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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

26 जुलाई, 2015

कविता : कारगिल : अरुण आदित्य

आज करगिल दिवस पर जहां हर तरफ छप्पन से सत्तर इंच का सीना फुला कर हमें गौरव गाथाएं सुनाई जाएँगी मैं अपने एक मित्र अरुण आदित्य की तीन छोटी कविताओं से आपका तार्रुफ़ कराना चाहता हूँ। शायद अच्छा लगे।
:-सत्यनारायण पटेल

कारगिल : तीन कविताएं

अरुण आदित्य

1. अलक्षित

अभी-अभी जिस दुश्मन को निशाना बनाकर

एक गोली चलाई है मैंने

गोली चलने और उसकी चीख के बीच

कुछ पल के लिए मुझे उसका चेहरा

बिलकुल अपने छोटे भाई महेश जैसा लगा

जिस पर सन् 1973 में

जब मैं आठवीं का छात्र था और वह छठीं का

इसी तरह गोली चलाई थी मैंने

स्कूल में खेले जा रहे बंग-मुक्ति नाटक में

मैं भारतीय सैनिक बना था और वह पाकिस्तानी

बंदूक नकली थी पर भाई की चीख इतनी असली

कि भीतर तक कांप गया था मैं

लेकिन तालियों की गडग़ड़ाहट के बीच

जिस तरह नजर अंदाज कर दी जाती हैं बहुत सी चीजें

अलक्षित रह गया था मेरा कांप जाना

सब दे रहे थे बांके बिहारी मास्साब को बधाई

जो इस नाटक के निर्देशक थे

और जिन्होंने कुछ तुकबंदियां लिखी थीं जिन्हें कविता मान

मुहावरे की भाषा में लोग उन्हें कवि हृदय कहते थे

नाटक खत्म होने के बाद

गदगद भाव से बधाइयां ले रहे थे बांके बिहारी मास्साब

और तेरह साल का बच्चा मैं, सोच रहा था

कि गोली मेरी और चीख मेरे भाई की

फिर बधाइयां क्यों ले रहे हैं बांके बिहारी मास्साब

अभी-अभी जब असली गोली चलाई है मैंने

तो मरने वाले के चेहरे में अपने भाई की सूरत देख

एक पल के लिए फिर कांप गया हूं मैं

पर मुझे पता है कि इस बार भी अलक्षित ही रह जाएगा

मेरा यह कांप जाना

दर्शक दीर्घा में बैठे लोग मेरे इस शौर्य प्रदर्शन पर

तालियां बजा रहे होंगे

और बधाइयां बटोर रहे होंगे कोई और बांके बिहारी मास्साब।



2. दुश्मन के चेहरे में

वह आदमी जो उस तरफ बंकर में से जरा सी मुंडी निकाल

बाइनोकुलर में आंखें गड़ा देख रहा है मेरी ओर

उसकी मूंछे बिलकुल मेरे पिता जी की मूंछों जैसी हैं

खूब घनी काली और झबरीली

किंतु पिता जी की मूंछें तो अब काली नहीं

सन जैसे सफेद हो गए हैं उनके बाल

और पोपले हो गए हैं गाल दांतों के टूटने से

पर जब पिता जी सामने नहीं होते

और मैं उनके बारे में सोचता हूं

तो काली घनी मूंछों के साथ

उनका अठारह बीस साल पुराना चेहरा ही नजर आता है

जब मैं उनकी छाती पर बैठकर

उनकी मूंछों से खेलता था

खेलता कम था, मूंछों को नोचता और उखाड़ता ज्यादा था

जिसे देख मां हंसती थी

और हंसते हुए कहती थी-

बहुत चल चुका तुम्हारी मूंछों का रौब-दाब

अब इन्हें उखाड़ फेंकेगा मेरा बेटा

बरसों से नहीं सुनी मां की वो हंसी

पिता की मिल में हुई जिस दिन तालाबंदी

उसी दिन से मां के होठों पर भी लग गए ताले

जिनकी चाबी खोजता हुआ मैं

जैसे ही हुआ दसवीं पास

एक दिन बिना किसी को कुछ बताए भर्ती हो गया सेना में

पहली तनख्वाह से लेकर आज तक

हर माह भेजता रहा हूं पैसा

पर घर नहीं हो सका पहले जैसा

मेरे पालन-पोषण और पढ़ाई लिखाई के लिए

जो-जो चीजें बिकी या रेहन रखी गई थीं

एक-एक करके वे फिर आ गई हैं घर में

नहीं लौटी तो सिर्फ मां की हंसी

और पिता जी के चेहरे का रौब

छोटे भाई के ओवरसियर बनने और

मेरे विवाह जैसे शुभ प्रसंग भी

नहीं लौटा सके ये दोनों चीजें

मैं जिन्हें घर से आए पत्रों में ढूंढ़ता हूं हर बारा

आज ही मिले पत्र में लिखा है पिता जी ने-

तीन साल बाद छोटा घर आया है दस दिन के लिए

तुम भी आ जाते तो मुलाकात हो जाती

बहू भी बहुत याद करती है

और अपनी मां को तो तुम जानते ही हो

इस समय भी जब मैं लिख रहा हूं यह पत्र

उसकी आंखों से हो रही है बरसात

बाइनोकुलर से आंख हटा

जेब से पत्र निकालता हूं

इस पर लिखी है बीस दिन पहले की तारीख

यानी पत्र में जो इस समय है

वह तो बीत चुका है बीस दिन पहले

फिर ठीक इस समय क्या कर रही होगी मां

सोचता हूं तो दिखने लगता है एक धुंधला-सा दृश्य

मां बबलू को खिला रही है

और उसकी हरकतों में मेरे बचपन की छवियों को तलाशती हुई

अपनी आंखों की कोरों में उमड़ आई बूंदों को

टपकने के पहले ही सहेज रही है अपने आंचल में

पिता जी संध्या कर रहे हैं

और मेरी चिंता में बार-बार उचट रहा है उनका मन

पत्नी के बारे में सोचता हूं

तो सिर्फ दो डबडबाई आंखें नजर आती हैं

बार-बार सोचता हूं कि याद आए उसकी कोई रूमानी छवि

और हर बार नजर आती हैं दो डबडबाई आंखें

बहुत हो गई भावुकता

बुदबुदाते हुए पत्र को रखता हूं जेब में

और बाइनोकुलर में आंखें गड़ाकर

देखता हूं दुश्मन के बंकर की ओर

बंकर से झांक रहे चेहरे की मूंछें

बिलकुल पिताजी की मूंछों जैसी लग रही हैं

क्या उसे भी मेरे चेहरे में

दिख रही होगी ऐसी ही कोई आत्मीय पहचान?



3. स्वगत

खून जमा देने वाली इस बर्फानी घाटी में

किसके लिए लड़ रहा हूं मैं

पत्र में पूछा है तुमने

यह जो बहुत आसान सा लगने वाला सवाल

दुश्मन की गोलियों का जवाब देने से भी

ज्यादा कठिन है इसका जवाब

अगर किसी और ने पूछा होता यही प्रश्न

तो, सिर्फ अपने देश के लिए लड़ रहा हूं

गर्व से कहता सीना तान

पर तुम जो मेरे बारीक से बारीक झूठ को भी जाती हो ताड़

तुम्हारे सामने कैसे ले सकता हूं इस अर्धसत्य की आड़

देश के लिए लड़ रहा हूं यह हकीकत है लेकिन

कैसे कह दूं कि उनके लिए नहीं लड़ रहा मैं

जो मेरी जीत-हार की विसात पर खेल रहे सियासत की शतरंज

और कह भी दूं तो क्या फर्क पड़ेगा

जब कि जानता हूं इनमें से कोई न कोई

उठा ही लेगा मेरी जीत-हार या शहादत का लाभ

मेरा जवाब तो छोड़ो

तुम्हारे सवाल से ही मच सकता है बवाल

सरकार सुन ले तो कहे-

सेना का मनोबल गिराने वाला है यह प्रश्न

विपक्ष के हाथ पड़ जाए

तो वह इसे बटकर बनाए मजबूत रस्सी

और बांध दे सरकार के हाथ-पांव

इसी रस्सी से तुम्हारे लिए

फांसी का फंदा भी बना सकता है कोई

इसलिए तुम्हारे इस सवाल को

दिल की सात तहों के नीचे छिपाता हूं

और इसका जवाब देने से कतराता हूं।

- अरुण आदित्य
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टिप्पणियाँ:-

आनंद पचौरी:-: बहुत लंबी गैरहाजिरी के बाद सभी साथियों से बहुत मार्मिक,सरल और आत्मीयता की गहन अनुभूति की कविताएँ।एक पूरी फिल्म सी घूम गई आंखों के सामने।मैने उस युदध् की भयानकता देखी है जिस पर आज सब इतरा रहे है़।उस संवेदनशील मन को प्रणाम जिस से आज ये कविताएँ अवतरित हुईं।

राजेन्द्र श्रीवास्तव:-
अद्भुत कविताएं। पुनर्पाठ की मांग करती कविताएं। एक बार पढ़ना पर्याप्त नहीं। विशेषकर पहली कविता अलक्षित और तीसरी कविता स्वगत तो युद्ध की विभीषिका के पीछे छिपी सच्चाइयों परत दर परत उघाड़ती हुई।अरुण आदित्य जी को प्रणाम। आदरणीय सत्यनारायण जी के प्रति आभार
राजेन्द्र श्रीवास्तव, पुणे

निरंजन श्रोत्रिय:-
अरुण की एकबार फिर से झिंझोड़ देने वाली कविताएँ। बचपन में कभी एक नारा सुना करता था -"जवान जीते जंग....सियासत करे ताशकंद।" युद्ध की विभीषिका/पीड़ा और उसके अन्तर्निहित राजनीतिक स्वार्थों को बेकनाब करती अरुण की ये कविताएँ जलते हुए सवाल हैं। ऐसे सवाल जो सबके मन में घुमड़ते ज़रूर हैं लेकिन पूछे नहीं जाते।

प्रदीप कान्त:-
अरुण की खासियत ही है कि वह सरल भाषा में जटिल विषयों पर कविता लिख लेता है । जहां गोली मेरी और चीख मेरे भाई की जैसे वाक्य भीतर तक उतरते हैं

आलोक बाजपेयी:-
अपने यहाँ युद्ध विरोधी साहित्य कम ही लिखा गया है क्योंकि भारतीय जनमानस का ज्यादा साबका युद्ध से नहीं पड़ा और युद्ध को लेकर एक रोमांच और देश भक्ति जोड़ दी गयी है।ऐसे में ये कविताएं एक सुखद अहसास की तरह है।कवि को सलाम।

अरुण आदित्य :-
आनंद पचौरी जी, निरंजन भाई, प्रदीप मिश्र, प्रदीप कांत, स्वरांगी, राजेंद्र श्रीवास्तव जी, अर्पण जी,  सैंडी जी, बलविंदर जी, कविता जी, मनीषा जीआप सब को इन कविताओं को पढने और चर्चा में भाग लेने के लिए शुक्रिया।

वागीश जी और सत्या भाई, इन कविताओं को यहां साझा करने के लिए हार्दिक आभार।

लेख : रिंग टोन का बाजार और संस्कृति : प्रियदर्शन

रिंग टोन का बाज़ार और संस्कृति

बरसों पहले मैंने एक कहानी लिखी थी - दिल्ली में अकेले रहते हुए रात को टेलीफोन बूथ से अपने घर फोन करने के अनुभव पर। मुझे याद है कि एसटीडी तारों के उन उलझे हुए दिनों में बड़ी मुश्किल से फोन मिला करते थे। लेकिन जब वे मिल जाया करते तो अचानक उनकी मशीनी ध्वनि बेहद मानवीय हो जाती- लगता था, जैसे पीप पीप की वह आवाज़ मुझे दिल्ली और रांची के बीच बिछे अनगिनत उलझे तारों के रास्ते १२०० मील दूर अपने घर के ड्राइंग रूम तक ले जाती है। 

आज जब रिंग टोन और कॉलर ट्यून्स की एक रंगारंग दुनिया हमारे सामने है, तब भी मुझे रात ग्यारह बजे के आसपास बजती हुई वह पीप पीप याद आती है। क्योंकि इस ध्वनि से मेरी पहचान थी, वह मेरा धागा थी जो मुझे दूसरों के साथ बांधती थी। आज वह ध्वनि मुझे नहीं मिलती, क्योंकि जब भी मैं किसी को फोन करता हूं, दूसरी तरफ कोई धुन, किसी फिल्मी गीत की कोई पंक्ति, या कोई बंदिश प्यार, इसरार, मनुहार या शृंगार बिखेरती हुई मेरी प्रतीक्षा की घड़ियों को ‘मादक’ बनाने की कोशिश कर रही होती है।

दरअसल इन दिनों मोबाइल क्रांति ने ‘रिंग टोन’ और कॉलर ट्यून्स’ के जरिए जो नई सांगीतिक क्रांति की है, उसके कई पहलुओं पर ध्यान देना ज़रूरी है। आप किसी को फोन करें और आपको कोई अच्छी सी धुन या बंदिश सुनाई पड़े, इसमें कोई बुराई नहीं लगती।  यही नहीं, जो लोग फोन पर अपनी पसंदीदा धुनें लगाकर रखते हैं, उनका एक तर्क यह भी हो सकता है कि इससे उनके व्यक्तित्व का भी कुछ पता चलता है। 

लेकिन क्या संगीत का यह उपयोगितावाद क्या एक सीमा के बाद खुद संगीत के साथ अन्याय नहीं करने लगता? संगीत का काम सारी कला-विधाओं की तरह एक ऐसे आनंद की सृष्टि करना है जिसके सहारे हमें अपने-आप को, अपनी दुनिया को कुछ ज्यादा समझने, कुछ ज्यादा खोजने में मदद मिलती है। क्योंकि संगीत सिर्फ ध्वनियों का संयोजन नहीं है, वह संयोजन से उत्पन्न होने वाला भाव है। 

लेकिन जब हम संगीत को ‘टाइम पास’ की तरह इस्तेमाल करते हैं तो उसका मूल तत्त्व जैसे खो जाता है। किसी फोन कॉल पर किसी बड़े उस्ताद की पांच सेकेंड से लेकर पंद्रह या तीस सेकेंड तक चलने वाली बंदिश जब तक आपकी पकड़ में आती है, ठीक उसी वक्त कोई आवाज इस बंदिश का गला घोंट देती है। आप शिकायत नहीं कर सकते, क्योंकि आपने संगीत सुनने के लिए नहीं, बात करने के लिए किसी को फोन किया है। संगीत तो बस उस इंतज़ार के लिए बज रहा है जो आपका फोन उठाए जाने तक आपको करना है। आप इस समय जम्हाई लें या बंदिश सुनें, किसी को फर्क नहीं पड़ता है। अलबत्ता बंदिश को ज़रूर फर्क पडता है, क्योंकि पांच बार उसे पांच-दस या बीस-तीस सेकेंड तक आप सुन चुके हैं और उसका जादू जा चुका है। छठी बार वह पूरी बंदिश सुनने भी आप बैठें तो उसका अनूठापन आपके लिए एक व्यतीत अनुभव है, क्योंकि आपको मालूम है कि इसे तो आपने अपने किसी दोस्त के मोबाइल पर सुन रखा है।

असल में हर फोन कॉल सिर्फ गपशप के लिए नहीं किया जाता। बल्कि सिर्फ गपशप जैसी कोई चीज नहीं होती- कोई न कोई सरोकार उस गपशप की प्रेरणा बनता है, कोई न कोई संवाद इसके बीच आता है, सुख या दुख  के कुछ अंतराल होते हैं। जाहिर है, संगीत की कोई धुन या बंदिश इस संवाद में बाधा बनती है। आप किसी अफसोस या दुख की कोई खबर साझा करने बैठे हैं और आपको फोन पर कोई भैरवी या ठुमरी या चालू फिल्मी गाना सुनने को मिल रहा है तो आपको पता चले या नहीं, कहीं न कहीं, यह आपके दुख का उपहास भी है। यही बात सुखद खबरों के साथ कही जा सकती है।

संस्कृति एक बहुत बड़ी चीज है। उसे आप काट कर प्लेटों में परोस नहीं सकते, उसे टुकड़ा-टुकड़ा कर पैक नहीं कर सकते। लेकिन बाजा़र यही करने की कोशिश कर रहा है। वह मोत्सार्ट, बाख, रविशंकर, हरिप्रसाद चौरसिया और उस्ताद बिस्मिल्ला खां का जादू छीन कर उसे अपनी डिबिया में बंद कर रहा है और बेच रहा है। खरीदने वालों को भी संस्कृति का यह इत्र रास आ रहा है, क्योंकि इसके जरिए वह बता पा रहे हैं कि उनका नाता बड़ी और कलात्मक अभिव्यक्तियों से भी है।

यही नहीं, हर ध्वनि का अपना मतलब होता है, हर मुद्रा का अपना अर्थ। दरवाजे पर दस्तक देने की जगह कोई गाना गाने लगे तो इसे उसका कला प्रेम नहीं, उसकी सनक मानेंगे। ध्वनियों के सहारे हम हंसी को भी समझते हैं, रुलाई को भी। अगर हवा के बहने और पानी के गिरने की ध्वनियां किन्हीं दूसरे तरीकों से हम तक पहुंचने लगें तो समझिए कि कुदरत में कोई अनहोनी हुई है- या तो कोई भयावह तूफ़ान हमारे रास्ते में है या कोई विराट बाढ़ हमें लीलने को आ रही है। क्या मोबाइल क्रांति ने हमारी ध्वनि-संवेदना नहीं छीन ली है, वरना हम एक आ रहे तूफ़ान को पहचानने में इतने असमर्थ क्यों होते?

000 प्रियदर्शन
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टिप्पणियाँ:-

मनीषा जैन :-
मुझे तो यह रिंग का कान्सेप्ट बिलकुल समझ नहीं आता। आपने किसी को फोन किया और पता नहीं आपके मन में क्या भाव हैं जो आप कहना चाहते हैं (जिसको को फोन किया है) पहले आप उस रिंगटोन का आनंद लें जो आपके स्वाभाव के प्रतिकूल भी हो सकती है। आप वह रिंग टोन सुनने के लिए अभिशप्त हैं। आपको सुननी ही पड़ेगी। या  मान लिजिए आपके घर कोई आता है और आपके दरवाजे पर ढोल ढमाका जैसा संगीत, या कोई भी ध्वनि जबरदस्ती सुनाता है तो हमें कैसा लगेगा। ये सब कम्पनियों की लादी हुई संस्कृति पनप रही है। मोबाइल क्रांति ने ध्वनि संवेदना ही नहीं मूल संवेदना ही छीन ली है। जब बड़े बच्चे घर में शाम को प्रवेश करते हैं तब भी उनके कान पर मोबाइल लगा होता है। क्या वे संवेदनहीन होते जा रहे है कि घर में आ कर तो बंद करे माँ या पिता उनसे बात करना चाह रहे हैं। लेकिन आज के युवा पैदा ही मोबाइल संस्कृति में हुए है। असंवेदनहीन पीढ़ी तूफान को पहचानने में असमर्थ है।  कहीं न कहीं हम ही तो दोषी नहीं ?  आज तीन तीन साल के बच्चे मोबाइल पर राइम्स सुनते हैं इसमें दोष पेरेन्ट्स का है। आगे जा कर उन बच्चों में मानसिक विकृतियाँ  भी पैदा होने की संभावना है। लेखक ने बहुत समसामयिक विषय का चयन किया है । उम्मीद है आप सभी अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें जिससे और पहलू भी उजागर हो सकें।

ब्रजेश कानूनगो:-
आज का आलेख बहुत परिपक्वता के साथ नए अनछुए विषय की पड़ताल करता है।बहुत सारे  मनोवैज्ञानिक पक्षों पर लेखक इशारा कर रहा है।साथ ही संगीत जैसी विधाओं के व्यावसायिक इस्तेमाल से उसकी प्रभाव क्षमता का ह्रास भी इसमें दिखाई देता है।
एक निश्चित मनोभाव और अपेक्षा के साथ कोलर जा फोन लगाए और सामने से असंगत धुन सुनाई दे तो सचमुच यह ज्यादती ही होती है।वेदना की घडी में प्रफुल्ल संगीत अंततः क्षोभ ही पैदा करेगा।
एक साधारण घंटी हमारे उस दर्शन को पुष्ट करती है जिसमें अक्सर सुख या दुःख में हमेशां एक सा बना रह कर धीरज बनाये रखने का आग्रह निहित होता है।

किसलय पांचोली:-
आलेख ने मुझे मेरी लिखी एक कहानी "रिंग टोन वाला पोस्ट कार्ड" की याद ताजा कर दी। जिसमेँ मोबाईल क्रांति से जूझते पोस्ट मास्टर पिता की व्यथा और द्वन्द ही कथ्य था।
सचमुच हम अपनी दैनिक जिंदगी में स्वमेव बाजार को स्वीकार करने को अभिशप्त होते जा रहे हैं। हम अपनी सभी इंद्रीय क्रियाओं यथा देखने, सुनने, सूंघने, चखने और छूने में जाने अनजाने प्राकृतिक आह्लाद से दूर होते जाकर विज्ञापनों द्वारा तथा पोषित कृत्रिम आनन्द की गिरफ्त में कैद हो रहे हैं।
यह सही है कि अपनी इस बात को बिजूका समूह में मैं मोबाइल के जरिये ही पंहुचा रही हूँ। लेकिन कहते है ना अति हर चीज की बुरी होती है। संतुलन ही जीवन है। हमें  ही नई पीढ़ी को मोबाईल क्रांति के अतिरेक से बाहर निकालना है।

प्रज्ञा :-
एस टी डी बूथ और कहानी का याद आना मुझे कथाकार प्रियदर्शन की ऐसी ही कहानी याद आई। जो उनके संग्रह उसके हिस्से का जादू में है।
ये लेख बहुत सम्भव है उन्हीं का हो। रांची के ज़िक्र से भी।
बहुत सशक्त लेख है। ध्वनि सम्वेदना को छीना जाना और प्रतिपक्ष में संगीत का जादू। बहुत ज़रूरी और समय सापेक्ष लेख। बधाई रचनाकार को बधाई समूह को।

संजय पटेल :-
मनीषा जी की बात से सहमत हूँ।रिंगटोन में बुराई नहीं लेकिन उससे आपकी तबियत और तासीर झलकनी चाहिए।मेरे एक मित्र हैं उन्होंने अपने फोन में ॐ जय जगदीश हरे की आरती लगा रखी है।मैंने उनसे कहा कि आपको हर धर्म और मज़हब के लोग कॉल करते हैं।हमको निजी आस्थाएँ सार्वजनिक रूप से थोपना नहीं चाहिए।

मैं अपना  फोन  मुद्दाम दिन में कई बार बन्द करता हूँ।आनन्द रहता है।ये हम पर ही है और हमें ही तय करना है कि मोबाइल हमारा ग़ुलाम है या हम उसके।

अंजू शर्मा :-
वागीश जी, पूरी तरह सहमत। न फोन करना छोड़ सकते हैं और न ही बाजार की संगीत के क्षेत्र में घुसपैठ से बच सकते हैं क्योंकि यह व्यक्ति विशेष के चुनाव से सम्बन्धित है   यहां आपने सिर्फ रिंग टोन नहीं कॉलर टोन की बात की। पर मैं रिंग टोन अर्थात फोन करने पर फोन में बजने वाली बाह्य ध्वनि के विषय में कुछ कहना चाहती हूँ। फ़र्ज़ कीजिए किसी गम्भीर परिचर्चा में सब तन्मयता से वक्ता की बात सुनने की कोशिश कर रहे हैं कि वातावरण में गूंजता है, जरा जरा किस मी, किस मी, किस मी...किसी शोकसभा में बैठे हुए भावुकता के गहन क्षणों में डूब उतरा रहे है कि एकाएक किसी का फोन बजता है, बलम पिचकारी जो तूने मुझे मारी....मेट्रो की भीड़भाड़ से जूझ रहे हैं, सीट पर बैठे कुछ पढ़ने की कोशिश में हैं और करीब से शोर उठता है, अरे द्वारपालों कन्हैया से कह दो...संगीत मुझ जैसे लोगों के लिए सुख है, हीलिंग है, प्राणवायु है, जिजीविषा है पर उसका इतना कर्कश अनुभव दिल दहला देता है। सच कहूँ मुझे भी बीप बीप और ट्रिन ट्रिन के वे दिन याद आते हैं।

अरुण आदित्य :-
पूरी बाजार-संस्कृति को पहचानने की जरूरत
रिंगटोन और कालर ट्यून्स  दोनों बाजार के उत्पाद हैं, लेकिन दोनों को अलग-अलग करके देखने
की जरूरत है।रिंगटोन का संबंध इस बात से है कि आप क्या सुनना पसंद करते हैं, हालांकि अकसर दूसरे लोग भी आपकी पसंद झेलने को मजबूर होते हैं। जबकि कालर
ट्यून्स के मामले में तो बिलकुल स्पष्ट है कि आप दूसरों को क्या सुनाना चाहते हैं।चलो मान लिया कि रिंग टोन आप अपने लिए लगाते हैं और दूसरे संयोगवश उसे सुन लेते हैं पर कालर ट्यून्स के जरिए तो आप सीधे सीधे अपनी इच्छा दूसरे पर थोपते हैं। माना कि आप हरिप्रसाद
चौरसिया की बांसुरी के मुरीद हैं, लेकिन यह क्या कि जो भी आपको काल करे, आप उसे जबरन
बांसुरी सुनवाएं। माना कि आप बजरंगबली के भक्त हैं, लेकिन जरूरी तो नहीं कि आपके मुसलमान,
सिख इसाई दोस्त भी आपकी तरह हनुमान चालीसा सुनना पसंद ही करें। माना कि आप किशोर
कुमार की मस्तीभरी आवाज के आशिक हैं लेकिन कोई अपनी मां की मौत की खबर देने के लिए
आपको फोन करता है और आप उसे सुनवाते हैं, एक चतुर नार, बड़ी होशियार....। कालर ट्यून्स
के मामले में
सबसे अच्छा विकल्प तो यही है कि फोन करने वाले को निरपेक्ष घंटी ही सुनाई दे। लेकिन अगर

कोई मधुर संगीत के कुछ टुकड़े रखता है तो मुझे बहुत अच्छा तो नहीं लगता, लेकिन बहुत आपत्तिजनक भी नहीं लगता। लेकिन संगीत के टुकड़े चुनते हुए यह ध्यान जरूर रखना
चाहिए कि दूसरे छोर पर खड़े व्यक्ति के पास कोई दुखभरी खबर भी हो सकती है और शुभ समाचार भी। अच्छा संगीत वही है जो दुखी व्यक्ति के दुख को कम करता है और खुश आदमी की
खुशी को बढ़ा देता है। अच्छी कविता, कहानी और अच्छी कला भी यही काम करती है। यह
तर्क गैरवाजिब है कि फोन उठाते ही संगीत का गला घोट दिया जाता है। मेरा मानना है कि
यह अतृप्ति ही व्यक्ति को पूरी बंदिश सुनने के लिए प्रेरित करती है फिर व्यक्ति ढूंढकर पूरी
बंदिश को सुनेगा।

रही बाजार की बात। मोबाइल खुद  बाजार का एक उत्पाद है, जो हमारे पारस्परिक संवाद

को यांत्रिक बनाता है। जब हम इस गुड़ को मजे से खा रहे हैं तो रिंगटोन या कालर ट्यून्स के

गुलगुले से क्या परहेज करना। मोबाइल से सिर्फ संवाद के यांत्रिक हो जाने का सवाल ही नहीं है, मोबाइल
के निर्माण के पीछे भी बाजार का एक क्रूर चेहरा छिपा है जिसे निकारागुआ के महाकवि
एर्नेस्तो कार्देनाल की कविता की इन पंक्तियों से समझा जा सकता है।

आप अपने सेलफ़ोन पर बात करते हैं

करते रहते हैं

करते जाते हैं

और हँसते हैं अपने सेलफ़ोन पर

यह न जानते हुए कि वह कैसे बना था

और यह तो और भी नहीं कि वह कैसे काम करता है

लेकिन इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है

परेशानी की बात यह है कि

आप नहीं जानते

जैसे मैं भी नहीं जानता था

कि कांगो में मौत के शिकार होते हैं

बहुत से लोग

हज़ारों हज़ार

इस सेलफ़ोन की वजह से।

आगे यह कविता बताती है कि सेलफोन के कंडेंसरों में काम आने वाला कोल्टन हासिल करने के लिए
बहुराष्ट्रीय खनन माफिया के जाल में फंसकर 15 साल में 50 लाख लोग जान गंवा चुके हैं। जिस
व्हाट्सऐप के जरिए हम बाजार के विरोध में लिख रहे हैं, वह भी बाजार की ही एक चाल है।
लोग अपना सारा आक्रोश, विरोध यहीं पर निकालकर खाली हो जाते हैं, जैसे प्रेशरकुकर की
सीटी उठने पर भाप बाहर निकल जाती है। कितने-कितने दिन हो जाते हैं किसी दोस्त के घर
जाकर बात किए हुए। घर के एक कोने में बूढ़े मां-बाप इंतजार करते रहते हैं कि कभी बैठकर उनसे
फुरसत से बात करें और बेटा है कि उसका सारा समय बाजार की गलाकाट प्रतिस्पर्धा ने छीन
लिया है। तथाकथित कामयाबी की अंधी दौड़ से थोड़ा बहुत समय बच भी जाता है, तो उसे फेसबुक, व्हाट्सअप खा जाते हैं। 'आज मेरे पूज्य पिता जी का जन्मदिन है' लिखते हुए पिताजी का
जवानी का श्वेतश्याम फोटो लगाते हैं और पिताजी के पास दो पल बैठकर बतियाने के बजाय
दिनभर उनकी जवानी की तस्वीर पर मिले लाइक्स और कमेंट्स को गिनते रहते हैं।

बाजार पहले लत लगाता है, फिर गत बनाता है। जब आप उसे गाली बक रहे होते हैं, तो वह

उस समय भी आपसे पैसे कमा रहा होता है। रिंगटोन और कालरट्यून्स का मामला बहुत छोटा है,
अगर बाजार से निपटना है तो पूरी बाजार-संस्कृति को समझना होगा। क्या इस

बाजार-संस्कृति के बरअक्स जन-संस्कृति के वैकल्पिक माडल का कोई ब्लूप्रिंट है हमारे पास ?

वागीश झा:-
आज के बीज वक्तव्य पर समूह के ही एक साथी की टिप्पणी भी मिली है जो साझा कर रहा हूँ।
जैसा कि आप देख पा रहे होंगे हम व्हाट्सप्प जैसे माध्यम की सीमाओं से आगे जा इसे एक सार्थक संवाद का जरिया बनाने की कोशिश में लगे हैं। आपकी प्रतिक्रिया / टिप्पणी इस संवाद को मज़बूत करेगी, समृद्ध करेगी इस आह्वान के साथ बीज वक्तव्य और टिप्पणी पढ़ें और अपनी राय साझा करें। दोनों साथियों के नाम शाम को उजागर किये जाएंगे।

वागीश झा:-
बाजार-संस्कृति को पहचानने की जरूरत
रिंगटोन और कालर ट्यून्स  दोनों बाजार के उत्पाद हैं, लेकिन दोनों को अलग-अलग करके देखने
की जरूरत है।रिंगटोन का संबंध इस बात से है कि आप क्या सुनना पसंद करते हैं। जबकि कालर
ट्यून्स बताती हैं कि आप दूसरों को क्या सुनाना चाहते हैं। रिंग टोन आप की इच्छा का मामला
है, जबकि कालर ट्यून्स के जरिए आप अपनी इच्छा दूसरे पर थोपते हैं। माना कि आप हरिप्रसाद
चौरसिया की बांसुरी के मुरीद हैं, लेकिन यह क्या कि जो भी आपको काल करे, आप उसे जबरन
बांसुरी सुनवाएं। माना कि आप बजरंगबली के भक्त हैं, लेकिन जरूरी तो नहीं कि आपके मुसलमान,
सिख इसाई दोस्त भी आपकी तरह हनुमान चालीसा सुनना पसंद ही करें। माना कि आप किशोर
कुमार की मस्तीभरी आवाज के आशिक हैं लेकिन कोई अपनी मां की मौत की खबर देने के लिए
आपको फोन करता है और आप उसे सुनवाते हैं, एक चतुर नार, बड़ी होशियार....। कालर ट्यून्स
के मामले में
सबसे अच्छा विकल्प तो यही है कि फोन करने वाले को निरपेक्ष घंटी ही सुनाई दे। लेकिन अगर

कोई मधुर संगीत के कुछ टुकड़े रखता है तो मुझे बहुत अच्छा तो नहीं लगता, लेकिन बहुत आपत्तिजनक भी नहीं लगता। लेकिन संगीत के टुकड़े चुनते हुए यह ध्यान जरूर रखना
चाहिए कि दूसरे छोर पर खड़े व्यक्ति के पास कोई दुखभरी खबर भी हो सकती है और शुभ
समाचार भी। अच्छा संगीत वही है जो दुखी व्यक्ति के दुख को कम करता है और खुश आदमी की

खुशी को बढ़ा देता है। अच्छी कविता, कहानी और अच्छी कला भी यही काम करती है। यह
तर्क गैरवाजिब है कि फोन उठाते ही संगीत का गला घोट दिया जाता है। मेरा मानना है कि
यह अतृप्ति ही व्यक्ति को पूरी बंदिश सुनने के लिए प्रेरित करती है फिर व्यक्ति ढूंढकर पूरी
बंदिश को सुनेगा।

रही बाजार की बात। मोबाइल खुद  बाजार का एक उत्पाद है, जो हमारे पारस्परिक संवाद
को यांत्रिक बनाता है। जब हम इस गुड़ को मजे से खा रहे हैं तो रिंगटोन या कालर ट्यून्स के

गुलगुले से क्या परहेज करना।मोबाइल से सिर्फ संवाद के यांत्रिक हो जाने का सवाल ही नहीं है, मोबाइल
के निर्माण के पीछे भी बाजार का एक क्रूर चेहरा छिपा है जिसे निकारागुआ के महाकवि
एर्नेस्तो कार्देनाल की कविता की इन पंक्तियों से समझा जा सकता है।

आप अपने सेलफ़ोन पर बात करते हैं

करते रहते हैं

करते जाते हैं

और हँसते हैं अपने सेलफ़ोन पर

यह न जानते हुए कि वह कैसे बना था

और यह तो और भी नहीं कि वह कैसे काम करता है

लेकिन इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है

परेशानी की बात यह है कि

आप नहीं जानते

जैसे मैं भी नहीं जानता था

कि कांगो में मौत के शिकार होते हैं

बहुत से लोग

हज़ारों हज़ार

इस सेलफ़ोन की वजह से।

आगे यह कविता बताती है कि सेलफोन के कंडेंसरों में काम आने वाला कोल्टन हासिल करने के लिए
बहुराष्ट्रीय खनन माफिया के जाल में फंसकर 15 साल में 50 लाख लोग जान गंवा चुके हैं। जिस
व्हाट्सऐप के जरिए हम बाजार के विरोध में लिख रहे हैं, वह भी बाजार की ही एक चाल है।
लोग अपना सारा आक्रोश, विरोध यहीं पर निकालकर खाली हो जाते हैं, जैसे प्रेशरकुकर की
सीटी उठने पर भाप बाहर निकल जाती है। कितने-कितने दिन हो जाते हैं किसी दोस्त के घर
जाकर बात किए हुए। घर के एक कोने में बूढ़े मां-बाप इंतजार करते रहते हैं कि कभी बैठकर उनसे

फुरसत से बात करें और बेटा है कि उसका सारा समय बाजार की गलाकाट प्रतिस्पर्धा ने छीन

लिया है। तथाकथित कामयाबी की अंधी दौड़ से थोड़ा बहुत समय बच भी जाता है, तो उसे

फेसबुक, व्हाट्सअप खा जाते हैं। 'आज मेरे पूज्य पिता जी का जन्मदिन है' लिखते हुए पिताजी का
जवानी का श्वेतश्याम फोटो लगाते हैं और पिताजी के पास दो पल बैठकर बतियाने के बजाय
दिनभर उनकी जवानी की तस्वीर पर मिले लाइक्स और कमेंट्स को गिनते रहते हैं।

बाजार पहले लत लगाता है, फिर गत बनाता है। जब आप उसे गाली बक रहे होते हैं, तो वह
उस समय भी आपसे पैसे कमा रहा होता है।

रिंगटोन और कालरट्यून्स का मामला बहुत छोटा है,
अगर बाजार से निपटना है तो पूरी बाजार-संस्कृति को समझना होगा। क्या इस
बाजार-संस्कृति के बरअक्स जन-संस्कृति के वैकल्पिक माडल का कोई ब्लूप्रिंट है हमारे पास ?

मनीषा जैन :-
मुझे तो यह रिंग का कान्सेप्ट बिलकुल समझ नहीं आता। आपने किसी को फोन किया और पता नहीं आपके मन में क्या भाव हैं जो आप कहना चाहते हैं (जिसको को फोन किया है) पहले आप उस रिंगटोन का आनंद लें जो आपके स्वाभाव के प्रतिकूल भी हो सकती है। आप वह रिंग टोन सुनने के लिए अभिशप्त हैं। आपको सुननी ही पड़ेगी। या  मान लिजिए आपके घर कोई आता है और आपके दरवाजे पर ढोल ढमाका जैसा संगीत, या कोई भी ध्वनि जबरदस्ती सुनाता है तो हमें कैसा लगेगा। ये सब कम्पनियों की लादी हुई संस्कृति पनप रही है। मोबाइल क्रांति ने ध्वनि संवेदना ही नहीं मूल संवेदना ही छीन ली है। जब बड़े बच्चे घर में शाम को प्रवेश करते हैं तब भी उनके कान पर मोबाइल लगा होता है। क्या वे संवेदनहीन होते जा रहे है कि घर में आ कर तो बंद करे माँ या पिता उनसे बात करना चाह रहे हैं। लेकिन आज के युवा पैदा ही मोबाइल संस्कृति में हुए है। असंवेदनहीन पीढ़ी तूफान को पहचानने में असमर्थ है।  कहीं न कहीं हम ही तो दोषी नहीं ?  आज तीन तीन साल के बच्चे मोबाइल पर राइम्स सुनते हैं इसमें दोष पेरेन्ट्स का है। आगे जा कर उन बच्चों में मानसिक विकृतियाँ  भी पैदा होने की संभावना है। लेखक ने बहुत समसामयिक विषय का चयन किया है । उम्मीद है आप सभी अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें जिससे और पहलू भी उजागर हो सकें।

निरंजन श्रोत्रिय:-
मोबाइल/इंटरनेट बाज़ारवाद के चतुर संवाहक हैं। अपने उत्पाद को बेचने के लिए भी एक अलग बाज़ार है।इस "ड्रीम मर्चेंट" क्षेत्र के अनूठे विशेषज्ञ और पुरोधा हैं जो जानते हैं कि चीज़ों को किस स्थान पर, किस व्यक्ति (ग्राहक) को कैसे बेचना है। बाज़ार को पता है कि कब अपनी संस्कृति, भाषा यहाँ तक कि परस्पर रिश्तों का उपयोग करना है। इतने अत्याधुनिक उपकरणों और चमक-दमक के बीच यदि आपकी स्थानीय संस्कृति को परोसा जा रहा है तो इसके पीछे छुपी मंशा ताड़ने की ज़रूरत है। कॉलर/रिंग टोन भी इसी व्यापार का हिस्सा है। मुझे तो लगता है कि अब इन ध्वनियों में जहाँ अभी संगीत सुनाई दे रहा है, जल्द ही विज्ञापन सन्देश सुनाई देंगे। ये आपके भीतर एक बेचैनी,लालसा और विक्षोभ तो उत्पन्न करते ही हैं, आपकी निजता को भी प्रभावित करते हैं।

आशीष मेहता:-
निरंजन सर, विज्ञापन संदेश (कालर ट्युन बतौर)सुनने के लिए आप भविष्य की ओर न देखें। मुझे फोन करें और परम आदरणीय माधुरी दीक्षित की सुमधुर आवाज़ में आपकी दैनिकउपयोगी वस्तु का विज्ञापन सुनिए। यह कॅालर ट्यून, मेरा व्यक्तिगत चुनाव नहीं, वरन् मेरे सभी सहकर्मियों  के मोबाइल पर भी आवश्यक रूप से काबिज़ है। वाकई, वो दिन दूर नहीं जब आप कोई विज्ञापन बतौर कॅालर ट्यून चुन पाएंगे और बदले में पाएँ ढेर सारा टॅाक टाइम, बिल्कुल मुफ्त (*शर्तें लागू)।  ठीक इसी तरह की स्कीम, कार खरीदी पर उपलब्ध है। (कुछ तय विज्ञापन कार पर चस्पा करें, महिने में तयशुदा दूरी चलाइए । कार फ़्री ।)

पर मुझे लगता है कि आज का बीज वक्तव्य गहरी संवेदनशीलता और व्यवहारिकता (संस्कृति) की तरफ है ।
लेखक की संवेदनशीलता और मनोवृत्तियों की परख की दाद देना चाहता हूँ। उनका संगीत प्रेम भी अद्वितीय प्रतीत होता है। "संगीत के साथ अन्याय ?" एवं  "ध्वनि के प्रति संवेदनहीनता" जैसे फिलासोफिकल सवाल बाहर (बाज़ारवाद) की तरफ कम, अन्दर की तरफ ज्यादा इशारा कर रहे हैं।

मैं ध्वनि प्रयोग पर श्री राहुल देव बर्मन के अथाह योगदान का कायल हूँ, इसलिए लेखक की पहली चिन्ता (संगीत के प्रति अन्याय) से पूरी तरह सहमत नहीं हूँ। हाँ, अरुणजी का 'निरपेक्ष घंटी' का सुझाव अनुकरणीय हैं ।

मोबाइल पर कालर /रिंग टोन कैसी हो , मोबाइल के इस्तेमाल (शमशान में, सिनेमा हॅाल में, मंत्रणाकक्ष में) वक्त आचरण निजी (अनुशासन) एवं सार्वजनिक मसले हैं। ठीक वैसे ही जैसे, हम यातायात नियमों का पालन करें, अपने माता पिता की देखभाल करें, सही  कर भुगतान करें, मर्यादित आचरण करें ।

पर हम सभी बाज़ारवाद से बुरी तरह से आक्रांत हैं, क्योंकिहम खुद गुलाम हैं बाज़ार के।
कोई विशेष ब्लूप्रिंट प्रस्तावित नहीं है, पर 'निरपेक्ष घंटी' को सभी सदस्य अपना लें एवं जो स्नेही "अभी भी" आपके मानने में हैं, उन्हें भी प्रेरित करें।
और हाँ, लेखक साथी का नॅास्टेल्जिया मृदुल एवं मानवीय रहा, बीज वक्तव्य में ।