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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

11 नवंबर, 2018


मैं क्यों लिखता हूँ ?

महादेव टोप्पो


महादेव टोप्पो

मैं क्यों लिखता हूँ ? या मुझे क्यों लिखते रहने चाहिए? इस पर वर्षों चिंतन-मनन किया और धर्मयुग में पहला लेख छप जाने के बाद भी छपते रहने की हड़बड़ी नहीं की. बल्कि, सोचता रहा कि मुझे क्या और क्यों लिखना चाहिए ? शुरू में जोश था, लिखना चाहिए. लेकिन बाद में सोचने लगा कि क्यों लिखना चाहिए ?यह स्पष्ट होना चाहिए, इस सवाल का उत्तर खोज लेना चाहिए. सारिका, धर्मयुग, दिनमान, साप्ताहिक हिन्दुस्तान आदि पत्रिकाओं में लेखकों के ‘आत्मकथ्य”, “साक्षात्कार” या उनके बारे लिखी रचनाओं को ध्यान से पढ़ता. इस मामले में सारिका ने काफी मदद की. वहाँ एक स्तंभ प्रकाशित होता था- “गर्दिश के दिन” जहाँ लेखक अपनी कठिन जिंदगी को याद करते थे. कभी विदेशी रचनाकारों के बारे भी उपयोगी जानकारी मिल जाया करती थी और कई बार यह कहानियों से ज्यादा रोमांचक व पठनीय लगती थी. कहानी, कविता का विश्लेषण पढ़ता था. मेरे लिए सबसे ज्यादा  लोकप्रिय स्तंभ पाठक के पत्रों वाला कॉलम था. जिस कहानी या अन्य रचना के लिए ज्यादा प्रतिक्रियाएं आतीं उसे दुबारा पढ़ता. समझने का प्रयास करता इसमें खास क्या है ? लेकिन, इतना पढ़ने के बाद भी आज तक समझ नहीं पाया रचना की उत्कृष्टता क्या है? इतना जरूर समझ में आया कि वहाँ कुछ नया होना चाहिए. प्रेमचंद, मोहन राकेश, निर्मल वर्मा, भीष्म साहनी, मालती जोशी, इब्राहीम शरीफ, संजीव, मिथिलेश्वर, राजेन्द्र यादव, मन्नू भंडारी, मृदुला गर्ग, अमृता प्रीतम, शैवाल, जीतेन्द्र भाटिया, सुधा अरोड़ा, रमेश उपाध्याय, धर्मवीर भारती, बलराम आदि की कहानियाँ  और बच्चन, निराला, रमानाथ अवस्थी, मंगलेश डबराल, चन्द्रकांत देवताले, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना आदि की कविताएं पढ़ता. बचपन में एक लेख पढ़ा था साहित्य समाज का दर्पण है. यह बात मेरे ह्रदय में लगता है कहीं कील की तरह चुभ गई थी, जिसने मुझे जिंदगी भर परेशान किया. साहित्य की इस परिभाषा ने ही शायद मुझे लिखने के लिए मजबूर किया. जब भी लिखना चाहा – साहित्य की यह परिभाषा मुझे चिढ़ाती हुई लगी. यानी कुछ लिखा तो मुझे हमेशा लगा - मेरे समाज की तस्वीर वहाँ कहाँ है? फलतः, मैं बाध्य हो गया कि अपने आदिवासी परिवेश को पहचानने और उसके बारे लिखने का प्रयास करूँ. ऐसा ही हुआ.  कॉलेज के समय  ऐसी रचनाओं, लेखों आदि को जरा ध्यान से पढ़ने लगा जो आदिवासियों या आदिवासी इलाकों से संबंधित होती थीं. कई रिपोर्ट, कहानी अच्छी नहीं लगती. बाद में जो बाते अच्छी  लगती या नहीं लगतीं इसके बारे संपादकों को पत्र लिखना आरंभ किया. आश्चर्यजनक रुप से मेरे पत्र छपे तो लगा कि मैं लिख सकता हूँ और इसी तरह पत्र लिखते हुए मुझे सारिका  एवं धर्मयुग से आदिवासी विषयों पर लिखने के लिए पत्र मिले. इस तरह लिखने का मनोबल बढ़ा. इसके पहले मैं किशोरवय में जहां तहां रचनाएँ भेजकर कुछ खेद सहित लौटी रचनाओं का मालिक भी बन गया था. उस समय लिखने के लिए प्रोत्साहित करने में दो सहपाठी राजीव रंजन सिंह और उत्तम सेनगुप्ता के परामर्शों को नहीं भूल सकता. राजीव बाद में भारतीय रिजर्व बैंक से ऊँचे पद तक पहुँचे और उत्तम सेनगुप्ता टेलीग्राफ, इंडिया टुडे, टाइम्स ऑफ इंडिया, ट्रिब्यून और बाद में आउटलुक अंग्रेजी साप्ताहिक के  संपादक आदि के रुप में काम करते रहे. मैं इन दोनों से दूर रहने के बावजूद बीच-बीच में बातें करता रहता था. राजीव से बीच-बीच में पत्राचार होता था. वे बराबर लिखने के लिए प्रोत्साहित करते थे. लेकिन उत्तम से कभी-कभी राँची, पटना, कोलकाता, दिल्ली में लंबे अंतराल के बाद मुलाकात होती रहती थी. फोन की सुविधा हो जाने पर हम एक दूसरे का हाल चाल पूछ लेते. इसके अलावा फादर कामिल बुल्के द्वारा मिला आशीर्वाद बहुत बाद में याद आया. पहली मुलाकात के बाद फादर ने मुझे लेखक होने का आशीर्वाद दे दिया था. यह तब की घटना है जब मैं नौंवीं कक्षा में पढ़ रहा था. मैं सोचता था ऐसे कैसे हो सकता है ? एक आदिवासी लेखक कैसे हो सकता है ?(आज भी कई बार यह विचार आता है) बाद में बैंक में नौकरी करते मैं यह आशीर्वाद भूल  भी गया और यह बात पचपन-छप्पन की उम्र होने के बाद अचानक याद आई. अब यह बात कविताओं का पहला संग्रह प्रकाशक द्वारा छपने के लिए स्वीकृत होने के बाद ही मित्रों को बता सका. कल ही तेलंगाना से एक मित्र श्याम का फोन आया. वह मेरे लेखों के संग्रह “सभ्यों के बीच आदिवासी” की समीक्षा पढ़कर मुझे फोन करने से रोक नहीं सके. मुझे पता नहीं था कि इसकी समीक्षा छपी है. फिलहाल कई मित्रों की अच्छी प्रतिक्रिया मिलने के बाद ऐसा लगता है शायद मैंने कुछ ठीक-ठाक लिखा है, जो पिछले चालीस सालों से मुझे परेशान करता रहा था कि- क्या मैं अपनी रचनाओं में आदिवासियों के बारे कुछ अच्छी बातें बता सकता था ? अपने लेखन में उनके जीवन का प्रतिबिंब साहित्य के दर्पण में दिखा सकता था?  दरअसल इस सवाल ने हमेशा मुझे बौद्धिक रूप से उत्पीड़ित एवं उत्प्रेरित भी किया. मैं किसी विषय पर लिखता तो आदिवासी सवालों से मुँह मोड़ नहीं सका. जब भी कुछ अलग लिखना चाहा, लिख नहीं सका. शुरुआती दिनों के मेरे इस आदिवासी-लेखन को मित्रों ने मेरा आत्म-केन्द्रित, एकांगी और टाइप्ड लेखन भी कहा. अस्सी के आस-पास आदिवासियों के बारे बड़ी पत्रिकाओं में भी लिखनेवाला छोटानागपुर के आदिवासी समाज से संभवतः अकेला उभरता लेखक जैसा कुछ था. बड़ी पत्रिकाओं में लिखने के लिए लक्ष्य बनाने के कुछ और भी कारण थे. कुछ स्थानीय पत्रिकाओं व आकाशवाणी से मेरी रचनाएं वापस आ चुकी थीं, जबकि मैं देख रहा था कुछ मित्र वहाँ छप रहे थे, प्रसारित हो रहे थे. मुझे ऐसा लगा मैं उनसे बेहतर लिखने के बावजूद किसी पूर्वाग्रह या भेदभाव या अन्याय का शिकार हो रहा हूँ. ऐसा इसलिए महसूस हुआ कि अपने स्कूल में आयोजित लेख प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त कर चुका था. साथ ही कुछ मित्रों व शिक्षकों की प्रशंसा पा चुका था. लेकिन, बाद में उस पत्रिका-विशेष के बारे में, यह जान सका कि वह धर्म-विशेष के लोगों के लिए था, जहाँ हम जैसे लोगों की रचनाएँ प्रकाशित होने के अवसर न के बराबर थे. लेकिन, अपने मित्रों की देखा-देखी मैंने इन एक दो पत्रिकाओं में रचनाएं प्रेषित की थी . यह एक अच्छा सबक भवि,य के लिए. मैंने अपनी रचनाएं आकाशवाणी को भी भेजी, रचनाएं वहाँ से भी लौट आई तो मैंने कुछ वर्षों के लिए रचनाएं कहीं भी भेजना बंद कर दिया और खूब पढ़ना शुरू कर दिया. मेरे मित्र राजीव रंजन सिंह खूब अंग्रेजी पढ़ा करते थे और वे मुझे कई देशी-विदेशी लेखकों के बारे बताया करते थे, जिसे मैं ध्यान से सुना करता था. कई बार हम बाते करतें, पैदल राँची की विभिन्न गलियों में घूमते हुए कभी भटक जाया करते थे, कभी राँची रेलवे ओवरब्रिज पर घंटों बाते करते रहते थे.
अब पाता हूँ कि मुझे लिखने के लिए उत्साहित करने में हिन्दी के दो तीन बड़े रचनाकारों के प्रेरणादायी प्रतिक्रियाएँ मिलना भी था. जिसकी कि मुझे उम्मीद नहीं थी. भीष्म साहनी,  सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, हरिवंश जी के मिले पत्रों और व्यक्तिगत मुलाकातों में, बात-चीत से लिखने के लिए उत्साह बढ़ा. साथ ही कन्हैयालाल नंदन जी ने मेरे एक पत्र को रचना के रुप में नवंबर-1979 के सारिका में प्रकाशित किया था. इस तरह अब मैं थोड़ा आश्वस्त हो पाया कि आदमी को लिखना वही चाहिए जो सवाल व स्थितियाँ, मुद्दे उसे बेचैन करते हैं. आरंभ में कुछ मित्रों ने आदिवासी विषयों पर मेरे लेखन को मेरा आत्मकेन्द्रित व संकुचित लेखन कहा और मेरी खिल्ली उड़ायी. लेकिन, मैं लिखता रहा. आदिवासी होने का जो अपमान झेलता था उसका उत्तर देने का रास्ता शायद लगातार लेखन हो सकता था. यह धारणा किसी तरह अवचेतन मन में बैठ गई थी. फलतः, लिखने के वे कारण और विषय खोजता रहा जो इस प्रश्न का उत्तर दे सकती थी. इसका उत्तर खोजना अब मेरे जीवन का एक मकसद बन गया शायद इसलिए लिखता हूँ.
आरंभ में कविता संग्रह “जंगल पहाड़ के पाठ” के बारे मित्रों से अच्छी प्रतिक्रिया नहीं मिली. लेकिन महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, केरल, हिमाचल प्रदेश, बंगाल, पुड्डिचेरी आदि अहिन्दी प्रदेशों के छात्रों एवं अन्य मित्रों ने अच्छी प्रतिक्रिया दी और इसे सराहा. इसका कारण शायद यह था कि वे दलित कविताओं से परिचित थे. एक मित्र ने अन्य आदिवासी मित्रों की कविताओं की प्रशंसा करते कहा कि उनकी कविताओं के मुकाबले मेरी कविताएं कुछ उबड़-खाबड़ और कर्कश हैं. यह बात जब उन्होंने कई बार दुहरायी तो मित्र को उत्तर दिया – किसी को हमेशा मिर्ची खिलाई जाय और उससे अपेक्षा की जाय कि वह मीठे के स्वाद के बारे बताए तो वह मीठे का स्वाद कैसे बताएगा ?  मुझे हमेशा विवश किया गया, बाध्य किया गया कि जीवन के पथ में सही ढंग से न चलूँ. इसलिए कई मित्रों, दुश्मनों के द्वारा बार-बार धकियाकर रास्ते के किनारे या कभी रास्ते से बाहर चलने के लिए भी बाध्य किया गया. ऐसे में चिकने रास्तों के बारे कैसे कहता ? जो देखा, भोगा, अनुभव किया, लिखा. अब दर्द  के ये काँटे आपको को भी चुभते हैं या उबड़-खाबड़ लगते हैं तो शायद यह कविता की सफलता है. कविताओं के माध्यम से अपमान, उपेक्षा, भेदभाव, पक्षपातपूर्ण व्यवहार, जातीय-घृणा के दंश के विरुद्ध स्वयं को सम्हालता रहा और अपने गंवई अनुभवों से भी प्रेरित होने का प्रयास करता रहा. अधिकांश कविताओं में आधुनिक समय की आदिवासी पीड़ाओं की चर्चा करते हुए भी पुरखा-अनुभवों यानी अपने गाँव, जंगल की ओर देखते रहने का भी प्रयास है और - जोहार, तीर, धनुष, कुल्हाड़ी, कुदाल, खेत, खलिहान, महुआ, सखुआ, पलाश, पेड़,  नदियाँ, नगाड़े, ढोल, माँदर, बाँसुरी, जंगल, पहाड़, धुमकुड़िया,  झारखंड, पेरवा, कबूतर, पशु-पक्षी, तितली, हरियाली आदि कुछ शब्द बार-बार कई कविताओं के कई प्रसंगों में आते हैं. इसके अलावा अखड़ा, फुटकल, रानू, मड़ुवा, गुँगू, पुआल का गद्दा, चटाई का कंबल, ससनदिरी, पेड़-पौधे, बंदर, भालू, मकड़े, चींटी, टंगिया, पक्षी, कुमनी, स्वर्णरेखा, दामोदर, कोयल, मयूराक्षी, चींटी का स्वाद, लताएं, कंद-मूल, मड़ुवे की काली रोटी, खाने लायक माँस, बाजार का झारखंड, शिकार पर जाते हर आहट से सतर्क बाघ, बड़े बाज द्वारा गहरी नदी में तैरती मछली को देखना, भेड़िये से मेमना छुड़ाते, खरगोशों के पीछे भागते क्षण, माँदर की थाप, उलगुलान का जोश, संवेदना के राडार, मुख्यधारा जैसे कई शब्द और प्रसंग सीधे आदिवासी-जीवन से लिए गए हैं. ऐसे कई प्रसंग, जंगल के अनुभव नहीं ऱखने वाले मित्रों के लिए उबड़-खाबड़ या कर्कश जरूर लग सकते हैं. इसलिए प्रचलित सौन्दर्य-शास्त्र या दृष्टिकोण से इन्हें, पढ़ना और महसूसना कठिनाई उत्पन्न कर सकता है. ऐसा इसलिए कहने का साहस कर रहा हूँ क्योंकि इन कविता जैसी रचनाओं से महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, उड़ीसा का अहिन्दी-भाषी आदिवासी-पाठक भी जुड़ जाता है लेकिन, झारखंड में हमारे आस-पास और हमारे साथ रहते कई गैर-आदिवासी पाठक को ये कविताएँ अच्छी नहीं लगतीं. कई कविताएं दीकू स्थापनाओं व दृष्टिकोणों से सीधे जूझती भी दिखती हैं. शायद इसलिए ये कविताएँ झारखण्ड में ऐसे समुदायों के बीच चर्चा में कम हैं. मैंने जो कुछ झेला उन विपरीत स्थितियों के विरूद्ध खड़े रहने के लिए खुद को सम्हाले रखने का काम कविताओं ने किया. निश्चय ही जिन्होंने ये पीड़ाएं नहीं झेली हैं, इन स्थितियों का सामना नहीं किया या इन स्थितियों के निकट नहीं रहे या ऐसे लोगों के प्रति जिनकी सहानुभूति नहीं है उन्हें ये कविताएं शायद ही अच्छी लगें. मैंने ये कविताएं उनके लिए लिखी भी नहीं है. ये कविताएँ राजीव रंजन सिंह, महाश्वेता देवी, रमणिका गुप्ता, हरिवंश, रविभूषण, फैसल अनुराग, सोलेन कुजूर, हैरॉल्ड एस.तोपनो, रणेन्द्र, मिथिलेश जैसे कुछ शुभचिंतकों मित्रों व संपादकों के प्रोत्साहन से लिखना जारी रखा और आज भी कविताएं प्रकाशन हेतु बहुत संकोच के साथ, कभी कभी भेजता हूँ या किसी संपादक द्वारा माँग किए जाने पर ही भेजता हूँ. कभी-कभी लगता है ये कविताएँ तो नहीं हो सकतीं क्योंकि ये एक आदिवासी के द्वारा लिखी गई हैं लेकिन, ये कविता के पड़ोस जैसी कुछ जरुर हैं या कहें कविता के पड़ोस के कुछ शब्द-जाल हैं. अब अनुभव करता हूँ जब-तक एक आदिवासी या इसी तरह अन्य लोग इस दुनिया में अपमानित, उपेक्षित, प्रताड़ित हैं. साथ ही धरती, जल, जंगल, जमीन, जमीर, जबान, हवा, हरियाली, उर्वरता और प्रकृति के मुनाफाखोर, लुटेरे-ठग इस दुनिया में मौजूद हैं, तब तक कुछ-कुछ लिखते रहने का काम जारी रहेगा. “जंगल पहाड़ के पाठ” कविता संग्रह का संताली व मराठी में अनुवाद हो चुका है एक अन्य दक्षिण भारतीय भाषा में अनुवाद प्रक्रियाधीन है, जिससे मेरी बातें अन्य भाषा समूह के लोगों तक भी पहुँच रही है.यह लिखने का थोड़ा संतोष देता है तो प्रेरणा भी.
बंगला की मशहूर लेखिका महाश्वेता देवी से पलामू में बंधुआ मजदूरों के लिए काम करने के सिलसिले में 1981 में मुलाकात हुई. फिर उनसे बातचीत और पत्राचार होता रहा. उन्होंने एक बार पूछा – टोप्पो क्या लिख रहे हो? मैंने कहा – एक बड़ा उपन्यास. महाश्वेता देवी ने जानना चाहा मैंने कितना लिखा है तो मैंने बताया कि अभी तो सोच रहा हूँ. इस पर महाश्वेता देवी थोड़ी नाराज हुईं और समझाया – जो छोटा बड़ा समझ में आता है वह सब लिखते जाओ. लेख, कहानी, कविता, डायरी आदि कुछ भी, वही एक दिन बड़ा काम हो जायगा. आगे उन्होंने कहा – “ तुमलोगों के लिए  हमारे जैसे लोग हमेशा लिख नहीं पायेंगे, यह काम तुम जैसे लोगों को खुद करना पड़ेगा, तुम्हारे अपने लोगों के लिए. हम जैसे लेखक हर बार तुमलोगों की मदद नहीं कर पायेंगे ”.  महाश्वेता की इन बातों ने बार-बार सोचने को विवश किया कि मुझे लिखना चाहिए. इसी तरह की बातें प्रसिद्ध हिन्दी कथाकार भीष्म साहनी भी कह चुके थे और उनके साथ हुए कुछ पत्राचार में उन्होंने इस ओर इशारा भी किया था. सर्वेश्यर दयाल सक्सेना ने भी यही कहा कि मुझे आदिवासी जीवन के बारे लिखना चाहिए.
आज तक दो किताबें प्रकाशित हैं पहला कविता संग्रह जंगल पहाड़ के पाठ और दूसरा लेख संग्रह सभ्यों के बीच आदिवासी. कुछ कहानियाँ लिखी हैं. अपनी मातृभाषा कुँड़ुख में एक एकांकी बुधु भगतस ईसन रअदस (बुधु भगत यहाँ है) अभी अभी पूरा किया है. इसके अलावा झारखंड के सत्रह कवियों का संग्रह कलम को तीर होने दो तैयार करने में रमणिका गुप्ता जी का संपादन सहयोग किया है. यह पुस्तक वाणी प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित है. एक आदिवासी कथा संग्रह का संपादन भी मित्रों के साथ किया है, जो प्रकाशनाधीन है. एक उपन्यास पर भी काम चल रहा है लेकिन इसमें कुछ महीने और लगेंगे. इस वर्ष के अंत तक दो किताबों के प्रकाशित होने की आशा है.
देखता हूँ विश्व भर के लोग मुनाफा के लिए, तो  भारत में शुभ-लाभ के लिए जीते दिखते हैं. लेकिन मुनाफा, विकास और उपभोक्तावाद की बढ़ती प्रवृत्ति ने मनुष्य के अंदर से मनुष्यता छीन ली है तो लगता है इसे बचाए रखने लिए एक आदिवासी को लगातार लिखते रहना चाहिए. आज के कई विदेशी चैनल आदिवासी ज्ञान-परंपरा को पुनर्सृजित कर रहे हैं. इसी तरह पेड़ पौधों को आधुनिक भवन के साथ जीवित रखने का तकनीक विकसित कर रहे हैं. यानी विकास की अंधभक्ति और अपार-धन पाने की हवस में मनुष्य के हर तरह के स्वास्थ्य का जो क्षरण हुआ उसे आदिवासी जीवन-शैली को अपनाकर फिर से पाने की कवायद शुरू हो गई है. भोजन बनाने की कई आदिवासी परंपराएं व भोजन आज लोकप्रिय हो रहे हैं. सुनने में यह अच्छा लगता है लेकिन इसे भी बाजार के दबाव से उपजे एक उत्पाद की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है तब लिखते रहने की जरुरत अधिक महसूस होने लगती है. इसलिए आदिवासी-जीवन  और दर्शन पर बात करना अब अच्छा लगता है क्योंकि- समानता, बंधुत्व, संतोषप्रियता, परस्पर-सम्मान, नदी-झील-झरनों का सम्मान, प्रकृति और धरती का सम्मान-संरक्षण व संवर्द्धन;  सामूहिकता, जानवरों को भी उनके मेहनत के लिए हिस्सा देना,  मालिक-नौकर का भेद न होना,  आपसी-सहयोग-व्यवस्था आदि कई ऐसे आदिवासी-परंपरा और जीवन-दर्शन हैं, जिन्हें अपनाकर मनुष्य आज की कई जटिल समस्याओं से मुक्त हो सकता है.
आरंभ में लगता था आदिवासियों के लिए ये क्या लिख रहा हूँ? लेकिन पिछले कुछ महीनों से लग रहा है शायद सभी के लिए लिख रहा हूँ. ऐसा इसलिए लगा क्योंकि पिछले दिनों एक ऐसे आदमी से मुलाकात हुई जिसे यह कहते सुना- “आदिवासियों को बचाने के लिए हमें, हर संभव उपाय करना चाहिए क्योंकि वे इस धरती और प्रकृति के शरीर के रक्त के समान हैं. अगर वे नहीं बचेंगे तो हम भी नहीं बचेंगे. इन्होंने प्रकृति व धरती की धड़कन को बचा कर रखा है. आदिवासियों का प्रकृति से गर्भनाल संबंध है, जिसकी वजह से हम सभ्य लोग जीवित हैं. सभ्यों ने तो धरती और प्रकृति का बस लूटा है.” ये विचार मैथन कॉलेज के प्राध्यापक श्री एच.के. सिंह के हैं  जिसे वे राँची आए एक अतिथि संकाय से बात करने के क्रम में कह रहे थे. जीवन में पहली बार कोई मिला था जो आदिवासियों के बारे ऐसी बातें कह रहा था. वरना अधिकांश लोग आदिवासियों के किसी भी समस्या या मुद्दे पर मात्र नकारात्मक टिप्पणी करते देखे जा सकते हैं. फलतः, अपने लिखने के कारण को और संबल मिला. राँची में अतिथि संकाय से उनकी बात समाप्त होने पर मैंने इन्हें जोहार किया और धन्यवाद कहा. इसी तरह आज न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व में कला, साहित्य, फैशन, भोजन, गृह-निर्माण, पर्यावरण, विकास, सामूहिकता, आपसी सद्भाव, प्रकृति, पृथ्वी, फिल्म एवं देशी विदेशी चैनलों में आदिवासी-परंपरा, मूल्यों, ज्ञान, तकनीक को समझने की कोशिश हो रही है तो लगता है हाँ, हम भी मनुष्य कहे जाने की दिशा में कहीं बढ़ रहे हैं. जैसे-जैसे इस तरह के शुभचिंतकों की संख्या बढ़ेगी मेरे उबड़-खाबड़ लेखन और अन्य आदिवासी रचनाकारों की रचनाओं को ज्यादा से ज्यादा लोग समझेंगे धरती, प्रकृति और मनुष्य के परस्पर अंतरंग संबंधों, जीवन-दर्शन और सामूहिकता को वे समझेंगे तो रोज क्रूर होते पूँजीवाद, श्रेष्ठतावाद, वर्चस्ववाद और सबसे बड़ी बात बाजारवाद की अंधी दौड़ से बचकर हम बेहतर आदमी, समाज और सुन्दर, सुखदायी दुनिया बना सकेंगें. इसलिए जब तक धरती, प्रकृति, हवा, हरियाली, पेड़-पौधों, जुबान, जमीर, पानी, जन, जमीन के लुटेरे-ठग और अनावश्यक अति-लाभ के आततायी रहेंगे और जब तक लिखने लायक रहूँगा, लिखता रहूँगा. और हर बार पिछले लेखन से बेहतर लिखना चाहूँगा. लेखन-कार्य़ से हर किसी को खुश रखा नहीं जा सकता. लेकिन अपने अनुभवों को बाँटकर बेहतर दुनिया बनाने का सपना जरूर देखा जा सकता है. इसलिए दुनिया से जुड़े कई सवालों में उलझकर उनके भी उत्तर खोजने का या विश्लेषण करने का अनुभव बाँटने का प्रयास करता रहूँगा. कुछ अच्छा होने की आशा में लिखना जारी रखता हूँ. शायद, यही मेरे लिखने का कारण है.
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महादेव टोप्पो
जन्म-  रांची में सन् 1954
शिक्षा – एम.ए. (हिन्दी),  एफटीटीआई,पुणे से फिल्म एप्रेसिएशन सर्टिफिकेट कोर्स 1994.
एक राष्ट्रीयकृत बैंक में 37 वर्ष तक सेवा के दरम्यान देश के कई शहरों जमशेदपुर, गया, डाल्टनगंज, पटना, शहडोल, पुणे, मुंबई, कोलकाता, भुवनेश्वर, गुवाहाटी में रहने, काम करने का अवसर.
धर्मयुग, समकालीन जनमत, सारिका, प्रभात खबर, जनसत्ता, झारखंड खबर, झारखंड दर्शन, समयांतर, अकार, युद्धरत आम आदमी, जनहक, पल प्रतिपल, अरावली उद्घोष, सरना फूल, कांची, अभिनव कदम, परिकथा, नया ज्ञानोदय, वागर्थ, सबलोग, बया, दैनिक भास्कर आदि पत्र पत्रिकाओं में लेख, कविता, टिप्पणी आदि प्रकाशित.
कविताएं जर्मनी, मराठी, असमिया व संताली में अनुदित व प्रकाशित.
साहित्य अकादमी, दिल्ली के अलावा तेजपुर (असाम), पुड्डीचेरी, कोच्चि(केरल), बीएचयू वाराणसी, राजोर (महाराष्ट्र) दिल्ली के विश्वविद्यालयों द्वारा आयोजित संगोष्ठियों में सहभागिता.
सम्मान – 1) रमणिका फाउंडेशन द्वारा बिरसा मुण्डा सम्मान 2014
  2) झारखंड इंडिजिनियस पीपल्स फॉरम द्वारा सम्मान – 2016
संपादन - वाणी प्रकाशन, दिल्ली द्वारा झारखंड के सत्रह आदिवासी कवियों के संग्रह “कलम को तीर होने दो” का संपादन-सहयोग, रमणिका गुप्ता को.
“जंगल पहाड़ के पाठ” – कविता संग्रह प्रकाशित
“जंगल पहाड़ के पाठ” कविता संग्रह का संताली एवं मराठी में अनुवाद.
भारत के विभिन्न आदिवासी-भाषाओं पर कहानी-संग्रह का संपादन-सहयोग.
लेखों का संग्रह “सभ्यों के बीच आदिवासी”  प्रकाशित.
सादरी फिल्म “बाहा”, कुंड़ुख लघु फीचर फिल्म “पहाड़ा’ एवं दो अंतरराष्ट्रीय तथा एक राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित फिल्म “एड़पा काना” (गोइंग होम) लघु फीचर फिल्म में अभिनय.
संप्रति –  भाषा, साहित्य, कला, संस्कृति के विकास के लिए कार्यरत.
मातृभाषा कुँड़ुख में नाटक लेखन.
संपर्क – 7250212369, ईमेल – mahadevtoppo@gmail.com
पता – हरमू हाई कोर्ट कॉलोनी के पीछे,
कार्तिक चौक के निकट, हरमू, राँची – 834002, झारखंड

संपर्क
मोबाईल -07250212369
ईमेल – mahadevtoppo@gmail.com

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