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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

31 अक्तूबर, 2017

विनोद पदरज की कविताएं

विनोद पदरज: 13 फरवरी 1960 को सवाई माधोपुर जिले के एक गाँव-मलारना चौड़ में जन्म। इतिहास से एमए। हिन्दी साहित्य की सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित साथ ही समय-समय पर दूरदर्शन एवं आकाशवाणी से प्रसारित।
विनोद पदारज

‘बाहर सब शांत है’, ‘रेत पर नंगे पाँव’ आदि विभिन्न संग्रहों में संकलित।

कृतियाँ-
कोई तो रंग है (कविता संग्रह)
हिन्दी कवि अम्बिका दत्त पर केन्द्रित मोनोग्राफ का सम्पादन।
प्रौढ शिक्षा के लिए साहित्य सृजन। सम्प्रति- बैंककर्मी



कविताएं

फूल

फूल इतने नाजुक
कि षमषेर कहें-
‘‘कोमल सुख की कराह सी पंखुड़ियाँ’’
और इतने कठोर
कि लपलपाती आग में भी जेठ की
खिलिखलाये अमलतास

रंगों के मुताल्लिक
वो ऽ ऽ फिदा हुसैन
और गंध के मामले में
वे कन्नौज होते हैं

तितलियाँ मँडराती हैं उनके चारों ओर
भँवरे मँडराते हैं
एक फूल से दूसरे तक
उड़ता है पराग

समूची पृथ्वी पर फूल ही फूल
समूची पृथ्वी पर रंग ही रंग
समूची पृथ्वी पर खुशबू टहलती है

पर उस पिता के दुःख की क्या कहूँ
जिसने बिलखते हुए कहा था-
‘‘अरे उन हत्यारों ने
मेरी फूल सी बेटी को जलाकर मार दिया’’
००


लाठी और दराँती

तलवार एक हथियार है
जबकि दराँति एक औजार
जिससे वक्त जरूरत
हथियार का काम लिया जा सकता है
जैसे कि लाठी
मूलतः सहारा है
और कभी कभार हथियार
जबकि बंदूक
मात्र एक हथियार है प्राणघाती

मुझे तलवार भी अच्छी लगती
यदि उससे साग बिनारा जा सकता
या लावणी की जा सकती
और बंदूक भी
अगर कोई अंधा
उसे छड़ी की तरह ठकठकाता
रास्ते से गुज़रता
और मन, प्रसन्न हो कहता
यह अंधे की बंदूक है

मगर तलवारें तो
खून पीकर ऊँघ रही है म्यानो में
ओर बंदूकें
नरमेघ की प्रतीक्षा में
जवानों के कंधे छील रही हैं

जबकि लाठी
हमारे इतने क़रीब
कि कल ही एक वृद्ध ने
विहृाल होकर
अपने पोते के लिए कहा-
‘‘बहुत छोटा छोड़ गया था इसका बाप
बड़े जतन से पाला है
अब यही मेरे बुढ़ापे की लाठी है।’’
००

चित्र: अवधेश वाजपेई

पंख

वहाँ घास पर एक पंख पड़ा है

हो सकता है
बहुत ऊँची उड़ान के दौरान
ढाीला होकर निकल गया हो यह
और लहराता, चक्कर काटता
यहाँ चला आया हो
वहाँ
डार में उड़ते पक्षी ने सोचा हो
अरे!बाँई तरफ की हवा कम क्यों कट रही है

किंवा सम्भव है
कि उड़ान से पूर्व ही
खिर गया हो यह
और वंचित रहा हो
आकाश नापने के किसी भी रोमांच से

जैसे पाँव होने पर भी
चलते नहीं कई लोग
ऐसे ही किसी लद्धड़ पक्षी का पंख भी
हो सकता है यह
जो लम्बे समय निष्क्रियता के बाद
अंततः झर गया हो
या उस पक्षी का भी
जिसने स्वयं ही
दीमकों की एवज़ में
अपने पंख को देना तय किया था

क्या पता
यह उस पक्षी का पंख हो
जिस पर दागी गई हो बंदूक
साँझ के झुटपुटे में
घर लौटते समय
और घायल होकर उड़ा हो वह-बदहवास
छर्रे की मार से
पंख टूटकर गिर गया हो

अथवा
पहचान नहीं पा रहा हूँ मैं
कि यह मेरे ही मन का पंख है
जो खिसल गया है निश्शब्द
चालीसवें वर्ष में
एक अंत की शुरूआत करता हुआ

पर शायद यह भी गलत है
क्योंकि इस पंख में
मुक्ति की जैसी छटपटाहट
और उड़ान का जैसा स्वप्न निहित है
उससे लगता है
निश्चय ही यह किसी स्त्री का पंख है
जो लौह सलाखों से टकराकर
टूट गया है


श्री अरुण आदित्य की कविता ‘बटन’ के प्रति आभर सहित।
००



मुकुट

सम्राट एडवर्ड अष्टम ने उतार फैंका था इसे
दरअस्ल यह
प्रेमिका के साथ सिर जोड़कर बतियाने में आड़े आता था
और प्रेमिका भी
रानी नहीं थी कोई कि पटरानी बनने की चाह में
मुकुट से प्यार करती
साधारण स्त्री थी और सचमुच ही एडवर्ड से प्यार करती थी

बुद्ध और महावीर ने ठोकरों पर उछाल दिया था इसे
वे दुःख का कारण जानना चाहते थे
और दुःख के कारण का पता
आदमी के पास आदमी की तरह जाने से चलता है

सुनते हैं कि विक्रमादित्य
भटकता था रात बिरात
गली कूचों मुहल्लों में
अपना मुकुट उतार कर
उसका शासन श्रेष्ठ बताया जाता है

और गाँधी ने तो इसे पहना ही नहीं
उन्हें अपनी आत्मा के गहने इतने प्रिय थे
कि मुकुट धारण करने का खयाल तक हिंसा लगता था
वे इसकी तरफ देखकर
एक मासूम बच्चे की तरह मुस्कुराते थे
पूणी कातते थे
चरखा चलाते थे
बकरियों को चारा खिलाते थे
००


भाषा के बाहर

आदमी आदमी से गले मिलता ही नहीं
मुस्कुराता है
कि हाथ मिलाता है
पर स्त्रियाँ-गले मिलती हैं सदैव
जैसे पुष्कर मेले में
उस परदेसी मेम ने
ऊँट की रास थामे खिलखिलाती जाती देसी गोरड़ी को
इशारे से रोका
और फोटो खींचा
फिर बड़ी देर तक
माथे का बोरला
कानों के झाले
खुंगाळी गले की
दाँतों की चूँप
हाथों की मेंहदी
बाहों का चूड़ा
पाँवों की कड़ियाँ
नोकदार जूतियाँ
गोटा किनारी का लहँगा ओढ़नी देखती रही
खिलखिलाती
और जब विलग हुई
गले मिली भींचकर
जैसे एक देश का घनीभूत दुःख
दूसरे देश के मर्मांतक दुःख से
गले मिला हो
००


चित्र: अवधेश वाजपेई

हवा

हवा चलती है तो पत्ते हिलते हैं
पत्ते हिलते हैं तो हवा चलती है

पर पत्तों के हिलने से जो हवा चलती है
क्या यह वही हवा है शुष्क दाहक झकर
जो पत्तों तक चलकर आई थी
पत्तों को छूकर यह प्राणदायिनी, शीतल और गंधवती हो जाती है

पीपल को छूकर पीपल की हवा
शिरीष को छूकर शिरीष की हवा
नीम को छूकर नीम की हवा
और तुमको छूकर ...

तुमने कहा था-हवा चलती है तो पत्ते हिलते हैं
मैंने कहा था-पत्ते हिलते हैं तो हवा चलती है
००


००

मृत पेड़

टेबिल कुर्सी पर बैठकर
पलंग पर लेटकर
कि किंवाड़ भेड़ते हुए
कौन याद करता है पेड़ को

मगर जब बारिशें आती हैं
धरती महमहाती है
सजल हो उठते हैं वे
उनमें से खुशबुएँ निकलती हैं
पुरखों की याद दिलाती हुई
००



सिटी पैलेस में

इतिहास की किताबों में देखा था जिसे
वही चित्र देख रहा था मैं
उस भव्य कक्ष की दीवार पर

महारानी आई थी इंग्लैण्ड की-मलिका विक्टोरिया
जिसके सम्मान में रखा गया था शिकार

बंदूकों के साथ खड़े थे
राजा, रानी, राजकुमार,
मंतरी, संतरी, अहलकार,
ताज़िमी ठिकानेदार,
मरा पड़ा था कदमों में
बारह फुट का न्हार

कहते हैं
कभी-कभी
जब आसमान में चमकता है पूरा चाँद
इसी फ्रेम के पीछे से
कुछ आवाजें सुनाई पड़ती हैं
हाँका देने वालों की
मचान बाँधने वालों की
असला उठाने वालों की
बावर्चियों, खानसामों की
और एक एक मरियल मिमियाहट उस बकरे की
जिसे टैणे से अलगाकर बाँधा गया था पेड़ से
उस अपरूप ज्योत्सना में
००

केवल निपजाने से क्या होता है

कपास निपजाने से वस्त्र नहीं आ जाते घर में
अन्न निपजाने से रोटी नहीं मिल जाती
गन्ना निपजाने से मन कड़वा-कडव़ा हो जाता है
यही सोचकर बड़ा बेटा शहर को जाता है
फर्ज़ कीजिए मुंबई
जहाँ जुहू बीच पर भेलपुरी का ठेला लगाता है
और रात गए
दस बाई दस की खोली में
बदरी,लड्डू,रामनिवास के बीच
मुर्दे सा पड़ जाता है
पैसा कमाता है
जिसे होली पर, दीवाली पर
रात-रात भर जागकर
जेबकतरों से बचता-बचाता
गाँव ले जाता है
मगर घोर आश्चर्य
जब तक पहुँचता है वापस मुंबई
पैसा पहले ही मुंबई पहुँच जाता है
००


चित्र अवधेश वाजपेई


बिलौटे के पंजे से छूटी गौरैया जो बस में चढ़ी

मुझसे हटकर बैठी थी वह
चौकन्नी, सतर्क
पर शायद रात भर रोई थी
आँखें रुदनारुण थी
पपोटे सूजे हुए
कि बस चलते ही ऊँघने लगी
और उसका सिर
मेरे कंधे से लग गया

अब वह सो रही थी-बेसुध
बीच-बीच में बच्चे की तरह
हपसे भरती
उसका मुँह मेरी छोटी बहन की तरह थोड़ा खुल गया था

जब कभी बस रुकती झटके से
वह हकबका कर जागती
सजग हो बैठती कपड़े समेटकर
फिर थोड़ी ही देर में
नींद के आगोश में डूब जाती
फिर उसका सिर मेरे कंधे से लग जाता

‘दारी, हरामजादी
देखें कौन कितने दिन रोटी देता है तुझे
आना तो यहीं पड़ेगा’
गूँजता था उसकी नींद में
लात,घूँसा, थप्प्पड़, लाठी के साथ
जिसे मैं सुनता था निस्पंद

यह उस समय का वाक़या है जब मैं
अन्नान अलषेख के एक धधकते वाक्य पर
नंगे पाँव खड़ा था-

‘‘स्त्रियाँ हमारे समाज में
पीड़ितों का वह अकेला समूह है
जो अपने उत्पीड़कों के
निकटतम सानिध्य में रहता है।’’
००

अगन जल

जो स्त्रियाँ आग ढूँढती हैं
वे ही स्त्रियाँ जल ढूँढती है

वे जो आग ढूँढती हैं
दाहक नहीं होती केवल
उसमें जल होता है
वे जो जल ढूँढती हैं
षामक नहीं होता केवल
उसमें आग होती है
इसी आग और जल से वे
सृष्टि में स्वाद रचती हैं
जिससे ऊर्जस्वित होते हैं
योद्धा, योगी, वैज्ञानिक
लेखक और कलाकार
जो बाहर से जल होते हैं
और भीतर से आग
००


वही आदमी

जिसे बाढ़ में बहकर मरते देखा
जिसे ठण्ड में ठिठुर कर मरते देखा
जिसे लू में झुलसकर मरते देखा
वही आदमी बैठा था सामने-अधनंगा

नागार्जुन जैसी बढ़ी हुई दाढ़ी
मुक्तिबोध जैसी उभरी हुई हड्डियाँ
वह प्रेमचंद के जूते पहने था
और रेणु की भाषा में बोलते बतियाते
खिल-खिल खिलखिलाता था

कितना तो चाहा था सबने कि मर जाये
पर मरता ही नहीं था कमबख़्त
००

संपर्क:

विनोद पदरज
3/137, हाउसिंग बोर्ड, सवाई माधोपुर, राजस्थान 322001
छवि निगम की कविताएँ

छवि निगम

कविताएं


यह कविता है।
  --------
यह क्या एक कागज़ रंगा?
नहीं बेटा!
यह कविता है।
यह कविता है?
पर इसपर तो नदी  नहीं, न ही झरना
तितली, फूल,महल न सुंदर झुनझुना
मेरी लुभावनी नाव सी, कविता बने।

उफ़!फिर से समय की बर्बादी?
नहीं मित्र!
यह कविता है।
यह कविता है?
पर न इसमें है दर्द, न  मरती आबादी
न कोई विद्रोह, न सुलगती आज़ादी
मेरे लहू का रंग भरे, कविता बने।

इस उम्र में ,निराशा यों घनघोर?
नही बाबा!
यह कविता है।
यह कविता है?
न टूटते सपने इसमें, न झुर्रियों के छोर
न झुकते लाचार कंधे, आँखों के नम कोर
सुखद सिहरन के स्पर्श सी, कविता बने।

प्रिय प्रतिबिम्ब मेरे, खत्म तेरी अभिलाषा?
नहीं दर्पण!
यह कविता है।
यह कविता है?
सबकी इच्छाएं सम्मिलित, पर न तेरी भाषा
न सबके अनुरूप ये,न ही सबकी आशा
बस तुम कहो और मैं सुनूँ, कविता बने।
००

देखना
 ---------
इस अंधेरों के शहर में
अबकि एक चाँद बो दूँगी,
चांदनी के पत्तों पर
पाँव रखते रखते
तुम तक पहुंचूँगी...
और खींच उतारूंगी ।
रख दूँगी तुमको
चीकट सुबकते गालों पे
भिगो दूँगी तुम्हें
उन गालों पर खिंची
मटमैली अधगीली लकीर में,
अटका दूँगी
किसी खाली उधड़ी जेब की
नाउम्मीद सीवन में
टाँग दूँगी किसी
बेतहाशा भीड़ के बीचोंबीच।
फिर
चीखके देखना ज़रा तुम
किसी बेआवाज़ तमाचे से
तड़पना
बेबस इंतज़ार की आखों में
घिसटना
टूटे तले की चप्पल में उलझ
भटकते रहना
एक बेबस माँ के लिखे बैरंग ख़त में।
ए ईश्वर या ख़ुदा
ऐसा करना
अबकि तुम
पीड़ा का सही अर्थ समझना
अबकि तुम
औरत की देह ले जन्मना ।
फिर बताना
कि तब
ख़ुदा कौन
कैसा दिखता है तुम्हें ?

००
चित्र: अवधेश वाजपेई

कविता नहीं लिखते
  -------------
न,कविता नहीं लिखते।
जी, बस ऐसे ही टाइम पास  करते हैं
हम कुछ खास नहीं करते।
मुआफ़ी चाहते हैं...
वो तो बेसाख़्ता ही
बेमतलब बेमक़सद
बिख़र आते हैं कभी स्याह से  बाग़ी ख़यालात किसी सफ़ेद सफ़े पे बरबस..
जब हमसे सम्भाले नहीं सम्भलते।
जी ,क्या कहा?
नहीं नहीं।हम कविता नहीं लिखते।
वो तो यूं ही
कैलेंडर में तारीखों के गिर्द गोले खींचते
बेबस इक उम्र की नाप तौल करते
बेख़याली में,नामालूम सा दर्ज़ हो जाता है, उसी पन्ने के पीछे कुछ ..
दिन रातों के हिसाब शरीक़ करते
समीकरण बैठाते,जोड़ते घटाते कभी कभार
कभी धोबी को दिए कपड़े गिनते गिनते
जाने किस और मुड़ जाती है मुई पेन्सिल बेलगाम
जगह न हो तो,हाशिये पे ही भाग पड़ती है..
कहीं ऐसे भी कविता होती है?
पुरानी कॉपियों के आख़िरी पेज पर
भूले भटके किसी प्रिस्क्रिप्शन, पर्ची कभी किसी बिल को उलट
भागते आ, कुछ लिखना
फिर वापस दौड़ जाना
बताइये, ये हिमाकत भला कविता हो सकती है?
ये कविता नहीं,कोई मर्ज़ है ज़रूर
न कोई सैलाब इसमें, न तनिक बारूद
वो तो बेइख़्तियार ,चाय की पतीली से मसालदान में कूद आते हैं
रंगों के भूखे चन्द अलफ़ाज़ बेशऊर
पिस के भुन जाते हैं बेचारे
कभी गूंध लिए जाते है, कभी दूध संग उफ़न बह जाते हैं..
जी सही कहा,कविता ये थोड़े ही न बनाते हैं।
पुलक दबा लेते हैं,हम थिरकन बाँध कर रखते हैं
तल्खी से जज़्बातों की हिफ़ाजत किया करते हैं
वो तो चुभ जाती है बेसाख़्ता कभी कोई किर्च अपने ही वज़ूद की
बुहारते यादों का सीला सा आँगन
बस एक आह सिसक पड़ती है कभी, ग़र छिपा नहीं  पाते
जी, जख़्मों का पर्दा रखते हैं।
वो जब आसमाँ का एक टुकड़ा टूट ,आ लपकता खिड़की के भीतर जब
बस तारे बीन, चाँद के सदके जुगनू बना उड़ा देते हैं
धड़कन की पायल छनकाते सांसों की परवाजें भरते हैं
कहाँ हम कविता कोई लिखते हैं?
वो तो नामुराद ,बेग़ैरत कुछ बेमुरव्वत से सपने
छिप जाते कमबख्त,  वैसे तो तनिक सी आहट पर
पर देखो कब्ज़ा जमाये रखते हैं जबरन दिल पर,जेहन पर
नींद में ख़लल डाल,खुद गद्दे के नीचे,किसी कागज़ पर सो जाते हैं
हम सपनों की लत से उबरने की ,पर जारी ज़िद रखते हैं
बताने लायक सा,हम तो कुछ नहीं करते
जी, आप सही हैं
फ़क़त जाया वक़्त करते हैं
हम कविता नहीं लिखते।

००


आत्महत्या
   ---------
कुछ तो होगा उस पार
जो खींचता होगा..
सोचा होगा तुमने
शायद वहां
दिल के फफोले न टीसते होंगे
न सांसों का शोर डराता होगा
न आँसुओं से खारा समन्दर
न ख्वाबों सा चटखता आसमान होता होगा
न रेतीले जिस्म
क्रॉसवर्ड पहेली सी ज़िन्दगी भी नहीं होगी
न भुरभुरा गिरते दिन
न लिबलिबी काई पर फिसलती रातें होंगी
न कैद में ख्वाहिशों की
हथेली की लकीरों के दरख़्त  मुरझाते होंगे
न प्यार का अर्थ बोझ
न रिश्तों का मायने फ़ासला होता होगा..
पर रुको ज़रा
ये गर्दन पर आस का फंदा बाँध
उस पार की छलाँग
की जो तैयारी की है न..
सुनो दोस्त
वो चमकती सतह जो लुभा रही है
वैतरिणी की नहीं
न मणिकर्णिका की
न मृत्यु न जीवन न मुक्ति
वो तो आभासी प्रतिबिम्ब दिखाते
इसी दर्पण की है ..
सोच लो!

००
चित्र: अवधेश वाजपेई

      वसीयत
       -------
नाम तेरे एक चाँद लिखेंगे
परवाजें न बाँटी जाएँ, ऐसा आसमान लिखेंगे
मेरी सारी नदियां तेरी
अपनी सब झीलों की मौजें,आज तुम्हारे नाम लिखेंगे
आँखें हों,सपने भी हों पूरे
सोचते हैं, ऐसा बचपन, बेलौस तुम्हारे नाम लिखेंगे
हर आहट पे दिल न कांपे
अमन चैन भाईचारा अहिंसा सुकून आराम लिखेंगे
बाहें पसारें, सब दरवाज़े
विरासत में , मकाँ ऐसा,बसेरा तुम्हारे नाम लिखेंगे
दुःख दर्द जैसे शब्द ख़ारिज
शब्दकोश बस प्रेम प्यार का बना, तुम्हारे नाम लिखेंगे
धरती छोटी दिल के आगे
जो भी चाहे आकर पढ़ ले,चाहत का पैगाम लिखेंगे
हथियार सारे आ दफन हों
सरहदें हों सांझी सबकी,ऐसा सुंदर एक जहां लिखेंगे
उसे फाड़, उड़ा देना तुम पन्ने
हवाएँ बांचेगी केवल प्रेम, वसीयत तुम्हारे नाम लिखेंगे।
००

बदलाव
 ---------
ये दुनिया बाज़ार
इश्क़  दुकान
प्रेम व्यापार!
हैं बिकती रहीं
सजी देहें
आतिशें/ख्वाब/आसमान
सदा से...
पर आज
दौर ये बदला है
सुनो!
आज
कतारबद्ध सब घेरों में
बिकाऊ..
और मैं खरीददार!
चाहत केसिक्के मेरे पास
तो चुनाव
बस मेरा है..
हूँ खड़ी सतर
निशाना सटीक
तुम महज़ सामान
मेरे हाथों में छल्ला है।
००

प्यार
-------
हाँ भूल चुकी हूँ तुम्हें
पूरी तरह से
वैसे ही
जैसे भूल जाया करते हैं बारहखड़ी
तेरह का पहाड़ा
जैसे पहली गुल्लक फूटने पर रोना
फिर मुस्काना
घुटनों पर आई पहली रगड़
गालों पे पहली लाली का आना
तितली के पंखों की हथेली पर छुअन
टिफिन के पराठों का अचार रसा स्वाद
वो पहली पहल शर्माना..
पर जाने क्यों
बेख़याली में कभी
दुआओं में मेरी
एक नाम चोरी से चला आता है चुपचाप
घुसपैठिया कहीं का!

००

चित्र: के रवीन्द्र

सुबह नहीं होती अब
    --------------
देखा करती थी
नींद के खुलते ही
सुबह सुबह रोजाना ही...
और कैसे फौरन
खिलखिलाता
आंखमिचौली सा खेलता
गोलमटोल
मासूम सा सूरज
मेरी खिड़की की गोदी में लपक आता था।
अब...
तप जाता है
थक जाता है
हाँफते हाँफते बेचारा
चढ़ते चढ़ते
दस मंजिलें एक के बाद एक
सामने उग आई
उस नई इमारत की।
मेरी भी  निराश खिड़की
बन्द हो चुकती है
तब तक।

००


     शब्द
           -
तो बकौल आइन्स्टीन
पदार्थ न मरता है, न बनता
ऊर्जा तक बन सकता है इक निरा पत्थर..
अच्छा!
शब्दों को क्यों नही बूझा किसी ने?
वो भी तो नहीं बनते,मिटते भी नहीं
कहीं कुछ नया नहीं होता कभी कहने सुनने को।
सदियों पहले की कहा सुनी
कान के पर्दे से टकराते रहती है देखो आज भी ..
हीर सोहनी लैला जूलियट.. हाँ,सुनती हूँ तुम्हें सच
समा कर तुम में, मीरा -सी जी लेती हूँ
उफ्फ़!
देह को जिंदा कर जाते हैं, फिर मुर्दा भी
सुकरात के प्याले में घुले आह ये शब्द...
कहाँ बंधेंगे!
पारे की बूँद से ढुलक  जाते
कभी पहाड़ हो जाते,किसी मांझी के घन का इंतज़ार करते करते
प्यार के प्यास की भाप कभी उड़ जाती
कभी बारिश की नमी सी जम जाती इन्हीं शब्दों मे
सुनो!
बदल दो न प्यार को भी आइंस्टीन के 'मैटर 'में।
शब्दों से उसे जमा लूँ
पिघला भी लूँ कभी मैं
ठंडे लावे से तर कर लूं रूह अपनी।
बस ये बावरा दिल अब बुद्ध हो ले
बेलौस निकल पड़े ,बंजारे शब्दों की राह खोजे..

००


स्वागत
 ---------

पहले पायदान पर रगड़ आओ मज़हब
छिड़क लो इतनी आब
धुल जाये तंगदिली सारी
घिस के पोंछ दो तौलिये से अपना प्रान्त, वर्ग और नस्ल
ग़ुरूर बाहर छोड़ आओ
अलगनी पर सोच को ज़रा धूप दिखा दो
वहीं स्टैंड रखा होगा
पैरहन उतार दो मर्द या औरत होने का
और उसपर टाँग दो...
आओ मेरे दोस्त
अब मिलते हैं

००

-डॉ छवि निगम

परिचय-लेखक एवं शिक्षाविद्
 निवास-लखनऊ




ब्लॉग के लिए इस ई मेल आईडी पर रचनाएं भेजी जा सकती है- bizooka2009@gmail.com
वाट्स एप-9826091605
सत्यनारायण पटेल


बहादुर पटेल की कविताएँ
================

बहादुर पटेल: 17 दिसम्बर, 1968 को लोहार पीपल्या गाँव (देवास, म.प्र.) में बहादुर पटेल ने एम.ए. हिंदी तक शिक्षा हासिल की है। आपकी कविताएं हिंदी की अधिकांश प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही है। कविताओं का उर्दू, मलयालम, नेपाली  भाषा में अनुवाद भी हुआ है।
बहादुर पटेल

आपके दे कविता संग्रह 'बूंदों के बीच प्यास' और 'सारा नमक वहीं से आता है' प्रकाशित है ।
आपको सूत्र सम्मान 2015, राजस्थान पत्रिका कविता सर्जनात्मक पुरस्कार 2015, वागीश्वरी पुरस्कार 2015 प्राप्त है। आपका वामपंथ से गहरा लगाव है। साहित्यिक मंच ओटला, देवास से सम्बद्ध। आप शासकीय नौकरी में है।





कविताएं

मेरा हाथ छोड़ देना
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इस भीड़ भरी दुनिया में
तुम अकेली न पड़ जाओ मेरी बच्ची
आओ मेरा हाथ पकड़ो
मेरे साथ चलो
थोड़ा चलना सीख जाओ
कुछ लड़ना भी

फिर इस भीड़ में ऐसे चलना
जैसे अकेली नहीं हो तुम
तुम अपने सारे हुनर को साथ लेकर चलना
पर इतनी चौकन्नी रहना

कि जैसे चल रही हो किसी तनी हुई रस्सी पर
कोई नहीं होता किसी का
भ्रम का जाल है यह दुनिया
छद्म है यहाँ सारे सम्बन्ध
इतिहास से भी पीछे की धर्मग्रंथों की

अंधी गलियों में तय हुआ था तुम्हारा भविष्य
नकारने की ताक़त पैदा करनी होगी तुम्हे
मेरे भरोसे मत रहना मेरी बच्ची
मैं भी रोड़ा बनूँगा तुम्हारी राह का
तुम्हारी काट के लिए मुझे भी

उसी अंधी गली से कुछ मन्त्र दिए थे
तुम अपने आप को समझो
मैं जब गलत होंऊ तो टोक देना
और मेरा हाथ भी छोड़ देना ।


शोकगीत
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मैं देर तक गाता रहता था
वह सुनती रहती
मैं अक्सर कहता कि तुम भी सुनाओ
वह कहती कान मेरे वाद्य है
यह संगत भी कम है क्या

मेरे गीतों में उसके कान
नए राग पैदा करने के कारक हुए
किसी राग पर उसके होठ फड़फड़ाए
और विलीन हो गयी उनकी आवाज़
मेरे कहे के भीतर
अब मैं नहीं वह गाती है

यह एक नियम सा बन गया
प्रार्थना की तरह
मेरे सो जाने पर उसके कान बजते
या उसकी नींद में धमकते रहते मेरे गीत

दरअसल मैं गाता नहीं था
पर फूल होगा तो भौंरा गायेगा
या यूँ कहें कि बांसुरी होगी
हवा बजाएगी
कोई राग होगा तो मुझे छेड़ना ही होगा

रात दिन गाता रहा
यूँ ही गाते-गाते मेरा गला वाद्य में बदल गया
अब हम दोनों ने मिलकर
अपने को परिभाषित करना शुरू किया

समय का फेर चीजों को ही नहीं
मनुष्य तक को बदलता है
सिंथेसाइज़र की तरह कोई वाद्य है
जो मेरे गाने और उसके बजने
में पैदा कर रहा है अवरोध
अब वह गाती है
और सिंथेसाइज़र बजता रहता है
अब मैं एक शोकगीत हूँ ।


चित्र: के रवीन्द्र

सवाल
---------


इन जुवार के दानों को देखो
किसान के पसीने की बूँदों से बने हैं ये
पसीना शरीर की भट्टी में तपकर धरता है यह रूप
दरअसल उसके पसीने की हर बूँद
स्वाति नक्षत्र की होती है
जो गिरती है बीज की सीपी में

देखो इनको वह अकेला नहीं खाता
जीव- जंतु और पंछियों को देता है उनका हिस्सा
कुछ अपने परिवार के लिए
कुछ रखता है बीज के लिए
बचा हुआ सब हमें लौटा देता है

अब वो क्या क्या जाने
जमाखोरी
उसे नहीं पता सरकार के गोदाम में
कितना सड़ जाता है हर साल
और कितने लोग मर जाते हैं भूख से

वो तो इतना जानता है
कि कर्ज से दब जायेगा
तो क्या बोयेगा इस धरती की कोख में
हम सबकी भूख वह देख नहीं सकता

और उसकी आखिरी नियति
हम सब जानते ही हैं
यह सब सनद रहे
आने वाली पीढ़ी पूछेगी हमसे सवाल ।


विदा का हाथ
----------------


रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म बहुत लुभाते रहे
कभी दिन में कभी रात में
सुहाने लगते रहे
एक छोटा सा स्टेशन भी
रात दो बजे के सूनेपन में भी
कभी डरावना नहीं लगा

घर छोड़ने और घर लौटने
या किसी को विदा देने
किसी लिवा लाने
यहाँ आता रहा बार-बार

पहली बार जब घर से दूर जाना हुआ
तो उदासी मेरे साथ सफर करती रही
उदासी घर में भी पसरी रही
जब भी माँ पिता से बात की
आवाज़ उदासी के पर्दे छनकर आई

जब-जब भी लौटा घर
ख़ुशी स्टेशन से साथ हो ली
कितना कुछ था इसके भीतर बाहर
जो मुझे पहचानता था
यह बाहें फैलाये खड़ा होता था

आज जब बेटे को इसी स्टेशन पर
विदा करने आया
कैसा मनहूस सा लगा यह स्टेशन
हलचल के बीच सन्नाटा पसरा है
हिदायतों में उलझाये रखा अपने आपको
इन औलादों पर बड़ा नाज़ होता है
इन्हें विदा करना कितना कठिन

ट्रेन में बैठते वक्त गले लगाना
विदा की शुरुआत का क्षण होता है
अपने सारे सामान के साथ
कैसे तो निकल पड़ते हैं ये पंछी की तरह

सिग्नल होते ही
ट्रेन की धड़धड़ाहट के साथ
हृदय की धड़कन मिलाती है लय
सारा वक्त चला जाता है उसी के साथ
और रह जाते हैं हम अकेले

डिब्बे के दरवाजे पर
एक हाथ हिलता रहता है विदा में
जब तक वह लौटेगा नहीं
वह हाथ स्टेशन की उदास हवा में
ऐसे ही हिलता दिखाई देता रहेगा मुझे ।



चित्र:के रवीन्द्र

कमीज़
----------


एक ही कमीज़ को वह बार-बार पहनता
ऐसा नहीं कि उसके पास और नहीं थी
दरअसल उसे वह बहुत लुभावनी लगती
उसे लगता कि इसमें वह आकर्षक लगता है
वह उसका आदी हो गया

दूसरी खूँटी पर टँगी रहतीं
हवा के झोंकों से आती हरकत में
पर वह उनको नजरअंदाज कर देता

दोस्त कहते जरा बदल लिया कर
हो सकता है दूसरी कुछ ज्यादा अच्छी लगे
हो सकता है वे अपनी खूबियाँ इसकी तरह
चिल्लाकर नहीं कहती हों
फिर इसे बार-बार पहनने से तुम्हारी पहचान
और औकात इसके नीचे दबकर रह गयी है
अब तो यह भी कहा जाने लगा है
लो आ गयी वह कमीज़

पर उसने किसी की एक न मानी
कमीज़ को गुमान हुआ
वह संकुचित हुई
रंग उड़ा और भीतर कुछ ऐसे नुकीले रेशे निकले
वह उसे अंदर ही अंदर खाने लगी
अब उसके आराम और रात दिन के चैन
पर कमीज़ कफ़न की तरह थी
वह एक कफ़नपसंद आदमी में तब्दील हो गया

खूँटी पर टँगी कमीज़ें सदमे में हैं
दो मिनट के मौन के बजाय
अनंत मौन में चली गयी
और समय हाहाकार से बाहर निकल गया है।


तुम्हारा अनुवाद
-----------------


तुम एक भाषा हो
जिसे मुझे सीखने समझने में बहुत वक्त लगा
यों कहें कि अरसा लगा

बहुत विचित्र है व्याकरण
एक वाक्य का अर्थ एक समय से दूसरे समय में बदल जाता है

कुछ शब्द बिलकुल चांद की तरह है तुम्हारी भाषा में
मेरे उच्चारण करते-करते
वाक्य में स्थान और ध्वनि बदल जाती है

एक अल्पविराम लंबी प्रतीक्षा के बाद
पूर्णविराम में बदल जाता है
और कर्म क्रिया में कब बदल जाता है
यह समझते-समझते विषय समाप्त हो जाता
और सारी व्याख्याएँ निरर्थक हो जाती है

तुम्हारी आकृति के भीतर एक उजास होता है
मैं उसे छूता हूँ और अंधेरा फैल जाता है
और निरक्षर की तरह देखता रहता हूँ तुम्हारी और

दरअसल अनुवाद करना चाहता हूँ मैं
तुम्हारा अपनी भाषा में
लेकिन पूरा अनुवाद करने के बाद
पढ़ नहीं पाता
क्योंकि तब तक मेरी अपनी भाषा भी अपना अर्थ खो देती है।


उपवास
----------


जब मनुष्य डार्विन के कहे अनुसार
पृथ्वी पर आया
तो फाकाकशी में उपवास किया
फल और पत्तियों के भरोसे रहा
तब भी उपवास में रहा

पहली बार उसने हथियार बनाया
और उसका उपवास टूटा
किसी के पास हथियार होना
और उपवास में रहना एक साथ कैसे हो सकता है भला
यह कला भी उसने बहुत बाद में ईजाद की

जब उसने खेत बनाये
पसीना बहाया और अन्न उपजा
तब खेती माता को शीश नवाया
अन्न को पूजा तब उपवास किया

हमारे पूर्वज किसान और वनवासी ही थे
वे जब धरती पर दुःख आया तो रोये
उन्होंने अपने बच्चों को
दुःख से लड़ना सिखाया
इसी अभ्यास में एक बार फिर उपवास किया

पहली बार बच्चा माँ से रूठा
और उसने प्रतिरोध में उपवास किया

पानी, आग और हवा ने
उनका रास्ता रोका तो वे नतमस्तक हुए
उनको देवता मानकर पूजा
और उनके लिए फिर उपवास किया
राजा पैदा हुए
तो उनके लिए भी उपवास किया

जब दुनिया बड़ी हुई तो
सबका पेट भरा
फसलें खराब हुई
खाने भर को नहीं मिला
तो पूरे परिवार के साथ उपवास किया

उपवास करने की कला को
उन्होंने ही विकसित किया
कला धीरे-धीरे आदत में तब्दील हुई
फिर भी शिकायत नहीं की
उपवास उपवास और उपवास किया

लाल बहादुर जानते थे उपवास के मर्म को
गांधी ने उपवास किये आज़ादी के लिए
शर्मिला इरोम ने लंबा उपवास किया
इन सबने अपने लिए नहीं
बहुजन हिताय उपवास किया

जब राजा की गोलियों से मारे गए
तब पहली बार उन्होंने उपवास करने से मना किया
हिंसा का जवाब उसी भाषा में दिया
राजनीति को राजनीति की तरह समझा और इस्तेमाल किया

पहली बार उन्होंने जाना कि
राजा की नींद हराम होती है
तो वह उपवास करता है
यह भी जाना कि असंवेदनशील वह
संवेदना के हथियार का इस्तेमाल
बहुत चालाकी से उनके ही खिलाफ करता है।


प्राचीन रास्ता
-----------------


एक रास्ता हूँ प्राचीन
मैं खुलता हूँ एक पुराने दरवाजे से
मुझसे गुजरता है इतिहास
बहुत सारे पत्थर बिछे हैं देह पर
यह बोझ सदियों की पराधीनता जितना

ठुकें हैं कीले आज तक दरवाजों की आत्मा पर
वर्षों पुराना दर्द आज भी रिसता है
लोहे पर जंग का थक्का खूबसूरत आकर ले चूका
इनके ख्वाबों में आज भी घोड़े की हिनहिनाहट ठुकीं है नाल की तरह

सन्नाटा बुनता है कभी भय और कभी उत्सुकता
जाने का मन होता है उस समय में
कि तभी राजा के चेहरे से डर जाता हूँ

राजा निकलता रहा यहाँ
बिना अपने पैरों के
सैनिकों और चाकरों के कदम से
थरथराता रहा मैं और सुगम हुआ राजा के लिए
अब सैलानियों के आलावा आता नहीं यहाँ कोई
बस उनके कोलाहल और ख़ुशी के पल
बूटों से छिले बदन पर लगा जाते हैं मरहम

लोकतन्त्र का राजा भी सुना है आजकल
ज़मीन पर नहीं चलता
और हवा में चलने वाले लोग होते है ख़तरनाक
यह भोगा है मैंने
इसके बहुत अनुयायी है शायद
जो धड़धड़ाते हुए आते हैं और रौंद देते हैं सारी मानवता

राजा कोई भी हो साहेब ऐसे ही होते हैं
सुना है यह इतिहास बदलने
और दुरुस्त करने में बताता है अपने को माहिर
यह सुनकर ही मेरी रूह काँप जाती है ।


चित्र: के रवीन्द्र


धातु
------


यह पुरातन घड़ा
किस धातु से बना होगा

जो भी हो मिट्टी से निकला होगा
मिट्टी के बिना कुछ भी संभव नहीं
इसकी मिट्टी भी
अपनी ही मिट्टी से बने
किसी मज़दूर ने निकाली होगी

कारीगर की भी कोई मिट्टी रही होगी
यहाँ तक आते-आते कई परतें
जमी होगी मिट्टी की

दरअसल जिसके लिए बनाया होगा
वह भी होगा तो मिट्टी का ही मानुष
पर वह सत्ता के घोल से
धातु का नया नमूना होगा
जिसने सबकी मिट्टी खराब की।


हार
------


आधा चाँद एक नाव है
जो रात की नदी में तैरता रहता है

रात की नदी गहरी काली है
चाँद उसमें दूध का ठेला लगाता है
ठेला एक घुमावदार सड़क पर लुढ़कता है

एक बच्चा उसके पीछे भागता है
ठेले पर एक बुढ़िया
सूत कातने से ऊबकर
दूध फेंट रही है

बच्चा पिता से चाँद के ठेले से दूध माँगता है
पिता हार जाता है
चाँद से
ठेले से
बुढ़िया से
फेंटे जा रहे दूध से

जहाँ घुमावदार सड़क खत्म होती है
चाँद पानी पर फिर से नाव की तरह तैरता है
पिता
पानी से
नाव से भी हार जाता है

पिता पीछे रह गए अपने बच्चे को
स्कूल में ढूँढ़ता है
उसे अपना बच्चा वहाँ बेजान मिलता है
पिता अपना सब कुछ हार जाता है।
०००


सम्पर्क: 12-13, मार्तंड बाग़,
तारानी कॉलोनी, देवास ।
(म.प्र.) 455001
ई-मेल: bahadur.patel@gmail.com








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वाट्स एप-9826091605

30 अक्तूबर, 2017


कुंअर रवीन्द्र की कविताएं


कुंअर रवीन्द्र: एक सजग कवि और चित्रकार के रूप में समान रूप से सक्रिय हैं।  हिंदी के अलावा अंग्रेजी, फिलिपिनो , तुर्की  , मराठी, उर्दू, बंगाली ,नेपाली , पंजाबी, राजस्थानी ,मैथिली , भोजपुरी, उडिया पुस्तकों /पत्रिकाओं के आवरण के साथ देश की व्यावसायिक-अव्यवसायिक पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों के मुखपृष्ठों पर अब तक १८,००० (अठारह  हजार) से अधिक  रेखांकन व चित्रप्रकाशित हो चुके हैं।

कुंअर रवीन्द्र
समकालीन कविताओं, लघु कथाओं पर आपके पोस्टरों की कई प्रदर्शनियां आयोजित हो चुकी है ।

महत्वपूर्ण पत्र – पत्रिकाओं, ई पत्रिकाओं/ ब्लॉग्स में कविताएं प्रकाशित व आकाशवाणी से प्रसारित,  कुछ कविताएं, अंगरेजी ,तुर्की ,नेपाली पंजाबी , बँगला, राजस्थानी    व मराठी  में अनुदित हो प्रकाशित हुईं है।  " रंग जो छूट गया था " कविता संग्रह २०१५ में  प्रकाशित है।



कविताएं


1..

 मेरे सामने है

एक दृश्य

या उसका चेहरा



बेहद कोमल रंगों से भरा

मगर

एक लम्बी अंतहीन दूरी

और सन्नाटे की काली लकीर भी

झुर्रियों की तरह खिची हुई है



मेरे सामने है

उसका चेहरा

या एक दृश्य



छुअन से लजाई

एक किनारे सिमटी ,बहती नदी

मिलन की प्रफुल्लता से भरा

क्षितिज

और ..

नई सृष्टि की कल्पना में

अपलक आकाशगंगा को निहारता

क्रौंच का एक जोड़ा भी



मेरे सामने है

एक चेहरा एक दृश्य

और ..

पृथ्वी से  आकाशगंगा की दूरी
००


2..


परिदृश्य में

तुम्हारा होना या न होना

मायने नहीं रखता



सारी संवेदनाओं को

दरकिनार करते हुए

मैं अब भी महसूस करता हूँ

तुम्हारी ऊष्मा

तुम्हारी छुअन

अब भी मेरे सामने है

मुझमें कुछ तलाशती

तुम्हारी पनीली आँखें

तुम्हारी वह अंतिम मुस्कराहट

और

उसके पीछे छिपी पीड़ा

जिससे तुम मुक्त  हो चुके हो

नहीं भूल सकता कभी



नही भूल सकता

फिर आना ,आओगे न !

कह  कर तुम्हारा चला जाना
००


चित्र: अवधेश वाजपेई


3..



बचे हुए रंगों में से
किसी एक रंग पर
उंगली रखने से डरता हूँ

में लाल, नीला केसरिया या हरा
नहीं होना चाहता

में इंद्रधनुष होना चाहता हूँ
धरती के इस छोर से
उस छोर तक फैला हुआ
००

4..

मैंने जब भी
फ़क्क सफ़ेद कागज़ पर लिखा
प्रेम !
कागज़ धूसर हो गया
लिखा , दुःख
कागज़ हरिया गया
००


आदमी तो ठीक

कागज़ का रंग बदलना

मेरी समझ से परे हैं
००


5..

मली हुई तंबाखू
होठ के नीचे दबाते हुए
उसने पूछा
अरे भाई ! लोकतंत्र का मतलब समझते हो ?
और सवाल ख़त्म होते ही
संसद की दीवार पर
पीक थूक दी

थोड़ी दूर पर
उसी दीवार को
टांग उठाये एक कुता भी गीला कर रहा था

लोकतंत्र का अर्थ
सदृश्य मेरे सामने था
००

6..

मैं जब भी सहज ढंग से
चुपचाप
बैठ जाता हूँ
वे मुझे हारा हुआ मानकर
खड़े हो जाते हैं

खड़े होने के बावजूद
वे थरथराते, कंपकपाते रहते है
इस भय से कि
कहीं यह चुपचाप बैठा आदमी
फिर से खड़ा तो नहीं हो जाएगा
क्योंकि वे जानते है
जिस दिन यह चुप रहने वाला आदमी
खड़ा हो जाएगा
सारी सत्ताएं,
सारी हवाई विचारधाराएँ
कुत्ते की उठी हुई टांग के नीचे होंगी

इसलिए वे जल्द से जल्द
झूठ के बीज बो देना चाहते हैं
००



चित्र: अवधेश वाजपेई

7..


जिस तरह
बनैले सूअर को
हांका लगा कर,
घेर कर मारा जाता है
वैसे ही
इस देश के जन
मारे जा रहे हैं,
और मारे जायेंगे.

हमें अपने दंतैल होने का भान
शायद नहीं है
जैसे शिकारियों से घिरा
एक बनैला , दंतैल सूअर
फाड़ देता है शेर का भी कलेजा
वैसे ही
इन शिकारियों के बीच
घिरे हुए तुम
बनैले सूअर क्यों नहीं बन सकते
००

8..
जब से हम सभ्य हुए
बस तब से ही
ढूंढ रहा हूँ
उस आदमी को
जो अपने बीच कही
किसी शहर किसी गाँव में
गुम हो गया है
बाज़ार में
००

चित्र: अवधेश वाजपेई



9

अंततः मेरे बच्चे का आज निधन हो गया

जाति,धर्म,सम्प्रदाय और विचारधारा से लहुलुहान

भूख और प्यास से वह हार गया

मेरे आंसू उसे नहीं बचा सके

नहीं भर सके मेरे आंसू उसके घाव को

मेरे आंसू नहीं बुझा पाए उसकी प्यास



वत्स !

इस देश में रोज़ ही इस तरह मरने वाले बच्चों को

उनके माँ-बाप के आंसू नहीं बचा पाते

मरने वाले वे सब बेनाम होते हैं

इतिहास तो दूर

वर्तमान में भी कही उनका नाम दर्ज नहीं होता

मगर वत्स !

तुम्हारा तो कुर्सी पर बैठना, चांदी की थाली में भोजन करना,

चलना-फिरना सब तिथि और समय के साथ

शिलालेखों में दर्ज होता है



गीता ,क़ुरान या बन्दूक से अच्छे दिन नहीं आते

फिर भी हम रोते हुए अपने बच्चे के लिए

धोका देते हैं खुद को कि

अच्छे दिन आयेंगे

वत्स !

क्या तुम्हारा अध्यात्मवाद

सूखे कुओं को , सूखी नदियों को जल से भर सकता है ?

नहीं न

धन के लिए तुम्हारी वासना

भूमिपुत्रों का सिर्फ कत्लेआम कर सकती है



मगर हम अभी भी जीवित हैं वत्स !

प्रेम और शान्ति का गीत फुसफुसाते हुए

आंसुओं के साथ

अपने मरे हुए बच्चे की आत्मा की शान्ति के लिए
००

10

मैं चीख कर बोला
हम आज़ाद हैं
अपनी कनपटी पर टिकी हुई
पिस्तौल को छुपाते हुए

उसने कहा
हम आज़ाद हैं
अभी -अभी लुटी
अस्मत के दाग शरीर से मिटाते हुए

फिर सबने कहा एक स्वर में
हम आज़ाद हैं
और डूब मरे चुल्लू भर पानी में
शर्म से
००




संपर्क:
एफ-6, पी.डब्लू.डी कालोनी, [सूर्या अपार्टमेंट केसामने ] कटोरा तालाब, रायपुर (छत्तीसगढ़) 492001

ई-मेल
k.ravindrasingh@yahoo.com
मोबा .        09425522569

प्रभात की कविताएं:


प्रभात: राजस्थान में करौली जिले के रायसना गाँव में जन्म। शिक्षा के क्षेत्र में स्वतंत्र कार्य। अपनों में नहीं रह पाने का गीत’ (कविता संग्रह) साहित्य अकादमी, नई दिल्ली से प्रकाशित। बच्चों के लिए गीत, कविता, कहानी, नाटक की बीस से अधिक किताबें प्रकाशित।

प्रभात
विभिन्न पाठ्यक्रमों में समय-समय पर रचनाएं शामिल। साहित्यिक एवं शैक्षिक विषयों पर कई लेख। बैगा, अवधी, बज्जिका, छत्तीसगढ़ी, भीली, धावड़ी, मारवाड़ी, माड़, जगरौटी आदि कई लोक भाषाओं में बच्चों के लिए बीस से अधिक किताबों का सम्पादन। लोक कवि धवले के जीवन और गीतों पर लेखन। ‘युवा कविता समय सम्मान, 2012, सृजनात्मक साहित्य पुरस्कार, 2010


कविताएं


दूर-दूर तक फैले हैं ज्वार के खेत

दूर दूर तक फैले हैं ज्वार के खेत
पकी ज्वार के पेड़ों में
भुट्टों के दानेदार दूधिया फल लगे हैं सफेद-सफेद

जहाँ तक पहुँचती है दृष्टि
ज्वार ही ज्वार खड़ी है जंगल में
ज्वार के खेतों में डोल रहे हैं
जंगली चूहे साँप नेवल और सियार
हिरनियाँ बच्चे जन रही हैं अपने यहीं
चकरी सेंध फूट की गंध है फैली हुई
हवा बह रही है ज्वार के पेड़ों के खेतों में
संगीत बज रहा है वन का निर्जन का
अरअराट फैला हुआ है सब ओर
ओ ओ ओ की भागती हुई आवाज
पुकारती हुई फैली हुई है सब ओर
सूर्य गिर गया है ज्वार के दूर-दूर तक
फैले हुए खेतों के उस तरफ

खेतों के ऊपर उड़ रहा है एक पक्षी
ज्वार के खेतों के ऊपर
थके पाँखों से जाता हुआ कोई पक्षी
००

सारस

सारस का जोड़ा
डोल रहा है खेतों में
औरतें लगी हैं खरपतवार हटाने में
युवतियाँ भी हैं कई इनमें
जो होंगी ही किसी न किसी के प्यार में
उनकी यह उम्र ही ऐसी है
बार-बार खड़ी रह-रह कर
देखती है दूर-दूर तक

थोड़ी ही दूरी पर
चरागाह में चरती भेड़ों के बीच खड़े
गड़रिए से बातों में लगने की कोशिश करता
जाने किसका प्रेमी है यह
जाने कौन है
जो आयी नहीं है
००




नीरव

सूखी पीली घासों की गंध
हवा में हिलते फूल और खूँटों से बँधे पशुओं की साँसों के सिवा
कोई शब्द नहीं गाँव में

कृषक पिता और पुत्र
आए हैं गाँव के अपने सूने घर में
खेतों से थके हारे आए हैं वे
रोटी तलाष रहे हैं
पत्थर के बर्तन के नीचे
चार रोटियाँ हैं

पता था कि भाजी नहीं होगी
आते हुए मूँगफली उखाड़ लाए थे रास्ते के खेत से
पिता छील रहा है कच्ची मँूगफली
पुत्र को मिल गई है जाँवणी के तल में एक खौंच छाछ

पिता मूँगफली के दाने और दो सूखी लाल मिर्च पीसता है सिलबट्टे पर
पुत्र एक खौंच छाछ मिलाता है उसमें
दोनों दो-दो रोटी खाते हैं इस लगावन से

सुस्ताते नीम तले की खाटों में अगर फुर्सत होती
चड़ु की और चल दिए पैरों में जूतियाँ डालते हुए खेतों की ओर
००

सूना घर

गाँव के इस आगळ लगे सूने घर के रहने वाले
अब नहीं आएँगे

धूल आती है यहाँ और यहीं की होकर रह जाती है
दिन-ब-दिन और विशाल होते जाले हैं
हर दिन कुछ और ज्यादा ढहते खिड़की के पल्ले
यहाँ जो सब कुछ सूखा हुआ है
और ज्यादा सूख रहा है
छप्पर को थामे थी जो लकड़ियाँ
गलकर सूख गई हैं
अब वे टूटेंगी नहीं
झरेंगी बेआवाज

पानी का पीतल का लोटा
किसी गड़े हुए धन की तरह अनाथ पड़ा है
उसमें पड़ा ज्वार का कत्थई फूस
हवा से हिलता है
चूहों ने इसके आँगन को
किसी खलिहान की तरह खोद दिया है
झाड़ की बाड़ की चारदिवारी थी इस घर की
जो कुछ हट गई कुछ उड़ गई कुछ रह गई है
बाड़ के इस बचे कुछे हिस्से के नीचे
एक सियार और सियारिन ने रहने की जगह देख ली है

इस घर से जंगल की ओर जाती थी एक पगडण्डी
अब जंगल यहाँ आ गया है
गाँव में साँझ के समय
कहीं आसपास ही सियारों का जो रोना सुनते हैं गाँव के लोग
रुदन का वह स्वर यहीं से उठता है

इस आँगन से धुँआ उठता था कभी
जो चाँदनी में देर तक दिखाई देता था
खेलते बच्चों की हँसी सुनाई देती थी
जो दूर तक पीछा करती थी
एक स्त्री के चलने-फिरने पर उसके कपड़ों से उठती आवाज
संगीत की तरह उभरती और मंद होती थी

गाँव के इस आगळ लगे सूने घर के ये रहने वाले
अब नहीं आएँगे
००




बच्चे की भाषा

रेस्त्राँ में सामने की मेज पर
एक यूरोपियन जोड़ा
खाना और पीना सजाए हुए था
मैं चौंक गया जब उनका छह महीने का बच्चा
हिन्दी में रोने लगा
उसका युवा पिता उसे अंग्रेजी में चुप कराने लगा
उसे बहलाते-खिलाते हुए बाहर ले गया
बाहर खुली हवा में बच्चा
दिल्ली की फिज़ा में मिर्जा गालिब के
सब्जा-ओ-गुल औ अब्र देखते हुए
उर्दू में चुप हुआ

तब वह युवा फिर से रेस्त्राँ में भीतर आया
मैं एक बारगी फिर चौंक गया
जब वह बच्चा उराँवों की भाषा बोलते हुए
चम्मच गिलासों से खेलने लगा
००


गुम बच्चे की याद

मेरी गरीब चचेरी बहन
षादी भी जिसकी ठीक से की नहीं जा सकी
बस भेज दी गई
कुछ औरतों के गाए गीतों के साथ हुई उसकी विदाई

दो-एक ही साल बाद विवाह के गीतों के शब्द निष्प्रभ हो गए
उनकी ध्वनियों की चिड़ियाएँ सदा के लिए सो गईं
उसके पति ने एक हत्यारे की हत्या कर दी
वह भारत की जेलों के उन लाखों अभिषप्त कैदियों के बीच जा बैठा
जिनकी जामानत नहीं होती
टलती जाती है जिनकी सुनवाई

ससुराल में वह रहने नहीं दी गई
गोद के बच्चे के साथ वह लाचार आ गई यहीं
उसे रहने के लिए एक पाटोर बता दी गई
हल्ला-मूजरी करके अपना और बच्चे का पेट पालने लगी

ऐसी मेरी गरीब चचेरी बहन का बच्चा था वो
सात साल का हो गया था
बड़ी उम्मीद से बड़ा कर रही थी उसको
पढ़ने भेज रही थी
स्कूल नाम के सरकारी बाड़े में रोज बैठता था जाकर
बच्चों के साथ खेलता था स्कूल से आकर
उस खेलते हुए को
मुर्गी के चूजे की तरह गायब कर ले गया कोई

लिखने में भी तकलीफ होती है कि पुलिस,
सरपंच, विधायक, देवी-देवता
सबके दरवाजों पर ढोक दे चुकी है
सबके पैरों में सर पटक चुकी है

अब तो यही सोचने-बिचारने को रह गया है
आखिर कौन था वह जो ले गया खेलते बच्चे को
क्या वह खुद दरिद्रता, भूख और कुशिक्षा का शिकारकार था कोई
क्या उसने कहीं सुनसान में ले जाकर बलि या कुर्बानी दे दी बच्चे की
या उसने खाये पिये अघाये सभ्य-बर्बरों को बेच दिया उसे

क्या उसे अरब भेज दिया ऊँट पर बाँधकर मारे जाने के लिए
क्या किसी आधुनिक साधु या पर्यटक को बेच आया वह उसे
क्या किसी मेज पर तष्तरी में रखा गया उसे

इतने बच्चे गायब होते हैं हर साल
लेकिन बिजली-पानी की माँग जैसा
छोटा-मोटा मुद्दा भी नहीं बनती यह बात

तीन महीने भी याद नहीं रखा गया एक बच्चे का गायब होना
जिस दिन से गुम हुआ है वह
मेरी चचेरी बहन भी गुम है
वह नहीं जानती कि न मरे न जीवित
बच्चे के साथ कैसे जीना चाहिए
इसी दुनिया में कहीं
और कहीं भी नहीं बच्चे की सुध कैसे रखनी चाहिए
कैसे उसे सुलाना चाहिए
कैसे उसे जगाना चाहिए
कैसे उसे समझाना चाहिए अपना ध्यान रखने के लिए
लापरवाही करने पर कैसे सख्त हिदायत दी जानी चाहिए

अगर उसके अंगों को खोलकर
अलग-अलग षरीरों में नहीं लगा दिया गया है
अगर स्त्री-लोथों से ऊबे विकृतों ने उसे रिहा कर दिया है
अगर दासों की तरह उसके पुट्ठों पर थाप दे-देकर
उसे कई बार बेच और खरीद लिया गया है
तो अब वह कहाँ और क्या कर रहा है
कैसा दिखने लगा है वह हाड़ मांस पुतला सालों बाद

क्या वह ब्रेड पर आयोडेक्स लगाकर खा चुका है
क्या दुनिया की सभी लड़कियों के लिए डरावना हो चुका है
क्या वह किसी महानगर की बत्ती गुल करने निकल पड़ा है
क्या वह टेलिफोन लाइन काटने गया है
क्या वह किसी भीड़ भरे इलाके में बम रख रहा है
क्या वह रस्सों से बँधा है
क्या वह अपना फटा-टूटा षरीर लिए न्यायालय में उपस्थित है
क्या उसे जेल में ही फाँसी दे दी गई है
क्या उसे वहीं मिट्टी में मिट्टी, राख में राख कर दिया गया है

मेरी चचेरी बहन
दो पीढ़ी पीछे जायें तो
हम एक ही दम्पत्ति की संतान हैं
एकाध पीढी और पीछे जायें तो
पूरा कबीला ही एक दम्पत्ति की संतान है
अंततः जैसे दुनिया ही एक दम्पत्ति की संतान हैं
इस तरह देखो तो
कोई भी दूर का नहीं है
कोई भी पराया नहीं है
सभी अपने हैं कोई भी षत्रु नहीं है
वास्तव में देखो तो कैसे-कैसे शत्रु हैं चारों तरफ

मेरी चचेरी बहन
उसके कपड़े जिनमें से झाँकते हैं उसके धूल के बने हाथ पैर
उसके फूस के केश झाँकते हैं
गोली खायी हिरनी की करुण कजल आँखें झाँकती है
मैं पूछता हूँ कभी-कभी उससे
जीजी तुम्हें इस ब्रह्माण्ड की किस हाट पर मिलते हैं इतने फीके
इतना अघिक रंग उड़े कपड़े
क्या तुम आकाष गंगा से लाती हो इन्हें

पागल है तू
कहकर हँस देती है
जीवन की धनी मेरी चचेरी बहन
००

चित्र: अवधेश वाजपेई


गोबर की हेल

क्योंकि स्त्रियाँ इतना ही बताती हैं
इसके आगे पीछे वह क्या था
जिसकी वजह से माँ ने ऐसा किया
क्या ऐसा था कि खून की कमी की वजह से
वह अपना ही वजन नहीं उठा पा रही थी कि उसे
गाय-भैसों का गोबर उठाना पड़ रहा था
बाड़े के गोबर-मूत में घुटनों घुटनों उसका पीछा करते हुए मैं
बहुत रो रहा था और घर के सभी पुरूष बैठे हुक्का पी रहे थे
और मैं भैंस के पेशाब के छींटों में भीग रहा था
वह गोबर फेंकने जाती तो उसके लहँगे से लिपटता मैं भी जाता
उसे जल्दी-जल्दी काम सकेलना होता और मैं घिसटता जाता
या घर के किसी पुरूष ने उसे जेवड़े के सड़ाकों से मारा
कि वह खेत में पहुँचने में बेवजह देर कर रही है
हुआ क्या था आखिर, वे स्त्रियाँ नहीं बताती
वे कहती हैं-जब तू एक डेढ़ साल का था
गुस्से में तेरी माँ ने तेरे ऊपर गोबर की हेल पटक दी थी

यह बात उन्होंने मुझे बहुत बार बता दी है
जबकि एक बार बताना काफी था
पर चूँकि इसमें वे एक क्रूर रस लेती हैं
बार-बार बता कर बार-बार मेरी माँ को अपमानित करती हैं
जबकि उनकी बकवास का जवाब देने के लिए
वह तेईस साला स्त्री अब इस दुनिया में नहीं है

एक तेईस साल की जिस स्त्री के
एक-एक करके तीनों बच्चे दबे पड़ें हों
षमषान में बच्चों को दफनाए जाने वाले गढ्ढों में
वह अपने एक जीवित पर
कैसे औंधा सकती है गोबर की हेल
मगर वह ऐसा करती है
तो उसकी मानसिक यातना का
वह कौनसा चरम रहा होगा
और उस चरम पर उसके प्राण में
कितना विवेक शेष रहा होगा
ऐसी डगमग मानसिक दषा में भी एक वही तो रही होगी
जो न जाने कहाँ से लौटा कर ले आयी होगी अपनी बिलखती ममता को
और मुझ गोबर में लिथड़े को उठा कर छाती से चिपका लिया होगा
फिर मेरे अमरत्व के लिए मुझे दूध दिया होगा

मेरे गालों पर अभी भी हैं मेरी माँ के चुम्बनों के अदृश्य निशान
मैं अभी भी उस पानी को अपने षरीर पर बहता देख सकता हूँ
जिसमें माँ ने मुझे नहलाया
माँ के वस्त्रों की गंध आज भी मेरे नथुनों में भर जाती है
जिनमें लिपट कर मैं चैन से सोया
ये विवरण इतने ममत्व से भरे इतने मार्मिक और इतने सारे हैं
कि इन्हें ही जीवन भर लिखते रहना मैं अपने जीने का मकसद बना सकता हूँ
बुखार में आज भी माँ के आँसू की बूँद मेरे ललाट पर आकर गिरती है

मुझे ढाई-तीन साल बड़ा करने के बाद माँ नहीं रही
वह शमशान में अपने उन तीन बच्चों के पास चली गई
जिन्होंने सोचा न होगा कि माँ मृत्यु का भी पीछा करते हुए
उनके पास आ सकती है किसी दिन
माँ को तो अपने सारे ही बच्चों का ध्यान रखना होता है
वे जीवित हों या मृत
अपनी चेतनाविहीनता में माँ को पता नहीं रहा होगा
कि ऐसा होने पर वह मेरे पास कभी नहीं लौट पाएगी
००

हार

जब-जब भी मैं हारता हूँ
मुझे स्त्रियों की याद आती है
और ताकत मिलती है
वे सदा हारी हुई परिस्थति में ही
काम करती है
उनमें एक धुन एक लय
एक मुक्ति मुझे नजर आती है
वे काम के बदले नाम से
गहराई तक मुक्त दिखलाई पड़ती हैं
असल में वे निचुड़ने की हद
थक जाने के बाद भी
इसी कारण से हँस पाती हैं
कि वे हारी हुई हैं
विजय सरीखी तुच्छ लालसाओं पर उन्हें
ऐतिहासिक विजय हासिल है
००

चित्र: अवधेश वाजपेई


एक सुख था

मृत्यु से बहुत डरने वाली बुआ के बिल्कुल सामने आकर बैठ गई थी मृत्यु
किसी विकराल काली बिल्ली की तरह सबको बहुत साफ दिखायी
और सुनायी देती हुई
मगर तब भी,अपनी मृत्यु के कुछ क्षण पहले तक भी
उतनी ही हँसोड़ बनी रही बुआ

अपने पूरे अतीत को ऐसे सुनाती रही जैसे वह कोई लघु हास्य नाटिका हो
यह एक दृष्यांश ही काफी होगा-जिसमें बुआ के देखते-देखते निश्प्राण हो गए थे फूफा
गाँव में कोई नहीं था
पक्षी भी जैसे सबके सब किसानों के साथ ही चले गए गाँव खाली कर खेतों और जंगल में
कैसा रहा होगा पूरे गांव में सिर्फ एक जीवित और एक मृतक का होना
कैसे किया होगा दोनों ने एक दूसरे का सामना
इससे पहले कि जीवन छोड़े दे
मरणासन्न को खाट से नीचे उतार लेने का रिवाज है
बुआ बहुत सोचने के बावजूद ऐसा नहीं कर सकी
अकेली थी
और फूफा, मरने के बाद भी उनसे कतई उठने वाले नहीं थे
जाने क्या सोच बुआ ने मरने के बाद खाट को टेढ़ा कर
फूफा को जमीन पर लुढ़का दिया

अब रोती तो कोई सुनने वाला नहीं था
बिना सुनने वालों के पहली बार रो रही थी वह जीवन में
इस अजीब सी बात की ओर ध्यान जाते ही रोते-रोते हँसी फूट पड़ी बुआ की
बुआ जीवन में रोने के लम्बे अनुभव और अभ्यास के बावजूद
चाहकर भी रो न सकी
मृतक के पास वह जीवित
बैठी रही सूर्यास्त की प्रतीक्षा करती हुई

इस तरह जीवन को चुटुकलों की तरह सुनाने वाली बुआ के जीवन का चुटुकला
पिच्चासी वर्ष की बखूब अवस्था में जब पूरा हो गया
कुछ लोग हंसे,कुछ ने गीत गाये,कुछ को आयी रुलायी

बूढ़ी बुआ हमारे जीवन में अभी भी है
उतनी ही अटपटी,उतनी ही भोली,उतनी ही गँवई
मगर खेत की मेड़ के गिर गए रूँख सी
कहीं भी नहीं दिखाई देती हुई
यह बात भी अब तो चार बरस पुरानी हुई

चार बरस पहले
एक सुख था जीवन में
००

विदा

यादों को भी विदा कहने का वक्त आएगा
इच्छा और उदासी जैसे पक्के रंग भी छूट जाएँगे
पानी से खाली घासों की तरह सूख जाएँगी जब याद
करुणा के जल को भी विदा कहने का वक्त आएगा
००



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29 अक्तूबर, 2017

भास्कर चौधुरी की कविताएं



 भास्कर चौधुरी: का जन्म 27 अगस्त 1969 में रमानुजगंज, सरगुजा (छ.ग.) हुआ। आपने एम. ए. (हिंदी एवं अंग्रेजी) में शिक्षा हासिल की है।

भास्कर चौधुरी

आपका एक काव्य संकलन ‘कुछ हिस्सा तो उनका भी है’ एवं गद्य संकलन (यात्रा वृतांत) ‘बस्तर में तीन दिन’ प्रकाशित है। लघु पत्रिका ‘संकेत’ का छ्टा अंक कविताओं पर केंद्रित है। कविता, संस्मरण, समीक्षा आदि प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती है। आपने सुनामी के बाद दो दोस्तों के साथ नागापट्टिनम की यात्रा. वहाँ ‘बच्चों के लिए बच्चों के द्वारा’ कार्यक्रम के तहत बच्चों को मदद पहुँचाने की कोशिश, आनंदवन, बस्तर, उत्तराखंड,  शांतिनिकेतन की यात्राएं की हैं।


कविताएं

1

दुर्गा
दुर्गा की मूर्ति मानें
मूर्ति एक स्त्री की
बड़ी बड़ी आँखों वाली
फूले फूले गालों वाली
आभूषणों से ढंकी
बला की सुंदर स्त्री
हाथों में उसके
अस्त्र सुसज्जित
जिसकी शक्ति
और सुंदरता के आगे पुरुष
नतमस्तक
शायद इसलिए कि
वह बोलती नहीं है
चुप है
हिलती डुलती नहीं
जड़ है स्थिर अपनी जगह
देखती हुई खुली आँखों से
पुरुषों को
पुरुषोत्तम राम के वंशज
नतमस्तक...




2

हँसी
एक
बाबा कहते हैं
हँसना ज़रूरी है
दो वक्त खाने की तरह
तो हँसों
हँसों हँसों ठहाके लगा-लगा कर हँसों
दाँत निपोर-निपोर कर हँसों
हँसों बंद कमरे में
खुले में हँसों
कम्पनी गार्डन में
दस-बीस-तीस-चालीस मिल कर हँसों
हँसों कि लेटे हो तब भी
कि उठ कर बैठे हो
या बैठ कर उठे हो
घास में लोट-लोट कर हँसों
कीचड़ में लथ-पथ होकर हँसों
कूद-फांद कर
हाथ-पैर हवा में फेंककर
कि मुट्ठियाँ भींचकर या खोलकर हँसों
पर हँसों
हँसों कि बाबा कहते हैं
ज़रूरी हैं हँसना
कि बच्चा हँसता है माँ के पेट में
इधर से उधर, उधर से इधर तैरकर
जन्म से पहले हर बच्चा जैसे
स्वीमिंग पूल में तैर रहा हो
और हँसते हँसते लात जमाता है पानी में वैसे ही
तुम भी हँसों
हँसों जैसे स्वीमिंग पूल हो हँसी का
और तुम लगा रहे हो हँसी के समरसॉल्ट
हँसों कि हँसने लायक ही है
बाहर की दुनिया
चार्ली चैपलीन की तरह हँसों
कि जिसके रोने में टीवी या फिल्म के परदे पर
हँसी दिखाई देती है दुनिया को
हँसों ऐसे हँसों कि तुम्हारे रोने में भी पैदा हो
हँसी की तरंगें
हँसों ऐसे हँसों कि भूल जाओ
मर रहे हैं बच्चे और नौजवान
कीड़े मकोड़ों की तरह बिलबिलाकर
किसी पेस्टीसाइड की मार पड़ी हो जैसे
हँसों ऐसे हँसों कि खो जाए तुम्हारी हँसी में
गौरी लंकेश का हँसता हुआ चेहरा
और तुम्हारी आँखों के रेटिना से पुंछ जाए
ऐसी कोई भी तसवीर जहाँ
गौरी लंकेश गोविंद पानसरे दाभोलकर या कलबुर्गी की
खून सनी लाशें पड़ी हो फर्श पर
या धरती पर धूल में लिथड़ी
हँसों केवल हँसते रहो
कि हँसना ज़रूरी है दो वक्त के खाने की तरह
बाबा कहते हैं ...!!
दो
वह हँसा
वह भी हँसा
दोनों मिलकर हँसे
हँसते रहे ...

उनकी हँसी
कोई पहाड़ी नाले का पानी तो है नहीं
कि ठहर गई बारिश
और थम गई हँसी
उनकी हँसी समुद्र है
जिसमें घुल सकती है अनगिनत हँसियाँ ...

उन हँसियों पर काबू पाना
‘उनके’ बस का नहीं !!



3
    तानाशाह

एक

उससे न
चीटियाँ डरती हैं
न कोई चूहा
वह स्वयं डरता है कॉकरोच से
और कॉकरोच देखते ही
बंदूक तान देता है
शह और मात के खेल का उस्ताद
तानाशाह वह
समुद्र की ओर देखकर पेशाब करता है
और डूबा देगा आधी दुनिया
समुद्र के पानी में
ऐसा सोचता है...




दो

वह नाश्ते में फल खाता है
उसे पपीता बेहद पसंद है

सूखी चपाती बिना नमक वाली दाल
और सलाद में चुकंदर
या खाने की ऐसे ही कुछ और चीजें
उसके दोपहर का भोजन है

गाय का दूध
वह भी बिना मलाई वाला
रात को बस इतना ही

सादगी की मिसाल है वह
अपने साथियों के बीच
जो सबके सब अय्याश हैं

गुरेज़ नहीं तानाशाह को
उसके जुम्लों में
आमिष शब्दों के प्रयोग से
उसे गुरेज़ नहीं
हत्याओं से

तानाशाह सम्मोहन जानता है
उसे भीड़ को एक ही समय में
हँसना और रुलाना आता है
उसे आता है देश को
ईशारों पर नचाना !!



4
       रोहिंग्या

बच्चे नहीं हैं
ये बच्चे
ये रोहिंग्या हैं
इनका जीवित रहना
उन सभी जंतु जानवरों के लिए खतरनाक है
जो इस वक्त धरती पर
मनुष्यों की तरह साँस ले रहे हैं
खतरनाक उन तानाशाहों से भी ज़्यादा
जिनके हाथों में चाभी है परमाणु बमों की
रोहिंग्या मनुष्य नहीं शायद
मच्छरों की कोई प्रजाति का नाम है
एडीज की तरह का
जिससे डेंगु फैलता है
या यूरेनियम जैसा कोई रेडियो एक्टिव पदार्थ
जिसके विकीरण से
पूरी की पूरी धरती का जनाज़ा उठ सकता है !!


5
       हत्या

एक
हैं कुछ हत्यारे
जो हँस रहे हैं
उन्हें पता है कि
हत्या कर हँसा जा सकता है
उन्हें पता है हत्या की सजा
उनके लिए मुकर्रर नहीं है

कुछ ऐसे भी हैं जो
शामिल नहीं है हत्या में
और दूर हैं हत्यास्थल से
पर दूरबीन सटाए आँखों से
नज़र रखते हैं हत्याओं पर
हँस रहे हैं वे भी

वे दरअसल
हत्यारों से भी खतरनाक है
वे ही तय करते हैं
उन पात्रों को
जिनकी करवानी होती है हत्या
हत्यास्थल भी
वे ही तय करते हैं...
दो
वे हँसते और
हँसते रहे
देर तक
जैसे-जैसे बढ़ती गई हत्यायें...


पर यह क्या
दर्जनों हत्याओं के बाद
अब जबकि थकने लगे हैं हत्यारे
थक चुके हैं वे भी जो
दूरबीन आँखों से सटाए
नज़र रखे हुए थे हत्याओं पर
हँस रहे थे अब से कुछ देर पहले तक
वे थर-थर काँप रहे हैं

जाने किस बात से भयभीत हैं ??
                 

संपर्क:
भास्कर चौधुरी

1/बी/83
बालको (कोरबा)
छत्तीसगढ़
495684
मो. 9098400682
bhaskar.pakhi009@gmail.com


००
वाज़दा ख़ान की कविताएं

वाज़दा ख़ान: चित्रकार व कवयित्री है। अनेक एकल चित्र प्रदर्शनियां लगी और  कई समूह प्रदर्शनियों में भागेदारी की है।  विभिन्न कार्यशालाओं और कला कैम्प में सहभागिता रही है।
 देश-विदेश में कलाकृतियों का संग्रह है।

वाज़दा ख़ान
कविताओं और रेखांकन तकरीबन सभी प्रतिष्ठित हिन्दी पत्रिकाओं और अखबारों में प्रकाशन हुआ है। अनेक पत्रिकाओं के आवरण पृष्ठ के लिये डिजाइनिंग किते है। कई पत्रिकाओं और अखबारों में कला लेखों का प्रकाशन हुआ है।
पहला कविता संग्रह "जिस तरह घुलती है काया", भारतीय ज्ञानपीठ से 2009 में प्रकाशित प्राप्त हुआ।
 "जिस तरह घुलती है काया", काव्य संग्रह पर 2010 में हेमन्त स्मृति सम्मान मिला।दूसरा कविता संग्रह "समय के चेहरे पर", शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली से 2015 में प्रकाशित है।तीसरा कविता संग्रह "जो सच नहीं", बोधि प्रकाशन, जयपुर में प्रकाशनाधीन है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार राजी सेठ और सीनियर ग्राफिक्स आर्टिस्ट श्याम शर्मा समेत कई लोगों से साक्षात्कार। साल 2000 में त्रिवेणी कला महोत्सव (NCZCC इलाहाबाद) द्वारा सम्मानित।साल 2004-05 में ललित कला अकादमी, दिल्ली द्वारा अनुदान के रूप में गढ़ी आर्टिस्ट स्टूडियो में बतौर चित्रकार कार्य करने का अवसर



कविताएं

सत्य असत्य के बीच
समय की महीन सी लकीर
किस तरह चस्पां होती
माथे पर,
हर वक्त आंखों में
अन्धेरे को और गाढ़ा
करती, उजाले के एहसास में पगी।

सच, कितनी विद्रूपतायें, कितना पाखण्ड
और कितनी अनकही संवेदनायें
चिन देते हैं अपने भीतर,
बरअक्स चलती मूर्त दुनिया में
किसी भी रूप में बाहर नहीं
आना चाहतीं।

००


ऐसे नहीं आता उजाला
साथ अपने अन्धेरा भी लाता है
कई बार उजाले की चमक
अन्धेरे को उजला कर देती है
पर अन्धेरा
इससे चला नहीं जाता
जिन्दा रहता है अपने कई कई अदृश्य रूपों में
धरती की दरारों में।

दरारें गहरी होती, खाईं का
रूप धरती हैं जब
गिर जाता है उजाला धप्प से
घाटी में,
और शिखर बेहद ऊंचे होते हैं
बादलों में घुलते।

००


चित्र: अवधेश वाजपेई

चाहतें इतनी गहरी थीं
काली रातों से भी ज्यादा गहरी
कि कुछ सुझायी न दे
और इतनी गहरी कि घुल-मिल जायें
रक्त मज्जा के साथ कि ढूंढना
नामुमकिन हो जाये

कैसे दौड़ लगाती हैं चाहतें, देह में
धमनियों में, दौड़ते रक्त के साथ
कैसे तैरती हैं रूह के भीतर
अपने जज़्बात रख कर
जैसे आसमान में तैर रहे हों बादल
जैसे परिन्दों का झुण्ड, उड़ान भर रहा हो
जैसे क्षितिज पर समन्दर से, गले
मिल रहा हो सूरज

कैसी हैं चाहतें
क्या चाहतें वर्जनायें हैं ?
कैसे बेचैन होती हैं चाहतें, ज्वार भाटा सी
क्या वो भी चांद से बंधी हैं
बसेरा करते पन्छी, तीखी आवाज में चीखते
प्रतिरोध जताते, किसी अपशकुन से
क्या ऐसे ही चीखती हैं, अन्तर्मन में
बसेरा करतीं, चाहतें चुपचाप

कैसी हैं ये चाहतें, कर देती तबाह दुर्ग, किले
नगर, सभ्यतायें
नैतिकता/ अनैतिकता
मुनासिब/ गैर मुनासिब
दुनियावी फलसफों में बिछी चाहतें
आसमान में क्यूं ठौर बनाती हैं
क्या चाहतें वर्जनायें हैं ?

००

बार बार खुद को दोहराने के लिये
मुक्त करना जरूरी है खुद को

मैंने पूछा था तुमसे
मन का विदेह
होना, कैसे सम्भव है ?
तुमने कहा था चलती रहो
रात दिन के अन्धेरे उजालों में
बोध हो जाएगा तुम्हें, सृष्टि के
किसी छोर पर पहुंचकर

अबोल लिपी में लिखी जिन्दगी को
कैसे पढ़ा जा सकता है
और आकारों से कैसे मुक्त हुआ
जा सकता है,
शायद तब निरपेक्षता और सौन्दर्य का
सम्मिलन
तमाम सच्चाईयों को
गढ़ सके आसमान पर।

००


अनसुलझे-अज्ञात ना जाने कितने आकार

स्वप्न सच्चाईयों और बहुत अधिक जिन्दगी के साथ
बांध के पानी सा
मुझमें हरहराते, बाढ़ आनी तय थी
विध्वंस भी।
मैं धरती तक ही कहीं सफर
तय कर पायी थी
मेरे बहुत सारे उजाले
अन्धेरों की जकड़बंदी में थे

मैं सूरज चांद सितारों का
साथ चाहती थी
आकाशगंगाओं के बीच
खुद को रखकर
पवित्रता और शुद्धता के भावों का
रहस्य समझना चाहती थी

पर धरती से आगे के सफर का
रास्ता, मुझे पता नहीं

सूरज चांद सितारों का मौन और
सारी दुनिया में चमक जाने का गुरूर
सहस्रों कायनात के समकक्ष/ कैसे मुहैया
करते वे मेरे लिये रास्ता
इस अप्रासंगिक सी, अभिव्यक्ति पर।

००



चित्र: अवधेश वाजपेई


अधजली रात में, प्रवेश करती सुबह

सब्र ओ इंतेहां के पैमाने के साथ
अप्रतीक्षित कड़वेपन, धोखे का स्वाद
चख रही है
रात और दिन चलेंगे मनुष्य की
अंतिम पीढ़ी तक,
उसके बाद भी रात होगी
दिन भी पांव पसारेगा

सारी की सारी तबाहियां दर्ज की जायेंगी
आकाश को रोटी चकले जितना (श्यामपट्ट)
बोर्ड बनाकर

शब्दों में असहनीय पीड़ा का परथन
लगाकर, लोइयों सा बेल
शताब्दी के चूल्हों पर
सेंका जायेगा आहिस्ता आहिस्ता

बची हुयी सामग्री, किसी कचरा गाड़ी को
थमा दी जायेगी, डाल दी जायेंगी घूरे पर
जहां नहीं पहुंचेगा कभी
स्वीकारोक्ति का कोई प्रकाश

कहते हैं पॉलीथीन नष्ट नहीं होती
मिट्टी में दबाये जाने के बावजूद
तो क्या हमेशा कवच का काम करेगी ?

००


हम पत्थर की क्यूं ना हुई ?


बादलों के साथ सफर करते सूरज
रौशनी भरी थी आंखों में
रौशनी थी कि चुभ रही थी
पानी बनी जा रही थी आंखों में
गूंज रहा था कोई नाद
हम शर्मिंदा हैं...
कि हम पत्थर की क्यूं ना हुई
बिना श्राप के भी।
क्यूं भर दिए तमाम जज्बात, चोट
और खून के कतरे जिस्म में
क्यूं रची हमारे भीतर कायनात
हम शर्मिंदा हैं...
कि हम पत्थर की क्यूं ना हुई
क्यूं हम मेकअप से, लिपिस्टिक से
रंगी-पुती हैं, क्यूं हम तंग कपड़े पहनती हैं
क्यूं हम दिन-रातों में, घरों में, बाहर
चलने का दु:साहस करती हैं
हम शर्मिंदा हैं...
कि हम पत्थर की क्यूं ना हुई
हम जिस्म बनी, माल बनी, सौदा बनी
समझौता बनी, जायदाद बनी
आन-बान-शान बनी

हम शर्मिंदा हैं...
कि हम पत्थर की क्यूं ना हुई
हम घूंघट निकालती हैं
दुपट्टों से सिर ढकती हैं
पूरी आस्तीन की कमीज पहनती हैं
तुम्हारी हर ज्यादतियों को
खुद में जज्ब करती हैं
हम शर्मिंदा हैं...
कि हम पत्थर की क्यूं ना हुई
हम अकेले आसमान में नहीं उड़ना चाहती
हम उड़ना चाहती हैं तो ये चाहत भी
पालती हैं कि तुम साथ उड़ो
क्या हम शर्मिंदा हों अपनी चाहत पर
या कि इस सोच पर
कि इससे पहले हम-
पत्थर की क्यूं ना हुई
या खुदा तूने हमें क्यूं बनाया
गर बनाया भी तो इस जहान में भेजा क्यूं
तमाम संवेदनाओं में रंगकर
हम शर्मिंदा हैं...
कि हम पत्थर की क्यूं ना हुई
हम अपने लड़की होने का शोक मनाएं
कॉन्फेशन करें, क्या करें हम
लड़की होना गर कुसूर है हमारा
तो सीता, मरियम
आयशा को भूलकर
हम शर्मिंदा हैं...
कि हम पत्थर की क्यूं ना हुई

एक ऐसी कविता
जिसमें दर्द है / दु:ख है / आंसू है
पीड़ा है / आधी सदी है
मैं शर्मिंदा हूं...
लिखने से पहले
कि मैं पत्थर की क्यूं ना हुई।
(ये कविता दिल्ली गैंगरेप पीड़ित लड़की को समर्पित...जो आसमान का कोई तारा बन गई)

००


हम लड़कियां

हम लड़कियां मान लेती हैं
तुम जो भी कहते हो
हम लड़कियां शिकवे-शिकायतें
सब गुड़ी-मुड़ी कर
गठरी बनाकर आसमान में
रुई के फाहे सा
उड़ते बादलों के ढेर में
फेंक देती हैं
कभी तुम जाओगे वहां
तो बहुत सी ऐसी गठरियां मिलेंगी

हम लड़कियां
देहरी के भीतर रहती हैं
तो भी शिकार होती हैं
शायद शिकार की परिभाषा, यहीं से
शुरू होती है

हम लड़कियां
छिपा लेती हैं अपना मन
कपड़ों की तमाम तहों में
उघाड़ते हो जब तुम कपड़े
जिहादी बनकर
मन नहीं देख पाते हो

हम लड़कियां
कितना कुछ साबित करें अपने बारे में
हर बार संदिग्ध हैं
तुम्हारी नजरों में

हम लड़कियां
बन जाती हैं तुम्हारे लिए
भूख-प्यास
बन जाती हैं तुम्हारे लिए
आजीवित प्राणी
तुम उन्हें उछाल देते हो
यहां-वहां गेंद की तरह

हम लड़कियां
धूल की तरह
झाड़ती चलती हैं
तुम्हारी उपेक्षा, तिरस्कार, अपमान
तब जाकर पूरी होती है कहीं
तुम्हारी दी हुई आधी दुनिया।

००

चित्र:अवधेश वाजपेई


सुनो मेरी चाहतों

सुनो मेरी चाहतों
पूरी ताकत से अंगड़ाई लो
मेरी जिस्म में
खिला दो दिलो-दिमाग में
तमाम किस्म के फूल
तैरा दो प्रबल प्रवाह के साथ
ज्वालामुखी के नन्हें-नन्हें द्वीप
ज्वार-भाटा के समंदर में
पोर-पोर में भर दो रंगों का नशीला राग
धरती के कण-कण में भर दो
मेरे जज्बात
खोल दो तमाम जकड़ी हुई निराशाओं को
बांधती हैं जो मेरे वजूद को
चादर में बंधे सूखे कपड़े सा

सुनो! आवारगी सी बहती हुई हवाओं
सुनो! आंधी बनकर मुझमें बहो
चूर कर दो अपने आलिंगन में
मगर मुट्ठियों में मंजिल का रास्ता
माथे की लकीरों सा नक्श रहे

सुनो! ब्रह्मांड में बची तमाम अनगढ़
अनतराशी चाहतों (ख्वाहिशों)
पूरी ताकत से मुझमें प्रवेश करो
उखड़ जाएं चाहे मेरे पांव
मगर मुझमें उत्कीर्ण करो दमकता
घना-घना होता विशुद्ध सच्चा संवाद
और भाव शून्यता और निष्क्रियता में
लिपटे पलों को, जो मुझमें
किसी समंदर में बहती निर्मम लहरों सा
सांस ले रहे हैं
वहशी अंदाज में ले जाकर
पटक दो दोजख में

सुनो मेरी चाहतों
पूरी ताकत से रूपान्तरण करो
भावनाओं के स्तर पर जीवन के
महान सत्यों का
जो रच दें देह/  आत्मा में
अपरिभाषित आनन्द को/  ऊर्जा को
ताकि किसी भूचाल के बाद वे
बदले परिदृष्य को आसानी से
जज्ब कर लें नई हरियाली कोपलों में

सुनो मेरी नई चाहतों
अपनी नन्हीं-नन्हीं कोपलों के साथ
मुझे अपनी बाहों में उठाओ
लिटा दो मुझे किसी गीले ऊंचे इरादों के
दरख्त पर कि तड़प भरी सिसकियों के
असंख्य उम्मीद के संग गूंजता रहे
मजबूत इरादों का मखमली स्पर्श

सुनो मेरी नई चाहतों
मैं सीप में ढल जाती हूं
तुम बंद हो मुझमें
श्वेत मोतियों सा
डोलो तुम ब्रह्मांड के आदिम
समंदर में यहां-वहां
टकराओ किसी भी चट्टान से
कभी तट पर आ लगो
कभी धंस जाओ गहराई में
पर प्रशस्त करते रहना
अपने पूरे सामर्थ्य से
मेरे भीतर की स्त्री को
जो विषम परिस्थितियों में भी
उल्लास के गीत गाना चाहती है।

००

चित्र: अवधेश वाजपेई

आधी जमात का सच

एक सीप में तीन लड़कियां रहती थीं
हरी, नीली और पीली
रंग, खुशबू, शबनम और सितारों की
जन्नत में

रफ्तार के संग दौड़तीं
कायनात के इस छोर से उस छोर तक
कभी-कभी उतर आता उनके होठों पर
उदास रंग।
कभी उनके सपने मु्र्दा जिस्म में
बदल जाते
अवाक हो जातीं वे
कहां जा पहुंची उनकी परिक्रमा
बनाया तो था ख्वाहिशों का नक्शा
जन्नत के पांव तले
पर जल जाते उनके पांव
जब तेज रफ्तार में दौड़तीं वे काली सड़कों पर

नक्शे में खुदी पगडंडियों को
ढूंढने का प्रयास करतीं
मैंने कई बार देखा है उन्हें
जब वे उतरती हैं खुशबू, रंग, शबनम
सितारों के साथ
आसमान में

ऊर्जा से लबालब, धैर्य और हिम्मत के
पंख उगाए, हाथों में उम्मीद की
सुनहरी छड़ी लिए
टप्प से टकराती उनकी मासूमियत
कठोर कंकरीली-पथरीली जमीन से

जारो-कतार बहती संघर्षों की नदी में
बुझ जाते उनकी आंखों के दीये
बदहवास हो जाते उनके चेहरे
स्याह सा दुपट्टा सिर पर लिए
पीछे मुड़कर देखते हुए मुस्करातीं
उदास मुस्कराहट के साथ
अतीत से गुंथा वर्तमान
हावी हो जाता भविष्य़ पर
लट्टू की तरह घूमता समय
कीली पर नचाता उनको।

विवश हैं वो नाचने को
अपनी धुरी पर गोल-गोल
चक्कर लगाने के लिए-
जब तक वे अपनी धुरी पर
गश खाकर गिर न पड़ें

तब लगता है कि क्या ये सच हो सकता है
क्या सकारात्मक हो सकता है
कि एक सीप में तीन लड़कियां
रहती थीं हरी, नीली और पीली
खुशबू, रंग, शबनम और सितारों की जन्नत में

ये शायद ऐसे सच हो सकता है
ऊर्जा से लबालब, सब्र और हिम्मत के
पंख के साथ, हाथों में उम्मीद की छड़ी लिए
अपनी धुरी पर ही उन तमाम यातनाओं को
पूरी ताकत से परे हटाकर
एक-दूसरे से सुनगुन करतीं
उन्हीं पगडंडियों पर बढ़ जाती हैं
नंगे पांव ही सही, धीरे-धीरे ही सही
खुद ही ढूंढती हैं अपना सहर
खुद ही आवाज देती हैं किरन को
खुद ही चांद के माथे पर
रखती हैं उम्मीद की छड़ी
खुद ही रजनीगंधा के फूलों को उठाकर
धर लेती हैं सांसों पर
उसकी खुशबू के संग खुद खुशबू बनकर
फूल सी खिलती हैं
टिकाती हैं अपने सपने पहाड़ों पर
यह जानते हुए कि
हिमनद की हल्की सी बयार
उनके सपनों को तोड़ती-फोड़ती
पटक देगी किसी घाटी में ले जाकर

लेकिन उन्हें तो बीनना है सितारे
उन्हें तो बनाना है पनाहगाह
उन्हें तमाम लड़कियों के लिए
जो सीपियों में बंद हैं
सहस्राब्दियों से, मिस्र की ममी सी, न जाने
कितने सौन्दर्य के रंगों में ढली हुई

हां, यही तो है उम्मीदों की सुनहरी सदी
दुनिया की आधी जमात को संग लिए
चलते हुए, बुनियादी फर्क को
सच साबित करने के लिए।
००

स्त्रियां
कभी फूल कभी पत्ती कभी डाल बन
तुममें खिलती स्त्रियां

कभी बादल कभी इन्द्रधनुष बन
तुम्हारे भीतर कई कई रंग
गुंजार करती स्त्रियां

आसमान में उड़ती सितारें ढूंढती
प्रेम में पड़ती स्त्रियां

नदी बनती समन्दर में समाती
तेज धूप में डामर की सड़कों पर चलती
सड़क बनाती स्त्रियां

अन्धेरी बावड़ी में सर्द पानी
और जमी काई बनतीं
वस्त्रों से कई कई गुना
लांछन पहनती स्त्रियां

बिन्दी माथे पर सजा दु:ख की लकीरों को
चेहरे की लकीरों में छुपाती स्त्रियां

सीवन उधड़ी और फीकी पड़ती
उम्मीदों को पुराने किले में कैद करतीं
बार बार नमी वाले बादलों से टकराती स्त्रियां

मुट्ठियों में रोशनी भरने पर भी
जमीन पर टप्पे खाते सम्बन्धों को
ज्वार भाटा में तब्दील होते देखतीं
खुद को तमाम आकारों धूसर शेड्स से
मुक्त करने की कोशिश करती स्त्रियां

उन तमाम शब्दों के अर्थ में
जिनमें वे 'मोस्ट हंटेड और वॉन्टेड' हैं
(शिकार और चाहत)
में घुली कड़वाहट को निगलने की
कोशिश करती स्त्रियां

क्या सोचती हैं तुम्हारे बारे में
मुस्कुराती हैं दबी दबी हंसी
हंसती हैं जब स्त्रियां

कायनात की तमाम
मुर्दा सांसों में इत्र उगाती स्त्रियां।
००


                                  

28 अक्तूबर, 2017

पंखुरी सिन्हा की कविताएं



पंखुरी सिन्हा: युवा लेखिका, दो हिंदी कथा संग्रह ज्ञानपीठ से, दो हिंदी कविता संग्रह, दो अंग्रेजी कविता संग्रह। कई संग्रहों में रचनाएं संकलित हैं, कई पुरस्कार जीत चुकी है--कविता के लिए राजस्थान पत्रिका का २०१७ का पहला पुरस्कार,
पंखुरी सिन्हा

राजीव गाँधी एक्सीलेंस अवार्ड 2013, पहले कहानी संग्रह, 'कोई भी दिन' , को 2007 का चित्रा कुमार शैलेश मटियानी सम्मान, 'कोबरा: गॉड ऐट मर्सी', डाक्यूमेंट्री का स्क्रिप्ट लेखन, जिसे 1998-99 के यू जी सी, फिल्म महोत्सव में, सर्व श्रेष्ठ फिल्म का खिताब मिला, 'एक नया मौन, एक नया उद्घोष', कविता पर,1995 का गिरिजा कुमार माथुर स्मृति पुरस्कार, 1993 में, CBSE बोर्ड, कक्षा बारहवीं में, हिंदी में सर्वोच्च अंक पाने के लिए, भारत गौरव सम्मान. इनकी कविताओं का मराठी, पंजाबी और नेपाली में अनुवाद हो चुका है.


कविताएं


दुश्मन की नई चाल


दुश्मन नया हो या पुराना
वह हमेशा ही होता है
कितना तो शातिर
कितनी और कैसी कैसी
होती हैं उसके पास
चालें, तरकीबें
किसिम किसिम के वह रचता है षड्यंत्र
वह कहाँ घेरेगा
हमें ? तुम्हें ?
जैसे ही दूरभाष आया
वह जा घुसा उसके तारों में
और आज वह जाने कितनी बड़ी
फ़ौज इकट्ठी किये है
हैकर्स की
वह पागल बना देता है
किस्म किस्म से हत्या कर
आपकी निजता की
लेकिन वह भिड़ता है अक्सर
उसी पुराने प्रिमिटिव तरीके से
राह चलते दबोचता है
कभी देह, कभी आज़ादी
कभी आवाज़
कभी नागरिकता
और कभी कभी पूरी जान
.................



फेमिनिज्म

देह का धंधा करने वाली औरतों
 की सुरक्षा का जिम्मा भी सरकारी है
इसकी बदौलत अपनी ज़िंदगियाँ
चलाने वाली औरतों की स्थितियों को
बेहतर बनाने का आंदोलन
बौद्धिक जगत का बड़ा सरोकार
लेकिन समय का इतना दूषित हो जाना
बल्कि इतना विषाक्त
कि आम लड़कियों का जीना
अपने घर में बोलना
एकालाप, प्रलाप
विवाद, संवाद
वाद, प्रतिवाद
ही नहीं
केवल मिलना किसी से
मुमकिन है
किसी अजनबी से भी
यानी डेट पर जाने को ला दे
रंडी पने और वेश्यावृति के दायरे में
कहने का मतलब ये नहीं
कि जोड़ों को मिलाने वाली
भारतीय विवाह की वेबसाइट पर
निरंतर सेक्स चैट की मांग करते
भूख से बिलबिलाते हुए
इस देश के नौजवान ही
अकेले दिग्भर्मित हैं, लेकिन आखिर
वे किस मूल्य की ध्वजा लहरा रहे हैं?
जिनसे बार बार कहा जाता है
हम चुंबन तक की ध्वनि नहीं निकालना चाहते
वो बस बातें करना चाहते हैं इतनी
कभी ताल मिलाकर
आपके अभी अभी छपे नाटक से
जिसके छपने का आपने २ साल
किया हो इंतज़ार
कभी ताल मिलाकर
आपके पास पड़ोस से
जिमखाने और फुटपाथ से
कि बस आक्रोश बचा हो
उस मिठास की जगह
जहाँ अंकुर फूटा करता था आकर्षण का
१० वीं १२ वीं में एक लावा देख लिया था हमने
बिना देखे किसी ज्वालामुखी का विस्फोट
फेमिनिज्म तब तक स्वीकृत हो चुका था
पढ़े लिखे समाज में
और प्रेमी के आलिंगन में बंधती लड़कियां जानती थीं
ऐसा करना ही एक सूत्र में बंधना था
जिसे निभना था
बिना उच्चरित हुए खाम खाह
कसमों और वादों के
....................



चित्र: अवधेश वाजपेई


राजधानी में रात के दस बजे

उस ढाबे पर कुछ अजब शक्लो सूरत के लोगों
का भले कभी दिखता है जमावड़ा
पुलिस वाले भी कुछ ज़रूरत से ज़्यादा दिखते हैं
लेकिन हो जाती है कुछ रौनक
कुछ चहल पहल देर रात तक
यानि सन्नाटा नहीं होता इस
घर को जाती सड़क पर
कभी कभी मजमा लगा होता है
चाउमीन और गार्लिक चिकन की बघार तले
मोटाये, अघाये कुत्तों का डेरा
धुत्त पड़े होते हैं वो फुटपाथ पर
जहाँ कहीं भी उसके पत्थर साबुत हैं
वहां ऊँची टेबल पर
केचप रखा है
नैपकिन के साथ मेन्यू कार्ड
बस चलने वाले को करना होता है
गड्ढों और गड्ढों की मिटटी का सामना
लोग सड़क पर अपनी गाड़ियां पार्क किये
भीतर बैठे भी खाते हैं
कुल मिलाकर
सड़क गुलज़ार हो जाती है
लेकिन, समय इतना ख़राब
और खतरनाक है
कि इस सड़क के एक मोड़ पहले
के सन्नाटे में
पीछे से आती हुई बाइक
जो कि दरअसल ग़लत साइड से आ रही होती है
खड़े कर सकती है
किसी भी लड़की के रोंगटे
सबसे ज़्यादा कर रहे हैं
बाइक सवार लड़कियों को छूकर
लगभग क्षण भर मुट्ठी में थाम कर
गुज़र जाने का कुकृत्य
किसी असह्य भूख
जानलेवा आक्रोश से अधिक
यह एक पुरातन जेंडर वार का
नया चेहरा है
और नित अधिक
हिंसक होती राजनैतिक लड़ाई की
सड़क पर उतरती घिनौनी शक्ल
लेकिन कुछ बात तो है
हिन्दुस्तान की सड़क पर गोधूलि वेला
और अचानक कहीं से प्रकट
गाओं की टोली देख
विद्युत् गति से कुत्तों का उछलना
सड़क के बीचो बीच खड़े हो
उस आवाज़ में भूकना
जो अब वह केवल जानवरों के लिए निकालता है
दुकान का यह पालतू कुत्ता
साथ दे रहा है
उस सिपाही का जो
दरअसल, ताली बजा बजा कर भगा रहा है
गायों को
यह देश का कोई भी मेट्रो हो सकता है
लेकिन, फिलहाल
राजधानी की सडकों पर गोमाता की राजनीति का
अधिक बोलबाला है
.......................



अन्दर

पीली सी एक उजास
आभा सी
चमक सी कुछ कुछ
आंधी से पहले की
ऐन पहले की
दो दिन पहले की
कुछ कुछ चुभती सी
मिच मिच चुभती सी
रौशनी केवल
और सनसनाहट ये
कि आने वाली है
आंधी
कुछ कुछ डरावनी
बवंडर
पता रौशनी
आगाह करती
सूरज जैसी
आँखें बंद
आँखें खुली
आँखें पानी, पानी
जेठ का सूरज
कि पूस का
हिम्मत हो कि नहीं
बादलों की चादर पार
गुनगुनी सी रौशनी कोई
कि बरस कर छटने वाले हैं बादल
या उड़ाकर ले जाएगी हवा
बयार, आंधी
भीतर हम
भीतर सब
मीठी सी थरथराहट
कि दरवाज़े किवाड़ पीटती हो आंधी
झमाझम
बरबस
बरक्स
बेताल हो हवा
उत्ताल हो हवा
पाताल हो हवा।
2012

बाहर

आंधी आने वाली है
मौसम विभाग नहीं
बस माँ की चेतावनी
कि ठीक से बंद नहीं हुई
खिड़की जो, खुल गयी है
छीटें बौछार, या कि शीशा टूट गया है
बीच आंधी में
सराबोर
और खाला जान का अचम्भा
कि तीन दिन से
आते, आते
आ ही गयी है
आंधी आखिर
गनीमत ये कि छत पर से
घडी, घडी कपडे उतारने की मानसूनी रस्म का मौसम
अभी आने वाला है
कोसों कोसों दूर मौसम विभाग की ख़बरों से
कोसी नदी की अमापी मुस्कराहट सी
……………………..




दिन आवारा


दिन आवारा,
दिन फक्कड़,
बिंदास,
दिन बंजारे,
दिन इकहरे,
दोहरे,
दिन अकेले,
दुकेले,
दिन साथ, साथ,
दिन पास, पास,
दिन करीब कहीं,
नज़दीक ही,
दिन पकड़ से दूर,
दिन दूर दूर,
दिन दूरी,
दिन डाल डाल,
दिन पात पात,
दिन बात बात,
दिन सुरीले,
दिन कँटीले,
दिन खामोश,
दिन ख़ामोशी,
दिन धुनों से भटकाव,
दिन बेज़ार,
दिन बेकार,
दिन बेरोजगार,
दिन बेगाने,
दिन भूखे,
दिन अखबारों के इश्तहार,
दिन खूबसूरत बत्तियों वाले कैफेज़ के आगे,
सजे मुलायम बिस्किट्स के कांच के शेल्फ,
दिन कुछ भी न खरीद पाने की नियति,
दिन अंतहीन सड़कें,
दिन सड़क बंद,
दिन रास्ता जाम,
दिन अदृश्य बाधाएं,
दिन कहीं और का युद्ध,
दिन किसी और की बातें,
दिन बहलाव,
दिन व्यतीत,
दिन उम्र,
दिन अगवा,
दिन क्षणिक,
दिन शाश्वत।



चित्र: अवधेश वाजपेई

अगर हम साथ हंसें


अगर हम साथ हंसें
तो हमीं तय करेंगे
हमारी हंसी का रंग
हमीं तय करेंगे उसकी लय
ताल और गूँज
मुमकिन है
मेरी हंसी में मेरे आंसू भी शामिल हों
मैं प्रेम में हमेशा पहले रोती हूँ
बहन के साथ का प्रेम हो
अथवा बचपन की सहेली के साथ
वर्षों बाद मिलकर
देखो न
कितनी लड़ाई लड़ी गयी है
हरे जंगलों के वक्ष स्थल पर
स्पेन अथवा पुर्तगाल के दावानल हों
अथवा अपने बचे हुए जंगलों में
आग की लपट
जो हर सुगबुगाहट के बाद
हो जाती है बेसंभाल
कहते हैं
हर दावानल लगाया हुआ होता है
केवल तेल के कुँए में
लगाई नहीं जाती आग
और हालाकि दुनिया के सभी बड़े
खदानों के इर्द गिर्द फैली है
पहचानी जा सकने वाली एक लड़ाई
वह हरियाली को उजाड़ने से ही
शुरू हुई है
सडकों के भी युद्ध स्थल में
तब्दील होने की स्थिति
बहरहाल, इस कविता को एक प्रेम कविता होना था
जिसे फिर से लपेट लिया है
युद्ध ने
सड़क पर चलते
आज़ाद, बेख़ौफ़ कदमों को
लपेट लेने की तरह
लेकिन हम जो लगभग साथ हँस पड़े थे
और कल्पना भी कर ली थी
हँसी के बदलते रंगों की
उलझकर क्यों रह गए
सूर्योदय और सूर्यास्त के
अंतहीन रंगीन जाल में?
रंगों की तासीर निकल गयी
हमारी हथेलियों, हमारे फूलों से
प्रेम की आग के ठंढे हो जाने तक
हम बुझाते रहे औरों के जंगलों की आग

............................



अगर हम साथ हँसे


अगर हम साथ हँसे
तो ज़रूर गूँजेगी
हमारी हँसी पहाड़ों में
जहाँ कहीं भी उनकी कंदराएं शेष होंगी
उनमें भी सुनाई देगी
हँसी हमारी
और तैरती रहेगी
हर उस नदी के पानी पर
जिसके घाट पर खड़े होकर
हमनें प्रार्थनाएं कीं
चाँद और सूरज से
शुक्र और शनि से
जाने किन किन तारों से
आसमान के सारे रंगों की तासीर को गढ़ा हमने शब्दों में
हम प्रकृति की संतान थे
घास हमारा बिस्तर
हमारी मेज़ और कुर्सी थी
इससे पहले कि वह पूरी तरह
विस्थापित हो गयी
कोलतार और कंक्रीट से
फिर भी
हम नहीं हंस रहे थे
किसी के भी ऊपर
न बड़े व्यापारी
न सूदखोर बैंक
न रिश्वत खोर सड़क विभाग पर
हम हँस रहे थे
क्योंकि मनों धूल से नहाया हुआ
एक एक अमलतास
और गुलमोहर का पेड़
शेष बचा है
हमारे इस कभी के हरे भरे पैतृक शहर में
.............................


चित्र: अवधेश वाजपेई



हम जब भी साथ हसेंगे

हम जब भी साथ हसेंगे
जब कभी साथ हसेंगे
उसमें उसके भी हसने की अनुगूंज होगी
चिड़िया अपने चोंच में भर लेगी
कहकहे हमारे
और गाएगी बिना शब्दों वाले गीत
हमारी हंसी के तार
चमकेंगे उड़ती तितलियों के पंखों में
और बहुत अँधेरी अमावस सी रातों में भी
चमकेंगे हमारी हंसी के नुकीले कोने
हमारी हंसी का कोई भैरवी राग
उठेगा किसी सोयी हुई झील की सतह से
और खो जाएगा पहाड़ी के उस पार
किसी अप्राप्य घाटी में
और लौटेगा बार बार
जब वे हँसेंगे
हमारे जैसे और प्रेमी
और नरसंहारों के कुछ थमने के बाद
किसी उजले अंतराल में हसेगा ईश्वर ..
.....



हम जहाँ भी साथ हंसें


हम जहाँ भी साथ हंसें
वसंत गुनगुनाएगा
दूर दूर तक
दूर जंगल पार की हवा में
उड़ेगा हमारे वसंत का पीला पराग
और हमारी खिलखिलाहट की धुन में
दौड़ेंगे हिरणों के बच्चे
खरगोश बेख़ौफ़ सोयेंगे
हमारी हंसी में
और पक्षियों के
प्रेमालाप में नहीं आएगा
कोई भी विघ्न
हमारे भीतर का सारा सोना
पिघलकर जमने लगेगा
उनके मसूढ़ों
उनकी शिराओं में
और मुमकिन है
तब वे अगवा करना छोड़ दें
हमारे बच्चे...................
००