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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

03 अक्टूबर, 2024

दिविक रमेश की कविताएँ


यह कौन-सी भूमि है


एक अपाहिज

शरीक है मज़ाक उड़ाने में

एक और अपाहिज का


एक झूठा

एक और झूठे का

कर रहा है पर्दाफ़ाश।


एक भ्रष्ट

दूसरे भ्रष्ट की

कर रहा है जाँच।


एक षड्यंत्र

कर रहा है टिप्पणी

दूसरे षड्यंत्र पर।


एक पेड़

खुश है

दूसरे के कटने पर।

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चाहें तो जाँच लें


गोली उसी ने दागी थी

जिसने कल चाकू चलाया था

और परसों

जिसके पास कोरी जबान थी।


‘गोली उसी ने दागी थी’

एक आदमी अपवाद की तरह चिल्लाया था

बार-बार चिल्लाया था

और बस यही चिल्लाया था।

जाँच हुई और पता चला

चाकू भी चला था

और चली थी गोली भी।

दागने वाला पर अज्ञात था

चलाने वाला भी अज्ञात था

और फाइल बंद कर दी गई थी


वह तीन कोट पहने

एक आदमी के पड़ोस में

मजे से रहता रहा

और पता चला है वार्षिक भविष्यफल से

कि आगे भी रहता रहेगा मजे से।

एक आदमी जो चिल्ला सकता था

चुप हो जाएगा

और सम्मिलित हो जाएगा उसी गिरोह में

जहाँ संलग्न है हर कोई

अपना-अपना सुख चाटने में

और कभी-कभार

अपने ही गिरोह के सदस्य पर

फ़र्जिया गुर्राने में।


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चिड़िया का ब्याह


चिड़िया की

बारात नहीं आती

चिड़िया परायी

नहीं हो जाती

चिड़िया का हेज नहीं सजता

चिड़िया को शर्म नहीं आती

तो भी

चिड़िया का ब्याह हो जाता है

चिड़िया के ब्याह में पानी बरसता है

पानी बरसता है पर चिड़िया

कपड़े नहीं पहनती

चिड़िया नंगी ही उड़ान भरती है

 नंगी ही भरती है उड़ान चिड़िया

चिड़िया आत्महत्या नहीं करती।

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एकांत मेरी रचना


मेरा एकांत मेरा है

मेरा –

जिसे अर्जित किया है मैंने।

नहीं है यह

किसी  के दिए अकेलेपन-सा, सालता

पग-पग।

मेरा एकांत मेरा है

मेरा अपना

कबीर के दुख-सा

मेरा अपना

जिसका कोई लेना-देना नहीं

इतराती,ललचाती

घुन्नी

सुख की बहलाऊ राजनीति से।

 मेरा एकांत मेरा है

कवि शमशेर की निरपेक्ष कवि-साधना-सा,

मेरा एकांत मेरा है

कवि त्रिलोचन की

हर मोह को पछाड़ती

बेफिक्रचाल-सा।

मेरा एकांत

गरूर है मेरा।

बचना

करने से वार इस पर।

ओ निषाद

मेरा एकांत ही मेरी रचना है।

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एकांत आओ, मेरे एकांत को सजाओ


आओ, मेरे एकांत को सजाओ!

एकांत ही है

जहाँ न कोई वर्जना रहती है

और न वास ही होता है किसी अपने-पराए का।

आओ, और सजाओ मेरे एकांत को,

सजाऊँगा मैं भी एकांत को तुम्हारे

समभाव।

एकांत पहाड़ का हो, या नदी के किनारे का

घने जंगलों का हो, या सभ्यताओं के किसी कोने का

बरसते मेघों का हो, या सुलगती स्मृतियों का

होता है हर हाल

सम्पूर्ण, एक बेखौफ मिलन सा।

कभी बंद नहीं मिलते द्वार, एकांत के

बस, एक आमंत्रण होता है एकांत

बिना किसी शर्त के।


आओ, और मेरे एकांत को सजाओ

जैसे सजाती है हर ऋतु

प्रकृति के एकांत को।

जैसे पार कराती है नाव

एकांत

संगीत का ध्वज फहराए।


गारंटी के इस आज में

जाना है मैंने तो

एकांत ही है

जो गारंटी है

अकेला हो जाने के

छुटकारे की।


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स्मृति


मौसम को भी

जाने क्या सूझता है कभी-कभी

जा लटकता है

शहद के छत्ते सा आकाश में टपका

कि अब टपका।

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बरसा और देश


हारे में आग बुझी नहीं है ।

ढंडी चिलम ऒर

बासी हुक्के की नाल थामे

बरसा की चर्चा में खपता

आज भी वह

पुरखों से कहाँ कम है ।


बूढ़े बाप के चेहरे पर

जेवड़ी बाँटती हुई झुर्रियाँ

बेटे को

देस के मामलों पर

विचार नहीं करने देतीं।


फिलहाल

पहाड़-सी बरसा में

कोई रागिनी ही हाथ लग जाती

तो चुस्त हो लेता

बरसा थम जाती

तो खेत बो लेता।


हारे में आग बुझी नहीं है ।

उठ कर हुक्का ही ताज़ा कर ले

चिलम भर ले।


साथी

बेवक़्त उठ जाए

तो कहानी बढ़ाए नहीं बढ़ती।


कीकर-सी जिनदगी भी

हर घड़ी

सौ एहसान धरती है ।


अभी तो हॆं गोस्से॥

हारे में आग बुझी नहीं है ।

शायद अंगा कड़ा भी भुन चला होगा।


परसाल

कम से कम चिंता तो नहीं थी-

औरत थी

सँभाल रखती थी। 

अंगा कड़ा भी

परोस देती थी वक़्त पर।


शायद तीन दिन और न थमेगी बरसा।

कौन जाने

थमेगी भी कि नहीं कभी।


दुखियारा आदमी भी एक हद पर चुप हो लेता है

आँखों में सब्र बोकर

आगे की सुध लेता है ।

कहने को तो यहाँ भी

हवा ही बहती है देसी


पर कभी-कभार

दूर-दराज की हवा

कैसी धौंस जमा जाती है !


हारे में आग बुझी नहीं है ।

हारा भर जगह

टप के से बची रहे

तो इत्मीनान से कट  जाएगा वक़्त

जाने क्या वक़्त  हो गया होगा!

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चित्र रमेश आनंद 


कवि का परिचय                         

दिविक  रमेश (वास्तविक नाम रमेश चंद शर्मा)

 

हिंदी के सुप्रतिष्ठित कविबाल-साहित्यकारअनुवादक और चिंतक हैं। जन्म फरवरी (वास्तविक: 28 अगस्त),1946 मेंगांव किराड़ी (दिल्ली) में हुआ था। विविध विधाओं में लगभग 80 पुस्तकें प्रकाशित हैं

जिनमें 14 कविता-संग्रहकाव्य-नाटक खण्ड-खण्ड अग्नि’, बाल साहित्य (कविता कहानीनाटकसंस्मरण)  की लगभग 50  पुस्तकेंएक कहानी संग्रह और आलोचना-शोध की पुस्तकें हैंदेश-विदेश के विश्वविद्यालयों के पाठयक्रमों में रचनाएँ सम्मिलित हैं। 

 

साहित्य अकादेमी का बाल-साहित्य पुरस्कार(1918),  सोवियत लेंड नेहरू पुरस्कारगिरिजा कुमार स्मृति राष्ट्रीय पुरस्कारहिंदी अकादमीदिल्ली का साहित्यकार सम्मानकोरियाई दूतावास का प्रशंसा-पत्रएन.सी.ई.आर.टी का राष्ट्रीय बाल-साहित्य पुरस्कारउ.प्र.हिंदी संस्थान का बाल भारती पुरस्कार आदि राष्ट्रीय- अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार-सम्मानों से सम्मानित हैं।

 

दिल्ली विश्वविद्यालय के मोतीलाल नेहरू महाविद्यालय के प्राचार्य पद से सेवानिवृत हुए हैं। आई.सी.सी.आर.(भारत सरकार) की ओर से दक्षिण कोरिया के हांगुक विश्विद्यालय में अतिथि आचार्य के पद पर काम कर चुके हैं। । 

 

सम्पर्क: एल-1202, ग्रेंड अजनारा हेरिटेज,

       सेक्टर-74, नोएडा-201301 

       मो. 9910177099

divikramesh34@gmail.com 

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