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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

20 दिसंबर, 2018

संदीप तिवारी की कविताएँ




संदीप तिवारी 


एक 

जो इलाहाबाद छोड़के गया है
वह प्रयागराज नहीं लौटेगा
लौटेगा तो
इलाहाबाद लौटेगा

प्रयागराज एक ट्रेन का नाम था
अब प्रयागराज एक जंक्शन का नाम हो जाएगा
अब टिकट पर नहीं लिखा मिलेगा इलाहाबाद
अब टिकट में उतनी महक भी नहीं बची रहेगी

प्लेटफार्म पर गड़े पीले बोर्ड
जिसको देखने भर से आ जाती थी जान में जान
उस पर लिखा एक प्यारा सा शब्द
अब मिटा दिया जाएगा

कहीं पर कुछ भी लिख दिया जाए
कुछ भी तोड़ फोड़ दिया जाए
पर दुःखी मत होना
सुबेरे जब ट्रेन पहुँचेगी प्रयागराज जंक्शन
बगल बैठा मुसाफ़िर उठाएगा
और बढ़ जाएगा इतना कहते हुए
जग जा भाई आ गया इलाहाबाद




दो

जो अभी लिखा जाना उधार है

पहले जब होता था आमने-सामने
पिता जी ज्यादा बात नहीं करते थे
कहीं जाते समय बस इतना कहते
एक जेब में मत रखना सारे रुपये
अलग अलग रखना
ऐसा इसलिए कि अगर भीड़ भाड़ में कट जाए जेब
तो लौट सकूँ घर
किसी एक जेब के सहारे

पिता जी अब तो
महीने में एकाध बार ही करते हैं बात
वो भी मुश्किल से मिनट दो मिनट
सब्जी क्या बना रहे हो
उस परीक्षा का क्या हुआ
जो फलाने शहर में दे कर आये थे
बस ऐसे ही कोई निहायत ज़रूरी सवाल

माँ से तो अमूमन रोज ही
होती है बात
ढेर सारी बात
गाँव की, पड़ोस की, रिश्तेदारों की

पर पता नहीं क्यों
ज़रूरी जान पड़ता है लिखना
माँ पर नहीं
पिता पर
एक सुंदर सी कविता
उन्हीं की तरह चुप, शांत और गंभीर









तीन 
जय माँ भारती

जय माँ भारती
पूजा की थाली है
थोड़ी सी खाली है
कर रहे हैं आरती
जय माँ भारती

हम सब आलू हैं
योगी जी चालू हैं
मोदी कचालू हैं
भोले की कसम खाऊँ
या कहूँ पारबती
जय माँ भारती

पढ़े लिखे उल्लू हैं
बढ़िया तो गुल्लू हैं
गाय दौड़ाये हैं
दिन भर चराये हैं
ठेला लगाये हैं
तेल खौलाये हैं
छाने पकौड़े हैं
भित्तर से चौड़े हैं
बाकी सब स्वार्थी
जय माँ भारती

अइंठें औ अकड़े हैं
छत्तिस ठु नखड़े हैं
जाने की बारी है
गदहा सवारी है
अइसन सुथन्ना को
जनता कचारती
जय माँ भारती


चार 

नक्सल हो
फक्स्ल हो
अर्बन
देहाती हो
क्या कहा जाय

किसके तुम पोता हो
किसके तुम नाती हो
किसके संघाती हो
घोड़ा हो हाथी हो
क्या किया जाय

चोरन के साथी हो
सत्ता की पाती हो
छतरी बरसाती हो
बहुत करामाती हो
क्या कहा जाय

थोड़े भी मानुष हो
तो उसको बचाओ न
धुन वही गाओ न
गीत लहराओ न

बहुतै अँधेरा है
समकालीन कविता में
बाती बनाओ न
ढेबरी जलाओ न









पांच 

कितना कठिन है
इस मिट्टी में नधे हांड माँस को इंसान कहना
फसलों को फसल कहना
और पानी को पानी

कितना कठिन है
विरोधाभासो से भरी इस धरती पर
खुद को बचाना
रिरियाना घंटों भर
मामूली सी कटौती के लिए

कितना कठिन है पुरखों से जुड़ना
और सूख जाना
कितना कठिन है
अपना मेहनताना भी न पाना

कितना कठिन है
यहाँ तिल तिल के मरना
दवा दारु की चाह
बच्चों को पढ़ाना
सुबह शाम खाना
कितना कठिन है यहाँ !

दोपहर दोपहर से अलग
सुबह कितनी सुबह है
शाम चिंताओं की गठरी
कितना कठिन है यहाँ की रात

कहना नहीं चाहता!
पर यह मिट्टी कब्रगाह होती जा रही है







छह

आज की रात हर शहर में
चाँद इतना ही गोल निकला होगा
आज की रात
तुम होगी बहुत परेशान

आज की रात
मुझमें भी दिखा होगा उतना ही दाग
आज की रात
मैं छिप नहीं सकता


सात 

जो पुराना है
वो इतनी आसानी से नहीं साफ़ होता
दो रुपये के सर्फ़ एक्सेल से
नहीं धुलेगा चाँद का दाग़

एक तरफ से देखकर
इतने निर्णय सुनाने वालों
अभी तुमने देखा नहीं
दूसरे तरफ़ से चाँद



आठ 

मनुष्यों के ही झोले में नहीं थीं
किसिम-किसिम की विधाएं
तरह-तरह की भाषाएं
कई-कई लिपियाँ
और प्रेम गाथाएं

था तो सब कुछ वहाँ भी
जहाँ नहीं थे हम









नौ 

क्या था तुम्हारे शहर में
जिस पर तुम करते नाज़
ऐंठते अपनी मूंछें
गर्व से चिल्लाते भी तो
किस बात पर??

सिवाय एक प्यारी नदी के
जो तुम्हारे शहर के किनारे से निकल जाती है
क्या था तुम्हारे पास ?


दस 
दो पैसे की तंबाकू से


तुम क्या जानो भले मानुषों
तंबाकू क्या चीज़ है
पिच्च पिच्च हम थुके जा रहे
ये वर्षों की खीझ है

तंबाकू पर खेत टिके हैं
फ़सल खड़ी है तंबाकू पर
बस में पीछे सोने वालों
बस दौड़ी है तंबाकू पर

दो पैसे की तंबाकू से
खिड़की रोशनदान बने हैं
लाखों लाख मकान बने हैं
खेतिहर और किसान बने हैं
कितने तो इंसान बने हैं
दो पैसे की तंबाकू से

दो पैसे की तंबाकू पर
राष्ट्र टिका है देश टिका है
दो पैसे की तंबाकू पर
कइयों का परदेश टिका है

हमको ज्ञान सिखाने वालों
हमें पता है
तंबाकू क्या चीज़ है
पिच्च पिच्च जो थुके जा रहे
ये वर्षों की खीझ है
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सभी चित्र निज़ार अली बद्र 

संपर्क- 
संदीप तिवारी, शोध छात्र, हिंदी विभाग
डी. एस. बी. परिसर कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल
263001
मो.न. 8840166161

3 टिप्‍पणियां:


  1. प्लेटफार्म पर गड़े पीले बोर्ड
    जिसको देखने भर से आ जाती थी जान में जान
    ये वही समझ सकता है , जिसे बारंबार शहर वापस बुलाता है ...
    ईलाही भगवान या पूजने योग्य को कहा जाता है ।
    तो जो शहर ईलाही का हो उसके नाम से मन्सूब हो या उसके नाम पर आबाद किया जाए ...वही तो इलाहबाद कहलायेगा

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    1. बहुत सुंदर कविताएँ है संदीप भाई,बधाई आपको💐💐💐💐

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  2. बहुत सुंदर संदीप भाई बहुत-बहुत शुभकामनाएं...

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