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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

29 सितंबर, 2020

बारह कविताएँ : प्रेम रंजन अनिमेष

 

प्रेम रंजन अनिमेष


इस संक्रामक समय में                                 

अजब लरछुत समय है

और फरेबी दौर ये

 

छूने से

होने वाली

बीमारियों के बारे में

तो सुना

 

पर पास आने से

पहले ही

मारने वाली

देखी

यह महामारी

पहली

 

जो अब तो

परे जाने से भी

जा नहीं रही

 

फैली दूर दूर तक

ओर छोर तक

कुछ इस तरह

 

हर देह के लिए

इतना संदेह

कि काँप उठे

रूह

 

यदि वह कहीं

बची अब भी

 

यह दुरभिसंधि यह हाल

विकट विकराल बेसँभाल

जिसमें होना किसी का

या किसी के लिए

हो चला काल

 

समर्थ सकर्मक सरकारों ने भी

आम अवाम को जैसे

कर दिया अपने हाथों की लकीरों के हवाले

जिससे खुद को भी

दिलासा नहीं दे सकते

इस संक्रामक समय में

 

संक्रमण जिस तरह फैलता है

क्या सहानुभूति और संवेदना नहीं फैल सकती ?

 

क्या इतनी भी करुणा और मनुष्यता

समरसता सामाजिकता

 

बचा पायेंगे

बच्चों के लिए

छोड़ जायेंगे

विरासत में

वसीयत में...?

                 

                           🍁                                    

 

आग जुगाना

लगाना आसान

आग

मगर जुगाना कठिन

और उस पर पकना पकाना इस तरह

कि किसी और को

तकलीफ न हो

न दिल कोई जले

 

जब दोनों ही ओर

सीली पड़ चुकी होती

आग की पट्टी 

या रगड़ खाती

घिस जाती

 

खास तौर पर

सर्द और गीले दिनों में

एक जतन एक सँभाल

जलाना दियासलाई की

आखिरी तीलियों को

 

और खाली खोल को भी बचाना

बनाना बच्चों का खिलौना

 

यह बताते हुए

कि भरसक उसे जी लें

 

मगर आग से

न खेलें...

                            🍁

 

मधुमय प्रेम का पाठ

गाने बजाने से नहीं रीझतीं

हँसने हँसाने से नहीं रीझतीं

बातें बनाने से नहीं रीझतीं

 

पहरावे से नहीं दिखावे से नहीं

घुमाने फिराने न रूठने मनाने से 

 

मोर की तरह पर फैलाने से नहीं

बहलाने सहलाने से नहीं

 

एक जमाने से नहीं रीझतीं

ऐसे रिझाने से नहीं रीझतीं

 

किसी को जीतने के लिए

खुद को हारना होता

पाने के लिए

अपने आपको खोना

जो कोई नहीं चाहता

हालाँकि सबको पता

 

जानो

उस मन को

जिसे वह भी

नहीं जानती

 

उसके दिल को

टटोलो

उसका अँधेरा ले लो

उसके अंतरतम का उजास हो लो

 

तब शायद

कुछ साबित कर सको

कहीं धन्य कर सको

अपने होने को

 

फिर शायद

छू पाओ

उस अंतस के

किसी कोने को

जहाँ छुपी

प्यार नाम की

चिड़िया बोलती

पर तोलती

इस पिंजर से

निकलने के लिए

जो इतना लुभावना जान पड़ता तुम्हें

 

इसे सिहराने गुदगुदाने से नहीं

पानी में आग लगाने से नहीं

डूब कर पार जाने से नहीं 

 

एक जमाने से नहीं रीझतीं

वे ऐसे रिझाने से नहीं रीझतीं...

                           🌸

                                

बनाया तो...

बनाया भी तो

चालक बनाया

मालवाहक का

नाम जिसका

गाड़ी को भी नहीं पता

 

बनाया भी तो

बल्ब लैंपपोस्ट का

जिसे साफ करता

कौन धूप हवा बारिश के सिवा

न खराब होने पर ही जल्दी

ठीक करता कोई

 

बनाया भी तो

टिकट डाक का

पीछे जिसके थूक लगाते

आगे ठप्पा

 

बनाया भी तो

कूड़ेदान बनाया

हर कोई जिसे

देखता हिकारत की नजर से

जैसे सारा कूड़ा उसी का

 

बनाया भी तो

फूल भटकटैया

जो बस फूल नाम का

और नाम भी ऐसा

कि लेते लटपटाये जीभ

 

फिर भी आभार

सिरजनहार

कि बनाया तो

 

भले अपनी

आधी नींद में...

                           🍁

                                 

अक्षरधर्म

बनूँ तो

खल्ली खड़िया

 

कितना अच्छा

किसी प्राथमिक पाठशाला के

शिक्षक के हाथों

श्यामपट पर आँकना

अक्षर अंक झलकते

 

फिर जब सीख समझ लें

उत्सुक निश्छल आँखों से

निहार रहे बच्चे

 

तो पोंछ दिया जाऊँ 

झाड़न से

 

लिखूँ

और लखूँ

अपनी ओर तकते

उन मासूम चेहरों को

 

लिखते लिखते घिसूँ

लिखते लिखते छीजूँ

 

इसी तरह काम आऊँ

पूरा हो जाऊँ

सारा और समूचा

 

ऐसे कि काया का

कुछ भी न रहे शेष

हाथ झाड़ देने भर

धूलकणों के सिवा

 

इस न होने में

रहेगा सुकून

कि एक पाठ

किसी सबक सा सँजो कर

 

आने वाले कल ने

रख लिया है

अपने भीतर...

                         🌻

 

                                

कविहृदय

कवि इतना बड़ा

हृदय चाहता

कि समा जाये उसमें

सारी मनुष्यता

 

मनुष्य ही नहीं

पशु पक्षी

पेड़ पौधे भी

 

पूरी प्राणीयता

संपूर्ण सप्राणता

 

प्राणीमात्र ही क्यों

तृण कण

चराचर समस्त

 

यही इतना ही नहीं

विकल विश्व सकल प्रकृति

सृजनवान सत चित संसृति

 

यह सब वह चाहता अकसर

ठोकर खा ठुकराया जाकर

 

इतना सब तो आ सकता

समा सकता

टूट कर बिखरे

किसी दिल ही में

 

जो वह है

या चाहता है

 

क्योंकि कवि है...

                         🧡

 

                         

पढ़निहार

निकाली किताब

झाड़ी धूल

खोला पन्ना

 

आखरों पर अभी टिकी ही आँखें

कि कोरे हाशिये से

मुख्य पंक्तियों की ओर

 

सरकता  नजर आता

अक्षर से भी छोटा

अनुस्वार सा

कोई कीट नन्हा

 

अच्छा  !

 

तो जब कोई था नहीं

किताब को पढ़ रहा था

यह नन्हा...?

                            🌷

 

                                 

सही की तलाश

नंबर जिनके हैं

और सही हैं

वे फोन उठाते

नहीं हैं

 

गलत नंबर

देखो लगा कर

 

शायद कोई

आदमी सही

निकल आये...

                            🍁

 

 

प्रश्न बदल गये हैं

और सब तो ठीक है

मगर हर चेहरे पर जो अभी है

नकाब कब उतरेगा

मुँह पर लगा

यह जाब कब उतरेगा ?

 

दिनों से

देखा नहीं

किसी को ठीक से

हँसते मुसकुराते

 

मुद्दत हुई किसी को

चूमे हुए

संग किसी के

घूमे हुए

 

यह कौन अदृश्य प्रच्छन्न

जो सबमें प्रकट

स्थिति विकट

कि जो सबसे निकट

चाहे कितना ही अपना

देखा जा रहा

सोचा जा रहा

समझा जा रहा

जानघाती की तरह

 

यहाँ तक कि

अपना आप भी

 

परछाईं से पूछता

पर जो तूने लगा रखा

परवाज का

या पराया ?

 

कुछ पूछने पर अकसर

हो जाता आपे से बाहर

जिससे भी पूछा जाये

 

प्रश्न बदल गये हैं

मान तो खैर

रहा कब बराबर

जो था

सो भी गया

 

दिल सोचता कहाँ

फिर छत पर

माहताब कब उतरेगा 

आँगन में

आफताब कब उतरेगा ?

 

कोरे उत्तर पत्र पर

टिकी कबसे

नोक लेखनी की

उसे कीलती

 

लहू में दौड़ती

रोशनाई से होकर

कोई जवाब कब उतरेगा ?

 

सब कुछ तो अब बंद बंद

प्रति से भी केवल प्रतिबंध

गया कहाँ भूला बिसरा

इस जीवन का मुक्त छंद

 

आँखें खाली

खुली खुली

जाने कब हो जायें बंद

 

अरसे से जागा

अपने होने का देता पता

मन बेकल पूछता

 

इन सूनी पलकों में कोई ख्वाब

कब उतरेगा...?

                          ❓

 

                             

मुसलसल सफर के मील और पत्थर

घर में रहना था

मगर रास्ते पर आ गये

पाँव पैदल छिलते छालों पर चलते

इसलिए कि घर सबके पास कहाँ

वह तो सपना इन आँखों का

जिसे पानी में सँजोये परछाईं की तरह

भटकते रहे जाने कबसे

 

यही जो थैले गठरी साथ

कमाई कुल जीवन भर की सौगात

 

जबकि इन हाथों से

बनाये कितने घर रास्ते और पुल

बसायी बस्तियाँ

हर बुनियाद में अपना खून पसीना

 

पाँच तत्वों से बना यह शरीर

और उन्हीं से बने दाने

फिर क्यों अन्न जल दूर इनसान से

और भूख भटकाती अपनी मिट्टी से परे ?

 

पेड़ों की तरह आये थे

उखड़ कर अपनी धरती से

फिर भी बनाया बढ़ाया सहेजा पहुँचे जहाँ भी

जैसे जड़ें बाँधे रहतीं जमीन शाखायें जोड़े हुए आकाश

किये संचित प्राण और वायु

 

पर आज उठ गया यहाँ से भी दाना पानी

एक बार फिर से जा रहे उजड़ कर

अबकी इन कंक्रीट वनों से

 

इस तरह एक साथ सड़कों पर चलते जैसे

जड़ से उखड़े पेड़ हजारों हजार

चाँद सितारों ग्रहों नक्षत्रों से

दिख रहा होगा यह दृश्य कैसा ?

क्या देखने वाले कभी जान समझ  पायेंगे

कि आखिर इस पृथ्वी

और इस पर जीती जागती मनुष्यता को हुआ क्या ?

 

हिजरतें पहले भी हुई हैं

जरूरतें लाचारियाँ मजबूरियाँ

करवाती रहीं विस्थापन

और कहना कठिन कौन किससे अधिक कष्टकारी

 

जाना तो होता ही दुखदायी सदा

खास कर तब जब नहीं हो कोई पूछने वाला

दिखावे के लिए भी

रुकने रह जाने को कहने वाला

क्योंकि ऐसे कर्ता हम जो सिर्फ क्रिया

सर्वनाम कोई नाम नहीं जिसका

 

जाने को सबसे खतरनाक क्रिया कहने वाला

जाने कहता क्या जो देखता

इस तरह जाना

 

भूख पकाते प्यास को पीते

जा रहे हम जिस तरह कोई न जाये

एक ऐसी असमाप्त यात्रा पर जिसमें नहीं पता

पहुँचेंगे आखिर जहाँ

वहाँ क्या होगा कोई आसरा

 

बस यह आस

कि टूटने से पहले साँस

पहुँच तो जायेंगे

और सदा की तरह जीवन

ढूँढ़ ही लेगा कोई ठिकाना...!

                           🍁

                                 

 

मूकतंत्र

एक आदमी है जो अपने मन की (बातें) करता है

और कोई कुछ भी कहने से डरता है

इस शालीनता में जो बर्बरता है

उसे सोच कर जी सिहरता है

और उठ कर सपने में चीखा करता है

 

जो डरता है सबसे पहले मरता है

नेपथ्य से संवाद उभरता है

जिसके पीछे मुसकाती किसी खलनायक की अमरता है...

                           🍁

 

                                 

मुखावृत मानवता

यदि पहनना अपरिहार्य

तो कोई ऐसा पारदर्शी मुखपट बनाये

जिससे झलक जाये

मुसकान

अगर चेहरे पर आये

 

और जो यह भी जताये

कि भले ही अभी समय नहीं इसके विए

मगर होंठ चूमना चाहते हैं...

 

                        🔰

क्या यहाँ से भी खराब

ऊपर हालात ?

 

बताते हैं वहॉं जो रहता है

एक अरसे से उसे किसी ने नहीं देखा है

 

क्या कोई महीन सुराख है ऐश्वर्य उसका

जिससे दूरदर्शी वह सब देखता है...?

 

                       🌐

शासन का काम और आसान कर दिया

साम्राज्यवादी सोच की जैविक सौगात ने

 

वह तो पहले ही से चाह रहा था

हर नागरिक को

मुखबंद पहनाना...

 

                       

एक मुँहफट व्यवस्था

चाह रही

हर चेहरे पर देखना नकाब

हर मुँह पर लगाना जाब...

 

                        🟢

जकड़े ताले टूट रहे हैं

बंद खुल रहा धीरे धीरे

 

क्या नकाब भी चेहरों से उतरेंगे

 

क्या मुखड़े फिर से मुसकायेंगे

मुसकानों से पहचाने जायेंगे...?

 

                      🟣

जैसे सूरज चाँद

निकलते आखिरकार

ग्रहण से

धुंध को घटाओं को चीर कर

 

क्या उबर पायेगी

अपने आवरण से मनुष्यता

इस बार...?


************



प्रेम रंजन अनिमेष  

                                                                  

                              संक्षिप्त परिचय

जन्म   :  आरा (भोजपुर, बिहार)

शिक्षा : विद्यालय स्तर तक आरा में, तदुपरांत पटना विश्वविद्यालय से अंग्रेजी भाषा साहित्य में स्नातकोत्तर

स्थायी आवास : 'जिजीविषा', राम-रमा कुंज, प्रो. रमाकांत प्रसाद सिंह स्मृति वीथि, विवेक विहार, हनुमाननगर, पटना 800020 

बचपन से ही साहित्य कला संगीत से जुड़ाव । सभी विधाओं में लेखन । 

प्रकाशित कविता संग्रह : मिट्टी के फलकोई नया समाचारसंगतअँधेरे में अंताक्षरी, बिना मुँडेर की छत

आने वाले संग्रह : कुछ पत्र कुछ प्रमाणपत्र, प्रश्नकाल शून्यकाल, अवगुण सूत्रनींद में नाचमाँ के साथ, नयी कवितावली, कुछ पाखी, प्रेमधुन, अंतरंग अनंतरंग, वृत्त अनंत, कवितायें जिनसे झगड़ती हैं कहानियाँ,   आदि

ई-बुक'अच्छे आदमी की कवितायें' एवं 'अमराई' ईपुस्तक के रूप में वेब पर

अनेक लम्बी कविता श्रृंखलाएँ चर्चित : ऊँट, सायकिल, आवाजें, एक लड़की का खंडकाव्य, स्त्रीसूक्त, नींद में कुछ कवितायें, कुछ हार्दिक, जीवन खेल, जीवन श्रृंखला, अकेले आदमी की कवितायें, ईश्वर की कवितायें, पसीना, कुछ जलचित्र कुछ जलचिह्न, मध्यस्थ, दाढ़ी बनाते हुए, बेकार की कवितायें, आदमगाड़ी, बची हुई आत्मा का संगीत, रक्त संबंधवे नर मर चुके, बरसों बाद गाँव लौटे लड़की की डायरी, आदि

कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार

कई कहानियाँ भी प्रकाशित पुरस्कृत

कहानी संग्रह 'लड़की जिसे रोना नहीं आता था', 'माई रे...',  'एक मधुर सपना' , 'एक स्वप्निल प्रेमकथा', 'पानी पानी' तथा किसी असमय की बात है’  एवं  उपन्यास 'स्त्रीगाथा', ' परदे की दुनिया', 'नौशीन', 'दि हिंदी टीचर' तथा 'द एविडेंस' प्रकाश्य 

बच्चों के लिए कविता संग्रह 'माँ का जन्मदिन' प्रकाशित । 'आसमान का सपना', 'मीठी नदी का पानी', 'कुछ दाने कुछ तिनके', 'कच्ची अमियाँ पकी निंबोलियाँ' तथा और भी बाल पुस्तकें प्रकाश्य ।

संस्मरण : 'अगली दुनिया की पहली खबर' तथा 'कुछ दिन और'

गीत संग्रह 'हमारे समय के लिए कुछ गीत', 'नयी गीतांजलि' एवं अभिनव छंदऔर ग़ज़ल संग्रह 'पहला मौसम', 'धानी सा', 'बातें बड़ी छोटी बहर','कोई अपना सा', 'हैं हम तो इश्क़ मस्ताने', ‘पत्थरों के पड़ोस में' एवं 'देर तक और दूर तकआने वाले

विचार : अनुभव की स्लेट

आलोचनात्मक लेखन : 'चौथाईएवं  'ऊँचा सोचना'

नाटक : 'प्रथम पुरुष मध्यम पुरुष अन्य पुरुष'

प्रतिष्ठित कवि अरुण कमल की प्रतिनिधि कविताओं का सम्पादन

विलियम कार्लोस विलियम्स एवं  सीमस हीनी की कविताओं का अनुवाद । 

कई रचनाओं को स्वरबद्ध किया है । अलबम 'माँओं की खोई लोरियाँ' और 'धानी सा' में अल्फ़ाज़ के साथ तर्ज़ और आवाज़ भी अपनी । एक और अलबम 'एक सौग़ात'

ब्लॉग : 'अखराई' (akhraai.blogspot.in) तथा 'बचपना' (bachpna.blogspot.in)

संपर्क : एस 3/226, रिज़र्व बैंक अधिकारी आवास, गोकुलधाम, गोरेगाँव (पूर्व), मुंबई 400063 ईमेल : premranjananimesh@gmail.com दूरभाष : 9930453711