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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

12 अक्टूबर, 2024

माला कुमारी की कविताऍं

 




     






 


व्यथा


  श्रांत -क्लांत -सा  मन

जैसे बरसों से है उदास। 

इस मशीनी जिन्दगी में

वृथा नेह की  आस।


    हृदय  मानो हो  गया

    गंधहीन  पुष्प  -सा।

    संबंधों को तोलती है

    आज अर्थ  की तुला।


तुलसी  की देहरी पर

जलते नहीं दीप क्यों?

आँगन  में आरती के

सजते नहीं गीत क्यों?


     संवेदनाएँ  क्यों मर गईं?

     प्रेम की लड़ियाँ बिखर गईं। 

      स्वार्थ, दंभ  की  भावना 

       रोम-रोम  में भर गई। 


सब दूर-दूर हैं चल रहे

हाथ हम किसका गहें?

सुनेगा कौन अपनी ?

व्यथा हम ,किससे कहें?


         दो


       लाॅन्ग  कोट

(दिवंगत  पति के जन्मदिन  पर)


एक ही बरस बीता है

सब कुछ वैसा ही है

सिर्फ तुम  नहीं हो।


अलमारी में काला लाॅन्ग  कोट

धुला हुआ , तहाकर  रखा है

तुम्हारी टी-शर्ट, कमीज, पैंट,

भागलपुरी तसर का कुर्ता-बंडी,

सिल्क  की प्रिंटेड चादर 

और डल वाला ओढ़ना।


.मेज पर घड़ियाँ,रिमलेस चश्मे,गाॅगल्स, 

मोबाइल, टेलीफोन डायरी कलम के साथ 

जो तुम्हें बेहद  पसंद  थे।

तुम  मोबाइल  में नंबर सेव नहीं कर पाते थे।


तुम्हारे इस्तेमाल की सारी 

प्रिय चीजें ज्यों की त्यों रखी हैं।

दिसंबर की ठंड में जैसे ही खोली अलमारी,

कलेजा धक् से रह गया।

तुम्हारा  काला लाॅन्ग  कोट देखकर 

तुम्हारी छवि बिजली-सी कौंध  गई। 


एक ही दिन पहना था तुमने

आज भी याद है तुम्हारी

आँखों की चमक,गालों से फूटती हँसी

गर्व से कहा था यह कोट पहनकर

'ब्रिगेडियर 'लग रहा हूँ न?

और सोचो तो तुम्हारा 'किंग ' भी।


फौरन मित्र को फोन लगाया

मूठ वाली स्टिक लेकर टहलने निकले

जिसने देखा,तारीफों के पुल बाँधे--

'यह काला कोट तो बड़ा शानदार  है।"


"बड़े बेटे ने दिया है

बाबा को बहुत मानता है।"

यह बोलते हुए  कितनी खुशी

और गर्व  से भरे थे तुम!

मेरा मन भी कम आह्लादित न था!


मैंने कहा -"इसे जोगकर मत रखना

जाड़ेभर रोज पहनकर निकलना।"

"रोज! इतना महँगा कोट?नहीं

विशेष अवसरों पर पहनूँगा।

कितना गर्म, हाईस्टैन्डर्ड कोट है!

धुलाई में भी बङा खर्च  है।

बेटे ने शौक से दिया है

इसे सँभालकर नए जैसा रखूँगा।"


काश ! तुम और पहन पाते

इतना सँजोकर  न रखते।

मैं देख पाती अपने 'ब्रिगेडियर'

अपने 'किंग ' को काले लाॅन्ग कोट में

जो उसकी पर्सनैलिटी को इतना सूट करता था।

०००


           तीन 


              रोटी

          


रोटी-रोटी  बस रोटी

मेरी आँखों में है रोटी

मेरे सपनों में है रोटी

मैं  भूखा हूँ--

मुझे चाहिए  बस दो रोटी।


मैं क्या जानूँ

सरवर, में कब कमल खिला?

कब नभ के फैले वितान पर

सतरंगी इंद्रधनुष निकला।


मैं क्या जानूँ

भ्रमरों का गुंजन? 

मेरे कानों में गूँज रहा

शिशु का करुण  क्रंदन।  


मैं क्या जानूँ

अमराई  की  कोयल  की कूक?

दो जून की रोटी जुटा लूँ

सीने में बस उठती हूक।


मैंने ग्रीष्म की ज्वाला देखी

'तुमने' शीतल  मधुमास को।

तुमने भविष्य  के स्वप्न सँजोए 

मैं तड़पा रोटी की आस को।


फुटपाथ  पर सोया

बार-बार  नींद  से चौंका।

सामने ऊँचे भवन में 

कोई  झबरा कुत्ता भौंका।


भींगता रहा बारिश में

सर्दी  में मेरी चमड़ी ठिठुरी

चमड़े की कोट  पहन गाड़ी में

'तुम'करने निकले हवा खोरी।


है कुदाल  मेरे हाथों में

यह बढ़ती खाई पाटूँगा। 

उठाऊँगा कागज-कलम भी

आज जरा मैं ले लूँ रोटी।

  ०००


     चार


      सखी

     

वह सामने खङी थी

अनेक वर्षों बाद सहसा।

मुझे भौंचक देख कहा--

"मैं तुम्हारी बाल सखी नेहा।"


विह्वल  हो मुझे गले लगाया

मुझे जैसे काठ  मार गया।

जबरन उसे अपने से छुड़ाया

पर बाबरी मेरा हाथ  पकड़ बोली--

पहचाना नहीं मेरी गुड़िया?

भूल गई बचपन का वर्षों का साथ?


शब्दों में थी स्नेह की चाशनी,


हाथों में प्रेम की उष्णता और मृदुलता

पर मेरे हाथ थे शुष्क और कठोर 

भावशून्य चेहरा,हृदय में संवेदनहीनता।


भूल गई कि होश सँभाला जबसे

दाँत काटी  रोटी थी  उससे।

साथ खेलना-कूदना,स्कूल जाना,

संग-संग पूजा पर्व-त्यौहार मनाना।


मुझे प्यार  से गुङिया कहती

उँगली पकड़ रास्ता पार कराती।

बुरी बलाओं से मुझे बचाती,

मेरी सखी 'संरक्षिका' बन जाती।


कैसे भूल गई कि मेरा सिर गोद में रखकर 

मुझे लिटाती,बालों से जुएँ निकालती।

कभी सिर में तेल की मालिश  कर,

मेरे लम्बे केश धोती,सँवारती।

माँ की मार  के डर से कितनी बार बचती

मैं उसकी गोद में सुख की नींद  सो जाती।


पर आज मैं इतनी 'माॅडर्न ,सभ्य और संभ्रांत  हूँ

कि उसे एक पल के लिए  भी नहीं झेल सकती।

यह काली , असभ्य , गँवार स्त्री

मेरी सखी कदापि नहीं हो सकती।

धूल में मिलाने मेरी  प्रतिष्ठा

यह बुरी बला कहाँ से आ टपकी?


प्यार की सौगात  लाई थी,मेज पर रख दी

'ले जाओ  इसे'-- मैं बरबस चीख पड़ी थी।

"देकर कोई  चीज  लौटाते नहीं हम"

कहती हुई  वह घर से बाहर  निकल गई। 

मैंने चैन की साँस  ली, द्वार  किया बंद

उसे जाते हुए  देखने की जरूरत ही कहाँ थी?

०००

      


 पॉंच 


          इंतज़ार 


ऐसे रूठते हैं भला?

मीत भी हो,प्रीत भी

तुम प्रणय  का नवगीत भी

फिर  मुझसे कैसा है गिला?


वसंत  ने दी है दस्तक 

आ रही तुम्हारे कदमों की आहट

न करो देर, अब आ भी जाओ

चलने दो उल्फत  का सिलसिला।


भाता है तुम्हें जो मेरा शृंगार 

खुली अलकें,आँखों में काजल 

अरुण अधर,पाँवों में पायल 

देखो!तुम्हारी यादों से मेरा रूप है खिला।


सारी चीजें हैं तुम्हारी पसंद  की

चावल और मावे की पिट्ठी

मीठे श्रीफल,मलाई  मिष्टी

बढ़ेगा स्वाद, तुम्हारा साथ  जो मिला।


याद है, जब हम बैठे थे छत पर!

सर्द  हवा का बेरहम झोंका कर गया

मेरे हाथों को ठंडा,तब तुमने--

हथेलियों की गर्माहट  से दिया था सहला।


शीश मेरा हो तुम्हारे  वक्ष पर

आ जाओ  आँखों में नींद  बनकर

छा जाओ  मधु स्वप्न  बनकर

कौन जाने?ये वक्त  फिर मिला न मिला?


जाने कैसा आवेग उठा है तन-मन  में!

कैसी ये टीस? कैसी विकलता ?

कुछ पल हर लो अकेलेपन की व्यथा

पुकारती है आज लक्ष्मण  की उर्मिला।

       

        छः


      वह भी माँ है


एक  पगली

गंदे चीथड़ों में लिपटी

झबरे बाल जटाओं जैसे

धूल भरा तन,सूरत मटमैली

सङक पर रोज सुबह 

चक्कर  लगाती हुई  दिखती है।


गोद में उसके होता है

एक नन्हा- सा शिशु

बड़ा मासूम,सुन्दर!

कभी मों की लटों को छूता

कभी उसके गालों को चूमता

माथा झुकाकर माँ की आँखों में

आँखें डालकर  देखता और मुस्कुराता है।


पगली लगातार  बङबड़ाती हुई 

मेरे घर की सड़क पर आगे-पीछे

तेजी से चलती रहती है।

उसके बोल समझ  नहीं आते

पर चेहरे पर कभी क्रोध, 

कभी आँखों में छलकते अश्रु

कभी ठठाकर  हँसती है।


आस-पास के लोगों ने बताया

दुख की मारी,विक्षिप्त है बेचारी।

पति ने दूसरी औरत बिठा रखी है

इसे घर  से  मार  भगाया और

गोद से बच्चा भी छीन लिया।


यह सारी रात घर के बाहर 

बैठी चीत्कार  करती रही।

दरवाजे पर लगातार 

पत्थर  फेंकती रही।

उधर बच्चे का करुण क्रंदन सुन

अपने सीने पर बेसाख्ता

मुक्के  मारती  रही।


हारकर पति ने बच्चा गोद में दिया।

बच्चा माँ की छाती से चिपक  गया।

मैं विस्मय-विमुग्ध  हूँ..

कि शिशु   दुखियारी  माँ की गोद में

इतना खुश !इतना महफूज है!

कोई पुकारे तो माँ के कलेजे से सट जाता है।

फिर धीरे से आँखें खोल मुआयना करता है।


एक टाट लगाकर,सब्जी मंडी के निकट  

वह बच्चे को लेकर  रहती है।

बच्चे को चुमकारती,आँचल से पोंछती

सजाती - सँवारती है।

खुद मलिन,बच्चे को निर्मल  रखती है।

आँखों में काजल,माथे पर काला टीका लगाती है।

भिक्षा माँग झाड़ू-बुहारू कर

बच्चे के लिए  बिस्कुट  खरीदती है।

कहाँ से आता है उसके वक्ष  मैं इतना दूध!

कि ममता का अमृत पान कराती है।


माँ की गोद शिशु की जन्नत  है,

माँ की ममता उसकी मन्नत  है।

वह दुखिनी,अभागिनी,पगली है

पर वह भी एक बच्चे की माँ है।

वात्सल्य  के वैभव से समृद्ध  

एक अनूठी माँ है !

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