दमयन्ति की कविताएँ
एक 
कारवाँ इतिहास का 
नृशंस ......
गाया जाता है
सभ्यता की यात्रा
में ....
और
प्रचारित किया
जाता है मानवता की उर्धगामी यज्ञ शिखा की भाँति ...
कि 
गुजरता है ये
कारवाँ....
काल की स्याह
धमनियों से
और 
खेलता है अपना
अंक 
अधर्म ...
धर्म के वस्त्र
पहनकर 
और होता है वध
....
मनुष्य ...
मनुष्यता ...
और 
उसके प्रतिबिम्ब
का ...
कि
कारवाँ की नियति
हो जाती है
वापस आ जाना 
अपने 
पहले निशान पर
.......!!!!!
दो 
बिजली की तरह 
भयानक शक्ल वाली 
रात भर 
तुम गरजते रहे
बरसते रहे मुझ पर
और मैं
पीती रही पीड़ा अमेह 
सीती रही अपने जख्म
तुम्हारे नश्तर से 
समेटती रही किरचियों को
उस तस्वीर की .....
सहारा देती रही उस ईंट को
आधार सी जो ....
महल की 
मेरे ख्वाबों की ...
खर्च होती रही 
ख़त्म होती रही 
जिलाये रखने को वो भरम 
कि 
हो रही परिपूर्ण ,परितृप्त और सार्थक 
मैं मेरे भीतर तुम्हारे
प्रवेश से ....
पर .......
पीना चाहती हूँ
 टपकते रस को महुए से 
चुनना चाहती हूँ बदली वो
अपने पोरों से तुम्हारे नेह में भीजी हुई 
कहना था ऐसा कहा अनकहा 
पर 
अटक सा जाता है कुछ नमक
की डली सा 
और अंदर ही जब्त हो जाता
है कोई समंदर सा फड़फड़ाता हुआ !!!!!!
तीन 
ये...
असबाब 
जो ढोये जा रहे तुम...
उतार कर 
क्यों .....
रख नही देते 
कि ..
तुम ..
"तुम "हो जाओ
यह ..
तुम्हारे "तुम"
होने की 
ज़रूरी शर्त है !!!!
चार 
अलविदा एक सच है
 जुड़ा नए सच  के इस्तकबाल का
अलविदा एक सच है पंक्षी
को आसमान पाने के लिए जमीं से  जानें का
अलविदा एक सच है तेरे
जानें का और मेरे आने  का
अलविदा एक सच है एक लय के
टूटने का दूसरी लय से जुड़ने का 
अलविदा एक सच है चाँद के
डूबने का सूरज के निकलने का
अलविदा एक सच है पतझड़
गुजरने का बसंत उगने का ....
अलविदा एक सच है हर सच के
छूटने का .....
अलविदा एक सच है ........
पांच 
रात ठहरी है मिरे लबों पे
आहिस्ता -आहिस्ता  
आ तिरी पेशानी पे सौ चाँद
उगा दूँ ।
छह
आज निकला है चाँद 
अपनी गोल सुराही लेकर 
झख दूधिया सुख सा ,
आज पिएंगे सारे छककर
 रौशनी के जाम,
ऐ चंदा !
कुछ बूँदे उधार  दो
ना 
हमारे घर के पिछवाड़े वाली
उदास झील को 
बांटो ना राग मेरी मुँड़ेर
पर गाती कोयल को
हमारे बगीचे के बौराये आम
भी मिठास माँग लेंगे तुमसे.
मेरे पिछवाड़े का बूढ़ा
पीपल अपनी झरती टहनियों के लिए गुलाबी कोपलें उधार लेना चाहता है
और 
चंदू जी !
मेरे मन का गुलाबी मौसम
लाना ना भूलना ।
सात 
तृप्त हो जाना चाहता है
मन.
उँगलियों की पोर आँखें बन
जाएं तुम्हारी
और पढ़ लें मेरे हर पुर्जे
को 
जिसमें मेरे स्थाई पर
अधूरे अतृप्त प्रेम की विरासत दर्ज है .
रंगमंच हो जाना चाहती है
ये देह 
जहाँ नाटक का हर वो अंक
खेला जाए 
कि अनादि काल से हर अधूरी
इच्छा तृप्ति के कालातीत समय में दर्ज हो जाए .
सम्पूर्ण सृष्टि हो जाना
चाहती हूँ 
महसूस सकूँ हर चकवे -
चकवी  का  अनन्तकालीन  क्रन्दन 
कि सुन सकूं भैरव का अनादिकालीन
श्रृंगी नाद .
तुम सुन सको तो
 सार्थक करो  मुझे 
पूर्णता का एहसास करा कर 
कि मेरी रूह रास्ता भटक
जायेगी इस एक एहसास के बिना
कौन जाने कि ठीक से
मुनासिब न हो  इस जन्म में मर पाना.
मैं प्रेम के बीज पाना
चाहती हूँ  तुमसे 
गुत्थियों को सुलझाने की
उलझन या कला नहीं .
एक बस एक लेकिन पूर्ण पल
में तुम्हारी  मौजूदगी  चाहिए
कि मौत के आगोश में जा
सकूं
ताज़िन्दगी उस का अनुवाद
करते हुए अपने प्रेम की भिन्न -भिन्न भाषाओं में .
आठ 
सारी रात झूमा किया चाँद,
सितारों ने जमघट लगाई
अब पस्त पड़ा है चाँद ,कि नशे में धुत हैं सितारे सारे.
इक पखवाड़े में उतरेगी
सुस्ती चाँद की और झरेगी खुमारी सितारों की.
चांदनी  खिल उठेगी
  फिर और बेलिया महक - लहक जाएगी
बना देगी जमीं को आसमान
की झालर, हरसिंगार की शबनमी कतरन 
तुम्हारे आने की ख़ुशी
में.
देखो आम बौरा गया है कि 
तुमने रौशनी के हाथ भेजी
पाती .
नौ 
फड़फड़ाता है मन
पेपरवेट के नीचे दबे
पन्नों की तरह
उड़ने को व्याकुल !
दस 
तू हर्फ़ - हर्फ़ सूरज सा,मैं कतरा -कतरा दरिया सी
तू मुझमें उतरता हुआ 
समाती हुई मैं तुझमें.
सूत सी ख्वाहिश इक
बुनूं मैं चदरिया तेरी
पिघलती हुई रश्मियों से.
तू पहने मेरी चाहत को 
मैं ओढूँ तेरे यौवन को 
है ये नादाँ सा शबब ,
तू किलक उठे मुझमें ,मैं जी उठूँ तुझमें .
दमयन्ती गंगवार ,
उत्तर प्रदेश सरकार में
वाणिज्य कर अधिकारी के पद पर  कार्यरत .
सिनेमा,संगीत और साहित्य में रूचि.
 




 
 
बहुत ख़ूबसूरत कविताएँ। मुझे अच्छी लगीं। इनमें नारी-मन धड़कता है, लेकिन समाज को भी भूली नहीं हैं दमयन्ति - "खेलता है अपना अंक / अधर्म ... / धर्म के वस्त्र पहनकर / और होता है वध .... / मनुष्य ... / मनुष्यता ... / और / उसके प्रतिबिम्ब का ...।" ये कविताएँ पढ़कर यह भी मालूम होता है कि कवि बहुत भावुक है और अपनी उस भावुकता को अभिव्यक्त करना जानती है। चाँद को सम्बोधित छठी कविता मुझे प्रिय लगीम जहाँ कवि कहती है - "चंदू जी ! मेरे मन का गुलाबी मौसम लाना ना भूलना।" दमयन्ति को हार्दिक शुभकामनाएँ। ऐसे ही लिखती रहें।
जवाब देंहटाएंसर बेहद आभार .मेरी कविताओं पर इतनी विस्तृत टिप्पणी के लिए.
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