आलेख
अमृता होना अगर किसी स्त्री के बस में होता
रश्मि मालवीय
अमृता जी अब नहीं है देखा जाए तो कहीं नहीं हैं, अमृता होना या उनका नहीं होना आसान है क्या।
पर इस फेरे में जो आता है वह जाता भी है।
कुछ लोग होते हैं जो रहकर भी नही रहते और कुछ होते जो जाकर भी नहीं जाते । आप जाकर भी नहीं जा पाई।
अमृता होना अगर किसी स्त्री के बस में होता तो शायद हर वो स्त्री अमृता होती जो छोड़ना ,और बिना झुके ,बिना लुढ़के किसी के पैरों में ,जानती है निभाना। सिर्फ और सिर्फ प्यार करना।प्यार करना किसी इबादत की तरह ।
जिस समय आपने घर , जिसके दायरे इतने सीमित होते हैं कि औरत पैर भी लंबे कर ले तो काना फुसी होती है उस समय आपने हिमालय से भी ऊंची दहलीज लांघी थी वो भी तब जब आपके हाथ पैर सब बेड़ियों से जकड़े हुए थे ।शादी की बेड़ियां , जो हर लड़की के गले बचपन में ही पड़ जाती थी ,जो उस समय गलती से पैदा हुई ।
आपने किस मन से ,किस संयम से ,और किस हिम्मत के औजार से उसे तोड़ा होगा सोच कर ही एक लौ जलती है अंदर कहीं।
जब ये अहसास हो जाये कि बगैर उसके जीना नही तब अमृता को अमृता होना पड़ता है।जिस बात का आज विकृतिकरण हो रहा उसे आपने उस समय अपनाया जब किसी जीव के सपने में भी बिना शादी के साथ रहना नही आया होगा। आपने सपना भी देखा , उसे पूरा भी किया और निभाया भी पूरी मर्यादा ,पूरी शिद्दत से।
कहते हैं प्यार ताकत देता है।
आपने जो लोहा खाया ,जो लोहा पिया उसी लौहतत्व ने उस कालेपन को नई रोशनी से भर दिया।
ना जाने कितनी आत्माओं को ये सम्बल दिया की प्रेम करना बुरा नही ,बशर्ते उसमें कोई दावा ना हो , बशर्ते वो खालिस हो, बशर्ते उसका कोई नाम ना हो।
घर को छोड़ना उसके लिये जिसके लिये शायद तुम उतने जरूरी ना हो ,ना मिलने पर कोई तमाशा नही ,गिड़गिड़ाना नहीं पूरे स्वाभिमान से अलग हट जाना यकीनन आपकी अना ही रही होगी। टूटना इतना की नर्वस ब्रेक डाउन भी हो जाए तब भी भीख में भी प्यार ना मांगना।
यही स्वाभिमान ,यही अना हमें आईने के सामने खड़ा रख पाती है। चाहे पैरों में खड़े रह सकने लायक ताकत ना भी बची हो।
लेकिन टूट कर गिरना भी तो अकेले में,उसके सामने तो हरगिज़ नहीं। जिसे ना समझना होगा वो नहीं ही समझेगा उसे बोल कर क्या बताना।
आपकी वही अना आज भी कई दिलों में धधक रही है जो प्रेम को सोने से खरा बना देती है।
प्रेम का खरापन बहुत खारा भी होता है जिसे दिन रात गटकना पड़ता है। जीभ ही नहीं अंदर की आतें तक गल जाती है उस नमक के खारेपन से।
नमक खाने में डालकर खाना और बात है ।
आप सबकी अमृता बन गई जिसने भी जाना समझा ,इस दुनिया के कड़वे घूँट पिये ,वो मीरा की तरह गली गली गाने वाली ,कृष्ण की चाह में दर दर भटकती मीरा हो गई ।
सभी तो नहीं बन पाई अमृता ...
वो अमृता कैसे बनती कैसे हो पाती वो किसी की अमृता उन्हें कहाँ मिला कोई इमरोज ।
अमृता आप तो बहुत सी आत्माओं में आ गई जन्म भी लिया कई कई बार , लेकिन इमरोज तो दोबारा नहीं आ पाए। कैसे हो जाये वो बिना छत के क्योंकि आपने ही तो कहा था ना की अगर साहिर आसमान हैं आपके लिये तो छत इमरोज हैं फिर बिना किसी छत के खुले आसमान में तो रहा नहीं जा सकता। ये वाजिब भी नहीं।
अगर साहिर ने अमृता की लेखनी को ताकत दी तो इमरोज उसका कागज बन गए ,कोरा कागज।
बिना कागज के लेखनी अधूरी है।
प्रेम और स्वतंत्रता ,स्त्रियों की किस्मत में होने ही चाहिये ।
तभी स्वतंत्रता दिवस मनाया जा सकता है। तभी ना कोई एक शख्स बनेगा स्वतंत्रता दिवस ।जैसे इमरोज थे अमृता के।
इमरोज जानते थे की ये सोते जागते साहिर का नाम गुनगुनाती हो आप और जब भी लिखना चाहे तो हाथ खाली ना भी हों तो क्या पीठ तो है ।
एक सवाल के जवाब में कहा भी था उन्होंने आपसे स्कूटर चलाते वक्त की बुरा क्यों लगेगा जो मेरी पीठ पर साहिर लिखा तुमने ,साहिर भी तुम्हारे और पीठ भी तुम्हारी।
तो ये है महीन कपास की मोहब्बत , मलमल के कपड़े सी झक्क सफेद ।मलाई सी पाक और स्वादिष्ट।
जिसने की होगी इस तरह वही जान सकता है वरना इमरोज से बड़ा पागल कोई नहीं इस दुनिया में जो किसी और के प्रेम में पगी एक जहीन ,खुद्दार स्त्री का स्वतंत्रता दिवस बन जाए।
जो रात बेरात अपनी लिखावट की दुनिया में रहे बेसुध और एक निस्पृह आदमी चाय का कप रख जाए चुपचाप। उस चाय के कप से बढ़कर और इबादत क्या होगी जिसमें चीनी भी है दूध भी बस चाय की पत्ती के साथ ख्याल की पत्ती भी।
कैसे कैसे लोग होते हैं ना दुनियाँ में कोई तो अपने पेड़ का एक फूल तक ना दे किसी को और दूसरी तरफ कोई जो अपनी पूरी जिंदगी दे दे।
किस मिट्टी से पैदा होते है ना जाने कौन सी खाद से इनका पोषण होता है।क्या ये उस हाड़मांस से बने नहीं होते जिनसे वो जो नाकाम होनेपर किसी जीतेजागते इंसान को राख का ढेर बना देने में भी कोताही नहीं बरतते। और दूसरी तरफ चंद लोग जो इसे उपवन बना देते है महकता ,खिलखिलाता ,चिड़िया की चहचहाती आवाज़ों का उपवन।
अमृता और इमरोज का उपवन जिसमें हर पौधे पर साहिर नाम का फूल खिलता है।
अमृता आप अमृता हुई तो कई अमृताओं के पंखों में जान आई। कई अमृताओं को लगा कि प्रेम केवल पाने का और पाकर खोने का नाम नहीं है प्रेम केवल जीने का नाम है ,प्रेम में केवल और केवल होने का ही अर्थ है ना होना तो सभी तरफ है।
प्रेम कोई मंजिल नहीं है एक राह है चलते जाने के लिये।
किस लड़की के ख्वाबों में कोई एक साहिर नहीं आता ।लेकिन हर लड़की अमृता हो नही पाई। कुछ आधी अधूरी हुई लेकिन हुई ।
उनके आधे होने में भी आपकी पूरी जीत है।
आप जानती हैं आपकी रसीदी टिकट के भरोसे ना जाने कितनी चिट्ठियाँ भेजी गई बिना पते के ।
आपकी सोच ,आपकी बनाई एक अलग राह पर वो चलती हैं और जीती है जीवन की वो भूली बिसरी कहानियाँ जो दर्ज है सिर्फ डायरियों में।
हर अमृता सिर्फ आपको कहती है ....तुम्हारी अमृता!!
और रोज सोते वक्त खुद से कहती है 'मैं तुम्हें फिर मिलूंगी'
००
रश्मि मालवीय का एक लेख और पढ़िए
दिल के दर्जी कहां मिलते हैं !
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/09/blog-post_29.html?m=1


रश्मि मालवीय
415/A, तुलसीनगर,
इंदौर
452003
7869546149
समाज शास्त्र में परास्नातक
लाइब्रेरी साइंस में स्नातक
शिक्षा में स्नातक
पिछले 13 वर्षों से पुस्कालयध्यक्ष के पद पर कार्यरत
हिंदी साहित्य से लगाव
पत्रिकाओं एवं वेब पत्रिकाओं में कविता प्रकाशित
अमृता होना अगर किसी स्त्री के बस में होता
रश्मि मालवीय
रश्मि मालवीय |
अमृता जी अब नहीं है देखा जाए तो कहीं नहीं हैं, अमृता होना या उनका नहीं होना आसान है क्या।
पर इस फेरे में जो आता है वह जाता भी है।
कुछ लोग होते हैं जो रहकर भी नही रहते और कुछ होते जो जाकर भी नहीं जाते । आप जाकर भी नहीं जा पाई।
अमृता होना अगर किसी स्त्री के बस में होता तो शायद हर वो स्त्री अमृता होती जो छोड़ना ,और बिना झुके ,बिना लुढ़के किसी के पैरों में ,जानती है निभाना। सिर्फ और सिर्फ प्यार करना।प्यार करना किसी इबादत की तरह ।
अमृता प्रीतम |
जिस समय आपने घर , जिसके दायरे इतने सीमित होते हैं कि औरत पैर भी लंबे कर ले तो काना फुसी होती है उस समय आपने हिमालय से भी ऊंची दहलीज लांघी थी वो भी तब जब आपके हाथ पैर सब बेड़ियों से जकड़े हुए थे ।शादी की बेड़ियां , जो हर लड़की के गले बचपन में ही पड़ जाती थी ,जो उस समय गलती से पैदा हुई ।
आपने किस मन से ,किस संयम से ,और किस हिम्मत के औजार से उसे तोड़ा होगा सोच कर ही एक लौ जलती है अंदर कहीं।
जब ये अहसास हो जाये कि बगैर उसके जीना नही तब अमृता को अमृता होना पड़ता है।जिस बात का आज विकृतिकरण हो रहा उसे आपने उस समय अपनाया जब किसी जीव के सपने में भी बिना शादी के साथ रहना नही आया होगा। आपने सपना भी देखा , उसे पूरा भी किया और निभाया भी पूरी मर्यादा ,पूरी शिद्दत से।
कहते हैं प्यार ताकत देता है।
आपने जो लोहा खाया ,जो लोहा पिया उसी लौहतत्व ने उस कालेपन को नई रोशनी से भर दिया।
ना जाने कितनी आत्माओं को ये सम्बल दिया की प्रेम करना बुरा नही ,बशर्ते उसमें कोई दावा ना हो , बशर्ते वो खालिस हो, बशर्ते उसका कोई नाम ना हो।
साहिर ,अमृता |
घर को छोड़ना उसके लिये जिसके लिये शायद तुम उतने जरूरी ना हो ,ना मिलने पर कोई तमाशा नही ,गिड़गिड़ाना नहीं पूरे स्वाभिमान से अलग हट जाना यकीनन आपकी अना ही रही होगी। टूटना इतना की नर्वस ब्रेक डाउन भी हो जाए तब भी भीख में भी प्यार ना मांगना।
यही स्वाभिमान ,यही अना हमें आईने के सामने खड़ा रख पाती है। चाहे पैरों में खड़े रह सकने लायक ताकत ना भी बची हो।
लेकिन टूट कर गिरना भी तो अकेले में,उसके सामने तो हरगिज़ नहीं। जिसे ना समझना होगा वो नहीं ही समझेगा उसे बोल कर क्या बताना।
आपकी वही अना आज भी कई दिलों में धधक रही है जो प्रेम को सोने से खरा बना देती है।
प्रेम का खरापन बहुत खारा भी होता है जिसे दिन रात गटकना पड़ता है। जीभ ही नहीं अंदर की आतें तक गल जाती है उस नमक के खारेपन से।
नमक खाने में डालकर खाना और बात है ।
आप सबकी अमृता बन गई जिसने भी जाना समझा ,इस दुनिया के कड़वे घूँट पिये ,वो मीरा की तरह गली गली गाने वाली ,कृष्ण की चाह में दर दर भटकती मीरा हो गई ।
सभी तो नहीं बन पाई अमृता ...
वो अमृता कैसे बनती कैसे हो पाती वो किसी की अमृता उन्हें कहाँ मिला कोई इमरोज ।
अमृता आप तो बहुत सी आत्माओं में आ गई जन्म भी लिया कई कई बार , लेकिन इमरोज तो दोबारा नहीं आ पाए। कैसे हो जाये वो बिना छत के क्योंकि आपने ही तो कहा था ना की अगर साहिर आसमान हैं आपके लिये तो छत इमरोज हैं फिर बिना किसी छत के खुले आसमान में तो रहा नहीं जा सकता। ये वाजिब भी नहीं।
अगर साहिर ने अमृता की लेखनी को ताकत दी तो इमरोज उसका कागज बन गए ,कोरा कागज।
बिना कागज के लेखनी अधूरी है।
प्रेम और स्वतंत्रता ,स्त्रियों की किस्मत में होने ही चाहिये ।
तभी स्वतंत्रता दिवस मनाया जा सकता है। तभी ना कोई एक शख्स बनेगा स्वतंत्रता दिवस ।जैसे इमरोज थे अमृता के।
इमरोज जानते थे की ये सोते जागते साहिर का नाम गुनगुनाती हो आप और जब भी लिखना चाहे तो हाथ खाली ना भी हों तो क्या पीठ तो है ।
एक सवाल के जवाब में कहा भी था उन्होंने आपसे स्कूटर चलाते वक्त की बुरा क्यों लगेगा जो मेरी पीठ पर साहिर लिखा तुमने ,साहिर भी तुम्हारे और पीठ भी तुम्हारी।
तो ये है महीन कपास की मोहब्बत , मलमल के कपड़े सी झक्क सफेद ।मलाई सी पाक और स्वादिष्ट।
जिसने की होगी इस तरह वही जान सकता है वरना इमरोज से बड़ा पागल कोई नहीं इस दुनिया में जो किसी और के प्रेम में पगी एक जहीन ,खुद्दार स्त्री का स्वतंत्रता दिवस बन जाए।
जो रात बेरात अपनी लिखावट की दुनिया में रहे बेसुध और एक निस्पृह आदमी चाय का कप रख जाए चुपचाप। उस चाय के कप से बढ़कर और इबादत क्या होगी जिसमें चीनी भी है दूध भी बस चाय की पत्ती के साथ ख्याल की पत्ती भी।
इमरोज़ |
कैसे कैसे लोग होते हैं ना दुनियाँ में कोई तो अपने पेड़ का एक फूल तक ना दे किसी को और दूसरी तरफ कोई जो अपनी पूरी जिंदगी दे दे।
किस मिट्टी से पैदा होते है ना जाने कौन सी खाद से इनका पोषण होता है।क्या ये उस हाड़मांस से बने नहीं होते जिनसे वो जो नाकाम होनेपर किसी जीतेजागते इंसान को राख का ढेर बना देने में भी कोताही नहीं बरतते। और दूसरी तरफ चंद लोग जो इसे उपवन बना देते है महकता ,खिलखिलाता ,चिड़िया की चहचहाती आवाज़ों का उपवन।
अमृता और इमरोज का उपवन जिसमें हर पौधे पर साहिर नाम का फूल खिलता है।
अमृता आप अमृता हुई तो कई अमृताओं के पंखों में जान आई। कई अमृताओं को लगा कि प्रेम केवल पाने का और पाकर खोने का नाम नहीं है प्रेम केवल जीने का नाम है ,प्रेम में केवल और केवल होने का ही अर्थ है ना होना तो सभी तरफ है।
प्रेम कोई मंजिल नहीं है एक राह है चलते जाने के लिये।
किस लड़की के ख्वाबों में कोई एक साहिर नहीं आता ।लेकिन हर लड़की अमृता हो नही पाई। कुछ आधी अधूरी हुई लेकिन हुई ।
उनके आधे होने में भी आपकी पूरी जीत है।
आप जानती हैं आपकी रसीदी टिकट के भरोसे ना जाने कितनी चिट्ठियाँ भेजी गई बिना पते के ।
आपकी सोच ,आपकी बनाई एक अलग राह पर वो चलती हैं और जीती है जीवन की वो भूली बिसरी कहानियाँ जो दर्ज है सिर्फ डायरियों में।
हर अमृता सिर्फ आपको कहती है ....तुम्हारी अमृता!!
और रोज सोते वक्त खुद से कहती है 'मैं तुम्हें फिर मिलूंगी'
००
रश्मि मालवीय का एक लेख और पढ़िए
दिल के दर्जी कहां मिलते हैं !
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/09/blog-post_29.html?m=1


रश्मि मालवीय
415/A, तुलसीनगर,
इंदौर
452003
7869546149
समाज शास्त्र में परास्नातक
लाइब्रेरी साइंस में स्नातक
शिक्षा में स्नातक
पिछले 13 वर्षों से पुस्कालयध्यक्ष के पद पर कार्यरत
हिंदी साहित्य से लगाव
पत्रिकाओं एवं वेब पत्रिकाओं में कविता प्रकाशित
बहुत अच्छा लिखा। प्रेम को अमृता और इमरोज़ के नजरिए से ही समझा जा सकता है। न अमृता के और न अकेले इमरोज़ के नजरिए से। अमृता और इमरोज़ मिलकर प्रेम रूपी सिक्के को मुकम्मल बनाते हैं।
जवाब देंहटाएंबेजोड़ ! आपने कमाल कर दिया है।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन लाजवाब
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
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