डॉ राकेश जोशी की गज़ले
डॉ राकेश जोशी |
एक
हर तरफ नारे लिखे हैं
बेवज़ह सारे लिखे हैं
जिसने ये धरती लिखी है
उसने ये तारे लिखे हैं
आदमी के नाम काँटे
और अंगारे लिखे हैं
यूँ भटकने के लिए तो
सिर्फ़ बंजारे लिखे हैं
बस ग़रीबों के लिए ही
सारे अँधियारे लिखे हैं
सभ्यता के नाम पर अब
गिट्टियां, गारे लिखे हैं
इस ज़मीं पर ढेर-सारे
दर्द के मारे लिखे हैं
दो
अँधेरों में भटकना चाहता हूँ
उजालों को परखना चाहता हूँ
ये अंगारे बहुत बरसा रहा है
मैं सूरज को बदलना चाहता हूँ
हवा ये क्यों अचानक रुक गई है
मैं थोड़ा-सा टहलना चाहता हूँ
कई दिन से तुम्हें देखा नहीं है
मैं तुमसे आज मिलना चाहता हूँ
मैं काँटे बन नहीं रह पाऊंगा अब
मैं फूलों-सा महकना चाहता हूँ
सड़क पर तो बहुत मुश्किल है चलना
मैं गलियों से निकलना चाहता हूँ
ये रूपया तो फिसलता जा रहा है
मैं गिरकर फिर सँभलना चाहता हूँ
तीन
ख़ुद से मिलकर लौटे तो फिर ख़ूब हँसे
जब भी घर पर लौटे तो फिर ख़ूब हँसे
चौबे जी जब चले थे छब्बे जी बनने
दूबे जी बन लौटे तो फिर ख़ूब हँसे
बड़े मदारी बनते थे वो शहर-शहर
साँप से डरकर लौटे तो फिर ख़ूब हँसे
जब भी लौटे सदा उदासी में लौटे
हँसकर जिस दिन लौटे तो फिर ख़ूब हँसे
ख़ुद को ढूंढ रहे थे जो जंगल-जंगल
बंदर से मिल लौटे तो फिर ख़ूब हँसे
दुनिया के दुःख देख के जब भी आँखों में
आँसू भरकर लौटे तो फिर ख़ूब हँसे
चार
रात फिर देर तक जगी होगी
चाँदनी छत पे सो गई होगी
मैं जिसे कल ही भूल आया था
वो मुझे याद कर रही होगी
मैंने उसको नहीं दिया धोखा
उसकी चाहत में ही कमी होगी
जिसके खेतों में थी फ़सल कल तक
उसको रोटी नहीं मिली होगी
ख़ूब पैसे बहा दिए होंगे
पर ग़रीबी नहीं मिटी होगी
वक़्त के इन उदास पन्नों पर
मेरी आँखों की भी नमी होगी
पांच
ये जनता अब न सहना चाहती है
निज़ामों को बदलना चाहती है
छतों पर जम गई है बर्फ़ शायद
हरेक दीवार ढहना चाहती है
मैं उसके दिल में रहना चाहता हूँ
वो मेरे साथ रहना चाहती है
नदी कितनी अकेली हो गई है
मेरी आँखों से बहना चाहती है
यहाँ जो ज़लज़ला
आया है फिर से
ये धरती कुछ तो कहना चाहती है
छः
बंद हैं सब इस शहर की बत्तियां
पेड़ पर भी अब नहीं हैं पत्तियां
फूल हमको हर बग़ीचे में मिले
भूख में पर याद आईं सब्ज़ियां
भूख के क़िस्से थे, तुम थे, और मैं
रास्ते में जब मिलीं कुछ बस्तियां
दम मेरा घुटने लगा था आज फिर
दूर से दिखती रहीं कुछ खिड़कियां
रात बचपन की कहानी फिर सुनी
याद आईं ढेर-सारी छुट्टियां
एक दिन दुनिया को बदलेंगी यही
आँगनों में खेलतीं ये लड़कियां
सात
तुम अँधेरों से भर गए शायद
मुझको लगता है मर गए शायद
दूर तक जो नज़र नहीं आते
छुट्टियों में हैं घर गए शायद
ये जो फ़सलें नहीं हैं खेतों में
लोग इनको भी चर गए शायद
काग़ज़ों पर जो घर बनाते थे
उनके पुरखे भी तर गए शायद
क्यों सुबकते हैं पेड़ और जंगल
इनके पत्ते भी झर गए शायद
तुम ज़मीं पर ही चल रहे हो अब
कट तुम्हारे भी पर गए शायद
उनके काँधे पे बोझ था जो वो
मेरे काँधे पे धर गए शायद
सिर्फ कुछ पत्तियाँ मिलीं हमको
फूल सारे बिख़र गए शायद
आठ
वो जो चालाकियाँ समझ पाया
उसने धोखा कभी नहीं खाया
मैंने पत्थर कभी नहीं तोड़े
तुमको लिखना कभी नहीं आया
अक़्ल का मैं बड़ा ही दुश्मन हूँ
जो न संसार को समझ पाया
ज़ुल्म वैसे तो वो भी ढाते थे
ज़ुल्म ऐसा मगर नहीं ढाया
उसकी ग़ज़लें बहुत ही अच्छी हैं
गीत लेकिन वो गा नहीं पाया
उसको डरपोक लोग भाते हैं
मेरा तेवर उसे नहीं भाया
मैंने सोचा चलो तुम्हें मिल लूँ
इसलिए मैं यहाँ चला आया
वैसे मिलने को भीख मिलती है
माँगकर खाया भी तो क्या खाया
नौ
बंद सारी खिड़कियाँ हैं, सो रही हैं
नींद में गुम बत्तियाँ हैं, सो रही हैं
तुम इन्हें परियों के सपने सौंप दो
इस तरफ कुछ बस्तियाँ हैं, सो रही हैं
किसने पतझड़ को बुलाया है इधर
पेड़ पर कुछ पत्तियाँ हैं, सो रही हैं
इक सितारा घिर गया तूफ़ान में
और जितनी कश्तियाँ हैं, सो रही हैं
याद तुमको कर रहा हूँ इस समय
क्योंकि जो मजबूरियाँ हैं, सो रही हैं
पास मेरे चंद ख़त हैं, साथ ही
ढेर सारी तितलियाँ हैं, सो रही हैं
मैं तुम्हारे ख़्वाब में गुम हो गया
बीच में जो दूरियाँ हैं, सो रही हैं
दस
लील ली धरती की तुमने हर नदी है
नाम की है हर नदी, पानी नहीं है
बाँध बनते जा रहे हैं हर नदी पर
और अब कहते हो तुम, बिजली नहीं है
खेत थे जो वो तुम्हारे हो गए हैं
दूर तक भी अब कोई चिड़िया नहीं है
पेड़, पत्ते और जंगल थे हमारे
अब कहा तुमने, हमारा कुछ नहीं है
अब बहुत बंजर हुई धरती हमारी
अब हिमालय पर कोई दरिया नहीं है
ग्यारह
हम कहाँ से हैं अब कहाँ पहुँचे
थे जहाँ, लौटकर वहाँ पहुँचे
हम कहीं पर भी तो नहीं पहुँचे
हर तरफ दर्द के निशां पहुँचे
काश, हम चाँद पर रहें जाकर
और उन तक ये दास्तां पहुँचे
ये करम कर तू दिल में हो मेरे
और तुझ तक मेरी अज़ां पहुँचे
ये दुआ है कि तेरी महफ़िल में
साथ तारों के आसमां पहुँचे
हम हवन हो गए ख़बर लेकर
तुम तलक राख और धुआँ पहुँचे
लिख दे ‘राकेश’ ऐसा कुछ कि जहाँ
तू न पहुंचे, तेरा बयां पहुँचे
बारह
ये शहर बहुत ही हसीन है
यहाँ ज़िंदगी रंगीन है
तू अपने ग़म की न बात कर
यहाँ हर कोई ग़मगीन है
कहाँ जाके सोएं ये लोग फिर
न तो आसमां, न ज़मीन है
तेरा दिल धड़कता है, बोल मत
ये जुर्म है, संगीन है
मेरा यार भूखा सो गया
पर ख्व़ाब तो बेहतरीन है
वो भला-सा, भोला आदमी
अब शहर में है, मशीन है
परिचय
डॉ. राकेश जोशी
अंग्रेजी साहित्य में एम. ए., एम. फ़िल., डी. फ़िल. डॉ. राकेश जोशी मूलतः राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, डोईवाला, देहरादून, उत्तराखंड में अंग्रेज़ी साहित्य के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. इससे पूर्व वे कर्मचारी
भविष्य निधि संगठन, श्रम मंत्रालय, भारत सरकार में हिंदी अनुवादक के पद
पर मुंबई में कार्यरत रहे. मुंबई में ही उन्होंने थोड़े समय के लिए
आकाशवाणी विविध भारती में आकस्मिक उद्घोषक के तौर पर भी कार्य किया. उनकी
ग़ज़लें और कविताएँ अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं. उनकी एक काव्य-पुस्तिका "कुछ बातें कविताओं में", दो
ग़ज़ल संग्रह “पत्थरों के शहर में”, और "वो अभी हारा नहीं है", तथा हिंदी से अंग्रेजी में अनूदित एक पुस्तक “द क्राउड बेअर्स विटनेस” अब तक प्रकाशित हुई है.
संपर्क:
डॉ. राकेश जोशी
असिस्टेंट प्रोफेसर (अंग्रेजी)
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, डोईवाला
देहरादून, उत्तराखंड
ई-मेल: joshirpg@gmail.com
फ़ोन: 9411154939
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