कल्पना मनोरमा की कविताएँ
कल्पना मनोरमा |
आदेश
साफ बोलने की कोशिश में
बोलती हूँ हमेशा
रुककर और समझकर
फ़िर भी
उलझ जाते हैं शब्द
शब्दों में
अकड़ने लगती है जीभ
भरने लगती है गालों में
अतिरिक्त हवा
अटकने लगतीं हैं ध्वनियाँ
दाँतों के मध्य
हैरान होकर अचानक
ढूँढने लगती हूँ कारण
अवरोध का
एक दिन
तो पाती हूँ चुप रहने के
अनेक आदेशों को
चिपका हुआ
बचपन के होंठों पर ।
खण्डित मूर्ति
सदियों से बुना जाता रहा है
गीतों में नसीहतों के
व्यापार को
इस तरह कि-एक औरत दूसरी औरत को
घुमा-फिराकर बता भी जाये
घुट-घुटकर मरने के
टिकाऊ तरीके
और बनी भी रहे सगी
टेसू-झिंझिया के खेल हों या हो
सरिया ,सोहर और ब्याहगीत
बनाकर दिया को साक्षी
हमेशा गाया कम सिखाया ज्यादा
जाता रहा है
कोरे मन वाली स्त्री को
अपने दमन को हँसकर
स्वीकारने की कला
बड़ी-बूढ़ी औरतें
सीख को पिरोकर गीत में जब
कहती -मुस्कुरातीं -झूमती
तो आँसू खो देते अपना आपा
लेकिन तटस्थ स्वर कहते
ओ स्त्री ! ससुराल में जब दुख तुम्हें घेरले
तो तुम निराशा में भले ही डूब जाना
किन्तु अपने मायके
मत भेजना संदेश
अपनी उदासी या परेशानी का
नहीं तो हो जाएगा अनर्थ
तुम्हारे पिता गिर जाएँगे खाकर पछाड़
माँ डूब जाएगी आँसुओं के समुंदर में
भाई हाँक देगा घोड़ा अँधेरी रात में
तुम्हारे पास आने को
भाभी हँसेगी बंद कर किबाड़े
ऐसे कष्ट
नहीं देते अपनों को
झिंझिया की मटकी में रखा दिया भी
भर देता था गवाही उन्हीं की
धी मार बहू समझाने के सिद्धांत को
दमदारी से सहेजा
माँ के सँग की औरतों ने
अपने भावुक हृदय में और बनती गई
पत्थर की खण्डित मूर्ति
पुरुष सेंकता गया रोटियाँ
उसकी दबी-कुचली
दहकती साँसों की अँगीठी पर
और स्त्री
मरती गई स्त्री के हाथों ।
मोह
भूला रहा पौधा
अपना आकाश तब तक
जब तक कि -उसने
छोड़ा नहीं मोह
उस धरती का
जहाँ पर वह गया था
उगाया
इसी उथल -उथल में
सुखाने लगे थे मौसम
उसके अस्तित्व को
दुखी मन से जब
उसने निहारा ऊपर की ओर
आकाश तब भी - अब भी
मुस्कुरा रहा था
ज्यों ही ओढ़ा आकाश
पौधे ने
वह हो गया हरा फिर से ।
रेत हो जाना
दरिया के हाथों में
नहीं दिखाई पड़ती है
छैनी-हथौड़ी या
तलवार
किन्तु वह फिर भी
काटता आ रहा है पत्थरों को
महीन-महीन लगातार
सदियों से
दर्द की आगोश में
रहकर भी
नहीं निकलती है चीख़
पत्थरों के होठों से
कभी भी
क्या रेत हो जाना
इतना सहज है .
मरना एक शब्द नहीं
मरना एक शब्द नहीं
नाम था कभी गाड़ीभर
डर का,थरथराहट का
जब -जब कहा था माँ ने
मत मचाना शोर
नहीं रहे हैं फलाने बाबा
गाँव में
मन बन जाता था एकदम चट्टान
लगने लगते थे पेड़ उदास
धूप मुरझाई हुई
लगती थी शामें डरावनी
दिए की रोशनी में पड़ती अपनी परछाईं
लगती थी जरूरत से
ज्यादा बड़ी या सिकुड़ी
अंजाने ही हो जातीं थीं
प्रारम्भ प्रार्थनाएँ
कुछ भी हो ईश्वर मेरी माँ को
कभी मत बुलाना अपने पास
उस दिन माँ अचानक लगने लगती थी
प्यारी से भी बुहत प्यारी
फिर एक दिन
माँ भी सभी की तरह
चली गई बादलों को धकेलते हुए
स्वर्ग की ओर
किसी ने नहीं कहा
मुझसे कुछ भी छोड़ने को
फिर भी
छूट गया सब कुछ
जो था मौत और माँ से जुड़ा हुआ
साथ में छूट गया गाड़ीभर
डर भी
जानकर ये कि-मरने के
बाद नहीं ,मौत डराती है
जिन्दा व्यक्ति को ।
कविता
कविता नहीं जानती अंतर
स्त्री और पुरुष में
वह जानती है तो उद्भावनाओं
के चर्म को
कविता अपने समय का सौभाग्य रचती है
याकि बचती है जटिलताओं से
कविता विचारों का लबादा नहीं
सूक्ष्म पड़ताल है धड़कते हुए
सच्चे शब्दों की
कविता मनोरंजन नहीं
करती है व्यक्ति को
सिरे से आक्रोशित या सिरे से स्पंदित
कविता आंदोलन नहीं
बल्कि आंदोलन केे बाद की
कार्यबाही है
ठेठ कविता उछल -कूद कर
पा ही लेती है अपना उचित स्थान
जैसे बिल्ली लाँघते-छलाँघते
दिखा ही लाती है अपने बच्चों को
सात घरों के कोने
कविता पिता का शोरगुल नहीं
माँ की समझदारी है
कविता सम्मान पाने की
सीढ़ी नहीं
बेज़ुबानों की जुबान है
कविता कवि का कौतूहल है
कसमकश नहीं ,स्त्री या पुरुष की
बेसुरे वक्त के साज पर
कविता आवाज़ है अपनी-सी ।
शब्दों का अधपकाफल
कुछ खो गया है ।
क्या खोया है ?
ठीक से कह नहीं सकती
हाँ उसे पाने की तड़प
इस कदर रह -रहकर तड़पा जाती है
कि-औचक ही ढूँढने लग जाती हूँ
अपना खोया समान
रंग,खुसबू और बनावट पहचानते हुए भी
कह नहीं सकती
फिर क्यों होता है खो जाने का एहसास
कैसी होती जा रही है ,हमारी सोच
फ़ैसला किया ही था कि-नहीं ढूँढूँगी
कोई भी खोया हुआ सामान
कि-अचानक बढ़ने लगा पारा
स्मृतियों का
कुछ धुँधला-धुँधला उभरने लगा
आँखों के सामने
जैसे साँझ होते चमकने लगते हैं
जुगनू रेत में
जैसे काजल भरी आँखों में चमकती है
नन्हें शिशु की मचलन भरी
मुस्कान
मुझे उल्झन में उल्झा देख
समझ ने दिखाई समझ
तो मन तोड़ लाया झट से सन्नाटे के वृक्ष से
शब्दों का अधपका फल
मैंने भी रख दिया जल्दी से उसे
धैर्य के अनाज में
कभी पकेगा तो बाँटूँगी सभी में
थोड़ा -थोड़ा ।
घोंसले
एक घोंसले की बुनाई में
बुन देते हैं पंछी
तिनकों के साथ -साथ
अपने कई महीने ,दिन,घण्टे,मिनट और
अपने पंख भी
फिर भी नहीं देखते हैं
उनके जाए ,उन घोंसलों की ओर
उनकी नजर से
उन्हें तो दिखती है बस
चुग्गे से भरी हुई
उनकी चोंच
वो भी तब तक
जब तक कि-हो नहीं जातीं हैं
उनकी अपनी चोंचें-पंख
मजबूत
फिर एक दिन शाम को
लौटते हैं पंछी
चुग्गे से भरी चोंच ले
अपने घोंसले में
डाली पर पसरी नीरवता देख
वे होते हैं हैरान
तलाशते रहते हैं कई दिनों तक
अपनों को
लेकिन बच्चे नहीं लौटते
थक हारकर वे कर लेते हैं
स्वयं को पुनः व्यस्त
दूसरे घोंसले की बुनाई में
और ऐसा करना आता है
सिर्फ
पक्षियों को ।
जल्दी
वह रोई जब-जब
लोगों ने लगाया अनुमान
अपने अनुसार
बिना सोचे -समझे
रख दिया गया उसके रोने को
ईर्ष्या ,जलन और प्रतिस्पर्धा
के दूसरे पल्ले में
और लगा कर जोर
तौल दिया गया
वह बावरी देखती रही
डबडबाई आँखों से कि-शायद
अब कोई पूछेगा उससे
उसके रोने का कारण
तो बताएगी वह रोने का
सही कारण
लेकिन ये क्या ?
लोगों को पूछने की नहीं
होती है जल्दी
अपनी कहने की ।
हे स्त्री
जैसे धरती में होता है
थोड़ा -सा आकाश
आकाश में थोड़ी-सी
धरती
वैसे ही
हर स्त्री के भीतर होता है
टुकड़ा भर पुरुष
हर पुरुष के भीतर होती है
टुकड़ा भर स्त्री
इस बात पर पक्का
यक़ीन कर
हे स्त्री !
तुम खिलना फूल भर
चलना रास्ता भर
बहना पूरी धारा भर
उगना सूर्य भर
क्योंकि जब भी
आये वक्त तुम्हारा होने को
अस्त
तो तुम्हारे अपने सो सकें
नींद भर
तुम्हारे बाद भी ।
परिचय
नाम : कल्पना मनोरमा
पिता : श्री प्रकाश नारायण मिश्र
माता : श्रीमती मनोरमा मिश्रा
जन्म तिथि : 10 जुलाई 1972
जन्म स्थान : ईकरी ज.इटावा (ननिहाल )
पैत्रक निवास : अटा जनपद औरैया
शिक्षा : एम.ए. - बी.एड.(हिन्दी)
सम्प्रति : शिक्षण ( हिन्दी-संस्कृत )
प्रकाशित संग्रह : कब तक सूरजमुखी
( गीत -नवगीत संग्रह )
रुचि : विभिन्न साहित्यिक
संस्थाओं से सम्बद्धता और
अच्छा साहित्य पढ़ना
लेखन :स्वतन्त्र
सम्पर्क : smq c-5 WAC subroto park new delhi pin-110010
मोबाइल : 9455878280
ई -मेल :kalpna2510@gma.com
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जवाब देंहटाएंकल्पना मनोरमा की साहित्यिक गतिविधियों से मैं विगत लगभग ढाई वर्षों से परिचित हूँ। अपने लक्ष्य के प्रति हर पल सजगता और पागलपन की हद तक तल्लीनता का जो स्वभाव मैंने देखा है वह विरले रचनाकारों में ही मिलता है। उनकी कविताओं और उनके गीतों का भाव संघनन यकीनन किसी को भी कुछ एक पल ठहरकर सोचने को बाध्य करने में सक्षम है। अभी मैं इतना ही कह सकता हूँ कि उनका यह शुरूआती दौर आश्वस्त करता है कि साहित्य जगत में कल्पना मनोरमा के रूप में एक ऐसे दैदीप्यमान नक्षत्र का उदय होने जा रहा है जिसकी आभा से यह लोक बहुत लम्बे समय तक आलोकित होता रहेगा। मैं स्वयं को इस हेतु भाग्यशाली मानता हूँ कि मैं उनकी इस साहित्यिक यात्रा का साक्षी हूँ। अनन्त शुभकामनाओं और आशीष के साथ ---
जवाब देंहटाएं● डाॅ विकल
सादर प्रणाम और आभार आदरणीय !
हटाएंवस्तुतः कल्पना मनोरमा जी की कविताएं ऊच्च कोटि हैं - उत्कृष्ट ! पढ़ते-पढ़ते मैं इन सभी कविताओं को पढ़ गया । वास्तव में इनकी कविताएं हिंदी साहित्य के लिए अवदान है - ऐसा मेरा मानना है । उनके लिए शुभकामनाएं ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय ।
हटाएंनमस्कार कल्पना जी, मैंने आपकी अनेक कवितायें पढ़ी हैं परंतु आज इन लाइनों ने जैसेेसारी व्यथा एक बार में ही उड़ेल दी...एक दिन
जवाब देंहटाएंतो पाती हूँ चुप रहने के
अनेक आदेशों को
चिपका हुआ
बचपन के होंठों पर ।... और ये प्रक्रिया बदस्तूर चल रही हैं...