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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

11 नवंबर, 2018

निर्बंध: ग्यारह
हम दोनों

यादवेन्द्र



सुबह की सैर में वह चालीस पैंतालीस मिनट मेरे पीछे पीछे चलता रहा,यदि एक दफ़े की खाँसी छोड़ दें तो पूरी तरह से गुमसुम - लगभग समान दूरी बनाये हुए ... ऊबड़ खाबड़ पथरीली सड़क पर चलते हुए कदमों की आहट से मोटा मोटा अनुमान लगा सकता हूँ कि हमारे बीच ज्यादा नहीं कोई तीन से चार मीटर का फ़ासला रहा होगा। दाँयी तरफ़ तो नहर थी,बीच बीच में गाँवों को जाने वाली पगडंडियाँ बाँयी तरफ़ फूटीं भी तो मेरी तरह वह भी उनमें से किसी पर नहीं गया ... मेरे पीछे पीछे सीधी राह चलता रहा। सुबह का इतना उजाला था कि वह मेरी सूरत देख सकता था - सामने से नहीं पीछे से ही सही - और कोई वजह नहीं कि न देख रहा हो पर मैं उसको आमने सामने से तभी देख पाता जब सिर पीछे घुमा कर देखता। सच यह है कि मैंने ऐसा किया नहीं - पक्के तौर पर कह नहीं सकता कि पीछे मुड़ कर न देखना मेरा सहज बर्ताव था या सायास था पर इतना जरूर स्वीकार करूँगा कि लगभग पूरे रास्ते मेरे मन में लगातार गहरी उधेड़ बुन चलती रही कि पीछे देखूँ ... या रहने दूँ ,न देखूँ। मन में तरह तरह के ख़याल आते - कौन है यह ?क्यों सम गति बनाये हुए मेरा इस तरह पीछा कर रहा है? ऊँचे पेड़ों से घिरे सुनसान रास्ते में एकाध बार किसी के छोड़े हुए कपड़े दिखे ,अचानक सामने 











हड्डी पड़ी दिख गयी तो जाहिर है डर भी लगा।मन में अज्ञात आशंका ने भी सिर उठाया...खतरे के परिंदों ने भी एकाध बार पंख फड़फड़ाये।उम्र क्या होगी ? उसकी आँखों में आँखें डाले बगैर अपनी उम्र देखते हुए मुझसे कदम ताल मिला कर एक गति से चलते हुए उस इंसान के मैंने पचास साठ के बीच होने का अनुमान लगाया - कोई आधार नहीं था कि जाँचूँ सही था मेरा कयास या गलत। फिर लगा साठ के आसपास का ही होगा,मेरा समकालीन...या जुड़वाँ।



















यादवेन्द्र



वह जा कहाँ रहा है...क्या दिहाड़ी कमाने शहर जा रहा है? किसी से मिलने या दवा दारू लेने गाँव से आ रहा है?...मैं तो अपनी कॉलोनी से रेलवे स्टेशन आया,अपनी स्कूटी खड़ी की और अब लम्बी सैर कर के घर लौट रहा था - मैंने फिर मान लिया कि वह कहीं जा रहा था पर मेरी तरह घर तो नहीं ही लौट रहा था,बल्कि अपने घर से दूर जा रहा था।हम दोनों चालीस पैंतालीस मिनट से एकदूसरे के साथ चल रहे थे पर मकसद निहायत अलग थे।यह निष्कर्ष भी बगैर किसी आधार के था पर मेरा निकाला हुआ था सो सही ही होगा...मैं उसकी तुलना में भद्र दिख रहा था, विवेकशील भी होऊँगा ही।

मेरी तरह क्या वह भी यही सब सोचता आ रहा था - कौन है यह?उसकी जिज्ञासा में मेरी तरह यह भी सर्वोपरि होगा - यह जो आगे आगे जा रहा है,कैसा दिखता है?शायद यह तो समझ गया हो कि आसपास के गाँव का मानुष नहीं है,शहर की चिल्ल पों और प्रदूषण छोड़ इधर सैर करने आया कोई बाबू है।

पर यह भी मुमकिन है वह देख कर भी मुझे न देख रहा हो या मुझपर गौर करे इसके काबिल मुझे न समझता हो - जिस मकसद से वह घर से निकला था वह उसके मन पर हावी हो...मेरा उसको न देखना सिर्फ़ देखने के अर्थ में न हो और उसका मुझे न देखने से एकदम अलग भी हो सकता है।मैं भले कह रहा हूँ कि वह मेरे पीछे पीछे आ रहा था(पीछा करना मैंने नहीं कहा) पर असलियत में मेरा मन उसका पीछा कर था वह मेरा उसी तरह पीछा नहीं भी कर सकता है।दशकों तक कूट कूट कर बैठा दिया गया आभिजात्य हमारे मनों से आसानी से निकलता नहीं और चुपचाप हमारे सोचने देखने बोलने को कंडीशन करता रहता है।हम अपने आपको इतना महत्वपूर्ण और दूसरे को मामूली जो मान लेते हैं।

लौटते हुए मैं रेलवे लाइन लाँघ कर बाँयी तरफ़ रेलवे स्टेशन की ओर मुड़ गया...वह वहाँ भी मेरे पीछे पीछे ही आया जबकि उल्टी दिशा में मुड़ कर ढंढेरा की ओर भी जा सकता था।एकबार मन ने फिर घण्टी बजायी -  बिछड़ने से पहले पीछे पलटूँ तो उसकी सूरत देख सकता हूँ..शायद इतनी देर से मेरे पीछे पीछे चलते रहने का मकसद उसकी आँखों में पढ़ सकता हूँ ....पर जाने क्यूँ फिर मन ने अगले पल ही कुंडली मार ली।

यादवेन्द्र

उसी समय तीन नम्बर प्लेटफॉर्म पर धड़धड़ाती हुई गाड़ी आ गयी - सुबह सुबह अप और डाउन दोनों ओर से एक के पीछे एक कई गाड़ियों की लाइन लगी रहती है।अबतक ठंड और वीराने से ठिठुरता हुआ प्लेटफ़ॉर्म एकदम से चौकन्ना और गुलज़ार हो गया - मुसाफ़िरों को छोड़ दें तो सामूहिक तौर पर सबसे मुखर आवाज़ चाय वालों की थी।गाड़ी के रुकते ही किसी के ढेला मारने पर छत्ते से जैसे मधुमक्खियाँ भदभदा कर निकलती हैं वैसे मुसाफ़िर प्लेटफॉर्म पर निकल कर यहाँ वहाँ पसरने लगे...उसकी तन्द्रा एक झटके में टूट गयी।
लंबे उहापोह के बाद मैंने अब गर्दन पीछे मोड़ी पर तबतक देर हो चुकी थी...उसको पहचानना मेरे लिए नामुमकिन था,इतने सारे चलते फिरते लोगों में से चालीस पैंतालीस मिनट का पल पल का मेरा सहयात्री कहें हमसफ़र कहें या साथी (?) कहें ,इनमें से कौन था कैसे पहचान पाऊँगा?जब तक वह बिल्कुल मेरे साथ इकलौता था तब तक जाने किस ठसक में मेरी गर्दन मुड़ी नहीं और अब जब पीछे मुड़ी तो वह कई हिस्सों में बंट कर बेचेहरा हो चुका था.... मुझे एकबारगी यह भी लगा वह अकेला नहीं ये सभी इंसान मेरे पीछे पीछे मेरी शक्ल देखने को उतावले चल रहे थे...और मैं मुँह छुपाता बेतहाशा भागा जा रहा था,भले नाम इसको कुछ दे दूँ.... अफ़सोस....
मुझे आज तक समझ नहीं आया अपनी इस अकड़ या मुँह छुपायी का रहस्य - जानता हूँ कि बहुतेरे मामलों में जीवन सिर्फ़ और सिर्फ़ एकलौता मौका देता है,दुबारा अवसर नहीं देता।
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निर्बंध दस नीचे लिंक पर पढ़िए

मेरे खुरदुरे चेहरे पर चिपकी चिंदियां


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