुके थे। हर रोज की तरह गहमा-गहमी पुनः बहस हुई। छात्रों कि तरफ से आंदोलन के लिए स्लोगन गढ़े जा रहे थे। स्लोगन के तेवर बहुत जोशीले थे। उसमें कुछ स्लोगन इस प्रकार थे -जो सरकार निकम्मी है वह सरकार बदलनी है! नौकरी दो नहीं तो फांसी दो! छात्र एकता जिंदाबाद! शिक्षक भर्ती बहाल करो! पुलिस भर्ती बहाल करो! दरोगा भर्ती बहाल करो! रेलवे भर्ती बहाल करो! बहाल करो बहाल करो! छात्र एकता जिंदाबाद! साथ में बैनर पोस्टर बनाने की भी तैयारी जोरों पर चलने लगी। इस प्रकार के स्लोगन, बैनर और पोस्ठर चुनाव से पहले हर बार जीवित और सक्रिय हो जाते हैं फिर नयी सरकारें बनती है और मामला कुछ समय तक के लिए ठंडा रहता है। अब लग रहा था कि आंदोलन होकर रहेगा। छात्र पुलिस की लाठी खाने के लिए मानसिक तौर पर तैयार हो चुके थें। तब तक जितेन्द्र आ गया। "आइये! आइये! आप ही का तो इंतजार कर रहे थे हम लोग। आपके बिना तो पूरी महफिल सुनी लगती है।" किंतु जितेन्द्र ने कोई जवाब नहीं दिया। बस इतना भर कहा कि "आज कुछ मुड नहीं है बात करने की।" फिर वह जाकर एक किनारे बैठ गया। उनका चेहरा बिल्कुल उदास था। चेहरे पर दुःख के बादल व गालों पर चिंता की रेखायें खींची हुई थी। जैसे वह अभी रोकर आया हो। वह जाकर बिल्कुल एकांत में बैठा। किसी को समझ में नहीं आ रहा था कि उसे क्या हुआ है?
"गर्लफ्रेंड से झगड़ा कर लिया होगा"- किसी एक ने मजाकिया अंदाज में कहा।
"पारिवारिक कलह भी तो हो सकती है।"- दूसरे ने कहा।
"पता नहीं क्या हुआ है? कौन जाने? यह तो वही बता सकता है।" तीसरे ने कहा।
अब बाते उसी को केन्द्र में रखकर होने लगी। कुछ गम्भीर तो कुछ मजाकिया किस्म की। किंतु कोई ठीक-ठीक अनुमान नहीं लगा पा रहा था कि वह किस कारण दुःखी है?
मैं अपने को भीड़ से अलग किया और जाकर उसके पास बैठ गया। कुछ देर तो हम दोनों खामोश बैठे रहें। फिर मैने धीरे से पूछा- "क्या बात है भाई? आज बहुत डिस्टर्ब लग रहे हो?"
वह एक बार मेरी तरफ देखा, फिर गर्दन नीचे झुका लिया। मैंने वही सवाल पुनः किया तो वह भर्रा कर रो पड़ा। "कु... कुछ नहीं भाई .. म.. मैं बता नहीं पा रहा हूँ भाई।"
"क्या हुआ? किसी से अनबन हो गयी है क्या?"
"मेरा सबकुछ बरबाद हो गया यार। कुछ नहीं बचा!"
"कुछ नहीं बचा मतलब?"
"वह आँसुओं को सम्भालने की कोशिश करने लगा - "हाइटेक कम्प्यूटर में एक आदमी बैठता था, मोटा-सा, लम्बा-सा...."
"हाँ, हाँ चम्पत नाम था उसका।"
"हाँ वहीं! रेलवे में नौकरी लगवाने के लिए मुझसे पाँच लाख रुपया लिया था, धोखा देकर भाग गया साल्ला।"
"उसका मोबाइल नम्बर नहीं लिए थे?"
"नम्बर स्वीच ऑफ हो चुका है उसका। उसका घर भी नहीं पता। किसी दूसरे शहर से आया था।"
"साल्ला देखने से ही फ्रॉड लगता था, तुमने उस पर विश्वास कैसे कर लिया।"
"बहुत बड़ा धोखा हो गया भाई मेरे साथ। पूरे पैसे मैं कर्ज़ लेकर दिया था, नौकरी के नाम पर मेरी माँ गहने बेच दी। इस आशा से कि नौकरी लगने के बाद सब चुकता हो जायेगा।" बात पूरी करते-करते उसके कंठ पूरी तरह से फूट पड़े थे। वह रो-रोकर भीतर का मलाल निकाल रहा था। आँसू थम नहीं रहे थे।
उसका रोना सुनकर सबका ध्यान उसकी तरफ गया। वहाँ सब आ पहुँचे। क्या हुआ? क्या हुआ? एक ही प्रश्न कई लोगों ने एक साथ पूछा।
जितेन्द्र का कंठ बंध गया जैसे। वह सबके बीच बात दोहरा नहीं पा रहा था। बस जमीन में सर गड़ाये पश्चाताप का आँसू रो रहा था। फिर सारी घटनायें क्रमशः मैंने बता डाली।
सबको चम्पत राय पर गुस्सा आ रहा था, साला अभी कहीं उससे भेट हो जाये तो लात घूंसे से उसको दुरुस्त कर दिया जाए, उसकी गर्दन ही मसक दिया जाय। सबकी सहानुभूति जितेन्द्र की तरफ थी। किंतु चम्पत पर विश्वास करके गलती तो उसने भी की थी। चम्पत का नम्बर डायल करने पर स्वीच ऑफ ही बता रहा था। "चलो थाने में एफआईआर दर्ज कराया जाय।" आवेश में कौशल ने कह दिया।
"एफआईआर? पुलिस चम्पत को भले न ढूँढ़ पाये, लेकिन उसे सूचना मिलेगी तो पहले चार बेंत इन्हीं के चुतड़ पर मारेगी। पहला अपराधी तो इन्हीं को ही मानेगा! जिसने घुस देकर नौकरी लेने की कोशिश की।" अश्विनी ने मुँह पर खरी-खरी कह सुनाया।
इस बात का प्रतिकार किसी ने नहीं किया, किंतु जितेंद्र के लिए सभी चिंतित थे। यह सही या गलत कहने का अवसर नहीं था। सब लोग उसको सांत्वना देने की कोशिश कर रहे थे और वह रोता जा रहा था।
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परिचय
जन्मतिथि- 27 अप्रैल 1991
शिक्षा - एम. ए. हिंदी साहित्य (काशी हिंदू विश्वविद्यालय), बी. टी. सी. यूजीसी जे आर एफ
लेखन-विधा - कविता, आलेख, लघुकथा, समीक्षा व कहानी
प्रकाशित रचनाएं - विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, साझा षंकलनों व अंतर्जाल पर प्रकाशित कविताएं, लघुकथाएँ व आलेख व कहानी
सम्मान- पद्मश्री पंडित बलवंत राय भट्ट भावरंग स्वर्ण पदक एवं विभिन्न साहित्यिक मंचों से सम्मान
सम्प्रति - सहायक अध्यापक बेसिक शिक्षा विभाग वाराणसी
स्थाई पता- ग्राम-रामपुर, पोस्ट- जयगोपालगंज, केराकत जौनपुर उत्तर प्रदेश- 222142
मो० 8931826996
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