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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

17 जनवरी, 2018

 पड़ताल: स्मिता सिन्हा की कविताएं

आसमानी नहीं, ऐलानी सच हैं स्मिता सिन्हा की कविताएं
 अखिलेश्वर पांडेय





अखिलेश्वर पांडेय


हाल के वर्षों में कविता जगत में जिन कुछ नामों ने तेजी से अपनी पहचान बनायी है उनमें स्मिता सिन्हा भी हैं. स्मिता का कविता-लेखन कलात्मक विनोद नहीं, एक अनिवार्य कर्म की तरह है जो उन्हें सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक मोर्चे पर एक एक्टिविस्ट की भूमिका में ले आता है. इस समय के सबसे चुनौतीपूर्ण सवाल उनकी कविताओं में बार-बार सामने आते हैं. अपने  'उदास समय' कविता में वे लिखती हैं -
यह इस उदास धरती का 
एक बेहद उदास समय है 
जब शब्दकोश खो रहे हैं लगातार 
अपने तमाम ताकतवर शब्दों को 
और तसल्ली भी विलुप्तप्राय है
बावजूद इसके 
हम खड़े होने की कोशिश में हैं 
अपने उदास सपनों के साथ 
इस बेहद उदास समय के खिलाफ. 
यह आश्वस्ति रचनाकाल और सामाजिक संरचना में हस्तक्षेप का लिखित ऐलान भी है.  'तुम्हारे वक्त की औरतें' शीर्षक कविताओं की कड़ी में वे लिखती हैं-
तुम्हारे वक्त की औरतें
बखूबी जानती हैं 
प्रेम दुनिया का 
सबसे खुबसूरत खैरात है. 
स्मिता की कविताओं का कथ्य इतना ठोस है, इतना वास्तविक और जीवंत है कि उन्हें शिल्प के नाम पर रंग-रोगन और पच्चीकारी की कोई जरूरत नहीं. कविता शब्द-दर-शब्द अपने संपूर्ण अर्थों के साथ खुलती जाती है और पाठक के साथ उसका सामान्यीकरण सहज हो जाता है. टेढ़ी-मेढ़ी बातों से पाठकों को उलझाने से दूर रहनेवाली और सहज ढंग से अपनी बात सुगमता पूर्वक कहने में विश्वास रखने वाली युवा कवयित्री 'कोई अर्थ नहीं' कविता में इसका संकेत देती हैं -
तो हर बात का कोई अर्थ हो/ ज़रुरी तो नहीं.
इस बेतरतीब वक्त में जबकि अभिव्यक्ति की आजादी छिन्न-भिन्न हो रही है. लोकतंत्र भीड़तंत्र में तब्दील होता जा रहा है. सत्य को सहारे की जरूरत आन पड़ी है. झूठ का बाजार गरम है. सामाजिक संरचना को प्रायोजित ढंग से तहस-नहस किया जा रहा है. खास तरह की बौद्धिकता को बढ़ाने का उपक्रम हो रहा है. कोई सच्चा मानुष अपनी लकुटिया थामे भ्रम के उस चौराहे पर खड़ा है जहां से उसे आगे जाने की कोई दिशा समझ नहीं आ रही है. युवा कवयित्री  स्मिता 'भीड़' कविता में आज के इस भयानक सच को रेखांकित करती हैं-
देखो उस भीड़ को 
जिन्होंने निगल लिया है अपनी आत्मा को 
या कि नियति पर अंकित अंधकार को 
देखो वे भिंची हुई मुठ्ठियां
तनी हुई भौंहे 
प्रतिशोध में लिप्त कठोर चेहरे 
और मौन,खौफ, क्षोभ 
और गहराते रक्त के खालिश ताजे धब्बे 
यह भीड़ अब नहीं समझना चाहती 
ककहरे, प्रेम या कि गीत 
उसे सब विरुद्ध लगते हैं अब...
नयी पीढ़ी के कवि/कवयित्री कविता के भाषिक और वाचिक परंपरा के पचड़े में न पड़ते हुए कथन और अपनी बात को  सटीक ढंग से कहने में ज्यादा विश्वास करते हैं. यही वजह है कि सोशल मीडिया पर उन्हें खूब पसंद किया जा रहा है. इसे कविता का सरलीकरण कहना उचित नहीं है. साधारण शब्दों में असाधारण बात कहना बड़ी कला है. स्मिता को यह  कला खूब आती है. जिन पाठकों ने उनकी 'वजह' कविता पढ़ी है, वे इसके प्रति आश्वस्त होंगे.
मैंने देखा है कि 
स्वप्न के व्यास से बाहर 
अक्सर त्याज्य मानी जाती हैं 
सारी मूर्त अमूर्त वेदनाएं
उनके होने की आश्वस्ति 
और हम अपनी ही परछाइयों की पीठ पर 
ताउम्र ढूंढ़ते रह जाते हैं 
अपने जीवन का विकल्प.
स्मिता सिन्हा ने अपने पत्रकारीय जीवन में कितने तरह के अनुभव हासिल किये हैं, यह उनकी कविताओं से जाना जा सकता है. घटनाओं, जीवन, समाज समेत अन्य बिंदुओं पर उनका दृष्टिकोण उनकी कविताओं को एक अलग नजरिये से देखने की मांग करता है. उनकी कविताओं में जीवन के कड़वापन के साथ-साथ उम्मीदों की गहरी आश्वस्ति भी है. जो पाठक के चेहरे पर न सिर्फ मुस्कान बिखेरती है बल्कि आंखों को नीले सपने से भर देती है-
सबकुछ ख़त्म 
होने के बाद भी 
तुम बचा ले जाना 
थोड़ी सी हंसी 
बस उतनी ही भर 
जितनी ज़रुरी हो 
किसी बंजर पड़ी 
धरती की नमी के लिये 
बस उतनी ही भर 
जितनी ज़रुरी हो 
आंखों भर 
नीले सपनों के लिये...
आज की युवा पीढ़ी की सबसे बड़ी टीस है विस्थापन. घर-परिवार, रिश्ते, नौकरी. सब जगह विस्थापन ही विस्थापन. पैसों के पीछे भाग रहे युवा को एक समय के बाद इस विस्थापन का दर्द सताने लगता है. तमाम शोहरत, ऐशो-आराम और मनमाफिक जीवन सुविधाएं हासिल करने के बाद भी वह खुद को अकेला और ठगा हुआ महसूस करने लगता है. क्योंकि वह अपनी जन्मभूमि, माता-पिता और अपने घर से विस्थापित होते-होते वहां पहुंच चुका होता है जहां सिर्फ वही है और कोई नहीं. कवयित्री खुद युवा हैं, इसलिए अपने जेनरेशन की इस पीड़ा को बेहतर समझ रही हैं. स्मिता की 'विस्थापन' कविता इस दर्द को बखूबी उकेरती है-
हम विस्थापित होते हैं हर रोज़ 
हम छोड़ देते हैं अपनी मिट्टी को 
और भागते है ज़िंदगी के पीछे बेतहाशा 
पर हमारी जड़ें दबी रह जाती हैं
वहीं कहीं उसी मिट्टी के नीचे   
स्मिता की कविताओं को पढ़ते हुए यह बात कहना ही होगा कि उनकी कविताएं आसमानी नहीं, ऐलानी सच की परिचायक हैं. स्मिता का यही दृष्टिकोण उन्हें एक अलग पहचान देता है. वे जिस विषय को छूती हैं उसे चलताऊ ढंग से निपटा भर नहीं देतीं बल्कि पूरा होमवर्क करने के बाद ही उसे ड्राफ्ट करती हैं. कविताओं में उनके विचार इतने सघन रूप में उभरते हैं कि सहसा विश्वास ही नहीं होता कि इतनी कम उम्र में भी उनका जीवन अनुभव इतना व्यापक है. युवा कवयित्री बिना किसी की मान्यता को छिन्न-भिन्न किये अपनी राह खुद बनाने में विश्वास करती हैं, इसीलिए सबसे अधिक खुद पर भरोसा करती हैं. अपनी एक कविता में वह इस बात की घोषणा करती हैं कि बौद्धिक शुन्यता से बाहर निकले बगैर एक-दूसरे के होने का अर्थ जानना मुश्किल है-
कोई अर्थ नहीं 
बेतकल्लुफी वाली उस साझी हंसी का 
जबकि हम हंस सकते हैं 
एकाकी हंसी कई कई बार 
हम ध्वस्त करते जाते हैं 
एक दूसरे की मान्यताओं को ,
याचनाओं को, तर्कों को 
जबकि हम खुद घिरे होते हैं 
बौध्दिक शून्यता की परिधि के भीतर 
और फ़िर ढूंढ़ते हैं 
एक दूसरे के लिये अपने होने का अर्थ.

अखिलेश्वर पांडेय
संपर्क : मकान नंबर - 14, रोड नंबर - 3, पंचवटीनगर, सोनारी, जमशेदपुर (झारखंड), पिन- 831011



स्मिता सिन्हा 
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