विनय सौरभ की कविताएँ
जिल्दसाज़
वह जो एक दिन दरवाजे पर आ खड़ा हुआ
बांग्ला में बोला :
किताबों पर जिल्द चढ़ाता हूं
किसी ने बताया कि आपके यहां किताबें बहुत हैं
कुछ किताबें देंगे हमें दादा!
बंगाल से आये हैं
वह सुबंधु था
समय की मार खाया हुआ चेहरा लिये अपना घर बार छोड़ आया था
उसने हमारे यहां पचासों जर्जर किताबों को जीवन दिया!
पत्नी और एक छोटे बच्चे को साथ लिये बंगाल के किसी गांव से निकल आया था सुबंधु!
कौन पूछता है अब जिल्दसाज़ को? किसके लिए ज़रूरी रह गयी हैं पुरानी किताबें?
सुबंधु तुम जिल्दसाज़ कैसे बने?
क्या तुम्हारे पिता जिल्दसाज़ थे?
तुम इतने अच्छे जिल्दसाज़ कैसे बने सुबंधु?
मैं बार-बार पूछता था
कितनी खुशी होती थी उसका काम देखकर
कितनी सफाई थी उसके काम में कि पुरानी किताबों से प्यार बढ़ता ही जाता था
दिन बीतते जाते थे और जिल्दसाज़ के चेहरे पर निराशा बढ़ती जाती थी जिल्दसाज़ी के लिए और किताबें नहीं मिल रही थीं गांव में
वह पूरे इलाके में पुरानी किताबों की तलाश में भटक रहा था
एक सर्द शाम को जब सबके घरों के दरवाजे बंद हो रहे थे और कोहरा घना हो रहा था, सुबंधु आया
बोला: दादा काम नहीं मिल रहा
कोई दूसरा काम भी तो नहीं आता
अपने देश लौट जाना होगा दादा!
यह सब कहते हुए दुख का कोहरा, मैंने देखा जिल्दसाज़ के चेहरे पर और घना हो रहा था
वह किताबों की आलमारी की तरफ देख रहा था और असहज कर देने वाली चुप्पी के साथ
मेरा और मेरे बड़े भाई का चेहरा फक्क था!
इन दिनों हम रोज़ ही सुबंधु की और उसके हाथ की कारीगरी की चर्चा करते हुए अघाते न थे
लेकिन एक जिल्दसाज़ के जीवन में क्या चल रहा था, पता न था!
बंगाल से किताबों को बचाने आया था वह पुरानी किताबों को जीवन देने आया था पुरानी किताबों की महक में जीता था वह जिल्दसाज़!
सुबंधु चला जाएगा!! यह बात फांस की तरह थी हमारी संवेदना में
जैसे मन के दीपक में तेल कम हो रहा था और एक रात में हरा जंगल जैसे खाली ठूंठ रह गया था उसके जाने की बात सुनकर
इलाके में पुरानी किताबें न थीं इसलिए सुबंधु वापस जा रहा था
गांव में जिल्दसाज़ का क्या काम!
आज हाट में मिला सुखदेव मरांडी
बोला: आपकी किताब बांधने वाला चला गया अपना सामान लेकर
बीवी बच्चा और टीन के बक्से-झोले के साथ बस पर चढ़ते देखा था उसने
जाने से पहले सुबंधु हमसे मिलने नहीं आया था
वह क्या करता हमारे यहां आकर!
हमारे यहां और पुरानी किताबें कहां थी?
तीन महीने वह रहा इस इलाके में
और कोई उसे जान नहीं सका!!
एक मजदूर को तो सब पहचानते हैं
मगर एक जिल्दसाज़ में किसी की दिलचस्पी नहीं थी!
आज तुम कहां होगे सुबंधु?
क्या पुरानी किताबों से भरी कोई दुनिया हासिल हुई तुम्हें ?
तुम्हारी याद अब एक यंत्रणा है जिल्दसाज़!
तुम अब जान ही गये होगे
किताबों की जगह बहुत कम हो गयी है हमारी दुनिया में
और पुरानी किताबों की तो और भी कम!
पुरानी किताबों की गंध के बीच जीना भूल चुकी है यह दुनिया!
"अपने बच्चे को जिल्दसाज़ी नहीं सिखाऊंगा दादा! वह कोई भी काम कर लेगा, जिल्दसाज़ी नहीं करेगा!!"
सुबंधु ने यही तो कहा था हमारी आखिरी मुलाकात में!
बरामदे से नीचे उतरते हुए और कोहरे में गुम होते हुए उस सर्द रात में!!
घर -1
एक घर था
जिसे एक रोज छूट जाना था
पता भी न हुआ हमें
और देखते ही देखते बदल गयी
उसके भीतर की हवा
हाथ जो खोलते थे प्रतीक्षा में
सामने का दरवाजा
कहाँ गये......?
एक चौकी थी
एक कुर्सी
एक रसोईघर
एक बरामदा
एक छज्जा बचपन की किताबों
और पुरानी गठरियों से भरा
मेरे बैठने की जगह पर अब धूल थी
और सामने एक परदा था
और उसके पीछे स्मृतियाँ थी.....
घर- 2
मैं चलता हूँ या अब मुझे चलना चाहिए
कहता हुआ आता हूँ घर के दरवाज़े पर
फिर कब आ पाऊँगा
या फिर मुझे जल्दी आ जाना चाहिए
मेरा झोला ठीक करते हुए
माँ कहती थी, जब वह थी
और दरवाजे से आँख भर मेरा जाना देखती थी
इस तरह से अपनी नौकरी पर जाने को निकलता हूँ घर से और थोड़ा घर पर ही छूट जाता हूँ
रूलाई बाहर आने से रोकता हूँ
बड़े भाई को कहता हूँ फलाँ काम देख लीजिएगा मौसी के यहाँ चले जाइएगा, सुना है बीमार है अब वही तो एक बहन बची है माँ की !
याद है गुड़ के अरसे कितना भेजा करती थी हमारे लिए !
चाहता हूँ बस छूट ही जाए !
कोई छूटी चीज़ याद आ जाए
और भागूँ घर के अंदर
अभिनय करूँ भीतर आते हुए
कि कमरे की खिड़की शायद खुली तो नहीं रह गयी ! शहर के किराये के घर की चाबी तो नहीं भूल आया ताखे पर !
जब तक शहर के लिए बस आ नहीं जाती
नज़र बचाकर देखता रहता हूँ घर को
अंतिम विदा की तरह
कभी एक शाम हुआ करती थी।
कभी एक इंतज़ार हुआ करता था
एक रस्ता मेरे पैरों से बँधा था
और एक कुर्सी मेरी राह देखती थी
उस घर के सारे बरतन मुझसे बातें करते थे
एक पेड़ छाँह लिए डोलता रहता था
एक जोड़ी आँखें मेरा लौटना
देखती थीं दूर तक
अब सब अंतिम विदा की तरह
शामिल हैं इस जीवन में
एक रोज
जिस जगह को
हम हृदय की अतल
गहराइयों से प्यार करते रहे
एक गहरी कचोट
और डूबते हुए दिल
के साथ छोड़ देनी
होती है एक रोज.!!
गंध
(संदीप नाईक के लिए)
_________
पुरानी किताबों की गंध की तरह
बसी है तुम्हारी याद
किताबें जो हमने पैदल चलकर
पैसे बचाते हुए खरीदीं
किताबें जो हमें प्रिय थीं
और जो हमें उपहार में मिलीं
और कुछ फुटपाथ पर
विस्मित कर देने वाली तारीख़ों
और हस्ताक्षरों से भरी हुईं
धूसर हो गयी शीशम की आलमारी में
बरसों से जतन से रखी गयीं
जिन्हें झाड़-पोंछ कर आता रहा हूँ
जीवन के लंबे और अपरिचित रास्तों पर
स्मृतियों को बचाता हुआ
समय की धूल से !
किताबों पर अपने नाम
शहर और तारीख़ लिखने की याद बाक़ी है
गोकि हमें अभी और शहर बदलने थे !
अभी भी शामिल हो तुम
एक ऐसी ही याद में !
००
विनय सौरभ की कुछ और कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2017/09/blog-post_26.html?m=1
बाएं से दाएं अविनाश दास, बाबा नागार्जुन, विनय सौरभ और साथी |
जिल्दसाज़
वह जो एक दिन दरवाजे पर आ खड़ा हुआ
बांग्ला में बोला :
किताबों पर जिल्द चढ़ाता हूं
किसी ने बताया कि आपके यहां किताबें बहुत हैं
कुछ किताबें देंगे हमें दादा!
बंगाल से आये हैं
वह सुबंधु था
समय की मार खाया हुआ चेहरा लिये अपना घर बार छोड़ आया था
उसने हमारे यहां पचासों जर्जर किताबों को जीवन दिया!
पत्नी और एक छोटे बच्चे को साथ लिये बंगाल के किसी गांव से निकल आया था सुबंधु!
कौन पूछता है अब जिल्दसाज़ को? किसके लिए ज़रूरी रह गयी हैं पुरानी किताबें?
सुबंधु तुम जिल्दसाज़ कैसे बने?
क्या तुम्हारे पिता जिल्दसाज़ थे?
तुम इतने अच्छे जिल्दसाज़ कैसे बने सुबंधु?
मैं बार-बार पूछता था
कितनी खुशी होती थी उसका काम देखकर
कितनी सफाई थी उसके काम में कि पुरानी किताबों से प्यार बढ़ता ही जाता था
दिन बीतते जाते थे और जिल्दसाज़ के चेहरे पर निराशा बढ़ती जाती थी जिल्दसाज़ी के लिए और किताबें नहीं मिल रही थीं गांव में
वह पूरे इलाके में पुरानी किताबों की तलाश में भटक रहा था
एक सर्द शाम को जब सबके घरों के दरवाजे बंद हो रहे थे और कोहरा घना हो रहा था, सुबंधु आया
बोला: दादा काम नहीं मिल रहा
कोई दूसरा काम भी तो नहीं आता
अपने देश लौट जाना होगा दादा!
यह सब कहते हुए दुख का कोहरा, मैंने देखा जिल्दसाज़ के चेहरे पर और घना हो रहा था
वह किताबों की आलमारी की तरफ देख रहा था और असहज कर देने वाली चुप्पी के साथ
मेरा और मेरे बड़े भाई का चेहरा फक्क था!
इन दिनों हम रोज़ ही सुबंधु की और उसके हाथ की कारीगरी की चर्चा करते हुए अघाते न थे
लेकिन एक जिल्दसाज़ के जीवन में क्या चल रहा था, पता न था!
विनय सौरभ |
बंगाल से किताबों को बचाने आया था वह पुरानी किताबों को जीवन देने आया था पुरानी किताबों की महक में जीता था वह जिल्दसाज़!
सुबंधु चला जाएगा!! यह बात फांस की तरह थी हमारी संवेदना में
जैसे मन के दीपक में तेल कम हो रहा था और एक रात में हरा जंगल जैसे खाली ठूंठ रह गया था उसके जाने की बात सुनकर
इलाके में पुरानी किताबें न थीं इसलिए सुबंधु वापस जा रहा था
गांव में जिल्दसाज़ का क्या काम!
आज हाट में मिला सुखदेव मरांडी
बोला: आपकी किताब बांधने वाला चला गया अपना सामान लेकर
बीवी बच्चा और टीन के बक्से-झोले के साथ बस पर चढ़ते देखा था उसने
जाने से पहले सुबंधु हमसे मिलने नहीं आया था
वह क्या करता हमारे यहां आकर!
हमारे यहां और पुरानी किताबें कहां थी?
तीन महीने वह रहा इस इलाके में
और कोई उसे जान नहीं सका!!
एक मजदूर को तो सब पहचानते हैं
मगर एक जिल्दसाज़ में किसी की दिलचस्पी नहीं थी!
आज तुम कहां होगे सुबंधु?
क्या पुरानी किताबों से भरी कोई दुनिया हासिल हुई तुम्हें ?
तुम्हारी याद अब एक यंत्रणा है जिल्दसाज़!
तुम अब जान ही गये होगे
किताबों की जगह बहुत कम हो गयी है हमारी दुनिया में
और पुरानी किताबों की तो और भी कम!
पुरानी किताबों की गंध के बीच जीना भूल चुकी है यह दुनिया!
"अपने बच्चे को जिल्दसाज़ी नहीं सिखाऊंगा दादा! वह कोई भी काम कर लेगा, जिल्दसाज़ी नहीं करेगा!!"
सुबंधु ने यही तो कहा था हमारी आखिरी मुलाकात में!
बरामदे से नीचे उतरते हुए और कोहरे में गुम होते हुए उस सर्द रात में!!
घर -1
एक घर था
जिसे एक रोज छूट जाना था
पता भी न हुआ हमें
और देखते ही देखते बदल गयी
उसके भीतर की हवा
हाथ जो खोलते थे प्रतीक्षा में
सामने का दरवाजा
कहाँ गये......?
एक चौकी थी
एक कुर्सी
एक रसोईघर
एक बरामदा
एक छज्जा बचपन की किताबों
और पुरानी गठरियों से भरा
मेरे बैठने की जगह पर अब धूल थी
और सामने एक परदा था
और उसके पीछे स्मृतियाँ थी.....
घर- 2
मैं चलता हूँ या अब मुझे चलना चाहिए
कहता हुआ आता हूँ घर के दरवाज़े पर
फिर कब आ पाऊँगा
या फिर मुझे जल्दी आ जाना चाहिए
मेरा झोला ठीक करते हुए
माँ कहती थी, जब वह थी
और दरवाजे से आँख भर मेरा जाना देखती थी
इस तरह से अपनी नौकरी पर जाने को निकलता हूँ घर से और थोड़ा घर पर ही छूट जाता हूँ
रूलाई बाहर आने से रोकता हूँ
बड़े भाई को कहता हूँ फलाँ काम देख लीजिएगा मौसी के यहाँ चले जाइएगा, सुना है बीमार है अब वही तो एक बहन बची है माँ की !
याद है गुड़ के अरसे कितना भेजा करती थी हमारे लिए !
चाहता हूँ बस छूट ही जाए !
कोई छूटी चीज़ याद आ जाए
और भागूँ घर के अंदर
अभिनय करूँ भीतर आते हुए
कि कमरे की खिड़की शायद खुली तो नहीं रह गयी ! शहर के किराये के घर की चाबी तो नहीं भूल आया ताखे पर !
जब तक शहर के लिए बस आ नहीं जाती
नज़र बचाकर देखता रहता हूँ घर को
अंतिम विदा की तरह
कभी एक शाम हुआ करती थी।
कभी एक इंतज़ार हुआ करता था
एक रस्ता मेरे पैरों से बँधा था
और एक कुर्सी मेरी राह देखती थी
उस घर के सारे बरतन मुझसे बातें करते थे
एक पेड़ छाँह लिए डोलता रहता था
एक जोड़ी आँखें मेरा लौटना
देखती थीं दूर तक
अब सब अंतिम विदा की तरह
शामिल हैं इस जीवन में
एक रोज
जिस जगह को
हम हृदय की अतल
गहराइयों से प्यार करते रहे
एक गहरी कचोट
और डूबते हुए दिल
के साथ छोड़ देनी
होती है एक रोज.!!
गंध
(संदीप नाईक के लिए)
_________
पुरानी किताबों की गंध की तरह
बसी है तुम्हारी याद
किताबें जो हमने पैदल चलकर
पैसे बचाते हुए खरीदीं
किताबें जो हमें प्रिय थीं
और जो हमें उपहार में मिलीं
और कुछ फुटपाथ पर
विस्मित कर देने वाली तारीख़ों
और हस्ताक्षरों से भरी हुईं
धूसर हो गयी शीशम की आलमारी में
बरसों से जतन से रखी गयीं
जिन्हें झाड़-पोंछ कर आता रहा हूँ
जीवन के लंबे और अपरिचित रास्तों पर
स्मृतियों को बचाता हुआ
समय की धूल से !
किताबों पर अपने नाम
शहर और तारीख़ लिखने की याद बाक़ी है
गोकि हमें अभी और शहर बदलने थे !
अभी भी शामिल हो तुम
एक ऐसी ही याद में !
००
विनय सौरभ की कुछ और कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2017/09/blog-post_26.html?m=1
बहुत अच्छी कविताएं
जवाब देंहटाएंविनय के पास स्मृतियों का खजाना है और सब याद करके वो जिस अंदाज में बयां करते है वह शैली उन्हें भीड़ में अलग करती है
अच्छी कविताएँ। गंध कविता खास उभर कर आती है
जवाब देंहटाएंबेहतरीन और बहुत सम्वेदनशील कविताएँ ।सभी कृत्रिमताओ से दूर जीवन से जुड़ी सच्ची जरुरी रचनाएँ । शुक्रिया ।
जवाब देंहटाएंबिनय सौरभ जी को शुभकामनाएं ।