कुमार मंगलम की कविताएं
कविताएँ
मायाविनी
(स्वदेश दीपक की मायाविनी की एक याद)
गहरे स्वप्न में
आती है मायाविनी
हिरणी सी कुलांचे भरती
मायाविनी चीर विरहिणी है
कुलधरा के खंडहरों में
करती है इंतज़ार उस पालीवाल का
जो भागते भागते मर गया था
सालम सिंह के जुल्मों से
उसकी सखी है रूपमती
और बाज बहादुर दिखता है उस
पालीवाल सा
मायाविनी ने कहा था
मैंने मांडू नहीं देखा है
मायाविनी अथक सहचरी है
वियोग के क्षणों में
स्पर्श होता है उसके आत्मा का
मन के सुने में विचरती है
कि अचानक आत्मा का जासूस कमजोर
पड़ जाता है और वो बन जाती है
आत्मा की परछाईं
फासले ऐसे हो जाते हैं कि
शरीर से आत्मा की दूरी बढ़ने लगती ह
कि सब अपना बेगाना हो जाता है
उसकी छुवन है काला जादू
छुवन जो मानसिक है
और स्मृतियों का सहचर है
मैं उसे पा लेना चाहता हूं
जिसे मैंने ही रचा है
उसे पकड़ने का करता हूँ
अंतहीन निरर्थक प्रयास
वह मुझसे उतनी ही दूर है
जितनी मेरी अभिव्यक्ति ।
रात : कुछ दृश्य
एक
दो पहर रात बीत जाने के बाद
खड़ा हूँ अपने बालकनी में
सामने देखता हूँ
चांद को
कुछेक तारों के साथ
जुगलबंदी कर रहा है
पीपल के विशाल वृक्ष
और उन पत्तों के सरसराहट के बीच
झिलमिल हो रहा है चाँद
जैसे तुम्हारी याद भी झिलमिल है
मन के किसी कोने में
जो जगे हैं वो या तो इश्क़ के मारे हैं
या बीमार हैं
यह हेमन्त की कटती हुई रात है
दूर कहीं कुत्तों के भौंकने की आवाज
रह रह कर आती है
और पत्तों के सरसराहट के एकालाप को
तोड़ देती है
किसी फटे छप्पर से चाँद वैसे ही झिलमिल
हो रहा है
जैसे मेरे बालकनी के सामने वाले पीपल के
पत्तों के बीच से
मजदूर
जिसकी नींद उचट चुकी है
वो भी देख रहा है चाँद को
इस उम्मीद में कि कल उसको
काम मिल ही जायेगा
उसके एक अलंग में उसका बच्चा सोया है
और एक ओर उसकी पत्नी कथरी लपेटे
ठंड से थरथरा रही है
मेरे लिए यह सुहाना और शीतल चाँद
जो मेरे उनींदी नींद पर मरहम लगा रहा है
यह सच नहीं है
हक़ीक़त यह कि
यह चाँद एक अजगर है
जो अपने को बड़ा कर रहा है
किसी को परिवार समेत निगल जाने के लिए
दो
जो दिन के उजाले में संभव न था
उसका क्रियान्वयन हुआ
जब हाथ को हाथ नहीं सूझता था
और बात बन गयी कि
इस सर्द रात ने सुन्न कर दिया था
मस्तिष्क को
सुबह अख़बार के दबे पन्ने
दबी आवाज में सिसकी ले रहे थे
कुछ लोग थे जो गला फाड़ चिल्ला रहे थे
उनको पागल करार दे दिया गया
ऐसा पागल जिनको अपनी आवाज़ रखने का
हक़ इस बहुमत बाहुबली लोकतंत्र ने छीन लिया था
उन्होंने कहा उनको मुक्ति मिल गयी
बार बार मरने से ।
गोधूलि
(ज्ञान और मूर्खता का संधि-स्थल)
मूर्खता जब ज्ञान पर
हावी होने लगता है
धीरे-धीरे
समाप्त होने लगती है प्रज्ञा
नहीं कर पाते आप तर्क
एक अकुंठ श्रद्धा-भाव से
उपजता है मूर्खता
ज्ञान के रक्तिम आभा को
भस्मीभूत कर
उपजता है अंधेरा
तब जन्मतें है मूर्ख
मूर्खों के साम्राज्य में
नहीं जगह है
बुद्ध, गैलीलियो, कोपरनिकस, कबीर और मार्क्स की
अंधेरे का भी अपना प्रकाश होता है
जिसे अक्सर लोग
ज्ञान का चकाचौंध समझ लेते हैं
वे नव्यता को नकार देते हैं
वे अपने खोल में जीते हैं
उस अंधेरे में पलता हैं कहीं न कहीं
ज्ञान का विचार
कि उसका तेज अपने को समेट लेता है
धीरे धीरे टूटता है
अंधेरे का आवरण
फैलता है प्रकाश भी उसी तरह
जैसे अपने को समेट लेता है
गोधूलि और फजेरे का वक्त एक सा होता है
अंतर सिर्फ इतना कि
गोधूलि की प्रकृति उदास है
तो भोर की उल्लसित ।
दृश्य आजकल
एक
कुछ इतिहास थे
जो मिथक में तब्दील हो रहे थे
और उसके आड़ में
लोग होते जा रहे थे
बलवाई और अराजक
अचानक इतिहास पुरुष के
आंखों से खून बहने लगा
मिथक अब अपना रुप बदल रहे हैं।
दो
अचानक एक बहुत
बहुत चुप आवाज
बोल पड़ती है
तुम्हारे कानों से लहु बहने लगती है ।
तीन
प्रतिमा पूजने वाले
प्रतिमा गढ़ने वाले
भागने लगते हैं
जब प्रतिमान निर्मित होते हैं ।
चार
धरती के गर्भ में पलती हैं
तुम्हारी
अहंमान्यताएं
तुम्हारे जुल्म
तुम्हारे सारे कर्म-कुकर्म
एक लम्बे इंतज़ार के बाद
निर्मित होती है कोई ज्वालामुखी
पांच
कई बार फट चुकी हैं ज्वालामुखियाँ
फट कर भी उगलें हैं उसने खनिज
और तुम्हारे ऐय्यासी के साधन
कि तुम समझौता कर सको
बेच सको हिंडाल्को, अडानी और अम्बानियों को
मार सकों उनको जो आखिरी जन है
तुम्हारे सबसे बड़े जनतंत्र का
जो तुम्हारे भोग से पैदा हुआ है
नाजायज ही कहलाया
पर सावधान !
ज्वालामुखियाँ फटती रहेंगी
और उसमें नहीं निकलेगा सिर्फ खनिज ।
टैंक
एक
टैंक
में भरे बारूद से ज्यादा
ख़तरनाक होता है
दिमाग में भरा बारूद
दो
बारूद का गंध
क्षत-विक्षत शरीर
चिपचिपे, सूख के पपड़ी पड़े
खून के धब्बों से राष्ट्र नहीं
हिंसा पैदा होती है ।
तीन
टैंक के उपयोग में
आने वाले बारूद के गोले से
कहीं ज्यादा ख़तरनाक है
नागपुरी मस्तिष्क से उपजे फ़रमान
चार
टैंक
शक्तिशाली हाथी के बल का पर्याय है
और विश्वविद्यालयों का ज्ञान
चींटी के सूक्ष्म लगन और क्रियाशीलता के
ज्ञान से बड़े सूरमा भी डरते हैं
बलों के रक्तिम इतिहास को
पर्दाफाश कर देता है ज्ञान
तर्क़ कसौटी है तुम्हारे झूठे सच को उकेरने का
जब भी ज्ञान से ख़तरा हो सरकार को
ज्ञान और तर्क़ के गढ़ पर टैंक रखे जाने के प्रस्ताव पारित होते हैं ।
पांच
टैंक
प्रतीक है युद्धोन्माद और हिंसा का
उससे जंग जीता जाता है
दिलो - दिमाग नहीं
जहाँ दिलों - दिमाग के सौदागर बसते है
वे बारूदों से उड़ा देना चाहते हैं
ज्ञान और तर्क़ के मस्तिष्क को
वे पक्ष चाहते हैं किसी की पक्षधरता नहीं
वे क्रिया के व्यापारी हैं प्रतिक्रिया उन्हें बर्दाश्त नहीं
वे उद्वेलित हो जाते हैं
उन्हें ख़तरे का भय सताता रहता है
वे दिमागों में भी टैंक रखना चाहते हैं
अदृश्य टैंक
जिसे पहले विरोध के साथ ही ट्रिगर कर दिया जाए
फिर भी कुछ सिरफिरे होते हैं
जो किसी टैंक से नहीं डरते
वे बारूद में पानी डाल देते हैं
तुम्हारी अनंत इच्छाओं पर वे
गिरते हैं वज्रपात सा ।
संतन को कहाँ सीकरी सों काम
अरे चुप करो
कुंभन
क्या तुम देशद्रोही हो
संत वही जिसे सीकरी सों काम
कुम्भनदास
योगी अब भोगी...
नाथ गाँवों में घूम भरथरी गाते थे कभी
अब वे राजधानियों में गाएंगे
भरथरी के गीत अब करुण नहीं हिंसक हैं
भरथरी के सारंगी से निकलेगा युद्धोन्माद का गीत
जब मैं छोटा था
मेरे गाँव में आते थे जोगी
जब हम नहीं खाते, जिद करते तो
दादी कहती जोगी झोले में ले कर चला जायेगा
जब दादी उनके झोले में अन्न देती
दादी का पल्लू पकड़ उनसे चिपका रहता
जोगी सुनाता 'सुन सारंगी कान कटबS'
सारंगी कहता 'हूँ' और मैं डर जाता
अब सारंगी गला काटेगा
लोग हँसेंगे, उनका मनोरंजन होगा
अख़बार छुपा ले जायेगा ख़बर
विज्ञापनों का भरमार अख़बार
नहीं बताएगा
किसी सांसद की असंसदीय हरकत को
हम किसी भी अख़बार में नहीं पढ़ पाएंगे
किसानों ने सत्ता के हृदय पर कपाल लेकर अपने बेबसी का रोना रोया
किसानों में माया बहुत है वे नहीं कर सकते कपाल लेकर तांडव
वे मरना जानते हैं पर खेती छोड़ना नहीं जानते
वे छोड़ सकते हैं अपना शरीर पर खेत नहीं छोड़ सकते
वे असल सर्जक हैं
जिस दिन उनका तांडव होगा
पृथ्वी पर अन्न नहीं सिर्फ कंक्रीट के जंगल बचेंगे
हे कुंभन
तुम बूढ़े हो गए हो
तुम्हारे प्रतिनिधि सठिया गये हैं
देखा नहीं कैसा जनादेश है
नहीं दिखता जनादेश
उन्माद का कोई जनादेश नहीं होता
सिर्फ उन्माद होता है
उन्माद शोर है
कभी बहुत शोर में दब जाता है
एक भूखे के पेट से निकला अंतिम शब्द
रो...टी....
देखा नहीं रंग भी बता देते हैं तुम नहीं हो उनके जैसे
अभी तुम चले जा रहे हो
कि कोई सामने से आता है
और तुम्हारे पेट को भभोड़ कर चला जाता है
तुम्हारे पेट से रिसता लहू नहीं दिखता किसी को
लोग तुम्हें देशविरोधी और पागल कह कर
जश्न मनाते हैं
लहू का रंग लाल नहीं
उन्हें केसरिया दिखता है महाकवि
वे जश्न मनाते हैं कि एक देशद्रोही खत्म हुआ
और तुम जो कभी भक्त थे अब कहे जाते हो देशद्रोही
कुंभनदास जी
मुस्कुराइये कि आप ...... हैं
मुस्कुराइये कि आप अभी तक जिन्दा हैं
मुस्कुराइये कि गदहों का लोकवृत है
मुस्कुराइये कि सीकरी अब जंगल है
मुस्कुराइये कि संत अब सीकरी में हों, जंगल में हों, संसद में हों, विधानपालिका में हों, कार्यपालिका में हों, न्यायपालिका में हों संत हैं
और आप असंत क्योंकि
संत वही जिसे सीकरी सों काम ।
एक
जानता हूँ
कोई नहीं है
परिपूर्ण
संभवतः वे भी नहीं थे पूरे
जिन्होंने गढ़े
सफलता के मुहावरे
जो असफल थे
वे सबसे ज्यादा सफल दिखते थे
दो
अपनी असफलता को
छिपाता
कभी अपनी वाचालता से
तो कभी
अपनी चुप्पियों से
मेरी चुप्पी जब
बहुत वाचाल हो जाती
तब मैं करता हूँ हत्याएं
तीन
मैं लापरवाह था
इतना की
अपनी हत्या करता
खुद के गर्दन को दबाता
साँस उखड़ने तक
चार
धोखेबाज नहीं देते धोखे
ना ही झूठे, झूठ बोलते हैं
किसी और से
सभी धोखे और झूठ एक सुंदर भाग है
वो भागते हैं अपने निज से
पांच
कमी मुझमें कुछ नहीं थी
गलतियों का पुतला भी नहीं था मैं
अपनी वाचाल चुप्पी
और चुप्पी की वाचालता के बीच
हत्याएँ करते खुद की
अनेक समझौते किये सत्ता से
मैं जी हुज़ूर होता गया
यह मेरी कमी नहीं थी
यह मेरे समय का सत्य था ।
हम एक ऐसे समय में जी रहें हैं
जहाँ भारत भाग्य विधाता का
गुणगान करते हुए
हरिचरना कब का सरग
सिधार गया है
हमने सरकारें बनायीं
फिर उसी सरकार को रहे गरियाते
इस उम्मीद में की वे सुनेंगे हमारी बात
वो भी तो हमारे बीच से आते हैं
पर उनके गणित की सत्ता
चिरंतन रही
सत्तासीन तो सत्ता में हैं ही
जो नहीं हैं सत्ता में
उनकी सत्ता भी मुक़ाबिल है
हर बार जोड़ा उन्होंने जाति का गणित
कभी धर्म कभी संख्या के बल पर
ठगते रहे
उनके गणित के हर प्रश्नों
का जबाब विजय ही रहा हर बार
चाहे वो सत्ता में रहे या विपक्ष में
वो गणतंत्र के दिन
लेते रहे भव्य सलामी
और
गणतंत्र का आखिरी आदमी
अपने आखिरी सांस को बचाने के लिए
आखिरी दम तक लड़ता रहा
गणतंत्र और आजादी के फरेब में
वो हमें बदलते रहे
और हम उन्हें बदलने का भरम पाले रहे
हमारा निशाना भी तो हमेशा से चुकता रहा
हमारी मर्यादा हमें भीम नहीं बनने दे रही थी
कि हम करें प्रहार उनके मर्मस्थलों पर
हम करते रहे वज्र पर प्रहार वज्र से
पर इस महाभारत में वे बने रहे
अभिमन्यु को घेर कर मारने वाले
कभी द्रोण, कभी भीष्म,
कभी दुर्योधन तो कभी जयद्रथ भी
इस महाभारत के अंत में
नहीं बने विजेता पांडव
राजनीति के महाभारत में
विजेता दुर्योधन ही रहा
मरती गयी पांडवों की संवेदना
वो अब किसी गरीब के लिए नहीं लगाते
जान की बाजी
चूकती संवेदना मरती आदमियत
और चारों तरफ शोर ही शोर में
उन्होंने बदल दिया गणतंत्र के मायने
हम भी कब बदल गए
पता ही नहीं चला
हरिचरना अब स्वप्न में भी नहीं आता
अब तो बस शोर है शोर ही
आपकी चुप्पी आपके जान की
सबसे बड़ी शत्रु है
आप भी शोर में शामिल हो जाइये
नहीं तो क्या पता
आपके बगल से एक उन्मादी भीड़ गुजरे
और उस शोर में दब जाए आपकी चीख
चीख जो पूरे जान लगा कर कहा होगा
अंतिम बार
शामिल हो जाइये भीड़ में
चिल्लाइये भारत माता की जय
कानफोड़ू आवाज में कहिये वंदे मातरम
आपकी स्वतंत्रता को शोर से अलग कर के
नहीं किया जायेगा मूल्यांकित
कि स्वतंत्रता भी अब एकमात्र शोर है
जश्न मनाइये कि हर गणतंत्र
हरिचरना का श्राद्ध होता रहे
हरिचरना नहीं है
अब तो बस शोर है चारो तरफ
भारत माता की जय और वंदे मातरम के उद्घोष
में हर बार मृत हो जाता है कोई इस विशाल माता का सुपूत
उसके घर का खालीपन को शोर
से नहीं भरा जा सकता
गणतंत्र ने हमे नहीं हमने
बदल दिया है शोर से गणतंत्र को
अब तो गणतंत्र मने सिर्फ
शोर
शोर, शोर, शोर, शोर, शोर
तुम्हारा जन्मदिन
तुम्हारा जन्मदिन
चुप्पियों के साये में
चहलकदमी करते
मेरे मौन को खुरचता है
असावरी के कोमल ऋषभ
कि तरह आती है तुम्हारी याद
"मुंदरी मोरी काहें को छीन लई"1
कि मेरी आँखों में बसती हैं
तुम्हारी यादों की मुंदरी
तुम्हारी याद राग सोहनी है
जिसकी प्रकृति चंचल है
तुम्हारी तरह
यूँ तुम्हारी याद
जैसे राग तोड़ी में गंधार
और तुम्हारे जन्मदिन पर तुम्हारी याद
जैसे कुमार जी की धनवसंती
जो कभी पूरिया धनाश्री तो कभी वसंत का आभास
ये मेरे मौन के साथी हैं
मेरे वाचालता में भी
मेरा मौन साथ चलता है
नहीं समझ पाया जुगलबंदी को
तुमने ही तो कहा था
संगत करने से हम आत्ममोह से बचे रहते हैं
यह कैसी संगत है प्रिये
कि तुम लगातार आगे बढ़ती गयीं
और मैं ठहरा ही रहा
कभी पीछे मुड़ कर देखना
मैं यहीं इंतज़ार करता मिलूंगा
तुम्हारे जन्मदिन के दिन तक
बस तुम ही नहीं होती हो
अपने ही जन्मदिन पर ।
1 राग अड़ाना की चर्चित बंदिश
कवि और पुरस्कार
हे कवि
तुम्हारी यह कविता
बहुत अच्छी नहीं है
इसे तुम डाल दो कचरे की पेटी में
कवि
तुमने कैसे स्वीकार कर लिया
कोई पुरस्कार,
कई बेहतर कविताओं के बीच
अपनी इस वाहियात कविता पर,
इस वर्ष की कई सर्वश्रेष्ठ कविता तो मैंने लिखी है
इसी वर्ष तो तुम पर
लगे हैं कई आरोप
एक आलोचक ने एक कवि के बारे में लिखते
हुए कहा एक आलोचक के कहने पर कवि ने लिखी
है कविता में गाली
उनकी दाँव-पेंच वाली राजनीति
और रस-रंजन तुम्हारी विनम्रता पर भारी है
जब भी कोई पुरस्कृत होता है
होने लगती है कई कई व्याख्याएं
शब्दों में अनर्थ भरे जाते हैं
तुम्हारी सफलता पर
प्रश्नचिन्ह लगाये जाते हैं
जानते हो कवि
तुम्हारी सफलता पर उनकी
अनाशक्त तिलमिलाहट
कविता को मिले पुरस्कारों से ज्यादा भारी है
परिचय
कुमार मंगलम
अध्येता (हिन्दी साहित्य)
फिलहाल गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय से 'कुंवर नारायण के काव्य में दार्शनिक प्रभाव' विषय पर शोधरत ।
कुमार मंगलम |
कविताएँ
मायाविनी
(स्वदेश दीपक की मायाविनी की एक याद)
गहरे स्वप्न में
आती है मायाविनी
हिरणी सी कुलांचे भरती
मायाविनी चीर विरहिणी है
कुलधरा के खंडहरों में
करती है इंतज़ार उस पालीवाल का
जो भागते भागते मर गया था
सालम सिंह के जुल्मों से
उसकी सखी है रूपमती
और बाज बहादुर दिखता है उस
पालीवाल सा
मायाविनी ने कहा था
मैंने मांडू नहीं देखा है
मायाविनी अथक सहचरी है
वियोग के क्षणों में
स्पर्श होता है उसके आत्मा का
मन के सुने में विचरती है
कि अचानक आत्मा का जासूस कमजोर
पड़ जाता है और वो बन जाती है
आत्मा की परछाईं
फासले ऐसे हो जाते हैं कि
शरीर से आत्मा की दूरी बढ़ने लगती ह
कि सब अपना बेगाना हो जाता है
उसकी छुवन है काला जादू
छुवन जो मानसिक है
और स्मृतियों का सहचर है
मैं उसे पा लेना चाहता हूं
जिसे मैंने ही रचा है
उसे पकड़ने का करता हूँ
अंतहीन निरर्थक प्रयास
वह मुझसे उतनी ही दूर है
जितनी मेरी अभिव्यक्ति ।
रात : कुछ दृश्य
एक
दो पहर रात बीत जाने के बाद
खड़ा हूँ अपने बालकनी में
सामने देखता हूँ
चांद को
कुछेक तारों के साथ
जुगलबंदी कर रहा है
पीपल के विशाल वृक्ष
और उन पत्तों के सरसराहट के बीच
झिलमिल हो रहा है चाँद
जैसे तुम्हारी याद भी झिलमिल है
मन के किसी कोने में
जो जगे हैं वो या तो इश्क़ के मारे हैं
या बीमार हैं
यह हेमन्त की कटती हुई रात है
दूर कहीं कुत्तों के भौंकने की आवाज
रह रह कर आती है
और पत्तों के सरसराहट के एकालाप को
तोड़ देती है
किसी फटे छप्पर से चाँद वैसे ही झिलमिल
हो रहा है
जैसे मेरे बालकनी के सामने वाले पीपल के
पत्तों के बीच से
मजदूर
जिसकी नींद उचट चुकी है
वो भी देख रहा है चाँद को
इस उम्मीद में कि कल उसको
काम मिल ही जायेगा
उसके एक अलंग में उसका बच्चा सोया है
और एक ओर उसकी पत्नी कथरी लपेटे
ठंड से थरथरा रही है
मेरे लिए यह सुहाना और शीतल चाँद
जो मेरे उनींदी नींद पर मरहम लगा रहा है
यह सच नहीं है
हक़ीक़त यह कि
यह चाँद एक अजगर है
जो अपने को बड़ा कर रहा है
किसी को परिवार समेत निगल जाने के लिए
दो
जो दिन के उजाले में संभव न था
उसका क्रियान्वयन हुआ
जब हाथ को हाथ नहीं सूझता था
और बात बन गयी कि
इस सर्द रात ने सुन्न कर दिया था
मस्तिष्क को
सुबह अख़बार के दबे पन्ने
दबी आवाज में सिसकी ले रहे थे
कुछ लोग थे जो गला फाड़ चिल्ला रहे थे
उनको पागल करार दे दिया गया
ऐसा पागल जिनको अपनी आवाज़ रखने का
हक़ इस बहुमत बाहुबली लोकतंत्र ने छीन लिया था
उन्होंने कहा उनको मुक्ति मिल गयी
बार बार मरने से ।
सुनीता |
गोधूलि
(ज्ञान और मूर्खता का संधि-स्थल)
मूर्खता जब ज्ञान पर
हावी होने लगता है
धीरे-धीरे
समाप्त होने लगती है प्रज्ञा
नहीं कर पाते आप तर्क
एक अकुंठ श्रद्धा-भाव से
उपजता है मूर्खता
ज्ञान के रक्तिम आभा को
भस्मीभूत कर
उपजता है अंधेरा
तब जन्मतें है मूर्ख
मूर्खों के साम्राज्य में
नहीं जगह है
बुद्ध, गैलीलियो, कोपरनिकस, कबीर और मार्क्स की
अंधेरे का भी अपना प्रकाश होता है
जिसे अक्सर लोग
ज्ञान का चकाचौंध समझ लेते हैं
वे नव्यता को नकार देते हैं
वे अपने खोल में जीते हैं
उस अंधेरे में पलता हैं कहीं न कहीं
ज्ञान का विचार
कि उसका तेज अपने को समेट लेता है
धीरे धीरे टूटता है
अंधेरे का आवरण
फैलता है प्रकाश भी उसी तरह
जैसे अपने को समेट लेता है
गोधूलि और फजेरे का वक्त एक सा होता है
अंतर सिर्फ इतना कि
गोधूलि की प्रकृति उदास है
तो भोर की उल्लसित ।
दृश्य आजकल
एक
कुछ इतिहास थे
जो मिथक में तब्दील हो रहे थे
और उसके आड़ में
लोग होते जा रहे थे
बलवाई और अराजक
अचानक इतिहास पुरुष के
आंखों से खून बहने लगा
मिथक अब अपना रुप बदल रहे हैं।
दो
अचानक एक बहुत
बहुत चुप आवाज
बोल पड़ती है
तुम्हारे कानों से लहु बहने लगती है ।
तीन
प्रतिमा पूजने वाले
प्रतिमा गढ़ने वाले
भागने लगते हैं
जब प्रतिमान निर्मित होते हैं ।
सुनीता |
चार
धरती के गर्भ में पलती हैं
तुम्हारी
अहंमान्यताएं
तुम्हारे जुल्म
तुम्हारे सारे कर्म-कुकर्म
एक लम्बे इंतज़ार के बाद
निर्मित होती है कोई ज्वालामुखी
पांच
कई बार फट चुकी हैं ज्वालामुखियाँ
फट कर भी उगलें हैं उसने खनिज
और तुम्हारे ऐय्यासी के साधन
कि तुम समझौता कर सको
बेच सको हिंडाल्को, अडानी और अम्बानियों को
मार सकों उनको जो आखिरी जन है
तुम्हारे सबसे बड़े जनतंत्र का
जो तुम्हारे भोग से पैदा हुआ है
नाजायज ही कहलाया
पर सावधान !
ज्वालामुखियाँ फटती रहेंगी
और उसमें नहीं निकलेगा सिर्फ खनिज ।
टैंक
एक
टैंक
में भरे बारूद से ज्यादा
ख़तरनाक होता है
दिमाग में भरा बारूद
दो
बारूद का गंध
क्षत-विक्षत शरीर
चिपचिपे, सूख के पपड़ी पड़े
खून के धब्बों से राष्ट्र नहीं
हिंसा पैदा होती है ।
तीन
टैंक के उपयोग में
आने वाले बारूद के गोले से
कहीं ज्यादा ख़तरनाक है
नागपुरी मस्तिष्क से उपजे फ़रमान
चार
टैंक
शक्तिशाली हाथी के बल का पर्याय है
और विश्वविद्यालयों का ज्ञान
चींटी के सूक्ष्म लगन और क्रियाशीलता के
ज्ञान से बड़े सूरमा भी डरते हैं
बलों के रक्तिम इतिहास को
पर्दाफाश कर देता है ज्ञान
तर्क़ कसौटी है तुम्हारे झूठे सच को उकेरने का
जब भी ज्ञान से ख़तरा हो सरकार को
ज्ञान और तर्क़ के गढ़ पर टैंक रखे जाने के प्रस्ताव पारित होते हैं ।
पांच
टैंक
प्रतीक है युद्धोन्माद और हिंसा का
उससे जंग जीता जाता है
दिलो - दिमाग नहीं
जहाँ दिलों - दिमाग के सौदागर बसते है
वे बारूदों से उड़ा देना चाहते हैं
ज्ञान और तर्क़ के मस्तिष्क को
वे पक्ष चाहते हैं किसी की पक्षधरता नहीं
वे क्रिया के व्यापारी हैं प्रतिक्रिया उन्हें बर्दाश्त नहीं
वे उद्वेलित हो जाते हैं
उन्हें ख़तरे का भय सताता रहता है
वे दिमागों में भी टैंक रखना चाहते हैं
अदृश्य टैंक
जिसे पहले विरोध के साथ ही ट्रिगर कर दिया जाए
फिर भी कुछ सिरफिरे होते हैं
जो किसी टैंक से नहीं डरते
वे बारूद में पानी डाल देते हैं
तुम्हारी अनंत इच्छाओं पर वे
गिरते हैं वज्रपात सा ।
संतन को कहाँ सीकरी सों काम
अरे चुप करो
कुंभन
क्या तुम देशद्रोही हो
संत वही जिसे सीकरी सों काम
कुम्भनदास
योगी अब भोगी...
नाथ गाँवों में घूम भरथरी गाते थे कभी
अब वे राजधानियों में गाएंगे
भरथरी के गीत अब करुण नहीं हिंसक हैं
भरथरी के सारंगी से निकलेगा युद्धोन्माद का गीत
जब मैं छोटा था
मेरे गाँव में आते थे जोगी
जब हम नहीं खाते, जिद करते तो
दादी कहती जोगी झोले में ले कर चला जायेगा
जब दादी उनके झोले में अन्न देती
दादी का पल्लू पकड़ उनसे चिपका रहता
जोगी सुनाता 'सुन सारंगी कान कटबS'
सारंगी कहता 'हूँ' और मैं डर जाता
अब सारंगी गला काटेगा
लोग हँसेंगे, उनका मनोरंजन होगा
अख़बार छुपा ले जायेगा ख़बर
विज्ञापनों का भरमार अख़बार
नहीं बताएगा
किसी सांसद की असंसदीय हरकत को
हम किसी भी अख़बार में नहीं पढ़ पाएंगे
किसानों ने सत्ता के हृदय पर कपाल लेकर अपने बेबसी का रोना रोया
किसानों में माया बहुत है वे नहीं कर सकते कपाल लेकर तांडव
वे मरना जानते हैं पर खेती छोड़ना नहीं जानते
वे छोड़ सकते हैं अपना शरीर पर खेत नहीं छोड़ सकते
वे असल सर्जक हैं
जिस दिन उनका तांडव होगा
पृथ्वी पर अन्न नहीं सिर्फ कंक्रीट के जंगल बचेंगे
हे कुंभन
तुम बूढ़े हो गए हो
तुम्हारे प्रतिनिधि सठिया गये हैं
देखा नहीं कैसा जनादेश है
नहीं दिखता जनादेश
उन्माद का कोई जनादेश नहीं होता
सिर्फ उन्माद होता है
उन्माद शोर है
कभी बहुत शोर में दब जाता है
एक भूखे के पेट से निकला अंतिम शब्द
रो...टी....
देखा नहीं रंग भी बता देते हैं तुम नहीं हो उनके जैसे
अभी तुम चले जा रहे हो
कि कोई सामने से आता है
और तुम्हारे पेट को भभोड़ कर चला जाता है
तुम्हारे पेट से रिसता लहू नहीं दिखता किसी को
लोग तुम्हें देशविरोधी और पागल कह कर
जश्न मनाते हैं
लहू का रंग लाल नहीं
उन्हें केसरिया दिखता है महाकवि
वे जश्न मनाते हैं कि एक देशद्रोही खत्म हुआ
और तुम जो कभी भक्त थे अब कहे जाते हो देशद्रोही
कुंभनदास जी
मुस्कुराइये कि आप ...... हैं
मुस्कुराइये कि आप अभी तक जिन्दा हैं
मुस्कुराइये कि गदहों का लोकवृत है
मुस्कुराइये कि सीकरी अब जंगल है
मुस्कुराइये कि संत अब सीकरी में हों, जंगल में हों, संसद में हों, विधानपालिका में हों, कार्यपालिका में हों, न्यायपालिका में हों संत हैं
और आप असंत क्योंकि
संत वही जिसे सीकरी सों काम ।
एक
जानता हूँ
कोई नहीं है
परिपूर्ण
संभवतः वे भी नहीं थे पूरे
जिन्होंने गढ़े
सफलता के मुहावरे
जो असफल थे
वे सबसे ज्यादा सफल दिखते थे
दो
अपनी असफलता को
छिपाता
कभी अपनी वाचालता से
तो कभी
अपनी चुप्पियों से
मेरी चुप्पी जब
बहुत वाचाल हो जाती
तब मैं करता हूँ हत्याएं
तीन
मैं लापरवाह था
इतना की
अपनी हत्या करता
खुद के गर्दन को दबाता
साँस उखड़ने तक
चार
धोखेबाज नहीं देते धोखे
ना ही झूठे, झूठ बोलते हैं
किसी और से
सभी धोखे और झूठ एक सुंदर भाग है
वो भागते हैं अपने निज से
पांच
कमी मुझमें कुछ नहीं थी
गलतियों का पुतला भी नहीं था मैं
अपनी वाचाल चुप्पी
और चुप्पी की वाचालता के बीच
हत्याएँ करते खुद की
अनेक समझौते किये सत्ता से
मैं जी हुज़ूर होता गया
यह मेरी कमी नहीं थी
यह मेरे समय का सत्य था ।
हम एक ऐसे समय में जी रहें हैं
जहाँ भारत भाग्य विधाता का
गुणगान करते हुए
हरिचरना कब का सरग
सिधार गया है
हमने सरकारें बनायीं
फिर उसी सरकार को रहे गरियाते
इस उम्मीद में की वे सुनेंगे हमारी बात
वो भी तो हमारे बीच से आते हैं
पर उनके गणित की सत्ता
चिरंतन रही
सत्तासीन तो सत्ता में हैं ही
जो नहीं हैं सत्ता में
उनकी सत्ता भी मुक़ाबिल है
हर बार जोड़ा उन्होंने जाति का गणित
कभी धर्म कभी संख्या के बल पर
ठगते रहे
उनके गणित के हर प्रश्नों
का जबाब विजय ही रहा हर बार
चाहे वो सत्ता में रहे या विपक्ष में
वो गणतंत्र के दिन
लेते रहे भव्य सलामी
और
गणतंत्र का आखिरी आदमी
अपने आखिरी सांस को बचाने के लिए
आखिरी दम तक लड़ता रहा
गणतंत्र और आजादी के फरेब में
वो हमें बदलते रहे
और हम उन्हें बदलने का भरम पाले रहे
हमारा निशाना भी तो हमेशा से चुकता रहा
हमारी मर्यादा हमें भीम नहीं बनने दे रही थी
कि हम करें प्रहार उनके मर्मस्थलों पर
हम करते रहे वज्र पर प्रहार वज्र से
पर इस महाभारत में वे बने रहे
अभिमन्यु को घेर कर मारने वाले
कभी द्रोण, कभी भीष्म,
कभी दुर्योधन तो कभी जयद्रथ भी
इस महाभारत के अंत में
नहीं बने विजेता पांडव
राजनीति के महाभारत में
विजेता दुर्योधन ही रहा
मरती गयी पांडवों की संवेदना
वो अब किसी गरीब के लिए नहीं लगाते
जान की बाजी
चूकती संवेदना मरती आदमियत
और चारों तरफ शोर ही शोर में
उन्होंने बदल दिया गणतंत्र के मायने
हम भी कब बदल गए
पता ही नहीं चला
हरिचरना अब स्वप्न में भी नहीं आता
अब तो बस शोर है शोर ही
आपकी चुप्पी आपके जान की
सबसे बड़ी शत्रु है
आप भी शोर में शामिल हो जाइये
नहीं तो क्या पता
आपके बगल से एक उन्मादी भीड़ गुजरे
और उस शोर में दब जाए आपकी चीख
चीख जो पूरे जान लगा कर कहा होगा
अंतिम बार
शामिल हो जाइये भीड़ में
चिल्लाइये भारत माता की जय
कानफोड़ू आवाज में कहिये वंदे मातरम
आपकी स्वतंत्रता को शोर से अलग कर के
नहीं किया जायेगा मूल्यांकित
कि स्वतंत्रता भी अब एकमात्र शोर है
जश्न मनाइये कि हर गणतंत्र
हरिचरना का श्राद्ध होता रहे
हरिचरना नहीं है
अब तो बस शोर है चारो तरफ
भारत माता की जय और वंदे मातरम के उद्घोष
में हर बार मृत हो जाता है कोई इस विशाल माता का सुपूत
उसके घर का खालीपन को शोर
से नहीं भरा जा सकता
गणतंत्र ने हमे नहीं हमने
बदल दिया है शोर से गणतंत्र को
अब तो गणतंत्र मने सिर्फ
शोर
शोर, शोर, शोर, शोर, शोर
गोविन्द सेन |
तुम्हारा जन्मदिन
तुम्हारा जन्मदिन
चुप्पियों के साये में
चहलकदमी करते
मेरे मौन को खुरचता है
असावरी के कोमल ऋषभ
कि तरह आती है तुम्हारी याद
"मुंदरी मोरी काहें को छीन लई"1
कि मेरी आँखों में बसती हैं
तुम्हारी यादों की मुंदरी
तुम्हारी याद राग सोहनी है
जिसकी प्रकृति चंचल है
तुम्हारी तरह
यूँ तुम्हारी याद
जैसे राग तोड़ी में गंधार
और तुम्हारे जन्मदिन पर तुम्हारी याद
जैसे कुमार जी की धनवसंती
जो कभी पूरिया धनाश्री तो कभी वसंत का आभास
ये मेरे मौन के साथी हैं
मेरे वाचालता में भी
मेरा मौन साथ चलता है
नहीं समझ पाया जुगलबंदी को
तुमने ही तो कहा था
संगत करने से हम आत्ममोह से बचे रहते हैं
यह कैसी संगत है प्रिये
कि तुम लगातार आगे बढ़ती गयीं
और मैं ठहरा ही रहा
कभी पीछे मुड़ कर देखना
मैं यहीं इंतज़ार करता मिलूंगा
तुम्हारे जन्मदिन के दिन तक
बस तुम ही नहीं होती हो
अपने ही जन्मदिन पर ।
1 राग अड़ाना की चर्चित बंदिश
कवि और पुरस्कार
हे कवि
तुम्हारी यह कविता
बहुत अच्छी नहीं है
इसे तुम डाल दो कचरे की पेटी में
कवि
तुमने कैसे स्वीकार कर लिया
कोई पुरस्कार,
कई बेहतर कविताओं के बीच
अपनी इस वाहियात कविता पर,
इस वर्ष की कई सर्वश्रेष्ठ कविता तो मैंने लिखी है
इसी वर्ष तो तुम पर
लगे हैं कई आरोप
एक आलोचक ने एक कवि के बारे में लिखते
हुए कहा एक आलोचक के कहने पर कवि ने लिखी
है कविता में गाली
उनकी दाँव-पेंच वाली राजनीति
और रस-रंजन तुम्हारी विनम्रता पर भारी है
जब भी कोई पुरस्कृत होता है
होने लगती है कई कई व्याख्याएं
शब्दों में अनर्थ भरे जाते हैं
तुम्हारी सफलता पर
प्रश्नचिन्ह लगाये जाते हैं
जानते हो कवि
तुम्हारी सफलता पर उनकी
अनाशक्त तिलमिलाहट
कविता को मिले पुरस्कारों से ज्यादा भारी है
परिचय
कुमार मंगलम
अध्येता (हिन्दी साहित्य)
फिलहाल गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय से 'कुंवर नारायण के काव्य में दार्शनिक प्रभाव' विषय पर शोधरत ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें