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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

05 जनवरी, 2025

राजकुमार कुम्भज की कविताएँ

 

1

नए मौसम की ख़ातिर 


बेहद कठिनाइयों भरा वक़्त है ये

विचारों की कमतरी और भाषा की मृत्यु का दौर

स्वप्न देखने तक के प्रतिबंध आते हैं यहाँ से

और यहीं से बात-बात में आती हैं बाधाएँ

ऐसे में साधारण-सी कविताओं का क्या है?

उनकी अपनी दुनिया के अपने अंधेरे हैं

वहाँ असाधारण होने की ज़िद है

और लगातार हारते जाने की लगातार ज़द

फिर भी देखती है कविता ही देखती है

कि अधूरे कामों की बेहद लंबी है फ़ेहरिस्त

हाँफते, काँपते, लड़खड़ाते शब्दों को

वक़्त ज़रूरत का बनाते हुए औज़ार

कुछ न कुछ कुरेदती है तो कविता ही

किसी निर्जन में बंधी जर्जर नाव की तरह

छटपटाते हुए कि बदले ज़माना और दुःख

किसी एक नए मौसम की ख़ातिर

नई-नई मंशाओं से भरा-भरा।













2. 

चाहिए लगाम


दौड़ और होड़ के दिनों में

घोड़े और ज़ुबान को चाहिए लगाम

अगर न हो सका बन्दोबस्त कोई भी

तो समझो गए धड़ाम से ज़मीन पर

और फिर सोचते-समझते रहो जीवनभर

कि ज़मीन खा गई आसमाँ कैसे-कैसे?


3. 


वे कब लौटेंगे काम पर


विचार हैं तो

मगर, फफूँद लगे विचार हैं

और अगर औज़ार हैं तो

फफूँद लगे औज़ार हैं


भाषा है तो 

मगर फफूँद लगी भाषा है

और अगर शब्द हैं तो

फफूँद लगे शब्द हैं


नागरिक हैं तो

मगर फफूँद लगे नागरिक हैं

और अगर हिम्मतें हैं तो

फफूँद लगी हिम्मतें हैं


और ये क्या ये क्या,

कि सर्वाधिक सफ़ाईकर्मी आजकल

यूँ ही बेमतलब की हड़ताल पर हैं

वे कब लौटेंगे काम पर?


4. 

एक फाँस है कि चुभ रही है


एक फाँस है कि चुभ रही है

आटे-दाल के भावों से परेशानी है बड़ी

बेमतलब की बेमतलब चीजों से

बेमतलब ही भरे पड़े हैं बाज़ार

ज़रूरी पुस्तकों पर पहरा है गहरा

गाढ़े कत्थई रंग में जकड़ा है माँ का दूध

और आकाश में भरपूर अवकाश है

सूखे खेतों पर झमाझम बरसने से पहले

इंद्रधनुष तनते तो हैं मगर फ़िज़ूल

उलजुलूल हरक़तों में डूबे हैं आर्यपुत्र

हक़ीमों में हड़ताल हैं तितलियों-विरुद्ध

मधुमक्खियों के छत्तों में सिमट गया है जीवन

दुःखों की रही नहीं कोई भी सीमा

और इतिहासवेत्ता ढूँढ़ रहे हैं पाक-साफ़ जगहें

कौन बताए कौन समझाए उन्हें

धारदार तलवार के असरदार क़िस्से

जहाँ रंभाती हैं गायें और मिमियाती हैं बकरियाँ?

टॉवेल-टॉवेल से टपक रहा है ख़ून

पन्ने-पन्ने पर नई-नई इबारतें लिखने के लिए

कम-कम होती जा रही है विश्वास की दुनिया

एक फाँस है कि चुभ रही है।


5. 


औऱ कम्बख्त ये हुआ मैं


इस एक कठिन वक़्त में

आया एक ऐसा कठिन वक़्त भी आया

कि सीखने वाले घटते गए लगातार

और लगातार बढ़ते गए सीख देने  वाले

ये भूलते हुए कि वे जो देते हैं सीख

वे भी सीखते थे कभी सीख वही

कि दूसरों को सीख देने से पहले

सीखना ख़ुद सीख सही-सही

एक सीख ये कि सिखाना नहीं,

दूसरी ये कि सीखना जीवनभर

और कमबख्त ये हुआ मैं कुछ यूँ

कि न सीखता हूँ, न सिखाता हूँ कुछ

सिर्फ़ आग-आग जपता हूँ

और चुप रहता हूँ।

6. 










दहाड़-विरुद्ध


मरूँगा तब सीखूँगा चुप रहना

अभी तो मैं भी रखता हूँ ज़ुबान मुँह में

पक्ष की आकाँक्षा में फटता है कलेजा

पीर पराई ही नहीं सबकी है अपनी-अपनी

खोदता रहता हूँ कुआ, ढूँढता रहता हूँ पानी

और बुनता रहता हूँ भाषा की निरीहता

जागता हूँ सुबह तो सामने सुबह नहीं है

दिन-रात उलझता रहता हूँ स्याह चेहरों से

कठिन है चढ़ाई फिर भी गिरता हूँ, चढ़ता हूँ

दहकते माथे में इरादों की गाँठ लिए

दहाड़ती महत्त्वाकाँक्षाओं की दहाड़-विरुद्ध

शब्द-दर-शब्द खोते जा रहे हैं अपने मूल अर्थ

मैं तपाउँगा उन्हें फिर-फिर अपनी पहचान में

और हर सूने में पुकारूँगा प्रलय के बाद भी

ज़िंदाबाद ज़ुबानदार फिर-फिर।


7. 


किस ओर से चलना किस ओर?


एक पाँव चलता हूँ तो पाता हूँ दूसरा

वह दूसरा भी मेरे साथ-साथ चलता हुआ

पाँव-पाँव चलना जानता हैं पाँव ही

मैं उस पाँव को नहीं जानता हूँ जो दूसरा

ज़रूरी भी नहीं है जानना कि वो कौन?

फ़िलहाल ज़रूरी है चलना और साथ-साथ

पाँव बदल सकते हैं, लेकिन चलना नहीं

मैं चलना जानता हूँ, पाँव नहीं

जैसे चींटियाँ जानती हैं चलना दिन-रात 

ज़रुरी है दिन-रात की पहचान निरन्तर

कि किस ओर से चलना किस ओर?


8.


 पदचाप से पहले


पदचाप से पहले क़दमताल

हालाँकि पदचाप और क़दमताल की हरक़त से

कभी नहीं खुलते है बन्द दरवाज़े

ज़रूरी है इसके लिए ज़ोरदार दस्तक पुरज़ोर 

और एक ज़ोरदार कारवाई पुरज़ोर

बंद आँखों से भी देखा जा सकता है

दुष्टों का दुष्टता भरा कदाचरण

बशर्ते कि क़ायम-मुक़ाम मिले दृष्टि

किन्तु ये क्या कि दृष्टिकोण की विक्षिप्तता

निकृष्ट जीवन के लिए करती रहे विवश 

और पराजय में डूब जाए प्रतीक्षा बार-बार

तो क्यों नहीं ज़रूरी है एक ज़ोरदार दस्तक

हर किसी लोह-आवरण विरुद्ध?


9. 

वह एक दरवाज़ा


वह एक दरवाज़ा

हमेशा ही खुला रहता है बेटियों के लिए

जो खुलता है पिता के कमरे में

पिता के कमरे में पिता हैं और पुस्तकें 

पुस्तकों में पिता का बचपन है और पुरखे

पुरखों के पास पुरखों के फ़ैसले हैं और फ़ासले

और फ़ासले जब भी बढ़ते हैं जीवन के

तब पिता के घर ही लौटती हैं बेटियाँ 

अपना घर, अपना कमरा बनाने से पहले

पिता का घर, पिता का कमरा और स्मृतियाँ

सलीक़े से सँवारती हैं बेटियाँ, बनाती हैं रोटियाँ

फिर कोई एक लहर स्वप्निल-सी लहर

दूर बहुत दूर अकस्मात् ही ले जाती है उन्हें

जहाँ वे बुन लेती हैं अपने आकाश में अपना पिंजरा

अपनी पसंद-नापसंद सब छोड़ते हुए

जोड़ते हुए कच्ची मिट्टी से कच्ची मिट्टी के खेल

उनकी दो आँखों से बरसने लगती है रोशनी

इस घर आँगन, उस घर आँगन की तपस्या में

और कुछ इसी तरह बनता-बिगड़ता जाता है

नया-नया घर-संसार, नया-नया दरवाज़ा

ख़ुशियाँ, ख़ामियाँ हो जाती हैं कमीज़ का टूटा बटन

घर, घर हैं फिर भी अमूमन बेघर हैं बेटियाँ

सदियों के रास्ते सदियों से घर ढूँढता है पिता

और दरवाज़ा है कि बंद होता है, 

खुलता है कभी

बंद कमरे में बैठे दुःख का

वह एक दरवाज़ा।


10. 


आवाज़ जैसी ही आवाज़ हूँ एक


आवाज़ जैसी ही आवाज़ हूँ एक

जो रह-रहकर फिर-फिर टकराती  रहती है दीवारों से

जैसे लहरें टकराती हैं चट्टानों से

मेरी आवाज़ है कि गूँजती रहती है सूने में

और सूना है कि बढ़ता ही जाता है

मैं काल कोठरी में बंद करना चाहता हूँ रात

और रात है कि बढ़ती ही जाती है

मैं सुलझाना चाहता हूँ सुबह

और सुबह है कि खुलती ही नहीं हैं

मछुआरा फेंकता रहता है जाल फिर-फिर

इधर से उधर भागती रहती हैं भयाक्रांत मछलियाँ

घर-घर में गुर्राहट का डर है डराता हुआ

और बादशाह है कि मेमने चबाता हुआ

मेमने की आवाज़ में शामिल हैं आवाज़ मेरी भी

आवाज़ जैसी ही आवाज़ हूँ एक।



 

 

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूबसूरत कविताएं राजकुमार कुम्भज जी की शख्सियत को बयान करती. हार्दिक बधाई. - प्रवीण मल्होत्रा

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  2. बहुत ही सादगी के साथ गहन गंभीर सूत्र खोलते जाना इन कविताओं का स्वभाव है। जीवंत कविताएं...

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