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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

28 अक्टूबर, 2024

डॉ. परिधि शर्मा की कहानी:उम्मीद


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बाहर धूप में तार पर टांग कर दो चादरें सुखाई गई थीं।  दोनों लगभग एक ही समय पर खरीदी गईं और लगभग उतनी ही फीकी पड़ चुकीं।  पर उनमें से एक थोड़ी ज्यादा गीली । दूसरी थोड़ी कम गीली । 

सीताफल से लदा पेड़ अनमनाया सा ऊँघ रहा था। अपने पके फलों के प्रति निश्चिंत। एक ऊँघता हुआ उदार वृक्ष। और उसके

ठीक सामने खड़ा एक अन्य नस्ल और प्रजाति का पेड़  बेर टपका-टपका कर हल्का हो रहा था। उसके आसपास पीले नारंगी बेरों से ढकी जा रही एक जमीन थी । तैयार होती एक और चादर (जो कहीं धोकर सुखाई नहीं जाएगी )। अधकच्चे ,अधपक्के बेरों की चादर। 

बाहर से आंगन में प्रवेश करने का एक सीधा सा रास्ता उस लोहे की गेट से होकर निकलता था जिसके ठीक बगल में बेशरम  का एक फूल खिल आया था। जीवन की नई उमंगों से लबालब भरा हुआ । किसी को पुकारता हुआ । आतुरता से । शायद दूर के तालाब में खिले कमल के गुलाबी फूल को । छुपा-छुपाई खेलने के लिए ।

जल्दी आओ कमल भाई 

हम मिलकर खेलें छुपा-छुपाई

काली मखमली और शिकारी आंखों वाली पालतू सी जान पड़ती आवारा बिल्ली आंगन में फुदक रही गौरेय्यों के आसपास घात लगा रही थी । पर उनके करीब जाने से  कतराती हुई । इस डर से कि उनके करीब जाते ही वह सब फ़ुर्र ..अ  से उड़ जाएंगी और वह बैठी रह जाएगी। मूर्खों की तरह। जमीन पर पंजे गड़ाए लार टपकाती हुई। एक स्वाभिमानी खिलाड़ी की तरह , जिसके अहम पर चोट किया गया हो । चिंताओं से घिरी एक शातिर बिल्ली। 

दोपहर ने एक कसी हुई अंगड़ाई ली और फिर करवट बदलने लगी। शाम होने लगी । बेहद आहिस्ता से । दबे पांव । और उसके आगमन की खबर पाकर कांव कांव  करते दो बुजदिल कौव्वों की कर्कश आवाज़ को नजरअंदाज करता, घर से सटे बगीचे के एक ऊंचे नीलगिरी के पेड़ की चोटी पर बैठा, इधर-उधर सिर घुमाता एक नीलकंठ पंख फड़फड़ाता हुआ उड़ गया। बगीचे के सबसे अंतिम छोर पर बने गड्ढे में जमा करियाये पानी के ऊपर भनभनाते मच्छरों का एक समूह यह दर्शाने में प्रयत्नशील था कि बगीचा वहां पर खत्म होता है या शायद वहीं से शुरू होता है । उल्टी दिशा में । सूख कर पपड़िया गए पीले पत्तों की कई परतें बगीचे के चारों तरफ लगे पेड़ों से झर-झर कर धरती पर जमी पड़ी थीं। उन पर चलने से चर-चर की आवाज़ें आना स्वाभाविक था। एक वीरान, ऊंचे-ऊंचे पेड़ों वाला डरावना सा और शहरीकरण से अब तक अनजान बगीचा । बगीचा जिसमें बगीचेपन से ज्यादा जंगलीपन नजर आता था । देखभाल की नितांत कमी के चलते।

खालीपन और उदासी से तनी बनी घर की वस्तुएं एक दूसरे का मुंह ताक रही थीं।

किसी के आगमन की उम्मीद में प्रतीक्षारत।  गहरी चुप्पी लगाए । कई दिनों से । वर्षों से । 

एक अजीब सा मुंह बनाते हुए उसने खुद को आईने में निहारा । सीमेंट से दीवार पर चिपकाया गया एक बड़ा सा आईना । अपनी अप्रिय छवि को देखकर उसने कसकर आंखें मूंद ली । इससे उसके चेहरे की झुर्रियां और भी साफ-साफ नजर आ गईं । अपने को आईने में देखना अब उसे अपने चेहरे की तौहीन लगने लगा । क्या उसे अपनी बची-खुची जिंदगी ऐसे ही दिखते हुए काटनी होगी? तब तो आईने के सामने जाना खुद का उपहास उड़ाना ही होगा । पर यह आईना रखवाया भी तो ऐसी ही जगह पर गया था कि आते जाते उसे अपनी छवि की एक झलक मिल ही जाती । रसोई घर के ठीक सामने की दीवार पर। उसके छोटे जिद्दी बेटे की करतूत । उसे याद आया कि वह किस तरह बरामदे को पक्का करवाते समय मजदूरों को आदेश दे रहा था कि दीवार पर एक आईना चिपकाया जाए और उसने उस समय उसे टोकते हुए पूछा भी था,  अरे प्रकाश यहां आईने की क्या जरूरत? लगवाना है तो अपने कमरे में लगवा।  पर उसने उसकी एक न सुनी । वह सुनता भी कब था।  न मां की सुनता था न बाप की । उसका मन हुआ कि जमादार जी से शिकायत कर दे। तुम्हारा लड़का खुद तो यहां रहता नहीं है , हम बूढ़ों के लिए यह आईना रखवा गया है । हालांकि शिकायतें तो उसके पास ढेरों थीं पर उन्हें सुनने वाले एकमात्र जमीदार जी ही थे जिनके पास ना तो उनका कोई समाधान था ना ही उन्हें सुनने की कोई रुचि। पर अब वे इन शिकायतों के आदी हो चुके थे । उनकी पत्नी एक सनकती हुई बुढ़िया में तब्दील होती एक ऐसी औरत थी जो अपने दिमाग के खालीपन को नफरत और शिकायतों से भरती हुई अपने मनपसंद दिनों में लौट जाना चाहती थी। और वे यह बात जानते थे । वे खुद भी तो बैठे थे एक धुंधली उम्मीद लिए कि उनके मनपसंद दिन लौट आएंगे। 

जमीदारनी बरामदे पर बैठी थी। पैर पसारे। अपने सफेद पड़ रहे केश को कंघी से सँवारती हुई । एक ऐसा श्रृंगार जो बालों में लट बनने से रोकने के उद्देश्य से किया गया था । नियमबद्ध होकर किया गया एक अनचाहा श्रृंगार। अंदर कमरे की एक खाट पर लेटे जमीदार जी खर्राटे भर रहे थे । इस बात से बिल्कुल अनजान (शत प्रतिशत) कि उस समय उनका शरीर खर्राटों की लय में फूलता और सिकुड़ता हुआ बेहद हास्यास्पद लग रहा है । मेज पर रामायण की एक मोटी किताब थी जिसे जमीदारनी कभी कभार पढ़ लिया करती । कमरे के कोने में एक धूल खाई अलमारी थी जिसके भीतर किताबों की गड्डियां थीं। वर्षों से खोली नहीं गई किताबें , एक सुयोग्य पाठक का इंतजार करती किताबें , जो जमीदारनी को कैंसर की मौत मर चुके अपने बड़े बेटे की याद दिलातीं। किताबों का शौकीन बेटा । अलमारी की बगल में रखा ब्लैक एंड व्हाइट टेलीविजन हफ्तों से बिजली के अभाव में बंद पड़ा था। किसी कारणवश वहां बिजली की कटौती कर दी गई थी।

बरामदे के एक कोने में मिट्टी का एक गमला था । गमले में गुलाब के पौधे की एक टहनी थी। एक अधनंगा पौधा जिसकी ज्यादातर पत्तियां झड़ चुकी थीं और उसकी कांटेदार छाती उसे और भी बदसूरत बना रही थी । बोरियत भरी दुपहरी में जमीदारनी कभी कभार उसके पास जा बैठती और उसका एक कांटा बड़ी सावधानी से उखाड़ लेती । फिर उसकी नुकीली छोर की तरफ से उसे दोबारा उस टहनी में घुसेड़ देती और फिर सहसा इस आभास के साथ कि उसने अपने करीब की किसी वस्तु को तकलीफ पहुंचाई है , वह तीव्रता से उस कांटे को बाहर खींच लेती। फिर उस चोट खाई टहनी को हल्के हल्के सहलाने लगती जैसे कि उस बदसूरत टहनी में उसके जवान बेटों की और यहां तक की उसके ससुराल जा चुकी बेटी की आत्मा भी आ समाई हो और उसकी तीनों संताने उसे माँ-माँ पुकार रहे हों। पीड़ा  से बिलखते हुए।  

और उस समय घुटनों के दर्द से व्याकुल वह स्वयं प्लास्टिक की एक कुर्सी आंगन में लगाए उस पर बैठी गेट के सामने से आते-जाते लोगों को निहार रही थी । सुन रही थी दूर के मंदिर में बज रही घण्टियों को । वह संध्या का समय था। 

उस घर से तीन घरों की दूरी पर बसी झोपड़ी में रहने वाला मंगल छः वर्ष पुरानी साइकिल खड़खड़ाता हुआ सामने से निकला । एक मग्न लकड़हारा जिसने अपने बूढ़े पिता की मौत के बाद स्वतः उसकी जिम्मेदारियां ढो ली थीं ।उसके छोटे से खेत में सब्जियां उगाकर बाजार में बेचना भी आरंभ कर दिया था । उन लकड़ियों को बेचने के साथ-साथ जिन्हें अपने ही पिता की तरह वह जंगलों से काटकर लाने लगा था। यह जानते हुए भी कि उसके पिता की मौत कैसे हुई थी । आखिर हुई कैसे थी उनकी मौत? गए तो थे वे जंगलों में लड़कियां काटने पर लौटकर नहीं आए थे । जंगल में छान मारा गया । काफी मशक्कत के बाद ही तो मिल पाई थी उनकी लाश। अनुभवी ग्रामीणों ने सुझाया था और ठीक ही सुझाया था कि उनकी मौत भालू के नोच खाने से हुई थी । 

एक खतरनाक जानवर के हाथों मारा गया एक बूढ़ा लकड़हारा । 

जमीदारनी को मंगल फूटी आंख न सुहाता । महज इसलिए नहीं कि वह एक निचली जात का था और वह एक ब्राह्मणी थी (घुटनों के दर्द से परेशान एक शुद्ध ब्राह्मणी। एक धूर्त लोमड़ी की तरह अंगूर खट्टे हैं कहने की आदत से मजबूर ) , महज इसलिए कि मंगल को देखते ही शिकायत के लिहाज में उसके मन में दबे किसी प्रश्न की उसे याद आ जाती और वह अपने पति से फिर फिर पूछना चाहती कि उन्होंने उसके छोटे लड़के को फौज में क्यों जाने दिया? जबकि वह जानती थी कि उन्होंने (उन दोनों ने ही) उसे रोकने की कोशिशें काफी हद तक की थीं। वह यह नहीं जानती थी कि फौज में जाकर व्यक्ति वास्तव में क्या करता है और ना ही उसने यथार्थ में कभी फौजियों को देखा था (टेलीविजन में एक बार जरूर देखा था), पर सुना जरूर था उसने कभी कि एक बार जमकर लड़ाई हुई थी देश की सीमा पर । धड़ाधड़ गोलियां चली थीं।  खून बहे थे । कुर्बानियां दी गई थीं। 

कभी कभार उसे स्वप्न आते । उसका छोटा बेटा हँसता हुआ लौट आया है और कह रहा है ...अब फौजियों को कहीं जाने की जरूरत नहीं । अब लड़ाइयां नहीं होंगी। सीमा पार के सैनिकों ने इधर के सैनिकों की ओर आकर उन्हें गले लगा लिया है । जश्न मन रहा है । इधर भी उधर भी । और कभी कभार वह  देर रात तक मंसूबा बांधती रहती कि इस बार जब उसकी बेटी अपनी नन्ही बिटिया को लेकर मायके आएगी तो वह उसके लिए क्या-क्या उपहार खरीदवा कर रखेगी।  और फिर उसे देर रात तक नींद न आती । 

अब भोजन पकाया जाना था । रसोई घर में घुसते ही उसे कुछ

अजीब सा नजर आया।  गौर से देखा तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही । एक हेलीकॉप्टर सा कुछ , और उससे उतरते लोगों की भीड़ । इतने लोग आखिर कैसे? उसे समझते देर न लगी कि यह उसके फौजी बेटे की करतूत है । वह मुस्कुराने ही वाली थी कि उसे उसका बेटा नजर आ गया हेलीकॉप्टर से उतरता हुआ । टीवी वाले हेलीकॉप्टर जैसा , पर वह सब आखिर था क्या ?एक मरा हुआ कनखजूरा और उसके आसपास चीटियों का जमावड़ा। वही चीटियां जिनके मन में कोई असीम सपने नहीं थे , सिर्फ दावत उड़ाने की उमंग थी। वह कभी कभार स्वयं भी डर जाती जब उसे जमींदार जी का किया गया वह मजाक याद हो आता जिसमें उन्होंने कह दिया था कि देर रात तक नींद न आना बुढ़ापे की निशानी है। वह जानती थी कि वह बुढ़ा रही थी , पर यह एहसास बेहद मार्मिक होता है । उसके लिए भी था । कभी कभार वह यूं भी सोच लेती कि वह तो अब तक एक पुल के ऊपर चल रही थी। एक नदी पार करने के उद्देश्य से । अब वह लगभग नदी के इस पार आ गई थी और जबकि वह जानती थी कि उस पार काफी कुछ छूट गया है ,अब वापस लौटना उसके लिए असंभव था। हर किसी के लिए असंभव था क्योंकि जैसे-जैसे वह पुल पर चलती हुई अपने कदम बढ़ाती गई पुल के पीछे का हिस्सा वैसे-वैसे टूटता चला गया । पहले एक हल्की दरकन ,और फिर एक चरमराहट और फिर पानी में कुछ गिरने से आई छपाक  की आवाज (जो कि बेहद धीमी होती थी और उसे सुन पाने वाले बेहद गिने चुने लोग थे ) । उसने वह धीमी सी आवाज सुन ली थी। पता नहीं कैसे वह वापस लौट जाना चाहती थी पुल से नीचे कूद कर । पर नदी पार कर पाना भी नामुमकिन ही था। नदी अपने पूरे वेग से बह रही थी और जब तक नदी सूखेगी तब तक वह नदी के उस पार पहुंच चुकी होगी और उसके पांव शिथिल हो चुके होंगे । पूर्णतः निष्क्रिय । 

आसपास के लोग उसे सहज ही पगली कहने लगे थे।  उसका बेवजह पड़ोसियों पर चिल्लाना अब लोगों का ध्यान ज्यादा आकर्षित नहीं करता था । नित्य के कर्म ज्यादा आकर्षक होते भी नहीं , इसलिए अब वे उसे देखकर पहले की तरह खुसुर-फुसुर करना भी छोड़ चुके थे । ज़मीदार जी इस बात से अवगत थे और जमीदारनी भी । पर उनके मन में कोई दु:ख नहीं था । बस उम्मीदें थीं। उनके बच्चे एक दिन लौट आएंगे। या शायद उनका अपना बचपन।

घर की चीजें अब भी उस सूनेपन से एक दूसरे का मुंह ताक रही थीं। घर के पीछे से बगीचे की ओर खुलने वाला दरवाजा , आंगन में पड़ी प्लास्टिक की कुर्सी , एक कमरे के कोने में किताबों से भरी धूल खाई एक अलमारी , एक दीवार पर सीमेंट से चिपकाया गया आईना ,कांच का एक गुलदस्ता और एक बंद पड़े कमरे के भीतर सलीखे से सजाई गई एक अल्हड़ युवा लड़के की चीजें,  एक वॉकमैन , एक जोड़ी स्पोर्ट्स शू और पेन स्टैंड पर रखे दो कलम । 

वह भी एक समय हुआ करता था जब वह अपने तीनों बच्चों को रोज सुबह जगाती,  उन्हें तैयार करती , उन्हें पाठशाला पहुंचा आती । उनके वापस आने की राह देखती, उनके लौटते ही उनके लिए भोजन की व्यवस्था करती । वे उसके मनपसंद दिन थे । उसकी व्यस्त दिनचर्या वाले दिन । जमीदार जी उन्हें बैठा कर पाठशाला में पढ़ी गई चीजें दोहराने को कहते।  वे उनके भी मनपसंद दिन थे । अब न तो पढ़कर दोहराई जा सकने वाली चीजें रह गई थीं, न पाठशाला पहुंचा आने के लिए बच्चे थे। वे गिनती में तीन थे । एक बड़ा लड़का, उससे एक वर्ष छोटी लड़की और उससे डेढ़ वर्ष छोटा सबसे छोटा लड़का जो अब एक अल्हड़ युवा था । बड़ा लड़का कैंसर की मौत मर चुका था । लड़की का विवाह हो चुका था और तीसरा सेना में था । अब पाठशाला पहुंचा आने के लिए बच्चे नहीं थे। उनमें से एक मृत्यु  शैय्या में लेट चुका था । अन्य दो अपनी व्यस्त दिनचर्या वाले दिनों में मशगूल थे । अपने आप में व्यस्त । अपने मनपसंद दिनों में । और अब जमींदार और जमींदारनी अकेले थे । उनके बीच बातचीत बेहद कम हो चुकी थी  और जब भी होती अक्सर झगड़े में तब्दील हो जाती। बातों के नाम पर जमीदारनी के पास सिर्फ शिकायतें थीं और उन्हें सुनने को सिर्फ जमीदार जी । वे  बूढ़े हो चुके थे और असमर्थ भी । फिर भी उन्हें उम्मीद थी कि उनके अच्छे दिन लौट आएंगे ।उनके मनपसंद दिन । 

वे इंतजार कर रहे थे बच्चों  का,  जो लौटकर इसलिए भी आएंगे कि वे जल्द से जल्द वापस लौट सकें अपने बूढ़े मां-बाप को इंतजार करता हुआ छोड़कर । उनकी अपनी मजबूरियां थीं और यह जमीदार जमीदारनी समझते हुए भी नहीं समझते थे । जबकि वे जानते थे कि जो कुछ भी है , वह ठीक है । वह प्राकृतिक है । पक्षी अपनी माँ के पास तभी तक होते हैं जब तक उनके पंख उड़ने लायक न हो जाएं।  इसे कभी गलत नहीं माना गया है। यह हर बार सही ठहराया गया है । पीढ़ी दर पीढ़ी । सभ्यता दर सभ्यता।  

पर घर में सूनापन है । युवा अट्टहासों की कमी है । हिमालय की उन पहाड़ियों की तरह जो बूढ़े लामाओं के जाप से ऊब चुकी हैं । जो युवाओं को अपने पास बुलाती हैं । इस वृद्ध दंपति की मनोस्थिति ऐसी ही हो चुकी है, और यह बात तब स्पष्ट हो जाती है जब आधी रात तक जमीदार जी अपनी एकमात्र प्यारी सी गाय की बछिया से बतियाते रहते हैं । हालांकि उनके पास खुद को सांत्वना देने के ऐसे सैकड़ों रास्ते हैं , पर उन्हें उम्मीद है,  इंतजार है , उनके बच्चे लौट आएंगे एक दिन। 

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चित्र मुकेश बिजौले 


परिचय 

नाम : डॉ.परिधि शर्मा,जन्म : 6 अगस्त 1992,शिक्षा :  मास्टर ऑफ डेंटल सर्जरी( MDS ) अंतिम वर्ष में अध्ययनरत. सम्प्रति : दन्त चिकित्सक 

प्रकाशन : भास्कर रसरंग (20.09.2009) , वागर्थ (मार्च 2010), समावर्तन (अक्टूबर 2011),परिकथा (जनवरी-फरवरी 2012), समावर्तन (फरवरी 2012),परिकथा (मार्च-अप्रेल 2014), अहा जिन्दगी (दिसम्बर 2023) परिकथा (सितंबर-दिसम्बर 2024)इत्यादि पत्र पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित.

छत्तीसगढ़ संस्कृति परिषद के आमंत्रण पर श्रीकांत वर्मा सृजन पीठ बिलासपुर के मंच पर कहानी पाठ, रज़ा फाउंडेशन "युवा 2024" के दिल्ली में हुए आयोजन में उनके आमंत्रण पर सहभागिता एवं कवि श्रीकांत वर्मा पर वक्तब्य की प्रस्तुति।

एक यात्रा संस्मरण "आनंदवन में बाबा आमटे के साथ"मधुबन बुक्स की किताब वितान-7 (जो कुछ कान्वेंट स्कूलों में कक्षा सातवीं के बच्चों को पढ़ाई जाती है) में शामिल। 

संपर्क : डॉ. परिधि शर्मा,  जुगल किशोर डेंटल क्लिनिक,आर.के टावर, न्यू मेडिकल रोड़, मलकानगिरी (ओड़िसा)

Email-  mylifemychoices140@gmail.com

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर , रोचक और संवेदनशील कहानी के लिए परिधि को बधाई। अपने संतानों का विछोह झेलते वृद्ध दंपत्ति के मनोविज्ञान को यह कहानी सलीके से पाठकों के सम्मुख रखती है।

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  2. एक अच्छी और प्रभावी कहानी के लिए परिधि को बधाई। कहानी का कथ्य, प्रवाह और भाषा शिल्प तीनों मिलकर उसकी पठनीयता को पुख़्ता करते हैं।

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  3. बहुत ही शानदार कहानी

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  4. बहुत ही उम्दा कहानी।

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  5. क्या कहन और कथ्य शिल्प

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