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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

01 दिसंबर, 2018

कला को नए सिरे से गढ़ना होगा
यादवेन्द्र



यादवेन्द्र


"भारत एक बहु सांस्कृतिक देश है।संस्कृति बेहद  संश्लिष्ट चीज है,इसे वैसे नहीं बांधा जा सकता है जैसे नक्शे पर रेखाओं से किसी भूभाग को बाँट दिया जाता है।इसलिए "भारतीय संस्कृति" जैसी किसी चीज का अस्तित्व नहीं है।भारत अन्य देशों के लिए अपनी  बहु सांस्कृतिक पहचान के चलते एक मॉडल है। लोग क्या पहनें,क्या खायें इस बारे में उनको किसी को हुक्म नहीं देना चाहिए।संस्कृति लोगों को जोड़ने के लिए है,तोड़ने के लिए नहीं।"

"जीवन के हर पक्ष में राजनीति होती है,गैर राजनीतिक इंसान किसी कोण से नागरिक नहीं माना जा सकता।देश की वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था ऐसी है कि लोग भी विभाजित कर दिए गए हैं और उनकी विचारधाराएँ भी। वैचारिक आज़ादी,नजरिया,भावनाएँ,विमर्श, मत - सबकुछ बाँट डालने का षड्यंत्र रचा जा रहा है।"

"हमें प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी और कॉंग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से बड़े और बेहतर नेता चाहिए - जो जनता की भावनाओं को समझें और उनके साथ  उनकी भाषा में संवाद कर सकें।देश के शीर्ष पर जो हो उसे सभी नागरिकों को साथ लेकर  चलना चाहिए।"

"मैं नहीं चाहता कि मेरी पहचान संगीत तक सीमित कर दी जाए इसीलिए मैं अपनी बातें बोलता लिखता रहता हूँ - वर्तमान सन्दर्भों पर अपनी राय व्यक्त करने के ये माध्यम हैं।"

उपर्युक्त बातें बड़ी बेवाकी के साथ कहने लिखने वाले मैग्सेसे और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय एकता पुरस्कारों से सम्मानित कर्णाटक संगीतज्ञ टी एम कृष्णा इनदिनों चर्चा में हैं। हाल में दिल्ली में एक सरकारी प्रतिष्ठान द्वारा आयोजित उनका कार्यक्रम अचानक रद्द कर दिया गया और उनपर राष्ट्रद्रोही . हिन्दू विरोधी और यहाँ तक कि "अर्बन नक्सल" होने तक के आरोप सोशल मीडिया पर लगाये गए।

पुख्ता वैचारिक आधार सामने रख कर संगीत के माध्यम से सम्पूर्ण कला संसार को लोकतांत्रिक स्वरूप प्रदान करने की लंबी लड़ाई उन्होंने छेड़ी है जिसमें समाज के सभी तबकों का बराबरी के आधार पर प्रवेश हो....अभिजात ईश्वर के आह्वान के साथ साथ ब्राह्मणेतर देवताओं का और अल्लाह जीसस की आराधना भी समादृत हो।ध्यान रहे , कृष्णा वास्तविक राष्ट्रीय एकता की जिस अवधारणा की बाद कहते हैं वह वर्तमान सत्ता तंत्र की अवधारणा और व्यवहार  बिलकुल मेल नहीं खाती इसी लिए जगह जगह पर उनके विरोध की वजहें भी स्पष्ट दिखाई देती हैं।

यहाँ प्रस्तुत है उनकी हाल में प्रकाशित किताब "रीशेपिंग आर्ट" का एक विचारोत्तेजक अंश :



                    कला को नए सिरे से गढ़ना  होगा 
                                                                                                             टी एम कृष्णा

कला मुख्यतया अपने कार्यक्षेत्र के सामाजिक सन्दर्भों के पाश से जकड़ी होती है .... इसका मतलब यह हुआ कि कला का महत्त्व  प्रमुख रूप से उन समुदायों की सांस्कृतिक प्रभुता पर आश्रित रहता  है जो उसके धारक हैं। भारतीय सन्दर्भों में देखें तो उच्च वर्गों के हाथ से राजनैतिक सत्ता का एकाधिकार भले निकल गया हो पर सांस्कृतिक रूप से अब भी देश में उनकी मालिकाना सत्ता कायम है। मैं इस विषय को थोड़ा विस्तार से बताता हूँ -

कला हमारे सामाजिक जीवन के हर पहलू को प्रभावित ही नहीं करती  है बल्कि नियंत्रित भी करती  है - भोजन,वेश भूषा ,रीति  रिवाज़ ,धार्मिक आस्था ,मनोवृत्ति ,नैतिकता ,उचित अनुचित .... जन्म से लेकर मृत्यु तक हमारी संस्कृति अपनी धुनों  पर हमें नचाती रहती है। हमारे क्रिया कलापों  और प्रतिबद्धताओं पर बलशाली और आक्रामक  संस्कृति का भरपूर नियंत्रण रहता है - जो कोई भी इस दबंग समुदाय का होता है या उसकी अधीनता स्वीकार कर उसकी छत्रछाया में बना रहता है वही हमारा आदर्श सांस्कृतिक नायक या प्रतीक बनता है। शेष समाज से उम्मीद की जाती है कि वह इस व्यवस्था को सिर झुका कर स्वीकार कर ले अन्यथा उनको प्रताड़ित किया जायेगा ... बहिष्कार तक की नौबत आ सकती है। ए के रामानुजन ने हमें बताया ही है कि इस देश में सैकड़ों रामायण हैं जिनका मुख्य किरदार एक है पर कथा भिन्न भिन्न है ..... जिसने यह कथा कही उसने अपने समुदाय की भावनाओं को प्रतिनिधि स्वर दिया - उनकी सबसे अलग पहचान , विशिष्टता ,विश्व दृष्टि , विचार और चुनौतियाँ इसका आधार बनीं। फिर भी  हम इस से इनकार  नहीं कर  सकते कि रामायण पर वाल्मीकि ,तुलसीदास और कंबन कुंडली मार कर बैठ गए हैं। इसका कारण समझना  मुश्किल नहीं है - इन कवियों की लिखी रामायण उच्च वर्ण के हिन्दुओं के बीच समादृत और लोकप्रिय हैं। इतना ही नहीं इनकी लिखी कृतियाँ हू ब हू वैसी संरक्षित  नहीं रखी गयी हैं बल्कि नियंत्रण रखने वाले वर्ग ने उनको अपनी "वर्तमान"  समझ से न सिर्फ़ अनुकूलित किया है बल्कि संशोधित और परिशुद्ध भी किया है। यहाँ यह ध्यान रखना होगा कि  "वर्तमान" की अवधारणा  जड़ नहीं है बल्कि परिवर्तनशील है।

टी एम कृष्णा


इसका मतलब यह हुआ कि कला के वे सभी रूप जो सौंदर्य की उनकी( उच्च वर्ण की)  परिधि और परिभाषा में आते हैं वे भारत की बिरासत का निर्माण करते हैं। भारत सरकार जब जब भी संस्कृति के सार्वजनिक समारोह करती है तब हम यह देखते हैं .... इन  समारोहों में शास्त्रीय संगीत , भरत नाट्यम ,कत्थक इत्यादि का बोलबाला होता है। उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त इन कला रूपों में भी वर्ग विभाजन होता है : भरत नाट्यम को ओडिशी पर तरजीह दी जाती है और हिन्दुस्तानी संगीत को कर्णाटक संगीत से श्रेष्ठ समझा  जाता है। जो "दूसरे" कला रूप हैं उन्हें सामान्य से अलग हट कर मनोरंजक तमाशे के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है। निम्न वर्ण  के कलाकारों की कला के साथ  हम वैसे ही उपेक्षा का बर्ताव करते हैं जैसे बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में पश्चिम के देश भारतीय नृत्यों के साथ अचरज और हिकारत के साथ किया करते  थे।
                               
  ( मई 2018 में प्रकाशित टी एम कृष्णा की किताब " रीशेपिंग आर्ट" का एक अंश )


             
 चयन व प्रस्तुति : यादवेन्द्र  (yapandey@gmail.com)



यादवेन्द्र जी का एक लेख और नीचे लिंक पर पढ़िए

अभिव्यक्ति की आज़ादी पर पाबंदी नहीं

https://bizooka2009.blogspot.com/2018/11/31.html?m=0




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