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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

04 नवंबर, 2018

कहानी:



पराधीन
धीरेन्द्र अस्थाना








धीरेन्द्र अस्थाना 


आंख खुली तो कमरे में नीम अंधेरा था। जैसी कि आदत थी बांया हाथ आरती वाले हिस्से की तरफ घुमाया मगर हाथ आरती के बदन को सहलाने के बजाय खाली बिस्तर पर घूम आया।

            राजीव निगम चौंक कर पलंग पर उठ बैठे। स्विच दबा कर जीरो वाट वाला बल्व जलाया तो बैडरूम में एक कातर सन्नाटा क्रमशः पसरने लगा। खिड़की के बाहर धारासार बारिश थी। पता नहीं क्यों राजीव निगम को लगा, इस बारिश में कोई अनहोनी घटित हुई है। दीवार घड़ी में सुबह के साढ़े पांच बजे थे। राजीव ने कुछ देर इंतजार किया कि शायद आरती टॉयलेट में हो लेकिन जब घड़ी पूरे सन्नाटे को टकटकाती हुई पौने छह पर पहुंच गयी तो राजीव बीती रात में उतर गये।

            अपने हिस्से का कोटा निपटा कर हमेशा की तरह राजीव दाल खिचड़ी खा रहे थे और आरती हॉल में फेसबुक पर व्यस्त थी। खिचड़ी निपटा कर उन्होंने वाश बेसिन में हाथ धोये थे और आरती को गुड नाइट बोल पलंग के अपने हिस्से में आकर पसर गये थे। एकरस दिखती यह रोजमर्रा की रात थी जिसमें कोई रहस्य रोमांच और रोमांस नहीं था। यह रात भी बाकी रातों की तरह फिर से बीत गयी थी। लेकिन इस रात की सुबह में कुछ था जो आशंका की तरह खिड़की के बाहर की बारिश में बिजली सा चमक रहा था।

            राजीव पूरा घर घूम आये। पूरा घर खाली था। उस खाली घर में आरती की महक तक नहीं थी। अब तक सुबह के सात बजे चुके थे। राजीव जुलाई की मुंबई में थे जब मानसून अपने शबाब पर होता है। सहसा हॉल में सोफे पर पड़ा मोबाइल किसी मैसेज से टिमटिमाया। राजीव ने मैसेज पढ़ा, मोबाइल को सोफे पर रखा, फिर मैसेज पढ़ा और फिर मोबाइल को सोफे पर रख दिया। एक छोटे से वाट्सएप मैसेज से भरा पूरा रंगारंग जीवन औरांग उटांग में कैसे बदल सकता है। यह नींद के भीतर चलता कोई बुरा स्वप्न है या स्वप्न के बाहर घटित होता कोई अभिशाप। ऐसा कैसे संभव है। सामान्य जीवन का तो कोई भी आयाम, विमर्श, समीकरण इस घटित हुए पल की परिभाषा करने में असमर्थ है।

            बासठ साल की उम्र में... राजीव अंधेरे की सीढ़ियां उतर रहे थे... कोई कैसे अपने साथी को छोड़कर जा सकता है। पर मोबाइल के स्क्रीन पर दर्ज सच आरती की दुनिया से निकल कर ही पांव पांव राजीव तक पहुंचा था। यह कौन सा चेहरा है आरती का जिससे राजीव चालीस साल के लंबे सह जीवन में अनभिज्ञ रहे। यह कौन सी नयी आरती राजीव के जीवन में जल गयी। यह कौन सी पुरानी आरती राजीव के जीवन में बुझ गयी। यह तो वह समय है न आरती जब उंगलियों से फिसल रहा है जीवन। तो फिर?

            आरती का वाट्सएप मैसेज था -‘यह कोई फितूर नहीं है। चालीस साल की पराधीनता के तंदूर में सिंका हुआ निर्णय है। तुम कहते थे न, लोगों जगहों और चीजों को तुम ही छोड़ते आये हो। लो मैं तुम्हें, तुम्हारी आदतों, तुम्हारे घर और तुम्हारी सल्तनत को छोड़ कर विदा लेती हूं। अब जो भी जीवन बचा है वह मैं अपनी मरजी से अपने तरीके से अपने अंदाज से जीना चाहती हूं। मैं मुक्त हो रही हूं और तुमको भी मुक्त कर रही हूं।‘

            अंधेरे की चक्करदार सीढ़ियों पर राजीव लड़खड़ा गये। सहारे के लिए अगल बगल कोई नहीं था, कुछ नहीं था। चालीस साल साथ बिता कर ऐसे जाया जाता है क्या? सहसा और अनुमानों के बाहर के बियाबानों में किसी को निहत्था और निर्जन छोड़ कर! राजीव के जीवन भर का ज्ञान, अनुभव और अध्ययन भविष्य के आसन्न संकट के दावानल में धू धू दहक रहा था।



       

  फिर जीवन लड़खड़ाना शुरू हुआ। सुबह के साढ़े सात बजे होने वाली आरती की पूजा के साथ बजने वाली घंटी नहीं बजी। शंख नहीं गूंजा। अगरबत्ती की महक नहीं फैली। सुबह आठ बजे मिलने वाली चाय नहीं मिली। तुलसी और अदरक के स्वाद वाली अप्रतिम चाय। राजीव पानी पीकर फ्रेश होने चले गए। फ्रेश होकर उन्होंने आरती को फोन लगाया, वह नॉट रीचेबल निकला। उन्होंने वाचमैन को फोन किया। उसने बताया- ‘मेमसाब के लिए मैं ही तो ऑटो लेकर आया स्टेशन का। बोल रही थीं, उनकी मां बीमार हैं, अचानक जाना पड़ रहा है। आठ दस दिन नहीं आएंगी। यह कोई रात दस, साढ़े दस बजे की बात होगी साहेब।‘ राजीव ने आरती की मां को फोन लगाया। वह बोलीं- ‘हैं, कहीं चली गयी! ऐसे कैसे! कोई झगड़ा हुआ था क्या?‘

            राजीव ने फोन काट कर बेटे रवि को फोन लगाया। घंटी बजती रही। फोन उठा ही नहीं। बेटा एक टीवी चैनल में सीनियर रिपोर्टर था और अपनी पत्नी के साथ अंधेरी (पश्चिम) में एक किराये के छोटे से फ्लैट में रहता था। इसके बाद तो किसी को भी फोन नहीं कर सकते थे राजीव निगम! उन्होंने बगल वाले फ्लैट की घंटी बजायी। दरवाजा खुला। पड़ोसन प्रिया थी। ‘एक कप चाय मिलेगी?‘ राजीव को लगा उनकी आवाज काफी दयनीय किस्म की है।

            ‘श्योर।‘ प्रिया ने कहा, ‘लाती हूं।‘

            प्रिया चाय लायी। बोली, ‘आंटी कहां गयीं इतने सवेरे?‘

            ‘सवेरे नहीं रात में गयीं।‘ राजीव ने जवाब दिया, ‘उनकी मां बीमार हैं। कांदिवली गई हैं।‘

            ‘ओह!‘ प्रिया बोली, ‘और कुछ चाहिए हो तो बोलिएगा।‘

            राजीव चाय का कप लेकर किचन में आ गये। डब्बे टटोलने लगे। एक डब्बे में बिस्कुल मिल गये। थोड़ी सी राहत किचन में उतर आयी।

            ‘देखो‘ राजीव जैसे रात वाले नशे में थे -‘कौन है पराधीन? मुझे तो चाय तक बनानी नहीं आती। तुमने कभी किचन में घुसने ही नहीं दिया। तुम्हें याद तो होगा, शादी के चार साल बाद का वह फंक्शन जहां शहर की एक बुजुर्ग लेखिका ने तुमसे पूछा था- तुम्हारे कितने बच्चे हैं आरती? तुमने तपाक से कहा था -दो। एक मेरा एक सास का। आज बासठ की उम्र में इस बच्चे को अकेला छोड़ कर जाते हुए तुम्हारा दिल जरा भी कांपा थरथराया नहीं। जाहिर है यह तुम्हारा अचानक लिया गया फैसला तो होगा नहीं। इस फैसले पर कई बारिशें बरसी होंगी। बहुत सारी सूनी दुपहरियों में यह तपा होगा। बहुत भारी ठंडी रातों में यह ठिठुरा होगा। लेकिन मुझ तक इस कठोर फैसले की भनक तक भी नहीं आयी। तुमने मुझे तैयार होने का भी वक्त नहीं दिया। उठीं और निकल गयीं। यह जीवन है कोई बंदूक की गोली थोड़े ही है कि चल गयी दनाक से।

            नहा धोकर तैयार हुए राजीव और अखबार लेकर बैठ गये। रोज का रोजनामचा। फर्क इतना कि आज सामने नाश्ता नहीं था। आरती के निर्णय को लेकर एक विराट शून्य था उनके दिमाग में। वह आरती के अप्रत्याशित कदम और अपने जीवन की ज्यामिति को सुलझा नहीं पा रहे थे। कहां गयी होंगी आरती। उम्र तो उसकी भी बासठ की ही है। इस उम्र में यह कैसा साहस उसके बीच उगा होगा और क्यों? अकेली तो वह भी होगी। सहसा आरती के अकेलेपन की कल्पना कर डर गये राजीव। वह तो एक जाने पहचाने शहर की जानी पहचानी कॉलोनी के अपने खुद के फ्लैट में बैठे हैं। आरती कहां होगी? किस शहर के किस मोहल्ले में एकदम तन्हा। यह कैसा स्वाधीन जीवन जीने का निर्णय लिया उसने जिसमें हर कदम पर खतरे खड़े हैं। इस समय कहां होगी आरती? रात साढ़े दस बजे निकली है तो अब सुबह नौ बजे कहां होगी वह। उसकी पूजा, उसका नाश्ता, उसका किचन से उछला हुआ सवाल- ‘आमलेट ब्रेड खाओगे क्या या परांठा बना दूं?‘

            राजीव को दिल में दो स्टैंट लगे हैं। उन्हें लगा वहां कुछ तीन पांच हो रही है। वह सहम गये। एक बार फिर उन्होंने दो फोन किये - एक बेटे को जिसकी घंटी बजती रही। दूसरा आरती को जो नॉट रीचेबल था।







            लेस स्पाइसी बोलने के बावजूद दोपहर जो होटल से बटर पनीर आया उससे एसीडिटी हो गयी राजीव निगम को। क्या खाया होगा आरती ने, खाया भी होगा या नहीं। प्रश्न पैदा होते थे और एक अंधेरी, गहरी खाई में गिर जाते थे। फिर इधर से उधर निरुद्देश्य टहलते, बैठते, लेटते, उठते और जाकर बालकनी में खड़े होकर शून्य में ताकते हुए पूरा दिन जिबह हो गया। न बेटे का पलट कर फोन आया न आरती की घंटी बजी। बारिश धीमी हो गयी थी। रात उतर रही थी। यह राजीव निगम के रासायनिक पराक्रम में डूबने उतराने का समय था। इस रात में पहली बार आरती शामिल नहीं थी। आने वाली ऐसी और और रातों की कल्पना से राजीव की रीढ़ की हड्डी थोड़ा कांप कांप गयी। शराब तो राजीव की लॉयब्रेरी के एक रैक में रहती थी। मगर चखने का मसला उलझ गया। किचन का दृश्य जंगल में तब्दील हो गया हो जैसे। न भुने हुए काजुओं की गमक, न सिरके में डूबे प्याज की सुगंध। फ्रिज में तीन अंडे थे मगर राजीव को तो गैस भी जलानी नहीं आती थी, वह अंडे कैसे उबालते या आमलेट कैसे बनाते? थक हार कर उन्होंने चिकन लॉलीपॉप और दाल खिचड़ी का ऑर्डर किया और बुदबुदाये... तुम क्या खाने वाली हो आरती?

            शराब रिवाज की तरह पी ली गयी। खिचड़ी बर्तन में पड़े पड़े सूख गयी। राजीव चाह कर भी खाना नहीं खा पाये। मन के दावानल में एक पागलपन था जो आरती को पुकारता था और प्रत्युत्तर में दावानल का गहरा, अपारदर्शी धुआं लौट लौट आता था। राजीव का ढ़हने का समय पायदान चढ़ रहा था।

                        सुबह राजीव शाहजहां की तरह एक रात में बूढ़े हो गये। उनके टखने टूटने लगे, सांस उखड़ गयी, दिमाग गाफिल हो गया और दिल लरजने लगा। उनके सिर के बाल और भौंहें पूरी तरह सफेदी में रंग गये और कलेजा रह रह कर मुंह को आने लगा।

            क्या ऐसा केवल मेरे साथ हो रहा है या आरती भी इस तकलीफ से गुजर रही होगी। वह जानना चाहते थे मगर प्रश्न सुरंग में घुसता था और लंबी दूरी तय कर सुरंग के बाहर के आसमान में टंग जाता था।

            यह बड़ी बेढब सुबह थी। कुछ भी अपने ठिकाने पर नहीं था। चाय नहीं थी कि वह रोज पड़ोस से मांगी नहीं जा सकती थी। नाश्ता नहीं था। खाना नहीं था। सांय सांय करता अकेला मकान था जिसमें कहीं से भी सुकून नहीं टपकता था। उस पर सितम यह कि कहीं से भी आरती के जीवन की आहट नहीं आ रही थी।

            आहट आयी। बेटे रवि की आहट आयी। राजीव का मोबाइल बजा तो स्क्रीन पर बेटा रवि चमक रहा था। राजीव ने लपक कर फोन उठा लिया। रवि ने बताया उसके स्क्रीन का डिस्प्ले उड़ गया था इसलिए कोई भी मिस कॉल नहीं देख पाया। फिर कल की बारिश में अंधेरी का पुल गिर जाने से पूरी कैमरा टीम के साथ वह दिन भर रिपोर्ट करने में लगा रहा। रिपोर्टिंग के लिए भी कैमरामैन का फोन इस्तेमाल करना पड़ा। रवि की कहानी खत्म हुई तो राजीव ने गंभीर आवाज में कहा -‘तेरी मम्मी घर छोड़ कर चली गयी। फोन नॉट रीचेबल है। मेरा मन नहीं लग रहा है। दूसरे मुझे किचन का काम जरा भी नहीं आता। क्या कुछ दिन के लिए मैं तेरे पास रहने आ जाऊं।‘

            ‘पापा, आप दुख में हो, यह ठीक है लेकिन मेरी बात ध्यान से सुनो।‘ रवि ने रिपोर्टरों वाले अंदाज में समझाया, ‘आप सात सौ स्क्वायर फिट के बालकनी वाले घर में आराम से रहते हो। मेरा साढ़े तीन सौ स्क्वायर फिट का वन रूम किचन है। इसमें आप कहां अटोगे? फिर, नीलम सुबह आठ बजे काम पर निकलती है और रात को आठ बजे लौटती है। मैं दोपहर दो बजे काम पर निकलता हूं और रात को बारह एक बजे काम से लौटता हूं। इस टाइम टेबल में कहां फिट होगे आप? अब मम्मी की बात! जब मैं छोटा था आप गुस्से में आकर मम्मी को कटोरी गिलास चम्मच किसी भी बर्तन से मार देते थे। तब तो मम्मी आप को छोड़ कर नहीं गयी। तो अब ऐसा क्या सीरियस मैटर हो गया कि मम्मी घर छोड़ गयी?‘

            राजीव सनाका तो खा ही गये, आहत भी हो गये-बेटा अतीत के भाले परचम दिखा रहा था। सहमती सी थरथराती आवाज में वह बोले -‘तत्काल तो कुछ याद नहीं आ रहा। क्या पता नशे में कुछ कह दिया हो तो...‘

            ‘अब आइए पॉइंट पर, इतनी भी शराब क्यों पीनी कि रात का सब कुछ ब्लैक आउट हो जाए। लेकिन मेरा मकसद लेक्चर देना नहीं है। आप आराम से घर में रहो। होटलों में चाय नाश्ता खाना सब मिलता है। टीवी देखो, किताबें पढ़ो, सुबह शाम घूमने जाओ। मैं इस बीच मम्मी के फोन के जरिए मम्मी की लोकेशन पता करता हूं। पता चलते ही आपको फोन करता हूं। ओके, टेक केयर।‘ रवि ने फोन काट दिया।

            बारिश फिर शुरू हो गयी। राजीव घर की बालकनी में आ गये। आरती के जाने वाली रात क्या हुआ था, वह याद करने लगे। वह पी रहे थे जब आरती ने एकाएक टोका, ‘जल्दी करो। तुम्हारे कारण मैं अक्सर जिम नहीं जा पाती हूं। किसी कानून की किताब में लिखा है क्या कि रात बारह बजे तक शराब पी जाए। तुम आठ बजे शुरू करके दस बजे समाप्त क्यों नहीं कर सकते?‘

            राजीव सुरूर में थे। नशे की हालत में टोका टाकी उन्हें नागवार लगती थी। बोले, ‘तो यह किस कानून की किताब में लिखा है कि पति के पीने तक बीवी जागती रहे।‘




       


   ‘आहा।‘ आरती ने पलटेवार किया, ‘तुम्हारे बिस्तर पर जाने तक जागी न रहूं तो रोज सिर माथा, टांग फुड़वाते रहोगे इधर उधर गिर कर। चार बार गहरी चोटें खा चुके हो। दो बार तो टांके भी लग चुके हैं। बिना किसी की मदद के किस तरह तुमको अस्पताल तक लेकर गई हूं यह मैं ही जानती हूं। कई बार तो लगता है कि तुम्हें छोड़ कर चली जाऊं तो ही तुम्हें मेरी तकलीफ का एहसास होगा।‘

            ‘यह तुम्हारा तकिया कलाम है। दसियों बार दोहरा चुकी हो।‘ राजीव ने व्यंग्य किया, ‘बरसने वाले बादल गरजते नहीं हैं।‘

            ‘आर यू सीरियस?‘ आरती संजीदा थी।

            ‘येस, आई मीन इट।‘ राजीव नशे में आ चुके थे, बोल गये।

            ‘ओके।‘ आरती बोली और सोफे पर पसर कर फेसबुक में डूब गयी।

            इसके बाद उन्होंने दारू समाप्त की थी, खाना खाया था, हाथ धोये थे और आरती को गुड नाइट बोलकर बैडरूम में चले गये थे।

            तो क्या नशे वाले जुमले को कारण बना कर आरती निकल गयी। नशे के बाद वाले झगड़े टंटे तो जिंदगी शुरू करने से लेकर अभी तक होते ही आ रहे थे। सुबह होने पर राजीव माफी मांग ही लेते थे। प्रायश्चित स्वरूप घर के बहुत सारे काम भी कर देते थे।

            तो फिर? ऐसा क्या तीखा ताप था आरती के दिल में जो उसे घर की चौखट के पार ले गया! राजीव को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि मोबाइल फिर बजा। इस बार आरती की मम्मी थीं। कह रहीं थीं -‘जब तक आरती का पता चले तुम मेरे घर आ जाओ राजीव।‘

            ‘धन्यवाद मम्मी। ‘राजीव ने जवाब दिया, ‘यह कोई समाधान नहीं है। तुम खुद बाइयों के भरोसे रहती हो। उस पर मैं भी बोझ बनने का आ जाऊं? चिता मत करो। आरती मिलेगी।‘ उन्होंने आरती की मम्मी को सांत्वना दे दी।

            दोपहर का डेढ़ बज गया था। राजीव ने होटल में दाल खिचड़ी और मसाला पापड़ का ऑर्डर दिया और बेडरूम में आकर लेट गये। क्या कर रही होगी आरती और पता नहीं उसने अब तक खाना खाया होगा या नहीं। वह चिंतातुर थे, सचमुच। आखिर आरती भी तो उनकी ही तरह एक बुझता हुआ चिराग थी।

            यह जीवन का स्वाभाविक सा नियम है। जब कोई हमारे साथ चल रहा होता है तो उसका होना उतना महत्वपूर्ण नहीं लगता लेकिन जब वह जीवन से निकल जाये तब अहसास होता है कि उसके बिना हम कितना खाली, कितना अकेले और कितना अधूरे रह गये हैं। आरती के बिना राजीव हर क्षण इस अहसास को जी रहे थे। उन्हें सहसा युवा दिनों में पढ़ी अपने खास दोस्त देशबधु की कविता पंक्ति याद आ गयी- ‘वर्तमान कभी दौड़ता है हमसे आगे भविष्य की तरह। कभी पीछे भूत की तरह लग जाता है। हम सब उल्टे लटके हैं आग के अलाव पर। आग ही आग है नसों के बिल्कुल करीब। और उनमें बारूद भरा है।‘

            क्या ऐसा ही कोई विस्फोटक अहसास आरती की चेतना में जन्मा था? राजीव निगम सोच रहे थे कि दरवाजे की घंटी बजी। जरूर दाल खिचड़ी आयी होगी।

            जेल के वीआईपी सुविधा प्राप्त कैदी की तरह हो गये थे राजीव निगम। उन्हें पैरों में सोरायसिस की बीमारी थी इसलिए बारिश के दिनों में उनका घर से बाहर निकलना निषिद्ध हो जाता था। टहलने का काम वह घर में ही निपटा लेते। उनके उजाड़ जीवन का बाल्कनी ही हरा भरा विकल्प थी। बाल्कनी पर खड़े खड़े उन्होंने चिड़ियों कौवों की शरीरिक भंगिमा और सांकेतिक भाषाएं सीख लीं। वह रोटी लेकर खड़े रहते और कौवा उनके हाथ से रोटी खींच ले जाता। चिड़ियाएं उनकी मौजूदगी के बावजूद उनके अगल बगल से बाजरी के दाने चुगती रहतीं। प्रकृति के संसार में वह आरती के तौर पर ढल गये थे। पहले, जो आरती की दुनिया थी वह अब क्रमशः राजीव के चोले में उतर रही थी। थोड़ी दिक्कत आयी मगर अब उन्होंने चाय बनाना सीख लिया। वह सुबह के समय दूध भी उबाल लेते, चाय भी बना लेते। रात को चखने के लिए उन्होंने अंडे उबालने भी शुरू कर दिये। यहीं नहीं चाय दूध नाश्ते के बरतन भी वह खुद ही साफ करने लगे, एक दिन तो उन्होंने फिनायल डाल कर पूरे घर में पोचा भी लगा दिया। चाय को टेस्टी बनाने के लिए उन्होंने फोन पर ऑर्डर देकर चाय मसाले का पैकेट मंगवा लिया।

            कायांतरण के इसी क्रम में बेटे रवि का फोन आया -‘मम्मी का फोन ट्रेस हो गया है। लोकेशन दिल्ली की है। और ज्यादा डिटेल्स के लिए इंतजार करो। और सुनो, पैसे तो होंगे न मम्मी के पास?‘

            ‘होने चाहिए।‘ राजीव बोले ‘उसके बैंक का एटीएम कार्ड जगह पर नहीं दिख रहा। इसका मतलब पैसे की समस्या नहीं होनी चाहिए।‘

            ‘ओके।‘ रवि ने फोन काटने से पहले इतना और जोड़ दिया, ‘दिल्ली तो आप लोगों का पुराना शहर है।‘

            दिल्ली की भाषा में राजीव का दिल गार्डन गार्डन हो गया। आह, आरती उस दिल्ली में है जिस दिल्ली को वे लोग अट्ठाइस साल पहले छोड़ आये थे। बेटा रवि पला बढ़ा भले ही मुंबई में था पर वह पैदा दिल्ली में ही हुआ था। दक्षिण दिल्ली के सरोजनी नगर इलाके के अस्पताल में। राजीव की आंखों में संघर्षरत दिनों के वे पल कौंध गये जब आरती और राजीव नेताजी नगर कॉलोनी में एक कमरे को सबलैट करके रहते थे। मतलब दो कमरे के मकान में एक कमरा और किचन मकान मालिक का और फकत एक कमरा किरायेदार का। टॉयलेट बाथरूम साझा। उस पर भी टॉयलेट बाथरूम पर पहली प्राथमिकता मकान मालिक की। सरकारी मकान थे। छापा पड़ने पर किरायेदारों को पूरी रात बाहर गुजारनी पड़ती थी। ऐसी कई छापामार रातें आरती राजीव ने सिनेमा का आखिरी शो देखकर सड़कों-फुटपाथों पर बितायी थीं।

            दिल्ली में हो तो दिल्ली का बहुत कुछ याद आता होगा न तुम्हें आरती? याद है एक बार जब हम दरियागंज के गोलचा सिनेमा के बाहर दूसरी तरफ नेताजी नगर की बस पकड़ने के लिए खड़े हुए थे तो एक आवारा टाइप आदमी ने तुम्हारे कान में आकर फुसफुसाया था -‘चलो चलिए।‘ तुम घबरा गयी थीं। और दोड़कर मुझसे चिपट गयी थीं। तब कितने छोटे थे हम! केवल बाइस बाइस साल के। फिर हमारी बस आ गयी थी और हम बस में चढ़ गये थे। तब जाकर जान में जान आयी थी तुम्हारी। ऐसी ऐसी कितनी सारी खट्टी मीठी घटनाएं हैं दिल्ली की जिनसे हमारी जिंदगी साझा रूप से टकरायी थी। और अब तुम उसी दिल्ली में हो। यह अकारण तो नहीं होगा कि मुंबई से पलायन करने के बाद तुमने अपना डेस्टिनेशन उसी दिल्ली को चुना जहां हम शुरू हुए थे। साथ साथ। बेपरवाह। अल मस्त। दिल्ली में हो न! होगा लोगों के लिए दिल्ली एक बीहड़ मेरे लिए तो वह टिमटिमाते कस्बे जैसा है। मैं तुम्हें खोज ही लूंगा।

            याद है जब हम दोनों देहरादून में शादी करके नये नये दिल्ली आये थे तब एक रात मैं दरियागंज वाले गेस्ट हाउस से गायब होकर अपने दोस्त के घर जश्न मनाने कहीं पहुंच गया था। तब मोबाइल तो मोबाइल फोन का भी सुलभ जमाना नहीं था। तो भी तुमने पता नहीं कैसे मुझे उस दोस्त के घर पहुंच कर खोज लिया था और डांटती पीटती वापस गेस्ट हाउस में ले आयी थी। मुझे लगता है, मैं भी तुम्हें वापस ले आऊंगा। रवि लोकेशन पता कर रहा है तुम्हारी।





   

      रवि का फोन आ गया, ‘मेरे पास मम्मी का फोन आया था। लेकिन उन्होंने आपको बताने से मना किया है। पापा, मम्मी अपनी खास सहेली सरिता दोनेरिया के घर में हैं। उनका नाम पता मैं आपको वाट्सएप करता हूं। और ध्यान से सुनो। याद करो, एक बार झगड़े के बाद आप मुझे और मम्मी को छोड़कर जोधपुर चले गये थे मुकेश चच्चू के घर। तब मम्मी आपको खोज खाज कर मना मुनू कर वापस लायी थी। अब आपकी बारी है। जाओ और उस औरत को ले आओ जो आपका पूरा सच है।‘ रवि ने फोन काट दिया। राजीव का पूरा दिमाग सुन्न पड़ गया। मेरा बेटा इतना परिपक्व हो गया है। तभी उनके फोन पर लाइट चमकी। रवि ने पता भेजा था - सरिता दोनेरिया, जे-19, ईस्ट विनोद नगर, दिल्ली।

            हालांकि राजीव के पास सरिता का फोन नंबर था। वह सरिता को मजाक में सुखी सेठानी कहा करते थे। लेकिन उन्होंने खुद को फोन करने से रोक लिया। वह दिल्ली जाने की तैयारी करने लगे। लेकिन यह जानकर वह भीतर से कहीं दरक गये कि आरती ने रवि से तो बात की मगर अपना पता उन्हें बताने के लिए मना कर दिया। कोई बात नहीं आरती मेरे सौ गुनाहों पर तुम्हारी एक जिद माफ। उन्होंने सोचा और अटैची लगाने लगे।

            राजधानी से उतर कर राजीव ने उबर पकड़ी और ठीक पचपन मिनट में वह सरिता के तिमंजिला घर के नीचे खड़े थे। एक नामालूम सी बदहवासी उनके सर्वांग पर तारी हो रही थी। इस घर में पहले भी एक बार वह दो रातों के लिए ठहर चुके हैं। अपार आत्मीयता से छलछलाता बेदिल दिल्ली का घर। शुद्ध घरेलू वातावरण, सहज सरल आत्मीय परिवार। छल छद्म से अछूता। आरती ने ठीक ही जगह का चुनाव किया था।

            राजीव ने बेल बजा दी। ग्राउंड फ्लोर खाली रहता था। दरवाजा खोलने वाले को पहले माले से आना पड़ता था। जब तीन मिनट तक दरवाजा नहीं खुला तो राजीव ने दो बार बेल बजा दी। लगा कि ऊपर कुछ आवाजें उठी हैं। एक आवाज तो स्पष्ट नीचे उतरी- ‘आरती, दरवाजा खोल कर देखो कौन आया है। मैं नहा रही हूं। सब तो गये काम पर, इस समय कौन आया होगा?‘

            ‘जाती हूं।‘

                        आह, आरती की आवाज! राजीव का रोम रोम सिहर गया। वह खुद को तैयार करने लगे।

            दरवाजा खुला।

            तुम यहां?‘ आरती हतप्रभ थी।

            ‘हां, मैं यहां।‘ राजीव ने कंधे डाल दिये, ‘और कहां जा सकता हूं मैं?‘

            आरती दरवाजे के सामने से हट गयी।

 ०००

धीरेन्द्र अस्थाना की एक कहानी और नीचे लिंक पर पढ़िए

बहादुर को नींद नहीं आती

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2 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर अहसास । जीवन की सच्चाई को प्रस्तुत करने वाली कहानी।
    डॉ अवधेश राय कोलाबा मुम्बई

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  2. मज़ा आ गया। बेहद संजीदा और मर्मस्पर्शी।

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