image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

30 सितंबर, 2018

उपन्यास  अंश "मोरीला "

बलराम कांवट


बलराम कांवट





“कण-कण होग्या रंग रँगीला पग-पग याह बदड्या नीला
थारी प्रीत सुहाणी ऐसी याह जग सारा मोरीला” 
—  एक लोकगीत, जिससे मेरा परिचय उस लड़की ने करवाया। उसने इसका अर्थ भी बताया जिसे मैंने पेपर पर लिख लिया था। - “धरती का कण-कण रंगीन हो गया और आकाश का चप्पा-चप्पा नीले रंग से भर गया। तेरा प्रेम ऐसा मोहक है कि सारा संसार मेरे लिए मोर-सा हो गया है।” 





1
“आपको मेरे शब्द सुनने चाहिए।” - लड़की ने अनगिनत आग्रह किये। 
“मैं तैयार हूँ” - मैंने अंततः हारकर कहा “लेकिन ध्यान रहे, जिस काम के लिए आया हूँ, तुम्हारी दलीलों के बाद भी फैसले का अधिकार मेरे पास है।” 
“थैंक्स सर, मुझे नहीं पता मेरे शब्द कितना महत्त्व रखते हैं लेकिन विश्वास दिलाती हूँ कि वे सच्चे शब्द होंगे। इससे पहले कि आप कोई नतीजा निकालें, मेरा एक और आग्रह है” - उसने कहा “मेरे शब्दों के साथ-साथ आपको मेरी कहानी में उतरना होगा।” 
मैं उतरा। मैं उसके साथ उसकी दुनिया में उतर गया। मैंने उसके सारे शब्द सुने। वे मुझे एक बिखरी हुई आत्मा के शब्द लगे और उसकी दुनिया कई अनसुलझे सवालों से भरी दिखाई दी। 
बावजूद इसके - कहानी का ‘नतीजा’ पहले से मेरे सामने था।

मैं उस समय जंगल में था। जंगल में रहने वालों को लेकर यह एक अधूरी धारणा है कि उजाड़ में केवल जानवर या देवता ही रह सकते हैं - नहीं! इनके अलावा कुछ अन्य प्राणी भी हैं जो जंगल में रहते या अपने अंदर ही एक जंगल बसाए रखते हैं। दरअसल यह दुनिया उनके लिए कुछ कम पड़ गई होती है इसलिए वे अंततः अकेले में चले जाते हैं - कोई कवि, सन्यासी, यायावर… कोई वन विभाग का आदमी। मैं ऐसा ही आदमी हूँ। वह जुलाई का एक सुन्दर सबेरा था जब मैं अपने सरकारी कमरे में सोया हुआ था। पिछले हफ्ते मौसम की शुरूआती बूँदें बरसी थीं इसलिए राहत में आँखें ज्यादा देर तक लगी हुईं थीं। यह जैसे बदले का भाव था जब हम गर्मियों की सूखी नींद का बदला बारिश में ज्यादा सोकर लेते हैं। मैं गहरी नींद में था और शायद कोई स्वप्न देख रहा था कि अचानक बढ़ते हुए क़दमों के साथ मेरे सहयोगी की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी -
“वहाँ देवता वाली पहाड़ी पर” - उसने कहा “एक मोर की हत्या हुई है।”
मेरा स्वप्न टूटा, पता नहीं क्या अज्ञात कारण था कि मैंने इस सूचना को उल्टा सुन लिया।
“वहाँ मोर वाली पहाड़ी पर” - मैंने सुना “एक देवता की हत्या हुई है।”
मैं आश्चर्य में था और आँखें फाड़कर साथी को घूर रहा था, जब उसने दुबारा दोहराया कि ‘उठो यार! वहाँ किसी ने एक मोर को मार डाला है’ तो मेरा भ्रम दूर हुआ। मैंने वापस आँखें मूँद लीं और करवट बदलते हुए सिर्फ इतना-सा महसूस किया कि यह दुनिया लगातार बहुत बेरंग होती जा रही है। 
कई वर्षों से ऐसी घटनाओं के बारे में सुनना और फिर कोई कदम उठाना मेरे लिए बहुत सामान्य बात थी। जंगल में हमारा पहला काम वृक्षों की रक्षा करना था क्योंकि लकड़हारों का काफी डर था। वे अक्सर अँधेरी रातों में साहस दिखाते और सुबह हमें धरती से चिपके ठूँठ मिलते। किसी पेड़ की लाश देखना दुःखद है लेकिन इससे भी दुःखद वे घटनाएँ हैं जिनका सम्बन्ध ‘खून’ से होता। इन खूनी कारनामों को वे शिकारी अंजाम देते जो बंदूकों के साथ जंगल में प्रवेश करते और खरगोश, हिरन या किसी नीलगाय को लहूलुहान करके उठा ले जाते। सबसे भयानक घटना का आधार वह वन्यजीव होता जिसकी घटती संख्या के कारण ऊपरी कुर्सियों का भारी दबाव होता था - बाघ। अब तक यही सब होते देखा लेकिन यह मोर वाला मामला कुछ नया था। इसे लेकर कहीं से कोई दबाव नहीं आया। जो भी दबाव था, मेरे अंदर का था। मुझे ऐसी खूबसूरत चीजों की मृत्यु बहुत बुरी लगती है। ड्यूटी के समय जब हम अपने कुत्तों की चेन पकड़े पगडंडियों से गुजरते और अचानक पैरों तले कोई फूल कुचल जाता तो मैं अपने साथियों से कहता - ‘फूलों की मृत्यु बहुत बुरी बात है, इन्हें अमर रहना चाहिए।’ इस शोक-संवाद के बाद मेरे दोस्त ‘साला सनकी’ कहकर मेरा मजाक बनाने लगते और मैं खामोश हो जाता।







मुझे ख़ामोशी का लम्बा अनुभव है इसीलिए मैं शब्दों की तलाश में रहता हूँ।
जब इस हत्या का पता चला तो मैं देर तक विभिन्न पहलुओं पर गौर करता रहा और अंततः इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि यह किसी पेशेवर शिकारी का काम नहीं हो सकता। मैं जितना जानता हूँ - इस इलाके के लोग मांसाहारी नहीं हैं, और अगर कोई है तब भी धार्मिक कारणों के चलते मोर को मारना लगभग असंभव कृत्य है। हाँ! एक-दो बार नीलगायों की हत्या की पुष्टि जरूर हुई थी जब फसल नष्ट करने के जवाब में उन्हें मारा गया लेकिन यह बात किसी मोर पर लागू नहीं होती। वह एक सीधा-सादा सुन्दर पक्षी है जो कभी कोई ऐसा ‘असहनीय-हस्तक्षेप’ नहीं करता कि उससे व्यथित होकर उसे मार ही डाला जाए। जब मैं कोई ठोस कारण नहीं सोच पाया तो घटनास्थल पर जाकर तहकीकात के बारे में सोचने लगा। मैं अभी खाली था और घर जाने के लिए जिन छुट्टियों के इंतज़ार में था, वे थोड़ी दूर थीं। मैंने फैसला किया कि यहाँ ऊबते हुए वक्त बिताने से बेहतर है कि आज जंगल से बाहर निकलकर कुछ नए दृश्य देखें जाएँ। 
इस तरह मैं उस पहाड़ी की ओर रवाना हुआ।
मैंने सरकारी खटारा जीप ली और घंटे-भर के सर्पिल रास्तों से बढ़ता गया। 
मैं जंगल को पीछे छोड़ता गया, पहाड़ी के करीब आता गया।
मैं पहुँचा। 
मुझे दूर से वह पहाड़ी दिखाई दी - वह एक सूखी पहाड़ी थी जो कई कतरों में बँटकर समतल मैदानों में लेटी थी। उसे देखकर कोई भी कह सकता था - वह किसी सुंदर साँवली ग्रामीण स्त्री की तरह है जो करवट लेकर धरती पर लेटी हुई है।
अब मैं पहाड़ी पर था। मुझे सबसे पहले उसकी चोटी पर बना वह मंदिर दिखाई दिया जिसकी वजह से इसे ‘देवता वाली पहाड़ी’ कहा जाता है। मंदिर के पास एक पीपल का पेड़ था जिसकी बनावट को मैंने कड़कती बिजली से जोड़कर देखा - जैसे कोई बिजली पहाड़ी से उठकर आकाश की ओर फैली हो। मैं एक पत्थर पर बैठ गया और आँखों की अंतिम सीमा तक ये दृश्य देखने लगा - मुझे दूर-दूर तक टुकड़ों में बँटे खेत दिखाई दिए। उनके बीच से जाती हुई सड़क एक नदी-सी लगी जिसमें इंसान वाहनों के साथ बह रहे थे। वहीं छोटे-छोटे फासलों पर बिजली के खम्भे थे। उन्होंने एक-दूसरे को तारों से बाँध रखा था। इन्हीं खम्भों की एक कतार चढ़ती हुई मंदिर तक आती थी। मुझे मंदिर के दरवाजे पर लटका बल्ब दिखा। वह दिन में भी जल रहा था। मुझे सामने के मैदानों में कुछ गड़रिए दिखाई दिए जो छोटे-छोटे पशुओं के संग रेंग रहे थे। वहीं आम के पेड़ खड़े थे जो मुझे किसी पेपर पर टपकी स्याही की बूँदों-से लगे। मैंने नीचे उन घरों को देखा जो अलग-अलग झुंडों में बँटे थे और आँगनों से धुआँ उठ रहा था। मैंने गर्दन मोड़ी और पहाड़ी की दूसरी दिशा को देखने लगा। मुझे वहाँ बहुत दूर रेल की पटरियाँ दिखाई दीं जो सुनसान-सी लगीं। पटरियों के पार वह आबादी थी जिसे कुछ लोग ‘छोटा शहर’ और कुछ ‘बड़ा क़स्बा’ कहते हैं। जीवन की ये सारी झलकियाँ मुझे कविता के शब्दों की तरह प्रतीत हुईं।
मैं कविताई अहसास में था कि अचानक मेरी नज़र पैर के पास पड़े एक मोरपंख पर गई। मैं वापस मुद्दे पर आया। मैंने उसे चुटकी से उठाया और देखने लगा - वह एक नन्हा पंख था जिसकी छोटी-सी सिरकी पर रंगीन सिक्काई चाँदा उभरा हुआ था। यह कितना बुरा है कि कुछ समय पहले तक वह अपने मूल शरीर से जुड़ा हुआ होगा और अब अनाथ पड़ा है। यह दु:खद है। मैंने उसे अपने पर्स की दरार में रख लिया और मोर के मृत शरीर को खोजने लगा। मुझे मिली सूचना के अनुसार वह मंदिर के पास पीपल पर बैठता था इसलिए वहीं से देखना शुरू किया - वहाँ कुछ नहीं था। एक क्षण के लिए यह घटना अफवाह-सी लगी और मुझे वापस लौटने का भी खयाल आया लेकिन जब पेड़ के अलावा इधर-उधर देखा तो पता चला कि मामला इतना खाली भी नहीं है। वहाँ कुछ था। मैंने पाया कि वहाँ बड़ी संख्या में मोरपंख बिखरे हुए हैं। वे कँटीली झाड़ियों और चट्टानों की आड़ से लेकर नीचे तलहटी तक फैले पड़े थे। मैंने ढलानों पर उतरते हुए उन्हें समेटना शुरू किया। यह पिछली बूँदों और अंधड़ का असर था कि वे इतनी दूर तक उड़कर चले गए थे और मिट्टी के गँदले छीटों से सने थे। मैंने इकट्ठा करके गिना - वे एक सौ पच्चीस से अधिक थे यानी वह अवश्य ही कोई युवा या उम्रदराज मोर रहा होगा जो काफी जीवन जी चुका होगा।

बावजूद इसके - मुझे शरीर कहीं नहीं मिला। 
“यह कौन कर सकता है?”
यह सवाल मैंने लगभग बीस लोगों से पूछा जिनमें दो पुलिसवाले भी शामिल थे। वे पहाड़ी के कोने पर सड़क-किनारे रहते थे जहाँ चौकी थी। “हमने कभी कोई मोर नहीं देखा।” - एक पुलिसवाले ने मुझसे कहा, जबकि दूसरे ने बताया कि यहाँ मोरों की संख्या इतनी अधिक है कि वे कभी किसी ‘एक मोर’ पर ध्यान ही नहीं दे पाए। उन दोनों ने फिर मिलकर बताया कि वे चोटी पर कभी गए ही नहीं, फुरसत ही नहीं मिली क्योंकि वे अपना काम बहुत जिम्मेदारी से करते हैं और उनका काम है - अवैध खनन रोकना। मैंने उनके कन्धों के बीच से देखा - मेरी नजर एक ट्रक पर पड़ी जहाँ कुछ आदमी पहाड़ी के कोने में ‘व्यस्त’ थे। “हम सिर्फ अपने काम से काम रखते हैं।”- उस ट्रकवाले ने मुझसे कहा “लेकिन मोर के बारे में कुछ जानना है तो गड़रियों, किसानों और दूसरे गाँव वालों से पूछो।” उसके बाद मैं कुछ गड़रियों से जाकर मिला। वे मुझे बीते संसार की अंतिम निशानियों-से लगे। उन्होंने वहाँ मोर के रहने की पुष्टि की, उसकी उपस्थिति को लेकर लम्बे-लम्बे बयान भी दिए लेकिन किसी ने नहीं बताया कि अब ‘अनुपस्थिति’ का क्या कारण है? कुछ किसान - जो तलहटी के एक खेत में ट्रैक्टर के पास खड़े थे और अच्छी बारिश की आस में नई फसल बोने पर विचार कर रहे थे, मैंने उनसे पूछा। “मेरे हिसाब से वह देवता का पक्षी था।” - एक किसान ने कहा। “तब तो मरने का प्रश्न ही नहीं उठता।” - उस किसान की पत्नी बोली। उसके बाद मैंने कुछ अन्य महिलाओं से पूछताछ करनी चाही लेकिन उनमें से अधिकांश ने बात करने से मना कर दिया और कुछ ने डाँवाडोल जवाब दिए। मैंने वहीं एक खेत में खड़ा खँडहर देखा जिसकी छत पर कुछ लोग खिलखिला रहे थे। उनके पास गया तो पता चला कि वे बदनाम शराबी हैं जो सुबह-सुबह ही शुरू हो चुके हैं। “यहाँ मोरपंख बीनने वालों की बड़ी तादाद है।” - एक शराबी ने कहा। “हो सकता पैसे के लालच में उसे सदा के लिए उड़ा दिया हो।” - दूसरे शराबी ने मुझसे कहा। उनके अन्य साथियों ने भी ऐसे ही नशीले जवाब दिए जिन्हें स्वीकारना असंभव था। मैंने कुछ ऐसे युवाओं से भी जानना चाहा जो शहरों में पढ़ते या नौकरी करते हैं और थोड़े समय के लिए घर-परिवार से मिलने आते हैं। वे इस समय किसी शादी में शामिल होने आए थे। उन्होंने खुद को असमर्थ बताते हुए कहा कि वे अपने माता-पिता की खबर रख लें, यही काफी होगा। मैंने कुछ बच्चों से भी पूछा जो स्कूल-बस से उतरकर तेजी से घरों की ओर भाग रहे थे। उन्होंने मुझे कोई एलियन समझा जो पृथ्वी पर मोर ढूँढ़ता फिर रहा है। “आपने कभी मोर नहीं देखा?” - एक जरा-सी बच्ची बोली - “ये देखो।” उसने अंग्रेजी वर्णमाला की एक नन्हीं पुस्तक खोलकर दिखाई जहाँ नाचते मोर का चित्र था और लिखा था - P for Peacock पीकॉक यानी मोर।









इस तमाम पूछताछ के बाद मैं कहीं किसी ठिकाने पर नहीं पहुँच पाया। ये सारे जवाब बहुत उलझाऊ और अंतर्विरोधों से भरे थे। मैं खाली हाथ वापस चला आता लेकिन इन जवाबों में मैंने एक इशारे को बहुत ‘कॉमन’ पाया। उस इशारे ने मेरा ध्यान खींचा। इन लोगों में से दो-तीन को छोड़कर लगभग सबने बताया कि पिछले साल से यहाँ एक लड़की को आते-जाते देखा गया है। उसका पहाड़ी से गहरा संबंध है। वह रोज शाम को यहाँ आती रही है इसलिए हो सकता है मोर की हत्या उसी ने की हो, और अगर नहीं! तब भी सबसे अधिक जानकारी वही दे सकती है।
यह ठिकाना पाकर लगा कि शायद अब कुछ खोजबीन हो सकती है। 


मैं उस लड़की से मिला। यह दो लोगों की आपसी मुलाकात थी। हम पहाड़ी पर ही मिले। मैंने उसे देखा तो पाया उसकी उम्र बीस बरस से अधिक नहीं है, हालांकि शरीर से वह परिपक्व लगी और ऐसी लगी जैसे अपनी कक्षा में सबसे बड़ी उम्र की छात्रा हो। वह एक सुन्दर साँवली लड़की थी जिसने गाढ़ी नीली जींस पर गेरुई रंग का कुरता पहन रखा था। मैंने गौर किया - उसके कुरते पर कई भाषाओं के छोटे-बड़े रंगीन शब्दों की छाप थी। इस पहले ही क्षण में वह मुझे शब्दों से भरी दिखाई दी। “आपको मेरे शब्द सुनने चाहिए।” - उसने भिड़ते ही कहा। इससे पहले कि मैं कुछ और सुन सकता, वह बार-बार यही दोहराती रही - ‘प्लीज, मेरे शब्द सुनिए।’ मुझे लगता है कि आप कुछ भी नकारें लेकिन किसी के बार-बार दोहराए शब्दों को नहीं। वे उम्मीद से भरे घड़े की तरह होते हैं। वे ऐसे ही शब्द थे जिन्हें मैं नकार नहीं सका। उन्हें कहने का ‘आग्रह’ और सुनने का ‘दायित्व’ इतना अधिक गहरा था कि अंततः मुझे तैयार होना पड़ा। मैंने उसे सुना - मुझे यह कहानी हाथ लगी। उसने सच्चे शब्दों का वादा किया था जिसका दूसरा अर्थ यह था कि ‘सच्ची कल्पना’ का अधिकार मुझे दे दिया गया है।
- और अपने अधिकारों का तो हर कोई फायदा उठाता है! 



2
लड़की ने अपने शब्द शुरू किए। उसे पीपल और मोर से शुरुआत करनी चाहिए थी लेकिन उसने मंदिर और देवता से बात शुरू की। मैंने मुद्दे से दूर जाती हुई बातें काटनी भी चाही लेकिन बचाव में कहा गया कि वह जो कुछ भी बताएगी, उसका सम्बन्ध अंततः मोर से ही होगा। उसका कहना था कि मैं सबकुछ समझे बिना मोर के पेचीदा मसले को नहीं समझ सकता। मैं क्या करता? मुझे यह भी मानना पड़ा। मैं सचमुच मसले को पूरा समझना चाहता था। 
वह एक छोटा-सा मंदिर था जो पहाड़ी के सबसे ऊँचे सिरे पर खड़ा था। उसकी बनावट से ही साफ़ था कि मंदिर तो पुराना है लेकिन इसे समय-समय पर दुरुस्त किया जाता रहा है। उसकी चार दीवारी पर एक गोल नुकीली छत थी जिस पर एक पीला झंडा लटका था। मैंने देखा कि झंडे की लटकन काफी निराशा बयान कर रही है जो शायद शान्त हवा की वजह हो। दीवारों की कलई से पता चल रहा था कि उन्हें हर साल पेंट किया जाता होगा लेकिन धूप और बारिशों की वजह से फ़िलहाल वे कलात्मक पेंटिंग-सी हो गई हैं। मंदिर के सामने का चबूतरा, मैंने उस पर चढ़कर देखा - वहाँ चार दीवारी के बीच एक बेडौल-सा पत्थर रखा था। उस पर केसरिया रंग का लेप चढ़ा था जिससे जाना कि देवता के रूप में इसी को पूजा जाता है। “यह देवता की अंतिम निशानी के रूप में रखा गया था” - लड़की ने कहा “इसकी स्थापना लगभग सात सदी पहले यहाँ के लोगों ने की थी।” उस जमाने में वह एक जीता-जागता इंसान था जो इसी पहाड़ी पर विचरता था। वह एक युवा गड़रिया और ‘एक महान प्रेमी’ था जिसने अपने जीवन में जो प्रेम किया, वह इतना दृढ, गरिमामय और त्याग से भरा था कि मरने के बाद उसके नाम मंदिर बनवाया गया और उसे देवता कहा गया - प्रेम का देवता। आज भी यहाँ का हर आदमी देवता की कहानी को जानता है और महिलाएँ बार-बार अपने गीतों में उसे दोहराती रहती हैं। बच्चे जब भी किसी बात को सत्य साबित करने के लिए कसम खाते हैं तो इसी के नाम खाते हैं। मैं देवता के परिचय से इतना उत्साहित हुआ कि मैंने उसकी कहानी यहीं सुननी चाही लेकिन लड़की ने उसे बाद के लिए बचाकर रखा। मुझे धैर्य रखना था। मैंने रखा। मैंने अभी सिर्फ इतना समझा कि वह अवश्य ही प्रेम का कोई विराट दृष्टा होगा जिसकी आत्मा अब भी पीपल की छाँव में बैठकर जलती-बुझती प्रेम कहानियाँ देखती रहती होगी। 

मंदिर के पास वाला पेड़, जिसे मैं पहले ही पहचान चुका था कि वह बूढ़ा पीपल है, बहुत थका और शान्त लग रहा था। उस समय हवा नहीं थी, अगर होती तो उसके पत्तों की भयावह फड़फड़ाहट से कोई बहरा भी समझ जाता - ‘अरे! ये तो पीपल है।’ इस शान्ति में मुझे वह पेड़ भी देवता की तरह त्याग से भरा लगा। “इसकी उम्र भी लोग सदियों में गिनते हैं।” - लड़की ने बताया। उस पेड़ को देखकर मुझे लगा - काश! इंसान पेड़ों की तरह होते। हमारी तरह चलना-फिरना उनके लिए संभव नहीं, वे जब तक जीते हैं कभी अपना स्थान नहीं बदलते, बहुत सादगी से वहीं मर-मिट जाते हैं जहाँ उगते और बड़े होते हैं। मुझे हमेशा लगता है कि पेड़ों का यही जमाव है जिसके चलते उनसे सच्चा प्रेम किया जा सकता है और अपना बनाकर रखा जा सकता है। यह इंसान के लिए तरस खाने वाली बात है कि वे कभी पेड़ नहीं हो सकते, यहाँ तक कि जानवरों से भी ऐसी उम्मीद रखना बेकार बात होगी। “नहीं-नहीं” - लड़की ने मुझे काटकर कहा “आप उस मोर से यह उम्मीद रख सकते थे। वह बिलकुल देवता और पीपल की तरह दृढ़ था।”

उसने बताया कि वह एक सुन्दर मोर था जिसकी लम्बाई लगभग सात फीट थी। उसकी कद-काठी इतनी पूर्ण थी कि वह अपने-आपमें बहुत गर्वीला लगता था। वह समस्त रंगों का एक उज्ज्वल घोल-सा था, हालांकि नीला रंग ही सबसे अधिक दिखता था। शरीर की रंग-बिरंगी धारियों के पीछे पंखों का भारी हुजूम, वह इतना भारी था कि मोर जब चलता था, धरती को बुहारते हुए चलता था। इस बात पर मुझे किसी अखबार में पढ़ी एक पंक्ति याद आई कि डार्विन - वह कहता था कि उसे जब भी मोर की पूँछ दिखाई देती है, उसकी अनुपयोगिता देखकर उसका सिर दु:खने लगता है। लड़की के साथ ऐसा नहीं था। वह उसे जीते-जागते इन्द्रधनुष की तरह देखती थी और देखकर आनंद से भर उठती थी। उसे सुनकर मुझे बचपन की कुछ किताबें याद आईं जिनमें लिखा रहता था कि मोर समस्त पक्षियों का राजा है। वह संसार का सबसे बड़ा चित्रकार होगा जिसने उसे इतनी बारीकी से रंगा होगा, किताबों के अनुसार निश्चित ही वह चित्रकार स्वयं ईश्वर था इसलिए यह भी उन्हीं किताबों ने बताया कि जब भी मोर सुरीले स्वर में गाता है, उसी अनाम रचनाकार के नाम गा रहा होता है।

“वह देवता के नाम गाता था।” - ये लड़की के शब्द थे। 

वह शायद एक छोटा बच्चा ही था जब उसने पहाड़ी को अपना घर मान लिया। वह यहीं बड़ा हुआ और पूरा युवा होने के बाद भी इस जगह को त्यागने की जरूरत नहीं समझी। यह अद्भुत बात है। कुछ पक्षियों का यह स्वभाव होता है कि वे किसी एक पेड़ को अपना सारा संसार मान लेते हैं, यहाँ तक कि उन्हें एक निश्चित डाली पर ही बैठना रास आता है। वे पता नहीं क्यों संसार की खुली डालियाँ छोड़कर एक ही डाल चुनते हैं और उसी से अपनी पहचान कायम रखते हैं। वे दिन में कहीं भी रहें, रात होते ही वापस ‘घर’ लौट आते हैं। मैंने गौर से उसका घर देखा - मैं पीपल के नीचे खड़ा होकर पत्तों की झालर से वह शाख देखने लगा जहाँ पंजें जमाकर मोर रातें गुजारता था। वह एक मजबूत और लम्बी शाख थी। भयानक बारिशों से लेकर ठिठुरती सर्दियों, सर्दियों से तेज गर्मियों तक की सारी रातें उसने वहीं बिताई थी। जिस तरह लड़की ने बताया, उसके अनुसार वह सुबह की पहली किरण के साथ ही नीचे उतर जाता था और दिन की शुरुआत चबूतरे पर नाचने से करता था। गर्दन उठाकर, देह को फड़फड़ाते हुए एक तेज झुर्राहट के साथ वह पंखों को खोलता और फिर गोल-गोल घूमते हुए नाचता रहता। लड़की को सुनते हुए लगा कि मोरनाच देखकर समय के उस पार देवता की आँखें खुल जाती होंगी, वह अपनी अंतिम शक्ति तक उसे देखता रहता होगा। 







नृत्य के बाद - वह नीचे तलहटी में खेतों की ओर चला जाता जहाँ से दूसरे मोर-मोरनियों के संग घूमने निकलता। इन संगी-साथियों के साथ वह कभी फसलों और झाड़ियों में बैठा रहता, कभी मेंड़ों पर टहलता रहता। वह खेतों-खलिहानों में दाने चुगता रहता और फिर दोपहर को किसी टंकी या डबरियों में पानी पीता दिखाई देता। वह दिन भर इसी तरह भटकता रहता लेकिन उसकी भूख शान्त नहीं होती। इस शान्ति के लिए उसे शाम का इंतज़ार करना पड़ता जब खाने के लिए एकसाथ बहुत कुछ मिलता। वह शाम होने से पहले ही वापस पहाड़ी पर लौट आता और एक ख़ास चट्टान पर आ खड़ा होता। वह यहाँ ऐसे खड़ा रहता जैसा किसी चिंतन में हो। मैंने खुद वह चट्टान देखी - वह पहाड़ी पर एक छज्जे की तरह जमी हुई थी जहाँ से नीचे के घर रंग-बिरंगे डिब्बों-से दिखाई देते हैं। वह यहीं से उन घरों के झुंड को ताकने लगता। उसकी सीधी अकड़ी देह, मटकती गर्दन और पंखों की हल्की कसरत से ही अंदाज़ा लगाया जा सकता था कि वह अब उस ओर छलाँग लगाने वाला है। वह झुककर उड़ने की तैयारी करता और फिर उछलकर एक जोरदार छलाँग मारता। वह खेतों, पेड़ों और घरों के ऊपर से तैरता हुआ आगे बढ़ता। अपनी उड़ान की सीमाओं के कारण बीच में वह कुछ स्थानों पर विराम लेता और अंततः उस दो मंजिले मकान की छत पर जाकर उतरता जहाँ पहुँचना उसके लिए किसी ‘दैवीय कानून’ को निभाने जैसा था।
“वह मेरा घर था” - लड़की ने बताया “जहाँ आना उसकी रोज की आदत थी।”
छत पर कूदकर वह पहले पंखों को व्यवस्थित करता। झटक-झटककर पंजों से गर्दन खुजलाता और चोंच से पीठ सँवारता। फिर इधर-उधर ताक-झाँक करते हुए नाजुकी से डग भरता हुआ मँडराना शुरू करता। इन आरामदायक हरकतों के बाद वह धीरे-धीरे मुँडेर की तरफ बढ़ता और फिर आसमान की ओर देखकर तेज-तेज गूँजें मारने लगता। “दरअसल वह बताता था कि देखो - मैं आ चुका हूँ” - लड़की ने कहा “वह समय का पक्का था और मेरे लिए उस घड़ी-सा था जो कभी गलत समय नहीं बताती। उसे देखते ही मैं समझ जाती - चार बज चुके हैं।” यह कुछ प्राणियों का वाकई अचरज-भरा व्यवहार होता है कि वे अपने निश्चित समय पर ही दस्तक देते हैं। मोर का यही व्यवहार था। इससे लड़की का परिवार अवगत नहीं था, सिर्फ वही परिचित थी और गूँज सुनकर इस ख़ास समय से सम्बंधित कई बातें अपनी माँ से करने लगती थी।
- माँ! चार बज गए। अभी तक पापा घर नहीं आए। 
- माँ! चार बज गए। भैंस को पानी नहीं पिलाया, बेचारी प्यासी खड़ी है। 
- माँ! चार बज गए। किचिन में कुछ काम देख लो।
- माँ! चार बज गए। मैं वहाँ जा रही हूँ, जल्दी ही लौट आऊँगी। 
समय को इस तरह देखने की आदत से मेरा भी परिचय था। कई बार ऐसा होता है जब हम अनायास ही आसपास के दूसरे जरियों का सहारा लेकर समय जान लेते हैं। हम कभी-कभी तो उन पर निर्भर हो जाते हैं और ऐसे संयोगों को दैनिक जीवन में शामिल कर लेते हैं। 
लड़की को सुनकर मुझे कुछ दृश्य याद आए - 
पहले मेरे घर के दरवाजे पर रोज एक गाय आ खड़ी होती थी। उसे पहली बार शायद सुबह दस बजे रोटी खिलाई गई थी इसलिए उसके बाद वह उसी समय दस्तक देने लगी, उसे देखकर मेरे पिता अनुमान लगा लेते थे - दस बज गए होंगे। बचपन में स्कूल की छुट्टी के बाद भागते बच्चों को देखकर मेरी माँ जान लेती थी - दोपहर का एक बजा है! मुझे कुछ बुजुर्ग याद आए जो एक छप्पर तले ताश खेलते रहते थे। वे सामने से गुजरते डाकिए को देखकर दो बजने का अंदाजा लगाते थे। मेरे दादा दूर एक मस्जिद की अज़ान सुनकर कहते थे - उठो! चार बज गए। किसी गाँव के पास अगर रेलवे लाइन हो तो वहाँ के लोग अलग-अलग ट्रेनों से समय जानते हैं। पहले भीत की परछाँई से भी समय पता करते थे। मैंने लड़की को ऊपर-नीचे उँगलियाँ रोपकर समय देखने के तरीके पर भी बात की लेकिन ये सब पुरानी बातें थी जब आमतौर पर लोगों के पास घड़ी नहीं होती थी। अब ऐसा होना सिर्फ आदत और संयोग ही हो सकता है। यह एक संयोग ही था कि मोर की किलकारियाँ सुनकर वह शाम के चार बजने को पहचानती थी। वह जैसे ही मीठी गूँज सुनती, ठीक उसी क्षण उस काम के लिए तत्पर हो जाती जिसका उसे पूरे दिन इंतज़ार रहता था। 
“वह पहाड़ी से एक सन्देश लाता था” - लड़की ने बताया “जैसे मोर का मतलब चार बजना था, चार बजने का मतलब था कि मुझे अपने प्रेमी से मिलने निकल जाना चाहिए।”
वह प्रेम में थी और उसके शब्द प्रेम की तरफ निकलेंगे, यह बात मुझे यहाँ पता चली।
वह जैसे ही मोर को सुनती, सबसे पहले उसकी नज़र दीवार पर लटकी घड़ी की तरफ उठती। घड़ी की सुइयाँ रोमन अंक "IV" के आसपास ही रहतीं, कुछ मिनटों की हेर-फेर के अलावा किसी अंतर की गुंजाईश नहीं थी। समय का सही मिलान करते हुए वह किचिन में घुसती, मोर के लिए खाने की कुछ चीजें जुटाती और फिर सीढ़ियों से होती हुई सीधे छत पर चली आती। वह देखती - मोर कित्ता भूखा है, कित्ता उतावला है? लड़की ने बताया कि वह रोज उसे कुछ ना कुछ जरूर खिलाती थी। दोपहर की बची रोटियाँ, बिस्कुट के टुकड़े और अनाज के दानों से लेकर मोर का पसंदीदा आहार - लम्बी लाल मिर्चियाँ। वह उसे प्यार से पुचकारते हुए पास बुलाती और मोर धीरे-धीरे उसकी तरफ कदम बढ़ाने लगता। मैं जानता हूँ इंसानों से तमाम नजदीकियों के बाद भी इस प्राणी का यह स्वभाव नहीं कि वह पालतू पक्षियों की तरह हाथों में आ जाए। वह आधा जंगली, आधा समाजी प्राणी है जो छोटी उम्र वालों के पास तो कभी नहीं आता। लेकिन एक उम्र के लोगों से लगातार संपर्क के बाद थोड़ा करीब आने लगता है और क्योंकि लड़की की उम्र इतनी थी कि उस पर विश्वास दिखा सके इसलिए वह विश्वास दिखाता था। वह हिचकिचाते हुए पास आता और उसकी हथेलियों से खाना उठाकर गटक जाता। यह क्षण उन दोनों को असीम संतोष में डुबो देता था। 

इस संतोष के बाद लड़की उसे आज़ाद छोड़ देती। वह एक झलक के लिए उस बर्तन पर नज़र डालती थी जो एक घड़े को काटकर मुंडेर पर रखा गया था। वह पानी का बर्तन था जिसमें पक्षियों के लिए पानी भरा जाता। पानी है? हाँ! भरा है। वह संतुष्ट होती और मोर को वहीं छोड़कर वापस नीचे किचिन में चली आती। वह अब प्रेमी के लिए कुछ सामग्री तैयार करती। वह गैस जलाकर चाय की केतली चढ़ाती और फिर आईने के सामने बैठकर खुद को सँवारने लगती। इस सँवारने में वह बालों में एक तितली वाली क्लिप लगाना कभी नहीं भूलती जो उसके प्रेमी को बहुत प्रिय थी। वह इस दौरान समय का भी ध्यान रखती क्योंकि कभी-कभी देर हो जाने पर प्रेमी थोड़ा नाराज हो जाता था। वह उसे कभी नाराज नहीं होने देती। जैसा लड़की ने बताया - वह जल्दी से थरमस में चाय भरती और रोज अपनी माँ के सामने एक झूठी पंक्ति दोहराती - माँ! मैं ‘अपनी दोस्त’ के पास जा रही हूँ, जल्दी लौट आऊँगी।” यह उसकी एक सहेली थी जिसके नाम का वह बहाना करती थी। सहेली का घर पहाड़ी के रास्ते में ही पड़ता था लेकिन उसके पास रुकना बहुत कम होता था। 
वह अपनी स्कूटी उठाती और सीधे पहाड़ी की तरफ निकल जाती थी। 

3
मोर के साथ प्रेम को जोड़ते हुए लड़की ने शब्द आगे बढ़ाए। उसने प्रेम और प्रेमी के बारे में बताना शुरू किया। मैंने भी प्रेम से जुड़े अपने सारे शब्दों और छवियों को समेटकर इकट्ठा कर लिया ताकि उसका साथ दे सकूँ। देवता की तरह मैं कोई महान प्रेमी या प्रेम का ऐसा दृष्टा तो कभी नहीं रहा लेकिन शायद प्रेम ही वह भावना है जिसके लिए किसी को किसी ‘सिंहासन’ की जरूरत नहीं होती, बल्कि प्रेम के बारे में वे सबसे अधिक सोचते हैं जिनके जीवन में प्रेम का स्थान थोड़ा कम रहा हो या रहकर मिट गया हो। इससे पहले कि शब्द आगे बढ़ें, मैंने उससे प्रेम का वह दूसरा ‘पर्याय’ शब्द पूछा जो उसके दिमाग में सबसे पहले आता हो। “वह कौन-सा शब्द है?”- मैं उसके प्रेम को समझने के लिए वह शुरुआती शब्द समझ लेना चाहता था जो उसके अर्थ के रूप में उसके जीवन में मौजूद रहा हो। 
“फूल” - उसने जवाब दिया “मेरे प्रेम की शुरुआत फूलों से हुई थी।”
यह सुनकर उसके प्रेम को पढ़ने में आसानी हुई। यह सुनकर अनायास ही मुझे एक सनकी आदमी के कुछ किस्से याद आए जिसके प्रेम की शुरुआत एक ‘पौधे’ से हुई थी। वह ‘प्रेम’ के पर्याय में ‘पौधे’ शब्द को देखता था। यह समानता पाकर मैंने उसे उस आदमी के बारे में बताया- लोग कहते हैं एक बार उसने एक पौधा लगाती हुई लड़की को देखा और सिर्फ देखकर ही वह उसके प्रेम में पड़ गया। वह संभवतः उस इमेज में अटक गया था - ‘अहा! पौधा लगाती हुई लड़की।’
"क्या यह संभव है?" - मैंने लड़की से पूछा। 
"पता नहीं, मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ।" - उसने जवाब दिया। 
उसने मुझे बताया कि उसे फूलों को लेकर कोई पूर्वाग्रह नहीं था बल्कि जब तक वह क्षण सामने नहीं आ गया, वह प्रेम शब्द से ही अपरिचित थी। वे कैसे फूल थे और कैसी सुगंध थी? यह जानने के लिए उसने थोड़ा अतीत में चलने की गुजारिश की, अन्य गुजारिशों की तरह मैंने इसे भी स्वीकार कर लिया। 
लगभग एक वर्ष पहले - पिछले बारिश के मौसम में लड़की ने बीसवाँ साल शुरू किया था। यही समय था जब पहली बार उसका अपनी उम्र और आकांक्षाओं से परिचय हुआ। वह जिस स्कूल में पढ़ती थी, वह पहाड़ी के उस पार कस्बे में पड़ता था। वहाँ जाने के लिए वह एक स्कूल-बस में सफर करती थी जिसमें पहली बार उसने उस लड़के को देखा। वह बारहवीं कक्षा की छात्रा थी जबकि लड़का कोई सहपाठी या स्कूली छात्र नहीं बल्कि उससे दो वर्ष बड़ा एक कॉलेज का छात्र था जिससे कुदरतन मुलाकात हुई। लड़के के पिता ने, जो शायद बसों को किराए पर देने वाला व्यवसायी था, अपनी एक बस स्कूल वालों को किराए पर दी हुई थी। वह लड़का कई बार बाइक के अभाव में इस बस का सहारा लेता था जो कई रास्तों से गुजरती हुई पहले स्कूली विद्यार्थियों को ढोकर स्कूल छोड़ती थी, उसके बाद अकेले लड़के के लिए कॉलेज के सामने से गुजरती थी। उनकी कहानी इसी बस में शुरू हुई।
मैं जब भी प्रेम कहानियाँ सुनता हूँ, सबसे अधिक उत्सुकता दो लोगों की पहली मुलाकात और मुलाकात के पहले क्षण को लेकर होती है। संसार की विशाल भीड़ में एक को दूसरे को मिला देने वाला कैसा संयोग रहता होगा? वह कौन-सी शक्ति रहती होगी जो अलग-अलग अतीतों से दो अनजान-अपरिचितों को चुनकर एक डोर में बाँध देती है?
“मेरे लिए वह सामान्य-सा क्षण था।” - लड़की ने कहा। 







उसने बताया वह अगस्त की एक सुबह थी जब बारिश की वजह से खेतों और सड़क के गड्ढों में पानी भरा था। वह कई अन्य लड़कियों के साथ थी और कीचड़ से बचते हुए बस की तरफ बढ़ रही थी। तभी उसने दो-चार बूँदें चेहरे पर गिरती हुई महसूस कीं। उसे लगा फिर से बारिश होने वाली है। उसने छाता निकाला और उसे खोलते समय आसमान की ओर देखा - वहाँ बादल दिखाई दिए। उसने गर्दन नीची की तो पहाड़ी और मंदिर दिखा, फिर छाता खोलकर सामने देखने लगी - 
उसने देखा - कोई नीली शर्ट वाला लड़का बस के दरवाजे पर हाथ लटकाए खड़ा है।
यह पहली छवि थी। 
मैंने उस क्षण को गहराई से जानना चाहा तो लड़की ने याद किया कि उस क्षण उसने साथ चलती लड़कियों की खिलखिलाहट सुनी थी। उसने बस ड्राइवर को भी मुस्कुराते देखा। उसने उस क्षण को पूरी तरह टटोलते हुए बताया कि लगभग सारे लोग सुबह की मुस्कुराहटों में गुम थे, सिर्फ स्वयं और वह लड़का ही था जो मुस्कुरा नहीं रहे थे। ‘क्या मुस्कुराते माहौल में दो अजनबियों का ना मुस्कुराना आकर्षण की पहली छवि हो सकती है?’ - मैं पूछना चाहता था लेकिन लड़की ने साफ़ कर दिया कि पहली नज़र में कोई आकर्षण नहीं हुआ, बल्कि उसे यह एक सामान्य-सी सुबह लग रही थी और अभी तक उस लड़के के बारे में कुछ नहीं सोच रही थी।
“लेकिन उसके बाद जो हुआ”- लड़की ने कहा “वह बहुत असामान्य बात थी।”
वह रोज की तरह आज भी अपनी सीट पर बैठी, रोज की तरह बैग पीठ पर ही लादे रखा और रास्ते में पड़ने वाली सारी चीजों को खिड़की से चुपचाप उसी तरह देखती रही जैसे पहले देखती आई थी - 
- सड़क से गुजरते दूसरे वाहनों को…
- घूमते घरों और खेतों को…
- पीछे छूटते पेड़ों और बगीचों को…
लेकिन जैसे ही कक्षा में पहुँची और बैग खोला तो बिलकुल अचंभित रह गई - 
“मैंने देखा कि मेरा बैग फूलों से भरा हुआ था।” - उसने बताया। 
बिना किसी त्वरित विरोध के, उसने ना सिर्फ यह आश्चर्य सबसे छुपाकर रखा बल्कि कक्षा से बाहर निकली और भागती हुई वॉशरूम चली गई। वह गौर से बैग को खँगालना चाहती थी। उसने वहाँ देखा, उसे विश्वास नहीं हुआ, वे सचमुच फूल ही थे जो जीवित कोशिकाओं की तरह हौले-हौले कुलबुलाते हुए लग रहे थे। ओह! यह कैसा आश्चर्य है? इससे पहले कि वह डरकर उन्हें कमोड में डाल दे और चेन खींच दे, उसके अंदर की आवाज़ ने कहा कि ये तो कोई रोमांचक और बहुत भली-सी चीज है। उसने फूलों को छूकर देखा - वे बहुत मासूम और बुदबुदाते हुए-से लगे। उसने फूलों के नीचे दबी किताबें सतर्कता से बाहर निकाल लीं ताकि फूलों को कोई नुकसान ना पहुँचे। वह वापस कक्षा में आ गई लेकिन इतनी-सी देर में सबकुछ बदल चुका था। अब वह फूलों के एक नए तूफ़ान में कैद थी। उस दिन वह कुछ नहीं पढ़ पाई। उसके सामने अध्यापक बोलते रहे और वह बैग में रखे इस ‘चमत्कार’ के बारे में सोचती रही।
स्कूल के बाद - जब वह घर लौटी तो सीधे छत पर चली गई और उन्हें फिर से देखने लगी। वह ऐसे देखती रही जैसे वे कोई विचित्र चीज हों और पहली बार देखा हो। जब पहली बार लड़की ने फूलों को देखा तो फेंका नहीं, बल्कि सहेजकर रख लिया। उसने उन्हें छत पर बनी अटारी में छुपा दिया जहाँ वे घरवालों की नज़रों से बच कर रह सकते थे। उसके बाद यह आदत हमेशा के लिए साथ हो गई। 
वह रोज सुबह स्कूल जाती रही, रोज लड़का आता रहा, उसे देखकर वह बस में बैठती रही और स्कूल में बैग खोलती रही - रोज फूल मिलते रहे। 
“आप सोच सकते हैं यह उस लड़के की वजह से होता था” - लड़की ने कहा “वह रोज चलती बस में खिड़की से हाथ निकालता और रास्ते में पड़ने वाले पेड़ों से फूल तोड़कर बस्ते में डाल देता।” 
वाह! मैं सोचने लगा। वह लड़का वाकई तेज दिमाग और किस्मत वाला रहा होगा। उसकी जगह यदि मैं किसी के लिए इस तरह फूल तोड़ने की कोशिश करता तो निश्चिय ही मेरा हाथ बबूल की टहनियों से टकराया होता, या संभव था कि कोई मनचला पहलवान खिड़की से मेरा हाथ खींचता और बाहर जोरदार पटकी दे मारता। यह सिर्फ मेरे साथ संभव था। उस लड़के के साथ नहीं। वह प्रेम में भाग्य का भोक्ता था जो रोज लड़की के पीछे खड़ा होता, जैसे ही रास्ते में बगीचे आते, वह खिड़की से टकराती डालियों का फायदा उठाकर फूल तोड़ लेता और चुपके से बैग की जिप खोलकर डाल देता। 
लड़की के लिए यह एक मीठा सिलसिला था जो हर सुबह अपनी चमक के साथ चलता रहा। यह एक रोमांचक बात थी इसलिए उसने भी इसे सहजता से चलने दिया। तब एक दिन अचानक - लड़के ने फूलों को बस्ते में डालने के बजाय अपनी जेबों में भर लिया। लड़की अपने स्कूल के सामने बस से उतरी और लड़का उसके पीछे-पीछे चलने लगा। वह सड़क पर चलती हुई लड़की से बात करना चाहता था लेकिन इसके लिए साहस की जरूरत थी। वह डर रहा था इसलिए चलते समय उसकी जेबों से दो-चार फूल हिचकिचाहट के मारे टपक रहे थे। उन दोनों ने यहाँ पहली बार आमने-सामने की भेंट की। बिना कोई शब्द बोले लड़के ने फूल निकाले और लड़की के सामने पेश कर दिए। 
“वह प्रेम का कोमल प्रस्ताव था” - उसने कहा “जिसे बड़े-से डर और छोटी-सी ख़ुशी के साथ मैंने झोली में डाल लिया।” 
उसे प्रेम का यह स्वीकार तो याद रहा लेकिन किस निश्चित क्षण में प्रेम हो जाने दिया, यह बिलकुल नहीं बता सकी। यह सच था कि फूलों को देखकर आकर्षण पैदा हुआ लेकिन कब वह गहरे प्रेम में बदल गया, ऐसा कोई क्षण नोट नहीं किया। वह अब प्रेम में थी। वह नए-नए स्वप्नों में रहने लगी। उसके स्वप्नों के बारे में सुनकर मुझे लगा संभवतः फूल ही वह चीज रही होगी जिसे देखकर इंसान ने पहली बार कोई ‘स्वप्न’ देखा होगा। मुझे लगा कि हमारी आत्मा में प्रेम का विकास पौधों और फूलों के विकास की तरह होता होगा, जो होता तो सामने है लेकिन हमारी आँखें कभी उन्हें नोट नहीं कर सकतीं और फिर एक दिन अचानक पता चलता है - उस पौधे ने नए फूल दिए हैं। 
मुझे उस सनकी आदमी का एक किस्सा याद आया जो पौधा लगाती हुई लड़की को देखकर आकर्षित हुआ था। उसका आकर्षण शायद अब प्रेम में बदल गया था इसलिए वह उस स्थिति को समझने की कोशिश में रहता था। 
मैंने लड़की को यह किस्सा सुनाया -


उस आदमी के आँगन में कुछ पौधे लगे हुए थे जिन्हें वह रोज सुबह उठकर देखता था। वह पेड़-पौधों का दीवाना था लेकिन इससे पहले उसके दिमाग में कभी यह बात नहीं आई, अब क्योंकि वह प्रेम में था इसलिए एक सुबह अचानक सवाल उपजा - ये फूल हमेशा अँधेरे में क्यों खिलते हैं? ये अपना विकास इतने अदृश्य-अगोचर तरीके से क्यों करते हैं? आँखों के सामने क्यों नहीं करते? वह इस सवाल में इतना खो गया कि उसने जवाब खोजने की ठान ली। अगली रात वह टॉर्च लेकर एक स्टूल पर बैठ गया और रात-भर छोटी-छोटी कलियों और पत्तियों को देखता रहा। उसने कहीं कोई हलचल महसूस नहीं की लेकिन जब सुबह फूलों को देखा तो पाया कि परिवर्तन तो हुआ है। शाम तक जो सिर्फ कलियाँ थीं वे अब फूलों में परिवर्तित हो गई हैं और जहाँ कुछ ना था, वहाँ भी कुछ नई कलियों ने जगह बना ली है। उसे लगा कि उसके देखने में कुछ कमी रह गई।

000
ज़िया ज़मीर की कविताएँ








 गांधी 

कभी मिलो तो यह बतलाना राष्ट्रपिता
 जिनके लिए खाए थे डंडे
जिनकी खातिर जेल गए थे
जिनके कारण जान गंवाई
उनके मुख  से
अपने ऊपर बने लतीफे
सुनकर तुम को
कैसा लगता है





 बिटिया


नन्ही सी गुनगुनी हंसी से
घर आंगन महकाने वाली
भोली सी दो आंखों में सब
सपने सिमटा जाने वाली
बादल की गर्जन सुन सुनकर
गोद को गोद बनाने वाली
हल्की सी इक चोट के कारण
घर भर को घबराने वाली
जीतने वाली हर कक्षा में
अव्वल अव्वल आने वाली
जल्दी-जल्दी खेल कूद कर
मां का हाथ बंटाने वाली
पापा के गंदे जूतों को
पाॅलिश से चमकाने वाली
अम्मा के घुटनों पर मरहम
आधी रात लगाने वाली
बाबा के टूटे चश्मे को
बारिश में जुड़वाने वाली
भाई को अपने से बेहतर
मानने और मनवाने वाली
अपने प्यार की ख़ाक उड़ा कर
घर की लाज बचाने वाली
रिश्तों को सहलाने वाली
रंगों को बिखराने वाली
ख़ुशबू को फैलाने वाली
रौशनियां चमकाने वाली
बिटिया को, मम्मी-पापा ने
एक नए भइया की ख़ातिर
कोख में ही बर्बाद किया है
और ख़ुद को आज़ाद किया है





अपने धर्म के नेता वाला


बटन दबाकर
मैंने फिर मतदान किया है

चेहरे पर, आंखों में खुशी है
वह मेरी ही बात सुनेगा
मेरा ही कल्याण करेगा

मेरे दोस्त ने
अपने धर्म के नेता वाला
बटन दबाकर
ऐसी ही कुछ आस रखी है

दोनों खुश हैं
दोनों को मतदान में अपनी
जीत दिखी है

धरती मां अपने बेटों की
सोच पे थोड़ी देर हंसी है
इसके बाद वह रोने लगी है






गलियां


इमली टॉफी चूरन वाली
ठंडी कुल्फी वाली गलियां

ऊंच-नीच पोशमपा वाली
छुपन-छुपाई वाली गलियां
रंग बिरंगी चुस्की वाली
नानखटाई वाली गलियां

कंचे टायर गुल्ली डंडे
रोज़ मिठाई वाली गलियां
डांट डपटने वाले आंगन
और पिटाई वाली गलियां

एक खंडर में धूप भरे दिन
सांझ से सोने वाली गलियां
नाली में चप्पल गिरने पर
रोने धोने वाली गलियां

चौबारों पर बूढ़े हुक्के
उनमें पानी भरती गलियां
रात में पीपल के साए को
देख देख के डरती गलियां

कड़वे तेल में चुपड़ी चोटी
काजल में शर्माती गलियां
क़लम दवात और तख्ती लेकर
आंगनबाड़ी जाती गलियां

इन पक्की आंखों में आकर
कहती हैं ऐ बूढ़े बच्चे!
फोरलेन की सड़कों पर जब
चलते-चलते थक जाए तो
दो दिन की छुट्टी लिखवाकर
मेरी गोद में रहने आना




 बेटी नाम का पौधा... 


नर्सिंग होम के इक कोने में
छोटा सा एक लॉन पड़ा था
जिसमें थोड़ी घास उगी थी
पास में ही इक बोर्ड टंगा था
बोर्ड पर इक जुमला लिक्खा था
जुमले पर कुछ धूल जमी थी
फोटोग्राफर आ पहुंचा था
मैडम को संदेश गया था
मैडम जल्दी-जल्दी आईं
बेटी नाम का पौधा रक्खा
उस गड्ढे में जो पहले से
नौकर ने तैयार किया था
पौधा लगाया पानी दिया फिर
वी फाॅर विक्ट्री साइन बना कर
अच्छा सा फोटो खिंचवाया
हाथ झाड़ते वापस भागीं
फोटोग्राफर ने नौकर से
पूछा-मैडम जल्दी में हैं
बोला इक इक पल भारी है
ओ टी में सब तैयारी है
एबॉर्शन के चार केस हैं
००
ज़िया ज़मीर की कहानी: एक जोड़ी पान, नीचे लिंक पर पढ़िए

https://bizooka2009.blogspot.com/2018/08/blog-post.html?m=1




परिचय 

नाम : ज़िया ज़मीर 
पिताजी का नाम: श्री ज़मीर दरवेश ( प्रसिद्ध शायर)
जन्मतिथि: 07.07.1977 
जन्म स्थान: सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) 
शिक्षा: एम. एस-सी (मैथ्स), एल. एल. बी.,  एम. ए. (उर्दू)
व्यवसाय: कर अधिवक्ता
साहित्यिक साधना: वर्ष 2001 से। 
साहित्य की विधाएं: ग़ज़ल, नज़्म, नात, आलोचनात्मक आलेख, समीक्षाएं, कथा, लघुकथा, विश्लेषणात्मक लेख। 
प्रकाशित पुस्तकें: 1. ख़्वाब ख़्वाब लम्हे(ग़ज़ल संग्रह) 2010 
2. दिल मदीने में है  (नात संग्रह) 2014 
पुरस्कार: 1. ग़ज़ल संग्रह  बिहार उर्दू अकादमी द्वारा पुरस्कृत। 
2. नात संग्रह उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी द्वारा पुरस्कृत। 
3. नात संग्रह हम्द ओ नात फाउंडेशन मुरादाबाद द्वारा पुरस्कृत। 
विशेष: 1. सेमिनार, कवि सम्मेलनों,  मुशायरों में प्रतिभाग। 
2. आकाशवाणी और दूरदर्शन पर रचनाओं का प्रसारण। 
3. हिंदी उर्दू के राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय समाचार पत्रों एवं साहित्यिक पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन। 
सम्पर्क: निकट ज़ैड बुक डिपो, चौकी हसन ख़ां, मुरादाबाद। 
मो.  08755681225
email: ziazameer2012@gmal.com
धर्मनिरपेक्षता बनाम हिन्दुज्म - एक संघर्ष
उदय चे

उदय चे

भारत के संविधान की प्रस्तावना कहती है कि-
       "हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को :
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए,
दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ई0 (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, सम्वत् दो हजार छह विक्रमी) को एतदद्वारा
इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।"


           प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता

            ये शब्द सिर्फ शब्द नही है। इन शब्दों का बहुत व्यापक अर्थ है। इन शब्दों को संविधान में शामिल करने के लिए बहुत संघर्ष हुआ है। संघर्ष की एक तरफ जहां इन शब्दों को सविधान में शामिल करने के लिए मजदूर, किसान, महिला, अल्पसंख्यक, दलित, आदिवासी, प्रगतिशील बुद्विजीवी, कलाकार, लेखक खड़े थे वही दूसरी तरफ इनके खिलाफ, सामन्तवादी, राजशाही के समर्थक, फासीवादी, हिंदुत्वादी, जातिवादी खड़े थे।
जीत धर्मनिरपेक्ष मेहनतकश आवाम की हुई क्योंकि इस आवाम ने ही गुलामी की जंजीरे तोड़ने के लिए कुर्बानियां दी थी। देश के इस आवाम का आजादी का सपना सिर्फ अंग्रेजो से आजादी ही नही था, सामन्तवाद औऱ राजशाही जिनका आधार ही जातीय औऱ धार्मिक शोषण पर टिका था, से भी आजादी का सपना था। उसी सपने औऱ संघर्ष की कुछ झलक संविधान में इन शब्दों में निहित है।

लेकिन क्या जमीनी स्तर पर भारत का संविधान काम कर रहा है?
क्या देश इतने सालों बाद भी लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्ष राज्य बन पाया है? क्या संविधान में निहित विचार, अभिव्यक्ति, धर्म की उपासना को लागू कर पाया है?
भारत के संविधान को लागू करवाने वाली शक्तियां भारत के सविधान को लागू करने में जानबूझकर फैल हुई। क्यों?
संविधान के लागू होने से अब तक जितनी भी सरकारे सत्ता पर काबिज रही उन सभी ने संविधान के खिलाफ गैरजिम्मेदाराना व्यवहार अपनाया। इन सभी सरकारों ने हिन्दुज्म के नाम पर साम्प्रदायिक राजनीति करने वालो औऱ उनके संघठनो के आगे घुटने टेके है। इन सभी ने समय-समय पर अल्पसंख्यको के खिलाफ साम्प्रदायिक दंगे करवाये।
2014 में हिन्दुज्म के नाम पर राजनीति करने वाली पार्टी जब से सत्ता में आई है तब से ही पूरे देश मे मुस्लिमो, दलितों, आदिवासियों, बुद्विजीवियों, कलाकारों, लेखकों पर हमलों की बाढ़ सी आ गयी है। इनके खिलाफ सत्ता द्वारा प्रायोजित युद्ध चल रहा है। गाय के नाम पर मुस्लिमो की हत्या, छात्रों, पत्रकारो, लेखकों व लेखिका गौरी लंकेश की हत्या, स्वामी अग्निवेश पर जानलेवा हमला करने के बाद,
 ताजा घटना हरियाणा के टिटौली गांव की है, जो रोहतक जिले में है। गांव पंचायत द्वारा मुस्लिम धर्म को मानने वालों के खिलाफ जो 4 दिन पहले फरमान सुनाया गया है को देखकर तो नही लगता कि भारत का सविधान काम कर रहा है।
भारत के मुख्य न्यूज पेपर पंचायत के इस फरमान को अपने पेपर के पहले पन्ने पर जगह देते है। लेकिन भारत के सविधान के खिलाफ फरमान सुनाने वाली इस पंचायत के खिलाफ भारत की कार्य पालिका चुप है, न्याय पालिका चुप है,  हरियाणा और केंद्र की सरकार जो संघी विचार से चलती है चुप है। इससे पहले भी गाय के नाम पर भीड़ द्वारा की गई हत्याओं पर ये सब चुप रहे है।
संघ सर संचालक जो 4 दिन पहले ही हिंदुइज्म की व्याख्या करते हुए बोल रहे थे कि हिंदुइज्म में मुस्लिम न हो तो वो हिंदुइज्म ही नही है।
"इनके हिन्दुज्म में मुश्लिम तो होंगे लेकिन वो मुस्लिम नही रहेंगे।"
उनका हिन्दुज्म ये ही है कि मुस्लिम अगर भारत मे रहे तो उनको अपने धर्म के रीति रिवाज, उपासना छोड़ कर हिन्दू रीति-रिवाज औऱ उपासना माननी पड़ेगी।
सर संचालक ने अपने सम्बोधन में डॉ अंबेडकर और भारत के सविधान की बहुत सराहना की है। लेकिन जमीनी सच्चाई क्या है ये टिटौली गांव की घटना से साफ दिख रही है।
"हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और"
      हरियाणा के टिटौली गांव में 22 अगस्त को बकरीद के दिन एक गाय ने बच्ची को टक्कर मार दी, बच्ची के चाचा यामीन ने गाय को डंडे से मारा। डंडे लगने से गाय की मौत हो गयी। मरी हुई गाय को जब बच्ची का चाचा व परिवार के लोग गांव के बाहर दफनाने जा रहे थे तो गांव के शरारती तत्वों ने गांव में अफवाह फैला दी कि ईद के दिन गांव के मुस्लिम गाय काटने के लिए गाय को मार कर गांव की बणी में ले गए है।
पूरे मामले की सच्चाई जाने बिना गांव में भीड़ इकट्ठा हो गयी और इस भीड़ ने मुस्लिम परिवारों के घर मे तोड़फोड़ व मारपीट की, गाय मारने के आरोपित व्यक्तियों को पोलिस ने गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद भी भीड़ का तांडव नही रुका, भीड़ ने गाय को जबरदस्ती मुस्लिमो के कब्रिस्तान में दफनाया।
बहुत से परिवार डर के मारे गांव से पलायन कर गए। उसके बाद से ही गांव में गऊ रक्षा के नाम पर तांडव करने वाले गुंडा टोल जो पूरे देश मे सक्रिय है, जिनको संघी सरकारों व विपक्ष का खुला समर्थन है। जो बहुत जगह भीड़ का सहारा लेकर मुस्लिमो को मार चुके है ये सब टिटौली गांव में भी सक्रिय हो गए। इनके प्रयासों से ही गांव में एक पँचायत का आयोजन होता है। पंचायत ये फरमान सुनाती है कि
आरोपित व्यक्ति को गांव से आजीवन बाहर किया जाता है।
गांव के मुस्लिम नमाज नही पढ़ेगे औऱ न ही बाहर से कोई मुल्ला गांव में इनके धार्मिक रीति-रिवाज में नमाज पढ़ने आएगा।
गांव के मुस्लिम अपने बच्चों के नाम अरबी या उर्दू भाषा के नाम नही रखेंगे।
मुस्लिमो के कब्रिस्तान की जगह को बदल कर गांव से बाहर कोई अन्य जगह दी जाएगी।
कोई भी मुस्लिम दाढ़ी व टोपी नही रखेगा।
क्या ये फरमान भारत के सविधान की मूल प्रस्तावना -
   "भारत का सविधान हर व्यक्ति को अपने पसन्द के किसी भी धर्म का उपासना, पालन और प्रचार का अधिकार है। सभी नागरिकों, चाहे उनकी धार्मिक मान्यता कुछ भी हो कानून की नजर में बराबर होते हैं।" के खिलाफ नही है?
लेकिन संविधान की कसम खाने वाले विधायक, सांसद, जज, कर्मचारी इस फरमान के खिलाफ चुप है। क्यों?
"हम भारत के लोग" वाक्य से शुरू होने वाले सविधान के हम भारत के लोग चुप है। क्यों?
इसका सीधा और सरल उत्तर है कि कार्यपालिका, न्याय पालिका औऱ भारत की सत्ता पर बैठे ये सभी बहुसंख्यक हिन्दू है ये अपनी लूट को जारी रखने के लिए, असमानता पर आधारित धर्म के नियम-कायदों से देश को चलाना चाहते है। ये मनुस्मृति से देश को चलाना चाहते है।
इनके हिन्दुज्म में दलित, मुस्लिम, आदिवासी, महिला, मजदूर, किसान दोयम दर्जे का नागरिक होगा। इन सबको कोई सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक अधिकार नही होंगे।

देश का मेहनतकश अपने जनाधिकारों के लिए न लड़े, अपने क्रांतिकारी पूर्वजो द्वारा जोड़ी गयी सार्वजनिक सम्पति को लुटेरे पूंजीपति से बचाने के लिए न लड़े, जल-जंगल-जमीन के लिए न लड़े, अपने बच्चों के भविष्य के लिए आवाज न उठाये, जिनको पूंजीपति गुलामी की बेड़िया पहनाना चाहता है। इन लड़ाई से आपका ध्यान भटकाने के लिए आपको धर्म-जात-गोत्र-इलाका के नाम पर बांट कर खूनी भीड़ का हिस्सा बनाया जा रहा है।



आज जो हमको इन धार्मिक आतंकवादियों द्वारा धर्म का नशा करवाकर, धर्म का चश्मा पहनाकर जो कातिलों की भीड़ में शामिल किया जा रहा है।
आप आज जो मुस्लिमो का कत्लेआम कर रहे हो या भीड़ के कृत्यों पर खामोश हो। भीड़ का हिस्सा बन जो आप हुंआ-हुंआ कर खुशी का उन्माद कर रहे हो।  ये मानवता के खात्मे की तरफ बढ़ रहे हो।
आने वाले दिनों में ऐसी ही भीड़ आपके व आपके बच्चों के खिलाफ खड़ी मिलेगी आपका खून पीने के लिए, जब आप खड़े होंगे, मजदूर-किसान, दलित, आदिवासी के रूप में अपने अधिकारों के लिए।
उस समय तक सायद ही ये सविधान के मानवतावादी शब्द भी आपके लिए न बचे। इसलिए आप सबको फैसला करना है कि आपके पूर्वजो की लाखों कुर्बानियों के बाद बने धर्मनिरपेक्ष संविधान को बचाना औऱ उसको लागू करवाने के लिए भीड़ का हिस्सा बनने की बजाए ऐसी भीड़ का विरोध करोगे या फिर हिन्दुज्म के जाल में फंस कर दोबारा गुलामी की बेड़ियों में खुद जकड़ जाओगे।
००

उदय चे का एक और लेख नीचे पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/03/23-24-3-18.html?m=1


परख उन्नीस



कोई बात छू जाती है जब!

मनोज चौहान


कवियों की भीड़ में मनोज चौहान निरन्तर क्रियाशील हैं और सजग भी। बाजारवाद के इस युग में कविता का भी बाजारीकरण हुआ है। कुछ चुस्त और चालाक कवि कविता का विज्ञापन करके इस बाजार में टिके रहना चाहते हैं। उन्हें यहां के नियम पता हैं। परन्तु यह भी सत्य है कि समय अपना काम करता है। यह बड़ा बलवान है। कवि ने ठीक कहा है-

हर रोज खुलता है बाज़ार
और शाम को बंद होते होते छोड़ जाता है कई सवाल।

मनोज चौहान की कविताएं अपनी स्मृतियों के भीतर से उपजती हैं। कवि बीते समय से गुजरते हुए अनुभवों को शब्द देता है जो सतही नहीं हैं। मनोज की रचनाएं आदमी के पत्थर होने और संवेदनहीनता की पड़ताल करती कविताएं हैं। कविता में स्थानीयता और भोलापन अभी हिंदी कविता में बचा हुआ है। सही भी है कि अगर कविता को बचाना है तो उसके प्राणतत्व स्थानीयता को बचाना होगा-

चाय और सत्तू देने आई पत्नी
जब लौटती है
तो वो पुनः खो जाता है
पहाड़ी जीवन के गणित को सुलझाने में।

मनोज चौहान की अधिकांश कविताओं की पृष्ठभूमि में पार्श्वसंगीत की तरह मनुष्यता की पीड़ा और उसके अवसाद की अनुगूंज अनवरत सुनाई देती रहती है। जीवन की पीड़ाओं से लड़ना कविता ही सिखाती है। कवि कहते हैं-

देखना कभी नजदीक जाकर
उस पहाड़ी औरत के हौंसले को
जब वह खींचती है झूले को
और पार कर जाती है उफनती नदी को।

कवि का मन बेचैन रहता है। उसके अंदर तोड़ फोड़ चलती रहती है। मनोज  सृजन के दौरान अत्यंत सजग और सतर्क नज़र आते हैं। इसलिए उन्होंने अपनी कई कविताओं में कविता के उद्देश्य को उदघाटित किया है। अपनी एक कविता में वो लिखते हैं-

कोई बात छू जाती है जब
हृदय तल की गहराइयों को
या कभी
पीड़ा और तकलीफ़ देते दृश्य
कर देते हैं बाध्य
भीतर के समुद्र में
गोता लगाने के लिए

जन्म लेती है
इस तरह एक कविता।

हम जब अपने असपास के वातावरण को देखते हैं तो पाते हैं कि आज सर्वाधिक पतन मानव मूल्यों का हुआ है। हम अधिक संवेदनहीन हुए हैं। जबकि इंसान के अलावा अन्य सभी प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर चलते हैं। लेकिन इंसान अपनी मनमर्जी करना चाहता है। इस कारण शोषण भी बढ़ता जा रहा है। हां उसका तरीका अवश्य बदल गया है। ऐसे में स्वाभाविक है कि कवि का हृदय खोई हुई सम्वेदना और गिरते मानव मूल्यों की पड़ताल करता है-

मैं पिरो देना चाहता हूं
कविता की इन चन्द पंक्तियों में
शोषण के शिकार
उस मजदूर की व्यथा को।

सदियों से गरीब का शोषण अमीर करता आया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि आदमी के बीच से संवेदनाएँ गायब होती जा रही हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि इंसान को बचपन से ही इस खतरनाक संवेदनहीनता से कैसे बचाया जाए-

और जब उफान
हो जाता है बेकाबू
तो सोच के समुंदर से
उड़ेल देता हूँ चंद बूंदे
शीतल जल की मानिंद।

इस संवेदनशीलता के पानी को बचाए रखना बेहद जरूरी है।
कवि की दुनिया सामान्य लोगों की दुनिया से अलग होती है। जहाँ सामान्य आदमी की सीमित दुनिया होती है, वहीं कवि की दुनिया अत्यंत विस्तार लिये होती है। कवि की गहन अनुभूति से ही कुछ सम्वेदना के स्वर फूटते हैं । कवि की संवेदना आम आदमी की संवेदना बन जाती है। शोषण का विरोध न करना भी एक किस्म का अपराध है। मनोज ने ठीक कहा-

जीवन और शतरंज में
आता नहीं है ठहराव कहीं भी
हर कदम पर
सतर्क रहते लड़ना होगा।

कवि चुप्पी की संस्कृति को खतरनाक मानते हैं। क्योंकि सब कुछ सहन कर जाना व्यक्ति को अपराधी की श्रेणी में ला देता है। समाज को सही दिशा देने का काम मौन होकर नहीं, मुखर होकर किया जा सकता है। इसलिए कविता की अपनी महत्वपूर्ण भूमिका है। अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना भी कवि का कर्म है। स्वस्थ समाज का निर्माण तभी संभव है जब हम सब मिलकर ठोस योगदान दें। सच का साथ दें-

सच कभी मरता नहीं
गुम हो जाता है बेशक।

सच मरा नहीं
सुकरात को ज़हर देकर भी।

जीवन के कठोर संघर्ष के दिनों में भी मनोबल ऊंचा बनाए रखना सकारात्मक सोच की ही उपज है। कविता दरअसल अंधेरे में रोशनी की तरह उम्मीद की किरणें हैं। कविता के भीतर अनकही बातों का संकेत भी स्पष्टता से आना चाहिए। सरलीकरण कविता का आवश्यक गुण है लेकिन कई बार विषयानुसार कविता को सरलीकरण से बचाने का प्रयास भी होना चाहिए। मनोज की भाषा एकदम सरल है। कविताओं में बिम्बों, रूपकों और प्रतीकों की कमी खलती है। शैली और शिल्प साधारण होते हुए भी काव्य भाव आकर्षित करता है-

याद आती हैं
खाना खाते समय
पिता की दी गई नसीहतें
दादी की चिंताएं।

दादा का
हुक्का गुड़गुड़ाते हुए
लेना रिपोर्ट सभी से।

कवि ने अपनी कविताओं में अत्यंत मोहक और विषयानुकूल शब्दों का चयन किया है। सभी कविताओं में एक बेहतरीन प्रवाह है, जो काव्य-पाठ सा आनंद देता है। कई कविताएँ समाज और संस्कृति पर थोड़ा रुककर सोचने की मांग करती हैं और बेहतर मनुष्य बनने की सिफारिश। बहुत सी मुश्किलें तो वैसे ही हल हो जाएंगी यदि मनुष्य अच्छा बन जाए। कुछ कविताएं मार्मिक हैं और हृदय को बड़ी ही गहराई तक स्पर्श करती हुई आगे बढ़ती हैं-

वक्त का दीमक
कर जाता है जर्जर
हर उस चीज को
जिन्हें छोड़ दिया जाता है
तन्हा और उपेक्षित।

एक बार की बात है, दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा कि वो आज जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढाने वाले हैं। उन्होंने अपने साथ लाया हुआ एक बड़ा जार टेबल पर रखा और उसमें टेबल टेनिस की गेंदें डालने लगे। वो तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची। उन्होंने छात्रों से पूछा - क्या जार पूरा भर गया? सबने हाँ कहा। फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने छोटे-छोटे कंकर उसमें भरने शुरु किये , धीरे-धीरे जार को हिलाया तो काफ़ी सारे कंकर उसमें जहाँ जगह खाली थी , समा गये , फ़िर पूछा , क्या अब जार भर गया है ? छात्रों ने एक बार फ़िर हाँ कहा । अब प्रोफ़ेसर साहब ने रेत की थैली से हौले-हौले उस जार में रेत डालना शुरु किया , वह रेत भी उस जार में जहाँ संभव था बैठ गई , अब छात्र अपनी नादानी पर हँसे। फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्यों अब तो यह जार पूरा भर गया ना ? हाँ.. अब तो पूरा भर गया है,  सभी ने एक स्वर में कहा। प्रोफेसर साहब ने टेबल के नीचे से चाय के दो कप निकालकर चाय जार में डाली , चाय भी रेत के बीच पड़ी थोडी़ सी जगह ने सोख ली।  प्रोफ़ेसर साहब ने गंभीर आवाज में समझाना शुरु किया - इस जार को तुम लोग अपना जीवन समझो। टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्वपूर्ण भाग अर्थात परिवार , बच्चे , मित्र , स्वास्थ्य और शौक हैं। छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी , कार , बडा़ मकान आदि हैं और रेत का मतलब छोटी-छोटी बेकार की बातें , मनमुटाव , झगडे़ आदि है। अब यदि तुमने काँच की बरनी में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस की गेंदों और कंकरों के लिये जगह ही नहीं बचती , या कंकर भर दिये होते तो गेंदें नहीं भर पाते , रेत जरूर आ सकती थी...ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है। यदि तुम छोटी-छोटी बातों के पीछे पडे़ रहोगे और अपनी ऊर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों के लिये अधिक समय नहीं रहेगा। मन के सुख के लिये क्या जरूरी है? यह तुम्हें तय करना है । अपने बच्चों के साथ खेलो , बाग में पेड़ों को पानी दो, सुबह पत्नी के साथ घूमने निकल जाओ , घर के बेकार सामान को बाहर निकाल फैंको, अपने स्वास्थ्य पर ध्यान दो। टेबल टेनिस गेंदों की फ़िक्र पहले करो , वही महत्वपूर्ण हैं। बाकी सब तो रेत है। छात्र बडे़ ध्यान से सुन रहे थे कि अचानक एक ने पूछा , सर लेकिन आपने यह नहीं बताया कि " चाय के दो कप" क्या हैं ? प्रोफ़ेसर मुस्कुराये और बोले, मैं सोच ही रहा था कि अभी तक यह सवाल किसी ने क्यों नहीं किया। इसका उत्तर यह है कि  जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे , लेकिन अपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिये ।
आज जीवन में हम यही अंतिम बात सबसे अधिक भूल जाते हैं। मित्रता स्वार्थ के दिनों में तो खूब फलती फूलती देखी जा सकती है परन्तु निःस्वार्थ प्रेम और मित्रता दुर्लभ है। जीवन में यदि कुछ भरपूर है तो वो है रेत। कवि ने ठीक ही कहा कि जीवन में उपेक्षित चीज़ों को समय का दीमक जर्जर कर देता है। मनोज की कविताएं स्थानीयता से सराबोर हैं। इनमें पहाड़ की ठंडी बयार है और खेतों की खुशबू भी-

महज़ खेत नहीं हैं
ये तो मूल्यों और संस्कारों की पाठशाला के
खुले अध्ययन कक्ष हैं।

कवि सूखते जलस्रोतों, घटते जंगलों, मिटते खेतों और टूटते सम्बन्धों को देखकर चिंतित है।उसके मन में विचारों की उथलपुथल अनवरत चलती रहती है। कवि थोड़ा विराम देना चाहता है, थोड़ा आराम करना चाहता है ताकि वैचारिकता को नई ऊर्जा मिल सके। कभी कभी ठहराव अच्छा होता है, भीतर का ठहराव-

मैं पाता हूँ कभी कभार
एक ठहराव अपने भीतर।
००

गणेश गनी

परख अठारह नीचे लिंक पर पढ़िए

प्रजा आमोट कर रही है ! 
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/09/avalanche-2-10-79-75-60.html?m=1


-गणेश गनी
भुट्टी कॉलोनी
शमशी, कुल्लू
175126

9736500069

29 सितंबर, 2018


फ़िल्म: स्त्री
  दिल के दर्जी कहाँ मिलते हैं...
रश्मि मालवीय


दिल के दर्जी कहां मिलते हैं , अगर होते तो शायद सबसे ज्यादा भीड़ वहीं होती....दिलों की सिलाई बहुत कमजोर घागे से हुई होती है आसानी से उधड़ जाती है । खैर...
फिल्म में मध्यप्रदेश के बहुत प्रसिद्ध शहर चंदेरी की गलियों में घूमते हुए आप देख सकते हैं की भारत की असल खूबसूरती इन  गाँव की पगडंडियों में ही है जिनके पास हैं ये अभी तक, वो सौभाग्यशाली हैं।ये  वही चंदेरी है जिसे स्त्रियों की मनपसंद साड़ियों के लिये जाना जाता है।कहानी भी एक स्त्री के इर्द गिर्द ही घूमती है । फ़िल्म का नाम है "स्त्री"

अमर कौशिक इसके निर्देशक है जो बहुत मेहनत से इस फ़िल्म रूपी जहाज को तमाम लहरों से पार कराते हुए किनारे तक पहुँचा देते हैं। जहाज का कप्तान मजबूत हो तो सफर सुहाना होता है और सुरक्षित भी। 
निर्माता दिनेश विजन, राज निदिमोरु और कृष्णा डीके हैं।
लेखक सुमित अरोड़ा (संवाद) जो इस जहाज की पतवार हैं और  बखूबी उन्होंने इसे किनारे पहुँचाते है।

एक किवंदिति मानी गई है कि एक समय कभी वहाँ कोई स्त्री थी जिसे जीवन में लोग तो बहुत मिले लेकिन जैसा कि अक्सर होता आया है सच्चा प्यार नही पा पाती और जब पाती है तो शहर को हजम नहीं होता वे दोनों मारे जाते हैं यहीं से वो स्त्री एक चुड़ैल के रूप में शहर के पुरुषों के लिये जानलेवा बन जाती है। फ्लोरा सैनी- "स्त्री" के रूप में हैं। जो बहुत शानदार हैं।



शहर के हर घर में लिखा दिया जाता है "स्त्री कल आना"। जो नई पीढ़ी को नागवार लगता है और वो पूरे जोर से प्रतिशोध भी करते हैं लेकिन एक के बाद एक घटनाओं के बाद उन्हें भी कुछ मानने के लिये बाध्य होना पड़ता है ।किसी भी बात को जब मान लिया जाता है तब उसे दूर करने के उपाय भी मनुष्य खोजता ही लेता है ।ये जो है मानना है यही महत्वपूर्ण है।

कहानी में जितना पुरानापन है  फ़िल्म में उतना ही नयापन और दमदार शैली है।
इस फ़िल्म को देखना इसलिये भी जरूरी हो जाता है की जीवन कुछ कुछ इसी तरह का है जहाँ तक नज़र जाए वहाँ तक मुसीबत और दुख की परछाई ,इन्ही रोने के कई कारणों में से एक कारण ढूंढना जो थोड़ा हंसा दे ।ये वो फ़िल्म है।
बात ये भी है की इसकी बुनावट कुछ इस तरह की गई है की अन्य भूतों और तथाकथित डरावनी फ़िल्म जहाँ वीभत्सता परोसती हैं और कई कड़वे दृश्य छोड़ जाती हैं मानसपटल पर ।
ये फ़िल्म आपको खूब हल्के और रोचक तरीके से अपनी पूरी स्वाभाविकता से हंसाने का माद्दा रखती है।
इसकी सहजता और सरलता ही इसकी  देखे जाने की ताकत है।

बेचारी स्त्री ,उसे भूत बनकर भी डाँट ही मिली खाने को..
लेकिन जो डाँटता है सबसे अच्छी बात है की वो समझता भी है ....
ये कम बात बिल्कुल भी नहीं है!!

स्त्री को सहन करने की मशीन माना जाता है लेकिन कभी कभी वही जीती जागती मशीन मना कर देती है की बस !!
अब और नहीं !!
ये कहानी यहीं से शुरू होती है ,ये चेतावनी भी है की पार जाने के बाद भी कुछ किस्से अधूरे नहीं छोड़े जा सकते और मार कर भी मारा नहीं जा सकता हमेशा।


राजकुमार राव देखने में लगता है अरे ये तो अगली गली में रहने वाला कोई साधारण सा लड़का है जो अन्य सभी की तरह लड़की के  देख भर लेने से तो जान भी दे  दे। साधारण से कपड़े ,अत्यंत साधारण रहन सहन और उससे भी ज्यादा सहज सरल बोलचाल।
श्रद्धा कपूर अपने सभी भाव खूबसूरती से बचा बचा कर खर्च करती है और अंत तक भुलावे में रख पाती है सभी को। कहने से ज्यादा आँखो से बातें ज्यादा करती दिखाई देती हैं।

अन्य कलाकारों  में  पंकज त्रिवेदी की साधारणता ही उनकी असाधरणता बन जाती है। उनकी उपस्थिति आश्वस्त करती है ।
अपारशक्ति खुराना ,अभिषेक बैनर्जी सहित सभी पात्र कोई कसर नहीं छोड़ते फ़िल्म को आसानी से आगे ले जाने में...

अंत में अंत कुछ और आसान होता तो ज्यादा अच्छा हो सकता था। हालाँकि अगले साल स्त्री आने पर देखती है शहर के दरवाजे पर लिखा देखती है "स्त्री रक्षा करो"और वापस चली जाती है।स्त्री सम्मान पाने की ही अभिलाषा रखती है मरने के बाद भी।
हर स्त्री को उसका प्यार मिले इस स्त्री के साथ साथ ...
और वो भी अपने पूरे वजूद और मर्यादा के साथ!!
आमीन!!

बस एक बात खटकती है की फ़िल्म का संगीत साधारण है जो सचिन -जिगर ने दिया है  ऐसा कोई गीत नज़र नहीं आता जो ज़बानों पर चढ़ा देखा गया हो।  जो 4 गीत  है वो अनावश्यक नहीं लगते  देखे जा सकते है ।
******


 परिचय-
रश्मि मालवीय
415/A, तुलसीनगर, इंदौर
452003
7869546149
समाज शास्त्र में परास्नातक
लाइब्रेरी साइंस में स्नातक
शिक्षा में स्नातक
पिछले 13 वर्षों से पुस्कालयध्यक्ष के पद पर कार्यरत
हिंदी  साहित्य से लगाव
पत्रिकाओं एवं  वेब पत्रिकाओं में कविता प्रकाशित




27 सितंबर, 2018

  मैं क्यों लिखता हूँ

 बद्री सिंह भाटिया


बद्री सिंह भाटिया


मैं क्यों लिखता हूँ, यह सवाल मेरे सामने कई बार आया। पहली बार वर्ष 1983 में शिमला में अखिल भारतीय लेखक सम्मेलन आयोजित हुआ था। उसमें एक सत्र इसी सवाल पर था। तब मैं साहित्य की दुनिया में एक खेल दर्शक मात्र था। आयोजकों का आदेश मानने वाला। बडे-बड़े लेखकों, विचारकों ने गोल मेज के गिर्द इक्ट्ठा हो अपने-अपने विचार प्रकट किए थे। मैं पिछली कुर्सियों पर बैठा था। उन्होंने जो विचार प्रकट किए उनमें से कुछ पल्ले पड़े कुछ नहीं। उसके बाद यह सवाल मुझसे हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में एक रिफ्रेशर कोर्स में कहानी पाठ के समय भी पूछा गया था। मुझे यह सवाल आज भी उतना ही कठिन लगता है, जितना पहली बार सुनने में और दूसरी बार सीधे पूछने पर। संभवतया एक दो बार कालांतर में भी पूछा गया हो ठीक से स्मरण नहीं। पहली बार जब सुना तो मन ने कहा-सही बात है। क्यों लिखते हैं हम? ऐसी क्या आफत आ गई कि लिखे बिना रहा ही नहीं जा सकता? मैंने स्वयं से पूछा। काफी मनन करने के बाद कोई खास विचार नहीं बना। बस इतना कि इसलिए लिखता हूँ कि लिखता हूँ। एक खयाल आया- ये लोग जो बड़े-बड़े हैं, ये क्यों लिखते होंगे?क्यों लिखा होगा वातमीकि ने, तुलसीदास ने और भी जाने कितने पौराणिक औ आधुनिक युग के रचनाकारों में मुख्यताः प्रेम चंद। तब मन में यह भी विचार आया कि कुछ तो होगा इनमें ंजो इतना सशक्त रहा कि आज ये हर चूल्हे, स्कूल आदि में चर्चित हैं। इनके जो सरोकार अथवा  मनोइच्छा रही कुछ तो था उनमें। पर क्या मुझसे भिन होंगे? हटफिर वही प्रश्न, क्यों लिखा होगा प्रेमचंद जी ने और अन्य लोगों ने इतना विपुल साहित्य? कोई तो कारण रहा होगा ,अकारण कुछ नहीं होता।


आज जब मैं यह सोचने लगता हूँ तो पहले सवाल उठता है लेखक बनने का। लेखक कैसे बना? क्यों का सवाल बाद में आता है? मैं गाँव का रहने वाला हूँ। छात्र जीवन में एक गाँव के चचेरे भाई (तब हमारा गाँव एक ही बिरादरी का था। कहीं भीतर परिवार जुड़े भी थे) लुधियाना में कृषि विश्वविद्यालय में पढ़ने गए। वे वहाँ से कुछ पुस्तकें एक और भाई/मित्र को भेजते थे। पतली-पतली किताबें। पेपर बैक में। बहुत समय बाद पता लगा ये तो फुटपाथी सहित्य है। आज का लुगदी साहित्य। हम उन पुस्तकों में वर्णित विषयों/कथाओं पर कहीं आँगन में या घाट पर बात करते। इसमें यह खयाल रहता कि अपने पक्ष के वक्तव्य में कहीं कुछ छूट न जाए जो उसने पढ़ा हुआ हो। हम रचनाकारों के लेखन और लिखने की क्षमता की भी बात करते। कैसे लिखते होंगे वे? कहाँ से आता होगी इतनी सामग्री? क्या वे इन पात्रों के घर जाया करते होंगे? घर आकर बिस्तर पर वे कथानक कई-कई दिनों तक घूमते रहते। तभी एक दिन यह विचार मन में कौंधा। ऐसा तो मैं भी लिख सकता हूँ। यह शायद इससे भी हुआ कि उन पुस्तकों में वर्णित स्थितियों के समरूप कुछ घटनाएँ हमारे गाँव तथा आसपास के गाँव में भी घट चुकी थीं। इसलिए वर्णन ही तो करना था। किया जा सकता था। मित्र के साथ तब तक एक दो और साथी भी जुड़ गए थे। सबने मेरा पक्ष सुना तो हैरानी से बोले, ‘तू लिख सकता है!’

‘हाँ!’ और एक दिन मैंने अपनी लिखी एक कहानी सबको सुना दी। मित्र बोला-‘ये तो फलाँ की कहानी है। मुआ मारा जाणा जे पता चला।’
‘तुम ही तो कह रहे थे कि लिख। इसलिए। फाड़ दूँ।’
‘नहीं अभी रहने दे।’
यह शुरूआत थी। कालांतर में गाँव के स्कूल से हायर सैकेंडरी स्कूल में एक खुला वातावरण मिला। पाठ्य पुस्तकों में जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, टैगोर की कहानियाँ पढ़ने को मिली और उनसे एक रास्ता पुस्तकालय का भी मिला। कुछ अन्य साथी भी अपने मन के उद्गार लिखा करते थे। उनमें से एक ने बताया कि लिखना काग़ज़ के एक ओर चाहिए। हाशिया छोड़कर। अब रुझान लिखने की ओर हो गया था। लिखना है वैसा ही मगर अपना। कोई अनुकृति नहीं।
दायरा खुला तो अपना लिखा हिन्दी व अंग्रेजी के अध्यापक जी को दिखाया। उसने झिड़क दिया। तुम पढ़ाई में कमजोर हो, पहले पढ़ाई पर ध्यान दो।

हायर सैकेण्डरी के बाद नौकरी की तलाश और सांध्य महाविद्यालय में पढ़ाई। तब भाई के क्वाटर में धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, एकता संदेश, जगत आदि पत्रिकाएं आती थीं। भाभी और वे अच्छे पाठक थे। उनके बीच मैं तथाकथित लेखक। कुछ न कुछ लिखता रहता। अपने लिए । कई बार बिस्तर पर ही रह गई कोई रचना दिन में भाभी पढ़ लेती। शाम को खाना खाने के बाद हल्की गोष्ठी जमती तो वह टोक देती। जो लिखा वैसा थोडे़ भी होता है। मैं चिढ़ जाता। कहता-‘ये कल्पना है। लेखक काल्पनिक लिखता है। खैर! सांध्य कालेज में एक मित्र मिले। उन्हें अपनी रचनाएँ दिखाने लगा। तब यह सवाल आया कि लिखने के पीछे राज क्या है?


एक वाक्य में कहें तो मन के भीतर समाज के कुछ पहलुओं को देख एक कचोट उठती है। एक लम्बे समय तक मैं उसके साथ चलने लगता हूँ। भीतर ही भीतर वह आग सुलगती रहती है। जब उसका एक खाका सा मन में बन जाता है तब प्रसव बेदना की तरह सृजन की पीड़ा उठती है। अभिव्यक्ति को छटपटाती है। उस मन में परिपक्व कचोट को मैं पहले अपने घर फिर किसी ऐसे मित्र के साथ काफी के प्याले के साथ वार्तालाप का विषय बनाता, जो मेरे रचनाकर्म से वाकिफ होता और उसी शिद्दत से उस कथानक को समझता। वह अपनी बेबाक राय देता। यदि कहीं सुधार की आवश्यक्ता होती तो जताता भी। फिर उसके अंतः और बाह्य संवेदनाओं को पचा कर एक दिन कागज के ऊपर कब उतार लेता, पता ही नहीं चलता।


यह क्यों बहुत कठिन है। मैं इस क्यों के पीछे के सरोकारों को तलाशता फिर किसी सामाजिक परिस्थिति जो प्रत्यक्ष या परोक्ष में घटित हुई हो से टकराता हूँ। टकराता रहता हूँ। कोई घटना या सामाजिक अवस्थिति का होना या पाया जाना मेरे सरोकार बनते जाते हैं। कोई पुरानी सुनी हुई घटना या कार्य-व्यव्हार, मानवीय सोच और कृत्य मुझे उद्वेलित करते रहते हैं। मैं उनके कारणों और संवेदनाओं की खोज में विचरता रहता हूँ। तब कभी वह अपनी साँद्रता में एक दिन कागज के उपर आ जाती है। मेरी मंशा यह होती है कि मैं उस सबको उस समाज और व्यवस्था को अवगत करूँ जो मुझसे, आपसे और उनसे सीधे या परोक्ष रूप में जुड़े हैं। वे जाने और समझें। यह समाज है, यह व्यवस्था है जो कथानक बनाते हैं। सोच और विरोध को जन्म देते हैं। उनके प्रकटीकरण को यह भी एक तरीका है। यह आंदोलनों, जुलुसो, नारों से इतर एक आवाज़ है जिसे मैं उठाने की कोशिश में अकेला प्रयासरत हूँ।

 यह मनोंरंजन के साथ समाज को अवगत कराना भी है कि तुम यहाँ थे। तुम्हारे साथ ऐसा भी हुआ था। शायद यह मंशा भी कि इतिहास के बाहर एक नया इतिहास बताने का जरिया हो। पर है कुछ। यह अभी भी निश्चित नहीं कि क्या है? इसे ऐसे भी मान सकते हैं कि यह सर्दियों की रातों में जिस प्रकार दादी-नानी बच्चों को कहानी सुनाया करती थीं और वे उसे अपने में आत्मसात कर सो जाया करते थे उसी तरह मैं बड़े बच्चों को अपना अनुभव सुनाता रहता हूँ ताकि वे अपने बेचैन दिमाग को शांत कर सो जाएँ अथवा शांति महसूस करें। कहें कि यह तो मेरा सच है मेरा।

खैर! जब वह रचना तैयार हो जाती है तब उसे फिर देखता हूं। समझता हूँ कि यह अब समाज का सामना कर सकती है। तब यत्र-तत्र पत्रिकाओं को भेज देता हूँ। कोई छप जाती है तो कोई लौट आती है। जो लौटती है उसे फिर कहीं और प्रेषित करता हूँ और सिलसिला चलता रहता है। इससे मुझे संतोष मिलता है। मेरा संतोष तब और बढ़ता है जब पाठक अपनी प्रतिक्रिया से मुझे अवगत कराते हैं। यह दोहरी होती है। प्रशंसात्मक भी और आलोचनात्मक भी। प्रशंसा से अधिक पुलकित नहीं और आलोचना से विचलित नहीं।
अब एक सवाल और उठता है कि कहानी ही क्यों? हाँ! कहानी ही। मुझे आरम्भ में जो पाठ मिला वह अचानक मिला। कच्ची उम्र में मिला। कोई विरासत नहीं। कोई विचार नहीं, कोई भावना नहीं। बस मन का उद्वेग और प्रकटीकरण। उपन्यास थे वे। कथा विस्तार लिए। इसलिए कालांतर में और आज भी अधिकाँश कहानियाँ लम्बा कैनवास लिए होती है। प्रकटीकरण की पूरी प्रक्रिया। कहा जा सकता है कि पुस्तकें ही मेरी गुरु रहीं हैं।

कालांतर में एक दो दोस्त कवि मिले। उन्होंने कविता के बारे में बताया। तो कविता से भी गुजरा। कुछ कविताएँ जो पहले किसी समारोह के लिए लिखी जाती थीं। बाद में एक विन्यास के साथ लिखी। अधिकाँश छपी भी। मगर फिर सब छूट गया। लगा कविता आती नहीं। सोचनी पड़ती है। यह नहीं। कविता के शब्द पहले मन से टकराने चाहिए। पूरी तरह। इसलिए कविता फिर पीछे और कहानी ही। कुछ कथानक अपने ट्रीटमेंट में कुछ ज्यादा ही विस्तार माँगने लगे तो लिखा और इस प्रकार उपन्यास भी लिख डाले। मगर लगा उपन्यास लिखना बहुत बड़े धैर्य का काम है। इसलिए कहानी ही। अब कुछ प्लॉट कहानी के छोटे कैनवास के भी बनने लगे हैं। यह शायद उम्र बढ़ने के कारण भी है। बीच में लघुकथा के मित्रों की लघुकथाएँ भी पढ़ी। उनका शास्त्र भी पढ़ा और एक दो लिख भी दीं। कुछ लेख तो सरकारी नौकरी के कारण लिखे और कुछ पत्रिकाओं के कहने पर।
विगत समय से समीक्षा की ओर भी ध्यान गया है मगर यह पाठकीय टिप्पणी ज्यादा होती है।
कहा जा सकता है कि मैं पहले जो स्वांतः सुखय लिख रहा था अब मैं समाज के लिए लिखता हूँ। वही कुछ जो उससे लिया होता है। उसे उसकी समझ के शब्दों में लौटाना अच्छा लगता है।
००

बद्री सिंह भाटिया की कहानी नीचे लिंक पर पढ़िए


प्रेतात्मा की गवाही
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/09/blog-post_55.html?m=1



बद्री सिंह भाटिया
गांव ग्याणा, डाकखाना मांगू वाया दाड़लाघाट
तहसील अर्की, जिला सोलन, हि.प्र. पिन 171102