कहानी ' पत्थगलढ़ी ' का पाठ
चंद्रावती
‘सृजन संवाद’ की नवंबर मास की गोष्ठी में रांची से आये 'दक्खिन टोला' जैसी चर्चित कहानी संग्रह के कथाकार कमलेश ने अपनी कहानी 'पत्थलगड़ी' का पाठ किया। कमलेश को सुनने स्थानीय लेखक, साहित्यकार व साहित्यप्रेमी एकत्र हुए। 'पत्थलगड़ी' जल, जंगल और जमीन बचाने की कहानी है। यह आदिवासियों के अंदर के उनके प्रकृति प्रेम और उसके प्रति समर्पण को दर्शाती कहानी है। इस कहानी में इस बात का जिक्र है कि किस प्रकार एक आदिवासी परिवार की तीन पीढ़ी जंगल और पहाड़ को बचाने के लिए अपनी जिंदगी कुर्बान कर देती है। आज भी यह आम धारणा बनी हुई है कि जल, जंगल, जमीन की बात करने वाले को पुलिस और सरकार माओवादी मानती है। पिछले दिनों खूंटी में हुए पत्थलगड़ी प्रकरण को संदर्भ कर लिखी गयी यह अदभुत कहानी है।
कमलेश |
कहानी सुन कर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए अंकित ने कहा कि कहानी में पूरी घटना आँखों के समक्ष जीवंत हो गई। आभा विश्वकर्मा को कहानी का अंत बहुत तकलीफ़देह लगा। तांजानिया से आई प्रियंका ओम ने कहा कि तीन पीढ़ियों तक आंदोलन जिंदा है यह बड़ी बात है। अंतिम पंक्ति, ‘साला मरता क्यों नहीं’ बहुत प्रभावित करती है। प्रदीप शर्मा को आदिवासी का अपनी जमीन से लगाव बहुत मार्मिक लगा साथ ही आदिवासी को माओवादी घोषित कर देना एक आम बात हो गई है। वैभवमणि त्रिपाठी ने कहा बिसराम पूरी विचारधारा पा प्रतिनिधि चेहरा है और यह अंत तक नहीं मरता है, कहानी में विद्रोह अंत तक जीवित रहता है। विकास की संकल्पना में आदिवासी कहीं नहीं है। जब तक आदिवासी का जल, जंगल, जमीन से लगाव रहेगा और कंपनी का विस्तारवाद रहेगा, तब तक यह विद्रोह कायम रहेगा। परमानंद रमण ने कहा कि यह कहानी एक चरित्र को ले कर रची गई है और कहानीकार अंत तक निर्वाह करने में सफ़ल रहा है। मात्र झरखंड में ही नहीं अन्य आदिवासी इलाकों जैसे छत्तीसगढ़ में भी ऐसी समस्या है। धर्मप्रचारक जैसे अंडमान में संस्कृति को नष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं वैसे ही विकास के नाम पर भी आदिवासियों की संस्कृति समाप्त की जा रही है। कहानी में कई बातें मूक रह कर भी प्रभावित करती हैं।
अखिलेश्वर पाण्डेय ने बताया कि यह आदिवासियों के मुद्दों पर लिखी पहली कहानी है जिसका साल भर के भीतर तीन भाषाओं में अनुवाद हुआ है। कहानीकार ने पत्रकार होने के नाते पूरे क्षेत्र का दौरा करके इसे लिखा है। ‘पत्थलगढ़ी’ न तो माओवादियों का पक्ष लेती है और न ही सरकार के पक्ष में खड़ी है, यह पूरी तरह से आदिवासियों, पर्यावरण के साथ है। सिर्फ़ नाम के आगे मुंडा या टोप्पो लिख लेने से ही कोई आदिवासी नहीं हो जाता है, उसके भीतर पैशन होना चाहिए, बेचैनी होनी चाहिए। अभिषेक गौतम ने कहा कि यह खुद को बचाने, जल, जंगल, जमीन को बचाने की कहानी है, जबकि कंपनियाँ केवल अपने फ़ायदे की बात सोचती हैं। खुशबू के अनुसार लंबी कहानी होने के बावजूद उत्सुकता अंत तक बनी रही। चंद्रावती के अनुसार कहानी का प्रभाव देर तक बना रहने वाला है।
गोष्ठी की अध्यक्षता कर रही वरिष्ठ लेखिका डॉ विजय शर्मा ने कहा कहानी अंत तक बाँधती है, कथारस इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। आदिवासी का विकास करना है तो उन्हें साथ ले कर करना होगा, उन्हें किनारे करके उनका विकास कैसे होगा? हेरॉल्ड पिंटर ने कहा है किसी को पहले पागल कुत्ता साबित करके फ़िर गोली मारना आसान है ठीक इसी तरह आदिवासी को माओवादी करार दे कर समाप्त करना सरल है। बहुत से आंदोलनकारी भी उद्देश्य से भटक कर मात्र अपना स्वार्थ देख रहे हैं। हालाँकि जैसा जापान के केनज़ाबुरो ओए तथा बेलारूस की स्वेतलाना कहती हैं कि यह एक हारी हुई लड़ाई है, वैसे ही सरकार, सत्ता और उद्योगपतियों से आदिवासियों का टक्कर लेना एक हारी हुई लड़ाई है मगर इसीलिए संघर्ष करना रुक तो नहीं सकता है। जनता को सदैव प्रश्न पूछना चाहिए। विद्रोह जारी रहेगा और यही इस कहानी का संदेश है। विकास के नाम पर पर्यावरण को नष्ट करने वालों को भी इसका खामियाजा भुगतना होगा। कमलेश की कहानी ‘पत्थलगढ़ी’ विश्व साहित्य से जुड़ती है और इसके लिए कहानीकार बधाई का पात्र है। कहानीकार कमलेश ने इस कहानी की पृष्ठभूमि बताई। काफ़ी देर विचार-विमर्श होने वाली इस गोष्ठी में आभा विश्वकर्मा, वैभवमणि त्रिपाठी, अखिलेश्वर पांडेय, परमानंद रमण, प्रियंका ओम, प्रदीप कुमार शर्मा, चंद्रावती कुमारी, अंकित, अभिषेक गौतम, खुशबू कुमारी आदि मौजूद थे।
००
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें