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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

30 दिसंबर, 2018

 किरण यादव की कविताएं



किरण यादव 


एक 
अनंत प्रेम

फूलों की खूशबू
सावन की बौछारों में
चारों ओर महक रही है
यह गँध मुझे भटकाती है
उन पुराने बीते हुए दिनों में
तब अचानक ह्रदय के तार बज उठते है
नई कोपलें फूटने लगती है
आज तुम भले ही नही हो
पर तुम्हारा कोमल स्पर्श
मेरे बालों को सहलाता
तुम्हारी आवाज सुहावने मौसम सी गुंजती
बस मैं एक टक
उस खुले आकाश को निहारती हूँ
जिसका ह्रदय विशाल है
प्रेम अनंत है
मै उसके बाहुपाश में सिमट जाने को तत्पर हूँ
हवाएँ उसका प्रेम संदेश लाई है
जो आ मुझसे टकराई है
फुसफुसाते होंठ
दबी हँसी खिलखिलाना चाहती है
दो घड़ी बैठूँ , तुम्हारे साथ बतियाऊँ
इच्छाएँ एकटक तुम्हें निहारती है
मैं तो यही हूँ
पर तुम कहाँ हो.!!





दो 
मन दर्पण

चेहरा तो हम रोज़
देखते है
दर्पण में
पर मन रूपी दर्पण के
कपाट जब खुलेंगे
तब हम कर पाएँगे
दर्शन उसमें अपने
आत्म -स्वरूप का ..!




तीन 
यादें

तुम आए
चले गए
ले गए साथ
मेरा सब कुछ
तुमसे बिछड़े हम
ना जाने फिर मिलेंगे कब
अब रहते है
ख़ामोश ,तन्हा
उदास , अकेले
अपने से अनजान
हो गए ख़ाली - ख़ाली
मेरे दिन और दिन से
कड़ी रात
आँखें अब नींद को तरसती है
करवट लिए बदन कराहता है
निरंतर संवाद
तेरे और मेरे बीच में चलता है
तुम्हारी यादें
रोज़ दस्तक देती है
मेरे दिल के दरवाज़े पे
डूब जाते है सितारें
मेरी पलकों के अंधेरे में
ये साँसें है जो तपिश का अरथ
समझ








चार 

रोज़ तुम मिलते थे
गली के नुक्कड़ पर
इस छोर तो उस छोर
नज़र उठाके नही देखा
कभी तुम्हारी ओर
 लाते थे सुर्ख़ गुलाब
अपनी पसंद के लिए
करती रोज़ इनकार
मैं लेने से
था पाकीज़ापन
ना तुमने आना छोड़ा
ना मैंने छोड़ा गली के उस पार जाना .।।





पांच

आज संगिनी
के सामने
माँ !
की ममता का
दम घुटने लगा है .!!!



छः
चाँद

रात भर
चाँद और मैं
साथ थे
बाँहें फैला
आलिंगन
माथे पे चुंबन किया
प्रेम में डूबी रात
पंखुड़ियों से खिले थे गुलाब .!!!




सात
अनंत सोचे

अनंत सोचे
दुबकी बैठी है
मन की गुफा में
ठिठकती है ख़ुशियाँ
पीछा करती है परछाईयाँ
विचारों के भँवर में
जीवन की चाह छुपी है
जहाँ हथेली की लकीरें
थोड़ा इंतज़ार करने को कहती है ..!!!!




आठ
बीज

रोप दिए है बीज
उड़ेगी सौंधी महक
परतें खुलेगी
कोपलें झांकेगी
महकेंगे पुष्प
थिरकेगे पत्ते .!!!



नौ 
बूढ़ी आँखें

समय का बदला
मंज़र देख
अपना बीता हुआ
समय याद करती है
मेढ़े ,
खेतों की पगडंडी
और कच्चे घर तलाश करती है ..!!!



दस 
खुल रही है
साँकल मन की
पग-पग पर राहों के
खुलेंगे द्वार ,
मलिनता धो लूँ
पहनूँ उजले तन पर लिबास
अनगिनत दिशाएँ देख रही
खोल - खोल मुझको
अपने किवाड़ ...!!!
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परिचय 
नाम   किरण यादव
पिता - रणजीत सिंह यादव
माता- राजबाला देवी
जन्म - 1.1.1980
स्थान - गुड़गाँव , हरियाणा
निवास - साउथ दिल्ली
शिक्षा वाणिज्य
हिंदी साहित्य से गहरा लगाव
यह प्रेरणा स्कूल से ही मिली
अनुभव से जो सीखा वही लिखने की कोशिश रहती है
निरंतर अध्ययन का सिलसिला जारी है
मैं अपनी प्रथम पुस्तक काव्य संग्रह मे व्यस्त हूँ
और जनवरी में साझा पुस्तक भी आने की तैयारी है


किरण यादव 
नई दिल्ली 
9891426131

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