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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

24 जून, 2011

समाज का चेहरा दिखाता गम्मत

विजय शर्मा


बहुत पहले रोहिंटन मिस्त्री का उपन्यास “सच ए लॉग जर्नी” पढ़ा था. उसमें इन्दिरा गाँधी की सभा की तैयारी, सभा और सभा के बाद का एक लम्बा दृश्य है. सत्यनारायण पटेल पाठकों को एक लम्बी यात्रा, “गम्मत” दिखाने ले चलते हैं. इस यात्रा में इतिहास, पुराण, मिथक, समाज और आज के समय की राजनीति, समाजशास्त्र, संस्कृति, रीति-रिवाज, शिक्षा, पर्यावरण के दर्शन होते हैं. इस यात्रा के दौरान दो फ़िल्में बन रही हैं. एक जो सब कुछ चैनल के मुताबिक बना कर बंशी को अपने चैनल देनी है. चैनल अपने मनमाफ़िक स्टोरी चाहते हैं. दूसरी ज्यादा स्वतंत्र जो बंशी के मन में बन रही है जिसे यदि मौका मिला तो वह उपयोग करेगा. बंसी की आँखें वह सब समेटती हैं जो उसका कैमर भी नहीं समेटता है. कहानी कहने के लिए कहानीकार पटेल ने दिमाग की स्क्रीन पर खिंची फ़िल्म और नजर से खींचे गए चित्रों का उपयोग किया है.

बंशी केवल कैमरे से ही फ़ोटोग्राफ़ी नहीं करता है, बल्कि जैसे कैमरा खामोशी से अपने भीतर, बाहर का शोरगुल समेटता रहता है, वैसे ही बंसी भी अपनी नजरों से बाहर का नजारा अपने भीतर समेटता रहता है. बंसी जन्म से है तो भील पर वह आम भीलों से थोड़ा अलग है. वह अलग सोचता भी है. असल में वह भिलाला यानि भील औरत तथा राजपूत पुरुष के संबंध से उत्पन्न संतान है. टिप्पणी है कि कभी सुना नहीं गया कि कोई राजपूत औरत और भील पुरुष की संतान हो. यहाँ संकेत है अत्याचार गरीब औरत पर होता है. बंसी प्रदेश के एक टीवी चैनल के लिए वीडिओग्राफ़ी करता है. इसी काम के लिए वह मुख्य मंत्री की प्रदेश बनाओ यात्रा पर काफ़िले के संग चल रहा है.

वीडियोग्राफ़र बंसी बहुत कल्पनाशील है. वह जीप में होकर भी जीप में नहीं है. उसके मगज की स्क्रीन पर समय-समय पर कई फ़िल्में चल रही हैं. कभी इतिहास साकार हो जाता है. कभी समाजशास्त्र, कभी वह राजनीति में उलझता है. कभी त्योहार की मस्ती में कुर्राटी भरने लगता है. इतिहास से निकल कर अलीया भील, बिरसा मुंडा, और चन्द्रशेखर आजाद उसके जोश को बढ़ा रहे हैं. सीधे-सादे भील विद्रोह पर उतारू हो जाते हैं. बाँसुरियाँ बन्दूक बन जाती हैं और तीर धनुषों ने खूँटी पर टँगे रहने से इन्कार कर दिया है.

चन्द्रशेखर आजाद आते हैं क्योंकि सी एम जी ने भाबरा में आजाद द्वार, आजाद मंदिर और जिले का नाम चन्द्रशेखर आजाद नगर करने की घोषणा कर दी है. कहानीकार बताता है कि कैसे राजा आनन्द देव राठौर ने अलीया भील को हरा कर अम्बिकापुर का नाम आनन्दवाली रखा जो लोगों की जुबान पर चढ़कर आली हो गया. वही आज पालीराजपुर (यह कुछ जमा नहीं आली भला कैसे पाली में परिवर्तित हो सकता है?) है. और इसी तक मुख्य मंत्री की शोभा यात्रा है. मुख्य मंत्री प्रदेश बनाओ के तहत कई फ़लिए की यात्रा पर हैं, जिसमें यह तमाम गम्मत हो रही है. जब एक युवक चन्द्रशेखर के वेष में स्टेज पर चढ़ता है और मंत्री के चरण छूता है तो बंसी खुद से संवाद करता है,
“क्या आज असली चन्द्रशेखर आजाद होते तो वह सी एम जी के चरणों में सिर झुकाते?
नहीं वह ऐसा हरगिज नहीं करते.
- फ़िर ?
- शायद यह गम्मत देख कर उसका खून खौल उठता.
- फ़िर ?
- शायद तिरसठ साल से इस क्षेत्र को अनपढ़, पिछड़ा बनाए रखने की साजिश करने वाली साम्राज्यवादी व्यवस्था के सी एम जी की फ़ालिए से गरदन उतार लेता.”
जीप में ड्राइवर सोमु भील और डामोर की बातचीत में अमेरिका की चौधराहट तथा नेताओं की खाली माली नौटंकी जिसमें करोड़ों का सत्यानाश होता है, पर व्यंग्य है. महुआ और ताड़ के रस के ड्रम के ड्रम भर कर भीलों के लिए रखे जाते हैं ताकि उन्हें गले गले तक रस में भर कर नेता की सभा में भीड़ दिखाने के लिए बैठाया जाए. यदि कोई भील कुछ पूछने का प्रयास करता है तो उसे नेता और पार्टी के कार्यकर्ता जबरदस्ती हाथ खींच कर बैठा देते हैं और कोई इसके बाद भी कुछ हिम्मत करता है तो इन्तजाम में लगे पुलिस वाले पिछवाड़े ले जा कर उसकी गत बना डालते हैं तो फ़िर वह कहीं नजर नहीं आता है. आखीर पुलिस को शान्ति व्यवस्था बनाए रखने के लिए रखा गया है.

कैसी विडम्बना है, इधर कार्यकर्ताओं द्वारा भीलों को शराब के नशे में धुत रखा जाता है, उधर नेता मंच से शराबबन्दी की अपील कर रहा है. पिछली पार्टी के नेता ने शराब बाँटी थी इसके उलट नेता को बोलना ही है. मगर जब उनको याद दिलाया जाता है कि शराबबन्दी से उनका नुकसान होगा जनता नशे में नहीं होगी तो अपने अधिकार माँगने लगेगी. भीलड़े अगर विद्रोही हो उठेंगे तो उन्हें सम्भालना मुश्किल होगा. दो ढ़ाई सौ जिलों में उन्होंने पहले ही नाक में दम कर रखा है. तो नेता सम्भल कर दूसरी बातों पर जोर देने लगते हैं. बड़ी लम्बी गम्मत है, सी एम कई जिलों का दौरा करने निकले हैं. आम जनता का दु:ख दर्द जानने पहचानने और बाँटने. जनता से मिलकर प्रश्न पूछते हैं मगर उत्तर सुनने के पहले आगे बढ़ जाते हैं. जनता का आशीर्वाद लेते, नहीं छीनते हुए नेता और उनके चमचों में से कोई नहीं देखता है कि डोकरी की पचास रुपए की बहुत मुश्किल से खरीदी गई दाल बिखर गई. उसका कोई गवाह नहीं है. उसे हर्जाना दिलाने की बात कोई नहीं सोचता है. ठीक वैसे ही जैसे तिरसठ सालों से गुड़कती विकास की गाड़ी के पहियों को सोमलाओं की गर्दन पर से गुजरते किसी ने नहीं देखा. कोई गवाह नहीं.

गाँव की गरीब, अनपढ़ आदिवासी जनता का उपयोग भीड़ जुटाने और मनोरंजन के लिए होता है. उनकी संस्कृति और वे खुद मात्र प्रदर्शन की वस्तु हैं. परम्परा को जीवित रखने के नाम पर जिन्दगी पर खतरा मंडरा रहा है. सी एम प्रदर्शनी देखते हैं. कला की तारीफ़ करते हैं, बाँसुरी बजाने का नाटक करते हुए फ़ोटो खिंचवाते हैं. उनकी लाड़ी (पत्नी) साथ हैं. वे भी प्रदर्शनी में रखे जंगली फ़ल कुतरती हैं. ज्यों-ज्यों यात्रा आगे बढ़ती है सी एम की सभा और उसमें कही उनकी बातों की लम्बाई कम होती जाती है. वे भ्रष्टाचार पर लगाम कसने, विकास दर ऊँची करने, बच्चों की शिक्षा के प्रति चिन्ता करने, लोगों से उन्हें योगदान करने की अपील करते हैं. हर सभा में जनता से प्रतिज्ञा कराते हैं, जिसका उनके कार्यकर्ताओं द्वारा आदिवासी भेष में बैठाए गैर-आदिवासी जोर-शोर से अनुमोदन करते हैं और नारों के शोर से धरती आसमान गूँज उठते हैं, नेता का काफ़िला आगे बढ जाता है. जनता उसी बदहाल हालत में पीछे रह जाती है.

कैसी सज-धज से सी एम जी का काफ़िला चल रहा है. उनकी कार के आगे पीछे सुरक्षा के लिए पाँच छ: गाड़ियाँ चल रही हैं. उसके पीछे करीब सौ सवा सौ कारों का काफ़िला दौड़ता आ रह है. वार्नर गाड़ी के आगे जन संपर्क कार्यालय की गाड़ी प्रदेश के विकास का गीत बजाती चल रही है. इन गाड़ियों से करीब एक किलोमीटर दूर कार्यकर्ताओं की गाड़ियाँ हैं जो आगे तमाशा जमाने का इन्तजाम करने, व्यवस्था जमाने जा रहे हैं. जब मत्री पर फ़ूलों की वर्षा की जाती है तो बंसी को माखनलाल चतुर्वेदी की कविता याद आती है, उसे फ़ूलों की अभिलाषा और उनकी दुर्दशा पर दु:ख होता है. उसे उनका सिसकना सुनाई देता है. कुछ दूरी मंत्री हेलीकोप्टर से पूरी करते हैं. तबका दृश्य बहुत विस्तार और सूक्ष्मता से चित्रित किया है सत्यनारायण पटेल ने. खूब भीड़ जुटी है. मगर ज्यादातर भील मंत्री नहीं उड़नखटोला देखने आए हैं. पूरी कहानी में मीडिया और मीडियाकर्मी की भी खासी खिंचाई की गई है. गौरतलब है कि पटेल साहित्यकार होने के साथ-साथ खुद एक मीडियाकर्मी हैं. वे मीडियाकर्मी को आज का नारद कहते हैं जो सत्ता के टुकड़ों पर पलता है. पूरे रास्ते डमोर सी एम का गुणगान करता रहता है, कारण है उसे सी एम के जीवन की डॉक्यूमेंट्री दिखाई गई थी. आज के नेता मीडिया का भरपूर उपयोग करना जानते हैं.

गम्मत में भीलों की उत्पत्ति और इतिहास, संस्कृति को उकेरा गया है. महादेव शिव के दो बेटों में से एक गरम मिजाज बेटे की संतति हैं. एक दिन गुस्से में वह पर तीर चला देता है और पिता महादेव उसे गुस्से में आकर अपने आश्रम से भगा देते हैं. बंसी सोचता है कि वह महादेव नहीं कोई ढ़ोंगी साधु या फ़रारी काटने वाला रहा होगा जिसने किसी सुन्दरी को अपने जल में फ़ंसाया होगा. बाल्मीकि जिसका नाम वालिया भील मान जाता है वह भी बंसी यानि भीलों के एक वंशज के रूप में चित्रित हैं. कृष्ण ने यादवों के साथ मिल कर गुजरात की ओर से भीलों पर हमला किया जिसके बदले में भीलों ने कृष्ण की जीवनलीला समाप्त कर दी. राम काल में वे निषाद के रूप में उपस्थित हैं. राम ने राजा बनने पर भील को सम्मान दिया और आज क्या होता है ? उन्हें ट्रक, बस या ट्रेन में भर कर हर समारोह में नचाने के लिए बुला लिया जाता है. राजनेता जरूरत पड़ने पर गधे को भी बाप कहते हैं और काम निकल जाने पर लात मार कर भगा देते हैं. आस्ल में नेताओं से ज्यादा उनके कार्यकर्ता दमन, शोषण और बेईमानी करते हैं. वे जनता को मंत्री तक पहुँचने नहीं देते हैं उसे अपनी सुरक्षा के घेरे में लिए रहते हैं. वही दिखाते करते हैं जिसमें उनका अपना स्वार्थ सधता है. वे चारण हैं. चापलूसी करके अपना स्वार्थ साधते हैं. गम्मत की पंक्ति है, इक्केसवीं सदी का/ देखो ठाठ/ खड़ी सोमला की खाट/ फ़ले फ़ूले चारण भाट. प्रजातंत्र चारण भाटों का राज्य बन कर रह गया है.

कहानी आज की शिक्षा व्यवस्था पर भी दृष्टि रखे हुए है. बंसी की बीबी और उसका दोस्त गोसेन कौन से अपने मनमाफ़िक पढ़ाते हैं...जो पिंजरा मैकाले ने बन दिया है... उसी में चक्कर काटते हैं...जो सिलेबस शिक्ष माफ़िया ने थोप दिया है...उसी का रट्टा लगवाते हैं... बंसी खुद ग्यारहवीं पास है उसने वीडियोग्राफ़ी का कोर्स किया हुआ है. इसीलिए उसने अपने दोस्तों की तरह गुलाल लगा कर लाड़ी नहीं चुनी बल्कि एक निमाड़न फ़ूलमती मास्टरनी से कोर्ट में शादी की है मगर अभी उसमें भीलों का काफ़ी कुछ बाकी है. उसका दोस्त सोमला भील स्कूल नहीं जाता है. सोमला अशिक्षित भीलों का प्रतीक है जिसे किसी भी दिशा में हाँका जा सकता है, जिनकी भूखी बीमार आवाज में मजबूत घेरे को भेदकर सी एम के कानों तक जाने की कूबत नहीं है. हिन्दी में बोली पूछी गई बातें उनके भीतर प्रवेश नहीं करती हैं. इसी कारण उनका यह हश्र है, कोई भी उन्हें रोंदता कुचलता हुआ आगे जा सकता है. ताड़ और महुए का रस देकर उनसे कुछ भी कराया जा सकता है. उनकी नशाखोरी का नेता फ़ायदा उठाते हैं. भीलों को घोषणाओं से कोई लेना देना भी नहीं है. वे तो नशे में धुत्त हैं और जैसे वे नाचने, ढोल, माँदल, बाँसुरी बजाने और कुर्राटी भरने को ही धरती पर पैदा हुए हैं. कहानीकार को चिन्ता है, सोमला की तन्द्रा कब टूटेगी? अशिक्षा का अंधेरा कब छँटेगा? जब बंसी मंत्री से प्रश्न और तर्क करने की हिम्मत करता है तो उसे इशारे से रोका जाता है और इस पर भी जब वह बाज नहीं अता है तो धमकी और भय दिखाया जाता है.

महाभारत के संजय की तरह बंसी और बंसी के माध्यम से कहानीकार सब समेटता, देखता दिखाता चलता है. उसे बचपन के खेल, किशोरावस्था में लड़के लड़की का एक दूसरे के प्रति आकर्षण, नाच गाना, तीज त्योहार, मेले, खेत-खलिहान, किस्से-कहानी, लोकगीत, लोक नृत्य, रीति रिवाज, राजनीतिज्ञों की चालबाजियाँ, देश की दुर्दशा, नेताओं का भ्रष्टाचार, स्त्रियों पर उनकी कुदृष्टि, मंच से किए गए उनके झूठे वायदे, सब चलचित्र की भाँति नजर आते हैं और वह इन रंग बिरंगे दृश्यों को पाठक को अपनी विशिष्ट बोली-बानी में दिखाता चलता है.

पटेल अपनी कहानियों में विद्रोह का मंत्र अवश्य देते हैं. एक और विशेषता है उनकी वे प्रतिरोध में स्त्री पुरुष दोनों को शामिल करते हैं. गम्मत इस मामले में थोड़ी अलग है. गम्मत कहानी का अंत भी क्रांति के दृश्य से होता है जहाँ निराला का मतवालापन है, शिव की मस्ती है और क्रांतिकारियों का बाना है. बंसी अपने भीतर देख रहा है, खुद के पैरों में भी घुँघरू बंधे हैं, बदन पर कपड़ों के नाम पर फ़ाटली चड्डी और बुशर्ट है. भीतर रोशनी का झरना झर रहा है....कुछ आदिवासियों ने अपने हाथ या फ़िर पैर के अँगूठे को तीर से चीर लिया है और केसरा भील, छीतू भील, भुवान तड़वी के वंशजों के भाल सुर्ख खून से तिलक कर रहे हैं. यह गद्दी पर बैठने की तौयारी है. पढ़कर फ़्रांस की क्रांति की याद हो आई जहाँ भूखी नंगी जनता ने तख्ता पलट डाला. यहाँ भी भील गद्दी पर बैठने की तैयारी में हैं. देखना है कब आएगा यह दिन. देश, समाज और दुनिया का जो हाल है उसमें किसी दिन ऐसा हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होगा. जाने क्यों इस प्रतिरोध की गम्मत में उन्होंने भीलनियों को अंत में शामिल नहीं किया है. शुरु और मध्य में वे हैं, मगर अंत में नदारत हैं.
सत्यनारायण पटेल यहाँ अपनी पूरी धज में उपस्थित हैं. हिन्दी कहानी में आदिवासी समाज बहुत कम देखने को मिलता है जबकि भारत में उनकी खासी बड़ी संख्या है. मुझे यह कहानी इसलिए भी अच्छी लगी क्योंकि कई वर्षों से मेरे घर में “भील भारत” पर शोधकार्य चल रहा है. भील भारत व्यास रचित महाभारत से बहुत भिन्न मौखिक परम्परा का अंग है. भीलों का अपना रचा महाभारत है जहाँ सब वर्तमानकाल में चलता है. उसके नायक-नायिकाएँ मूल महाभारत से बहुत भिन्न हैं. जीवन्त हैं. गम्मत भी बहुत जीवन्त कहानी है. भीलों के जीवन से परिचित करा कर हिन्दी साहित्य को आगे बढ़ाने वाली उसे समृद्ध करने वाली. अपने समय और समाज पर अँगुली धरने वाली. कथन रस से सराबोर हाशिए पर पड़े लोगों को संवेदनशीलता के साथ कथा साहित्य के केन्द्र में लाती हुई. इसमें भीलों के इतिहास का रचनात्मक मूल्यांकन है. व्यवस्था का चेहरा नंगा करती गम्मत आजादी के इतने दशक बाद भी यहाँ की जनता का असली हाल वर्णित करती है. यह न केवल प्रतिकूलताओं की तस्वीर खींचती है वरन प्रतिरोध का स्वर और स्वप्न भी प्रस्तुत करती है.

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sabhar vijay sharma ji ke blog- http://veechika.blogspot.com/2011/05/blog-post_27.html se

01 जून, 2011

CRUSHING SICKNESS


Sano, 20, of Undli village has been reduced to a skeleton in barely a year. She contracted silicosis working in a quartz-crushing factory in Balasinore, Gujarat.

Alirajpur (Madhya Pradesh): “Slowly, but surely, every one of us who has been to the factories in Gujarat will die, and there is nothing we can do to change that,” Buddha (45) of Undli village says bitterly.

Buddha lost his 18-year-old-son Mohan to acute silicosis a year ago. His 16-year-old daughter Ghamma is still suffering from the disease.

Silicosis, the deadly scourge unleashed upon migrant labourers of Alirajpur, Dhar and Jhabua districts of Madhya Pradesh by quartz crushing factories in neighbouring Gujarat, is an incurable and irreversible respiratory disease most commonly caused by inhaling free crystalline silica or silica dust.

The labourers who work in these factories inhale it for about 8-12 hours everyday for a period of three months to a year.

According to the National Institute of Occupational Health (NIOH), “quartz grinding is one of the deadliest occupations causing exposure to almost 100% free silica leading to silicosis in a matter of few months.”
Silicosis is a strange disease that may take from a few months to a few years to manifest itself.

In Madhya Pradesh, it has assumed a class character: that of a disease almost exclusively affecting migrant labourers. Further, it's a disease that kills not just individuals, but entire families.

According to Shipi Kendra, an organisation working to spread awareness about silicosis in the region, the disease has orphaned at least 105 children in just 10 villages of Alirajpur and Dhar districts.

The organisation puts the total number of silicosis deaths in Alirajpur, Jhabua and Dhar for the year 2010 at 386 dead and 724 affected, while investigations by various government agencies put the number at 238 and 304 respectively.
Interestingly, the Alirajpur District Collector office puts the number of deaths in Alirajpur alone at 277.

Lure of the lean season

Every year during the agricultural lean season, thousands of Bhil and Bhilala tribals from Alirajpur and neighbouring districts migrate to Gujarat's Godhra and Kheda districts.

The migration started in the beginning of the last decade when labourers from Gujarat refused to work in the hazardous factories.

The labour gap led contractors from Gujarat to Alirajpur in Madhya Pradesh where the prospect of making ends meet during the lean season lured droves of tribals to the quartz-crushing factories in Godhra and Balasinore.

The trend of migrating to silicosis factories has continued over the last decade and has taken Jhabua, Dhar and even Barwani districts in its grip.

But why do people continue to migrate knowing that working in the factories is fatal?
The situation in Alirajpur is not very different from other districts of the State where tribals, having lost their traditional means of livelihood, have been reduced to migrant labourers.

“It is an easy job,” says Gopal (20), a migrant labourer. “All we have to do is fill up gunny sacks with white stone powder. We manage to fill about 600-700 sacks a day.”
The workers get paid Rs.1.50 to Rs. 2 a sack for their labour and compared to other “hard” jobs such as those in construction industry, filling up gunny sacks does come across as less strenuous.

However, the killing nature of this “easy job” reveals itself much later in symptoms that include short breath, severe weight loss, coughing and difficulty in performing the simplest of physical exercises, even walking.

The realisation

The villagers of Undli realised that the sudden decline in health and the eventual death of healthy young men and women were fallouts of their stints in quartz factories only after the funeral of the first few casualties.

“The entire body would burn except for the lungs. It was shocking,” says Kesar Singh, husband of the village sarpanch Sharmila.

The Mahatma Gandhi National Rural Employment Guarantee scheme has failed to curb migration effectively. The most common reason for workers to prefer the “factories of doom” over the MGNREGA is timely wage payment.

“The total number of deaths in Alirajpur district is 277. It is the lure of earning easy money in a short duration that makes them migrate to Gujarat,” says Ashok Deswal, District Collector Alirajpur.

“Besides various awareness campaigns, we have organised 24 medical camps. We have also provided assistance to affected persons under several government schemes like the Deendayal Antyodaya health insurance card, and regular pension. Ten beneficiaries have also been provided over Rs. 2 lakh under a self-employment scheme,” he says.
For all the tall claims, the government's efforts seem half-hearted at best. While any signs of awareness campaigns — posters, wall paintings or hoardings — were hard to come by even at the district headquarters, the health insurance card in question does not even cover silicosis.

Health Commissioner of Madhya Pradesh Dr. Manohar Agnani agrees that the problem is acute.
“We have asked district authorities from Alirajpur, Jhabua and Dhar to send us a detailed proposal addressing this issue. We have also involved NGOs active in this area for more inputs. As soon as we receive the proposal, we will plan our next course of action,” says Dr. Agnani.

In November last, the National Human Rights Commission issued a show cause notice asking the Gujarat government why it should not be held responsible for compensation to the families of 238 silicosis victims belonging to Madhya Pradesh.

However, the compensation process seems to have become stuck in red tape. Wrangles have broken out among the NHRC, and the Gujarat and Madhya Pradesh governments.
“Right now the government is in correspondence with authorities at various levels on the issue of compensation. Nothing has been finalised yet,” Dr. Varesh Sinha, Additional Chief Secretary (Labour), Gujarat told The Hindu.

NHRC member P.C. Sharma told The Hindu: “The authorities concerned — be it the labour, health or social welfare department — need to take this matter very seriously as silicosis is a fatal disease and the labourers who get affected have nobody to turn to even as we keep doling out crores to cricketers. The working conditions of the factories are pathetic and it is the State's responsibility to protect the workers from this exploitative industry.

(Courtesy: The Hindu)