चित्र
रमेश आनंद
एक
चित्रलेखा
रंगमंच से उतरती चित्रलेखा
लौट आयी है धरती पर
प्रेम और प्रेम से जूझते हुए
जिंदगी और जिंदगी से जूझते हुए
अंतर्द्वंद से गुजरती हुई चित्रलेखा
आज पाप और पुण्य की प्रयोगशाला नहीं
बल्कि खुद ही पाप और पुण्य से परे
उलझती हुई सुलझा रही है
जिंदगी और मौत के फासले को
और तलाश रही है
शराब और नृत्य की दुनिया में जीवन की नयी परिभाषा
पर आधी रात गुजर जाने के बाद
उसके प्रेमियों के महल और झोपड़े बदल जाते हैं खंडहरों में
और सुबह होते ही फिर से
गुनगुनाने लगते हैं हिलांस उसकी मुंडेरों पर
लेकिन वह जानती है
इन तमाम घुटन भऱे रास्तों को वह अकेले नहीं जीती है
उसमें शामिल होते हैं चारो दिशाओं के साथ-साथ
तमाम रात्रि पक्षी भी
अपने तमाम संतापों के साथ।
दो
अहंकार
ये कैसा अहंकार है
सेक्स करता हुआ हर पुरुष
समझता रहा खुद को सर्वश्रेष्ठ
जबकि वह तो बस चाहती रही
एक प्रेमिल सा दैहिक प्रेम।
तीन
देह और प्रेम
अपने स्तनो में छुपाये तुम्हें
पोंछ लिया करती हूँ अपने हिस्से के आँसू
देह और प्रेम में अंतर करते-करते
भूल जाती हूँ कि मन की गति
और विचारों की उड़ान कभी एक नहीं होती।
चार
पुरुष वैश्यालय
तुम कहीं नहीं हो
मेरे अन्तर्मन पर तुम्हारी छाया भी नहीं है
मैं हर रोज तलाशती हूँ
एक पुरुष वैश्यालय
पर देवदास की तरह गलती से नहीं।
चित्र मुकेश बिजौले
पांच
एक स्त्री का हरम
वह हर रोज सजाती है अपना हरम
एक खाली पड़ा हरम
जिसमें उसे इंतजार है
इतिहास में दबे पड़े बादशाहों के आने का
जिनके खुद के थे कभी बड़े-बड़े हरम।
छः
किसी करीबी का जाना
किसी करीबी की मौत से ज्यादा तकलीफदेह है
उसका बार बार जिक्र किया जाना
जितनी मौत
उससे ज्यादा है ज़िन्दगी
लम्बी, बेहद लम्बी
किसी की याद में
ज़िंदा आदमी बार बार करता है याद अंतिम सांस तक
मरा हुआ आदमी सब कुछ छोड़ देता है ठीक उसी वक्त
जिस वक्त वह छोड़ देता है देह।
सात
शोकाकुल
पिता के नहीं रहने से लगा
जैसे कुछ भी बचा नहीं अपने हिस्से का इस घर में
छपे हुए कार्ड के शोकाकुल में भी अनुपस्थित रही मैं
मेरी माँ भी अनुपस्थित रही उस औपचारिक शोक सन्देश से
जबकि सबसे ज्यादा दुख में मेरी माँ थी।
आखिर क्यों
हमारे ही दुख-सुख सदियों से यूं ही दबे-छुपे रहे।
आठ
तेरहवीं क्या है?
तेरहवीं क्या है?
मौत के 13वें दिन शोक में डूबा उत्सव सा
लोग आते गए
शोक संवेदना के साथ
13वें दिन मौत और उससे जुड़े दुख थोड़ा पीछे हो गए
लोग कर्मकांड और उससे जुड़े निपटान में लग गए
बेटियां अनुपस्थित रहीं औपचारिक शोक सन्देश से
हमें कुछ कपड़े पैसे देकर निबटा दिया गया
हमारे हिस्से कुछ भी नहीं रहा
सिवा एक लिपचिपी सहानुभूति के।
नौ
नौकरीशुदा लोग
जल्दी से सैलरी आ जाए
इसी आस में हम नौकरीशुदा लोग
दिनों को जीते नहीं
उनके तेजी से गुजर जाने की दुआ करते हैं
30 तारीख आते ही गुलजार हो जाते हैं दिन
फिर पहला हफ्ता बीतते-बीतते
अगली तीस के इंतजार मेंं गुजार देते हैं जिंदगी
दस
दुखों को बोझ
अपने दुखों का बोझ
किसी और के कंधों पर डालना इतनी भी अच्छी बात नहीं
ठीक है असंख्य हैं पीड़ाएं
लेकिन किसी से यह सब कुछ कह देना
उसके हिस्से ऐसे दुख बांध देना है
जो उसके हैं ही नहीं।
परिचय:
मोबाइल नं.- 8319320157, ईमेल- ankitarasuri@gmail.com, 5 मई 1991 टिहरी गढ़वाल उत्तराखंड में जन्म।
वागर्थ, पक्षधर, अहा जिंदगी, तहलका, अमर उजाला जैसी कई पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।
जनसंचार में एमए एवं एमफिल
‘देहात’ एग्रीटेक कंपनी में असिस्टेंट मैनेजर-कंटेट के तौर पर कार्यरत।
फिलहाल गुरुग्राम में निवास।
_________________
अच्छी कविताएं। दैहिक प्रेम और पुरुष वेश्यालय जैसी कविताएं अभिव्यक्ति के नए आयाम स्थापित करती हैं। बधाई।
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचनाएं
जवाब देंहटाएंअच्छी कवितायेँ है। लिखते रहिये, और अच्छा लिखिए।
जवाब देंहटाएं