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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

16 अक्टूबर, 2024

नेहा अपराजिता की कविताऍं

 

एक

वे लांछित हुयीं


वे लांछित हुयीं क्योंकि

नहीं ज्ञान था उनको दुनियादारी का

नहीं पता था उन्हें कि विश्वास  घर-घराने के लोगों पर ही करना है

कर लिया उन्होंने विश्वास अजनबियों पर

उन्होंने अपनों से परे

निभाई ईमानदारी दूसरों से

यह सज़ा है उनकी कि वे लांछित हो













वे लांछित हुयीं क्योंकि

निश्चय था उनका, समाज से ऊपर उठ

अपने किये वायदे पर अटल रहने का

सामाजिक असमानता को ठुकरा उन्होंने चुनी थी अलग राह

उन्होंने रखा अपने प्रेम को सर्वोपरि

हो गयीं वे मौन हर तानें उलाहनें पर

स्वीकारा उन्होंने कि वे लांछित हों


वे लांछित हुयीं क्योंकि

मुंह सिल उन्होंने सहे फिर धोखे 

नहीं की उफ़्फ़, न भरी कराह

ईमानदारी का ईनाम उनका निजी विषय बन गया

नहीं रखा उन्होंने अपना पक्ष ,नहीं मांगी मदद

गहन मौन में जाकर अपने ईमान की प्रमाणिकता सिद्ध की

उकसाने पर भी उन्होंने जुबान न खोली

नियति है उनकी वे लांछित हों


वे लांछित हुयीं क्योंकि

उन्होंने अपने इतिहास को भुला

अपने भाग्य का नया भूगोल ढूँढने की कोशिश की

इस बार सबसे मिलनसार होने की सोची

फिर की गलती, 

मानव मस्तिष्क सिर्फ़ अपना इतिहास भूल सकता है,दूसरे का नहीं, 

इस बार वे, उनके बदले का शिकार हुयीं

जो मुंहबोले अपने थे

इतिहास कहता है कि वे लांछित हों


वे लांछित हुयीं क्योंकि

उन्होंने तोड़ी मर्यादा, 

उन्होंने पुरुष मित्र भी उतनी ही संख्या में बनाये

जितनी संख्या महिला मित्रों की थी

जैसे प्रेम की प्रमाणिकता सिन्दूर में है 

वैसे ही

भाई बहिन की प्रमाणिकता राखी बंधन में है

यूँ ही पुरुष से मित्रता की प्रमाणिकता

उस पुरुष की प्रियसी की सखी होने में हैं, नियम क़ानून की अज्ञानता कहती है कि वे लांछित हों


वे लांछित हुयीं क्योंकि

उन्होंने नहीं सहे किसी के अश्लील मज़ाक

ग़लत बातों और इरादों पर वे तिलमिला गयीं

गंदी मादक नज़रों को उन्होंने नज़रंदाज़ किया

उन्होंने धर्म और मर्यादा की बात की 

उनको क्यों नहीं ज्ञात कि

वे उस जुमले में शामिल हो चुकीं हैं

जो नहीं उठा सकता है कोई आवाज़

नहीं हैं वे अधिकारिणी किसी भी नैतिकता की

बार-बार भूलती हैं वे अपना इतिहास

नैतिकता कहती है कि

वे लांछित हों


वे लांछित हुयीं क्योंकि

अन्दर के गुबार ने अब बाहर निकलने के लिए उत्पात मचा दिया

अब वे बोलने को व्याकुल हो उठीं

सच, कडवा सच, तीखा सच, जटिल सच, सीधा सच, उल्टा सच

वे बोल पड़ीं सब

उनकी बेचैनी ने सिद्ध किया कि वे विक्षिप्त हैं

सहारे, साथ, सहयोग की जगह उनको मिली नयी पहचान पागलपन की

अब फिर हैं वे मौन, उफ़्फ़ तक न करने को बाध्य

एकांत में है वे, अछूत सी

आजीवन रहेंगी वे "रजस्वला"

उनका मौन उनसे कहता है !!

०००


दो


 उलझन



उसने पूछा , ये उलझन क्या होती है ?

मुझे तो ना हुई कभी,

मैंने कहा

जब ना रोते बने

ना हँसते

ना खाते- पीते

सोने की कोशिश भी नाकाम हो जाये

पसीने से माथा तर जाये

तब समझ लेना कि उलझन में हो।



जब आंखों से आँसू

और सिर से बाल बराबर झरें

गले में भी कुछ अटका रहे

नज़रों में कुछ खटका रहे

हल्की सी आवाज़ से दिल धक्क सा करे

तब समझ लेना कि उलझन में हो।


कभी मेरी याद आये

और यह अधिकार ना हो कि

तुम मुझ तक अपनी याद पहुँचा सको

मुझ से बातें ना कर सको

माध्यम ना मिले जब मुझ तक पहुँचने का

मोबाइल को उठा-उठा कर फिर रख दो

बार-बार ये लगे कि अभी फ़ोन बीप करेगा

तब समझ लेना कि उलझन में हो।


बस घबरा कर चाय या कॉफ़ी पीने चल दो

घर में इधर-उधर घूम कर कोई काम करो

कोशिश करो ध्यान कहीं और भटकाने का

पर हर बार हार जाओ

किसी से बात ना करने का मन हो

किसी की बात सुनने का ना मन हो

हर बात पर जब चिड़चिड़ा जाओ

और अंत में रो-धो कर सो जाओ

तब समझ लेना कि उलझन में हो।

०००


तीन


दुःख


बीते वक़्त के साथ जाना

दुःख की उतनी ही श्रृंखलाएं हैं

जितनी किसी पुराने बरगद में जटाएँ


एक माँ का दुःख जाना

जो पहले खुद विधवा हुयी फिर

अपनी बेटी को विधवा होते देखा


अब वह मौत माँग रही है पर

ऋण शायद अब कोई भारी है

जीने की सज़ा अभी भी जारी है


एक बेटी का दुःख जाना

जब भी वह सुबह आँखे खोलती है

माँ को टोकने के लिए आगे बढ़ती है कि

उन्होंने बिंदी क्यों नहीं लगाई ?

शब्द पनपे उससे पहले ही वह ठिठक कर रह जाती है



माँ को श्रृंगार बिना देखने से

ईश्वर में उनकी विरक्ति पनप रही है

पिता के जाने से असुरक्षा जागती है

माँ के खामोश हो जाने से बची खुची सुरक्षा मर जाती है


एक बेटे का दुःख जाना

जवान बेटे ने जवान बाप को मुखाग्नि दी

वह जितना चुप है,

उसकी चुप्पी उतना बोलने को विचलित

वह मुस्कुरा रहा है माँ और बहनों को देखकर

माँ और बहनें मुस्कुरा रही हैं उसे देखकर

डर है उन सबको

यह गम उनमें से किसी और को ना निगल जाये

मुस्कुरा कर गम बांटना बीती बात है

वे तो आगे का जीवन बाँट रहे हैं |


ये माँए

पीपल के उन सूखे पत्तों सी हैं

जिन पर स्याह रंग से उकेरे जाती हैं

ब्रह्मांड की सबसे गूढ़ और गंभीर संवेदनायें

और उन्हें रखा जाता है किसी

पौराणिक ग्रंथ के बीच !!

०००


चार


जो कठोर रहे


जो जितने कठोर रहे दूसरों के प्रति

अपने प्रति उससे अधिक कठोर रहे

कठोर देखने वाला कठोरता महसूस कर पाता है

कठोरता करने वाला

कठोरता को जीता है।


जितनी कम बातें उन्होंने की

उन्हें, उतनी बातें सुननी पड़ी

शब्दों की कमी सुनने वाले के

घंटे खराब करती है

और कहने वाले का सारा जीवन।


दूसरों को दुःख देते वक़्त

दुःख सहने वाले को पीड़ा हुई

दुःख देते वक़्त

देने वाले को पीड़ा संग अवसाद हुआ

देने वाले का मन ज़्यादा दुखा।



सही की राह पर चलने वाले

हमेशा गलत साबित होते रहे

सही की राह में गलती करना

गलत से भी ज़्यादा गलत हो जाता है।


न्याय देना चाहते थे वे

अन्याय के भागीदार बने रहे

सबको एक नज़र और एक समानता चाहिये

पर सिर्फ तब तक जब तक वे पंक्ति से बाहर खड़े हों |


दूसरे की टूटन जोड़ने की सोच

उनके मन को खुरचती रही

जीवन भी काँच सा है

टूटन छूने पर लहू बहेगा ही

जीवन लकड़ी की फांस सा है

ज़्यादा सहलाने पर कहीं धंसेगा ही।


सबको माफ़ करने वाले को

कभी माफ़ी नहीं मिलती

अपने कर्तव्य के प्रति अंधभक्ति

आपके हिस्से में उम्मीदें भर देती है

एक उम्मीद पर खरा उतर सकना

आपको माफ़ी के काबिल नहीं रखता।


वे माफ़ी माँगने में शर्म महसूस करते हैं

उनकी शर्म उन्हें घमंडी बनाती है

उम्मीद पूरी करने वालों को

ये अधिकार नहीं कि

वे एक बार बिना माफ़ी माँगे

माफ़ किये जा सकें।


प्रेम बसता है उनके मन में

जो अपमान सहना जानते हैं

दया जानता है वह मन

जो अपमान भूलना जानते हैं

अगर वे कुछ नहीं जानते हैं

तो सिर्फ़ इतना कि

लोगों को पीछे छोड़ आगे बढ़ जाना।


आँखें भीड़ देख नहीं बहती

उनकी स्तिथि उस गाय सी होती है

जो अपना बच्चा जनना चाहती है

पर एकांत ढूंढ रही है

पीड़ा में एकांत सबको नसीब नहीं होता

कुछ आँखे भी एकांत चाहती हैं

आँखों का सबके सामने ना बहना

कम इंसानियत का प्रमाण है।


अपनी नज़र से जो जाते देखता है अपनों को

वे अपने तक कभी नहीं लौट पाता

जाने वाले का मुड़कर ना देखना

उसके मन का एक हिस्सा बांध ले जाता है

आत्मा के टुकड़े होते हैं

दिखते नहीं पर होते हैं

कुछ लोग ऐसे भी मरते हैं

कुछ लोग ऐसे भी मरते हैं !!

०००



पॉंच 


टूटने का क्रम


टूटने के क्रम में

सबसे पहले टूटता है भ्रम

जमकर टूटता है क्रोध

सिसक कर टूटता हैं संवाद

चरमराकर टूटती हैं उम्मीदें

चूर हो टूटते हैं रिश्ते

छलनी होकर टूटता है स्नेह

घेर कर तोड़ा जाता है मान

खनक कर टूटता है सम्मान

दम घुट कर टूटता है आत्मसम्मान

सिमट कर टूटती है मर्यादा

फूट कर टूटता है इंसान

सन्नाटे में टूटता है धैर्य

और अंत में शांति में टूटती है आत्मा !!

०००


छः 

 मन का ज़हर


फिर नहीं चुभती हैं वह नज़रें

जिनकी नज़रों में नज़रें डाल

आपने बुन डालें हो मन के ज़हर के ताने-बाने


एक दूजे के मन का ज़हर पी लेना

मन को तो हल्का कर देता है

पर जीवन को भारी।


ज़हर का भी अपना विज्ञान है

ख़ुद ज़्यादा मात्रा में पीने से

दूजा आपको कमज़ोर समझता है

दूजे को ज़्यादा मात्रा में पिलाने से

आप बन जाते हैं और भी ज़हरीले

बराबर मात्रा में ज़हर का स्वाद

दोनों की स्तिथि को कर देता है एक लावारिस लाश सा

जिनके दोबारा नज़रों में डूबने का समय हो चुका है पूर्ण

वे हमेशा लहरों में उतरा कर बहेंगे

उनका यूँ सतह पर उतराते बहना

देता रहता है चीलों को कौओं को निमंत्रण

कि वे भी आयें और

नोच-नोच कर, कर दें उस बदन में इतने घाव

कि उन घावों से निकल वह ज़हर

कर दे पूरी नदी को ज़हरीला


ज़हर का अपना दर्शन भी है

विद्या प्राप्ति के लिये ज़हर पीना

ज़रूरी नही कि आपको अर्जुन ही बनाये

आप बन सकते हैं एकलव्य और कर्ण

कट सकता है अगूंठा, विस्मरण हो सकता है विद्या का।


सम्मान प्राप्ति के लिये ज़हर पीने से

ज़रूरी नहीं आप बन जाये विभीषण और

प्राप्त हो जाये सोने की लंका

आप बन सकते हैं सीता

देनी पड़ेगी अग्नि परीक्षा, काटने होंगे वन में दिन

समाना होगा धरती में।


आत्मसम्मान के लिये ज़हर पीने पर

ज़रूरी नहीं आप बन जायें भीष्म पितामह

प्राप्त कर लें इच्छा मृत्यु का वरदान

आप बन सकते हैं द्रौपदी

घसीटा जा सकता है आपको सभा में

हो सकती है महाभारत।


अपनों के हित के लिये ज़हर पीने से

ज़रूरी नहीं आप बन जायें गोविंद

रच डाले नारायणी सेना

आप बन सकते हैं अभिमन्यु

घिर सकते हैं चक्रव्यूह में

रथ का टूटा हुआ पहिया हाथ में उठाये !!

०००


सात


स्त्री प्रकृति होती है



प्रियसी प्रेम करते वक़्त हृदय की

सम्पूर्ण भावनाओं को सौंप देती हैं अपने प्रेमी को

खुद को किसी को सौंपने से पूर्व

वह नहीं सुनती अपने पूर्वाभास की

प्रेम उसे अंधा नहीं, निर्णयहीन कर देता है


किंतु उसके प्रेमी को प्रेम नहीं खुद्दारी पसन्द है

प्रेम उसे खुद्दारी सिखाता है

ख़ुद की वास्तविकता बदल प्रियसी खुद्दार हो जाती है

पहले प्रेमी की ख़ुद्दारी उसे मारती है

उसके जाने के बाद,

उसकी सिखाई हुई ख़ुद्दारी से वह ख़ुद को मारती है।


वह जो उसे अस्वीकार गया

वह ही उसे खुद को अस्वीकार करना सिखा गया

अपने वास्तविक स्वरूप को त्याग देने के बाद

अवास्तविक स्वरूप को ईश्वर भी नहीं स्वीकारता

ईश्वर भी ख़ुद्दारी जानता है

जो चीज़ जैसी बनाकर भेजता है वैसी ही वापस लेता है।


प्रेमी ईश्वर से भी ऊपर है

प्रियसी सृष्टि की सबसे नीच योनि से भी नीच

उसने ईश्वर को साधे बिना ख़ुद को बदल डाला

इस दुनिया और उस दुनिया के बीच ये प्रियसियाँ

बादलों के बीच ही रहतीं हैं

इस प्रकृति की जितनी कोमलता है, सुंदरता है

उस सुंदरता ने इन प्रियसियों की आत्मा को

अपने वजूद में सोख रखा है।


वे जिनके पुरुष नहीं होते हैं

उनकी प्रकृति होती है

या यूँ कहूँ

वे स्वयं ही प्रकृति होती हैं।

०००

चित्र:-मुकेश बिजौले 


परिचय 

नेहा अपराजिता मूलतः प्रयागराज की निवासी हैं | इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में डॉक्टरेट हैं | नेहा का पहला

काव्य संग्रह “छाँव” २०१८ में प्रकाशित हो चुका है तथा २०२२ में पहला नाटक “कथा संग्राम की” का सफल मंचन भी उत्तर मध्य सांस्कृतिक केंद्र, प्रयागराज से सम्पन्न हुआ है| नेहा की कवितायेँ इन्द्रप्रस्थ भारती, सरस्वती, देशज, स्त्री दर्पण तथा अन्य प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है | 

०००

4 टिप्‍पणियां:


  1. [*पाठकीय टिप्पणी*]
    { पहला पैराग्राफ उभयलिंगी होता है एकलिंगी नहीं जीवन में, वें ही न लांछित हुई बल्कि वें लांछित हुए ज्यादा संतुलित केंद्रित विचार हो सकता है कविता का.... दूसरा, तीसरा, चौथा, औऱ पांचवां भाग इस कविता का . संतुलित दृष्टिबोध की ही मांग करता नजर आता.... छठा औऱ अंतिम सातवां भाग कविता का एक पक्षीय होता है इसमें समाज की संरचनामूलक परिपेक्ष्य में आम. सहमति हो सकती है औऱ आधी आबादी के लिये ज्यादा पुरकशिश लेकिन संभावनाओं के द्वार दूसरे पक्ष हेतु सातवें औऱ आखिरी भाग में भी मृतप्राय नहीं नजर आते...

    नेहा (अपराजिता:उपनाम सम्भवतः ) की कविता लम्बी जरूर लेकिन अच्छी बन पड़ी है.. }]
    कंडवाल मोहन मदन

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  2. [*Reader's Note*]
    {The first paragraph can be perceived as being gender-neutral, rather than singular in its focus. Not only was she defamed, but so were they. This would provide a more balanced perspective for the poem. The second, third, fourth, and fifth sections also seem to demand a balanced worldview. The sixth and final sections appear to represent only one side, which might align with the broader perspective of society and resonate more with half of the population. But even in the seventh and final section, the doors to possibilities for the other side don't seem entirely shut... Neha (Aparajita is possibly a pseudonym) has crafted a long but compelling poem.}]

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  3. बहुत अच्छी रचनायें हैं

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  4. शेष रचनाएँ एक से बढ़कर एक जहर से माफ़ी से ंप्रेम से सब विश्लेषण उम्दा.. आभार कवयित्री सत्य जी औऱ बिजूका

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