नागराज मंजुले की कविताएं
मराठी से हिन्दी अनुवाद: टीकम शेखावत
कविताएँ
धूप की साज़िश के खिलाफ़
इस सनातन
बेवफ़ा धूप
से घबराकर
क्यों बन रही हो तुम
एक सुरक्षित खिड़की की
सुशोभित बोन्साई!
एवं
बेबसी से मांगती हो.... छाया.
इस अनैतिक संस्कृति में
नैतिक होने की हठ की खातिर......
क्यों दे रही हो
एक आकाशमयी
मनस्वी विस्तार को
पूर्ण विराम!
तुम खिल
क्यों नहीं जाती
आवेश से
गुलमोहर की तरह.....
धूप की साज़िश के ख़िलाफ़.
दोस्त
एक ही स्वभाव के
हम दो दोस्त
एक दुसरे के अजीज़
एक ही ध्येय
एक ही स्वप्न को जीने वाले
कालांतर में
उसने आत्महत्या की
और मैंने कविता लिखी.
मेरे हाथो में न होती लेखनी
मेरे हाथो में न होती लेखनी
तो....
तो होती छीनी
सितार...बांसुरी
या फ़िर कूंची
मैं किसी भी ज़रिये
उलीच रहा होता
मन के भीतर का
लबालब कोलाहल.
‘क’ और ‘ख’
क.
इश्तिहार में देने के लिए
खो गये व्यक्ति की
घर पर
नहीं होती
एक भी ढंग की तस्वीर.
ख.
जिनकी
घर पर
एक भी
नहीं होती ढंग की तस्वीर
ऐसे ही लोग
अक्सर खो जाते हैं.
जनगणना के लिए
जनगणना के लिए
‘स्त्री / पुरुष’
ऐसा वर्गीकृत कागज़ लेकर
हम
घूमते रहे गाँव भर
और गाँव के एक
जटिल मोड़ पर मिला
चार हिजड़ो का
एक घर
मैं किताब ही धारदार करता हूँ
अकेला हूँ मैं
और इस निर्दयी संसार में
अकेले दुकेले इन्सान को
अपनी रक्षा हेतु
रखना चाहिए कुछ...
इसलिए साथ रखता हूँ किताब
कही भी रहूँ मैं,
किताब होती है साथ
नहीं पढ़ रहा होता हूँ
तब भी
लेटा होता हूँ उसे सीने पर रखकर
प्रेयसी की तरह
समय असमय,
मुझे अकेला पाकर
धावा बोलती शून्यता के लिए
मैं किताब ही धारदार करता हूँ ..तलवार की तरह
तुम बोल सकती हो
तुम बोल सकती हो, मनचाहे सटीक शब्द
मेरी कविता से झूठाएँ होठों से
बता सकती हो होठों पर पड़े निशानों की
कहानी कोई और
तुम नकार सकती हो
जनकत्व
मेरे भीतर के खालीपन का
पगली को नामालूम स्वयं के फुले गर्भ जैसा
जीर्ण पीपल के पत्ते पर नहीं ठहरते
उँगलियों के निशान
ख़त तुम्हारे अब भी हैं मेरे पास
परन्तु लिखते लिखते अब
बदल ही गई होगी लिखावट तुम्हारी
इतनी क्रूर समझ आ ही गई होगी तुम्हें
कि
बलात्कार का रहस्य
नहीं करता उजागर मृत गर्भाशय
तुम पूछ सकती हो मुझसे मेरी नई पहचान
मैं मृतदेह की खुली आँखों में पर्दानशीन एक आशय
प्रश्न
किसी के बाप बन जाने की
खुशखबर सुनकर
कोई हिजड़ा
नाचते नाचते,
कहाँ जाएगा
सूर्योदय का वर्णन सुनकर
कोई जन्मांध
क्या देख सकेगा!
तुम अब
तुम
अब
मेरे लिए
जैसे
आत्महत्या का
कोई ख़त पुराना सा
स्पर्शातुर अबोध काँटों को
स्पर्श के लिए आतुर
अबोध कांटे
नहीं जानते
हेतु के जंतु
दरअसल काँटों को सहलाना
सदा ही
होता है खतरों से भरा....
फिर से कहोगे
ऐसा अपेक्षित न था
तुम्हारे आने से पहले एक ख़त
छत्रपति शिवाजी पुल तक ही
तुम्हारी फ़ोर व्हीलर आ सकेगी!
आगे की ओर झोपड़पट्टी तक
अब भी एक संकरी पगडंडी ही
सीध में
कूड़े के ढेर से निकलकर आगे की ओर आती है.
पुल पर से देखोगी तब
नगर निगम के सार्वजनिक शौचालय के समीप
जिन जर्जर टीन-पतरों का धड़ पीछे समां गया है
वैसे बौने से मकान
खाली माचीस के गुबार समान नज़र आएंगे.
तुम्हें मन और संतुलन दोनों संभालकर
आगे की ओर आना होगा.
आगे आओगी तब मिलेंगे
चिंघाड़ते स्पीकर
शराब के ठेके पर उलझे संवाद
व
तिकड़मबाजों, मियां बीवी के रोज़ वाले विवाद!
कुछ एक गालियाँ भी तुम्हारे कानो में आएगी...शायद
शरम मत करना!
फटेहाल कुछ छोटे बच्चे
तुम्हें कुतूहल से देखेंगे!
वो बच्चे जिनके रास्ते खो गए हैं
उन्हीं से मेरे घर का रास्ता पूछ लेना!
तुम्हारे परफ्यूम की खुशबू से चाल महक जाएगी
उन बच्चो के पीछे तुम जिस रास्ते से आओगी
संभवतः उस रास्ते पर पीछे से लोग इकट्ठे हो जायेंगे
घबराना म़त!
जब तुम बड़ी सी गटर पार कर लोगी
तब दिखेगा
स्वप्नपुर्ती बिल्डर्स की विशालकाय होर्डिंग्
के खम्बों के सहारे
टिका मेरा घर.
आओगी मेरे दस बाय दस के घर में
तब
मेरी भोली भाली माँ करेगी
अपनी हैसियत संभव स्वागत!
रहूँगा बनियान-तौलिये में मैं
जलता-बूझता हमारा चूल्हा
और स्याह काली चाय
आल इन वन-घर हमारा!
...यह सब
आखों में देखकर तुम्हारे
कि तुम्हें आ रही है घिन
विवश हो जाऊंगा मैं
घृणा करने खुद से ही.....
तुम्हें मुझसे बेहद प्रेम है
तुम्हारे ‘डेड’ मुझे नया नवेला भविष्य भी खरीद के दे ही देंगे
ठीक हैं
परन्तु....
मैं खुद से घृणा करने लगु
इतनी मेहरबानी मत करना मुझ पर!
हो सके
तो मत आना मेरे गरीबखाने पर....
तुमने जो सपने देखे हैं
वे इस ज़मीन पर पनप नहीं पाएंगे...
और बोन्साय हो जाना मुझे स्वीकार नहीं!
ले जाओ तुम
तुम्हारे सपनों के बीज!
खोज लो एक नई उर्वर ज़मीन
मेरी यह बंजर ज़मीन
कभी न कभी गर्भवती होगी ही
यहाँ भी फूल खिलेंगे
सपने पुरे होंगे....
किन्तु तब तक
मुझे मेरे सपनों को खाद और पानी देना होगा
मुझे उसी में जुट जाना होगा
मेरे अपने निस्तेनाबुद लोगों की खातिर.....
मैं छाव ढूंढता हूँ.
एक निर्मम दोपहरी
घूम घामकर आ जाता है बाप
सुलगते हुए...
धूप की ही तरह .
सवाल पूछ रही हैं
हम बच्चों की उम्मीद भरी गीली आँखे
और उसकी आँखों से
टपक रही है ज़माने भर की धूप
जब सांस छोड़ता है
तो उड़ता है
प्रस्थापित पगडंडियों का रास्ता
बंजर व धुल भरा
तपी हुई ज़मीन की दरारे
जैसे देखती हैं आकाश को
वैसे ही बाप देखता है मेरी ओर
तब
मैं छांव तलाशता हूँ
इस निर्धारित निराशामयी पुस्तक में!
परन्तु धीमे धीमे
यही भ्रष्ट धूप
फैल गई है मेरे भी मस्तिष्क में
पर्याय
मैंने खोजना चाहा पर्याय प्रेमिका का
और मैंने खोजना चाहा पर्याय माँ का
मैंने खोजना चाहा पर्याय अकेले ही भटकते रहने का
दारुण दुःख का और निर्दयी खालीपन का
मैंने खोजना चाहा पर्याय अकेले में आँसू बहाने का
मैंने लोगो के बीच घुलमिल कर रहा
दोस्त बनाये
आदतें बदल के देखी
और बदला समय सोने-जागने का
मैंने खुद को डुबो के देखा शराब के प्याले में
कई सारे व्यसन कर के देखे
छान दिए प्रदेश
भटकते रहा अच्छी बुरी गलियों में
एवं जो भी मिली
उस किताब के पन्ने पन्ने छान दिए प्रेम से
मैंने समा कर देखा आत्मीयता से
हर तरह के व्यक्ति के भीतर
फ़िर भी नहीं मिला
मेरे काँटों भरे जीवन जीवन का पर्याय
मैंने जी कर देखा
मैंने मर कर देखा
मेरे जीने मरने का नहीं है
कविता के सिवा और कोई पर्याय
नागराज मंजुले सिनेमा की दुनिया का एक सशक्त युवा सितारा हैं जिसने बहुत कम समय में दर्शको के दिलों मे घर कर लिया हैं। फिल्म 'पिस्तुल्या' के उन्हें को 2010 में 58वां नेशनल फिल्म अवॉर्ड मिल चुका है। इसके अलावा फिल्म 2013 में फिल्म 'फैंड्री' के लिए उन्हें नेशनल अवॉर्ड और इंदिरा गांधी अवॉर्ड, बेस्ट फर्स्ट फिल्म अवॉर्ड मिल चुका है। 2016 में ही सैराट फिल्म को 69 वें नेशनल अवॉर्ड से नवाजा गया है। इसके साथ ही वे मराठी के जाने माने कवि भी हैं। उनका काव्यसंग्रह ‘उन्हाच्या कटाविरुध’ (धूप की साज़िश के खिलाफ़) ख़ासा चर्चा मे रहा है।
इन कविताओं का मराठी से हिंदी अनुवाद किया है टीकम शेखावत ने. टीकम शेखावत टाइम्स ऑफ़ इंडिया, पुणे के ह्यूमन रिसोर्स डिपार्टमेंट में डिप्टी चीफ मैनेजर हैं. इसके अलावा वे कवि, अनुवादक एवं फ़िल्म समीक्षक भी हैं.
संपर्क : ई-पत्र tikamhr@gmail.com
मराठी से हिन्दी अनुवाद: टीकम शेखावत
नागराज मंजुले |
कविताएँ
धूप की साज़िश के खिलाफ़
इस सनातन
बेवफ़ा धूप
से घबराकर
क्यों बन रही हो तुम
एक सुरक्षित खिड़की की
सुशोभित बोन्साई!
एवं
बेबसी से मांगती हो.... छाया.
इस अनैतिक संस्कृति में
नैतिक होने की हठ की खातिर......
क्यों दे रही हो
एक आकाशमयी
मनस्वी विस्तार को
पूर्ण विराम!
तुम खिल
क्यों नहीं जाती
आवेश से
गुलमोहर की तरह.....
धूप की साज़िश के ख़िलाफ़.
दोस्त
एक ही स्वभाव के
हम दो दोस्त
एक दुसरे के अजीज़
एक ही ध्येय
एक ही स्वप्न को जीने वाले
कालांतर में
उसने आत्महत्या की
और मैंने कविता लिखी.
मेरे हाथो में न होती लेखनी
मेरे हाथो में न होती लेखनी
तो....
तो होती छीनी
सितार...बांसुरी
या फ़िर कूंची
मैं किसी भी ज़रिये
उलीच रहा होता
मन के भीतर का
लबालब कोलाहल.
‘क’ और ‘ख’
क.
इश्तिहार में देने के लिए
खो गये व्यक्ति की
घर पर
नहीं होती
एक भी ढंग की तस्वीर.
ख.
जिनकी
घर पर
एक भी
नहीं होती ढंग की तस्वीर
ऐसे ही लोग
अक्सर खो जाते हैं.
जनगणना के लिए
जनगणना के लिए
‘स्त्री / पुरुष’
ऐसा वर्गीकृत कागज़ लेकर
हम
घूमते रहे गाँव भर
और गाँव के एक
जटिल मोड़ पर मिला
चार हिजड़ो का
एक घर
मैं किताब ही धारदार करता हूँ
अकेला हूँ मैं
और इस निर्दयी संसार में
अकेले दुकेले इन्सान को
अपनी रक्षा हेतु
रखना चाहिए कुछ...
इसलिए साथ रखता हूँ किताब
कही भी रहूँ मैं,
किताब होती है साथ
नहीं पढ़ रहा होता हूँ
तब भी
लेटा होता हूँ उसे सीने पर रखकर
प्रेयसी की तरह
समय असमय,
मुझे अकेला पाकर
धावा बोलती शून्यता के लिए
मैं किताब ही धारदार करता हूँ ..तलवार की तरह
तुम बोल सकती हो
तुम बोल सकती हो, मनचाहे सटीक शब्द
मेरी कविता से झूठाएँ होठों से
बता सकती हो होठों पर पड़े निशानों की
कहानी कोई और
तुम नकार सकती हो
जनकत्व
मेरे भीतर के खालीपन का
पगली को नामालूम स्वयं के फुले गर्भ जैसा
जीर्ण पीपल के पत्ते पर नहीं ठहरते
उँगलियों के निशान
ख़त तुम्हारे अब भी हैं मेरे पास
परन्तु लिखते लिखते अब
बदल ही गई होगी लिखावट तुम्हारी
इतनी क्रूर समझ आ ही गई होगी तुम्हें
कि
बलात्कार का रहस्य
नहीं करता उजागर मृत गर्भाशय
तुम पूछ सकती हो मुझसे मेरी नई पहचान
मैं मृतदेह की खुली आँखों में पर्दानशीन एक आशय
प्रश्न
किसी के बाप बन जाने की
खुशखबर सुनकर
कोई हिजड़ा
नाचते नाचते,
कहाँ जाएगा
सूर्योदय का वर्णन सुनकर
कोई जन्मांध
क्या देख सकेगा!
तुम अब
तुम
अब
मेरे लिए
जैसे
आत्महत्या का
कोई ख़त पुराना सा
स्पर्शातुर अबोध काँटों को
स्पर्श के लिए आतुर
अबोध कांटे
नहीं जानते
हेतु के जंतु
दरअसल काँटों को सहलाना
सदा ही
होता है खतरों से भरा....
फिर से कहोगे
ऐसा अपेक्षित न था
तुम्हारे आने से पहले एक ख़त
छत्रपति शिवाजी पुल तक ही
तुम्हारी फ़ोर व्हीलर आ सकेगी!
आगे की ओर झोपड़पट्टी तक
अब भी एक संकरी पगडंडी ही
सीध में
कूड़े के ढेर से निकलकर आगे की ओर आती है.
पुल पर से देखोगी तब
नगर निगम के सार्वजनिक शौचालय के समीप
जिन जर्जर टीन-पतरों का धड़ पीछे समां गया है
वैसे बौने से मकान
खाली माचीस के गुबार समान नज़र आएंगे.
तुम्हें मन और संतुलन दोनों संभालकर
आगे की ओर आना होगा.
आगे आओगी तब मिलेंगे
चिंघाड़ते स्पीकर
शराब के ठेके पर उलझे संवाद
व
तिकड़मबाजों, मियां बीवी के रोज़ वाले विवाद!
कुछ एक गालियाँ भी तुम्हारे कानो में आएगी...शायद
शरम मत करना!
फटेहाल कुछ छोटे बच्चे
तुम्हें कुतूहल से देखेंगे!
वो बच्चे जिनके रास्ते खो गए हैं
उन्हीं से मेरे घर का रास्ता पूछ लेना!
तुम्हारे परफ्यूम की खुशबू से चाल महक जाएगी
उन बच्चो के पीछे तुम जिस रास्ते से आओगी
संभवतः उस रास्ते पर पीछे से लोग इकट्ठे हो जायेंगे
घबराना म़त!
जब तुम बड़ी सी गटर पार कर लोगी
तब दिखेगा
स्वप्नपुर्ती बिल्डर्स की विशालकाय होर्डिंग्
के खम्बों के सहारे
टिका मेरा घर.
आओगी मेरे दस बाय दस के घर में
तब
मेरी भोली भाली माँ करेगी
अपनी हैसियत संभव स्वागत!
रहूँगा बनियान-तौलिये में मैं
जलता-बूझता हमारा चूल्हा
और स्याह काली चाय
आल इन वन-घर हमारा!
...यह सब
आखों में देखकर तुम्हारे
कि तुम्हें आ रही है घिन
विवश हो जाऊंगा मैं
घृणा करने खुद से ही.....
तुम्हें मुझसे बेहद प्रेम है
तुम्हारे ‘डेड’ मुझे नया नवेला भविष्य भी खरीद के दे ही देंगे
ठीक हैं
परन्तु....
मैं खुद से घृणा करने लगु
इतनी मेहरबानी मत करना मुझ पर!
हो सके
तो मत आना मेरे गरीबखाने पर....
तुमने जो सपने देखे हैं
वे इस ज़मीन पर पनप नहीं पाएंगे...
और बोन्साय हो जाना मुझे स्वीकार नहीं!
ले जाओ तुम
तुम्हारे सपनों के बीज!
खोज लो एक नई उर्वर ज़मीन
मेरी यह बंजर ज़मीन
कभी न कभी गर्भवती होगी ही
यहाँ भी फूल खिलेंगे
सपने पुरे होंगे....
किन्तु तब तक
मुझे मेरे सपनों को खाद और पानी देना होगा
मुझे उसी में जुट जाना होगा
मेरे अपने निस्तेनाबुद लोगों की खातिर.....
मैं छाव ढूंढता हूँ.
एक निर्मम दोपहरी
घूम घामकर आ जाता है बाप
सुलगते हुए...
धूप की ही तरह .
सवाल पूछ रही हैं
हम बच्चों की उम्मीद भरी गीली आँखे
और उसकी आँखों से
टपक रही है ज़माने भर की धूप
जब सांस छोड़ता है
तो उड़ता है
प्रस्थापित पगडंडियों का रास्ता
बंजर व धुल भरा
तपी हुई ज़मीन की दरारे
जैसे देखती हैं आकाश को
वैसे ही बाप देखता है मेरी ओर
तब
मैं छांव तलाशता हूँ
इस निर्धारित निराशामयी पुस्तक में!
परन्तु धीमे धीमे
यही भ्रष्ट धूप
फैल गई है मेरे भी मस्तिष्क में
पर्याय
मैंने खोजना चाहा पर्याय प्रेमिका का
और मैंने खोजना चाहा पर्याय माँ का
मैंने खोजना चाहा पर्याय अकेले ही भटकते रहने का
दारुण दुःख का और निर्दयी खालीपन का
मैंने खोजना चाहा पर्याय अकेले में आँसू बहाने का
मैंने लोगो के बीच घुलमिल कर रहा
दोस्त बनाये
आदतें बदल के देखी
और बदला समय सोने-जागने का
मैंने खुद को डुबो के देखा शराब के प्याले में
कई सारे व्यसन कर के देखे
छान दिए प्रदेश
भटकते रहा अच्छी बुरी गलियों में
एवं जो भी मिली
उस किताब के पन्ने पन्ने छान दिए प्रेम से
मैंने समा कर देखा आत्मीयता से
हर तरह के व्यक्ति के भीतर
फ़िर भी नहीं मिला
मेरे काँटों भरे जीवन जीवन का पर्याय
मैंने जी कर देखा
मैंने मर कर देखा
मेरे जीने मरने का नहीं है
कविता के सिवा और कोई पर्याय
नागराज मंजुले सिनेमा की दुनिया का एक सशक्त युवा सितारा हैं जिसने बहुत कम समय में दर्शको के दिलों मे घर कर लिया हैं। फिल्म 'पिस्तुल्या' के उन्हें को 2010 में 58वां नेशनल फिल्म अवॉर्ड मिल चुका है। इसके अलावा फिल्म 2013 में फिल्म 'फैंड्री' के लिए उन्हें नेशनल अवॉर्ड और इंदिरा गांधी अवॉर्ड, बेस्ट फर्स्ट फिल्म अवॉर्ड मिल चुका है। 2016 में ही सैराट फिल्म को 69 वें नेशनल अवॉर्ड से नवाजा गया है। इसके साथ ही वे मराठी के जाने माने कवि भी हैं। उनका काव्यसंग्रह ‘उन्हाच्या कटाविरुध’ (धूप की साज़िश के खिलाफ़) ख़ासा चर्चा मे रहा है।
इन कविताओं का मराठी से हिंदी अनुवाद किया है टीकम शेखावत ने. टीकम शेखावत टाइम्स ऑफ़ इंडिया, पुणे के ह्यूमन रिसोर्स डिपार्टमेंट में डिप्टी चीफ मैनेजर हैं. इसके अलावा वे कवि, अनुवादक एवं फ़िल्म समीक्षक भी हैं.
संपर्क : ई-पत्र tikamhr@gmail.com
टीकम शेखावत |
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