संदीप तिवारी की कविताएँ
एक
जो इलाहाबाद छोड़के गया है
वह प्रयागराज नहीं लौटेगा
लौटेगा तो
इलाहाबाद लौटेगा
प्रयागराज एक ट्रेन का नाम था
अब प्रयागराज एक जंक्शन का नाम हो जाएगा
अब टिकट पर नहीं लिखा मिलेगा इलाहाबाद
अब टिकट में उतनी महक भी नहीं बची रहेगी
प्लेटफार्म पर गड़े पीले बोर्ड
जिसको देखने भर से आ जाती थी जान में जान
उस पर लिखा एक प्यारा सा शब्द
अब मिटा दिया जाएगा
कहीं पर कुछ भी लिख दिया जाए
कुछ भी तोड़ फोड़ दिया जाए
पर दुःखी मत होना
सुबेरे जब ट्रेन पहुँचेगी प्रयागराज जंक्शन
बगल बैठा मुसाफ़िर उठाएगा
और बढ़ जाएगा इतना कहते हुए
जग जा भाई आ गया इलाहाबाद
दो
जो अभी लिखा जाना उधार है
पहले जब होता था आमने-सामने
पिता जी ज्यादा बात नहीं करते थे
कहीं जाते समय बस इतना कहते
एक जेब में मत रखना सारे रुपये
अलग अलग रखना
ऐसा इसलिए कि अगर भीड़ भाड़ में कट जाए जेब
तो लौट सकूँ घर
किसी एक जेब के सहारे
पिता जी अब तो
महीने में एकाध बार ही करते हैं बात
वो भी मुश्किल से मिनट दो मिनट
सब्जी क्या बना रहे हो
उस परीक्षा का क्या हुआ
जो फलाने शहर में दे कर आये थे
बस ऐसे ही कोई निहायत ज़रूरी सवाल
माँ से तो अमूमन रोज ही
होती है बात
ढेर सारी बात
गाँव की, पड़ोस की, रिश्तेदारों की
पर पता नहीं क्यों
ज़रूरी जान पड़ता है लिखना
माँ पर नहीं
पिता पर
एक सुंदर सी कविता
उन्हीं की तरह चुप, शांत और गंभीर
तीन
जय माँ भारती
जय माँ भारती
पूजा की थाली है
थोड़ी सी खाली है
कर रहे हैं आरती
जय माँ भारती
हम सब आलू हैं
योगी जी चालू हैं
मोदी कचालू हैं
भोले की कसम खाऊँ
या कहूँ पारबती
जय माँ भारती
पढ़े लिखे उल्लू हैं
बढ़िया तो गुल्लू हैं
गाय दौड़ाये हैं
दिन भर चराये हैं
ठेला लगाये हैं
तेल खौलाये हैं
छाने पकौड़े हैं
भित्तर से चौड़े हैं
बाकी सब स्वार्थी
जय माँ भारती
अइंठें औ अकड़े हैं
छत्तिस ठु नखड़े हैं
जाने की बारी है
गदहा सवारी है
अइसन सुथन्ना को
जनता कचारती
जय माँ भारती
चार
नक्सल हो
फक्स्ल हो
अर्बन
देहाती हो
क्या कहा जाय
किसके तुम पोता हो
किसके तुम नाती हो
किसके संघाती हो
घोड़ा हो हाथी हो
क्या किया जाय
चोरन के साथी हो
सत्ता की पाती हो
छतरी बरसाती हो
बहुत करामाती हो
क्या कहा जाय
थोड़े भी मानुष हो
तो उसको बचाओ न
धुन वही गाओ न
गीत लहराओ न
बहुतै अँधेरा है
समकालीन कविता में
बाती बनाओ न
ढेबरी जलाओ न
पांच
कितना कठिन है
इस मिट्टी में नधे हांड माँस को इंसान कहना
फसलों को फसल कहना
और पानी को पानी
कितना कठिन है
विरोधाभासो से भरी इस धरती पर
खुद को बचाना
रिरियाना घंटों भर
मामूली सी कटौती के लिए
कितना कठिन है पुरखों से जुड़ना
और सूख जाना
कितना कठिन है
अपना मेहनताना भी न पाना
कितना कठिन है
यहाँ तिल तिल के मरना
दवा दारु की चाह
बच्चों को पढ़ाना
सुबह शाम खाना
कितना कठिन है यहाँ !
दोपहर दोपहर से अलग
सुबह कितनी सुबह है
शाम चिंताओं की गठरी
कितना कठिन है यहाँ की रात
कहना नहीं चाहता!
पर यह मिट्टी कब्रगाह होती जा रही है
छह
आज की रात हर शहर में
चाँद इतना ही गोल निकला होगा
आज की रात
तुम होगी बहुत परेशान
आज की रात
मुझमें भी दिखा होगा उतना ही दाग
आज की रात
मैं छिप नहीं सकता
सात
जो पुराना है
वो इतनी आसानी से नहीं साफ़ होता
दो रुपये के सर्फ़ एक्सेल से
नहीं धुलेगा चाँद का दाग़
एक तरफ से देखकर
इतने निर्णय सुनाने वालों
अभी तुमने देखा नहीं
दूसरे तरफ़ से चाँद
आठ
मनुष्यों के ही झोले में नहीं थीं
किसिम-किसिम की विधाएं
तरह-तरह की भाषाएं
कई-कई लिपियाँ
और प्रेम गाथाएं
था तो सब कुछ वहाँ भी
जहाँ नहीं थे हम
नौ
क्या था तुम्हारे शहर में
जिस पर तुम करते नाज़
ऐंठते अपनी मूंछें
गर्व से चिल्लाते भी तो
किस बात पर??
सिवाय एक प्यारी नदी के
जो तुम्हारे शहर के किनारे से निकल जाती है
क्या था तुम्हारे पास ?
दस
दो पैसे की तंबाकू से
तुम क्या जानो भले मानुषों
तंबाकू क्या चीज़ है
पिच्च पिच्च हम थुके जा रहे
ये वर्षों की खीझ है
तंबाकू पर खेत टिके हैं
फ़सल खड़ी है तंबाकू पर
बस में पीछे सोने वालों
बस दौड़ी है तंबाकू पर
दो पैसे की तंबाकू से
खिड़की रोशनदान बने हैं
लाखों लाख मकान बने हैं
खेतिहर और किसान बने हैं
कितने तो इंसान बने हैं
दो पैसे की तंबाकू से
दो पैसे की तंबाकू पर
राष्ट्र टिका है देश टिका है
दो पैसे की तंबाकू पर
कइयों का परदेश टिका है
हमको ज्ञान सिखाने वालों
हमें पता है
तंबाकू क्या चीज़ है
पिच्च पिच्च जो थुके जा रहे
ये वर्षों की खीझ है
--------------------
सभी चित्र निज़ार अली बद्र
संपर्क-
संदीप तिवारी, शोध छात्र, हिंदी विभाग
डी. एस. बी. परिसर कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल
263001
मो.न. 8840166161
संदीप तिवारी |
एक
जो इलाहाबाद छोड़के गया है
वह प्रयागराज नहीं लौटेगा
लौटेगा तो
इलाहाबाद लौटेगा
प्रयागराज एक ट्रेन का नाम था
अब प्रयागराज एक जंक्शन का नाम हो जाएगा
अब टिकट पर नहीं लिखा मिलेगा इलाहाबाद
अब टिकट में उतनी महक भी नहीं बची रहेगी
प्लेटफार्म पर गड़े पीले बोर्ड
जिसको देखने भर से आ जाती थी जान में जान
उस पर लिखा एक प्यारा सा शब्द
अब मिटा दिया जाएगा
कहीं पर कुछ भी लिख दिया जाए
कुछ भी तोड़ फोड़ दिया जाए
पर दुःखी मत होना
सुबेरे जब ट्रेन पहुँचेगी प्रयागराज जंक्शन
बगल बैठा मुसाफ़िर उठाएगा
और बढ़ जाएगा इतना कहते हुए
जग जा भाई आ गया इलाहाबाद
दो
जो अभी लिखा जाना उधार है
पहले जब होता था आमने-सामने
पिता जी ज्यादा बात नहीं करते थे
कहीं जाते समय बस इतना कहते
एक जेब में मत रखना सारे रुपये
अलग अलग रखना
ऐसा इसलिए कि अगर भीड़ भाड़ में कट जाए जेब
तो लौट सकूँ घर
किसी एक जेब के सहारे
पिता जी अब तो
महीने में एकाध बार ही करते हैं बात
वो भी मुश्किल से मिनट दो मिनट
सब्जी क्या बना रहे हो
उस परीक्षा का क्या हुआ
जो फलाने शहर में दे कर आये थे
बस ऐसे ही कोई निहायत ज़रूरी सवाल
माँ से तो अमूमन रोज ही
होती है बात
ढेर सारी बात
गाँव की, पड़ोस की, रिश्तेदारों की
पर पता नहीं क्यों
ज़रूरी जान पड़ता है लिखना
माँ पर नहीं
पिता पर
एक सुंदर सी कविता
उन्हीं की तरह चुप, शांत और गंभीर
तीन
जय माँ भारती
जय माँ भारती
पूजा की थाली है
थोड़ी सी खाली है
कर रहे हैं आरती
जय माँ भारती
हम सब आलू हैं
योगी जी चालू हैं
मोदी कचालू हैं
भोले की कसम खाऊँ
या कहूँ पारबती
जय माँ भारती
पढ़े लिखे उल्लू हैं
बढ़िया तो गुल्लू हैं
गाय दौड़ाये हैं
दिन भर चराये हैं
ठेला लगाये हैं
तेल खौलाये हैं
छाने पकौड़े हैं
भित्तर से चौड़े हैं
बाकी सब स्वार्थी
जय माँ भारती
अइंठें औ अकड़े हैं
छत्तिस ठु नखड़े हैं
जाने की बारी है
गदहा सवारी है
अइसन सुथन्ना को
जनता कचारती
जय माँ भारती
चार
नक्सल हो
फक्स्ल हो
अर्बन
देहाती हो
क्या कहा जाय
किसके तुम पोता हो
किसके तुम नाती हो
किसके संघाती हो
घोड़ा हो हाथी हो
क्या किया जाय
चोरन के साथी हो
सत्ता की पाती हो
छतरी बरसाती हो
बहुत करामाती हो
क्या कहा जाय
थोड़े भी मानुष हो
तो उसको बचाओ न
धुन वही गाओ न
गीत लहराओ न
बहुतै अँधेरा है
समकालीन कविता में
बाती बनाओ न
ढेबरी जलाओ न
पांच
कितना कठिन है
इस मिट्टी में नधे हांड माँस को इंसान कहना
फसलों को फसल कहना
और पानी को पानी
कितना कठिन है
विरोधाभासो से भरी इस धरती पर
खुद को बचाना
रिरियाना घंटों भर
मामूली सी कटौती के लिए
कितना कठिन है पुरखों से जुड़ना
और सूख जाना
कितना कठिन है
अपना मेहनताना भी न पाना
कितना कठिन है
यहाँ तिल तिल के मरना
दवा दारु की चाह
बच्चों को पढ़ाना
सुबह शाम खाना
कितना कठिन है यहाँ !
दोपहर दोपहर से अलग
सुबह कितनी सुबह है
शाम चिंताओं की गठरी
कितना कठिन है यहाँ की रात
कहना नहीं चाहता!
पर यह मिट्टी कब्रगाह होती जा रही है
छह
आज की रात हर शहर में
चाँद इतना ही गोल निकला होगा
आज की रात
तुम होगी बहुत परेशान
आज की रात
मुझमें भी दिखा होगा उतना ही दाग
आज की रात
मैं छिप नहीं सकता
सात
जो पुराना है
वो इतनी आसानी से नहीं साफ़ होता
दो रुपये के सर्फ़ एक्सेल से
नहीं धुलेगा चाँद का दाग़
एक तरफ से देखकर
इतने निर्णय सुनाने वालों
अभी तुमने देखा नहीं
दूसरे तरफ़ से चाँद
आठ
मनुष्यों के ही झोले में नहीं थीं
किसिम-किसिम की विधाएं
तरह-तरह की भाषाएं
कई-कई लिपियाँ
और प्रेम गाथाएं
था तो सब कुछ वहाँ भी
जहाँ नहीं थे हम
नौ
क्या था तुम्हारे शहर में
जिस पर तुम करते नाज़
ऐंठते अपनी मूंछें
गर्व से चिल्लाते भी तो
किस बात पर??
सिवाय एक प्यारी नदी के
जो तुम्हारे शहर के किनारे से निकल जाती है
क्या था तुम्हारे पास ?
दस
दो पैसे की तंबाकू से
तुम क्या जानो भले मानुषों
तंबाकू क्या चीज़ है
पिच्च पिच्च हम थुके जा रहे
ये वर्षों की खीझ है
तंबाकू पर खेत टिके हैं
फ़सल खड़ी है तंबाकू पर
बस में पीछे सोने वालों
बस दौड़ी है तंबाकू पर
दो पैसे की तंबाकू से
खिड़की रोशनदान बने हैं
लाखों लाख मकान बने हैं
खेतिहर और किसान बने हैं
कितने तो इंसान बने हैं
दो पैसे की तंबाकू से
दो पैसे की तंबाकू पर
राष्ट्र टिका है देश टिका है
दो पैसे की तंबाकू पर
कइयों का परदेश टिका है
हमको ज्ञान सिखाने वालों
हमें पता है
तंबाकू क्या चीज़ है
पिच्च पिच्च जो थुके जा रहे
ये वर्षों की खीझ है
--------------------
सभी चित्र निज़ार अली बद्र
संपर्क-
संदीप तिवारी, शोध छात्र, हिंदी विभाग
डी. एस. बी. परिसर कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल
263001
मो.न. 8840166161
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जिसको देखने भर से आ जाती थी जान में जान
ये वही समझ सकता है , जिसे बारंबार शहर वापस बुलाता है ...
ईलाही भगवान या पूजने योग्य को कहा जाता है ।
तो जो शहर ईलाही का हो उसके नाम से मन्सूब हो या उसके नाम पर आबाद किया जाए ...वही तो इलाहबाद कहलायेगा
बहुत सुंदर कविताएँ है संदीप भाई,बधाई आपको💐💐💐💐
हटाएंबहुत सुंदर संदीप भाई बहुत-बहुत शुभकामनाएं...
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