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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

13 अप्रैल, 2015

सुरेन्द्र रघुवंशी जी की कविता

ओले

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वे जहाँ -जहाँ गिरे संभावनाओं की हरी-भरी
फसलें
तवाह हो गईं उनके बेरंग निर्मम आघातों से
मिट्टी में मिल गईं उम्मीदें और परिश्रम बह गया
टूट गई कच्चे घरों की छप्पर फूट गये कबेलू
धरती पुत्र क्या सिर्फ़ प्रहार सहने के लिए ही है
कभी सत्ता के तो कभी क्रुद्ध मौसम के
अमानवीयता का पानी जब बदल जाता है वर्फ
में
दुष्टता की गहरी ठण्ड में जमकर
तब टुकड़ों में टूट-टूटकर अहंकारी ऊंचाई से
वे गिरते हैं हमारे सपनों पर निर्दयी होकर
यह सिर्फ़ ओलों का गिरना भर नहीं है
अब गरज-गरज कर कह रहे हैं सत्ता के बादल
कि सरकारी कर्मचारियों पर जल्द ही गिरेंगे
निजीकरण के सफ़ेद ओले
जब सरकार ही बेचने को बैठ जाये
अपने विद्यालयों को ज़मीन सहित
उद्योगपतियों के लिए
तब शिकायत को सुनने वाला कौन है खुद के
खिलाफ
हमारे युग में फरियादी घंटा भी नहीं है
कि उसे बजाने पर प्रभुओं के कानों पर जूँ रेंगे
जब सर्वसम्मति में ध्वनिमत से सभी सदनों में
बढ़ा लिया जाता हो कभी भी खुद का वेतन
घोटालों का तो हिसाब ही न हो
तो मत देने वालों के पिचके पेट को कौन देखे
ज़रूरतमंदों के हृदय की करुण पुकार तक
कौन ले जाये अपने कानों को मनुष्यता की डोर
में बांधकर

Copyright@ सुरेन्द्र रघुवंशी
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टिप्पणी:-

राजेश झरपुरे:-
सुरेन्द्रभाई की अच्छी कविता । निजीकरण को विकास की सीढ़ी मानने वाली व्यवस्था का इसी तरह विरोध किया जाना चाहिए । बधाई मित्र ।

पूर्णिमा पारिजात:-
ओले.....सरकारी फरमानों के चलते ,पिस २हे आम कर्मचारी और आमजन का दर्द बयान करती सारगर्भित रचना।

गणेश जोशी:-
अति सुन्दर। दर्द और सरकारी वयवस्था के खिलाफ कविता बहुत कुछ सन्देश देती है।

व्यास अजमिल:-
भाई सुरेन्द्र जी अपनी इन पक्तियों में जो विवरण ओले के बहाने से सहेजे हैं उनमें एक अच्छी कविता की संभावना दिखाई दे रही है। लेकिन विवरण कविता नहीं होती। ओले कविता का भी अभी कविता होना बाकी है। कवि ने एक बेहतर कविता के बीज तलाश लिए है ।इन बीजों की रोपाई गुड़ाई अन्य सेवाएँ ठीक से हो जाए तो मेरा विष्वास है क़ि सुरेन्द्र जी की यह एक महत्वपूर्ण कविता होगी। और कवि इस साधना में पूरी तरह सक्षम है।

राजेश झरपुरे:-
अजामिलजी से सहमति के साथ ।
सभी कविता पूर्ण नहीं होती ।
पूर्णतः और अधिक जिम्मेदारी से आगे बढ़ने का आग्रह करती है । सुरेन्द्रभाई का प्रयास अच्छा है । थोड़े से और प्रयासों से यह एक बेहतरीन कविता बनने के सारी सम्भावना लिए हुए है ।

सुरेन्द्र रघुवंशी:-
हार्दिक आभार राजेश भाई ,वर्तिका तनु जी , गणेश जोशी जी , पूर्णिमा पारिजात जी, तितिक्षा जी और गुरुकृपा जी ।धन्यवाद ।

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