कहानियों की त्रिआयामी प्रस्तुति
सुमन कुमारी
प्रत्येक माह के दूसरे शनिवार को होने वाली रमणिका फाउंडेशन, युद्धरत आम आदमी और ऑल इंडिया ट्राइबल लिटरेरी फोरम ' द्वारा आयोजित साहित्यिक मासिक-गोष्ठी (कहानी-पाठ) 18 दिसम्बर 2018 को इस बार हिंदी साहित्य के तीन बड़े कथाकारों की कहानियों का पाठ हुआ. नार्वे से आए सुरेशचन्द्र शुक्ल, उद्भ्रांत तथा महेश दर्पण ने अपनी कहानियों का पाठ किया. गोष्ठी में सबसे पहले सुरेशचन्द्र शुक्ल ने ‘लाहौर छूटा दिल्ली ना छूटे’ का पाठ किया. यह कहानी एक वैश्विक वितान रचती है. भारत-पाकिस्तान के सम्बन्धों को स्त्रियोचित दृष्टिकोण से दिखाया गया है. इनकी कहानी विस्थापन का दर्द बयाँ करती है और अजनबी शहर में अपनी सिर्फ अपनी एक जमीं ढूढती है. दादी और पोती जो अपनी जमीं ‘लाहौर’ छोड़कर ‘दिल्ली’ आ तो गए है लेकिन आज भी लाहौर की यादें उनके जहन में जस के तस बनी हुई है. दूरदर्शन पर लाहौर के बिगड़ते हालात को लेकर खबरें चल रही होती है, खबरें सुनकर कर दादी (कौशल्या) का मन परेशान हो उठता है...
“ ‘लाहौर के अनारकली बाज़ार में बम फटने से सत्रह लोगों की जान गई. इस धमाके के पीछे आतंकवादियों का हाथ था . लाहौर में कर्फ्यू लगा दिया गया है. एक आतंकी पकड़ा गया है.’ दादी के मन में मानो आग लग गई. अपना शहर जलता देख किसे दुःख नहीं होता. दादी ने कहा, ‘साडे (मेरे) लाहौर विच बम. हाय राम ! यह क्या हो रहा है ? क्या होगा इस दुनिया का, जिधर देखो उधर बम ? बम न हुए पटाके हो गये. ये कलमुहें आतंकी चाहते क्या है ?’ गहरी साँस भरकर कौशल्या ने कहा’”
इन पंक्तियों से लाहौर की भयभीत स्थितियों का दृश्य आँखों के आगे घूम सा जाता है, जो मन को सहमा भी देता है. अपनी जमीं से दूर जाने का दर्द सालों साल लोगों से भुलाए नहीं भूलता है और इसी स्थिति में उन्हें पराए जमीं पर न अपनाए जाने का भी डर सताता रहता है. कहानी के अंत में कौशल्या कहती है कि
“कमला लाहौर जरुर छूट गया पर दिल्ली नहीं छोडूंगी . चाहे मेरी जान ही क्यों न चली जाए.”
कहानी ‘लाहौर छूटा दिल्ली ना छूटे’ विस्थापन की पीड़ा को बहुत ही मार्मिक और सहज रूप में प्रस्तुत की गई है. इस पीड़ा को झेल रही दादी और पोती दोनों ही अपने लाहौर की बिगड़ती हुई हालात को लेकर परेशान तो रहती है , साथ ही दिल्ली को अपना बनाने के लिए भरसक प्रयास भी करती है .
दूसरे कहानी महेश दर्पण ने ‘उसकी तस्वीर के सामने’ पढ़ी. यह एक विधुर लेखक की कहानी है. इसमें दिवंगत पत्नी कुंतो को याद करने और अकेलेपन से पार पाने की कहानी है. पत्नी उसकी यादों में इतनी ताज़ा और जीवंत है कि लेखक को उसके ना होने का अहसास ही नहीं होता . पत्नी के ना रहने पर भी वह उसी प्रकार जी रहा है जैसे पहले जीता था. उसकी हिदायतें, बातों का पालन करते हुए काम करते, उसे महसूस करते हुए उसके लिए कॉफ़ी का दूसरा कप भी बना लेना और फिर उसे पीना. सब वैसा ही चलता जैसा कुंतों के रहने पर चलता था. उसे अब वे तमाम काम करते हुए ख़ुशी मिलती जो पत्नी कहती रहती थी. यह पति-पत्नी के संबंधों के साथ-साथ लेखक और उसके रचना-प्रक्रिया की भी कहानी है. विडम्बना यह हुई कि वः कुंतों को वे कविताएँ सुना ही नहीं पाया जो उसके लिए लिखी थी. उसे बार-बार पत्नी के निर्देश याद आते हैं, उन्ही के अनुसार वह पकाता-खाता है, कुंतो की तस्वीर को साक्षी मानकर .
“ठीक ही तो कहा था कुंतो ने। जो चीज हम बाहर कहीं और खोजते फिरते हैं, वह हमारे ही भीतर या आस-पास डोल रही होती है।
पता नहीं, कितनी देर वह कुंतो की तसवीर के सामने कुर्सी पर बैठा-बैठा उसके बारे में सोचता रहा। जाने यह कैसी घड़ी थी जब उसके लिए अतीत और वर्तमान का कोई फर्क ही नहीं रह गया था। जैसे सचमुच कोई काल भेद ही बीच में न हो। तभी उसका ध्यान एक बारीक-सी आवाज ने खींच लिया। लगा, यह आवाज कुंतो की तसवीर से निकल रही है-‘अरे, तुम ये कविताएं न भी लिखते न, तब भी मैं समझ जाती कि तुम मुझसे कितना गहरा लगाव महसूस करते हो। असल प्रेम तो इंसान के बर्ताव में होता है जी। वह मैंने तुमसे खूब पा लिया है। मुझे तुमसे मिलता था वह तुम्हारी नाराजगी में, झिड़कने में, रूठने में और कभी-कभार मुस्कराकर देख भर लेने में। क्योंकि उस सब में तुम जो थे, सो थे। उसमें कोई बड़ा सोचा-विचारा शामिल नहीं होता था तुम्हारा...’”
कहा जाता है कि इंसान जब पास में होता है तब उसकी अहमियत समझ नहीं आती है लेकिन जब वही इंसान पास में नहीं होता है तब उसकी अहमियत अच्छे से समझ आती है. ये कहानी एक तरफ लेखक की पत्नी की अहमियत को बताने के साथ-साथ रिश्तों की नरमाहट को बहुत ही नजदीकी से बयाँ करता है.
इनके बाद उद्भ्रांत ने अपनी कहानी ‘डुगडुगी’ का पाठ किया. यह चुनाव के दिन की कहानी है. पहली बार मतदान करने वाले युवा की मन:स्थिति को बयां करती यह कहानी युवा वोटर की दृष्टि से राजनैतिक स्थितियां का सूक्ष्म विश्लेष्ण प्रस्तुत करती है. एक राजनैतिक चेतना सम्पन्न परिवार में चुनाव के दिन पता चलता है कि कम उम्र युवाओं के भी वोट कैसे बनवाए और दाल जाते हैं. चुनाव के दिन का परिवेश यहाँ बेहद सजीव ढंग से चित्रित हुआ है. चुनावी हलचल को व्यक्त करते हुए लेखक कहता है कि
“यह एक विचित्र दिन था. पैदा होते ही इसके चेहरे पर औत्सुक्य, विस्मय, चमत्कार और छिना-झपटी के भाव जम गये थे.”
“वोट देकर निकला. वापस कैंप में पहुंचा तो दीदी बड़ी प्रसन्न नजर आ रही थी .
मुझे देखते ही बोली, ‘वोट दे आये?’
उनका प्रश्न बड़ा निरापद था. मैंने खा , ‘हां वोट दे आया’
मेरा उत्तर सुनकर वे धीरे से हसीं .
उनकी हंसी सुनी तो मैं भी बरबस हंस पड़ा.”
कहानी को चुनावी वोट की शुरुआत और अंतिम पड़ाव को राजनैतिक रूप-ढंग से प्रस्तुत किया गया है. चुनावी हलचल में अपनी-अपनी स्वार्थ पूर्ति को साधते हुए भी बड़े ही सरल और विस्तार रूप में दिखाया गया है. ये कहानी प्रासंगिक होते हुए आज के व्यवस्था और वातावरण को हूबहू दर्शाता है.
कहानियों पर टिप्पणी देते हुए पंकज शर्मा कहते है कि सुरेशचन्द्र शुक्ल की कहानी लाहौर और दिल्ली के महत्व को बताते हुए दादी और पोती के संवाद में अपने शहर की चिंता को व्यक्त करता है.
वहीं महेश दर्पण की कहानी में नब्बे के दशक के बदलाव को देखा जा सकता है . हर व्यक्ति आधा-अधुरा होता है और वो पूरा होता है दूसरों से और संबंधों से. व्यक्ति को ताकत देने के लिए एक ही रिश्ता काफी है यदि वह प्रेम का रिश्ता होतो.
उद्भ्रांत की कहानी की सफलता यही है कि वह रोजमर्रा के दिन को सार्थक बना देती है. यह कहानी सामान्य पारिवारिक , सामाजिक संबंधों के होते हुए भी घोर राजनैतिक कहानी है . इन्हीं शब्दों के साथ पंकज शर्मा अपनी बात पूरी करते है और साथ ही रमणिका फाउंडेशन के कार्य को सराहते है .
तीनों ही कहानियां सामाजिक और यथार्थ स्थिति की कहानी है जो आज समाज अलग-अलग रूप को दर्शाती है .
गोष्ठी के अंत में रमणिका गुप्ता ने अपनी अध्यक्षता में तीनों कहानियों को सराहा और कहा तीन क्षेत्रों की कहानियां सुनने को मिली.
कार्यक्रम में डॉ.विवेकानंद, डॉ.अजय नावरिया, भीमसेन आनंद, रेखा व्यास, बालकीर्ती, नितिन नारंग, दीपांकर, पंकज इंकलाबी, सुषमा, जया, श्रवण सरोज उपस्थित रहें. सभी ने गोष्ठी की चर्चा में रोचकतापूर्ण भागीदारी निभाई . कार्यक्रम का संचालन डॉ. टेकचंद ने किया .
सुमन कुमारी
सुमन कुमारी
प्रत्येक माह के दूसरे शनिवार को होने वाली रमणिका फाउंडेशन, युद्धरत आम आदमी और ऑल इंडिया ट्राइबल लिटरेरी फोरम ' द्वारा आयोजित साहित्यिक मासिक-गोष्ठी (कहानी-पाठ) 18 दिसम्बर 2018 को इस बार हिंदी साहित्य के तीन बड़े कथाकारों की कहानियों का पाठ हुआ. नार्वे से आए सुरेशचन्द्र शुक्ल, उद्भ्रांत तथा महेश दर्पण ने अपनी कहानियों का पाठ किया. गोष्ठी में सबसे पहले सुरेशचन्द्र शुक्ल ने ‘लाहौर छूटा दिल्ली ना छूटे’ का पाठ किया. यह कहानी एक वैश्विक वितान रचती है. भारत-पाकिस्तान के सम्बन्धों को स्त्रियोचित दृष्टिकोण से दिखाया गया है. इनकी कहानी विस्थापन का दर्द बयाँ करती है और अजनबी शहर में अपनी सिर्फ अपनी एक जमीं ढूढती है. दादी और पोती जो अपनी जमीं ‘लाहौर’ छोड़कर ‘दिल्ली’ आ तो गए है लेकिन आज भी लाहौर की यादें उनके जहन में जस के तस बनी हुई है. दूरदर्शन पर लाहौर के बिगड़ते हालात को लेकर खबरें चल रही होती है, खबरें सुनकर कर दादी (कौशल्या) का मन परेशान हो उठता है...
सुमन कुमारी |
“ ‘लाहौर के अनारकली बाज़ार में बम फटने से सत्रह लोगों की जान गई. इस धमाके के पीछे आतंकवादियों का हाथ था . लाहौर में कर्फ्यू लगा दिया गया है. एक आतंकी पकड़ा गया है.’ दादी के मन में मानो आग लग गई. अपना शहर जलता देख किसे दुःख नहीं होता. दादी ने कहा, ‘साडे (मेरे) लाहौर विच बम. हाय राम ! यह क्या हो रहा है ? क्या होगा इस दुनिया का, जिधर देखो उधर बम ? बम न हुए पटाके हो गये. ये कलमुहें आतंकी चाहते क्या है ?’ गहरी साँस भरकर कौशल्या ने कहा’”
इन पंक्तियों से लाहौर की भयभीत स्थितियों का दृश्य आँखों के आगे घूम सा जाता है, जो मन को सहमा भी देता है. अपनी जमीं से दूर जाने का दर्द सालों साल लोगों से भुलाए नहीं भूलता है और इसी स्थिति में उन्हें पराए जमीं पर न अपनाए जाने का भी डर सताता रहता है. कहानी के अंत में कौशल्या कहती है कि
“कमला लाहौर जरुर छूट गया पर दिल्ली नहीं छोडूंगी . चाहे मेरी जान ही क्यों न चली जाए.”
कहानी ‘लाहौर छूटा दिल्ली ना छूटे’ विस्थापन की पीड़ा को बहुत ही मार्मिक और सहज रूप में प्रस्तुत की गई है. इस पीड़ा को झेल रही दादी और पोती दोनों ही अपने लाहौर की बिगड़ती हुई हालात को लेकर परेशान तो रहती है , साथ ही दिल्ली को अपना बनाने के लिए भरसक प्रयास भी करती है .
दूसरे कहानी महेश दर्पण ने ‘उसकी तस्वीर के सामने’ पढ़ी. यह एक विधुर लेखक की कहानी है. इसमें दिवंगत पत्नी कुंतो को याद करने और अकेलेपन से पार पाने की कहानी है. पत्नी उसकी यादों में इतनी ताज़ा और जीवंत है कि लेखक को उसके ना होने का अहसास ही नहीं होता . पत्नी के ना रहने पर भी वह उसी प्रकार जी रहा है जैसे पहले जीता था. उसकी हिदायतें, बातों का पालन करते हुए काम करते, उसे महसूस करते हुए उसके लिए कॉफ़ी का दूसरा कप भी बना लेना और फिर उसे पीना. सब वैसा ही चलता जैसा कुंतों के रहने पर चलता था. उसे अब वे तमाम काम करते हुए ख़ुशी मिलती जो पत्नी कहती रहती थी. यह पति-पत्नी के संबंधों के साथ-साथ लेखक और उसके रचना-प्रक्रिया की भी कहानी है. विडम्बना यह हुई कि वः कुंतों को वे कविताएँ सुना ही नहीं पाया जो उसके लिए लिखी थी. उसे बार-बार पत्नी के निर्देश याद आते हैं, उन्ही के अनुसार वह पकाता-खाता है, कुंतो की तस्वीर को साक्षी मानकर .
“ठीक ही तो कहा था कुंतो ने। जो चीज हम बाहर कहीं और खोजते फिरते हैं, वह हमारे ही भीतर या आस-पास डोल रही होती है।
पता नहीं, कितनी देर वह कुंतो की तसवीर के सामने कुर्सी पर बैठा-बैठा उसके बारे में सोचता रहा। जाने यह कैसी घड़ी थी जब उसके लिए अतीत और वर्तमान का कोई फर्क ही नहीं रह गया था। जैसे सचमुच कोई काल भेद ही बीच में न हो। तभी उसका ध्यान एक बारीक-सी आवाज ने खींच लिया। लगा, यह आवाज कुंतो की तसवीर से निकल रही है-‘अरे, तुम ये कविताएं न भी लिखते न, तब भी मैं समझ जाती कि तुम मुझसे कितना गहरा लगाव महसूस करते हो। असल प्रेम तो इंसान के बर्ताव में होता है जी। वह मैंने तुमसे खूब पा लिया है। मुझे तुमसे मिलता था वह तुम्हारी नाराजगी में, झिड़कने में, रूठने में और कभी-कभार मुस्कराकर देख भर लेने में। क्योंकि उस सब में तुम जो थे, सो थे। उसमें कोई बड़ा सोचा-विचारा शामिल नहीं होता था तुम्हारा...’”
कहा जाता है कि इंसान जब पास में होता है तब उसकी अहमियत समझ नहीं आती है लेकिन जब वही इंसान पास में नहीं होता है तब उसकी अहमियत अच्छे से समझ आती है. ये कहानी एक तरफ लेखक की पत्नी की अहमियत को बताने के साथ-साथ रिश्तों की नरमाहट को बहुत ही नजदीकी से बयाँ करता है.
इनके बाद उद्भ्रांत ने अपनी कहानी ‘डुगडुगी’ का पाठ किया. यह चुनाव के दिन की कहानी है. पहली बार मतदान करने वाले युवा की मन:स्थिति को बयां करती यह कहानी युवा वोटर की दृष्टि से राजनैतिक स्थितियां का सूक्ष्म विश्लेष्ण प्रस्तुत करती है. एक राजनैतिक चेतना सम्पन्न परिवार में चुनाव के दिन पता चलता है कि कम उम्र युवाओं के भी वोट कैसे बनवाए और दाल जाते हैं. चुनाव के दिन का परिवेश यहाँ बेहद सजीव ढंग से चित्रित हुआ है. चुनावी हलचल को व्यक्त करते हुए लेखक कहता है कि
“यह एक विचित्र दिन था. पैदा होते ही इसके चेहरे पर औत्सुक्य, विस्मय, चमत्कार और छिना-झपटी के भाव जम गये थे.”
“वोट देकर निकला. वापस कैंप में पहुंचा तो दीदी बड़ी प्रसन्न नजर आ रही थी .
मुझे देखते ही बोली, ‘वोट दे आये?’
उनका प्रश्न बड़ा निरापद था. मैंने खा , ‘हां वोट दे आया’
मेरा उत्तर सुनकर वे धीरे से हसीं .
उनकी हंसी सुनी तो मैं भी बरबस हंस पड़ा.”
कहानी को चुनावी वोट की शुरुआत और अंतिम पड़ाव को राजनैतिक रूप-ढंग से प्रस्तुत किया गया है. चुनावी हलचल में अपनी-अपनी स्वार्थ पूर्ति को साधते हुए भी बड़े ही सरल और विस्तार रूप में दिखाया गया है. ये कहानी प्रासंगिक होते हुए आज के व्यवस्था और वातावरण को हूबहू दर्शाता है.
कहानियों पर टिप्पणी देते हुए पंकज शर्मा कहते है कि सुरेशचन्द्र शुक्ल की कहानी लाहौर और दिल्ली के महत्व को बताते हुए दादी और पोती के संवाद में अपने शहर की चिंता को व्यक्त करता है.
वहीं महेश दर्पण की कहानी में नब्बे के दशक के बदलाव को देखा जा सकता है . हर व्यक्ति आधा-अधुरा होता है और वो पूरा होता है दूसरों से और संबंधों से. व्यक्ति को ताकत देने के लिए एक ही रिश्ता काफी है यदि वह प्रेम का रिश्ता होतो.
उद्भ्रांत की कहानी की सफलता यही है कि वह रोजमर्रा के दिन को सार्थक बना देती है. यह कहानी सामान्य पारिवारिक , सामाजिक संबंधों के होते हुए भी घोर राजनैतिक कहानी है . इन्हीं शब्दों के साथ पंकज शर्मा अपनी बात पूरी करते है और साथ ही रमणिका फाउंडेशन के कार्य को सराहते है .
तीनों ही कहानियां सामाजिक और यथार्थ स्थिति की कहानी है जो आज समाज अलग-अलग रूप को दर्शाती है .
गोष्ठी के अंत में रमणिका गुप्ता ने अपनी अध्यक्षता में तीनों कहानियों को सराहा और कहा तीन क्षेत्रों की कहानियां सुनने को मिली.
कार्यक्रम में डॉ.विवेकानंद, डॉ.अजय नावरिया, भीमसेन आनंद, रेखा व्यास, बालकीर्ती, नितिन नारंग, दीपांकर, पंकज इंकलाबी, सुषमा, जया, श्रवण सरोज उपस्थित रहें. सभी ने गोष्ठी की चर्चा में रोचकतापूर्ण भागीदारी निभाई . कार्यक्रम का संचालन डॉ. टेकचंद ने किया .
सुमन कुमारी
इस पृष्ठ को पहली बार देखा है। बहुत सुंदर और सधी हुई प्रस्तुति। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंअभिषेक चन्दन और ऋषि कुमार को एक ही समझें
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति
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