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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

01 जनवरी, 2025

शालू शुक्ला की कविताऍं

 

एक 


संदेहों से घिरी पृथ्वी पर

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संदेहों से घिरी पृथ्वी पर 

प्रेम से पवित्र कुछ भी नहीं 

आँसुओं से सिंचित कर

प्रेम को हरा रखने वाले प्रेमियों से सुन्दर कुछ भी नहीं



चित्र 

आदित्य चड़ार 








प्रेमियों के मिलने से ही होती है बारिश 

चहकती है चिड़िया,गाते हैं भंवरे

प्रेमियों के तड़पने से ही खिलते हैं पुष्प


अप्रेम से भरी दुनिया में 

खिला सकें यदि थोड़े से फूल

बिखेर सकें थोड़े से पराग

बचा सके यदि आखों के पानी तो

बचेगी पृथ्वी पर रहने की गुंजाइश 


प्रेमियों की सांसों से सुगन्धित रहे जीवन

प्रेमियों की जाग से उकता कर ये  धरती 

बोने लगे प्रेम के बीज

मै ऐसे प्रेम के कस्बे में रहती हूँ

जहाँ घृणा का प्रवेश वर्जित है।


दो


एक स्त्री की अभिलाषा

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मैं चाहती हूँ जिस वक्त पढ़ी जा रही हो यह कविता

ठीक उसी वक्त

किसी स्त्री के आँसुओं में 

डूब मरे यह दुनिया.....


और फिर एक नये स्वरूप 

नये कलेवर में शुरू हो एक नई दुनिया


और इस नई दुनिया का सर्व शक्तिमान ईश्वर 

न हो इतना बेचारा

कि उसे जीवित रहने को

आश्रित होना पड़े शासन के.....


मैं चाहती हूँ ईश्वर न हो जाय इतना अर्थहीन 

और विस्थापित कि सत्ताएँ उसे आश्रय देने का दम्भ पा लें 


और जनता पाखंड को श्रद्धा समझकर 

अपनी आत्मा को गिरवी रख दे...


मैं चाहती हूँ करुणानिधान ईश्वर शक्तिवान होकर

इतना क्रूर भी न हो 

कि उसी के लिए क़त्ल कर दी जाएँ उसकी संतानें...


मै चाहती हूँ कि राम का अनुसरण करने वाले राजा 

त्याग दे अपना सिंहासन 

और स्वीकार करें चौदह वर्ष का वनवास विश्व कल्याण के लिए


मैं चाहती हूँ हत्यारों के हृदय करुणा से भर जाएं

ताकि मिटाया जा सके हथियारों का अस्तित्व....


मैं चाहती हूँ स्त्रियां अपने धारदार नाखूनों से वध कर दे 

शुम्भ निशुम्भ जैसे राक्षसों का 


और मिट्टी में दबा आएं 'बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ' अभियान....

मैं चाहती हूँ किसी स्त्री के निर्वस्त्र किये जाने से पहले ही 

निर्वस्त्र हो जाए न्याय,धर्म, मनुष्यता,ईश्वर और सभ्यता....


मैं चाहती हूँ किसी खोई हुई भाषा के वियोग में 

प्राण त्याग दे कोई कविता 

और शर्मिन्दगी की हद तक 

डूब जाए बची हुई पृथ्वी।



तीन 


पूछती हूँ कोई है ?

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कितना कठिन है जीना

इस अभिशप्त समय में

सोचकर दहल जाता है सीना


आँखें हो जाती हैं लहूलुहान

खो जाती है आवाज़ यकायक

जैसे होऊँ ज्वालामुखी के मुँह पर 

जबरन बिठा दी गयी


स्त्री हूँ इसलिए हूँ सिर्फ आकांक्षा और भूख और लालच

देह खेलने और रौंदने के सिवा नहीं रखती अपना अस्तित्व

और आत्मा है जुगुप्सा से कलुषित होने के लिए मात्र


ऐसे समय में 

जब हर तरफ गिद्ध दृष्टियाँ घात लगाए बैठी रहती हैं

घर से बाहर 

और दफ्तर से बाजार तक

केवल खा जाने को आतुर नराधम भीड़ क्रूरता से घूरती है

हमें लगता है किन किन संतापों से पीछा छुडाएं

किन-किन वध स्थलों से भागकर जान बचाएँ


पूजिता स्त्री के देश में

हवश की भेंट चढ़ने को जो तैयार नहीं

देखते हम उसका हश्र

कोलकाता, उन्नाव, लखनऊ,

पटना, जम्मू बड़ौदा

कितने नाम लें

कितनों की पढ़ें मर्सिया

अब तो यही कहते हैं अपने-आप से

बचे रह गए हम तो लाखों पा गए

पर रोज-रोज मरती स्त्रियों के साथ

मरते हम भी थोड़ा-थोड़ा

लानत भेजते अपने समाज पर


काश, बना पाते हम ऐसा देश

जहाँ जीना दूभर न होता

इसी सम्भावना पर उम्मीद का दिया जलता है

मगर कब तक 


यह न आपको पता है न मुझे

स्त्री शर्म बेचकर जिए भी तो कब तक

कोई है जो जवाब दे, कोई है?

पूछती हूँ कोई है??



चित्र 

रमेश आनंद 










चार

अन्तिम इच्छा

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मृत्यु के समय यदि पूछी गई

अंतिम इच्छा तो

बनना चाहूँगी मैं

वह शाश्वत सुगंध 

फैलती रहे जो श्मशानों में


एक काली रात, जहाँ स्त्रियों ने फुटपाथ पर लिखी हो अपनी आजादी


हवा में घुला एक चुम्बन

भेजा हो जिसे किसी प्रेमी ने

जो बार-बार आमन्त्रित कर सके जीवन को


किसी गूंगे की निश्चल प्रार्थना का स्वर 

जो संसार को बना सके दयार्द्र

कोई ताज़ा ऐलान 

जो फ़रमाया हो मंसूर ने


'ओ हैनरी 'का वह आखिरी पत्ता

बसते हों जिसमें प्राण किसी के

एक प्यार भरी थपकी 

मातृविहीन शिशु के लिए

जिसके लिए कहीं कुछ भी शेष नहीं


उष्ण आलिंगन सब तरफ से ठुकराये युवक के लिए

जिसकी नियति हताशा बन चुकी हो

प्रेमियों के आँसू

जिसे पीता है ईश्वर

या फिर वह खोई हुई पंक्ति

जिसके बिना कविता कभी पूर्ण नहीं होती।


पाॅंच


कुछ-कुछ रोज

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उदास शामें कुछ कहे बिना

खो जा रहीं रात की गुफा में

दिन पसीजे हुए बर्फ की तरह

झरते जा रहे लगातार

सूरज पर धुंध की मोटी चादर बिछी है कई दिनों से

दिल बैठता जाता बार-बार 

किसी गहरे अवसाद से


ऐसे में जाने तुम कहाँ हो?

आवाज़ तुम तक पहुँचती नहीं

वह लौट लौट आती है बार-बार

ऐसे में करते हुए चीत्कार


प्रतीक्षा के कठिन क्षणों को गिनते

थक रही आँखें झरती हैं

उम्मीद के दिए की लौ तेज करते

जब देखते हैं अपना चेहरा


तुम आते हो नज़र खिलखिलाते

ऐसे में प्रतीक्षा होती जाती तीव्रतर

उदास शाम की तरह होते उदास हम कहाँ खो जाएँ

किस गुफा गह्वर में

सोचते हुए बीत जा रहे हम भी कुछ कुछ रोज इसी तरह।

*


छः 


ऐसी मयस्सर ज़िन्दगी

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हमने बनाए अपने आसमान

अपनी धरती लोग अपने

सब तरफ से चाक चौबंद कर

कोशिश की

चीखें आएं चाहें जितनीं

सिसकियां हों बेशुमार

नहीं खोलने अपने-अपने दरवाज़े


कितना कुछ ज़ब्त कर पनाह देना चाहा खुशियों को 

हर मज़लूम आवाज़ को

अनसुना करने की ठानी जिद

देश के सुरक्षित जगहों पर 

होते रहे अपराध फिर भी 

चारों ओर फैली रही धृतराष्ट्र-सी चुप्पी 


दुःख की बात यह रही कि

चुप्पी को तोड़ने के लिए 

हम,हमारा पड़ोस

पड़ोस के पड़ोस में से 

कोई आगे न बढ़ा 


शर्म की बात यह रही कि

इस बात की कहीं निंदा तक न हुई 

हम सत्ता से सहमति को 

समझते रहे देश-प्रेम 


सत्ता करती रही हमारी सराहना

सराहना में बहते हुए हम

अपने जन से इतनी दूर आ गये


जहाँ तन्त्र तो था

किन्तु जन नहीं थे।


सात


उदासी

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उदासी एक खूबसूरत चुम्बक है

जो अनायास ही खींच लेती है-

अपनी ओर


तुमसे मिलने के बाद जाना

यह भी जाना कि बोलने वाले से कहीं ज्यादा

श्रेष्ठ होता है सुनने वाला


सुनने में वो सलाहियत है कि बोलना भी  सिखा देती है

आपके साथ होनी चाहिए 

एक जोड़ी आँखें

जो सुन सकती हो 

आपकी चुप्पी


एक कन्धा जिस पर सर रखकर हुआ जा सके निढाल

उदासी कितनी मुखर होती है

वही जान सकता है 

जिसके पास हो सुनने की कला


सुनने की कला से ही 

सुन सकते हैं

तमाम नदियों,झरनों,पहाड़ों,और पेड़ों को

लेकिन किसी को सुनने के लिए

उसके बहुत करीब जाना पड़ता है

उसके जैसा बनना पड़ता है।



चित्र 

शशिभूषण बढ़ोनी 










आठ


पिता के बाद 

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प्रायः पिता के बाद 

अधिकार से पहना हुआ मायका

उतार आती हैं बेटियाँ


छूट जाता है घर में दनदनाते हुए घूमना

अधिकार,मनुहार,रौब और शिकायतें 

छूट जाती हैं साधिकार फरमाइशें 


एक सुलभ-सा संकोच पैरों में उतर आता है

पिता के बाद कोई नहीं पहुँचता हृदयतल तक


"कैसी हो" में ही पूरी कर ली जाती है जिम्मेदारी 

"सब ठीक है" को मान लिया जाता है ठीक 

जबकि कुछ भी ठीक नहीं होता प्रायः 


पिता सिर्फ पिता नहीं होते

पूरा का पूरा मायका होते हैं

पिता के बाद मजबूरी में रहना पड़े मायके तो---

बेटियाँ घर वालों के प्रति कृतज्ञ रहती हैं।


नौ


मुक्ति का जल

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पिता से जब उनका हाल पूछा जाता तो

कहते बुढ़ापा स्वयं एक बिमारी है

 

बिमारी ने जब उन पर धावा बोला

तो समय कांटे की तरह चुभने लगा

रातें जाले की तरह उलझनें लगी

चलना-फिरना, उठना-बैठना  कठिन हो गया 


बेटी ने जी जान से पिता की सेवा की

पिता पूर्ण रुप से स्वस्थ हो गये


बेटी मन ही मन खुश थी,अपनी सेवा पर

किन्तु पिता बहू पर ज्यादा प्यार मनुहार लुटाते रहे

यहाँ तक की बहू के सामने कृतज्ञ से रहते


पिता के व्यवहार से बेटी ने खुद को 

अपमानित महसूस करते हुए 

पिता से सवाल किया--

सेवा बेटी करे,मेवा बहू को मिले क्यों?


बेटियाँ चाहे जितनी सेवा करें 

लेकिन मुक्ति तो बहू के जल से ही मिलती है 

पिता ने कहा।


                                              

 संक्षिप्त परिचय 

शालू शुक्ला, लखनऊ, उत्तर प्रदेश 

सम्प्रति:जानकी पुल,जनरव,

सब लोग,विपाशा,देशज,इन्डिया इनसाइड,जैसी तमाम पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।

पुस्तक "तुम फिर आना बसंत" के लिए 

शीला सिद्धांतकर पुरस्कार से सम्मानित।


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