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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

09 जनवरी, 2025

संजीव कौशल की कविताऍं

 

एक


दर्द


अम्मा कहती है 

तू सारा दिन खटती है 

सबका खयाल रखती है 

सब की गिनती में 

खुद को क्यों भूला देती है


सुन, कुछ पल अपने लिए भी रख 

खुद से प्यार कर 

प्यार से देखभाल कर 

औरतों की टीस कोई नहीं सुनता 

खुद नहीं सुनेगी तो दर्द में बह जाएगी 


अम्मा ने दर्द की बात

जीवन में पहली बार की

सब समझते रहे

अम्मा कभी नहीं थकती 

सबके दर्द में अम्मा अपना दर्द क्या कहती


मुझे भी कहाँ खबर लगी 

कि सांसों के संग अम्मा क्या-क्या पी रही थी।

०००












दो


तमन्ना


हमारा मौहल्ला लगभग एक ही था

गली में एक टेड थी बस

जिसमें छुप जाता था उसका दरवाजा 

मगर छत से

सीधी हो जाती थी टेड़

और खुल जाता था रास्ता


गाँव में

लड़के लड़कियाँ दूर ही रहते थे उन दिनों

मगर मानती नहीं थीं उसकी आँखें कोई आदेश

और झुटलाती रहती थी उसकी हँसी सारी बंदिशें


उससे कभी कोई बात की

याद नहीं

फिर भी न जाने कितनी बातें याद हैं उसकी


स्मृति की खाँच में धंसी है उसकी आवाज़

उसकी शादी याद है

और बहुत पहले 

उसके भाई की बताई

ससुराल में उसकी मौत की खबर भी


अब भी

जब तब

किसी चिड़िया सी

पेड़ के झुरमुट से

फुर्र हो जाती है उसकी हँसी

कितनी पागल थी वो लड़की

जीने की उसे कितनी तमन्ना थी।

०००



तीन 


ऑनर किलिंग 


गला जब घोंटा गया होगा

उसने विरोध तो किया होगा

कुछ तो छटपटायी होगी

मिन्नत की होगी

रिश्तों की दुहाई दी होगी 


मगर ढीली नहीं पड़ी

पिता के हाथों की पकड़

भाई की नफ़रत

जब तक रुक नहीं गयी

एक एक हिचकी उसकी 

वे दबाते रहे उसकी गर्दन

कि उसने प्रेम करने की हिमाक़त की थी


मुरझाई बेल की तरह

जब लुड़क गया उसका शरीर

रात के अंधेरे में ही ले गए

बोरी में बाँध कर उसे

और छिड़क कर मिट्टी का तेल

जला दिए सारे निशान उसकी पहचान के


प्यार में लड़कियों को जीवन तो दूर

इज्ज़त की मौत भी नहीं मिलती 

कूड़े की तरह

वे किसी भी घूरे पर फेंक दी जाती हैं।


उनके मुक़द्दमे

अदालतों में नहीं जाते

कोई बहस नहीं होती

सीधे फैसले होते हैं।

०००


चार


स्वाद


माँ के हाथ का खाना

हमें स्वादिष्ट लगता है

और माँ को अपनी माँ के हाथ का


माँ जब भी कुछ खास बनाती है

नानी की याद

जैसे कढाई में उतर आती है 

छुन छुन करते मसाले

उससे बतियाते हैं 

बचपन की कोई महक

उसे बाहों में घेर लेती है


महक का झौंका कभी-कभी इतना गाढ़ा होता है

कि माँ उसी में खो जाती है


सिर्फ स्वाद बचता है

माँ या उनकी माँ या उनकी भी माँ 

न जाने कितने हाथों का स्वाद।

०००













पाॅंच 


बातें


काम से लौटी सहेलियाँ

बर्तनों सी खनक रही हैं


पंद्रह सोलह की उम्र

अचरज से भरी होती है

जितना कहती हैं

कहीं ज्यादा दांतो से पीस देती हैं

हर इशारा

महकती आंखों में भींच लेती हैं


सुनाई देता है बस

अरी वो ऐसा है अरी वो वैसा है।

०००


छः 


सबक


वह रोज़ पीता है

कुछ शराब में

ज्यादा सट्टे में उड़ा देता है


क़र्ज़ बढ़ रहा है

साथ ही दरवाज़े पर क़र्ज़दारों का पहरा

ज़िम्मा 

अब बीवी पर है कि क़र्ज़ कैसे उतारे


हवा के इशारे

समझ रही है वह

मगर खुद को समझा नहीं पा रही


आदमी के अपराध

औरत की भेंट चाहते हैं

यह सबक

वह पिट पिट कर सीख रही है।

०००

सात


टीस


घर की समस्याएं हैं 

यह कहते-कहते आंसुओं ने आंखें घेर लीं

जैसे शब्द ना काफ़ी थे 

जैसे आंसू दुखों के शब्द थे 

क्योंकि शब्द इतने चुटीले थे 

कि आंसुओं में बह कर ही बाहर निकल सकते थे 

शब्द गिरते रहे जैसे नीम की छाल से 

चाकू की मार के बाद बहता हुआ चैप

 

पापा बहुत शराब पीने लगे हैं 

कोई काम नहीं करते 

उल्टा पैसे मांगते हैं 

क़र्ज़ लेकर पी लेते हैं 

क़र्ज़ में माँ के सब गहने बिक गए 


गाली गलौज मारपीट 

सारा दिन हुड़दंग करते हैं 

एक महीने से घर ही नहीं आए 

डर लगता है बहुत कमज़ोर हो गए हैं 

घर का किराया भी नहीं हो पा रहा था 

तीन महीने से मैं कुछ काम कर रही थी 

इसलिए कॉलेज नहीं आ पाई 

अब हम नानी के घर आ गए हैं 


विदा होने के सालों बाद भी 

लड़कियों की डोलियाँ कई बार

टीस लिए पीहर लौट आती हैं 

उनके अपने घर स्थगित ही रहते हैं ज्यादातर 

मांओं के भीगे पल्लुओं में 

बेलों की तरह टंक जाती हैं लड़कियाँ

पूरी धूप पानी के बग़ैर 

पेड़ नहीं बन पाती लड़कियाँ।

०००



आठ


आख़िरी इच्छा 


गाँव ले जाना 

शहर में मत जलाना 

खेत की मेंड पर रख देना 

मेरी चिता 

जहाँ कलेवा करते थे 

तुम्हारे पिता 


नहीं, गंगा में नहीं 

राख कुलावे में बुरक देना 

मुझे सरसों भाती है 

मुझे खेत में सुला देना।

०००









नौ


छुट्टियाँ


बच्चे बीमार होते हैं 

छुट्टियाँ मैं लेती हूँ 

माँ जो हूँ 


उनकी परीक्षाएं होती हैं 

छुट्टियाँ मैं लेती हूँ 

माँ जो हूँ


पति की छुट्टियाँ होती हैं 

वह घर पर होते हैं 

छुट्टियाँ मैं लेती हूँ 

पत्नी जो हूँ 


मुझे बीमार होने का हक नहीं

थकने का हक नहीं

थककर कहने का हक नहीं 

मेरे पास मेरे लिए कोई छुट्टी नहीं 


मेरी छुट्टियाँ

घर छीन लेता है।

०००


दस


छाँव



स्त्रियाँ इकट्ठा हुईं 

कुछ पेड़ लगाए 

और हँसते हुए बोलीं

ये पेड़ सुंदर और आकर्षक होंगे 

ये चुप नहीं बैठेंगे

थोड़ा बातूनी होंगे 

और सारे आदमी 

इनकी छाँव में बैठने को उत्सुक होंगे 


ये कहकर 

वे खिलखिलाती हुई चली गईं 

उनकी हँसी में पेड़ देर तक हिलते रहे।

०००

सभी चित्र: रमेश आनंद, देवास 


परिचय 

"उँगलियों में परछाइयाँ"शीर्षक से पहला कविता संग्रह साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली से 2017 में प्रकाशित। 

जर्मन भाषा में कविता के पूरे विकास क्रम को दिखाता कविताओं का एक महत्वपूर्ण अनुवाद हिंदी में 'ख्व़ाहिश है नामुमकिन की' शीर्षक से फोनीम पब्लिशर्स, नई दिल्ली द्वारा 2019 में प्रकाशित। 

ऑस्ट्रियाई कविताओं का अनुवाद 'नवंबर की धूप' वाणी प्रकाशन से 2021 में।

दूसरा कविता संग्रह ‘घर ख्वाबों से बनता है’ संजना बुक्स, नई दिल्ली द्वारा 2024 में प्रकाशित।

देश की महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ, लेख तथा समीक्षाएँ प्रकाशित। 

विश्व साहित्य के महत्वपूर्ण कवियों की कविताओं के अनुवाद 'उम्मीद' में प्रकाशित।

हिंदी के वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना की कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद।

वर्ष 2017 में कविता के लिए दिए जाने वाला प्रतिष्ठित मलखान सिंह सिसोदिया पुरस्कार से सम्मानित।

सम्प्रति: प्रोफेसर, अंग्रेजी विभाग, इंदिरा गांधी शारीरिक शिक्षा एवं खेल विज्ञान संस्थान, दिल्ली विश्वविद्यालय।

सम्पर्क: ए 3/133, जनकपुरी, नई दिल्ली- 110058

ई-मेल: sanjeevkaushal23@gmail.com

मो. नं. 9958596170

4 टिप्‍पणियां:

  1. राहुल पाण्डेय09 जनवरी, 2025 09:49

    उम्दा कवि की उम्दा कविताएं।सर बहुत विनम्र व्यक्तित्व के मालिक हैं।

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  2. अच्छी हैं कविताएं संजीव कौशल की। बधाई और शुभकामनाएं।
    हीरालाल नागर

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  3. सहज,सरल,स्वाभाविक अभिव्यक्ति जो पाठकों के मन में उतर रही है।
    सादर।
    -------
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १० जनवरी २०२५ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।


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