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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

30 दिसंबर, 2018

मैं क्यों लिखता हूँ:


मैं इस नशे का आदी हो चुका हूँ।

 आनंद हर्षुल


लिखने की लगभग अड़तीस बरस की उम्र गुजार देने के बाद, ‘मैं क्यों लिखता हूँ ?‘ यह सोचना, अब बहुत ही उलझन भरा है। इतना उलझन भरा कि इस प्रश्न को, अपने भीतर खोजने के प्रयास में, अपने ही भीतर भटक जाने की संभावना अब ज्यादा रह गयी है। एक लंबे समय के बाद, अपने सोचे हुए में से, बचे हुए को जब मैं देखता हूँ तो अचंभित रह जाता हूँ। सोचे हुए में से जो बचा है, वह अपरिचित-सा बचा है। बचा है मुझे चौंकाता और अचंभित करता। एक हद तक दुखी करता-सा बचा है...



आनंद हर्षुल 

सन् उन्नीस सौ अस्सी के आसपास मैंने लिखना शुरू किया था या उससे कुछ पहले ही और उस समय मुझे लगता था कि मैं एक बड़ा काम कर रहा हूँ। अपने बीस-इक्कीस बरस की उम्र में, मैं अपने लिखे को लेकर बड़े स्वप्नों में था। बड़ी उम्मीदें थीं। उन दिनों, दुनिया सिकुड़ कर इतनी छोटी नहीं हुई थी, जितनी आज दिख रही है, पर मेरे स्वप्न में जो मेरे लेखक बनने से उपजा था--दुनिया छोटी ही थी, इतनी कि मेरी हथेली पर आ गयी थी। मैं एक संकोची लेखक था। मितभाषी। मुझे बस अपने लिखे पर भरोसा था। संपादकों से मिलना-जुलना पसंद नहीं था। मैं दो-तीन वाक्यों के पत्र के साथ, संपादकों को अपनी रचना भेजता था, जिसमें रचना का भेजा जाना ही इंगित हो पाता था। रचना पर निर्णय लेने के लिए, संपादक का रचना को पूरा पढ़ना जरूरी हो जाता था। पर मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई। मेरी पहली कहानी सोमदत्त जैसे संपादक ने बहुत ही सम्मान के साथ ‘साक्षात्कार‘ में छापी। मैंने कहानी का शीर्षक रखा था-‘बैठ हुए हाथी के भीतर का लड़का‘। सोमदत्त जी ने मुझे पत्र लिखा कि अगर आपकी सहमति हो तो कहानी के शीर्षक से ’का’ को हटा देते हैं। इस तरह मेरी पहली कहानी का शीर्षक बना- ‘बैठ हुए हाथी के भीतर लड़का‘। यह बात, यहाँ इसलिए उल्लेखनीय है कि सोमदत्त जी एक नए लेखक की पहली कहानी के  शीर्षक से ‘का‘ शब्द हटाने के लिए, उससे पूछ रहे थे। वे रचना का सम्मान कर रहे थे। जाहिर है कि अप्रत्यक्ष रूप में, इसमें एक नए लेखक के लिखे का सम्मान और एक अप्रतिम संपादक की अद्भुत संपादकीय दृष्टि--दोनों ही शामिल थे।




तो जो एक अच्छी शुरूआत होती है, वह तुरंत आपकी आदत बन जाती है। रचना में शब्द के सम्मान की आदत जो मेरे भीतर थी, वह बनी रह गयी। मेरे एक कहानीकार मित्र ने, मेरी पहली कहानी को पढ़ कर कहा था कि तुम कहानी में एक-एक वाक्य को जितनी सावधानी से रचते हो, कहानी लिखने में उसकी जरूरत नहीं है। यह तो कविता की रचना प्रक्रिया है। शायद वे ठीक कह रहे हों। मैं कविता से कहानी में आया था और मेरे रचने में कविता का स्वभाव बचा रह गया था। मेरे युवा कहानीकार मित्र, उप संपादक भी थे, पर मैं उनकी बात समझ नहीं पाया था और कहानी लिखते हुए, एक-एक वाक्य में सावधान बना रह गया था। अब लगता है कि मैंने ठीक ही किया था कि अब अपने लिखे को लेकर, एक तरह की संतुष्ठि मेरे भीतर है। उनकी बात मैं मान लेता तो शायद इसे मैं खो देता। पता नहीं आगे लिख पाता भी की नहीं। पर इसका दुष्प्रभाव यह हुआ कि मेरे कहानी लिखने का औसत बहुत कम हो गया। वह मेरी संतुष्ठि और आलस्य पर टिक कर, साल में एक कहानी का रह गया।

जाहिर है यह कोई अच्छा औसत नहीं है। पर अब मैं कुछ नहीं कर सकता हूँ। मैंने एक-एक कहानी के लिए, एक-एक वर्ष देकर, कई वर्ष खो दिए हैं। इस तरह मैंने बाद के दिनों में कई संपादकों को नाराज कर दिया है। मैं आज तक कोई कहानी पंद्रह दिन में नहीं लिख पाया हूँ, एक माह में भी नहीं, चार माह में भी नहीं... इस तरह यह कहा जा सकता है कि मुझे ठीक-ठीक कहानी लिखना नहीं आता है, बस मैं उसे साधने की कोशिश करता रहता हूँ। मेरा सौभाग्य है कि मेरी इस कोशिश को, सोमदत्त, ज्ञानरंजन, राजेन्द्र यादव, कमला प्रसाद, हरिनारायण...जैसे संपादक मिलते रहे हैं और मैं, कहानीकार बचा रह गया हूँ।




लेखन के अपने प्रारंभिक दौर में, मेरे स्वप्न में जो था जाहिर है, वह मैं अपने पूर्वज और समकालीन लेखकों के बीच से गुजरते हुए ही सोच रहा था। मस्तिष्क में यह साफ था कि ऐसा लिखा और सोचा जाए, जैसा लिखा और सोचा न गया हो। बिलकुल अलग। यथार्थ को चारों ओर से देखने की कोशिश की जाए। और जब मैंने यह कोशिश की तो पाया कि यथार्थ के पास जाओ तो वह हवा में थोड़ा ऊपर उठ जाता है। तुम किसी परिंदे की तरह उड़ते हुए, यथार्थ को सभी दिशाओं से देख सकते हो। देख सकते हो जैसे पृथ्वी के चारों ओर घूमते ग्रह, देखते हैं पृथ्वी को। यथार्थ के इस जादू को, मैं अपने लिखने के प्रारंभिक दौर से ही महसूस कर रहा हूँ। कर रहा हूँ महसूस आज अड़तीस साल बाद भी। यही वह जादू है जो मुझे लिखने-पढ़ने की दुनिया में अब तक स्थिर बनाए रखा है।

  यथार्थ के साथ मेरा यह रिश्ता तो अब तक बना हुआ है, पर ‘मैं क्यों लिखता हूँ ?‘ इस प्रश्न पर, अब धुंध गहरा गयी है। जब मैंने लिखना शुरू किया था, तब जो धुंध थी अपने लिखने को लेकर--वह समझ की धुंध थी जो लिखना-पढ़ना शुरू करते ही, एक युवा लेखक ने अपने भीतर रची थी। दरअसल वह एक स्वप्न-धुंध थी। इतने बरसों में अब वह स्वप्न- धुंध छट गयी है। मेरे भीतर के इस प्रारंभिक स्वप्न-धुंध को, मेरे लिखने-पढ़ने के अड़तीस बरसों में, हिंदी के रचना समाज ने ही, मेरे भीतर से हटा दिया है। यह किसी नन्हे बच्चे की हथेली में बैठी तितली के उड़ जाने-सा ही है कि बच्चा हथेली में तितली के वापस आने को इंतजार करता, आसमान की ओर देखता, बूढ़ा हो गया है। उसे पता ही नहीं है कि जो तितली उसकी हथेली से उड़ी थी, वह कब की मर चुकी है...


   


मैं क्यों लिखता हूँ ? जब मैं यह जानता हूँ कि मैं अपने और अपने जैसे हिंदी के लेखकों के लिए लिख रहा हूँ। मेरी रचना के जो थोड़े-बहुत पाठक हैं तो वे हैं जो या तो लेखक हैं या लेखक होने के प्रयत्न में हैं। शुद्ध-पाठक नदारद है। इस देश में जिनकी मातृभाषा हिंदी है, वे भी अंग्रेजी के पाठक है। हमारे यहाँ अंग्रेजी फैशन की भाषा है। इसे इस तरह समझ सकते हैं कि हमारे हिंदी समाज को, अंग्रेजी किताब पकड़ा हाथ जितना सुंदर और अभिजात्य प्रतीत होता है, हिंदी की किताब पकड़ा हाथ, उतना ही असुंदर और दरिद्र प्रतीत होता है। हिंदी की किताबें हमारे हाथ से छूट गयी हैं। दरअसल, शुद्ध-पाठक, हिंदी भाषा के पास से नदारत होता जा रहा है। यह एक हिंदी के लेखक के रूप में मेरी स्वाभविक चिंता का विषय है। जब मैं हिंदी के पास  से, हिंदी के गर्व को खोता देख रहा हूँ। देख रहा हूँ कि मैं जिस भाषा का लेखक हूँ, वह लगातार सिकुड़ती जा रही है। यह सिर्फ उपनिवेश वाद से जन्मी समस्या भर नहीं है, इसकी जड़ें हमारे भीतर के सांस्कृतिक विचलन के भीतर भी है। हमने जाने कब से अपनी परंपरा को देखना और उस पर गर्व करना छोड़ दिया है। हम हिंदी भाषी, सांस्कृतिक पतन के सबसे अच्छे उदाहरण हैं।
 
 मैं क्यों लिखता हूँ ? जब मेरा आसपास भी यह नहीं
जानता कि मैं हिन्दी का लेखक हूँ। अगर जानता भी है तो एक हिंदी के लेखक के आसपास होने पर, उसे कोई गर्व नहीं है। मुझे पढ़ा तो मेरे आसपास ने बिलकुल नहीं है। मेरे परिजन तक मुझे शायद ही पढ़ते हैं। मैंने अपने जिन परिजनों को अपनी किताबें समर्पित की हैं और आत्मीयता से भेंट की हैं, वे उन्हें शायद ही पढ़  पाए हैं। पर वे मेरी किताबों को अपने घरों में, दिखने की जगह पर रख भी नहीं पाए हैं।  पता नहीं, उन्होंने मेरी किताबों को, घर के किस कोने में कहाँ फेंक दिया है। डाल दिया है, घर के किस कोने में पता नहीं। जानता हूँ कि मेरे अपनों ने भी, मुझे पढ़ा तो नहीं ही है, रखा भी नहीं है--सम्मानजनक जगह पर।

 
मैं क्यों लिखता हूँ ? जब हिंदी भाषी प्रचूर आबादी के बावजूद, आज तक इतनी रेल, बस, हवाई यात्रा में, मुझे अपनी किताब पढ़ता कोई आदमी नहीं दिखा है। मेरी किताब छोड़िए, हिंदी की कोई भी किताब पढ़ता आदमी एक दुर्लभ दृश्य है। यह स्थिति तब है, जब सन् 2001 की जनगणना के अनुसार इस देश के 41.1 प्रतिशत लोगों की मातृभाषा हिंदी है और 53.6 प्रतिशत लोगों की यह बोलचाल की प्रथम या द्वितीय भाषा है। जाहिर है कि स्थिति बहुत दयनीय है और इसने हिंदी  के लेखक को भी बहुत दयनीय बना दिया है। अभी हाल ही में हिंदी के एक प्रतिष्ठित लेखक ने अपनी किताब की बिक्री का आंकड़ा पाँच सौ से कुछ अधिक होने पर, फेसबुक में इस बात का उत्सव मनाया है, क्योंकि इससे पहले उनकी कोई किताब पाँच सौ से अधिक नहीं बिक पायी थी। यह हाल तब ह,ै जब वे एक प्रतिष्ठित और बहुपठित कथाकार-उपन्यासकार हैं। इससे कविता-पुस्तक की बिक्री संख्या का अनुमान आप सहज लगा सकते हैं। मैंने सुना है कि अधिकांश हिंदी के कवियों को अपनी किताब स्वयं के व्यय पर छपानी पड़ती हैं। कहानीकारों को तो प्रकाशक बिना पैसा लिए छाप देते हैं। जब कहानी-उपन्यास की बिक्री संख्या कभी-कभार ही पांच सौ से अधिक छू पाती है तो कविता की किताब की बिक्री संख्या का आप सहज ही अंदाज लगा सकते हैं।


 



 मैं क्यों लिखता हूँ ? जब मैं यह पाता हूँ कि लिखने के लिए मेरा नौकरी करना जरूरी है। मैं उस भाषा का लेखक हूँ, जिसमें लिखा मुझे साल भर का खाना-कपड़ा भी नहीं दे पाता है। मेरी एक किताब से साल भर में मुझे जो रायल्टी मिलती है, वह इतनी हास्यास्प्रद है कि मैनें रायल्टी का मजाक उड़ाने के लिए, उस राशि से स्काच की बोतल खरीदनी शुरू कर दी है। आप हँस सकते हैं इस बात पर कि मुझे साल भर में इतनी रायल्टी मिलती है कि मैं स्काच की दो बोतल एक साल में खरीद पाता हूँ। स्काच की इन दो बोतलों के लिए, मैं हमेशा अपनी नौकरी को दाँव पर लगाता रहा हूँ। मैं अपनी नौकरी में इस तरह रहा कि झमाझम बारिश में पेड़ के नीचे खड़ा हूँ, बारिश के बंद होने का इंतजार करता। यह मनाता कि बारिश के साथ-साथ गिर न जाए, बिजली इस पेड़ पर, जिसके नीचे मैं खड़ा हूँ और बारिश के बंद होने के बाद मैं जा सकूँ जीवित अपने घर। घर में अपने लिखने की टेबल तक पहुँच सकूँ। अगर आप ठेठ लेखक हैं। नौकरी में भी पहले लेखक हैं, बाद में मुलाजिम तो बिजलियाँ आपके ऊपर, गिरती रहती हैं। मेरे उच्च अधिकारियों को मुझसे हमेशा शिकायत रही कि मैं साहब को साहब नहीं समझता हूँ और वे हमेशा मुझसे नाराज रहे। नौकरी हमेशा मेरे लिए कठिन बनी रही। पर मुझे खुशी है कि दिन-रात अपनी नौकरी में साँस लेने वाले उन बेवकूफों को मैने अपना साहब नहीं समझा। हमेशा अपने भीतर लेखक गर्व को बनाए रखने का सुख मेरे पास रहा। यह कभी मेरे भीतर नहीं रहता, अगर जैसा मैं नौकरी में अब तक रहा--बिजली और बारिश में भींगता, उससे थोड़ा भी हटकर रहता। पर आप सोच सकते हैं कि साल भर में दो स्काच की बोतल के एवज में, मेरे लेखक ने अपनी नौकरी से जो खेल किया है, वह कतई बुद्धिमानी का खेल नहीं है। पर मुझे इसका कोई दुख नहीं है। मेरे लिखने ने, मुझे बहुत हद तक अच्छा और सच्चा बनाए रखा है।

 
मैं क्यों लिखता हूँ ? जब हिंदी के प्रतिष्ठित लेखक और आलोचक, दो कौड़ी के अधिकारी-लेखकों को अपने त्वरित लाभ के लिए, महान लेखक सिद्ध करने में तुले रहते हैं। हिंदी समीक्षा तो उनके चरणों पर गिरी पड़ी है। आप देखें कि एक अधिकारी-लेखक की एक औसत किताब पर, जितनी समीक्षा पत्रिकाओं में प्रकाशित होती है, उस संख्या का दस प्रतिशत भी एक अच्छी किताब पर समीक्षा नहीं आ पाती है। दरअसल एक अधिकारी को खुश करने में संपादक, समीक्षक और लेखक, सभी का लाभ है। हिंदी के बहुत से आयोजन, इन तथाकथित अधिकारी लेखकों के बूते ही संभव होते हैं।



   

मैं क्यों लिखता हूँ, जब मैं जानता हूँ कि जिनके बारे में मैं लिखता रहा हूँ, रचता रहा हूँ जिनकी कथाएं--मेरे लगातार उन पर लिखे जाने के बावजूद, उनका जीवन बद से बदतर होता चला गया है। मैं जिनके पक्ष में लिखता रहा हूँ, उनके लिए मेरे लिखे से, किसी अत्याचारी के चेहरे पर एक सिकन तक नहीं उभरी है। अत्याचारी मुस्कुराते हुए, मेरे लिखे को देख रहा है। अत्याचारियों के पास मेरी शब्द-गालियों को (जो मैंने अपनी रचनाओं में उन्हें बकी है) फूल में बदल देने की ताकत है। मैं सोचता हूँ कि मैं क्यों लिखता हूँ, जब इतने बरसों से लगातार लिखते रहने के बावजूद, अपने शब्दों को हथियार में बदलने की ताकत मैंने अब तक अर्जित नहीं की है।

    यह सब सोचते हुए, मुझे कायदे से लिखना छोड़ देना चाहिए, पर मैं लिखता हूँ शायद इसलिए कि मुझे लगता है कि मैं अपने समय के यथार्थ को पूरी तरह समझ नहीं पाया हूँ। वह बार-बार हवा में उठता है और बदलता है बार-बार। जैसे ही मुझे लगता कि मैं अब उसे समझा गया हूँ, वैसे ही वह बदल जाता है। वह बार-बार मेरे हाथ से फिसल जाता है। बार-बार वह मुझे चुनौती देता है कि लो अपने लिखे में मुझे पकड़ो। सच यही है कि एक लेखक और यथार्थ के बीच का यह जो खेल है, उसे मैं जारी रखना चाहता हूँ। आप समझ सकते हैं कि यह खेल एक नशे की तरह है और अब मैं इस नशे का आदी हो चुका हूँ।
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4 टिप्‍पणियां:

  1. आनंद की बढ़िया टिप्पणी जो हिंदी जगत में व्याप्त दुषेचक्रों की कड़ी ख़बर लेता है,और एक लेखक की असहायता की भी।
    अंतिम पैरा सचमुच एक बुनियादी सरोकार को सामने लाती है।

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  2. आनंद की बढ़िया टिप्पणी जो हिंदी जगत में व्याप्त दुषेचक्रों की कड़ी ख़बर लेता है,और एक लेखक की असहायता की भी।
    अंतिम पैरा सचमुच एक बुनियादी सरोकार को सामने लाती है।

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