image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

30 मई, 2018


रंजना मिश्र की कविताएं


रंजना मिश

कविताएँ


दुनिया में औरतें

(एक)

स्त्री विमर्श करते
तुम्हारी पुरुष आँखें
छूती रहती हैं
मेरे वक्ष और नितंब
और मेरी आँखें
तुम्हारे चौड़े ललाट
और पैरों के लगातार हिलने में
स्त्री विमर्श का खोखलापन
भाँप लेतीं हैं!
मुझे याद आता है
भीड़ भरी बस का वह अधेड़
जो अक्सर
लड़कियों के बगल बैठने की जगह ढूँढा करता था!

(दो) 

उनमें से कुछ मौन हैं
कुछ अंजान
उनका मौन और अज्ञान
उन्हें देवी बनाता है
कुछ और भी हैं
पर वे चरित्र हीन हैं
हम यहाँ उनकी बात नहीं करेंगे!
दुनिया में बस
इतनी ही औरतें हैं!


(तीन)

मेरे शब्दों में बैठी है
एक बूढ़ी औरत
जर्जर
पके झुर्रीदार चेहरे वाली
रेखाएं जिसके चेहरे पर
उसके पैरों के नीचे की
पथरीली ज़मीन बनकर जमा हैं
आँखें जिसकी सवालों से बेख़बर,
ज़िन्दगी को ढोते जाने की जिंदा तस्वीर
जिसके हाथों ने मिटटी ढोई है
उस किले की जर्जर दीवार को बचाने के लिए
जिसमें वह खुद क़ैद है

मेरे शब्दों में छिपी है
एक दूसरी औरत
दूर कहीं, भविष्य के गर्भ में
नौजवान,
ज़िन्दगी के आदिम गीत में बहती हुई,
बाहें पसारे
जिसके भीतर उगते है कई मौसम
और वसंत जिसके जूड़े में ठहरा है
कंधे मज़बूत है जिसके,
और बाहें लचीली
यथार्थ के धरातल पर खड़ी
जो सूरज की आँखों में सीधी झांकती है
जिसका मालिक़ कोई नहीं
और दुनिया की तस्वीर में
जो पैबंद की तरह नहीं लगती

मैं-
इनके बीच खड़ी अपने शब्द तौलती हूँ
और मुस्कुराकर
नौजवान औरत की हंसी
बूढी औरत की तरफ उछाल देती हूँ
जो धीरे धीरे उठ खड़ी होती है
अपनी पोपली हंसी
और झुर्रीदार हाथ
मेरी तरफ बढाते हुए.








विषकन्याएँ

उसकी चुप्पी थी
पहाड़ों सी
सहनशीलता समंदर सी
औरत नदी होना चाहती थी
उसके हाथों में था
टूटा दर्पण
टुकड़ों में था अस्तित्व उसका
वह
प्रकृति की सबसे अनूठी रचना थी
उसने आग ढूंढी
चूल्हा सुलगाया
उसकी विजय का प्रतीक बनी
औरत का कोई घर न था
वह उसके पीछे चली
उसने जंगल काटे
वनळताएँ जलाईं
पर्वतों को चीरा
उसके पीछे
चलते चलते
वह अपने अंत तक गई.
कुछ -
अपने अंत के बाद भी बची रहीं
समुद्र मंथन के फेनिल विष की धार में
डूबते उतराते किसी तरह किनारे आ लगीं वे
तलाशने लगीं अपने माथे की लकीरों के बीच
अपने घर को जाने वाली पगडंडियाँ
कोई रास्ता उनके घर को न जाता था

उन्होने खुद तक वापसी  के रास्ते ढूँढे
चलते चलते खुद तक आईं
चारे बोए
जानवरों का सानी पानी किया
तमाम खर पतवार
निकाल फेंका
अपनी पीठ को लोहे सा तपाकर
अपने संसार में जुट गईं
अपने शिशुओं को थपकी देते
वे अक्सर गुनगुना लेती हैं.
वे -
चरित्र हीन नामाकूल औरतें
विषकन्याएँ
सभ्यताके गले में फाँस की तरह अटकी!





पुल पर औरत 

इस बार
प्रेम करूँगी तो डूबकर करूँगी
नहीं रखूँगी कुछ भी अपना
बस सौंप दूँगी
सब कुछ, निडर
झूल जाउंगी हवा के
हिंडोले में
घाटियों से फिसलूंगी
ऊपर और ऊपर
उड़ूँगी
अपने भीतर
लगी सारी सांकलें
खोल दूँगी

कई जन्मों से
प्रेम को रोक रखा है
मैने
अपने भीतर
कोख और कुल की चौखट में क़ैद
प्रेम की परिभाषाएं बूझती आई हूँ
उनपर अमल किया है
देखो ना
चलते चलते
पाँवों पे छाले उभर आए है
खून रिसता है इनसे
पुल तक आ पहुँची हूँ
सदियों से इसी पुल पे खड़ी
नीचे पानी की
गहराई
नापती सोच में डूबी
तुम्हारा इंतज़ार करती हूँ

नही बस और नहीं
अब जाना ही है मुझे
लहरे अपने पाँव पर महसूसनी हैं
बालों को भिगोना है
उमड़ती गरजती बारिश में

मेरा प्रेम न समझ पाओ तुम
तो लौट जाओ
अपने घर
अपने छल की ओर
वहाँ खुद को थोड़ा छोड़ आई हूँ
जानती थी
लहरें तुम्हें डराएँगी
और तुम वापस जाओगे
छोड़कर मुझे
पुल पर खड़ी
कभी पाना मुझे
सदियों बाद

मुझे स्वीकार है
इस पुल का अकेलापन
अधूरापन
अब मुझे स्वीकार नहीं






चालीस पार की औरत


जली हुई रोटी है
दूसरी तरफ कच्ची
उफन गई चाय है
बच रही थोड़ी सी
भगौने में
बची हुई मुठ्ठी भर धूप हो जैसे
उतरती गहराती शाम में
बजती है
ठुमरी की तिहाई की तरह
बार बार
पलट आती है
मुखड़े पर
पता नहीं कौन
रोज़ दरवाजे खटखटा जाता है
और आँखों से नमक झरता है
अपनी देह के बाहर
छूट जाती है कभी
और कभी
उम्र से आगे निकल जाती है
मुड़ती हुई नदी
के भीतर बहती है एक और नदी
पत्थर का ताप अपने भीतर थामे
रात होते ही
अपने पंख तहा
रख देती है सिरहाने
और निहारती है देर तक
उन पंखों को..
चालीस पार की औरत !








इनकार 

नवीं कक्षा में थी वह
जब इतिहास की किताब बगल में रखकर उसने पहली रोटी बेली
टेढ़े मेढ़े उजले अंधेरे शब्दों के भीतर
उतरने की पुरजोर कोशिश करते
उसने पृथ्वी की तरह गोल रोटी बेली
उसके हिस्से का इतिहास आधा कच्चा आधा पक्का था
तवे पर रखी रोटी की तरह
रोटी बेलते बेलते वह
कॉलेज और यूनिवर्सिटी तक हो आई
सौम्य सुसंस्कृत होकर
उसने सुंदर रोटियाँ बेली
और सोचा रोटियों के सुंदर मीठी और नरम होने से उसका इतिहास और भविष्य बदल जाएँगे
उसके मर्द के दिल का रास्ता आख़िर पेट से होकर जाता था
उन्होने उसकी पीठ थपथपाई और कहा दूधो नहाओ पूतो फलो
क्योंकि वह लगातार सुंदर रोटियाँ बेलने लगी थी
सपने देखते, चिड़ियों की बोली सुनते, बच्चे को दूध पिलाते
वह बेलती रही रोटियाँ
उसके भीतर कई फफोले उग आए
गर्म फूली हुई रोटी की भाप से
दुनिया के नक्शे पर उभर आए नए द्वीपों
की तरह
चूल्हें की आँच की बगल से उठकर
चार बर्नर वाले गैस चूल्हे के सामने खड़े होकर उसने फिर से रोटियाँ बेली
हालाँकि उसने कला, साहित्य इतिहास दर्शन और विज्ञान सब पढ़ डाले थे
भागती भागती खेल के मैदानों तक हो आई थी
और टीवी पर बहस करती भी दिख जाती थी
पर घर लौटकर उसने खुद को चूल्हे के सामने पाया
और बेलने लगी नर्म फूली रोटियाँ
कैसी अजीब बात
गोल रोटी सी गोल दुनिया के किसी कोने में ऐसी कोई रसोई न थी
जहाँ खड़ी होकर वह रोटी बेलने से इनकार कर देती !




निर्द्वन्द

ईश्वर को
हमने ठीक उसी समय
सूली पर चढ़ाया
जब उनके साथ चहलकदमी करते, बतियाते
हमें गढ़ने थे
शब्दों के नए अर्थ.
सुकरात को ज़हर का प्याला
ठीक उसी वक़्त भेंट किया
जब
ईश्वर के साथ हुई अधूरी चर्चा
हमें आगे बढ़ानी थी
इतिहास के प्याले को
भविष्य की शराब से भरकर
धरती
और अपनी स्त्रियाँ
हमने ठीक उसी वक़्त
योद्धाओं और उनकी सेनाओं के हवाले की
जब धरती वसंत के आगमन की प्रतीक्षा में थी
और स्त्री गर्भ के पाँचवे महीने में
गर्भ के शिशु ने
अभी करवट बदलना शुरू ही किया था

हमने
प्रेम और शब्दों के अर्थ
अपनी लालसा और भय की भेंट चढ़ाई
और अपनी आत्मा की
कालिख भरी सीढ़ियाँ
उतरते चले गए
ईश्वर के साथ हुए अपने सारे विमर्श भूलकर
हमने इतिहास में योद्धाओं के नाम अमर कर दिए
हमने इंसान शब्द के अर्थ को
ठीक उसी वक़्त अपशब्द में बदला
जब सूली पर चढ़े ईश्वर ने
अपनी आख़िरी सात पंक्तियों में से
पाँचवी पंक्ति में कहा
" मैं प्यासा हूँ" *
और छठी पंक्ति में ईश्वर ने विलाप किया
"यह ख़त्म हुआ" *
ईश्वर की मृत्यु को तीन दिन बीत चुके हैं
अब हम निर्द्वन्द हैं.
_
*ईसा मसीह को सूली पर चढ़ाने के बाद उनकी कही गई पंक्तियों में से पाँचवी और छठी पंक्ति.








पेड़

(एक)

कितने ही डर थे जिनसे गुज़रना था उसे
 अपनी ही जड़ें
मिट्टी होने का अहसास – सिर्फ़ एक था
 अपने ही तनों को न छू पाना भयावह
 पर बढ़ने और दफ़न होने के सिवा
ज़िंदगी थी  क्या?

(दो)

उस दिन कोई मुसाफिर
आ बैठा पेड़ की छाँव तले
रोटियाँ खाईं
थोड़ी पेड़ की जड़ों में
घर बनाती चींटी को खिलाईं
सो गया फिर
चीटियाँ घर बनाती रहीं
पेड़ ने अपनी रसोई समेटी
और पंखा झलता रहा

(तीन)

अबकी बारिश ज़रा देर से आई
मटके सूखे रहे
कहानियों वाला कौवा भी नहीं दिखा
पेड़ ने आकाश का सीना सहलाया
बादल एक दूसरे को
कुहनियाते, हँसी ठट्ठा करते आए

(चार)

दो पंछी लड़ बैठे उसकी छाँव में
थोड़ी देर बाद उड़ गए
पेड़ ने फिर से स्मृतियाँ सहेज लीं
पेड़ के सपनों में सूखा नहीं आता

(पाँच)

सपने में मैने पेड़ को पुकारा
अपनी फुनगियों में लिपटी
रंग बिरंगी पतंगों के साथ
जड़े समेटे
वह दौड़ा चला आया


(छः)

पेड़ भी सोते हैं कभी
अपनी ही टहनियों से
आँखें ढककर
अपनी जड़ें समेटकर
अंजान बन जाते हैं
नहीं पहचानते उस इंसान को
जो छाँव तले बैठा
बीड़ी फूंकता है.
जिसने बाँध रखी है कुल्हाड़ी
कमर के गमछे से
जो हाथों का छज्जा बनाकर
पेड़ की उँचाई मापता है!





हिंडन नदी को बचाने की कोशिश में लगे अपने साथियों के लिए


उनके सपनों में बहती है एक नदी
अपने तमाम किनारे समेटकर
सहमी हुई
पुकारती है स्वप्न में उन्हें
वे पहचानते हैं यह पुकार
और जगह देते हैं इसे
जैसे सूरज जगह देता है छाँव को
और चाँद बिछ जाता है ओस के लिए
उन्हें देखकर मैने जाना
कविता हर बार शब्दों की मोहताज़ नहीं होती
और सपने
कविता की हदों से दूर भी जिया करते हैं.





प्रेम कहानियाँ

प्रेम कहानियाँ पसंद हैं मुझे
इनके पात्र कई दिनों , हफ्तों और महीनो मेरे साथ बने रहते हैं
फिल्मों की तो पूछिए मत
प्रेम पर बनी फिल्में मुझे हँसाती हैं रूलाती हैं
और स्तब्ध कर जाती हैं
मैं अपनी पसंदीदा फिल्में
कई बार देख सकती हूँ और
हर बार उनमें नया अर्थ ढूँढ लाती हूँ.
ये भी एक वजह है क़ि मेरे दोस्त मुझे ताने देते हैं
और मेरे घर के बच्चे कनखियों से मुझे देख मुस्कुराते हैं
मुझे लगता है
यह दुनिया अनंत तक जी सकती है
सिर्फ़ प्रेम की उंगली थामकर
पर इन दिनों मेरा यकीन
अपने काँपते घुटनों की ओर देखता है बार बार
हम एक दूसरे की आँखों से आँखें नहीं मिला पाते
सचमुच-
अपनी उम्र और सदी के इस छोर पर खड़े होकर
प्रेम कहानियों पर यकीन करना वाकई संगीन है,
ख़ासकर तब-
जब आप पढ़ते हों रोज़ का अख़बार भी !








पन्हाला की कोई शाम

(1)
उतरते जीवन सी उतरती शाम के गहराते साए में
पहाड़ की चोटी पर बैठा
वह बूढ़ा किला
चुपचाप देखता है दूर तक फैली घाटी पर बिछी
सड़क को, जीवन की आपाधापी को हलचल को
छोटी छोटी खिड़कियाँ उगा रखी है उसने
अपने झुके कंधों वाले विशाल सीने में
बैठा है किसी विशाल देव को तरह
जटाएँ खोले
पता नहीं - ऋषि सा
या काल के शिकंजे से निकल भागे अश्वत्थामा सा
माथे पर जिसके रिसता था घाव
गवाह है घटनाओं का
सिंहासन के षडयंत्रों का,
सत्ता के गलियारों में खेली जा रही चौसर की बिसात का
जो रंग बदलती है हर पल
घोड़े की टाप, तलवारों की टंकार
और चीख पुकार लेते हैं आकार
उसके कानों में
पथरा गया है
अपने भीतर और आस पास घटते समय
को देखते देखते
वह समय-
जिसे आने वाला भविष्य इतिहास कहकर पुकारेगा



(2)

काली ऊँची पथरीली दीवारों, मीनारों मंदिरों और बुर्ज के भीतर
सेपिया रंगों में उभरते बिंब हैं
कथा कहते ,
विरुदावलियाँ गाते
कभी फुसफुसाते
और लोप हो जाते अंधेरे में
किला सब कुछ सुनता है
गुनता है
इतिहास की साँसे मृत्यु शैया पर ढह रही हैं
बस मृत्यु की तरह दर्ज़ नहीं होतीं
समय जैसे ठहर सा गया है..

(3)

किले के मुख्यद्वार के ठीक पहले
चाट पकौड़ी ठेले दुकान गाइड टैक्सी शोर शराबा
सरकार निर्धारित इतिहास दर्शन की कीमत
समय को महसूस करने की कीमत
लाल अक्षरों में
साइन बॉर्ड्स की शक्ल में और दीवारों पर अंकित है
हाथ थामे प्रेमी जोड़े, लंचबॉक्स लिए
बच्चों के पीछे चलती माएँ
और सफेद टोपियाँ लगाए बुज़ुर्गवार
गौरव गाथा और मनोरंजन के बीच
अपनी खुशियों बुनते तलाशते
इतिहास की डोर भविष्य के हवाले करते
नए बच्चों को उन नायकों से परिचित कराते
रविवारीय छुट्टी की वह शाम
बीतने से पहले जी लेना चाहते हैं
उनकी कथाएँ, गौरव की पगडंडियाँ
अतीत के उन अंधेरे कोनों से बचते बचाते चलती हैं
जहाँ इंसानी चीख और खून के धब्बे
बड़ी नफ़ासत से दफ़न हैं
उन क़ब्रों के सिरहाने सील कर दिए गए हैं
फिर भी कुछ फुसफुसाहटें, निशब्द सिसकियाँ, पुकार
निकल भागते हैं
आवारा घूमते हैं..
हवा में उड़ते अफवाहों की शक्ल में
पीछा करते हैं
यायावर कदमों का
सड़क पर घूमते भोली आँखों वाले
फटेहाल बच्चों की तरह
जो आँखों में आँख डाल चुपचाप देखते हैं
भावहीन
किसी हॉरर फिल्म की तरह

(4)

गाइड भी नही ले जाते इतिहास की उन
फुसफुसाती अंधेरी गलियों में
जहाँ कोई दूधमुँहा रोता है
चीखती है उसकी माँ
जो कभी न घटनेवाले भविष्य में
उसे खेती के गुर सिखलाएगी
या तिल और मूँगफली से तेल निकालना
जवान माँ किसी सपने की कर्ज़दार है
राजमाता को सपने आते हैं
जो इंगित करते हैं किसी जवान सौभाग्यवती
और उसके नन्हे की ओर
जिनके जीवन का मूल्य
राजमाता के सपने से अधिक नहीं
किले की नींव का पत्थर
उनकी चीख माँस मज़्ज़ा रक्त और सपनों पर खड़ा
होगा और किला फिर कभी नहीं ढहेगा

(5)

फर्माबदारी की कीमत है
राजमाता कीमत अदा करेंगी
उसके नाम से मंदिर बनेंगे
और वह समय के पन्नों में देवी की तरह प्रतिष्ठित होगी
चढ़ावे चढ़ेंगे शीश झुकेंगे
इतिहास की मीनारें
उन ज़िंदा शरीरों पर खड़ी हैं,
जिनके पन्नों में भोज न्यायप्रिय कहलाए और
गंगू तेली किंवदंतियों में अमर हो गया
काल और इतिहास उसके कर्ज़दार हैं
बस किले के कान पथरा गए हैं
उस बच्चे की चीख सुनकर
जो अपनी पूरी ताक़त से
अजेय सत्ता को चुनौती दे रहा था
जब सैनिक उन्हें लिए जा रहे थे
उस दुधमुंहें को नहीं पता
व्यक्ति के अधिकार
सत्ता के अधिकारों से
कमतर ही रहते आए हैं

(6)

किले ने बच्चे की चीख भी
उसी तटस्थता से सुनी
फिर भी
पथरा गया
उग आया एक घाव उसके माथे पर
और उस जर्जर किले के सीने
ने अपनी सारी खिड़कियाँ खोल दीं
किला अब चुप ही रहता है
कोई कोलाहल उसे नहीं छूता
इतिहास ज़िंदा चीखों की एक गठरी है
जिसे किले ने लाद रखी है
अपनी थकी शापग्रस्त पीठ पर
झुके कंधों और बुझती आँखों के साथ
सीने में कई खिड़कियाँ और
माथे पर खुला घाव लिए
घाटी की ओर देखता है
चुपचाप…..



इंदौर के नाम

उस शहर में
महानगर होने की पूरी संभावनाएँ थीं
चौड़ी सड़कें, हरे भरे बाग़, तेज़ी से दौड़ती कारें
ऊँची इमारतें और व्यस्त लोग
पब्स और कॉर्पोरेट ऑफीस थे
एक फ्लाइ ओवर भी बन रहा था
और मुख्य सड़क के ठीक पीछे वाली सड़क पर
झुग्गियाँ भी अपनी जगह मुस्तैद थीं
कुछ खिड़कियाँ बंद थी
लोग बिना एक दूसरे को देखे
बगल से गुज़र रहे थे
बस एक ही कमी रह गई
लोग अब भी रुक कर पते बता दिया करते थे
और एक दूसरे को पिछली पीढ़ियों से पहचानते थे
वे अब भी आगंतुकों को गौर से देखते थे
कोई अपना भूला वापस तो नहीं आया?
बस इस तरह वह शहर
महानगर होते होते रह गया!



शून्य

इन शामों में,
सूनी और अंधियारी
बढती हुई रात की तरफ
शामों में ,
जब कोई नहीं होता
अपने आस पास   
खालीपन -
दूर दूर तक पसरा होता है
तुम्हें -
पुकारना चाहती है
मेरी आवाज़ ,
ऐसी पुकार
जो तुम्हें विवश कर दे
अपने चारो ओर उठाई हुई
दीवार को तोड़कर
इस पर आने के लिए,
उसकी गूँज -
तुम्हारे अंतरतम में
बहुत देर तक
प्रतिध्वनित होती रहे
तुम्हें बोध कराए
अपने और मेरे बीच ठहरे
उस शून्य का
जो मेरे भीतर
उतरता जाता है
पानी की बूंद की तरह
टप टप  टपकता,
मेरे अस्तित्व को छेदता !


प्रतिध्वनियाँ

कौन हो तुम
मेरे अंदर
सदियों से
चेतना की तरह जीते हो
या शायद
मुझे जिलाते हो

मेरी प्रतिध्वनियाँ
जो कहीं नहीं पहुँचती
क्योंकि उन्हें पहुँचना होता है तुम तक
कभी कभी तुम्हारा मौन खलता भी है
लगता है
सबकुछ सो गया है
मेरे भीतर
और जागता है
दुख
पीड़ा होती है
सब कुछ छिन्न भिन्न कर देती है
टूटन के उस अंतहीन क्षण में
मुझे अहसास होता है
तुम्हारे होने का
मैं फिर जी जाती हूँ
तुम्हारी तलाश में.


00



परिचय 
परिचय देना कठिन काम है, हर नए दिन के साथ कुछ नई समझ आती है खुद के बारे. यात्रा है, अनवरत.
नाम रंजना मिश्रा,
 १९७० के दशक में जन्म, 
शिक्षा वाणिज्य और शास्त्रीय संगीत में.
फिलहाल आकाशवाणी, पुणे से संबद्ध.
कथादेश में यात्रा संस्मरण,
 इंडिया मैग, बिंदी बॉटम (अँग्रेज़ी) में निबंध/रचनाएँ प्रकाशित, प्रतिलिपि कविता सम्मान
(समीक्षकों की पसंद) २०१७.
पर्यटन में विशेष रूचि.

​ कहानी:

 इस पृथ्वी का आखरी कॉम्युनिस्ट

नवारुण भट्टाचार्य

बांग्ला से अनुवाद: मीता दास




2020 साल में एक घटना इस प्रकार घटित होगी जो इस कहानी से ही प्रमाणित हो जाएगा कि आज से ठीक सत्रह साल बाद जो घटेगा या जिस घटना का घटित होना संभव हो पाएगा उसी को लेक​र ​
यह कहानी मैं लिख रहा हूं
उन्नीस सौ इक्यानवे में जिस सोवियत यूनियन की विलुप्ति की घोषणा इस दुनिया ​के​ सबसे नामी { प्रसिद्ध }
क्रिमि ​नोलॉजिस्ट भी नहीं कर पाएं



नवारुण भट्टाचार्य 


अगर पृथ्वी को सैकड़ों बार जलाकर भष्म कर दिया जाए और इस तरह की हजारों न्यूक्लियर मिसाईल उनके साइलो में सोई हुई भी रहें और मार्किन युक्त राष्ट्र को नीचा दिखाने के लिए विशाल सामरिक वाहिनी , पुलिस ,केबीजी , लाखों की तादात में पार्टी सदस्य सब ठूंठ साबित होंगे | इस घटना को हम विश्व का सबसे बड़ा पैरालिसिस { फ़ालिज } की भी संज्ञा दे सकते हैं | वलकोगन के जैसे इतिहासकार ने भी बाद में ढेर सारे तथ्य दिए | किन्तु इस महापतन के बारे में एक मात्र आभास कर पाते हैं हम साहित्यकार वुल्गाकाव , ग्रॉसमैन , लेव अनातोल से सलझेनित्सिन के अनेकों लेखों में | शायद उन्होंने साफ़ तौर पे नहीं लिखा पर उन लेखों में एक संभावना का आभास जरूर था | यह सब  सिर्फ साहित्य में ही संभव है | 2010 यह संख्या  बदल सकता है पर यह कहानी जरूर घटित होगा |

साल 2020 में व्हाइट हाऊस का लॉन , एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के प्रेसिडेंट अर्नाल्ड - शोवरजेनेगर के चलायमान संयुक्त शतक के अमोघ जययात्रा के सम्बन्ध में रिपोर्ट देते हुए यह समाचार भी जोड़ देंगे कुछ इस तरह -----



"  ..... देखो  ... हाँ मैं आप लोगों को यह खबर बताना चाहूंगा कि  --- विश्व का आखरी कम्युनिस्ट की कल मौत हो गई है , ऑस्ट्रेलिया में | उनकी उम्र थी कोई ब्यानवे साल | वह ईश्वर पर कोई आस्था न रखने के बावजूद भी ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें | अब पूरी पृथ्वी पर कोई कम्युनिस्ट नहीं बचा , एन्ड ऑफ़ द रेड  ...... "राईटर  ---- " पर मिस्टर प्रेसिडेंट , आपको आखिरकार यह समाचार कहाँ से प्राप्त हुआ ? "
 " ........ क्यों ? जिन से हमें और भी कई तरह की सटीक खबरे आती हैं | सी आई ए , एफ बी आई , दोस्त ब्रिटेन के एम आई - फाइव | आजकल पृथ्वी स्वच्छ है , गोपनीय जैसा कुछ भी नहीं | कम से कम व्हाइट हाऊस में | "
पर संयुक्त राष्ट्र के प्रेसिडेंट की बातों को नकार कर क्रेमलिन घोषणा करेगा कि शोवरजेनेगर की बातें गलत हैं | ऑस्ट्रेलियन वृद्ध पृथ्वी का आखरी कम्युनिस्ट नहीं है | पर पृथ्वी का आखरी कम्युनिस्ट भी मरने के कगार में है |रस्तोभ - अन - दन शहर के एक अस्पताल में | उसका नाम है ब्लादमीर रुवाकभ जिसे द्वितीय विश्व युद्ध में " सोवियत यूनियन वीर " का ख़िताब मिला |

रिपोर्टर लड़के का नाम था रॉबर्ट डायल , फ्रीलांस रिपोर्टिंग करता था | " द डेली रिपोर्टर " उसे मॉस्को में ईमेल से सूचित करता है कि वे लोग रुवाकभ ​पर एक स्टोरी करना चाहते हैं | ​ यह मेल डायल को रात में ही मिल चुका था | दूसरे ही दिन सुबह - सुबह डायल एरोफ्लाटेर डोमेस्टिक फ्लाईट पकड़कर रस्तोभ - अन - दन शहर पहुँच जाता है | रशिया के ​आतंरिक फ्लाईट के बारे में किसी भी तरह का उसे अनुभव नहीं था | यहाँ जिस तरह की बेढंगी एयर होस्टेस मिलीं उससे भी गंदी थी फ्लाईट का टॉयलेट | तीस सालों के कैपिटलिज़्म भी रशिया को सभ्य या भव्य नहीं बना पाई | रशियन केपिटलिस्ट  मैनचेस्टर यूनाइटेड को भी खरीदना चाहते हैं | डायल रुवाकभ की खोज में निकलते ही उसे और भी कई स्टोरी मिल गईं | ऐसा कई बार होता है एक चक्कर के भीतर कई चक्कर | सिर्फ इसे इंट्रेस्टिंग बना पाए तो मजा आ जाये | डायल रस्तोभ - अन - दन के मेट्रोपोल होटल में चेक इन कर ही निकल पड़ा | उसके संग उसका नित्य का संगी लेपटॉप भी था |

" रशिया ही शायद विश्व का एकमात्र देश है जहाँ अस्पतालों में आयडोफॉर्म या उसी के जैसा कोई प्राचीन गंध मिलता है " कुछ ऐसी ही लाईन मन ही मन सोचता डायल बॉरिस मेमोरियल हॉस्पिटल में प्रवेश करता है | रिसेप्सनिस्ट लड़की टूटी - फूटी इंग्लिश में कहती है ---

" आप मिस्टर डायल हैं ? "

" हाँ , प्रेस का कार्ड दिखलाऊँ क्या ? "

" नहीं , कोई जरूरत नहीं " मिस्टर मैक्सिम ब्लादमीरोव्हिच रुवाकभ आधे घंटे से आपका इंतजार कर रहे हैं | वे ही आपको पेशेंट के कमरे तक ले जायेंगे | " डायल के करीब आ गए थे मैक्सिम , डायल जनता था मैक्सिम इंग्लिश के प्रोफ़ेसर हैं | हाथ मिलाते ही मैक्सिम बोले -

" कैसे हैं आपके डैड ? "

" होश में हैं पर अनर्गल बातें कर रहे हैं पर हमारी बातों का वे कोई जवाब नहीं दे रहे हैं | डॉक्टरों का भी कहना है इससे ज्यादा और कुछ नहीं किया जा सकता | और फिर युद्ध में उनके दोनों कानों में बहुत ही अधिक चोटें थीं | आप क्या स्कॉटलैंड से हैं , गलत कह गया ? "

" नहीं आपने बिलकुल ठीक कहा | "

" अभी भी पढ़ रहा हूँ | हिऊ मैकडायरमिड मेरे प्रिय कवि हैं , अपने उन्हें पढ़ा है ? "

" नाम सुना है "

आदिम युग के सामान लिफ्ट के निकट आकर दरवाजा खोलते हुए मैक्सिम हँस पड़ा |

" बेहद इच्छा थी कि मैं हीऊ मैकडायरमिड​ के ऊपर काम करू, स्कॉट भाषा भी सीख ली थी अगर आपको  " फस्ट हिम टू लेनिन " या अ ड्रंक मैन लुक्स एट द थिसल " पढ़नी हो तो स्कॉट भाषा आनी ही चाहिए |  ​सच - सच कहूं तो बानर्स भी मुझे उतना नहीं खींचते | "

बरामदे में एक मोटी सी मेट्रन रुसी भाषा में मैक्सिम से कुछ कहा और मैक्सिम हँस पड़ा |
" लगातार बातें कर रहे हैं वे  ...... क्या आप रुसी समझते है ? "

" खूब अच्छे से नहीं , पर शायद टूरिस्ट बने तो असुविधा नहीं होगी | "

" सोचिये मत मैं कह दूंगा | "

" अच्छा सब कह रहे हैं कीआपके पिता ही पृथ्वी के आखरी कम्युनिस्ट हैं ! क्या आपको भी इस बात पर विश्वास हैं ? "

" पेपरों में , टी वी पर तो यही कहा जा रहा है | क्रेमलिन भी यही कह रहे हैं | "

" पर आप ? अमिन आपकी बात कर रहा हूँ , आप क्या कहते हैं इस बारे में | "


वे अब एक केबिन के भीतर प्रवेश कर रहे हैं | इसलिए मैक्सिम का जवाब देने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता , समय ही नहीं मिला | उसी वक़्त एक डॉक्टर केबिन से बाहर निकल रहा था ।

​मॉनिटरिंग मशीन चल रहा था उसके परदे पर आड़ी - तिरछी ​रेखायें लहरा रही थीं और यह भी सूचना दे रही थी की जीवन चल रहा है | एक नर्स भी थी वहां |
बूढ़े रुवाकभ को जरा ऊँचा कर सुलाया गया था | बूढ़े थे वे बेहद ही बूढ़े पर कमजोर नहीं | चौड़ा माथा , सफ़ेद बाल उलझे से , दोनों ही ऑंखें बंद पर अचानक दोनों ही आँखे खोलकर स्पस्ट बात करने लगे |

कल से ही वे  ....... स्तालिनग्राद के युद्ध के बारे में ही कह रहे हैं , बड़बड़ा रहे हैं | अचानक वृद्ध ने किसीको पुकारा  ----

" रुबिन ! रुबिन ! " मैक्सिम कहे जा रहा था |

" रुबिन थे मेरे पिता के गहरे दोस्त , स्पेन के कम्युनिस्ट नेत्री - डोलोरेस ईबारुरी का बेटा | वे दोनों स्पेन की लड़ाई संग लड़े थे |  रुबिन स्तालिनग्राद युद्ध में ही मारा गया था , तब मेरे पिता पास ही खड़े थे | " वृद्ध जोर - जोर से कुछ कहने लगता है और बातों में बीच रुबिन का भी नाम ले रहा था | पर डायल कुछ समझ नहीं पा रहा था |

" पिताजी रुबिन से कह रहे हैं  .... रुबिन इतनी जल्दी मरने से नहीं चलेगा , जर्मन बम वर्षक स्तुका अब आकाश में नहीं हैं | अब आकाश ने छीन ली है हमारे स्तरमोभिक बम वर्षक , जमीने दखल कर ली हैं हमारे टी - 34 टैंकों ने | आकाश में जितना भी उजाला है सब उजाला कातियुषा रॉकेट का है | रुबिन अभी तुम्हारा मरना कतई ठीक नहीं | रुबिन , कॉमरेड स्तालिन हमे कह रहे हैं  ..... रुबिन तुम्हारे पैरों के भायलेनकि    ...... हाँफते हैं वे  ..... "  मैक्सिम  कहने लगे -----

भायलेनकि यानि स्नो फॉल्ट बूट { जूते } इसे लाल फौज पहनती थी उसके नीचे दो जोड़ी ऊनी  मोजे | जर्मन लोग के पास भायलेनकि नहीं थे | इसलिए वे बर्फ में जम गए थे  | रुबिन की जिस दिन मौत हुई उसदिन तापमान था माईनस चवांलिस ​डिग्री | वे उसे याद कर रो रहे हैं क्योंकि रुबिन की मृत्यु हो गई है | कल भी वे रुबिन की ही बातें कर रहे थे |


सिसकना जरा रुक गया था , वे शांत हो रहे थे , दीर्घ साँसें ले रहे थे | फिर होंठ हिलने लगे  ..... जर्मन भाषा में बातें करने लगते हैं , डायल को जर्मन आती है वह इतना समझ गया की " यह जूकभ आदमी आखिर है कौन ? " इतना कहकर वृद्ध हँस देते हैं | आखिरकार ऐसा डायल को महसूस हुआ |

" मैक्सिम पूरा विवरण व्याख्या कर उसे बता देता है |

" लाल फौज का एक जोक , जर्मन जनरल वॉन रुनस्टेड ,  फ़रवरी1942 को ​बड़े बेहद अचरज के साथ यह बात कही थी | ​​और भी ज्यादा अवाक् रह गया था यह जानकर ​कि , मार्शल  जूकव एक गरीब किसान परिवार की संतान थे | प्रशियन जुंकर विषमय से भर उठा | और यही बात लाल फौज के सैनिक आपस में कहा करते थे | युद्ध के दौरान ऐसे ही अनेक तरह के जोक्स प्रचलित थे | कितनी ही कहानियाँ सुन रखी हैं मैंने पिता से  .......

अचानक नर्स ने उठकर मॉनिटर की और ताका  ... फिर फोन मिलाने लगी  .... वृद्ध को सांस लेने में कष्ट हो रहा था जैसे उसे भारी बोझ उठाना पड़ रहा हो , बायाँ हाथ अपने आप ऊपर उठ रहा था | डॉक्टर आश्चर्य से भर उठा |
" रुबिन ! "
वृद्ध की दोनों आंखे खुली हुई थीं , पता नहीं किसे ढूंढ रहे थे | किसे  ...... कौन  ..... क्या किसी कॉमरेड ? क्या किसी कॉमरेड का हाथ या किसी कॉमरेड का गोलियों से छलनी हुये हाथ  गिरी हुई रायफल ? डायल अचानक खिड़की से बाहर की ओर ताकता है उसे बाहर बार्च के पेड़ कांपते हुए नजर आते हैं |  यह कोई आंधी का समय है ? वृद्ध के गले से घर्र - घर्र आवाज स्पष्ट सुनाई दे रही थी | डॉक्टर नर्स से कुछ कहा और नर्स डॉक्टर के कहे अनुसार एक एम्पुल लेकर सिरिंज में भरने लगती है | वृद्ध कुछ कह उठते हैं , इतनी साड़ी बातें मैक्सिम डायल को अपने पिता के मृत्यु के बाद बताते हैं |

" पिता जिस बात को अपने आखरी वक़्त पर कह रहे थे वह यह था कि वान पलासके को भेजा गया रस्कोसवायस्की का आखरी सावधान करने वाली बात  ----- यह थी आपलोगों की सैन्य वाहिनी मुश्किल में हैं उनकी हालात सोचनीय है | वे भूख , बीमारी और भयंकर ठण्ड से जूझ रहे हैं | यह निष्ठुर रूस की ठण्ड मात्र अभी शुरू ही हुआ है इसके बाद हिमपात , वीभत्स आंधी और हिमवर्षा के संग तेज हवाओं की आंधी तो अब तक शुरू ही नहीं हुई है | आप लोगों की सेना के पास उन आँधियों से लड़ने के लिए ठण्ड के पोशाक ही नहीं हैं  ........ स्टालिन ग्राद के युद्ध में एक लाख साठ हजार नाजी सैनिक मारे गए और बंदी हुए थे नब्बे हजार  .....


उस दिन उसे लगा जरा सी आंधी या , हिमवर्षा जरूर रस्तोव -ऑन - दन पर से गुजरेगी रिपोर्ट लन्दन भेज कर
कुछ देर ​​रुसी टी वी पर ​डायल सर्कस देखेगा | सार्बेरियन बाघ के सर्कस के एरिना में | जलते हुए रिंग के भीतर से शेर कूदकर पार हो रहा है | इसके पश्चात वह टी वी ऑफ कर सो जायेगा | और उसी रात में कइयों की नींद उड़ जाएँगी |


उसी रात को बाल्टिक नौ - बहर के नाविक विद्रोह कर उठेंगे | विद्रोध फ़ैल जायेगा मॉस्को गैरिसन में और हजारों - हजारों सैनिक रात में ही बर्फ को पैरों से रौंदकर लाल पताका लिए निकल पड़ेंगे |  क्रेमलिन की दीवार पर धक्का लगेगा तूफ़ान का स्लोगन | सेंट पीटर्सबर्ग वापस कहलायेगा लेनिनग्राद |


उसी रात इंडोनेशिया में कम्युनिस्ट लोग अब बन्दूक बिना ही अभ्युथान करेंगे |  ऑस्ट्रेलिया में एक के बाद एक बंदरगाह में होते ही रहेंगे हड़तालें | बोलीविया में विस्फोट के साथ टिन श्रमिकों के विक्षोभ - लेनिन और चे की तस्वीरें लिए लैटिन अमेरिका के हर राजधानी को अचल कर रख छोड़ेंगे छात्र और मध्यमवर्गीय लोग | श्रमिक आंदोलन अचल हो जायेंगे | फ्रांस , ईटली , ग्रीस , स्पेन  ..... खबरें आएँगी अफ्रीका से , अरब देशों से  ......
पूरी दुनिया में लौट आएंगे कम्युनिस्ट | हाँ आएंगे  ... जरूर आएंगे | पर उसके लिए आगामी सत्रह साल या उससे भी ज्यादा का समय प्रत्येक घंटा और प्रत्येक मिनिट का उपयोग करना होगा | पूरी पृथ्वी में कम्युनिस्ट लौट आएंगे | हाँ। .. आएंगे ही | दस नहीं  ...... दस हजार दिन तक दुनिया कांपेगी |

इसी बात को इस कहानी में कह दी ||
००


                         
मीता दास 



मीता दास ।
63/4 नेहरूनगर , भिलाई ( छत्तीसगढ़ )
09329509050
mita.dasroy@gmail.com
गुमनाम औरत की डायरी में प्यार के बारे में यहाँ-वहाँ बिखरे हुए कुछ विचार


कविता कृष्णापल्लवी

भाग छः


अतिनिश्चयवादी शुष्क तार्किकता जब ज़िन्दगी को नीरस और दमघोंटू बना देती है तो “अतार्किक" भावावेगी रोमांस को आवाज़ लगाने को जी चाहता है |

***

प्यार के कई आख्यान काव्यात्मक ढंग से शुरू होकर सुखी गार्हस्थ्य की भेंट चढ़ जाते हैं और महान बनने से रह जाते हैं |

***

चित्र:गूगल से


प्यार में गणित कहीं नहीं आता सिवाय इसके कि असंतुष्ट प्यार की उम्र बहुत लम्बी होती है |

***

ह्रदय के भीतर प्यार और भाईचारे का एक जनवादी गणतंत्र बसाये हुए, इस आत्मघाती समय के खिलाफ जीती हुई मैं बस अधूरा छोड़ देती हूँ प्यार का हर आख्यान | कई बार राह चलते दिल लगा बैठती हूँ किसी हलके-फुलके, खिलंदड़े या काहिल सहृदय से, फिर सोचती हूँ, यह भी क्या कर रही हूँ गदहपैंतीसी |

***

प्यार में पारदर्शिता और रहस्य का द्वंद्व होना चाहिए | प्यार में जानने को, समझने को हरदम कुछ बचा रहना चाहिए | प्यार में कोई मंजिल नहीं, बस पड़ाव होने चाहिए और सफ़र लगातार ज़ारी रहना चाहिए | प्यार को एक अविराम खोज होना चाहिए | प्यार का बार-बार आविष्कार होना चाहिए | प्यार में निरंतरता उसे बासी बनाती है | उसमें निरंतरता और परिवर्तन का द्वंद्व होना चाहिए | प्यार में बौद्धिक आकर्षण और यौनाकर्षण के संश्लेषण से जन्मी सौन्दर्यानुभूति होनी चाहिए |

***

प्यार में अक्सर हम नहीं जानते कि हम चाहते क्या हैं ! प्यार में हम लगातार बेकली से यह जानने की कोशिश करते हैं कि आख़िरकार हम प्यार में चाहते क्या हैं !
***


चित्र: गूगल से

उन्नत, उदात्त, कलात्मक-सौन्दर्यात्मक प्यार एक त्रासदी होता है, एक महाकाव्यात्मक त्रासदी | प्यार का दर्द से रिश्ता पुरातन है, और चिर-नवीन भी |

***
यहाँ पुरुष युद्ध में विजय की भावना से प्यार करना चाहते हैं | स्त्रियाँ पराजय के बाद, सहर्ष आत्मविह्वल आत्मसमर्पण की प्रतीक्षा करती हैं | यह मेरी दुनिया नहीं है | इससे अलग एक दुनिया बनाने की कोशिश में ताउम्र लगे रहना भी प्यार में जीने जैसा ही होता है |

***
जिनमें अकेले जीने की कुव्वत होती है, उन्हीमें शिद्दत से प्यार करने की भी कुव्वत होती है |

***
प्यार में स्वतंत्रता अपने उच्चतम रूप में होती है | जो प्यार स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करे, वह एक भ्रम है, छलावा है | चीज़ों को हम जितना समझते जाते हैं, उतना ही मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ते जाते हैं | यह बात प्यार के बारे में भी लागू होती है |

***

बुर्जुआ समाज में लोग एक-दूसरे से, प्रकृति से और मानवीय गुणों से कटे हुए होते हैं | वे अलगाव-ग्रस्त होते हैं, और इस पीड़ा से मुक्ति के लिए रोमैंटिक, ऐन्द्रिक प्यार या पार्टनरशिप या विवाह को अपना शरण्य बनाते हैं | यह संकट से मुक्ति और सुविधा के लिए किया गया एक समझौता होता है, जिसे प्यार समझ लिया जाता है | कमजोर नागरिकों और ‘सद्गृहस्थों’ के लिए ही नहीं, महत्वाकांक्षी कैरियरवादियों के लिए भी, यह मिथ्याभास जीने का सहारा होता है |

***

जब सड़कों पर हत्या, आतंक, विचारहीनता और बर्बरता का घटाटोप है, जब स्वप्न, कल्पना और उम्मीदें लुप्तप्राय लग रही हैं, जब हत्यारे लोगों को लगातार बता रहे हैं कि उनके पास कोई और विकल्प नहीं है; तो मैं अक्सर उन लोगों के बारे में सोचती हूँ जो दावे किया करते थे कि वे बहुत गहराई से, बहुत दार्शनिकता और गहन सौन्दर्यानुभूति के साथ प्यार करते हैं | इतिहास का अँधेरा प्यार का भी इम्तहान लेता है |

***

ऐसे अंधकारमय समय से जूझते हुए कई बार लगता है कि प्यार दिल से अधिक थकी हुई हड्डियों की ज़रूरत होता है |
(15 अप्रैल,2018)
००


कविता कृष्णपल्लवी


गुमनाम औरत की डायरी का भाग  पांच नीचे लिंक पर पढ़िए

भाग पांच

http://bizooka2009.blogspot.com/2018/05/blog-post_83.html

28 मई, 2018

निर्मला तोदी की कविताएं



मैं क्यों लिखती हूँ

लिखना मुझे एनर्जी देता है ,ध्यान में जाने की यात्रा जैसा | अगर मैं लिखने पढ़ने न बैठूँ ,अपनी लिखने की टेबल पर ना बैठूँ तो मुझे बेचैनी होने  लगती है | अपने आप को जीवाए रखने के लिए मुझे लिखना ही होता है |



निर्मला तोदी

कविताएं


कान ! तुम ही कहो

आज मुझे अच्छा लग रहा है
बहुत –बहुत अच्छा
मैंने अपने कान से बातें की
जिनसे आजतक कभी नहीं की

मैंने कहा-
सुनो, तुम मेरे हो
आज मेरी सुनो
दुनिया भर की सुनते हो
आज मेरी सुनो

जो मैं सुनना चाहती हूँ
वही सुना करो
सामने तरह-तरह के भोजन पड़े हो
मेरा स्वाद वही खाता है
जो खाना चाहता है
अगर कुछ और खाना पड़ भी जाए तो
दवा की तरह गटक जाता है

मेरा नाक कचरे के ढेर से
दूर रहना जानता है
तुम क्यों कचरे का डब्बा बन बैठे हो
सुन लेते हो सबकुछ

तुम्हें मालूम है
तुम्हारा सुना –मेरी कोशिकाओं में
मेरी ग्रंथियों में जम जाता है
फिर दुखता है
बहुत दुखता है
बार-बार दुखता है
पिघल कर बह नहीं जाता
आंसुओं के साथ भी नहीं

मत पहुंचाया करो उसे भीतर तक
प्लीज़...

डरावना और विभत्स देखकर
आँखें बंद हो जाती है ना
अपने आप
क्या आग को उठा लेते हैं हाथ
हाथों में

फिर तुम क्यों सुन लेते हो सबकुछ

जो बोलता है
अपनी जुबान से बोलता है
अपनी बातें
अपनी मनपसंद बातें
अपनी सोच से बोलता है
ठीक है ज़्यादातर बिना सोचे ही बोलता है

तुम क्यों नहीं सिर्फ वही सुनते
जो तुम्हें पसंद है
सबका बोला सबकुछ क्यों सुन लेते हो
कहो आज तुम ही कुछ कहो
और मैं सुनुं |
००

दो


रात भर घूमी हूँ मैं

धूप की एक तिरछी सी लकीर
पर्दों के बीच से झांककर
जगा गाई

पर्दा सरकाकर देखा
कुछ भी नहीं बदला
वही आसमान है रोज वाला
वही पेड़ पंछी
वहीं पर

मैं न जाने कौन सी यात्रा से लौटी हूँ
नयी-नयी रंग-बिरंगी पृथ्वी की यात्रा
हरे-हरे आसमान की यात्रा
चाँद से बातें कर आई हूँ
सूरज से खेलकर
हरे-हरे तोते उड़ रहे थे वहाँ

समुन्द्र के पास गाई थी पानी पीने
उसने नदी का मीठा पानी पिलाया मुझे
जामुन के पेड़ से जामुन तोड़कर
खिलाये थे बतखों को
सब याद है मुझे
रात भर घूमी हूँ मैं

वे सब वहीं हैं
मैं यहाँ इस कमरे में
यह सुबह रोज वाली
वही आसमान रोज वाला |
००








तीन

मेरे विशेषण

मैं चुप रही
जब उसने मेरे सामने सवाल जवाब किए
अपनी उदारता का नाम देकर

मैं चुप रही
उस समय जब मुझे बोलना चाहिए था
बदलते जमाने को देखकर

मैं वहाँ नहीं गयी
जहां मुझे जाना था
उसी में अपनी अक्लमंदी समझकर

उसके कटु-वचनों को सुनकर
मैं चुप रही
अपनी सहनशीलता पर अभिमान कर

मैंने अपनी जुबान खोली
शब्दों को तोल-मोलकर दो शब्द कह भी डाले
अपनी व्यवहारिकता पर संतुष्ट होकर

मैंने उसे माफ किया
और चारा भी क्या था
मैंने अपनी कमजोरी को बड्डपन का नाम दिया
००

    2

मैं चुप रही
अपनी कमजोरियों को मैंने
समझदारी उदारता सहिष्णुता बड्डपन
व्यवहारिकता अक्लमंदी
समय के साथ चलना आदि आदि
कई विशेषणों से नवाजा

अब आप ही बताए
जब मैं घर में चुप हूँ
तो...
परिवार पड़ोस समाज देश के लिए
कुछ भी कैसे कहूँ ?

    3

मैं चुप रही
ढेरों बचे शब्द कुलबुलाते हैं भीतर
मैं उन्हें उड़ा देना चाहती हूँ पक्षी बनाकर
ऐसा भी कर नहीं पाती
वे कुलबुलाते हैं भीतर

मैं उन्हें नींद की गोलियां खिला देती हूँ
और मैं भी सो जाती हूँ
एक ऐसी गहरी नींद में
जहां सपने नहीं होते |
००

चार

मेरे भीतर ‘वह’ भी है

एक स्त्री मेरे भीतर
और भी है
चाहती है कुछ करना
कर नहीं पाती

बताना भी चाहती है
बता नहीं पाती
कभी मेरे साथ होती है
कभी दूर चली जाती है

पास आकर चुप हो जाती है
दूर जाकर मुस्कुराती है
मैं रोती हूँ
वह खिलखिलाती है

नजदीक आकर फुसफुसाती है
सपने दिखाती है
चिकोटी काटकर जगाती है

कमरे में
मैं रहती हूँ
एक स्त्री मेरे भीतर और भी है |

००

पांच

मेरी रसोई

रसोई में
सवेरे सवेरे
सबसे पहले
चायपत्ती और चीनी का डब्बा
मेरे स्पर्श से
मेरी मनःस्थिति को भाँप लेते हैं

मेरी कड़ाही करछी भी
मेरे हाथ की गति से
मेरे मन की लय को पकड़ लेती है
मेरी बेलन को आदत हो गयी है मेरी
समझती है वह सबकुछ

मैं बनाना चाहती हूँ
स्वादिष्ट भोजन
मेरी रसोई के मसालों की महक में
घुली-मिली है मेरी महक
और
नमक भी
मेरे मूड के हिसाब से काम करता है |
००







छः

पैर को भेजो अब

वह स्ट्रेचर पर आई थी
एक पैर ऊपर तकिये पर

टी-शर्ट और घूटने तक का जींस
खूले बाल चमकती पैरों की नेलपॉलिश
प्यारी सी लड़की

एक्स-रे केबिन का दरवाजा खुला
अंदर से आवाज आई

पैर को भेजो अब
वहाँ लड़की कहीं नहीं
थी
सिर्फ एक पैर पड़ा था स्ट्रेचर पर
जिसे दो हाथ ठेलकर  ले जा रहे थे अंदर |
००


सात

आज सिनेमा हौल में

मीनू की माँ
आज 'उनके' साथ
सिनेमा देखने आई है

मीनू की माँ
अब केवल मीनू की माँ नहीं है
घर पोते-पोतियों नवासियों से हरा-भरा है

वह
चौबीस घंटों में
अड़तालीस घंटे उनके साथ व्यस्त रहती है

सिनेमा की सीडियाँ चढ़ते समय
दोनों ने एक-दूसरे का हाथ पकड़ा है

उसके मन में लड्डू फूट रहे हैं
वह पोपकोर्न खा रही है

अंधेरे में
मीनू के पिता ने उसके कंधे पर हाथ रखा
आज वह
वैसा ही महसूस कर रही है
जैसा
आज से ठीक तीस साल पहले की थी
आज, बहुत दिनों के बाद
मीनू की माँ बहोत -बहोत खुश है |

००

आठ

बड़ों का साथ

बड़ों का सिर पर हाथ हो
बहुत कुछ संभल जाता है
अपने आप

बड़ों की खड़ाऊ
संभाल लेती है राज-पाट |
००


नो

ढूंढ लेना

सूखी जमीन से
ढूंढ कर पानी
कुआं खोद लेते हैं

गहरे समुन्द्र में
गोता लगाकर
मोती निकाल लेते हैं

पृथ्वी के भीतर
खदाने बना
हीरा निकाल लेते हैं

यह सब आसान है

सबसे कठिन है
अपने भीतर उतरना
उसके कोनो-अन्तरों को ढूंदना
अगर मिल जाए तो पहचानना
फिर पहचानकर मानना
स्वीकारना |
००







दस

उनके जाने के बाद

उनके जाने के बाद
बहुत सी जगह खाली हो गई

जो जगह उनकी थी
उसके अतिरिक्त
इधर-उधर पड़ी थी
उनकी बहुत सी जगह
दिखलाई पड़ी
उनके जाने के बाद

सन्नाटों में भी कुछ आवाजें थी
जो कम हो गई
सन्नाटों की आवाजें बढ़ गई
उनके जाने के बाद

उनका न बोलना अब समझ में आता है
उनका बोला हुआ भी
अब समझ में आता है
सुबह की सबसे पहली नल की आवाज़
शाम के कूकर की पहली सीटी
अब चुप है
वो किस किस आवाज़ में थी
यह भी मालूम हुआ
उनके जाने के बाद

रसोई से
उनका पानी का लोटा गुम है
तनी पर सूखते कपड़ों में
सफ़ेद रंग कम है
लगातार हाथ में घूमती माला
बैठी है चुपचाप
सब चीज़ें कहाँ थी
मालूम हुई उनके जाने के बाद
वो खाली जगह भर जाएगी
खाली हुआ समय भी भर जाएगा
समय के साथ

वो पूजा की घंटी में थी
तुलसी के साथ भोग की थाली में थी
अनुशासन में थी
आश्वासन में थी
मंजूरी में थी
नामंजूरी में थी
तौर-तरीकों नियमों में थी
आज्ञा में थी
अंदर पनपती उन आज्ञाओं की अवज्ञाओं में थी
बड़े-बड़े फैसलों
छोटी-छोटी बातों में थी
वो अपने कमरे में रहती थी
वो हर जगह थी
यह सब मालूम हुआ
उनके जाने के बाद

उनका खाली कमरा
उनके नाम से ही रहेगा कुछ समय तक
फिर एक नए नाम के साथ रहेगा
उसी जगह |

००


 गुमनाम औरत की डायरी में दर्ज कुछ और नोट्स और इम्प्रेशन्स

कविता कृष्णपल्लवी

भाग पांच

अलबम ज़िन्दगी का सही पता नहीं  बताते |

*

डायरी इतिहास नहीं होती | उसमें सबकुछ वस्तुगत नहीं होता |

*

जो सपने अपनी मौत मरते हैं, उनकी लाशें नहीं मिलतीं, अपनी मौत मरने वाले परिंदों की तरह |

*

खूबसूरती में यकीन करने के लिए चीज़ों को ख़ूबसूरत बनाने का हुनर आना चाहिए |

*

ताबूतसाज़ की दूकान में एक पर एक कई ताबूत रखे थे | वे किसी बहुमंज़िली इमारत जैसा लग रहे थे |

*

रोमांसवाद था मार्क्सवाद का पूर्वज | एकबार पूर्वजों को ढूँढ़ने मैं अतीत में चली गयी | वहाँ सुन्दर शिलालेखों वाली क़ब्रों से भरा एक कब्रिस्तान था | बड़ी मुश्किल से वहाँ से निकलकर वापस आना हुआ |

*

मैं तुच्छता भरी अँधेरी दुनिया से आयी हूँ |  इसलिए तुच्छता से सिर्फ़ नफ़रत ही नहीं करती,उसके बारे में सोचती भी हूँ |

*

दूसरों के बनाये पुल से नदी पार करने की जगह मैं आदिम औजारों से अपनी डोंगी खुद बनाने की कोशिश करती रही और तरह-तरह से लांछित-कलंकित होती रही, धिक्कारी-फटकारी जाती रही, उपहास का पात्र बनती रही | पुरुषों ने शराफ़त की हिंसा का सहारा लिया | पराजित स्त्रियों ने भीषण ईर्ष्या की |



*



कई बुद्धिजीवी मिले | उन्होंने कई दार्शनिक बातें कीं, कविता के बारे में अच्छी-अच्छी बातें कीं और कई बार शालीन हँसी हँसे | उनकी हँसी काँच के गिलास में भरे पानी में पड़ी नक़ली बत्तीसी जैसी थी | मेरा ख़याल है, ये बुद्धिजीवी रात को अपने गुप्त अड्डे पर लौटते हैं और जीवितों का चोला उतारकर प्रेतलोक चले जाते हैं |

*

पुरुष जब पौरुष की श्रेष्ठता का प्रदर्शन करता है, वह स्त्री को बेवफ़ाई के लिए उकसाता है |

*

बुर्जुआ समाज में विशिष्ट व्यक्तिगत इतिहास के चलते जो लोग योग्य और उन्नतचेतस होते हैं, अक्सर वे बहुत अहम्मन्य, दुर्दांत व्यक्तिवादी, घोर आत्मधर्माभिमानी, प्रतिशोधी, आत्मग्रस्त और हुकूमती ज़हनियत के होते हैं | साथ ही, वे गहन असुरक्षा-बोध से भी ग्रस्त होते हैं | पराजय या पीछे छूटना उन्हें असहनीय होता है | शीर्ष तक पहुँचने के लिए वे कुछ भी, कोई अमानवीय से अमानवीय कृत्य करने के लिए भी तैयार रहते हैं |

*

उस अनजान शहर में मैं न जाने कितने वर्षों तक भटकती रही | जब वापस लौटने की घड़ी आयी तो लाख ढूँढ़ने पर भी वह अमानती सामान घर नहीं मिला जहाँ अपनी सारी चीज़ें रखकर मैं उस शहर की सड़कों पर निकल पड़ी थी | मैं उस शहर से वापस आ गयी , लेकिन मेरी बहुत सारी चीज़ें वहीं छूट गयीं | चीज़ें शायद इंतज़ार नहीं करतीं, लेकिन अगर उनसे जुड़ी आपकी ढेरों यादें हों, तो ज़िन्दगी भर उनकी याद तो आती ही रहती है |
(11 अप्रैल, 2018)



कविता कृष्णपल्लवी


गुुमनाम औरत की डायरी का भाग चार नीचे दी गरी लिंक पर पढ़िए
गुमनाम औरत की डायरी भाग चार
https://bizooka2009.blogspot.in/2018/05/blog-post_26.html?m=1



यात्रा वृत्तांत:

बर्फ के लौंदे के बीच से 

सुरीन्दर पाल सिंह 

29 अप्रेल 2018 को ब्राम्पटन से एक मित्र की कार से करीब 700 किलोमीटर शीतलहर में सूखे हुए मेपल के वृक्षों व सड़क किनारे बर्फ़ के बिना पिघले हुए लौंदो के बीच यात्रा करते हुए सेंट मेंरी रिवर के किनारे बसे एक शान्त लेकिन ऐतिहासिक शहर में हमारे पुराने मित्र सुधाकर के पुत्र डॉ. क्षितिज और पुत्रवधू डॉ. सुमेधा के घर एक लंबा पड़ाव आज 20 मई को पूरा होने जा रहा है। कल से आगे की यात्रा शुरू हो जाएगी।

सुरीन्दर पाल सिंह


इस 21 दिनों के अन्तराल में बहुत कुछ नया जानने और समझने को मिला। तीन विशेष बातों ने मुझे अत्याधिक प्रभावित किया। विभिन्न राष्ट्रीयताओं और धर्मों के व्यक्तियों का शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व, मूलनिवासियों के लिए विशेष रिज़र्व और अन्य प्रावधान व एक बड़ी संख्या के बाशिन्दों द्वारा बिना किसी धार्मिक पहचान के सामाजिक जीवनयापन।
सन 1871 में 879 की जनसंख्या वाला ये कस्बा सन 1981 में आजतक की अधिकतम जनसंख्या 82,697 को दर्ज कर पाया। सन 2016 की जनगणना के अनुसार यहाँ की जनसंख्या 73,368 है जोकि 2011 की गणना से 2.4% गिरावट पर है।

यहाँ दक्षिणी एशियन, चीनी, अफ़्रीकी, फिलीपीन्स, लेटिन अमेरिकन, अरब, दक्षिणी- पूर्वी एशियन, कोरियाई, जापानी, इतालवी, फ्रेंच, स्वीडिश आदि मूल की राष्ट्रीयताओं से जुड़े नागरिक रहते हैं। धार्मिक पहचान के नाम पर क्रिस्चियन में 9 तरह के समुदाय हैं जिनमें से मुख्यतः कैथोलिक क्रिस्चियन 40.64% फ़ीसदी हैं। यहूदी, हिन्दू, मुस्लिम, बुद्धिस्ट, पारंपरिक और अन्य पहचानों के अलावा बिना किसी धार्मिक पहचान वाले नागरिकों का फ़ीसदी 24.56% है।
ये इलाक़ा परंपरागत रूप से योजिब्वे नाम के मूलनिवासियों का था जो अनिशिनाबे नाम की भाषा बोलते थे। वे इस इलाक़े को बाइटिगोंग कहते थे क्योंकि यहाँ नदी के एक हिस्से में पानी का ज़बरदस्त ज्वार सा उठता है। सन 1623 में एक फ़्रेंच मिशनरी ने इस जगह का नाम फ़्रांस के सम्राट लुइस xiii के भाई के नाम से सॉल्ट दे गेस्तों रख दिया था लेकिन सन 1668 में फिर से इसका नाम बदल कर सॉल्ट सेंट मेंरी रखा गया। यहाँ भी सॉल्ट शब्द जिसका अर्थ पानी में तेज़ उफ़ान है कायम रहा। लेकिन, आम भाषा में इसे सू के नाम से उच्चारित किया जाता है।

गूगल से


उत्तरीरी अमेरिका का यह इलाक़ा सबसे पहले की फ़्रेंच बसासत में से एक है। अब ये स्थान मोंट्रियल से सू और लेक सुपीरियर से ऊपर के उत्तरी क्षेत्र में फैले हुए 3000 मील वाले फर्र व्यापार का महत्वपूर्ण केंद्र बन गया। इस प्रकार धीरे धीरे ये क्षेत्र यूरोपीय व्यापारियों से भर गया जो स्थानीय मूलनिवासियों की सहायता से फर्र को जुटाने और उसके व्यापार में व्यस्त हो गए। इन तमाम यूरोपीय लोगों में दबदबा फ़्रांस का ही था। सर्दियों में नदी का उपयोग पानी के ठोस बर्फ़ के रूप में जम जाने की वजह से सड़क की तरह किया जाता था। इस दौरान योजिब्वे और इरॉकोइस मूलनिवासियों की आपसी लड़ाई इस हद तक बढ़ गई कि 1689 तक फ़्रांस वाले सॉल्ट सेंट मेंरी मिशन से उदासीन से हो गए थे लेकिन 1701 में मॉन्ट्रियाल में ग्रेट पीस समझौते पर फ्रांस और उत्तरी अमेरिका के 40 फर्स्ट नेशन (मूल निवासियों को यहाँ फर्स्ट नेशन के नाम से जाना जाता है) पर समझौता होने के बाद लम्बे समय से चलने वाले कलह से फ्रांस को राहत की साँस मिली। इसके बावजूद व्यापारिक हितों के चलते अब ब्रिटेन और फ़्रांस की आपसी तनातनी ने एक बड़ी और लम्बी लड़ाई का रूप ले लिया। सन 1754 में शुरू हुए इस युद्ध को सेवन इयर्स वॉर के नाम से जाना जाता है। अंततः 1763 में पेरिस सन्धि के अनुसार उत्तरी अमेरिका के क्षेत्र अब फ़्रांस के हाथ से निकलकर ब्रिटेन और स्पेन के हवाले हो गए। और इस प्रकार से अब सू का इलाक़ा ब्रिटेन के आधिपत्य में आ गया।
1783 में अमेरिकन क्रांति के बाद ब्रिटेन और अमेरिका के बीच एक नई पेरिस सन्धि हुई जिसके अनुसार सेंट मैरी नदी को दो देशों के बीच का बॉर्डर मान लिया गया। इस प्रकार एक सू के दो हिस्से हो गए- कनाडा का सू और अमेरिका का सू । इसी दिशा में फिर लन्दन में 1794 में हुई जे सन्धि के अनुसार इस क्षेत्र के मूल निवासियों (फर्स्ट नेशन) को दोनों देशों में आने जाने और बसने का समान अधिकार मिल गया।



कालान्तर में सन 1871 में यहाँ की बसासत को आधिकारिक स्तर पर एक गाँव का दर्जा मिल गया था। सन 1875 में यहाँ पहले स्कूल की स्थापना हुई जो आज अल्गोमा विश्वविद्यालय के रूप में विद्यमान है। धीरे धीरे यहाँ बिजली, टेलीफ़ोन, होटल, बाज़ार, उद्योग आदि का प्रसार होना शुरु हो गया। सन 1895 में सू की एक विशेष और आश्चर्यजनक उपलब्धि यहाँ ऊंचे और नीचे जल स्तर के बीच जहाजों के आवागमन के लिए लॉक व्यवस्था की स्थापना है। इस लॉक के माध्यम से लेक सुपीरियर और सेंट मैरी नदी के पास निम्न जलस्तर वाली ग्रेट लेक के बीच जहाज़ गुजारे जाते हैं। उल्लेखनीय है कि दोनों तरफ़ के जलस्तर में 21 फुट का फर्क़ है।

उद्योग के नाम पर मुख्यतः यहाँ एक पेपर मिल और दो स्टील इंडस्ट्रीज हैं जिनमें एक एक स्टील इंडस्ट्री तो एस्सार की है।
अन्त में बाकी जो और बातें लिखी जा सकती हैं वे तो कनाडा के इतिहास, अर्थशास्त्र, समाज, राजनीति आदि के व्यापक फ़लक़ का हिस्सा है। सू जैसे एक शान्त, सुंदर, ऐतिहासिक शहर के बारे में फ़िलहाल इतना ही।
००
सॉल्ट सेंट मेंरी
अल्गोमा डिस्ट्रिक्ट
ओंटेरियो स्टेट
कनाडा
20/05/2018



27 मई, 2018

कहानी पर चर्चा:

नारी स्वतंत्रता और शिक्षा की परतंत्रता पर चोट करती कहानी 'एडमिशन'

मई २०१८ की ‘सृजन संवाद’ की गोष्टी में डॉ. विजय शर्मा ने अपनी कहानी 'एडमिशनका वाचन कियाजिसे श्रोताओं ने खूब सराहा और पसंद किया।

यह कहानी पति से अलग हो गई एक स्त्री की जददोजहद की कहानी है। मनीषा अकेली अपने बेटे के साथ जीवन गुजार रही है। शादी के पांच साल बाद भी पति सुरेश कहता है कि वह अभी बच्चे की परवरिश का बोझ उठाने में सक्षम नहीं है। मनीषा उसकी असहमति के बावजूद बच्चे को जन्म देती है। सुरेश उसे अकेला छोड़कर जापान चला जाता है, बेटे अपूर्व के जन्म के बाद भी उससे कोई संपर्क नहीं रखता है। असल दिक्कत तब पैदा होती है जब हर स्कूल में लिखित परीक्षा पास करने के बाद भी बच्चे का एडमिशन इसलिए नहीं हो पा रहा है क्योंकि हर जगह एडमिशन फॉर्म में मनीषा पिता का नाम लिखने वाले कॉलम को खाली छोड़ देती है। वह अपने और बेटे के नाम के साथ सरनेम भी नहीं लगाना चाहती है

चर्चा में शामिल हुए रचनाकार

इस कहानी पर श्रोताओं ने अपनी-अपनी प्रतिक्रिया जाहिर की। अखिलेश्वर पांडेय ने कहा कि कहानी में नारीवाद और एडयूकेशन के कनेक्शन को दर्शाया गया है और शिक्षा में जो लूपहोल्स हैं उसे पाठको के समक्ष रखा गया है। इस कहानी में 'पंचहैं जो कहानी को गरिष्ठता प्रदान करती हैं। उन्होंने कहा कि असल में यह कहानी एडमिशन की समस्या पर है ही नहीं, यह तो स्त्री की अस्मिता पर केंद्रित है। उन्होंने कहा कि यह कहानी सही मायने में आज की कहानी है जिससे हम सब कनेक्ट होते हैं।
अभिषेक कुमार मिश्र ने अपना विचार रखा, जिसके अनुसार पुरुष प्रधान समाजबच्चे के लिए पिता का नाम आवश्यक होना आदि को आज बदलने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि यह कहानी एक महिला के एजुकेशन सिस्टम से जूझने की कहानी है
डॉ. मीनू रावत का विचार था कि बच्चे के जन्म के साथ स्त्री में ‘मदरहुड’ आ जाती है लेकिन एक पिता को ‘फादरहुड’ कल्टिवेट करना होता है। डॉ. मीनू रावत ने पूरी गोष्ठी की वीडियो रिकॉर्डिंग की।
आभा विश्वकर्मा को इस कहानी की प्रस्तुति बहुत ही सरल और सहज लगी । एक अकेली स्त्री ज़िंदगी से कैसे जूझ रही हैउसे दर्शाया गया है।  कहानी के अंत में उम्मीद नजर आती हैजब उसका बेटा पूछता है, ‘यहां अब एडमिशन तो हो जाएगा ना?’ कहानी की समीक्षा करते हुए आभा विश्वकर्मा ने कहा कि यह कहानी सिंगल पैरेंट की समस्या से जुड़ी है। स्कूल जिससे हम प्रगति की आशा करते हैं वह कट्टरपंथ से बंधा हुआ है। कहानी आज की नारी की अस्मिता को रेखांकित करती है। प्रदीप शर्मा ने भी अपने विचार रखे।
वैभव मणि त्रिपाठी के अनुसार एडमिशन की समस्या १०-१५ साल और समाज में रहेगी । इस समस्या के समाधान के लिए समाज को बदलना होगा। उन्होंने इस कहानी को शिक्षा व्यवस्था पर करारी चोट बताते हुए कहा कि इसके कई पंच जोरदार हैं।
०००
परख: एक

मित्रों, 
आज से बिजूका ब्लॉग पर हम ' परख ' नाम से कालम शुरु कर रहे हैं। प्रत्येक रविवार को प्रकाशित होने वाले इस कालम में पत्र-पत्रिकाओं और संग्रहों में प्रकाशित नयी-पुरानी रचनाओं पर बात होगी। परख के नियमित लेखक साथी गणेश गनी है। 
सत्यनारायण पटेल
००
                 कविता की नेमप्लेट

     ( देश के दो बड़े कवि के नाम खुला पत्र )

गणेश गनी

पहल से मेरा नाता 91वें अंक से जुड़ा। जब लम्बे अंतराल के बाद पहल 91 आई तो कुल्लू में भी साहित्य के गम्भीर पाठकों के बीच हलचल सी मच गई। हम तीन दोस्त कुल्लू से 70 किलोमीटर दूर मंडी पहल खरीदने के लिए भागे भागे गए। आप हमारी जिज्ञासा समझ सकते हैं।आज पहल103 पढ़ रहा हूँ।मुझे कविताएं पढ़ने का चस्का है, इसलिए पत्रिकाओं में सबसे पहले कविताएं पढ़ता हूं। इसी वर्ष कथादेश के एक अंक में मैंने आनन्द हरषुल का एक फ़िल्म अलीगढ़ पर आलेख पढ़ा, एक वाक्य ने बेहद प्रभावित किया- कविता शब्दों में नहीं होती, वह शब्दों के बीच के अंतराल में होती है। मुझे कवि विजेंद्र की एक बात हमेशा याद आती है कि कविता साहित्य की उत्कृष्ट विधा है।


गणेश गनी


हिंदी पत्रिकाओं के सम्पादक कविता को जैसे मजबूरी में छापते हैं। कुछ पत्रिकाएं तो कविता को अंतिम पृष्ठों पर धकेल देती हैं। हालांकि पहल में कविता को एकदम उचित स्थान पर रखा गया है। परंतु दुःख इस बात का है कि बहुत बार बेहतरीन कविताएं पढ़ने को नहीं मिलतीं। शब्दों के अंतराल में तो छोड़िये, शब्दों में ही कविता नहीं मिलती। कविता के छोटे छोटे वाक्यों के टुकड़ों को यदि एक साथ जोड़ दिया जाए तो निबंध, आलेख या ख़बर जैसा कुछ बन जाता है।

परंतु आज मैं यहां पहल 100, 103 और 108 में क्रमशः देवी प्रसाद मिश्र और मंगलेश डबराल जैसे देश के दो बड़े कवियों की कविताओं पर उनसे बात करने का साहस कर रहा हूँ। हालांकि इसके बाद क्या होगा वो भी मैं जानता हूँ।

यहां मैं उन लम्बे लम्बे वाक्यों वाली कविताओं के बारे पूछना चाहता हूं जिन्हें अविनाश मिश्र गद्य कविताएं कहते हैं। गद्य कविता भी तो कविता लगनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं है तो फिर पहल 103 में सब कुछ कविता है- क्षणिका, छोटी कविता, लम्बी कविता, गद्य कविता, कथा कविता, आलेख कविता आदि आदि।

पहल 100 में आदरणीय देवी प्रसाद मिश्र के बेहद खूबसूरत गद्य को कविता बताकर छापा गया है-


देवी प्रसाद मिश्र


बोझ:

आदमी रास्ते किनारे अपने बोझ के पास बैठा था कि कोई आए तो उसकी मदद से वह बोझ को सिर पर उठा कर रख सके। कोई नहीं आ रहा था। एक आदमी दिखा। लेकिन उसके सिर पर बोझ था। उसने इंतजार करते आदमी से कहा कि वह उसका बोझ उतरवा दे तो भला होगा......।


यह कथा लम्बी चलती है। इसके अलावा मेज़, बेहतर मनुष्य बनने के लिए दवाएं तथा किसी कम्युनिस्ट पार्टी का दफ़्तर, कविताएं भी अफ़साना, दर्शन, जैसी कविताएं मनोवैज्ञानिक निबंध जैसी प्रतीत होती हैं। ये रचनाएं बेहद खूबसूरत हैं, पर मुझे समझाएं कि ये कविताएं क्यों और कैसे हैं।

पहल103 में आदरणीय मंगलेश डबराल की ये तीन कविताएं किस आधार पर कविताएं हैं-


मदर डेयरी:

उन लाखों लोगों में से कइयों को मैं जानता हूँ जो बचपन मे मदर डेयरी या अमूल का दूध पीकर बड़े हुए और जिंदगी में जिन्होंने ठीकठाक काम किये। उनमें से कुछ और कहीं नहीं तो गृहस्थी की कला में पारंगत हुए। वे मांएं भी मैंने देखी हैं जिनके स्तनों में दूध नहीं उतरता था। लेकिन वे कर ही लेती थीं अपने बच्चों के लिए एक पैकट दूध का जुगाड़.....।


इस आलेख को ढाई पेज मिले हैं।दो और खूबसूरत निबन्धों के अंश देखें-


आंतरिक यात्रा:

मनुष्य एक साथ दो जिंदगियों में निवास करता है। एक बाहरी और एक भीतरी। एक ही समय में दो जगह होने से उसके मनुष्य होने की समग्रता का खाका निर्मित होता है। मेरा बाहरी जीवन मेरे चारों ओर फैला हुआ है.....।


तानाशाह:

तानाशाहों को अपने पूर्वजों के जीवन का अध्ययन नहीं करना पड़ता। वे उनकी पुरानी तस्वीरों को जेबो में नहीं रखते या उनके दिल का एक्सरे नहीं देखते। यह स्वतःस्फूर्त तरीके से होता है कि हवा में बन्दूक की तरह उठे उनके हाथ या बंधी हुई मुट्ठी के साथ पिस्तौल की नोक की तरह उठी हुई उंगली से कुछ पुराने तानाशाहों की याद आ जाती है......।


पहल 108 में मंगलेश डबराल की एक और रचना का ज़िक्र करना आवश्यक है-



मंगलेश डबराल


निकोटिन

अपने शरीर को रफ्तार देने के लिए सुबह-सुबह मेरा रक्त निकोटिन को पुकारता है। अर्ध-निमीलित आँखें निकोटिन की उम्मीद में पूरी तरह खुल जाती हैं। अपने अस्तित्व से और अतीत से भी यही आवाज़ आती है कि निकोटिन के कितने ही अनुभव तुम्हारे भीतर सोये हुए हैं। सुबह की हवा, खाली पेट, ऊपर धुला हुआ आसमान जो अभी गन्दा नहीं हुआ है, बचपन के उस पत्थर की याद जिस पर बैठकर मैंने पहली बीड़ी सुलगायी और देह में दस्तक देता हुआ महीन मांसल निकोटिन। जीवन के पहले प्रेम जैसे स्पंदन और धुंआ उड़ाने के लिए सामने खुलती हुई दुनिया। डॉक्टर कई बार मना कर चुके हैं कि अब आपको दिल का खयाल रखना ही होगा और मेरी बेटी बार-बार आकर गुस्से में मेरी सिगरेट बुझा देती है, लेकिन इससे क्या? मेरे सामने एक भयंकर दिन है और पिछले दिन की बुरी खबरें देखकर लगता है कि यह दिन भी कोई बेहतर नहीं होने जा रहा है और उससे लडऩे के लिए मैं सोचता हूँ मुझे निकोटिन चाहिए। मुझे पता है हिंदी का एक कवि असद जैदी अपनी एक कविता में बता चुका है कि 'तम्बाकू के नशे में आदमी दुनिया की चाल भूल जाता है'। इस दुनिया की चाल भूलने के लिए मुझे निकोटिन चाहिए। दिन भर के अत्याचारियों तानाशाहों हत्यारों से लडऩे के लिए जब मुझे कोई उपाय नहीं सूझता तो मैं निकोटिन को खोजता हूँ और फिर रात को जब दिन भर की तमाम वारदात मेरे चारों ओर काले धब्बों की शक्ल में मुझे घेरती हैं तो लगता है कि मुझे रात का निकोटिन चाहिए। सच तो यह है कि जिन चीज़ों के बल पर मैं आज तक चलता चला आया हूँ उनमें किसी न किसी तरह का निकोटिन मौजूद रहा।

                    (पहल में इसे कविता कहा गया है।)


इन रचनाओं की बुनावट और बनावट भी मुझे कविता जैसी बिल्कुल नहीं लगी। बिम्ब ताज़ा नहीं हैं, भाषा और शिल्प कविता के लिए जिस प्रकार का होना चाहिए वैसा नहीं है। कविता की ताकत ही बिम्ब हैं और यदि शिल्प और शैली नई हो तो चार चांद लग जाते हैं कविता में। इन दोनों बेहद प्रसिद्ध व बड़े समकालीन कवियों की इन रचनाओं के दरवाजे से यदि कविता की नेमप्लेट हटा दी जाए तो भी ये रचनाएं ऊंची हैं और स्मृति में छायी रहती हैं। जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि यदि इनमें कविता है तो फिर पहल 103 में तो सब कुछ कविता ही है।

हालांकि ये कविताएं तो नहीं हैं, पर कविताएं बन सकती हैं, बस वाक्यों को टुकड़ों में लिखें, आओ देखें कि विमर्श में यह आलेख कैसे कविता नहीं है-


इतिहास फैसले नहीं देता

भूमिकाएं भी नहीं बांधता

वह समय और सभ्यता की

अनिवार्य टकराहटों का एक

घनीभूत पर्यावरण भर है।

                 - सुबोध शुक्ल


नई धारा में यह आलेख भी तो कविता है। इसे क्यों आप कविता नहीं मानते फिर-


हिंदी का मिथक शब्द

अंग्रेजी के मिथ से बना है।

मिथ शब्द ग्रीक भाषा के

मिथोस से निर्मित है।।

जिसका अर्थ

कहानी या गल्प होता है।।।

मिथक शब्द की परिभाषा भी

मायावी और उलझी हुई है।।।।

             - लवली गोस्वामी


इस कहानी में भी कविता है, जब सब कुछ कविता ही है तो फिर यह कहानी कैसे-


उस रात किसी ने उसे

नाव से सरककर

तट पर आते हए नहीं देखा।

किसीने भी बांस की उस नाव को

उस पवित्र कीचड़ में धँसकर

डूब जाते हए नहीं देखा।

            - जॉर्ज लुई बोर्खेज


कहने का अभिप्राय यह है कि साहित्य, संगीत, नृत्य, प्रकृति, सब में से कविताएं निकल सकती हैं। फिर भी कविता को कविता जैसा होना चाहिए। कविता का तो शिल्प ही अनूठा है।

देवी प्रसाद मिश्र की कविता अमरता कुछ कहती है-


बहुत हुआ तो मैं बीस साल बाद मर जाऊंगा

मेरी कविताएं कितने साल बाद मरेंगी

कहा नहीं जा सकता हो सकता है वे...

मेरे मरने के पहले ही मर जाएं...।


जिन रचनाओं को मैंने कविता नहीं माना, वे कविता के अलावा सब कुछ हैं। मैंने तो केवल बनावट और बुनावट पर सवाल उठाया। यदि समय ने इन रचनाओं को कविता साबित कर दिया तो उस समय अपनी आत्मग्लानि के लिए मैं आज ही अपना माफीनामा दर्ज कर देता हूँ। फिलहाल ऐसे शब्दों की तलाश में हूं जिनके अंतराल में भी कविता खोज पाऊं।

यादवेन्द्र 


पहल के साथ सफ़र पर निकलते वक्त की याद आ रही है। मैं, अजेय और निरंजन देव कुल्लू से शाम को निकले और मंडी पहुंचते पहुंचते रात ढल चुकी थी। हमें बड़ी मुश्किल से दो प्रतियां मिलीं और थे हम तीन। मैंने तीनों में से छोटा होने का लाभ उठाया और एक प्रति पर हक जमा लिया। अजेय और निरंजन ने मिलजुल कर एक प्रति को पढ़ा। पहल 91 के पन्ने पर उदयभानु पाण्डेय के शब्द मेरी शिराओं में भी दौड़ रहे हैं-

मैं अपने वसीयतनामे में और बातें लिखना चाहता हूं, लेकिन मैं पस्त हो चुका हूँ। मेरे शरीर की एक एक शिरा थक चुकी है। फिर मेरी हिंदी भी टुटपुंजिया है। मुझे अपने धर्म और देश के प्रति वफ़ादार रहना सिखाया गया था लेकिन अब तक मैं पूरा नास्तिक हो चुका हूं और अपने देश के खिलाफ मैंने हथियार उठा लिया। अब मैं सोचता हूं कि यह रास्ता बर्बादी की तरफ ले जाएगा। अगर यह वसीयत आप लोगों के हाथ लगे तो पढ़ियेगा और सोचियेगा कि आदिवासी लोग क्यों बागी हो रहे हैं।
००

 
गणेश गनी ,कुल्लू,
 09736500069, 09817200069

नीचे लिंक पर गणेश गनी की कविताएं व लेख पढ़िए

गणेश गनी की कविताएं
http://bizooka2009.blogspot.com/2017/11/4-5-bizooka2009gmail.html


मैं क्यों लिखता हूं

http://bizooka2009.blogspot.com/2018/05/blog-post_18.html


26 मई, 2018

आर चेतन क्रांति की कविताएं



आर चेतन क्रांति 


नव-देशभक्त को

देश का नारा लगाते हुए
तुम कितने बेवकूफ दिखते हो
ये दरअसल तुम्हें पता नहीं है
थोड़ा झुक लेते तो किसी से पूछ ही लेते

तुम्हारी गली
तुम्हारे माथे पर बह रही होती है
और होंटो से मवाद का फिचकुर
जिसमें एक पड़ोसी से
तुम्हारी हारी हुई ईर्ष्या गंधाती है बस

और तुम्हें लगता रहता है
कि तुम देश के लिए भौंक रहे हो

अपनी आँखें देखो आईने में
उनका भूगोल
बोल-बोल कर बता रहा देश को
कि तुमने देश का नक्शा भी पूरा खोलकर नहीं देखा कभी

उसे ही देख लेते
तो तुमको खुद पर शर्म आती

खैर, अब,
अपनी जीभ से
अपनी ठुड्डी पर उगती पूँछ को छूकर देखो
और लिखकर बताओ
कि उसका स्वाद कैसा है
पता तो चले
कि हिंदी के कितने शब्द तुम सही लिख पाते हो

सुनो
अपने जीवन की व्यर्थता को
झंडे से मत ढँको
हिम्मत करके कह दो
कि तुम्हारे पास नौकरी नहीं है

क्या पता कोई दे ही दे
आरक्षण क्या हुआ
चपरासियों का अकाल पड़ा है देश में




घर

घर
जो पूरी दुनिया को बाहर कर देता है

जिसकी पहली दीवार
मेरे और तुम्हारे बीच खड़ी होती है
फिर दूसरी तीसरी और चौथी
और फिर एक छत
जो आसमान की कृपाओं के विरुद्ध
हमारा जवाब है

घर
जिसमें एक दरवाजा होता है
जहाँ हम कुत्तों और बिल्लियों के लिए
डंडा लेकर खड़े होते हैं
और संसार भर में फैले
अपने शत्रुओं को ललकारते हैं

घर जिसमें एक खिड़की होती है
जहाँ से झांककर हम
शत्रु-पक्ष की तैयारियां देखते हैं
और उंगली घुमाकर
हवा में उड़ता रक्त चखते हैं

घर
जिसकी चौखट पर हम एक बटन लगाते हैं
जिससे सुबह गायत्री मन्त्र बजता है
और शाम को हनुमान चालीसा

वह घर
जो भूमि-गर्भ में खौलते लावे की छाती पर
ठेंगे की तरह खड़ा है
उस घर को मैं
जिजीविषा का प्रतीक कहता
पर तुमने उसे जाने किस जादू से
लालसा का दुर्ग बना दिया

अकसर वहां घुसते हुए मुझे भय लगता है.







नाकाम ही

नाकाम ही,
हाँ सिर्फ नाकाम ही
होते हैं अलग
यह नियम है.

जैसे कि यह भी एक नियम है
कि हर कामयाब
बूँद की तरह सीधे
समुद्र में गिर जाता है
समुद्र सामान्य के सौमनस्य का

उन तमाम खूबसूरतियों का
जिनसे धीरे-धीरे करके मुख्यधाराएं बनती हैं
मुख्यधाराएं कामयाब क़दमों की
कदम जो छातियों को सड़क बनाते हुए जाते है
सड़के जो अंततः मंजिलों पर पहुँच ही जाती हैं
जो उन जंगलों की तरह नहीं
जहाँ भटकते-रुकते-ठहरते-चलते
नाकाम जाने कितने
होते होते होते जाने क्या-क्या
हो जाते हैं नाकाम
छोड़ते-त्यागते-इनकार करते
धिक्कारते एक-एक नीचता को
चले जाते किसी ऐसी जगह
जहाँ रात के पिछले पहर
सिंह, सियार, सांप
सोने के अंडे देकर जाते ढेर के ढेर
और वे सुबह उठकर बिना कुछ खाए
उनके पहरे पर बैठ जाते.

तुम होते
तो क्या न कर देते उस स्वर्णिम सुबह..



तुम्हारे प्यार के लिए

दुनिया में तुम
दुनिया के लिए
अकेली भटकती फिर रही हो
अपना इतना बाद बेक-पैक

उन मासूम कन्धों पर उठाये
जिन पर मेरे काले होंटों के निशान अब तक हरे होंगे

मेरी नन्हीं जान
मैं कैसे तुम्हें बताऊँ
कि ये समूची दुनिया
तुम्हारे घुटनों के प्यालों से बड़ी नहीं है

जहाँ से उठकर
दर्द की लहरें
मेरे इस इतने बेडौल
और बेहूदा
सिर के ऊपर जाकर हर वक्त चीखती हैं

सुनो
मेरे बाबू
जहाँ भी हो, आ जाओ
मुझे तुम्हारे तलुओं को चूमना

और उस घमंडी उंगली को चूसना है
जो हमेशा ऊपर मुंह करके
तुम्हें हैरानी में घूरती रहती है
मेरी तरह

मेरे बच्चे, मेरी अम्मू
आ जाओ
तुम्हारे पेट पर सोने के इंतिजार में
मेरी मौत
कब से बैठी ऊंघ रही है

आ जाओ
और सुनो
उस राक्षस के लिए भी
हमें युद्ध नहीं, बस प्यार करने की जरूरत है
जिसकी इस देश के संडासों, पार्कों और बूचड़खानों पर इतनी गंभीर हुकूमत है

वह मर जाएगा
नहीं तो हमारा प्यार उसे मार देगा.








भाषा जानती है

कबूतर को पता है न कोयल को
आम को पता है न पीपल को
उस बूढ़ी अम्मा को भी नहीं पता
जिसका फोटो पहले लिया
तुमने
और फिर लिखी कविता


कोई नहीं जानता
कि कितना झूठ बोला
तुमने
कितने शब्द
अपने मांस से बनाए
और कितने
औरों की हड्डियों से नोचे
और कितने बस उठा लिए
पड़े हुए रस्ते में
और खोंस लिये मुकुट में

पर भाषा जानती है
एक दिन वह बैठी दिखेगी तुम्हें
मंच के नीचे
झुटपुटे में
शाप उच्चारती हुई
और लोग दूर खड़े देखेंगे तुम्हें
थरथराकर गिरते हुए.