परख छब्बीस
चाहा था समुद्र होना!
गणेश गनी
बहुत बार ऐसा देखा गया कि महिलाएं अपने सबसे प्रिय शौक भी परिवार के लिए त्याग देती हैं। कई बार तो पूरा जीवन बीत जाने के बाद कहीं अंतिम पड़ाव पर आराम फ़रमाते अपने साथी के कांधे पर सर रख गुनगुना लिया तो वो कहता है, अरे तुम तो गा भी सकती थी! कितनी महिलाएं ऐसी होंगी जो शानदार कविताएँ लिख सकती थीं, मगर जीवन में जिम्मेदारी निभाते निभाते सब कुछ खो गया। फिर भी वो कुछ नहीं कहती, कोई शिकायत नहीं करती। परमजीत कौर बेदी कहती हैं, कहा तो कभी यह भी नहीं-
मैंने कब कहा
आसमान में खिला कोई इंद्रधनुष
मेरे नाम कर दो
या फिर कहीं से ले आओ बसंत का मौसम
मेरे लिए
कब कहा
मेरे पैरों के नीचे हो, कोई आकाशगंगा
या हो, कोई कल्पवृक्ष
मेरे आंगन में
कब कहा
नदी के पांव में , पहना दो बेड़ियां
या पहाड़ को
बौना कर दो
कहा तो कभी यह भी नहीं।
संघर्षरत महिला ही जानती है कि कैसे विपरीत परिस्थितियों में भी जीवन की नमी बचाए रखनी है।अपना घर छोड़कर दूसरे के घर में बसना आसान तो नहीं। मुश्किल इतना भर है कि जिनता अपनी जड़ों से उखड़ना और फिर दूसरी ज़मीन पर बसना होता है-
तुम नहीं जानते
कैसे उगते हैं कैक्टस
उन्हें रेतीली जमीन में
गाड़ दो
भूले भटके कभी पानी दे दो बस
वे भूलकर अपनी जमीं
पहचान कर लेंगे
मटमैले गमलों से
कड़कती धूप का
सर नीचा करते हुए।
स्पर्श का जीवन में बहुत महत्व है। जब भी आप प्रेम और स्नेह में किसी को स्पर्श करते हैं तो इसका असर बहुत देर तक रहता है। स्पर्श उपचार जैसा लाभ देता है। ऐसे में कोई यदि आत्मा का स्पर्श करे तो सोचो आनंद की अनुभूति की सीमा क्या होगी। परमजीत कौर बेदी ने स्पर्श की अनुभूति कुछ यूं की है-
मैं होती हूं कई बार बहुत अकेली
इतनी अकेली
कि हवा भी , चुपचाप निकल जाती है
मेरी बगल से
बिना मुझे छुए।
मैं उतरती हूं , अपने भीतर इतने भीतर ,
इतने गहरे
कि कर लेती हूं
अपनी ही आत्मा को स्पर्श।
अधिकतर बार यही होता है कि हम हम किसी की योग्यता या क्षमता का अनुमान ही नहीं लगा पाते और और यही योग्यता और क्षमता अंधेरे में घुटकर दम तोड़ देती है। हमें कई बार तब पता चलता है जब समय बीत चुका होता है। इंसान की इन्हीं योग्यताओं, क्षमताओं और जीवन मूल्यों की पहचान समय पर करना बहुत आवश्यक और महत्वपूर्ण है वरना जिस अद्भुत कार्य को अंजाम दिया जा सकता था उससे समाज वंचित रह जाता है। एक बार की बात है। एक आदमी ने भगवान बुद्ध से पूछा, जीवन का मूल्य क्या है?बुद्ध ने उसे एक पत्थर दिया और कहा, जाओ और इस पत्थर का मूल्य पता करके आओ, लेकिन ध्यान रखना इसे बेचना मत। वह आदमी पत्थर को बाजार में एक संतरे वाले के पास लेकर गया और बोला, इसकी कीमत क्या है? संतरे वाला चमकीले पत्थर को देख कर बोला, बारह संतरे ले जा और इसे मुझे दे दे।
आगे वह एक सब्जी वाले के पास गया। सब्जीवाले ने उस चमकीले पत्थर को देखा और कहा, एक बोरी आलू ले जा और इस पत्थर को मेरे पास छोड़ जा।
वह आदमी आगे एक सोना बेचने वाले के पास गया और उसे पत्थर दिखाया। सुनार उस चमकीले पत्थर को देखकर बोला, मुझे पचास लाख में बेच दो। उसने मना कर दिया, तो सुनार बोला, दो करोड़ में दे दो या तुम खुद ही बता दो इसकी कीमत क्या है, जो तुम मांगोगे वह दूंगा।
उस आदमी ने सुनार से कहा, मेरे गुरु ने इसे बेचने से मना किया है।
आगे वह आदमी हीरे बेचने वाले एक जौहरी के पास गया और उसे वह पत्थर दिखाया। जौहरी ने जब उस बेशकीमती रूबी को देखा, तो पहले उसने रूबी के पास एक लाल कपड़ा बिछाया, फिर उस बेशकीमती रूबी की परिक्रमा लगाई, माथा टेका।
फिर जौहरी बोला, कहाँ से लाया है ये बेशकीमती रूबी? सारी कायनात, सारी दुनिया को बेचकर भी इसकी कीमत नहीं लगाई जा सकती, ये तो बेशकीमती है।
वह आदमी हैरान-परेशान होकर सीधे बुद्ध के पास आया। अपनी आपबीती बताई और बोला, अब बताओ भगवान, मानवीय जीवन का मूल्य क्या है?
बुद्ध बोले, अब ऐसा ही मानवीय मूल्य का भी है। तू बेशक हीरा है..!! लेकिन, सामने वाला तेरी कीमत, अपनी औकात, अपनी जानकारी, अपनी हैसियत से लगाएगा। घबराओ मत दुनिया में.., तुझे पहचानने वाले भी मिल जाएंगे।
परमजीत कौर बेदी की कविताओं में सादगी और सरलता तो है ही, साथ में अनगढ़पन भी है, जोकि इस बात का प्रमाण है कि कवयित्री किसी से प्रभावित नहीं है, वो अपनी बात अनुभव के आधार पर कहने की ताकत रखती है। जैसे उंगलियां बुनती हैं अंधेरे में रोशनी की झालरें, वैसे ही कवयित्री धूप बनकर कुछ बन्द किवाड़ों के अंदर झांकना चाहती है-
जिस तरह
जिंदगी के कैनवस में
झांकते हैं
स्मृतियों के प्रतिबिंब
वैसे ही में झांकना चाहती हूं इस सृष्टि के
हर जड़ और चेतन में
और खोजना चाहती हूं
कोई ऐसा रंग
जिसे वक्त की साजिशें भी
न कर सके बदरंग
मैं झांकना चाहती हूं
नन्ही उंगलियों के उन पोरों में जो अंधेरों में बुनती हैं रोशनी की झालरें
और खड्डियों में पैदा होता है जिंदादिली का सरगम
मैं बनकर धूप
झांकना चाहती हूं
उन बंद किवाड़ों के भीतर जहां लिखी नहीं गई
रोशनी की इबारत
और न ही छुआ किसी ने
हवा में पसरा कोलाहल।
कहते हैं कि तुम पैदा तो हुए थे क्रांति के लिए, परन्तु विडंबना देखो कि इश्क में नाकाम होने पर ज़िंदगी भर रोते रहे। परमजीत कौर बेदी की यह कविता पढ़ें और सोचें कि इससे आगे कोई क्या और क्यों लिखे-
चाहा था
समंदर होना
कहीं बने तालाब
कहीं झील
कहीं जोहड़,
कहीं बंधे तटबंध
और कहीं बांध
न रही नदी
न समंदर ही बनी!
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परख पच्चीस को नीचे लिंक पर पढ़िए
शब्दों से परे बर्फ में धूप जैसा
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/11/blog-post_37.html?m=1
चाहा था समुद्र होना!
गणेश गनी
परमजीत कौर बेदी |
बहुत बार ऐसा देखा गया कि महिलाएं अपने सबसे प्रिय शौक भी परिवार के लिए त्याग देती हैं। कई बार तो पूरा जीवन बीत जाने के बाद कहीं अंतिम पड़ाव पर आराम फ़रमाते अपने साथी के कांधे पर सर रख गुनगुना लिया तो वो कहता है, अरे तुम तो गा भी सकती थी! कितनी महिलाएं ऐसी होंगी जो शानदार कविताएँ लिख सकती थीं, मगर जीवन में जिम्मेदारी निभाते निभाते सब कुछ खो गया। फिर भी वो कुछ नहीं कहती, कोई शिकायत नहीं करती। परमजीत कौर बेदी कहती हैं, कहा तो कभी यह भी नहीं-
मैंने कब कहा
आसमान में खिला कोई इंद्रधनुष
मेरे नाम कर दो
या फिर कहीं से ले आओ बसंत का मौसम
मेरे लिए
कब कहा
मेरे पैरों के नीचे हो, कोई आकाशगंगा
या हो, कोई कल्पवृक्ष
मेरे आंगन में
कब कहा
नदी के पांव में , पहना दो बेड़ियां
या पहाड़ को
बौना कर दो
कहा तो कभी यह भी नहीं।
संघर्षरत महिला ही जानती है कि कैसे विपरीत परिस्थितियों में भी जीवन की नमी बचाए रखनी है।अपना घर छोड़कर दूसरे के घर में बसना आसान तो नहीं। मुश्किल इतना भर है कि जिनता अपनी जड़ों से उखड़ना और फिर दूसरी ज़मीन पर बसना होता है-
तुम नहीं जानते
कैसे उगते हैं कैक्टस
उन्हें रेतीली जमीन में
गाड़ दो
भूले भटके कभी पानी दे दो बस
वे भूलकर अपनी जमीं
पहचान कर लेंगे
मटमैले गमलों से
कड़कती धूप का
सर नीचा करते हुए।
स्पर्श का जीवन में बहुत महत्व है। जब भी आप प्रेम और स्नेह में किसी को स्पर्श करते हैं तो इसका असर बहुत देर तक रहता है। स्पर्श उपचार जैसा लाभ देता है। ऐसे में कोई यदि आत्मा का स्पर्श करे तो सोचो आनंद की अनुभूति की सीमा क्या होगी। परमजीत कौर बेदी ने स्पर्श की अनुभूति कुछ यूं की है-
मैं होती हूं कई बार बहुत अकेली
इतनी अकेली
कि हवा भी , चुपचाप निकल जाती है
मेरी बगल से
बिना मुझे छुए।
मैं उतरती हूं , अपने भीतर इतने भीतर ,
इतने गहरे
कि कर लेती हूं
अपनी ही आत्मा को स्पर्श।
अधिकतर बार यही होता है कि हम हम किसी की योग्यता या क्षमता का अनुमान ही नहीं लगा पाते और और यही योग्यता और क्षमता अंधेरे में घुटकर दम तोड़ देती है। हमें कई बार तब पता चलता है जब समय बीत चुका होता है। इंसान की इन्हीं योग्यताओं, क्षमताओं और जीवन मूल्यों की पहचान समय पर करना बहुत आवश्यक और महत्वपूर्ण है वरना जिस अद्भुत कार्य को अंजाम दिया जा सकता था उससे समाज वंचित रह जाता है। एक बार की बात है। एक आदमी ने भगवान बुद्ध से पूछा, जीवन का मूल्य क्या है?बुद्ध ने उसे एक पत्थर दिया और कहा, जाओ और इस पत्थर का मूल्य पता करके आओ, लेकिन ध्यान रखना इसे बेचना मत। वह आदमी पत्थर को बाजार में एक संतरे वाले के पास लेकर गया और बोला, इसकी कीमत क्या है? संतरे वाला चमकीले पत्थर को देख कर बोला, बारह संतरे ले जा और इसे मुझे दे दे।
आगे वह एक सब्जी वाले के पास गया। सब्जीवाले ने उस चमकीले पत्थर को देखा और कहा, एक बोरी आलू ले जा और इस पत्थर को मेरे पास छोड़ जा।
वह आदमी आगे एक सोना बेचने वाले के पास गया और उसे पत्थर दिखाया। सुनार उस चमकीले पत्थर को देखकर बोला, मुझे पचास लाख में बेच दो। उसने मना कर दिया, तो सुनार बोला, दो करोड़ में दे दो या तुम खुद ही बता दो इसकी कीमत क्या है, जो तुम मांगोगे वह दूंगा।
उस आदमी ने सुनार से कहा, मेरे गुरु ने इसे बेचने से मना किया है।
आगे वह आदमी हीरे बेचने वाले एक जौहरी के पास गया और उसे वह पत्थर दिखाया। जौहरी ने जब उस बेशकीमती रूबी को देखा, तो पहले उसने रूबी के पास एक लाल कपड़ा बिछाया, फिर उस बेशकीमती रूबी की परिक्रमा लगाई, माथा टेका।
फिर जौहरी बोला, कहाँ से लाया है ये बेशकीमती रूबी? सारी कायनात, सारी दुनिया को बेचकर भी इसकी कीमत नहीं लगाई जा सकती, ये तो बेशकीमती है।
वह आदमी हैरान-परेशान होकर सीधे बुद्ध के पास आया। अपनी आपबीती बताई और बोला, अब बताओ भगवान, मानवीय जीवन का मूल्य क्या है?
बुद्ध बोले, अब ऐसा ही मानवीय मूल्य का भी है। तू बेशक हीरा है..!! लेकिन, सामने वाला तेरी कीमत, अपनी औकात, अपनी जानकारी, अपनी हैसियत से लगाएगा। घबराओ मत दुनिया में.., तुझे पहचानने वाले भी मिल जाएंगे।
परमजीत कौर बेदी की कविताओं में सादगी और सरलता तो है ही, साथ में अनगढ़पन भी है, जोकि इस बात का प्रमाण है कि कवयित्री किसी से प्रभावित नहीं है, वो अपनी बात अनुभव के आधार पर कहने की ताकत रखती है। जैसे उंगलियां बुनती हैं अंधेरे में रोशनी की झालरें, वैसे ही कवयित्री धूप बनकर कुछ बन्द किवाड़ों के अंदर झांकना चाहती है-
जिस तरह
जिंदगी के कैनवस में
झांकते हैं
स्मृतियों के प्रतिबिंब
वैसे ही में झांकना चाहती हूं इस सृष्टि के
हर जड़ और चेतन में
और खोजना चाहती हूं
कोई ऐसा रंग
जिसे वक्त की साजिशें भी
न कर सके बदरंग
मैं झांकना चाहती हूं
नन्ही उंगलियों के उन पोरों में जो अंधेरों में बुनती हैं रोशनी की झालरें
और खड्डियों में पैदा होता है जिंदादिली का सरगम
मैं बनकर धूप
झांकना चाहती हूं
उन बंद किवाड़ों के भीतर जहां लिखी नहीं गई
रोशनी की इबारत
और न ही छुआ किसी ने
हवा में पसरा कोलाहल।
कहते हैं कि तुम पैदा तो हुए थे क्रांति के लिए, परन्तु विडंबना देखो कि इश्क में नाकाम होने पर ज़िंदगी भर रोते रहे। परमजीत कौर बेदी की यह कविता पढ़ें और सोचें कि इससे आगे कोई क्या और क्यों लिखे-
चाहा था
समंदर होना
कहीं बने तालाब
कहीं झील
कहीं जोहड़,
कहीं बंधे तटबंध
और कहीं बांध
न रही नदी
न समंदर ही बनी!
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परख पच्चीस को नीचे लिंक पर पढ़िए
शब्दों से परे बर्फ में धूप जैसा
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/11/blog-post_37.html?m=1
बहुत सुंदर कविताएं स्त्री की विवशताओं को प्रेषित करती स्री के सामाजिक बंधनों को भली-भांति प्रदर्शित करने वाली कविताएं मगर स्त्री के साहसी होने के गुणों को भूला
जवाब देंहटाएंदिया गया है.