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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

20 अक्तूबर, 2024

कैलाश मनहर की कविताऍं


(एक)

डर


दिल को जकड़े रहता है हमेशा 

दिमाग़ पर हावी रहता है 

उठते हुये हाथों में कांपता है

चलते हुये पाँवों में थरथराता है 






चित्र मुकेश बिजौले






आँखों पर अँधकार की तरह छाया रहता है 

कानों में दहाड़ की तरह गूँजता है 

नाक में जमा रहता है बर्फ़ की तरह

त्वचा पर चाबुक की तरह लगता है हर दम


हथेलियों में भरे भरे हुये दर्द-सा

पगथलियों में उड़ती हुई गर्द-सा

विचारों में किसी अज्ञात सहम की तरह 

सोच में अनावश्यक वहम की तरह


सीने में बना रहता है सुलगन की तरह

पेट में हमेशा ऐंठन की तरह

कूल्हों पर टीसता है फोड़े की तरह

पीठ पर लगातार पड़ते कोड़े की तरह


वह श्वाँसों में रहता है प्राय:

उच्छवांसों में रहता है 

निश्वाँसों में रहता है 

क्रोध और विनम्रता में भी


नींद में दु:स्वप्न की तरह रहता है दुर्दमनीय 

जाग में कर्कश कोलाहल की तरह असहनीय 

जीवन को जो मृत्यु की तरह लगता है 

मृत्यु से जो बच बच कर भगता है


पाने के लिये भुरभुरी-सी प्रतीक्षाओं में

खो जाने की अधमरी-सी आशंकाओं में

बना रहता है काल में अकाल में

छाया रहता है जवाब में सवाल में


प्रतिक्षण उससे बचना चाहते हैं 

उसके विरुद्ध कुछ रचना चाहते हैं 

लगता है कि जब भी मरेंगे वास्तव में

मृत्यु से नहीं किसी डर से मरेंगे 

*****


(दो)

बड़े कवि और मैं

बड़े कवि मुझे नहीं जानते किन्तु 

जब भी बाज़ार जाता हूँ टूटी चप्पल गंठवाने

वह किशना मोची मुझे पहचान जाता है और 

कहता हुआ कि "आओ कवि जी" 

टाट को झाड़ कर बैठाता है अपने पास और 

चप्पल सुधारने के बाद रखता है 

पाँवों के पास और मैं देता हूँ उसे पाँच रुपये 

तो बहुत कठिनाई से लेता है वह


बड़े कवि मुझे नहीं जानते किन्तु 

जब मैं अपनी कमीज़ रफ़ू करवाने जाता हूँ

तो देवू दर्जी मुझे अच्छे-से पहचान जाता है

कि "आओ महाराज" कहते हुये 

स्टूल पर बैठाता है और दो चाय मंगवा कर

साथ साथ चाय पीते हुये करता

रहता है कमीज़ को रफ़ू और इस्तरी कर के 

मुझे पकड़ा देता है तह की हुयी 

और बहुत ना-नुकर के बाद देने देता है वह

मुझे चाय वाले को सोलह रुपये 


बड़े कवि मुझे नहीं जानते किन्तु 

जब मैं फावड़े का हत्था लगवाने जाता हूँ 

तो गुरमीत बढ़ई देखते ही पहचान लेता है 

और निकट रखे लकड़ी के लठ्ठे 

को साफ़ कर "आओ जी बैठो" कहते हुये 

कीकर की लकड़ी का लगा कर

मज़बूत और सुघड़ हत्था बहुत संकोच से 

लेता है वह सिर्फ़ चालीस रुपये 


बड़े कवि मुझे नहीं जानते किन्तु 

जब कभी खुरपे पर धार लगवाने जाता हूँ 

तो गफ़ूर लुहार मुझे पहचान जाता है और 

"आओ जी शाइर साहब" कहता

निहाई के पास रखे खाली पीपे पर गमछा 

बिछा कर बैठाता है मुझे मुस्काते

खुरपी को तपा कर पैनी धार लगा देता है

और "आप तो हमारे अपने ही हैं"

कहता हुआ मना कर देता है कुछ लेने से 

किन्तु मैं पकड़ा देता हूँ दस रुपये 


बड़े कवि मुझे नहीं जानते किन्तु

वह स्त्री मुझे अच्छी तरह जानती है जिसे

पीट रहा था उसका पति और मैं

चीखें सुन कर पहुँच गया उनके घर में कि

लताड़ कर पति को छुड़ाया उसे

जब कभी लगती है दोपहर में मुझे प्यास

वह स्त्री पिला देती है ठण्डा जल

और मैं उसके सिर पर हाथ फिरा देता हूँ

कि हंसती हुई वह देखती है मेरे चेहरे पर

"बहुत सुधर गये हैं वे" कहती हुई


बड़े कवि मुझे नहीं जानते किन्तु 

अच्छी तरह जानते हैं मुझे वे तमाम लोग

जिनके पास मैं आता जाता रहता हूँ और 

जो मुझे मेरे अपने से ही लगते हैं 

****


(तीन)

स्मृतियों में


मूँगियां पगड़ी लगाये रहते थे सीत्या बाबा

छड़ी के सहारे चलते हुये 

जब वे मुहल्ले से गुज़रते 

और सीताराम चोट्टा बोल कर भाग जाता 

जब कोई बच्चा,तो छोड़ छड़ी एकदम से

पत्थर उठाने लपकते कि

बुढ़ापा भाग जाता था उनसे बहुत दूर कि

सीत्या बाबा गालियाँ देने 

लगते,बच्चे की सात पीढ़ियों को लगातार


दो लाँग की धोती बाँधते थे बंशी महाराज

सदैव बड़बड़बड़ाते रहते

और जैसे ही कोई कहता 

मोठ कांई भाव छैं बंशी महाराज,तान कर

मुक्का,ऐसे दौड़ते उसके पीछे कि जवानी

लौट आई हो जैसे देह में 

कि चीखने लगते ज़ोर-ज़ोर से जोड़ने को 

उसकी माँ-बहिन से शुध्द अश्लील रिश्ता 


बनियान-पज़ामा में डोलता रहता था रामू

मांग कर पी लेता था वह

किसी से भी चाय,लेकिन

जैसे ही कोई पूछ बैठता रामेश्वरी भाभी के

हालचाल,कि ऐसे शर्माता

जैसे नवोढ़ा शर्माये पहली 

रात के बारे में पूछने पर,सखियों के समक्ष 


याद आ गये आज सहज

रूप से वे चरित्र कि क्या कभी मुझे भी तो

याद नहीं किया जायेगा इस तरह कि ओह

कितना तो पागल था वह

लेकिन प्रेमी भी तो था ना

****


(चार)


प्रेम--1


दिन में कई बार 

चक्कर लगाता था वह गली में

और वह किंवाड़ की ओट से देखा करती थी हमेशा

वह टकटकी लगाये रहता था उसके चेहरे पर 

तो हल्की-सी मुस्कराहट आ ही जाती थी 

उसके होंठों पर


वह अक्सर ही

जामुनी फूलों वाला पीला सूट पहने रहती थी 

और वह सफ़ेद पतलून के साथ 

बैंगनी कमीज़ 


एक दूसरे की पसंद के सभी रंग और

आँखों की चमक 

वे बहुत अच्छी तरह पहचानने लगे थे 


फिर पता नहीं कि कब और कहाँ

उसकी शादी हो गई

और वह पढ़ने चला गया शहर में 


उसे जामुनी फूलों वाले पीले सूट में 

हर कोई वही लगती और उसे 

हर किसी में दिखा करता वही 

सफ़ेद पतलून और बैंगनी कमीज़ में 


हो गये होंगे बीस-बाईस वर्ष कि त्रिवेणी के मेले में

पटवा बाज़ार की एक दूकान पर

सुखद संयोग बना कि वह ख़रीदने आई थी बटुआ

और वह भी आ गया उधर घूमते 

कि हतप्रभ से खड़े रह गये दोनों देख कर वही रंग 


"देखो तो ! 

अभी भी नहीं बदली है मैंने अपनी पसंद"

दोनों के मुँह से निकल पड़ा मुस्कराते हुये 

एक साथ

****


(पाँच)


प्रेम-2


बूँदाबांदी शुरु होते ही 

आँखों में झिलमिलाने लगते हैं ख़्याल 

जब नदी किनारे वाले 

टीले पर से लौट आई थी वह छोड़ कर

कितनी ही अधूरी बातें 


क्या वह अब भी उस ओर जाता होगा

छत पर खड़ी सोच रही है वह

नीम में फूट रहीं होंगी कोंपले वसंत में 

कि टोहता तो होगा ही उसको 

लाता होगा शायद कच्ची इमलियाँ भी


ओह!याद ही नहीं रहा 

कि सूखते कपड़े समेटने आई थी वह 

छत पर और ऐसे खोई 

ख़्यालों में कि फिर गीले हो गये सभी 

और नैन भी तनिक-से 

*****

(छह)

प्रेम--3


रात भर महकती रही होगी चमेली

कुछ नव पल्लव फूटे होंगे नीम की टहनियों पर

पीपल से बहती रही होंगी शीतल हवायें रातभर

शहतूत में भरती रही होगी मिठास


याद करती रही होगी कोई विरहिन अपने प्रियतम को

रात भर दमकता रहा होगा कनेर

गूँजता होगा कोई लोकगीत ढोलक की थापों के साथ


रात भर चहकता रहा होगा कोई पक्षी

आज़ादी के सपने देखता रहा होगा रात भर कोई बच्चा

भटकता रहा होगा रात भर एक आवारा प्रेमी प्रतीक्षा में

रात भर जागता रहा होगा बेचैन कवि 


रात भर उमगता रहा होगा प्रेम प्रपात

पतझड़ के बाद वसंत के आगमन की उम्मीद में

रात भर खिलती रही होगी ज्योत्सना 

******


(सात)
सत्य अब झूठ हो गया 


हमारा गाँव
नदी तट पर बसा हुआ है 
यह सत्य अब झूठ हो गया है
और माधववेणी नदी 
बहती हुई जा कर मिलती है 
रामगढ़ बाँध में यह सत्य भी झूठ हो गया है 
कि एशियाड खेलों की नौकायन प्रतियोगिता 
रामगढ़ बाँध में हुई थी 
यह सत्य भी लगभग झूठ 

हो गया है 

नदी नहीं है अब और 
माधववेणी शब्द भी निरर्थक-सा लगता है 
और रामगढ़ बाँध भी लगभग 
अस्तित्वहीन हो चुका है 
जबकि बड़े ही गर्व से कहतीे है युवा पीढ़ी
कि राष्ट्रीय राजमार्ग पर 
बसा है हमारा कस्बा 

मैं महामूर्ख ढूँढ़ रहा हूँ गाँव 
और नदी तथा माधववेणी शब्द के निहितार्थ 
और पिच्यासी फुट भराव वाला रामगढ़ बाँध
और एक भूला हुआ पाठ

झूठ हो गया है 
कि नदी घाटियों में पनपी थी
हमारी सभ्यता 
****


(आठ)
पता नहीं

पता नहीं वह कैसा और कहाँ होगा
शाम को देखा था उसे चाय की गुमटी पर
फटे हुये बनियान और पायजामे में

दीवार से सट कर बैठा था और जब
प्लास्टिक के कप में चाय पकड़ी थी उसने
बहुत देर तक तापता रहा था हथेली

पता नहीं कैसा और कहाँ होगा वह 
अभी जब 
ओले पड़ रहे हैं इस उतरते माघ में 

मैं रजाई ओढ़े दुबका हुआ हूँ बंद कमरे में 
और पता नहीं 
कैसा और कहाँ होगा वह बिना ओढ़े इस
घनघोर रात में 
ओह मुझे नींद क्यों नहीं आ रही आख़िर
****

(नौ)

चाहना

दृश्य में उभरती है घर की ड्योढी में 
बाँई तरफ़ चाकी पीसती हुई माँ
गुनगुना रही है कोई विहानिया गीत

गोदी में लेटा हुआ लगभग 
दो वर्ष की उम्र का बालक

चाकी के गरण्ड में गिर रहा है गुनगुना चून
माँ की गोदी के गुनगुनेपन की तरह
विहानिया गीत की लय से समबध्द 
कितनी निश्चिन्त और सुहावनी है यह नींद

अड़सठ की उम्र में चाहना वैसी ही नींद
कितना तो मूर्खतापूर्ण
किन्तु चाहना तो चाहना ही है हरेक रात 

सोचता हूँ कि अन्तिम नींद भी आये
माँ की गोद में सिर रखे हुये
जब मैं देखता होऊँ जीवन का स्वप्न
***



परिचय

जन्म:- 02 अप्रेल 1954,पता:-स्वामी मौहल्ला, मनोहरपुर (जयपुर-राज.),पिन कोड :- 303104,मोबाइल नम्बर :- 09460757408,राजस्थान शिक्षा विभाग में अध्यापक पद से सेवानिवृत्त  

प्रकाशित कृतियाँ :-(1)कविता की सहयात्रा में, (2)सूखी नदी, (3)अवसाद पक्ष, (4)उदास आँखों में उम्मीद,(5)अरे भानगढ़

तथा अन्य कविता में,(6)हर्फ़ दर हर्फ़, (7) मध्यरात्रि प्रलाप ,(8)चयनित कवितायें, (9)उतरते इक्कीस के दो महीने,  (10)काल-अकाल,  (सभी कविता संग्रह) तथा (1)मेरे सहचर::मेरे मित्र (रेखाचित्रात्मक संस्मरण), (2) दो महीने बारह दिन (वैचारिक अनुच्छेद) लगभग सभी राष्ट्रीय पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित एवं आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से भी प्रसारण।राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ से सम्बन्ध । सम्प्रति--स्वतंत्र लेखन


2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर कविताएं सब

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  2. "बडे कवि और मैं" यही अंतर मनहर जी को अन्य कवियों से विशिष्ठ करता है।

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