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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

01 नवंबर, 2018


कहानी: 

भंवर
बद्री सिंह भाटिया

बद्रीसिंह भाटिया 


कहा जाता है कि आने वाली घटनाओं, परिस्थितियों की आहट व छवि का आभास पहले ही होे जाता है। कई बार एक छाया सी सामने आ अपनी उपस्थिति का परिचय देती रहती है। यह छाया कई बार समझ आ जाती है, कई बार नहीं, मगर कई बार घटित होने पर ही पता चलता है। फिर मन कह उठता है कि इसका कुछ-कुछ आभास तो पहले भी हुआ था। कृष्ण लाल जी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। उन्होंने अपने साथ घटी यह घटना एक दिन शाम को पार्क में बैठे अपने मित्र सकुश को बताई थी। उम्र के इस पड़ाव पर एक विस्मृत सी होनी का आभास और फिर एक दिन साक्षात प्रकट हो जाना उसके लिए हैरान करने वाली स्थिति थी। यह सुकन्या थी जो एकदिन अचानक उसके विचारों में आ हलचल पैदा कर गई थी।

वे बोले, ‘सोचा भी नहीं था। सुकन्या को तो मैं भूल ही चुका था। कि एक दिन यूँ ही लेटे-लेटे जरा सी ऊँघ के बीच ऊपर छत पर एक चेहरा सा दिखने लगा और गोल-गोल घूमता एक जगह स्थिर हो कर हल्के जाले जैसे आवरण से पूरा प्रकट हो गया। झिलमिल करता सा काला धब्बा। एक महिला की सी आकृति। एकदम नहीं पहचान पाया। मगर फिर कुछ साफ हुआ। लगा यह स्त्री कुछ कह रही है। कौन! मन ने पुकारा। उसके ओंठ हिले, बुदबुदाहट, फुसफुसाहट और फिर स्पष्ट आवाज, ‘अरे! भूल गए।फिर वही चुप्पी और बड़ी देर बाद मन ने कहा, ‘सुकन्या। बुदबुदाया भी ...बचपन की साथी। उम्र में थोड़ी बड़ी। और फिर स्मृतियों में जाने कितने वर्ष पीछे चला गया। सोचता, ‘ऐसे भी लोग होते हैं...शब्द जुबान पर आ गये, कहा, ‘हाँ, ऐसे भी लोग होते हैं।चौंका सकुश। और उनके चेहरे पर देखने लगा। उन्होंने कहना जारी रखा।

....छोटी सी उम्र एक बच्चा पिता की उंगली पकड़ शहर से लगभग चौबीस मील दूर चला जा रहा था। गंतव्य स्थान ऊपर पहाड़ी पर था। वह पिता से बतियाता, उंगली एक ओर कर पूछता, ‘ये क्या है? ये कौन सी जगह है, यहाँ लोग क्यों रहते हैं? कितनी बार वह पूछ गया कि हम वहाँ क्यों जा रहे हैं?‘ बालमन में एक ओर वहाँ जाने का उल्लास था तो दूसरी ओर अपने साथियों से बिछुड़ने की कसक भी। न जाने कितने प्रश्न हर पड़ाव पर वह पूछता रहा। और देखो पिता की सहनशीलता, वे उसके हर प्रश्न का प्रत्युर बिना किसी कुढ़न के देते रहे- संभवतया सोचते होंगे कि इस उम्र में बच्चों के आगे एक दुनिया खुल रही होती है-उसकी जिज्ञासाओं का शमन होना ही चाहिए। जबकि उसकी माँ कई बार चिढ़ पर कहती, ‘चुप आगे चल, क्या पूछता रहता है।





 एक जगह वह रुक गया। एक ऊँची सी पौड़ी पर कदम रखते उसने घुटने पर कोहनी रख पिता की ओर देखा। थकान उसके चेहरे पर स्पष्ट दिख रही थी। पूछा, ‘ये पेड़ यहाँ क्यों लगे हैं?’ अब क्या उत्तर दे? हंसा पिता। बेटा क्या पूछ रहा है? पेड़ों का एक क्षेत्र होता है, जहाँ वे उगते है, पल्लवित होते हैं। कितने प्रकार के पेड़ कैल, देवदार, कायल, पाज्ज़े के पेड़। वह सोचता गया। पूछा, ‘थक गये क्या?’ ‘नहीं। उसने कहा। पर ये पेड़....तब पत्नी ने ही कहा-अब समझाओ- बड़े आए। इसके सवालों की पिटारी तो हर मोड़ पर खुलती रहेगी। चलो कहीं आराम कर लेते हैं। शाम होने को है। कुछ खा भी लेते हैं। तुम कहते थे कि...वे रुक जाते हैं। पत्नी कुछ खाने को निकालती है। बेटे को देती हैे फिर पति को। पिता बेटे को बताते हैं, पेड़ों की कहानी। उनमें भी जान होने की कहानी। उनके आंसुओं के बारे में। और....वे आगे कहते हैं कि उसके मन में एक और प्रश्न उठ गया....

पिता बताते थे कि वे उस दिन आधे रास्ते में ही रुक गये थे। यूँ उतना रास्ता एक दिन में तय कर लिया करते थे। यह उसकी खातिर ही किया गया था। उस घर में वे पहले भी रुक लिया करते थे। तब आज की तरह गाडि़याँ नहीं होती थीं कि बस में बैठे और डेढ-दो घंटे में पहुंच गए अपने गंतव्य पर। कि हाथ-मुंह शहर में धोया और नहाए वहाँ जा कर कि चाय इधर पी और ब्रेकफास्ट वहाँ।

सर्पीली सी पगडण्डी पर खच्चर चलने योग्य रास्ता।  कहीं शार्ट कट भी पर वहाँ रेखा सी पगडण्डी और चढ़ने के लिए ऊँची-ऊँची पौडियाँ। पिता उंगली पकड़ जरा सा झटका दे या गोद में उठा ऊपर चढ़ा देते। कहते, ‘इससे आगे के जंगलों में राजा शिकार खेलने जाया करता था। कुछ छोटे दुकानदार भी खच्चरों पर रोजमर्रा का सामान ले जाया करते थे। राजा कई बार अपने साथ लगती सीमाओं के राजा को भी शिकार खेलने हेतु बुला लिया करता था। दोनों रिश्तेदार थे इसलिए सीमा विवाद भी नहीं थे।

उसने किसान के घर ठहरने पर पूछा था, ‘हम यहाँ क्यों रुके?’ मन में अपने क्वाटर पर पहुंचने और उसे देखने की चाह ऊपर थी।
बाल मानसिकता को पिता ने उत्तर दिया था कि वह थक गया था-ये यहाँ के लम्बरदार हैं। अच्छे आदमी हैं। उनके मित्र भी हैं। इनके यहाँ अक्सर लोग रुकते रहते हैं। इन्हे बुरा नहीं लगता। ये आतिथ्य सत्कार करते हैं। हूँ कर वह चुप हो गया था। पिता की बात उसे पूरी तरह से समझ नहीं आई थी। अपनी थकान भी नहीं। तभी लम्बरदार की पोती दादा के साथ उनके पास आई। दादा हुक्के में तम्बाकू पीते आये थे। आते ही बोले, ‘लो मास्टर जी लगाओ कश।लड़की पास ही चुप बैठ गई थी। कुछ देर बाद उसका हाथ अपने हाथ में ले छूने का सा प्रयास कर गई। वह भी शर्माता सा उसके साथ घुलने लग गया था। अपने मुहल्ले की किसी लड़की की सीरत मिला कर। अपनी गली के साथी स्मरण हो आये थे। मन उड़ चला एकदम, सोचा, ‘कैसे होंगे इस समय वे। उसे याद भी करते होंगेे कि....इस समय छुपम-छुपाई का खेल, खेल रहे होंगे कि....तभी लड़की ने उसे उठने का ईशारा किया। वह उठ गया और वे भीतर चले गये। उसने उसे अपना बस्ता दिखाया। किताबें दिखाई और एक मात्र खिलौना रबड़ की गुडि़या भी दिखाया था। बोली थी कि दादा इसे शिवरात्री मेले से लायें हैं। वह भी चाहता था कि अपनी पुस्तकें दिखाये पर...। ये सब बातें बाद में थोड़ा बड़ा होने पर माँ ने बताई थी। भूली बातों को वह फिर स्मरण कर गया और आज तक सब वैसा ही है। सफेद कागज पर काली स्याही से लिखा सा....

यादों के सागर से वह लौटा अपने पर। क्या समय था। आज तो बच्चों के खिलौनों की कोई गिनती नहीं। टी. वी. पर जो भी सूरत देखी, जो भी गाड़ी देखी, मार्केट में उसी की अनुकृति अगले कुछ दिनों में मिल जाती है। लगता है कि पहले ये खिलौने बने होंगे फिर ये सीरियल। जाने कितने खिलौने देखने परखने के चक्कर में ही टूट जाते हैं। बच्चा जरा सा रोता है और घर का कोई बड़ा दूसरा लाने के आश्वासन के साथ उसे चुप करा जाता है। बच्चे को रोने ही नहीं दिया जाता। आर्थिकी का बहुत महत्व  हो गया है....उसने बहू कि चिल्लाहट कितनी बार सुनी है....उसका हम पर झिंकना भी। लो तोड़ दिया ना...अभी-अभी तो लाया था। फिर और गुस्सा... अब नहीं मिलेगा कोई भी...लो, मैं सारे खिलौने कूड़े में डाल रही हूँ। पढ़ता-वढ़ता कुछ नहीं। और पोते की ऊँ..ऊँ की सी रुलाई। पैर पटकता, पढ़ाई छोड़ दादी के पास। दादी का आगोश भी क्या चीज है। यदि वह व्यस्त हुई तो दादा के पास। दोनों हर समय उपलब्ध। चुपके से एक प्रामिस कि....दोनों की हल्की सी हंसी निकलती है और वह अपनी मम्मी से कट्टी करता लौट जाता है  मगर तुरंत वह प्रतीक्षातुर माँ के पास पढ़ने के लिए चला जाता है। मां भीतर से हल्के से बड़बड़ती है। ये लोग बिगाड़ रहे हैं इसे।

....लम्बरदार के घर से वे तड़के निकल गये थे। शाम तक ऊँची पहाड़ी पर पहुंँच गये थे। पहाड़ी की तराई में एक बड़ी झील थी। झील में मछलियाँ ही मछलियाँ। बड़ी-बड़ी। पानी के बीच उगी घास। यह उसने अगले दिन देखा था। कुछ दिनों बाद एक साथी ने बताया था कि ये देवता की मछलियाँ हैं। इन्हें मारा नहीं जा सकता।  और ये पानी के बीच घास का टापू है जो घूमता रहता है। साथी की बात पहले वह मान गया फिर मन में कहा कि नहीं ये सच नहीं है। उनके यहाँ तालाब में तो ऐसा कुछ भी नहीं।





अगली सुबह एक लड़की उससे कुछ बड़ी उनके घर पर आई। पिता ने बताया कि बेटा तुम इसके साथ स्कूल जाओ। वह कुछ देर तक रुकी रहीं। माँ उसे तैयार करती रही। तैयार क्या करना, एक कुर्ता, एक पाजामा और टोपी। पैर में स्थानीय बने जूते। बस चल दिया उसके साथ। एक छोटा सा झोला लिए, जिसमें एक किताब और तख्ती थी। रास्ते में उस लड़की ने पूछा-तेरा नाम क्या है?’
कृष्ण लाल।वह आगे बढ़ता बोला और तेरा।
सुकन्या।

ये क्या हुआ?’ उसे समझ नही आया। फिर खयाल आया कि पड़ौस में भी ऐसे कई नाम हैं जो समझ नहीं आते। वह बोली, ‘मेरे बाबा, यहाँ के लम्बरदार हैं।वह चौंका। कल भी वे लम्बरदार के घर पर...समझ नहीं आया कुछ। चुप चलता रहा।
अच्छा, तू कौन सी में पढ़ती है?’ थोड़ा आगे चल उसने पूछा।
चौथी में। और तू?’
दूसरी में। अब यहाँ ही पढ़ा करूँगा। माँ बोलती है।
तू कितने बरस का है?’
छः और तू?’
दस की। मुझे देर से स्कूल छोड़ा। माँ तो पढ़ाने ही नहीं देती थी पर...
पर?’
एक दिन हमारे गाँव में स्कूल के सारे बच्चे आये। मास्टर भी साथ थे। मैंने जब देखा तो मन में आया कि मुझे भी पढ़ना है। बाबा से कहा तो वे हंसते हुए मान गये। वे मुझे भी मास्टर बनाना चाहते हैं।
हूँऽ।
ये हूँ क्या हुई।
.....
आज सुबह बाबा ने कहा कि मास्टर जी के घर से होकर जाना। उनके लड़के को साथ ले जाना और उसका खयाल रखा करना। अब तू मेरी जिम्मेवारी में है।पीछे मुड़ उसने कहा। फिर पूछा थक तो नहीं गया?...इतना दूर नहीं है पर...
नहीं। चल रहा हूँ।
मैं तो कई बार दौड़ कर भी जाती हूँ।
अच्छाऽ।
हाँ, कई बार देर हो जाती है।
दौड़ें फिर। मैं भी दौड़ सकता हूं।
नहीं आज नहीं।

...और फिर हम इसी तरह रोज मिलते रहे। स्कूल जाते रहे। वह मेरा खयाल रखती रही। दो-तीन दिन बाद वह हमारे क्वाटर भी आ जाती। हमारा क्वाटर एक किसान के घर में था। दो कमरे। एक में रोटी बनती और एक में हम सोते थे।....वहाँ हम आँगन में खेलते।
पिता जी स्कूल में हैड मास्टर थे। वे पहली और पाँचवी कक्षा पढ़ाते थे। दूसरा अध्यापक दूसरी, तीसरी और चौथी पढ़ाता था। स्कूल के दो ही कमरे थे। स्कूल भी क्या था। मिट्टी के भीतों की दीवारें। बीच-बीच में उखड़ी लेवी के खड्डे से। छत खपरैल की। किसी ने अपना नकारा घर स्कूल को दिया होगा। दरवाजे और खिड़कियाँ जर्जर। सर्दियों में तेज हवा से हड़-हड़ करतीं।

पिता को वहाँ आए कुछ ही समय हुआ था। तब शिक्षा का प्रसार हो ही रहा था और स्कूल दूर-दूर थे। गाँवों में पढ़ने की रुचि भी ज्यादा नहीं थी। इसके लिए किसी शनिवार को पिता जी और दूसरा अध्यापक हम बच्चों को लेकर आस-पास के गाँवों में जाते और लोगों को प्रेरित करते। कुछ बच्चे अगले दिन स्कूल आ जाते। बड़ी उम्र के बच्चे भी दाखिल होते थे। यह बात भी है कि शिक्षा का प्रसार हमारे शहर से ही हुआ था। यह पहाड़ी राज्यों में अग्रणी शहर था। इधर तो बाद में हुआ। यहाँ का राजा भी शिक्षा के पक्ष में था। तब यहाँ का चार-पाँच पढ़ा भी पटवारी बन जाता था।

मुझे सुकन्या के साथ खेलना अच्छा लगता था। कई बार उसके घर भी चला जाता। उसके घर में बैलों की जोड़ी, चार भैंसें, तीन गाय, भेड़-बकरियाँ और उनके बच्चे देख मैं खुश होता। अचरज भी होता। घर की दो-तीन औरतें उनका काम कर रही होतीं। मक्की के मौसम में हम खेतों में चले जाते। पहाड़ी ढलान पर जाने कितने खेत। एक खेत के पास रुक कर वह कहती-कुकड़ी तोड़ ले।वह पूछता-ऊपर तो मना कर रही थी।

यह हमारा खेत है। ऊपर लोगों के खेत थे। हमारे खेत बीच-बीच में हैं।तब आज का सा भूमि एकीकरण नहीं हुआ था। एकीकरण मतलब बंदोबस्त। मतलब किसमवार जमीन का एक होना यानि एक जगह सारी भूमि। वह बोली, ‘तुम यहीं रुको मैं थोड़ा सा घास काट लेती हूँ।और वह घास काटने लग जाती। अपने काम में दक्ष वह जल्दी से कह देती, ‘चलो अब। घास का गट्ठर उसके सिर पर होता।
सुकन्या पाँचवी मे हो गई थी। प्रथम आई थी। उसके पिता ने हमें इलायचीदाना बाँटा था। हम मीठा खा कर खुश हुए थे। मैं भी तीसरी में हो गया था। उसी समय पिता जी का स्थानांतरण हो गया। हम सामान खच्चरों पर लाद कर फिर शहर आ गये। शहर आकर पढ़ाई करता रहा और आगे बढ़ता रहा। तभी एक दिन सुकन्या अपने पिता के साथ हमारे घर आई। हम मिले। मैं झिझक के साथ मिला। वह मुझसे उसी प्रेमभाव से गले लग मिली। तब लगा वह लम्बी हो गई है और तगड़ी भी। पूछा, ‘कौन सी कक्षा में हो?’
छट्टी में। और तुम?’

आठवीं की परीक्षा देने आई हूँ। यहीं रहूँगी कुछ दिन, तुम्हारे घर।
हूँ।कर रह गया मैं। फिर हम उसी तरह शाम को घड़ी भर खेलते। फिर माँ उसे अपने पास बुला लेती। उसे अगले पेपर की तैयारी करनी होती। मुझे भी स्कूल का काम करना होता। बीच में पेपर की छुट्टी होती तो मैं स्कूल से आते उसके कमरे में चला जाता। वह कभी पढ़ रही होती, कभी यूँ  ही बैठी होती। माँ काम में व्यस्त। कभी वह माँ के साथ रसोई में काम कर रही होती।

बीच में इतवार आता तो समय निकाल हम व्यास नदी की ओर चल देते। व्यास हमारे घर से कुछ ही दूरी पर थी। नदी किनारे जाने की बहुत हिदायतें दी जातीं। पर हम पानी के किनारे तक जाते ही। गोल-गोल पत्थर एकत्र करते। बतियाते। जाने क्या-क्या। उस समय की बातें। अपनी उस उम्र की बातें। उसे जल्दी घर आना होता था। अगले दिन किसी कठिन विषय की परीक्षा होती। वह चाहता कि वे और खेलें थोड़ी देर मगर वह समझा देती कि कल पेपर है। तब हम वापस आ जाते।
इसी तरह वह चली जाती, फिर आ जाती। और कुछ दिनों, महीनों के लिए  विराम लग जाता। वह कभी-कभार शिवरात्री को भी आती। तब कभी उसके साथ कोई सहेली या माँ भी होती। वे हमारे घर पर ही ठहरते। हम बतियाते, हंसते। पर बड़ी होती वह कुछ रिजर्व सी भी रहने लगी थी। पहले दिन जब आती तो पूर्ववत् प्यार करती। मिलते समय मुस्कुराते हुए कभी-कभी चूम भी लेती। एक सिहरन सी भीतर और बाहर दौड़ जाती।



बाद में लम्बे समय तक वह नहीं मिली। कितने बरस बीत गए। उसकी स्मृति विस्मृत सी हो गई थी। हम भी तीन भाई बहन हो गये थे और पढ़ाई में आगे बढ़ रहे थे। दसवीं के बाद एफ ए, बी ए कर गया। पिता जी ने पूछा, ‘अब क्या इरादा है? नौकरी या आगे पढ़ना है। पिता का सकारात्मक दृष्टिकोण सदैव रहा है। एक साथी एम. ए. करने होशिरपुर गया था। कुछ विचार बना रहे थे। होशियारपुर गये साथी ने बताया कि वहाँ अच्छा माहौल है। अच्छी पढ़ाई होती है। एम. ए. करने के बाद किसी कालेज में प्राध्यापक लग सकते हैं। सुंदर लाल तो एम. ए. कर प्राध्यापक हो भी गया है। पूरे शहर में और पूरी बिरादरी में शिक्षा की हम्म सी थी। प्रतिदिन बैठक में चर्चा रहती, अमुक का बेटा वह बन गया कि वो वह बन गया। इसलिए मन के किसी कोने में आगे की पढ़ाई का विचार गाँठ बाँध गया था। पिता जी के पूछने पर हाँ कहेगा कि वह आगे पढ़ना चाहता है।
पिता जी मान गये। माँ ने शंका व्यक्त की। रहेगा कहाँ? सुना है उस कालेज में छात्रावास नहीं है। कि दूर शहर जा कर लड़के बिगड़ जाते हैं। माँ की बात पर पिता जी हंस कर बोले थे, ‘वो हमारा देसू है न वहाँ। वह भी तो एम. ए. कर रहा है। क्वाटर कर देगा।

एक दिन बाद वह स्वयं बोल उठा-पिताजी, हम दो जा रहे हैं। दोनों क्वाटर ले लेंगे। कभी खुद खाना बनायेंगे कभी सस्ते ढाबे में खा लिया करेंगे।माँ ने फिर शंका जताई। गुस्सा आया। मन ही मन कहा, ‘ये माँये भी न....प्रत्यक्ष कहा कि जिसके साथ जा रहा हूँ वह उसका दोस्त है और उनके विषय भी एक हैं।

और हम पढ़ने लगे। एक दिन बाजार में घूमते पीछे से किसी ने नाम लेकर पुकारा-कृष्ण।मैं चौंका। वह महिला आवाज़ थी। इस बेगाने शहर में, जो घर से कोसों दूर है, अपना जानने वाला कौन होगा? फिर इस नाम से? प्रश्न एकदम मानसपटल पर कौंध की तरह सरक गया। ये आवाज़ की ताकत ही ऐसी होती है कि बरबस आदमी उस ओर उन्मुख हो जाता है। पीछे मुड़ा। सामने दो महिलायें हमारी ओर बढ़ रही थीं। एकदम नहीं पहचान पाया। कई बार होता है कि कोई आदमी आपसे बहुत वर्षों बाद मिले और वह भी उस रूप में जिसमें उसने उसे देखा ही न हो तो एकाएक हैरानी होती है। फिर सहज छवि बदल जाती है ,  एकाएक चेहरे और आवाज़ की स्वरलहरी की ओर ध्यान चला जाता है। शीघ्र स्मृति का पर्दा हटा और मन ने कहा- यह सुकन्या हैं...वह ही इस छोटे नाम से पुकारती भी थी।
 माँ तो भाऊ या गुड्डू कह कर ही आवाज़ देती थी। कृष्ण लाल तो वह तब कहती थी जब मैं नहीं सुनता था और वह गुस्सा हो जाती थी। झटके से कहेगी-कृष्ण लाल!’ ....मैं रुक तो गया ही था। साथी भी। वे पास आ गईं। नमस्ते के लिए हाथ स्वतः ही जुड़ गये। वह उल्लास से आगे बढ़ी और हाथ पकड़ लिए । दोनों  हाथों से। चेहरे पर ऐसी खुशी मानों कोई मायके वाला मिल गया हो। और यह सच भी था। मैं उस ओर का ही तो था। कहते हैं मायके का तो पक्षी भी प्यारा लगता है। उसकी आत्मीयता और स्नेह का पात्र, पहचान का मैं....इतने दूर शहर में उसके मायके से कम नहीं था। मुझे इस भाव से अंदर ही अंदर शर्म भी लगी। तब तक उसने मुझे पार्श्व से अपने आगोश में ले लिया था। बीच बाजार में यह ठीक नहीं लगा पर...मुझे लगा यदि बाजार न होता तो यह चूम भी लेती। ...क्या सोचती होगी वह? उसने साथ वाली स्त्री की ओर इंगित कर कहा-मेरी बड़ी बहन।मैंने उन्हें  नमस्ते की और पूछा-आप यहाँ?’

बस, अब यहाँ ही हूँ।उसने कहा और साथ वाले लड़के के बारे पूछा-हेम चन्द। मेरे साथ ही एम. ए. कर रहा है।मैंने बताया।
यह वह जानती थी कि यदि मैं यहाँ हूँ तो पढ़ाई के लिए ही आया हूँगा। उसकी समझ बड़ी थी। पूछा-कहाँ रहते होे?’ हम एक ओर हट गये थे। 
क्वाटर कहाँ लिया है?’
यहीं बाजार में।
खाना?’
कभी ढाबे में तो कभी खुद बना लेते हैं।
पढ़ाई बाधित नहीें होती?’
नहीं, आदत बन गई है।

उसने बहन की ओर देखा। आँखों ही आँखों में बात हुई फिर बोली, ‘तू हमारे घर रहेगा अब। इसके लिए कोई साथी ढूँढ ले।और देखो, मैं उसका यह आग्रह नहीं टाल सका। पता नहीं उससे आंतरिक क्या रिश्ता जुड़ा था। कि यह कोई पूर्वजन्म का साथ था जो वह मुझे बार-बार मिल रही थी और मेरी अभिभावक सी होती जा रही थी।

एक दिन उनके घर चला ही गया। पहले देखने और फिर रहने भी। यह घर कालेज के समीप ही था। उन्होंने एक कमरा दे दिया। बड़ी बहन के पति कहीं नौकर थे। सप्ताहंत में ही आते थे। उनके दो बच्चे थे जो पढ़ कर नौकर हो गये थे।
उसके बारे में पता चला। मेट्रिक उसने पिता जी की ही प्रेरणा से की थी। उनका यह एहसान है उस पर। यहाँ वह नौकरी की तलाश में आई है। कि मेट्रिक करते ही पिता ने अपने दूर के एक रिश्तेदार के कहने पर एक अच्छे लड़के से शादी करवा दी थी। उस समय उस इलाके की वह ही सबसे ज्यादा पढ़ी-लिखी लड़की थी। बाकी तो बीच में ही ब्याह दी जाती थीं। इसलिए...






पति को उसका इतना ज्यादा पढ़ा-लिखा होना अखरने लगा था। बल्कि यूँ कहें  कि सास को भी। केवल ससुर पढ़ी-लिखी बहू आने से गर्व महसूस कर रहे थे। उसे पता नहीं था कि पति कितना पढ़ा-लिखा है। उस समय लड़की की राय नहीं पूछी जाती थी। ...वह कहता, ‘हमने घर का काम कराना है, कागज नहीं लिखवाने ।वह कहती भी कि उसे तो मास्टरनी बनना है। ससुर भी उसके पक्ष में थे। पर नहीं जी...उनकी तो चलती ही नहीं थी। बेटा और सास घर पर हावी थे। वह बीच-बीच में सास के कहने पर या अपने ही मन से उस पर कोई न कोई लाँछन, गलती निकाल कर हाथ उठा देता। वह लड़की जिसे कभी माँ ने नहीं मारा। पिता ने नहीं। स्कूल में मास्टर ने नहीं, उसके लिए यह सब एक अनहोनी सी घटना थी। वह सोचती भी कि जो उससे कहा जा रहा है उसकी तो वह जिम्मेवार नहीं है। फिर...वह तो मायके से दूध दुहना, घास काटना, रोटी बनाना जैसे अहम काम सीख कर आई थी। फिर उनका वातावरण भी तो एकसा था। ये सवाल मन में अक्सर उठते।

उसने बताया कि उसके कितने मनसूबे थे। प्रथम श्रेणी में पास थी वह। सास कहती,‘ न जी न, बहू नौकरी करेगी और हम खायेंगे। हमारी इतनी जमीन है। दूध-घी है। क्या जरूरत है? क्या चाहिए? और यदि इसने नौकरी कर ली तो अभी दूसरे लड़के भी हैं। सब नौकर हो गईं, तब? हम बूढ़ा-बूढ़ी कब तक....सामान्य सी तकरीर। इस प्रकार की अनेक प्रताड़नाओं के रहते एक दिन किसी विवाद और प्रतिवाद पर गुस्सा हो वह आ गई मायके। किसी ने कोई खबर नहीं ली न ही समझौते का प्रयास। अगर कोई आया तो वह एक संदेशवाहक आया एकदिन। बोला-या तो जैसे आई थी वैसे ही वापस चली चलो या फारगति दे दो। यदि कहीं शादी करोगी तो रीत अलग से देनी होगी। फारगति के साथ जो गहने ससुराल ने दिए हैं, वे वापस करने होंगे।सिर पर पानी पड़ा हो जैसे। कितनी कठोरता से कहे थे उसने ये शब्द। वह  तो सोचती थी कि पति के साथ ससुर आयेंगे। पति उसकी ओर देखेगा तो वह मुस्कुरा भर देगी। हल्का सा गुस्सा दिखा कर। पति मनायेगा तो....। बाबा जी उनसे बात करेंगे और खामख्वाह की प्रताड़ना की ताकीद करेंगे। वे सुनेंगे। गलती मानेंगे और वह वापस चली जायेगी। पुनर्नवा हो जायेगा। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। एक नया सवाल! ये कैसा सवाल है? ये कैसा पति है जो.... वह सोचती ही रह गई।

....बहुत गुस्सा भी आया। मन ही मन सोचती कि ये कैसा मर्द है? कोई लगाव नहीं। पैर की जूती समझता है। ऐसे के साथ जीवन... और भीतर से आवाज़ आई, ‘ना, नहीं। उसकी रुलाई छूट गई। फिर एक निर्णय। उठी। लकड़ी का दरोठ खोला और गहनों की पोटली निकाली। तब तक माँ पास आ गई थी। बोली, ‘मरजाणी ये क्या कर रही है?’
नहीं अम्मा। अब नहीं। जब उसे जरूरत ही नहीं तो...
नहीं! ये तो संदेशवाहक है। अपनी कह रहा है। क्या पता उन्होंने सही भी कहा हो कि नहीं। कई लोगों को धमकाने और बढ़ा-चढ़ा कर बात करने की आदत होती है। तेरे बाबा बात करेंगे। वे नहीं आते तो हम जा सकते हैं।

नहीं बाबा फिर छोड़ आयेंगे। कितनी बार हो लिया। न वो सुधरा, न सास। उस घर में तो ससुर की चलती ही नहीं। बस माँ-बेटा ही हैं। कभी ननद आ जाती है तो वह भी। अब बाबा और नहीं झुकेंगे...
माँ गुस्सा हो गई थी। पैर पटक कर बोली फिर तेरी मर्जी। हमारे घर.....। कुछ समय बाद उसने संदेशवाहक को कहा कि आप जाओ और जमाई जी को भेजना। इसकी सास को भी। यूँ ही रिश्ते नहीं तोड़े जाते। वह बोला, ‘ठीक है, पर मैं बेटी के वचन भी सुनना चाहता हूँ। मगर वे तो कुछ और ही सोच रहे हैं....असल में उन्होंने तो दूसरे ब्याह का सोच ही लिया है। इसकी सास ही नहीं रखना चाहती।
भीतर सुनती रही वह। उस पर पानी सा पड़ा। फिर भड़क गई। पोटली उठाई और दे मारी संदेशवाहक के पास। लो जी, बस हो लिया। रसीद दे दो। पंची लाने की जरूरत नहीं। फिर कभी पर्चा लिख कर ले जाना। मैं दस्तखत कर लूँगी। कहना कि मैं भी नहीं रहना चाहती ऐसे लोगों के बीच।गुस्से में उसके ओंठ फरफरा रहेे थे। चेहरा रक्तिम हो गया था। बस आँसू छलकने ही वाले थे।
......
माँ सन्न। ये क्या हो गया। अब कैसे कटेगी जिंदगी? ये सवाल उसके मन में कौंध गये। बोली, ‘मरजाणी अपने बाबा को तो आने देतीे।
वे जब सुनेंगे अपनी बेटी के फैसले को मान लेंगे अम्मा। तू खामख्वाह ही फिकर कर रही है। वहाँ मेरा जीवन ठीक नहीं है....अम्मा आप दोनों अपनी बेटी को सुखी देखना चाहते हैं न?’
हाँ, बेटा क्यों नहीं। कितने नाज़ों से पाला है तुझे।
तब मेरी बात मान जाओ। आपका सिर नीचा नहीं होगा।

इस पर संदेशवाहक ही बोला, ‘हाँ! ऐसा नहीं है। वो घर इसके काबिल भी नहीं है। यह पढ़ी-लिखी है। इसे कोई भी मिल जायेगा। हमारे तो दूसरे ब्याह का रिवाज भी है। कोई बात नहीं तेरा वचन ही रसीद है।वह चुप हो गई। वह भी चुप रहा यह सोच कि यह कुछ और कहेगी। वह उसके विचार सुनना चाहता था। जब नहीं बोली तो बोला,‘ बेटा एक बात कह दूँ। दूसरा ब्याह कर लेना। पति बिना सूखे पत्ते  की तरह उड़ जायेगी। पति सिरहाना होता है। आवरण भी। बाकी पंची तो आयेगी ही। रीत तय होगी। उसे तब तुम देना या तेरा नया पति। फारगति तो तभी लिखनी होगी। तभी गहने भी लेंगे। मैं चलता हूँ।

वह चला गया। और एक दिन पंची भी हो गई। पिता गुस्सा तो थे पर बेटी की जिद्द के आगे झुक गये। अगले दिन उसने माँ से कुछ पैसे लिए और यहाँ आ गई बहन के पास। नौकरी की तलाश में। दूसरे ब्याह का विचार मन के गहरे गह्वर में फेंक दिया था।

कृष्ण लाल ने बात को जरा सा विराम दिया। यादों के भंवर से निकली लहरें अभी उसी तरह थीं। उसे लगा था कि गला सूख सा रहा है। उसने थूक निगल गला तर किया और फिर कहने लगा। सकुश भाई मेरे एम. ए. करने तक उसे नौकरी नहीं मिली थी। पता नहीं उसका भाग्य था कि क्या पर नहीं मिली। यह भी कि वह करना ही नहीं चाहती थी। उसने ठीक से नहीं बताया बस यह कहती कि नौकरी तो करनी ही है। ऐसे में गुजारा कैसे होगा? और मैं भी प्राध्यापक बनता-बनता अन्य नौकरी में चला गया। यह इसलिए भी कि जो प्रस्ताव पहले आया स्वीकार कर लिया। इस नौकरी में मन लग गया और सेवानिवृति तक यहीं रहा।

यादों के गहरे गह्वर से निकल उम्रदराज कृष्ण ने कहना शुरू किया कि यह कोई सत्तर - इकत्तर  की बात होगी। हिमाचल विशाल हो गया था। पंजाब के पहाड़ी इलाके छोटे हिमाचल में विलय कर दिये गये थे। प्रदेश का आकार बड़ा हो गया था। राज्य पूर्ण राज्यत्व प्राप्त कर आगे बढ़ रहा था। एकदिन एक सेमिनार के सिलसिले में वह प्रेस से आकर गेयटी की ओर जा रहा था। कमाण्ड की चढ़ाई चढ़ते अपने में ही मग्न ऊपर कदम-दर-कदम चलता जा रहा था। तभी एक मोड़ पर उसे किसी ने पुकारा। यहाँ से एक रास्ता राम बाजार होते लोअर बाजार को जाता है और एक छोटा माल की ओर। यहीं इसी मोड़ पर अचानक...महिला की वही आवाज़, ‘कृष्ण..चौंका वह । कौन इस भीड़ में और इस समय? यह शहर राजधानी है मगर इतना छोटा कि कोई भी जानने वाला कहीं भी, किसी भी समय भीड़ में से पुकार सकता है। 

पर इस नाम से अब तो भारद्वाज, चौहान, वर्मा, शर्मा...जैसे नाम से पुकारा जाता है। आवाज़ पहचान समझ लिया जाता है कि कौन पुकार रहा है। यह महिला की आवाज़ थी। स्टाफ की तो नहीं हो सकती। कोई रिश्तेदार? नहीं। वह मुड़ा आवाज़ की ओर। देखा सामने एक स्थूलकाया स्त्री कंधे पर बड़ा सा लाल बैग उठाये उसकी ओर दृष्टि गड़ाये खड़ी है। उसके मुड़ते ही उसकी ओर बढ़ने लगी।
अरे! यह तो सुकन्या जी हैं।मन ने एकदम कहा। रुक तो पहले ही गया था। सुकन्या पास आईं, उसने हाथ जोड़ अभिवादन किया। सुकन्या ने बैग एक ओर रखा और रेलिंग की ओर हो गई। बोली, ‘पहचान नहीं पा रही थी, इसलिए हवा में आवाज़ दे दी। सोचा सुनेगा तो ठीक वर्ना....वाह! क्या बात है? सूट में अच्छे लग रहे हो। अभी-अभी सोच ही रही थी। शायद तुम यहाँ ही होंगे। और देखो, तुम मिल गए। कहाँ हो? क्या हो गए हो?’
हंसा वह। इतने सवाल एक साथ।





अरे! ये तो बहुत कम है।इस मिलन से वह चहक उठी थी। जाने कितनी खुशी भीतर उमड़ आई होगी। उसने एक बारगी सुकन्या को फिर निहारा। स्थूल काया, सिर के बाल कानों के पास सफेदी लिए थे। मेंहदी का रंग दिख रहा था। बोला, ‘यहाँ ही हूँ। कई जगह घूमा आजकल राजधानी का अन्न-पानी लिखा है। डिप्टी डायरेक्टर हो गया हूँ।

अरे! वाह। पर...तुम तो किसी कालेज में...
हाँ, पर पहले इस विभाग में नौकरी मिल गई और मन लग गया।
बच्चे?’ शादी की बात वह समझ सकती थी।
दो हैं। लड़का आजकल कनाडा में हैं। इंजीनियर है। बेटी ने लॉ कर लिया है। कोर्ट में प्रेक्टिस कर रही है।
अरे! वाह। अच्छा लगा।
आप यहाँ?’ उसने पूछा

परसों आई थी। बदली हो गई है। रुकवाने के लिए डी.ओ. लगाया है एक रिश्तेदार एम.एल.ए. है।
कहाँ हो,... क्या हो?’ वह जिज्ञासा प्रकट करने से नहीं रह सका। इतने वर्षों बाद मिली है। उस समय की बिखरी जिंदगी के बारे जानने का मन तो था ही।
अध्यापिका हूँ। दूर चम्बा के एक गाँव में। विशाल हिमाचल बनने से यहाँ आ गई। अब यहाँ से बदली के चक्कर में हूँ।
हो जायेगी कि...

नहीं हो जायेगी। अब थक भी बहुत गई हूँ। एक जगह टिक जाना चाहती हूँ।
ब...च्चेउसने झिझकते से पूछ ही लिया।
नहीं है। फिर शादी नहीं की।
अरे!
एक बच्ची गोद ली है। उसे पढ़ा रही हूँ...मन ही मन समय का भान हो उसने कहा, ‘चलो घर, यहीं संजौली में है। अपना।
वाह! खूब। पर फिर कभी... आऊँगी जरूर। तुम्हारी उससे भी मिलना है। बहुत अर्सा हो गया। अभी तो चलना है। बस का समय होने वाला है। चार बजे के करीब जानी है।उसने झुक कर बैग उठा लिया। चलते बोली, ‘तुम्हारे साथ जाने क्या सम्बंध है। एक डोर सी है, बहुत याद आते हो। कभी चम्बा आओ तो...
और वह चली गई। वह आगे बढ़ा। कानों में सन्नाटे की सी ध्वनि। सुकन्या के पैरों  की दूर तक जाती आवाज़। सोचता, ‘क्या रिश्ता है हमारा। यह कितनी पॉजेस्वि है।और जाने विगत के कितने चित्र उसके मानसपटल पर उभरते, मिटते रहे।

वह सेमिनार में चला गया। गोष्ठी में भाग लेते भी वह स्मरण आती रही। रात उसने पत्नी को बताया कि आज फिर मिली वह।
दिन बीत गए। कितने दिन। महीने, साल। विस्मृति के बीच एक दिन रविवार के दिन प्रातः ही फोन की घंटी बजी। उसने बिस्तर में से ही हाथ बढ़ा कर फोन उठाया-हैलो।
प्रणाम अंकल जी। मैं श्रद्धा बोल रही हूँ।
कौन श्रद्धा?...पहचाना नहीं, बेटा।
मैं...मैं..सुकन्या जी की बेटी।

सुकन्या एक बारगी फिर आँखों के आगे से सरक गई। अं हां, अच्छा श्रद्धा। कहाँ से बोल रही हो?’
जी, मैं यहीं हूँ शहर में। आपसे मिलना था।

ठीक है, बेटा। आ जाओ।उसने घर का पता दिया। घंटे भर बाद दरवाजे की बैल बजी। पत्नी ने दरवाजा खोला। खोलते ही वह बोली, ‘नमस्ते आंटी। मैं श्रद्धा।

आओ।पत्नी ने दरवाजे पर से उसे भीतर आने की जगह दी और स्वयं दरवाजा बंद करने लगी।
वह भीतर आईं बैग एक ओर रखा। उससे एक थैली निकाली और सेंटर टेबल पर रख दी। सेब हैं। पत्नी ने कहा-इसकी क्या जरूरत थी।

वह बाहर आया श्रद्धा खड़ी हो गईं अभिवादन की मुद्रा में। बैठो बेटा। कैसी हो?’ वह चौंका अपने प्रश्न पर। फिर सहज हो गया। यह हमारी औपचारिकता है। आगंतुक से पूछना ही पड़ता है जबकि हम जानते हैं कि यह प्रश्न बेमानी है।
ठीक हूँ। आप?’ प्रतिप्रश्न।

हम भी ठीक हैं। बुढ़ापा! तुम जानती हो। और तुम्हारी मम्मी तो ठीक है न।

वह चुप रही। कुछ नहीं बोली। सिर झुकाये ही रही। शायद यह सोचती कि यह सवाल तो पूछा ही जायेगा। पत्नी ने कहा-बेटा चाय, पानी?’
हाँ! ठीक है। ले लूँगी।

उसने पत्नी से कहा कि यह सुकन्या जी की बेटी है। पत्नी ने कहा कि वह समझ गई थी। मैंने कहा, ‘क्या संयोग है? कल वह मुझे अर्द्धनिद्रा में दिखी। उसकी छवि छत में अंकित हो गई थी और मैं...आज चकित हूँ। यह पूर्वाभास था। तुम उसकी प्रतिनिधि...

अंकल!...वह फिर चुप हो गई।
हाँ बेटा। क्या बात?’
अंकल मम्मी नहीं रही। पिछले साल...।मन भारी हो गया था। काफी देर तक वह स्वयं को संयत करती रही। फिर बोली, ‘वे आपका जिक्र अक्सर किया करती थीं। उन्होंने ही बताया था कि आप यहाँ है। जब वे बात करती आपसे मिलने का मन करता। एक छवि बनाती। और आज...

अरे! ऐसा...वह भी तो जाने कितनी अच्छी थीं। उसके भीतर की आदमीयत...।वह चुप हो गया। लगा गला रुंध गया है। सुकन्या की छवि कहीं भीतर उतर गई थी। तभी पत्नी चाय लेकर आ गई। चाय पीते उसने पूछा-क्या करती हो?’
पढ़ाती हूँ। यहाँ बदली हो कर आई हूँ।

अरे! वाह। कहाँ किस...
डिग्री कालेज में।
मकान कहाँ रखा?’
बस यही करना है। अभी तो एक फ्रेंड के यहाँ ठहरी हूँ।
ठीक है बेटा। पर सुकन्या! क्या हुआ? वह तो बड़ी संघर्षशील थीं।
बस पलट गई थी। उसमें वह भी...वह फिर रुआंसी हो गई थी।

उसे लगा यह लड़की अपनी मम्मी से बहुत प्यार करती है। वह इसकी जन्मदात्री नहीं थी। क्या पता उसने इसे बताया भी हो कि नहीं।  शायद यह जानती भी हो पर उसके प्यार ने इसे इतना सराबोर कर दिया कि...विधि का खेल है।

सुकन्या की कहानी सुना कृष्ण लाल जी चुप हो गए थे। सकुश उनके चेहरे पर देखे जा रहे थे मानो वह इससे आगे की बात सुनना चाह रहे हों। कुछ देर बाद वह बोले, ‘वह अपनी अच्छाई इसे देकर चली गई। दुनिया में कैसे-कैसे लोग होते हैं? उनकी यादों में हम जिये जाते हैं।  यादों के भंवर में गोते लगाते कब साक्षात्कार हो जाये पता नहीं चलता।इतना कह वे उठ गए। खड़े हो पीछे से पैंट झाड़ी मानो कुछ फंसा हो और आगे बढ़ गए। चलो सकुश जी....ये जीवन भी क्या है? एक गोरखधंधा। अबूझ।सकुश को लगा कि सुकन्या अभी भी उनके मानसपटल पर है।

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कहानी: प्रेतात्मा की गवाही / बद्री सिंह भाटिया



https://bizooka2009.blogspot.com/2018/09/blog-post_55.html?m=1



बद्री सिंह भाटिया,
गांव ग्याणा, डाकखाना मांगू,
तहसील अर्की, जिला सोलन, हि.प्र. 171102
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