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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

30 अप्रैल, 2018

मई दिवस और महिला कामगार

तुहिन

1 मई 1886 को शिकागो में हुए मजदूर आंदोलन, प्रदर्शन और मजदूरों के कत्ले आम जो कि ’आठ घण्टे के काम के दिन’ की मांग को लेकर था, की याद में हर वर्ष दुनियाभर के मेहनतकश ’मई दिवस’ के शहीदों को याद करते हैं।

तुहिन


अल्बर्ट पार्सन्स, शिकागो के ऐतिहासिक मजदूर आंदोलन के नेता थे जिन्हें 11 नवम्बर 1887 को अन्य तीन मजदूर नेताओं - स्पाइस, फिशर तथा एंजिल के साथ फांसी पर चढ़ा दिया गया था। अल्बर्ट पार्सन्स की पत्नि लूसी पार्सन्स जो कि खुद भी एक श्रमिक थी, ने अपने पति पर लगाए गए पूंजीपति और प्रशासन के झूठे आरोपों की धज्जियां उड़ाते हुए शिकागो की अदालत में बयान दिया ’’ जज आल्टगेल्ड, क्या आप इस बात से इन्कार करेंगे कि आपके जेलखाने गरीब बच्चों से भरे हुए हैं, अमीरों के बच्चों से नहीं? क्या आपमें यह कहने का साहस है कि वे भूली-भटकी बहनें, जिनकी आप बात करते हैं, एक रात में दस से बीस व्यक्तियों के साथ सोने में प्रसन्नता महसूस करती हैं, अपनी अंतड़ियों को दगवाकर बहुत खुश होती हैं? मैंने एक बार नहीं, अनेकों बार मालिकों की तकलीफें और यातनाएं बरदाश्त की हैं। मेरे शरीर पर उसके ढेरों निशान हैं। लेकिन मैं तुम्हारे सुधारों के भरोसे में नहीं आती। अगर मजदूर एकजुट हो रोटी के लिए संघर्ष करते हैं, एक बेहतर जिंदगी के लिए लड़ाई लड़ते हैं, तो तुम उन्हें जेल भेज देते हो। नहीं जज आल्टगेल्ड, जब तक तुम इस व्यवस्था की नीतिशास्त्र की हिफाजत और रखवाली करते रहोगे, तब तक तुम्हारी जेलों की कोठरियां हमेशा ऐसे स्त्री-पुरूषों से भरी रहेंगी जो मौत की बजाय जीवन चुनेंगे - वह अपराधी जीवन जो तुम उन पर थोपते हो।’’


लूसी पार्सन्स के बयान को पढ़कर कोई भी समझ सकता है कि मई दिवस और इस प्रकार के अन्य अंतर्राष्ट्रीय महत्व वाले श्रमिक आंदोलन में महिलाओं की भूमिका पुरूषों से कोई कम नहीं थी। मई दिवस के 132 साल पुराने इतिहास से पीछे अगर हम जाएं तो देखते हैं कि आज से करीब डेढ़ सौ साल पहले एक ऐतिहासिक घटना घटी थी। बात 1857 की है जब हिन्दुस्तान में अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की जंग छिड़ी थी। उस समय 8 मार्च 1857 को अमरीका में न्यूयार्क के कपड़ा मिलों की मजदूर औरतों ने 8 घंटे के काम और बेहतर श्रम सुविधाओं के लिए काम बन्द किया और सड़कों पर निकल आईं। उन मजदूर बहनों की संगठित लड़ाई की आवाज गूंजी और औरतों के संघर्ष ने एक चमक पैदा की। उस चमक, उस जोश को 1910 में रूस की समाजवादी नेता क्लारा जेटकिन ने याद किया। उन्होंने एक अंतर्राष्ट्रीय महिला अधिवेशन में यह प्रस्ताव रखा कि आठ मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस घोषित किया जाय। इस प्रकार मई दिवस और अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस दोनों में आपसी रिश्ता है और वह रिश्ता श्रमिक महिलाओं के चलते है।
आज 2018 में हमारे देश में महिला कामगारों की हालत कैसी है? कुल जनसंख्या में कार्यक्षम पुरूषों की संख्या 52 प्रतिशत है तो मात्र 22 प्रतिशत महिलाएं ही कार्यरत हैं। कार्यरत महिलाओं में से 94 प्रतिशत महिलाएं असंगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं जहां कार्य सुरक्षा, वेतन, श्रम कानून आदि तमाम मामलोें में भीषण भेदभाव और लचर व्यवस्था की वे शिकार हैं। महिला कामगार, पितृसत्ता, निजी पंूजी और वस्तुकरण (कमोडीफिकेशन) के बहुरंगी शिकंजे में जकड़ी हुई हैं जबकि पुरूष कामगार केवल निजी पूंजी पर आधारित व्यवस्था का ही सामना करते हैं।
मौजूदा समय में धुर दक्षिणपंथी शासक वर्ग द्वारा नवउदारवादी नीतियों को पूर्व की सरकार की तरह ही निष्ठुरता से लागू किया जा रहा है। ’न्यूनतम सरकार’ अधिकतम सुशासन, अच्छे दिन, जैसे कॉर्पोरेट -परस्त लुभावने नारों की आड़ में पूरी तरह से मजदूर विरोधी - जनविरोधी नीतियों को निर्ममता से लागू किया जा रहा है। सरकार के हालिया फैसलों से कॉर्पोरेट मुनाफा, विनाशकारी स्तर पर पहुंच गया है, वही दूसरी तरफ अनौद्योगीकरण हो रहा है। रोजगारहीनता बढ़ रही है। मुद्रास्फीति बेकाबू हो रही है, व्यापक जन समुदाय की क्रयशक्ति घट रही है और दरिद्रता एवं गैर-बराबरी का स्तर अभूतपूर्व रूप से बढ़ रहा है।
असंगठित क्षेत्रों में काम कर रहे मजदूरों के लिए श्रम कानून पहले ही बेमानी हो चुके थे, इधर लेकिन अच्छे दिनों के नारे के साथ सत्ता में आई मोदी-सरकार के राज में तो संगठित क्षेत्र के मजदूरों की हालत भी बदतर हो गयी है, क्यूंकि इस सरकार ने श्रम- कानूनों में बदलाव को अपनी प्राथमिकता में रखा है। पिछले वर्ष ही केंद्रीय मंत्रिमंडल ने फैक्टरी कानून, एप्रेंटिस कानून और श्रम कानून में संशोधन को मंजूरी भी दे थी, इसके अलावा वर्तमान सरकार ने लोकसभा के इस सत्र में कारखाना (संशोधन) विधेयक, 2014 भी पेश किया था, इस पूरी कवायद के पीछे तर्क था कि इन सुधारों से निवेश और रोजगार बढ़ेंगे। पहले कारखाना अधिनियम, जहां 10 कर्मचारी बिजली की मदद से और 20 कर्मचारी बिना बिजली से चलने वाले संस्थानों पर लागू होता था वहीं संशोधन के बाद यह क्रमशः 20 और 40 मजदूर वाले संस्थानों पर लागू होगा। ओवर टाइम की सीमा को भी 50 घण्टे से बढ़ाकर 100 घण्टे कर दिया गया है और वेतन सहित वार्षिक अवकाश की पात्रता को 240 दिनों से घटाकर 90 दिन कर दिया है। ठेका मजदूर कानून अब बीस की जगह पचास श्रमिकों पर लागू होगा। औद्योगिक विवाद अधिनियम के नए प्रावधानों के तहत अब कारखाना प्रबंधन को तीन सौ कर्मचारियों की छंटनी के लिए सरकार से अनुमति लेने की जरूरत नहीं होगी, पहले यह सीमा सौ मजदूरों की थी। अप्रेंटिसशिप एक्ट न लागू करने वाले फैक्ट्री मालिकों को गिरफ्तार या जेल में नहीं डाला जा सकेगा। यही नहीं कामगारों की आजीविका की सुरक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में समरूपता लाने संबंधी उपाय राज्य सरकारों की मर्जी पर छोड़ दिए गए हैं। स्पष्ट है कि तथाकथित सुधार मजदूर हितों के खिलाफ हैं। इससे मजदूरों को पहले से मिलने वाली सुविधाओं में कानूनी तौर पर कमी आएगी। जाहिर है कि श्रम कानूनों में होने वाले सुधारों से असंगठित क्षेत्र के श्रमिक विशेषकर महिला श्रमिक सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे।
इसका मतलब यह होगा कि अब और बड़ी संख्या में कामगार/श्रम कानूनों से मिलने वाले फायदे जैसे सफाई, पीने का पानी, सुरक्षा, बाल श्रमिकों का नियोजन, काम के घंटे, साप्ताहिक अवकाश, छुट्टियां, मातृत्व अवकाश, ओवरटाइम आदि से महरूम होने वाले हैं। असंगठित घरेलू कामगार महिलाओं के साथ तरह-तरह से क्रूरता, अत्याचार और शोषण होते हैं। कुछ समय पहले ही मीडिया में आये दिल दहला देने वाले मामले भूले नहीं होंगे, जिसमें कुछ घरेलू कामगारों को इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी थी।


होना तो यह चाहिए कि घरेलू कामगार महिलाओं को प्रायवेट सेक्टर में काम करने वाले कर्मचारी की तरह माना जाना चाहिए और कर्मचारियों को मिलने वाली सामान्य सुविधाएं जैसे-न्यूनतम मजदूरी, काम के घंटों का निर्धारण, सप्ताह में एक दिन का अवकाश इत्यादि सुविधा मिलनी चाहिए।
अर्थव्यवस्था में घरेलू कामगारों के योगदान का कभी कोई सही आकलन नहीं किया गया। जबकि इनकी संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। इन महिलाओं के घर के काम को मददगार के तौर पर माना जाता है। इस वजह से उनका कोई वाजिब एक समान मेहनताना नहीं होता है। यह पूर्ण रूप से नियोक्ता पर निर्भर करता है। घरेलू कामगार महिलाएं ज्यादातर आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े और वंचित समुदाय से होती हैं। उनकी यह सामाजिक स्थिति उनके लिए और भी विपरीत स्थितियाँ पैदा कर देती है। इन महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न, चोरी का आरोप, गालियों की बौछार या घर के अंदर शौचालय आदि का प्रयोग वर्जित, इनके साथ छुआछूत करना जैसे चाय के लिए अलग कप आदि आम बात है।
देश में असंगठित क्षेत्र के कामगारों के लिए सामाजिक सुरक्षा कानून (2008) हैं जिसमें घरेलू कामगारों को भी शामिल किया गया है। लेकिन अभी तक ऐसा कोई व्यापक और राष्ट्रीय स्तर पर एक समान रूप से सभी घरेलू कामगारों के लिए कानून नहीं बन पाया है, जिसके जरिये घरेलू कामगारों की कार्य दशा बेहतर हो सके और उन्हें अपने काम का सही भुगतान मिल पाये।
घरेलू कामगार को लेकर समय-समय पर कानून बनाने का प्रयास हुआ, सन् 1959 में घरेलू कामगार बिल (कार्य की परिस्थितियां) बना था, परंतु वह व्यवहार में परिणत नहीं हुआ। फिर सरकारी और गैर सरकारी संगठनों ने 2004-07 में घरेलू कामगारों के लिए मिलकर ’घरेलू कामगार विधेयक’ का खाका बनाया था। इस विधेयक में इन्हें कामगार का दर्जा देने के लिए एक परिभाषा प्रस्तावित की गयी है- ऐसा कोई भी बाहरी व्यक्ति जो पैसे के लिए या किसी भी रूप में किये जाने वाले भुगतान के बदले किसी घर में सीधे या एजेंसी के माध्यम से जाता है तो स्थायी या अस्थायी, अंशकालिक या पूर्णकालिक हो तो भी उसे घरेलू कामगार की श्रेणी में रखा जायेगा। इसमें उनके वेतन, साप्ताहिक छुट्टी,  कार्यस्थल पर दी जाने वाली सुविधाएं, काम के घंटे, काम से जुड़े जोखिम और हर्जाना समेत सामाजिक सुरक्षा आदि का प्रावधान किया गया है। लेकिन इस विधेयक को आज तक अमली जामा नहीं पहनाया जा सका है। कार्यस्थल में महिलाओं के साथ होने वाली लैंगिक हिंसा को रोकने के लिए देश में ’महिलाओं को कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न (निवारण प्रतिशेध तथा प्रतिरोध) अधिनियम 2013’ बनाया गया है जिसमें घरेलू कामगार महिलाओं को भी शामिल किया गया है।
ऐसा लगता है कि वाकई में अच्छे दिन आ गए हैं लेकिन गरीब-मजदूरों के लिए नहीं बल्कि सरमाएदारों के लिए। श्रम कानून तो इसीलिए बनाए गए थे कि पूंजीपतियों, सरमाएदारों की बिरादरी अपने मुनाफे के लिए कामगारों के इंसान होने के न्यूनतम अधिकारों की अवहेलना न कर सके।
इसीलिए वास्तविक अच्छे दिन के लिए महिला कामगारों को अपने साथी पुरूष कामगारों के साथ मिलकर मेहनतकशों के राज स्थापना के लिए लड़ाई लड़नी है। और यही लूसी पार्सन्स सरीखी करोड़ों- करोड़ महिला कामगारों का सपना रहा है।
००
संपर्क: तुहिन
फोन:  095899-57708
ई-मेल: tuhin_dev@yahoo.com
 सरस दरबारी की कविताएं




मैं क्यों लिखती हूँ ...


जो अथाह होता है, वह समाहित नहीं हो पाता।
अथाह दु:ख, अथाह सुख, अथाह अपनापन, अथाह प्रेम, अथाह विरह, अथाह वितृष्णा। ऐसे में चाहिए एक निकास जो अभिव्यंजना देती है।
मैंने काव्य को चुना क्योंकि -
जब भीतर कुछ खदबदाता है चाहे वह प्रेम का उत्कर्ष हो, विरह की पीड़ा हो, माँ बनने का स्पंदन हो, शिशु का उठा पहला कदम हो, हर वह अनुभूति, जो निःसीम सुख या असीम वेदना का कारण बने, निकास माँगती हैं और कविता रोपित हो जाती है ।
जब कभी अथाह दुख घेर लेता है, और छटपटाता मन खुलकर रोना चाहता है, घुट घुटकर केवल उच्छ्वास बहता है, तब कविता रोपित होती है।
जब प्रकृति से, उसकी खूबसूरत छटाओं से तादात्म्य स्थापित होने लगता है, तब कविता रोपित होती है।
कई बार माहौल भी प्रेरित करता है।
पापा श्री शब्द कुमार, एक जाने माने पत्रकार थे। बाद में उन्होने फिल्मों के लिए भी लिखना शुरू कर दिया। इंसाफ का तराज़ू, जवाब , आज कि आवाज़, कुदरत का कानून, बालिका बधू, इत्यादि कई फिल्मों में संवाद, अथवा कहानी अथवा दोनों ही लिखे। कॉलेज में पढ़ते वक़्त अक्सर घर पर गोष्ठियाँ हुआ करती थीं, जिसमे कई साहित्यकार हिस्सा लिया करते थे। उन गोष्ठियाँ में, हर हफ्ते किसी एक की कृति उठाई जाती, पढ़ी जाती और उसकी समीक्षा होती। धीरे धीरे लिखने की तरफ रुझान हुआ। कुछ कविताएँ लिखीं जिन्हें सराहा गया तो हिम्मत और बढ़ी।
कॉलेज के दिनों में डॉ चन्द्रकान्त बांदीवडेकर, जो हमारे हिन्दी के प्रोफेसर हुआ करते थे, मेरी कविताएँ  पढ़कर बहुत प्रोत्साहित करते। अक्सर कहते जब तुम्हारा पहला संकलन निकले तो उसमें हमारा उल्लेख ज़रूर करना। यह सुनकर हौसला और बढ़ जाता। पर विवाहोप्रांत जैसे एक पूर्ण विराम लग गया। फूलों के रंगों में जब मसालों के रंग घुलने लगे तो प्राथमिकताएँ बादल गईं और लेखन बिलकुल बंद हो गया। अपितु इस बीच मेरे 4 ग्रंथ अवश्य छपे, मेरे चारों बच्चे।
और फिर जैसा  अमूमन सभी स्त्रियों के साथ होता है, 32 साल के लंबे अंतराल के बाद फिर कलम उठाई।पुन: लेखन की शुरुआत एक ब्लॉग से हुई, जब गुणी जनों ने मेरे प्रयास को सराहा तो उत्साह बढ़ा। फिर फ़ेसबुक से जुड़कर आत्मविश्वास और बढ़ा।

अंत में बस यही कहना चाहूँगी कि काव्य मेरे मन के बहुत करीब हैं,क्योंकि


मेरे लिए कविता


अभिव्यक्ति है - एक क्षण की - एक अनुभव की- एक सोच की ..

क्षमता है - दूसरे के दर्द को आत्मसात कर , व्यक्त करने की....
अनुभूति है - ब्रह्माण्ड से एकरूप होनेकी –
आसमानों को छूनेकी, सागर की तह तक पहुँचने की.....
कविता अकेलेपन की साथी है –
ख़ुशी ,उन्माद, और शांति का पर्याय है –
अंतत: जीवन है...!

सरस दरबारी 


कविताएं


लहरें ......


लहरों को देखकर अक्सर मन में कई विचार कौंधते हैं .....

समंदर के किनारे बैठे
कभी लहरों को गौर से देखा है
एक दूसरे से होड़ लगाते हुए ..
हर लहर तेज़ी से बढ़कर ...
कोई  छोर  छूने  की पुरजोर  कोशिश  करती
फेनिल सपनों के निशाँ छोड़ -
लौट आती -
और आती हुई लहर दूने जोश से
उसे काटती हुई आगे बढ़ जाती
लेकिन यथा शक्ति प्रयत्न के बाद
वह भी थककर लौट आती
.बिलकुल हमारी बहस की तरह !!!!!


             (२)

कभी शोर सुना है लहरों का ....
दो छोटी छोटी लहरें -
हाथों में हाथ डाले -
ज्यूँ ही सागर से दूर जाने की
कोशिश करती हैं-
गरजती हुई बड़ी लहरें
उनका पीछा करती हुई
दौड़ी आती हैं -
और उन्हें नेस्तनाबूत कर
लौट जाती हैं -
बस किनारे पर रह जाते हैं -
सपने-
ख्वाईशें -
और जिद्द-
साथ रहने की ....
फेन की शक्ल में ...!!!!!

         

(३ )

लहरों को मान मुनव्वल करते देखा है कभी !
एक लहर जैसे ही रूठकर आगे बढ़ती है
वैसे ही दूसरी लहर
दौड़ी दौड़ी
उसे मनाने पहुँच जाती है
फिर दोनों ही मुस्कुराकर -
अपनी फेनिल ख़ुशी
किनारे पर छोड़ते हुए
साथ लौट आते हैं
दो प्रेमियों की तरह....!!!!!


 ( ४ )

कभी कभी लहरें -
अल्हड़ युवतियों सी
एक स्वछन्द वातावरण में
विचरने निकल पड़तीं हैं ---
घर से दूर -
एल अनजान छोर पर !
तभी बड़ी लहरें
माता पिता की चिंताएं -
पुकारती हुई
बढ़ती आती हैं ...
देखना बच्चों संभलकर
यह दुनिया बहुत बुरी है
कहीं खो न जाना
अपना ख़याल रखना -
लगभग चीखती हुई सी
वह बड़ी लहर उनके पीछे पीछे भागती है ...
लेकिन तब तक -
किनारे की रेत -
सोख चुकी होती है उन्हें -
बस रह जाते हैं कुछ फेनिल अवशेष
यादें बन .....
आंसू बन ......
तथाकथित कलंक बन ....!!!!!






 नुमाइश  

वह दर्द बीनती है
टूटे खपरैलों से, फटी बिवाई से
राह तकती झुर्रियों से
चूल्हा फूँकती साँसों से
फुनगियों पर लटके सपनों से
न जाने कहाँ कहाँ से
और सजा देती है करीने से
अगल बगल ...
हर दर्द को उलट पुलटकर दिखाती है
इसे देखिये
यह भी दर्द की एक किस्म है
यह रोज़गार के लिए शहर गए लोगों के घरों में मिलता है ..
यह मौसम के प्रकोप में मिलता है ...
यह धराशाई हुई फसलों में मिलता है ...
यह दर्द गरीब किसान की कुटिया में मिलता है...
बेशुमार दर्द बिछे पड़े हैं
लो चुन लो कोई भी
जिसकी पीड़ा  लगे  कम  !
अपनी रचनाओंसे बहते, रिस्ते, सोखते, सूखते हर दर्द को 
बीन बीन सजा देती है वह 
लगा देती है नुमाइश
कि कोई तो इन्हे पहचाने , बाँटे
उनकी थाह तक पहुँचे ...
और लोग उसके इस हुनर की तारीफ कर
आगे  बढ़ जाते हैं ...






वह मासूम बच्ची 

पहली बार
खिले फूलों को देख खुश होती रही
फिर फूलों का मुरझाना देखा ...
देखती गई,
आँसू झरते रहे ...उसने पंखुड़ियों को सहेज लिया

उसने बहती  नदी देखी
अठखेलियाँ करती
वह खिल उठी
ज़मीन ने सोख लिया जल
नदी सूख गई......
दुख से कातर हो ...नमी को मुट्ठियों में सोख लिया

 खिड़की से उसने वह दरख्त देखा
एक घौंसला था
नन्हें नन्हें अंडे थे
वह देखती रही
बच्चे उड़  गए 
उसने घोंसले का सूनापन देखा
उसे आँखों में रोक लिया ...व्यथा को बहने ना दिया

 फूलों से लदे वृक्ष देखे
झूले की पींगें देखीं
बच्चों का खिलखिलाना देखा
फिर पतझर में पेड़ का
ठूंठ बन जाना देखा ....
झडे पत्तों को बाहों में समेट लिया ....उड़ने न दिया

माँ की गोद में बचपन सुहाना देखा
प्यार से माँ का मनाना देखा
ज़रा सी खरोंच जो आने न दे
सबसे गहरा जख्म दे
छोड़कर जाना देखा....
उसने यादों को सीने में भींच लिया....खोने न दिया

और एक दिन
दे दिये शब्द सारी व्यथाओं को
लिख डाली एक कविता
अपनी पहली कविता ...







 "सिक्स्त सेन्स"

1-स्पर्श -

अहसासों से भरा वह शब्द
जो रिश्तों की उंगली पकड़
खुद अपनी पहचान बनाता है .....
- हर रिश्ते का अपना अनुभव -
जहाँ पिता का आश्वस्त करता स्पर्श -
अपूर्व विश्वास भर जाता है-
वहीँ भ्राता का रक्षा भरा स्पर्श ,
भयमुक्त कर जाता है -
पति या प्रेमी का सिहरन भरा स्पर्श -
असंख्य सितारों की मादकता भर जाता है -
तो वहीँ भीड़ की आड़ लेते लिजलिजे अजनबिओंका घिनोना ,
और अनचाहे रिश्तेदारों का मौका परस्त स्पर्श -
शरीर पर लाखों छिपकलीओं  की रेंगन भर जाता है -
- सभी स्पर्श !
लेकिन कितने भिन्न !!!
और इनकी सही पहचान -
ही हमारा सुरक्षा कवच है ...
 हमारा "सिक्स्त सेन्स" !

                               



 2-स्पर्श -

अहसासों से भरा वह शब्द
जो रिश्तों की उंगली पकड़
खुद अपनी पहचान बनाता है .....
- हर रिश्ते का अपना अनुभव -
जहाँ पिता का आश्वस्त करता स्पर्श -
अपूर्व विश्वास भर जाता है-
वहीँ भ्राता का रक्षा भरा स्पर्श ,
भयमुक्त कर जाता है -
पति या प्रेमी का सिहरन भरा स्पर्श -
असंख्य सितारों की मादकता भर जाता है -
तो वहीँ भीड़ की आड़ लेते लिजलिजे अजनबिओंका घिनोना ,
और अनचाहे रिश्तेदारों का मौका परस्त स्पर्श -
शरीर पर लाखों छिपकलीओं  की रेंगन भर जाता है -
- सभी स्पर्श !
लेकिन कितने भिन्न !!!
और इनकी सही पहचान -
ही हमारा सुरक्षा कवच है ...
 हमारा "सिक्स्त सेन्स" !!!!!!!





 बसंत 

साँस साँस में उपवन महके रोम रोम में वृन्दावन है
जब से पत्र तुम्हारा आया भीगा भीगा सा तन मन है

तितली भी मुझको ललचाये इन्द्रधनुषी रंग सजे हैं
भ्रमरों के गीतों को सुनकर चारों ओर मृदंग बजे हैं
बार बार छवि देख निहारूँ मन के भीतर एक कम्पन है
जब से पत्र तुम्हारा आया भीगा भीगा सा तन मन है

भोर दोपहरी बाट तकूँ मैं , द्वार खड़े पल छिन बीते हैं
आँगन सूना बगिया सूनी रात और दिन कितने रीते हैं
साँस रुकी अब आन मिलो तुम राह ताकती यह बिरहन है
जब से पत्र तुम्हारा आया भीगा भीगा सा तन मन है

बदरा  घिर घिर आयी देखो अम्बर के अंसुअन बरसे है 
कोई न जाने पीर ह्रदय की पी के मिलन को हिय तरसे है
यह मधुमास यूँ बीत न जाये नैनों से झरता सावन है
जब से पत्र तुम्हारा आया भीगा भीगा सा तन मन है





हाँ मैं प्यार माँगती हूँ ...

अपने जीने का अधिकार माँगती हूँ
वह जीवन लिखा था मेरा नाम जिसपर ..
छीना था मुझसे
ज़मीं पर पटककर ,
उसी जीवन को उधार माँगती हूँ
हाँ ...
मैं प्यार माँगती हूँ

बचपन के जिसको
बाधाओं ने सींचा -
बबूलों की चुभन को
मुट्ठियों में भींचा -
तलवे के घावों को चीथड़ों में लपेट -
एक इंसान की ज़िन्दगी उधार माँगती हूँ
हाँ ..
मैं प्यार माँगती हूँ

क्या गलती थी मेरी
जो ऐसे छला था -
कूड़े का ढेर
बिछोना बना था -
जहाँ दांतों
लातों की चलती थी भाषा -
मैं आज अपने हक़ का दुलार माँगती हूँ
हाँ ...
मैं प्यार माँगती हूँ





 बंद दरवाजे 

ज़ंग लगे तालों के पीछे
कितने आँसू रुके हुए हैं
कुछ रिश्ते जो निभ न पाये
दरवाजों की ओट खड़े हैं

भूली गूँज खुशी की अब भी
बंद दरीचों झाँका करती
सिसकियाँ कुछ दबी सी जब भी
संधों संधों खाँका  करती
मातम और सुख के सूने स्वर
उसी सहन में रहन पड़े हैं
कुछ रिश्ते जो निभ न पाये
दरवाजों की ओट खड़े हैं

अरमानों ने रिश्ता तोडा
अपनों ने अपनों को छोड़ा
उन्नति के पथ पर बढ़ने में
तर्कों को हर बार मरोड़ा
तर्कों के कुचले पंखों  पर
जाने कैसे कदम बढ़े हैं
कुछ रिश्ते जो निभ न पाये
दरवाजों की ओट खड़े हैं
००





27 अप्रैल, 2018

बलात्कार: स्त्री और समाज


डॉ. कविश्री जायसवाल

आज का हमारा समाज, उसकी मानसिकता दोहरेपन का शिकार है। एक तरफ स्त्री को देवी का, शक्ति का रूप माना जाता है, तो दूसरी तरफ उसके औरत होने का अपमान कर उसके खिलाफ बलात्कार जैसे जघन्य अपराध में दिन दुगुनी रात चौगुनी बढ़ोतरी होती जा रही है। स्त्री-पुरूष के बीच शारीरिक सम्बन्ध स्वाभाविक है।

डॉ कविश्री जायसवाल


लेकिन जब यह सम्बन्ध स्त्री की मर्जी के विरूद्ध बनाए जाते हैं, उसके साथ जोर जबरदस्ती कर संभोग किया जाता है तो वह घटना उसके जीवन के लिये सबसे बड़ा अभिशाप बन जाती है। स्त्री चाहे कितनी ही मॉर्डन या रूढ़िवादी क्यों ना हो, बलात्कार का दंश झेलना उसके लिए किसी सदमें से कम नहीं हैं। शायद बलात्कार पुरूष का अपनी प्रधानता साबित करने का पसंदीदा तरीका है। पुरूष सेक्स की इच्छा या कुंठा के कारण नहीं बल्कि अपनी वासना की तृप्ति के कारण बलात्कार करते हैं।

बरसों से भारतीय कानून किसी स्त्री की सहमति के बिना या उसकी इच्छा के विरूद्ध योनि में किसी पुरूष के जननांग प्रवेश को बलात्कार मानता रहा है।

हम खुद को प्रगतिशील कहते हैं, पर हमारा समाज प्रगतिशील नहीं हैं बलात्कार कई बार पुरूषवादी सत्ता को कायम रखने के लिये किया जाता है। आज अगर किसी को सबक सिखाना है तो उसके घर की औरतों को अपमानित किया जाता है। बड़े अपराधों की बात को दरकिनार भी कर दिया जाए तो हम रोज ऐसे काम करते हैं जो औरतों के लिये अपमान का कारण बनते हैं। लड़ाई-झगड़े में ऐसी गलियों का प्रयोग करते हैं, जो औरतों से जुड़ी होती है। गाली हम पुरूष को देते हैं पर होती स्त्रियों के लिये हैं। ‘‘तेरी माँ की ...........। तेरी बहन की......’’ आदि गालियों में जिस तरह से औरत के शरीर के एक अंग विशेष पर जोर दिया जाता है, उससे स्त्री को जिस तरह रोजमर्रा की जिन्दगी में अपमान सहन करना पड़ता है। उसे कानून से नहीं समाज में सुधार लाने से ही दूर किया जा सकता है। घर के अंदर और घर के बाहर भी, शादी से पहले और शादी के बाद भी चाहें, वह लड़की या स्त्री हो उसका सम्मान जरूरी है। आखिर वो कौन सी कामनाएं और भाव हैं जो किसी स्त्री को देखने के दृष्टिकोण में वासना को स्थापित कर देती है। कन्या के चरण धोकर नव दुर्गा की आराधना पूर्ण करने का भाव तब कहाँ गायब हो जाता है, जब छः माह की बच्ची भी पशुता का शिकार बनती है।

मुझे लगता है कि बलात्कार जैसी घटना के कारणों पर गंभीर चर्चा होनी चाहिये। इसके लिये न केवल कानूनी स्तर पर प्रयास होने चाहिये बल्कि सामाजिक स्तर पर भी उतने ही गम्भीर प्रयास करने की जरूरत है। बलात्कार न केवल कानूनी समस्या है, बल्कि यह एक सामाजिक समस्या भी है। इस अपराध के पीछे की मानसिकता को पूरी तरह समझें बिना इसके कारणों को खोजना मुश्किल है।

बलात्कार का निमंत्रण आकर्षक ढंग से सजी-धनी और वर्जनामुक्त जीवन शैली की ओर बढ़ रही स्त्री नहीं दे रही है। ये निमंत्रण उस संस्कृति की ओर से दिन-रात प्रतिफल जारी किया जा रहा है, जिसकी मान्यता यह है कि देह का स्थान दिल और दिमाग से ऊपर ही नहीं बहुत ऊपर है। वर्तमान बाजारीकरण ने एक तरफ स्त्री को यौन वस्तु के रूप में बदलने में पूरी ताकत लगाई हैं दूसरी तरफ पुरूष की यौनेच्छा को बढ़ाने से भी ज्यादा उकसाने का काम किया है। हमारे चारों तरफ जैसे सेक्स घुला हुआ है। अखबार, पत्रिकाओं और टी. वी. में आने वाले विज्ञापन, फिल्में, अश्लील गाने, साहित्य समाचार, फोटो, फिल्मी संवाद, इंटरनेट हर जगह स्त्री को सतत कामोत्तेजक (सेक्सी) रूप में परोसा जा रहा है। इंटरनेट पर पोर्न और अस्वस्थ सेक्स की अथाह सामग्री जिस तेजी से समाज में बढ़ रही है उससे भी ज्यादा तेजी से लोग उसका मजा ले रहे हैं, कुल मिलाकर हर जगह, हर वक्त ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि जैसे सैक्स से ज्यादा जरूरी और अहम मुद्दा समाज में बचा ही न हो। चारों तरफ स्त्री को यौन वस्तु के रूप में पेश करने और पुरूष की यौनेच्छा को बढ़ाने और सहलाने के लिये जितने इंतजाम किये गये हैं। इस सबका बलात्कार के बढ़ते प्रतिशत से सीधा सम्बन्ध है। सेक्स की मांग बेतहाशा बढ़ा दी गई है और पूर्ति की एक सीमा है। हर उम्र के पुरूष की बढ़ी यौनेच्छा को पूरा करने के लिये किये गये विवाह और वेश्यावृति के इंतजाम कम पड़ते हैं। बेकाबू हुई यौनेच्छा परिवार और रिश्तेदारी में मौजूद बच्चों और औरतों को अपना शिकार बनाती है। साथ ही समाज में आसान शिकार ढूंढती है।

पुरूष बलात्कार को ही क्यों हथियार बनाते हैं, हमले तो और भी बहुत तरह के होते हैं और हो सकते हैं? दरअसल इसके पीछे स्त्री की यौन शुचिता की सोच कहीं न कहीं जिम्मेदार है। समाज में उस स्त्री की इज्जत ही कुछ अधिक हैं जिसकी यौन शुचिता बरकरार हैं, चूंकि बलात्कार के बाद स्त्री की यौन शुचिता समाज के हिसाब से खो जाती है। इसलिये वह उसके अपमान की भी हकदार बन जाती है। इस तरह से बलात्कार उन पुरूषों की बीमार मानसिकता को दो तरह से पुष्ट करता है। एक उनकी यौनेच्छा को शांत करके, दूसरा स्त्री को सामाजिक रूप से अपमानित करके। बलात्कार केवल स्त्री के शरीर पर ही अपना असर नहीं डालता, वह स्त्री के दिमाग पर भी असर डालता है। स्त्री को लगता है कि अब उसके लिए समाज में कोई जगह नहीं बची है उसे समाज गलत निगाहों से देखेगा। घर-परिवार के लोग भी यह नहीं मानते कि उसकी गलती नहीं रही होगी। ऐसे में सबसे जरूरी है कि कानून के साथ समाज भी स्त्री के साथ खड़ा हो। अभी यह देखा जाता है कि बलात्कार की शिकार स्त्री को अलग-थलग रहकर जीवन गुजारना पड़ता है। दूसरी ओर जहाँ भी वह अपनी बात रखने जाती है, लोग उसको सॉफ्ट टारगेट समझने की कोशिश करते हैं जिस संवेदनशीलता की उम्मीद, समाज से होनी चाहिये, स्त्री के साथ वह नहीं होती है। बलात्कार की शिकार स्त्री के लिये किये जाने वाले प्रयास सकारात्मक से ज्यादा नकारात्मक होते हैं। उसके प्रति ऐसी सहानुभूति दिखाई जाती है जिससे उसका जीवन नष्ट होने की बात की जाती है। ऐसा बोला जाता है कि जैसे जिसके साथ बलात्कार हुआ है, उसके लिये आगे का जीवन दूभर हो गया है। उसके प्रति समाज का नजरिया बदल जाता है, लोगों के बीच उसके लिये चर्चा इस बात की होती है कि इस स्त्री का तो जीवन ही बर्बाद हो गया। अब यह क्या करेगी? कौन इसे स्वीकार करेगा? यहाँ तक की मीडिया-संसद और विधायिकाओं में भी कुछ ऐसी ही चर्चा होती है तथा कई महत्वपूर्ण लोगों का ब्यान भी आता है कि जिस लड़की के साथ बलात्कार हुआ, उसकी जिन्दगी बर्बाद हो गई, मानों उसकी मानसिक मौत हो गई है। ऐसे में उन स्त्रियों की स्थिति, जिनके साथ बलात्कार हुआ है जो पहले से डरी हुई है, बहुत बुरी हो जाती है, वे खुद भी इस बात को स्वीकार करने लगती है, कि उसके साथ जो हुआ उसके बाद उसका जीवन नारकीय हो गया है। हमें सबसे पहले इस तरह की नकारात्मक चर्चाओं पर विराम लगाने की आवश्यकता है। बलात्कारी तो हमला करके छोड़ देता है, लेकिन उसके बाद लड़की या स्त्री का जीवन मुश्किल तो समाज ही करता है। इज्जत लुट गई, अस्मत तार-तार हो गई, ये तो समाज के लोग चिल्लाते हैं। आज कोई भी नहीं कहता या सोचता है कि इज्जत तो बलात्कारी की भी लुटी है। ऐसा क्यों? बलात्कारी तो शरीर और मन को जख्मी करती है, पर समाज तो जीने की इच्छा को ही खत्म कर देता है। ये कैसा समाज है, जो बलात्कारी के मन में इनता सा भी अपराध बोध नहीं भरता कि वह आत्महत्या करले बल्कि स्त्री को ही आत्महत्या के लिये मजबूर करता है। बलात्कार के खिलाफ आवाज उठाने वाली स्त्री को चरित्रहीन या और अधिक सेक्स हिंसा के योग्य मान लिया जाता है। कोई स्त्री जब अपने काम के सिलसिले में बलात्कार पर शोध करती है। उस पर रिपोर्ट लिखती और अपने पुरूष सहयोगी को उसे सुनाती है, तो उस व्यक्ति में सेक्स सम्बन्धी भावनाएं जगाने का खतरा उठा रही होती है। बलात्कार के खिलाफ आवाज उठाने वाली या शोध करने वाली स्त्री के खुद सेक्स सम्बन्धी उत्पीड़न या बलात्कार तक का शिकार हो जाने की कहानियां अनजानी नहीं है। ऐसी स्त्री के खिलाफ अभद्रता पूर्ण तरीके से काम करने के आरोप उछलते हैं, उन्हें चरित्रहीन या उनके काम को भड़काऊ मान लिया जाता है।

यदि समाज सच में स्त्रियों के प्रति बढ़ते बलात्कार और यौन हिंसा से चिंतित है तो उसे स्त्री को यौन वस्तु के रूप दिखाने वाली हर एक चीज का विरोध करना पड़ेगा। आज ऑन लाइन शॉपिंग पर एक कम्पनी आपको एक ऐसी ऐशट्रे बेच रही है जिस पर एक निर्वस्त्र स्त्री की आकृति बनी हुई है कंपनी आपको अपनी मर्दवादी कुंठा बुझाने का वह सामान दे रही है। सिगरेट उस ऐशट्रे पर बनी स्त्री की वैजाइना में बुझाइए और खुश होइए। ये कैसा समाज है हमारा और कैसी सोच है? जहाँ स्त्री एक इंसान न होकर सिर्फ एक मांस का टुकड़ा है। ये कैसी मर्दवादी कुंठा है, जहाँ आप स्त्री के वेजाइना में रॉड, पत्थर, बोतल डालकर संतुष्ट होते हैं। नन्हीं बच्ची से लेकर बूढ़ी औरतों तक से बलात्कार होते हैं, जहाँ स्त्री को सिर्फ वेजाइना समझा जाता है। अगर आपको स्त्री की सिर्फ वेजाइना ही चाहिये तो इसी ऑनलाइन शॉपिंग में बहुत से सेक्स टॉयज भी मिलते हैं, तो ऐसे पुरूषों को चाहिये कि वो एक ऐसी सेक्स डॉल ले लें, ओर उसकी वेजाइना में अपनी कुंठा को निकाले, किन्तु नहीं आपको तो स्त्री के वेजाइना में अपने जननांग के साथ अपनी कुंठा रूपी पत्थर, लोहे की रॉड, कांच की बोतल भी डालनी है तभी तो आप मर्द कहलायेंगे। उफ! ये कैसी सोच होती जा रही है इस समाज की। ऐसे पुरूष कहाँ से आते हैं? कौन उन्हें जन्म देता है जो सिर्फ स्त्री के जांघों के बीच का स्थान ही देखते है, वो ये क्यों भूल जाते हैं कि उसी जांघों के बीच के स्थान से वो निकलकर आते हैं। वहीं से उनका जन्म होता है जिस स्तन का दूध पीकर उनकी सांसे चलती है वो बड़े होते ही कैसे उसी स्तन का मर्दन कर उसे काट कर फेंक देते हैं।

मीडिया में जितनी घटनाओं का जिक्र हम सुनते हैं, उनसे ज्यादा संख्या में ये घटनाएं घटती है। बहुत सी घटनाएं तो पुलिस थाने तक भी नहीं पहुँच पाती। स्त्रियों को लेकर हमारा समाज अभी भी जंगल के तरीके से चल रहा है, जिसको जहाँ मौका मिला हिंसा की और लूट लिया।

लेकिन अब बस! बहुत परीक्षा हो चुकी स्त्रियों की। लानत है समाज के ऐसे दोहरे संस्कारों, परम्पराओं और मापदण्डों की जहाँ राजनेता कहते हैं, लड़के हैं उनसे गलती हो जाती है, तो क्या उन्हें फांसी दे दें, या फिर जहाँ प्रशासनिक अधिकारी खुद कह बैठते हैं, कि अगर आप बलात्कार से बच नहीं सकती तो उसका मजा लीजिये’’। अरे जनाब! जरा सोचिये यदि आपके पास दिल है तो यदि आप वास्तव में इस समाज को चलाने का दावा करते हैं, कि जब एक स्त्री का बलात्कार होता है तो वह सिर्फ शरीर का नहीं मन का, आत्मा का, संपूर्ण मानवता का बलात्कार होता है। अजी अपनी सोच को बदलिए, अपनी सोच का बदलना ही बलात्कार और तमाम तरह की यौन हिंसाओं को खत्म करने का एक मात्र रास्ता है। जिस दिन पुरूष समझ लेंगे कि स्त्री यौन वस्तु नहीं है, साथी है, जिस दिन वे समझ लेंगे कि बलात्कार से कहीं ज्यादा आनन्द स्त्री का साथ पाने में है उस दिन बलात्कार के दैत्य की विदाई हो जायेगी। बलात्कार और छेड़छाड़ जैसी घटनायें एक दुर्घटना मात्र है। इनको लेकर स्त्री के जीवन पर दबाव नहीं डालना चाहिये। ऐसी स्त्रियों को जब सामान्य मानकर समाज में सही स्थान दिया जायेगा, तभी समाज में बदलाव हो सकेगा। कानून के साथ-साथ समाज को भी अपना दृष्टिकोण बदलने की जरूरत है।     
०००

असि. प्रोफेसर (हिन्दी)
एन.ए.एस. कॉलिज, मेरठ
मो.नं-9412365513


डॉ कविश्री जायसवाल का एक और लेख नीचे लिंक पर पढ़िए


आधी दुनिया का जटिल यथार्थ

http://bizooka2009.blogspot.com/2018/03/8.html?m=1






शिप्रा खरे की कविताएं




दर्द भीतर भी है दर्द बाहर भी है
दबा है ज़रा कुछ उजागर भी है....

"पहली बार कविता मैंने बारहवीं क्लास पास करने के बाद हॉस्टल जाने के बाद लिखी। खानदान की पहली लड़की घर से बाहर पढ़ने निकली थी वह भी अकेले यह बात ही माँ और दादी को परेशान करने के लिए काफी थी। बचपन में ही पापा के ना रहने के कारण माँ से जुड़ाव ज्यादा ही था।उन्हें मेरी सहेली कहा जाए तो गलत ना होगा।  मेरे दुःख सुख की इकलौती साथी वही तो रहीं सो उनसे दूर आने पर हॉस्टल पहुँचने के तीसरे दिन ही लम्बी सी दो पन्नों की कविता लिख गयी और मैं खुद आश्चर्य में पड़ गई। आज तक यह बात मुझे ना समझ आयी कि मैंने कविता ही क्यों लिखी, वह सिर्फ बातों वाली चिठ्ठी भी हो सकती थी क्योंकि चिठ्ठियाँ लिखना बहुत पसंद था मुझे और मैं खूब चिठ्ठियाँ लिखा करती थी। हाँ तो मैंने सिर्फ एक ही कविता लिखी। उसके बाद पी सी एम ग्रुप ने कविता लिखने की मति सवालों में उलझा दी और ज़िंदगी भी उलझती गई साथ साथ। जगहें बदलती रहीं और परिस्थितियाँ भी और मुझ पर दबाव बढ़ता रहा। कैरियर बनाने की जद्दोजहद में तेज़ी से उठा पटक के पंद्रह साल बीत गए। धीरे धीरे ज़िंदगी ढर्रे पर आ गई , फ़िर गिरह खुलीं और 
कविता बन गयी और बनती चली गईं। पापा लिखते थे यह माँ का कहना है तो शायद विरासत मिली थी। अब तो किसी की बातों का जवाब भी मेरी ओर से काव्यमय करके दिया जाता। पर लगता था अभी बहुत हल्की है कविता। कहीं भी उछल जाती या उछाल दी जाती। परेशान भी हुई पर वजन ना आया । जीवन सीधी डगर पर चल रहा था सो ध्यान भी आता जाता रहा। अचानक जीवन ने फ़िर पलटी मारी और दिमाग शून्य हो गया सारी कविताई खो गई। लेकिन अबकी बार जब चेतना लौटी तो अपने साथ बहुत कुछ लाई। पहले सिर्फ अपनी खुुशी और दुःख दिखते थे अब सबकी हँसी और तकलीफें दिखाई देने लगीं। दिल भारी होने लगा और कविता थोड़ी थोड़ी वजनदार और समझदार। 
"दर्द भीतर भी है दर्द बाहर भी है
दबा है ज़रा कुछ उजागर भी है...."
जीवन में कई बार साथी के चुनाव का मौका आया पर स्वाभाविमान पर प्रहार सहा ना गया मुझसे इसलिए अभिव्यक्ति के इस सुंदरतम माध्यम को ही मैंने अपना साथी बना लिया हाँलाकि माँ से जुड़ाव उतना ही गहन है आज भी। पर मन के भारीपन को हल्का करने का बस यही एक ज़रिया है मेरे पास तो इसे जतन से अपना रखा है या यूँ भी कह सकते हैं कि इसने मुझे सँभाल रखा है। 



शिप्रा खरे 


कविताएं


 यह ज़िंदगी 

यह ज़िंदगी
जहाँ नमक घुला है पसीने में
तो छुपा है आँखों की कोरों में भी
तीखापन ज़ुबान का
खटास ले आता है रिश्तों में कभी
कसैला कर देता है मन
फिर भी लफ्ज़ो की
ज़रा सी मिठास
बढा देती है उम्र खुशी की  ..!!




 दर्द अपने हैं 

बहुत अपने होते हैं दर्द
किसी कारण मिलें
अपने ही बनकर
रग रग में उतर जाते हैं
सीने में दफन हो जाते हैं
परायी तो मुस्कुराहटे हैं
कितनी ही अपनी क्यों न हों
ज़रा में मुकर जाएँ
जो चाहे छीन ले जाए
इक इक साँस भारी कर जाए




काँटा हूँ मैं 

मुझे काँटा होने से गुरेज नहीं
मुझे फक्र है अपने होने का
हो सकता ना हो कोई हरियाली मुझसे
ना ही रंग कोई
खुशबू भी ना हो
फिर भी हकीकत हूँ मैं..
अपनी चुभन के साथ बरकरार हूँ
जिसको ज़रूरत मेरी, मैं तैयार हूँ








संघर्ष

सफलता से पहले
और असफलता के बाद
एक सिरे पर खड़े
हम करते हैं संघर्ष
बड़े बड़े आत्म विमर्श
करते हैं हर पहलू पर गौर
बनाते हैं रूपरेखा
फूँक फूँक कर तब कहीं
बढ़ाते हैं कदम आगे
करते हैं कड़ी मेहनत
जूझते हैं हर वक्त
खपा तक देते हैं खुद को...
तब ऐसे में ज़रूरी होता है
अहम् को छोड़ना
सिरों को भी जोड़ना
ताकि रक्त के साथ
बहते रहें एहसास और जज़्बात
होती रहे अपनों से बात
बना रहे विश्वास
बढ़े आत्मविश्वास
करते रहें परवाह
मिले रहें एक दूजे से दिल
वजहें भले ही कितनी हों मुश्किल....




कीमत 

सब मुहैया है तुम्हें
ठोकर पर रखो कुछ भी
या लात मार कर
परे कर सकते हो किसी को...
पर तुम नहीं समझ सकते
निवालों की कीमत
ना ही पुआल पर
लेटने का सुख

ढेरों किताबें पढ़ीं तुमने
पास करीं खूब जमातें
फलसफे लिख डाले
मगर पढ़ ना सके
माँ के मन की बात
ना ही समझ पाए
पिता की बेबस हँसी
उनके जज़्बात




इश्क

कितनी अनोखी है
प्रीत जमीं की
जो फैलाये आँचल
करती है सजदा
माँगती है दुआ
अपने नबी की...
कितना अलग है
अंदाज़ आसमां का
तड़पता खुद है
पर बरसा के बूँद बूँद
भर देता है झोली
प्यासी ज़मीन की...








एहसास

ना डाले कोई
जलती तीखी नज़रें
इन पर
कहीं पल में ही
होम न हो जायें
बिन खिले ही
खूबसूरत जज़्बात..
कली से कोमल यह प्रीत के एहसास ..




जीवन संगीत 

इस कोलाहल में भी
ज़रा सी ऊष्मा पाकर
सृजित हो जाता है
जीवन का वह गीत
वह मधुर संगीत
जिसका हाथ थाम
कुंलाचे भरता आरोही मन
कहीं दूर निकल जाता है
ख्यालों की सवारी कर
उम्मीदों की दस्तक दे
पंख लगा जाता है...
कि हौसलों को आसमान मिल ही जाता है ....




 शाहकार

देखो...
बुन रही हूँ मैं कुछ शब्द
तैयार हो जाये तो बताना
जामा पहन कर
लगा तुमको कैसा
उसमें ढल कर...
पिरोयी जिसमें मैने
एक एक याद
उल्टे फंदे सीधे किये
नये नये रंग दिये ..
हर धागे के साथ
इक इक पल
आबाद किया
पहली याद का
प्यारा सा मोती
उसमें टाँक दिया
सुंदर आकार दिया..
.



 स्नेह के बंध

जड़ों से जुड़ी कोपलें
स्नेह के खुले रंध्र
कच्चे धागों से बँधे
पक्के रेशमी बंध
जोड़े रखते हैं
ज़मी से रिश्ता अपना
साँस लेते हैं
और पनपते हैं
सुंदर खुले वातावरण में
बना लेते हैं खुद ही
रक्षात्मक आवरण
ताकि किसी विपत्ति की
ज़रा ना छाया पड़े
हर मुसीबत से पार पा
खुद ही आगे बढ़े



 पहचान 
वो मुझे सँवार लेगा
कुम्हार की तरह
ढाल के साँचे में
देगा मुझे
सादा सा सौम्य रूप
फिर दिखायेगा धूप मुझे
अपनी निगरानी में
बचाकर हर प्रहार

मार मौसम की
लेकिन तपायेगा भी
बनायेगा कुंदन
निर्मल हो निकलूँगी मैं
निखरी खरी
और खिल उठेगा जीवन
तब भरेगा जिंदगी के रंग
देगा पहचान
बढ़ायेगा मान

मेरे अस्तित्व की
वही होगी खूबसूरत पहचान...








 श्रमजीवी 

कहीं रास्ते ऑफिस, टॉवर, दुकान
कहीं महल आलीशान
वोह ईंट ईंट जोड़
पसीने से कहीं
बनाते हैं मकान
बारिश में भीग कर
जमती सी ठण्ड में कभी
खुद को धूप में सुखा कर
कभी खाकर लू के थपेड़े
खुद पत्थर के बन जाते हैं...
कहीं साफ करते जूठन
कहीं परसते
थालियों में रोटी
प्सास बुझाते औरों की
खुद भूखे प्यासे रह
भूख से पार पाने को
उसी को साध कर
तप तप कर
होम कर देते हैं शरीर
और नींद का उपहार पाते हैं
कि पाई-पाई जोड़ने के लिये दिन-दिन खर्च हो जाते हैं .... !!




 बरसात 

बरसने लगीं बूँदें
टप-टप लगातार
फ़िर लगी झड़ी खारे पानी की

इक धार बही
आँखें आबशार हुयी....
ना खेत सिंचे
ना भरीं दरारें
खलिहान सूने
सूखा सूखा मन भारी
ज़मीं बेज़ार हुयीं....
दिन दिन सूरज
तपता सा मन
बन पतंग ढूँढे बादल
आशा की डोर
लम्बी हर बार हुयी...




रुकी सी ज़िंदगी 

कभी एेसा भी होता है
जब शाम नहीं होती
ढल जाता है सूरज
समेटकर ब्योरा दिन भर का
पंछी भी लौट जाते हैं
अपनी अपनी नीड़
जल उठती है संझा बाती भी
पर शाम नहीं होती...
कभी एेसा भी होता है
जब रात नहीं होती
टिमटिमाने लगते हैं तारे फलक पर
चाँद भी निकल लेता है सैर पर
चाँदनी बिछा देती है चादर
सितारे टँक जाते हैं
दिखाने लगते हैं दिशा
पर रात नहीं होती...
कभी एेसा भी होता है
जब दसियों बातें होती हैं ज़ुबां पर
दिन होने के एहसास
और रात के दरम्यां

ढेरों ख्याल खड़े रहते हैं
अपनी ख्वाहिश लिये
पलकों के पीछे कहीं
मुस्कान के इंतज़ार में
पर कोई बात नहीं होती



परिचय

नाम: शिप्रा खरे
पिता-स्व०कपिल देव खरे
माता - श्रीमती लक्ष्मी खरे 
शिक्षा - एम एस सी, एम ए, बी एड, एम बी ए
विशेष- संगीत गायन में प्रभाकर, आई जी डी बाम्बे
सम्प्रति-अध्यापन, स्वतंत्र लेखन, सामाजिक कार्य
रुचि- लेखन,पठन-पाठन और संगीत

साहित्यिक परिचय
लेखन विधा- कविता, गज़ल, कहानी, बाल साहित्य, आलेख
प्रकाशन - 12  साझा काव्य संग्रह(hindi aur english dono mein )
दो काव्य संग्रहों का सहसम्पादन
महासचिव - आगमन साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समूह 
प्रबंध सम्पादक - आगमन पत्रिका 
अंतर्राष्ट्रीय दिल्ली फिल्म महोत्सव 2016 एवं 2017  में पोएट्री सेक्शन में कविता चयनित व प्रकाशित


सम्मान/पुरुस्कार

1-किशोर अवार्ड(गायन)  2007( बी एस एल -लखीमपुर)

लेखन-
2-शब्द निष्ठा सम्मान 2016 (सारवाड़- राजस्थान )
3-युवा प्रतिभा सम्मान 2016(आगमन सांस्कृतिक एवं साहित्यक समूह) 
4-डॉ०महाराज कृष्ण जैन स्मृति सम्मान-2017(पूर्वोत्तर हिंदी अकाडमी -शीलांग)
5-आगमन गौरव सम्मान-2017(आगमन साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समूह-हापुड़)
6-साहित्य गौरव सम्मान 2017(साहित्य समीर दस्तक - भोपाल) 
7-शब्द गाथा सम्मान - 2018(हिंदुस्तानी भाषा अकादमी - दिल्ली) 
8-आगमन तेजस्विनी सम्मान 2018 

 सामााजिक सरोकार

अध्यक्ष - कपिलश सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्था (गोला-खीरी) 
सक्रिय सदस्या - बंधन वेल्फेयर सोसाइटी, गोला-(खीरी-उ०प्र)) 

निवास
पश्चिमी दीक्षिताना 
गोला गोकरण नाथ 
जिला - खीरी 

उ०प्र -262802

25 अप्रैल, 2018


कहानी :

अंजुमन खाला को गुस्सा क्यों नहीं आता...


सोनी पाण्डेय 




सोनी पाण्डेय  




सलमा का दुपट्टा असलम की साईकिल के घूमते पहिए में फस गया.....फस गया या जबरन फसाया गया इसमें सन्देह था।रेशमी गुलाबी दुपट्टे का सुनहरा गोटा उघड़ गया.... दुपट्टा बचा कर निकालते- निकालते मछली का जाला बन गया.....हूँssssssआं...हूँssssssssssआं कर सात साल की सलमा का रुदन देख असलम की सिट्टी - पिट्टी गुम।शेख चचा लड़की को पुचकार कर चुप करा रहे थे कि कपड़े रंगती असलम की अम्मी आग पर चढ़ा हंडा छोड़ दनदनाती आकर कान उमेठते उसे लेकर चलीं....साथ -साथ सप्तम सुर में चिल्ला रही थी..." करम जली ,ना जाने किस जनम का बदला लेती है मुझसे....पहले तो खसम खा बैठी ,ऊपर से चार- चार बेटियाँ जन के बैठ गयी ।हाय अल्ला! ...रहम कर मौला! , किस महूरत में अपने मासूम रहमान मियाँ को इस कलमुही के पल्ले बाँधाssssssssss...।"

उसका राग भैरवी चालू था...रह -रह कर कच्ची मिट्टी की दीवारों से हायssssssssss, की चीखें अब भी आ रही थीं। अंज़ुमन खाला बरामदे से रोती बेटी को देख भागती हुई आईं....बगल के मकान से हाय तौबा की आवाजें साफ सुनाई दे रही थीं। वह क्या पूरी रंगरेज गली उनकी बहन परवीन  की फ़ितरत से वाक़िफ थी,...दिन- रात बहन को ज़लील करने का मौका तलाशती रहती ।..अंज़ुमन खाला एक चुप ,हजार चुप ।पहाड़ सा धैर्य समेटे बेवा खाला चार बेटियों को सिलाई ,कढ़ाई कर पाल पोश रहीं थीं।भूले से बहन की चौखट पर मदद के लिए पैर नहीं रखतीं ...न ही बेबसी का रोना रोतीं।

दोनों बहनों में छत्तीस का विकट आंकड़ा...एक का पति शहर का सबसे हुनरमन्द रंगरेज और दूसरे का टाप वन दर्जी। रहमान टेलर के नाम का आलम यह था कि शहर तो शहर आस- पास के पड़ोसी जिले के दुल्हों की शेरवानियाँ यहीं सिलतीं....रोज़ी में बरकत थी ....हुनरमन्द ,सलीक़ेदार बीबी और चार प्यारी बेटियों से रौनक उनके गुलिस्तां में कमी थी तो केवल एक बेटे की। दोनों जनें पाँचों समय नियम के नमाजी...खुदा पर पूरा यकीन रखते थे कि एक न एक दिन चश्मेचराग ज़रुर देखेंगे और हर पीर पैगम्बर के दर की खाक छानते। अभी तो अजमेर शरीफ से लौटे थे ....कितनी अकीदत से कुरानखानी कराई थी....या मौला sssssssतू ने ये क्या कर दिया।नेक बन्दों की ही तूझे भी ज़रुरत रहती है ,कहते -कहते असलम की अम्मी जिन्हें हम बच्चे परवीन खाला कहते थे ,उस दिन छाती पीट -पीट दहाड़े मार रही थीं।सामने अहाते में रहमान मियाँ की लाश पर बेटियाँ सिर पटक -पटक रो रही थीं।रात दावत से लौट कर सोये तो सोये ही रह गये।शरीर नीला पड़ गया था। जलनखोरों की कमी नहीं थी,घर पर केवल दावतखाने की बात कह कर निकले थे....कभी किसी से अदावत नहीं की ,हाँ रोजी रोज़ बढ़ते देख कुछ सिलने वाले जात भाईयों की डाह जरुर थी। ....अन्तत: पुलिस ने खुदकुशी का मामला बता पल्ला झाड़ लिया।
                      चालीसे तक तो भाई जात और रिश्तेदार मदद करते रहे पर धीरे- धीरे सबके दरवाजे बन्द होने लगे। चार- चार बेटियाँ ,सबसे बड़ी सना नौवीं में...सबा सातवीं में...सब्बो छठी में और सलमा दूसरी क्लास में पढ़ती थीं। लड़कियों की फीस, कॉपी ,किताब कपड़े से लेकर घर के राशन और बूढ़ी सास की अस्थमा की बीमारी के खयाल में डूबी अंजुमन खाला ने एक दिन घर के आगे की दुकान का सटर उठा दिया....पति के साथ -साथ सिलाई करती थीं....मशीन पर बैठीं तो फिर जम कर बैठ गयीं।लड़किया तुरपाई ,काज ,बटन करतीं और उनकी मशीन खड़खडाते हुए पूरे दिन दहाड़ती।हसद बड़ी बुरी चीज होती है...आदमी पहले खुद राख होता है फिर शिकार की मुश्किलें बढ़ाता है। हमशीरा  बहन परवीन जो बगल में ब्याही थी एक बार फिर हौसला और बरकत देख कुढ़ने लगी ।मौका मिलते तोहमतों की बरसात कर देती...ज़बान थी की कैंचीं....सरsssssssssसरssssss रुह काटते उसे तनिक रहम नहीं आता।
                      दिन ,महीने ,साल बीते.....हर सिंगार खिल कर झर गये.....सावन के झूले उतरे और औरते फगुवा की फुनगी पर बैठ सपनों की सतरंगी ओढ़नी ताने फुदकती....महकती ...गमकती जीने लगीं ,अपने औरत होने के तमाम रंजो ग़म सहेजे।गली ,मुहल्ले में धीरे- धीरे रौनक़ लौटने लगी।रंगरेज गली फिरसे गुलज़ार हो उठी ....लोग हर दिल अज़ीज रहमान दर्जी को भुलाने लगे। अब चर्चे थे तो एक गुस्ताख बेवा का तन कर दर्जी की दुकान में बेपर्दा हो मर्दों से नाप जोख करने का । अंजुमन खाला एक चुप हजार चुप ,...चेहरे पर तनिक भी बेबसी हावी नहीं होने देतीं।धीरे -धीरे पुराने आर्डर निबटाने के बाद दुकान पर नया बोर्ड टंगवा दिया ..."रहमान लेडीज एण्ड जेण्टस सूट श्पेसलिस्ट"। जानतीं थीं बेटियों को आगे इसी हुनर को बढ़ाना है सो औरतों के कपड़ों की सिलाई की ओर मुड़ीं,..वैसे भी मर्द अब किसी ज़नानी से कपड़े सिलाने से परहेज़ करने लगे थे।उपर से परवीन की कतरनी ज़बान पहले से कस्टमर को भड़काती रहती।
                           सना हमारी क्लास मेट थी,गुलाबी होंठ और हिरनी जैसी आँखों वाली।उजली ऐसी की चाँदनी भी शरमा जाए ... गाती तो मादक महुए की रस भरी जैसे टप टप टपकते हुए दूर -दूर तक रसगन्ध फैला आती कि देखो फागुन आया है।ऐसी थी चर्चा पूरे स्कूल की दीवारों से निकलकर बगल के लड़कों के कालेज तक। हम पहली बार रंगरेज गली में सना के साथ ही घुसे थे...सकरी गली सरपीली गोल -गोल घूमती रही घण्टों तक ,जैसे लखनऊ की भूल भुलैया ।मैं कई बार सना का हाथ पकड़ती और डर जाती....गली के दोनों तरफ तंग मकान...मकानों के सामने के हिस्से  में रंगरेजों की दुकान....दुकान क्या बड़ी -बड़ी भट्ठियों पर हण्डों में उबलते रंगीन पानी के भाप  से रंगी पूरी होली की छावनी ....जैसे हमारे गाँवों में होली के दिनों में रहता है। एक अहाते में अलगनी पर लाइन से बाँधनी के रंग बिरंगे दुपट्टे टंगे देख हम खिल गये।हाँ....यही तो चाहिए था हमें एन्नुवल फंक्शन के लिए....गली में खोने का डर फुर्र हो गया।हम सना के घर पहुँचे... आगे दुकान में उसकी माँ कपड़े सिल रही थीं...लड़कियों का हुजूम देख मुस्कुराकर स्वागत किया।रेहाना ने झुक कर आदाब खाला कहा  और बिना कुछ सोचे समझे हम सब ने फालो किया ,समवेत स्वर में.....आदाब खाला गूंज उठा। हम बगल के गलियारे से अन्दर घुसे....अन्दर बड़ा सा बारामदा..,बरामदे में चौकी पर एक बूढ़ी औरत हाथ में सफेद मोतियों की माला लिए फेर रही थी ..ऐनक चढ़ा कर हमें पहचानने की कोशिश कर ही रही थीं कि अबकी सब एक साथ आदब बजा सर्र से आगे बढ़ गयीं सना के साथ....सना ने बरामदे का दरवाज़ा खोला ....सामने बड़ा सा अहाता.....जो एक विशाल पोखरे के किनारे था ।क़रीब दस बकरियाँ देखते मिमियाने लगीं....बत्तख ,कोकच भी देखते मटकते आगे बढ़ने लगे,मुर्गियाँ भी भागती हुई आकर परिक्रमा करने लगीं जैसे बत्तखों को चिढ़ा रही हों कि देखों रेस जीत लिया। एक तरफ कबूतरों का दरबा दिखा....शायद कबूतर चरने निकले थे। दूसरी तरफ गाय की मड़ई ...हम सावधान की मुद्रा में खड़े इस पूरे दृश्य को सहमें देख रहे थे इस डर से कि अगले पल कौन और प्रगट होगा?.....खैर दस मिनट में स्थिति सामान्य हो गयी।सना मुट्ठी में दाने ले दूर बिखेर कर हँसती हुई आई .....सब टूट पड़ें थे दानों पर। नकाब खोलते हुए एक तरफ खड़ी चारपाई को बिछाने के लिए रेहाना को कह वह अन्दर चली गयी।रेहाना उसकी दूर की खालाजात बहन थी।







हम अभी तक इस पशु मेले से असहज थे कि एक देशी कुत्ता भौंकता हमारे सामने आकर खड़ा हो गया ,हम चरपाई पर चढ़ कर खड़े हो गये। मुझे गुस्सा आ रहा था....यार ये घर है की चिड़िया घर?...रेहाना हँसने लगी मेरी बात सुनकर । कुत्ते को पुचकार कर वापस भेज दिया ....,वह पूँछ हिलाता निकल ही रहा था कि सना कांच की कटोरियों से सजा ट्रे लेकर आती दिखी....वह फिर पीछे हो लिया। सना चने दाल का हलवा ,खुरमा और चिप्पस लिए चारपाई पर आकर बैठ गयी। हिन्दू लड़कियाँ कुछ खाने में संकोच कर रही थीं। सभी असहज थीं इस भय से कि कैसे खाऐं मुसलमान के घर का...खास कर तीन पण्डित और दो ठाकुर लड़कियाँ,...पाँचों ने मना कर दिया।बची मैं और दो तीन.....सना ने ना जाने क्या सोच कर बर्फी की आकार में कटा चने दाल का हलवा मेरी तरफ बढ़ाया,.....प्यार भरी सजल आँखें, मैं संकोचते अम्मा से डरते एक पीस उठा ली और पहला टुकड़ा काटते तारीफ करने लगी।सच में हलवा हमारे घरों के बेसन के हलवे से अलग और स्वादिष्ट था। .....मैं खा रही थी...धीरे -धीरे सबके हाथ बढ़ने लगे कि यदि ये पण्डित होकर खा सकती है तो हम क्यों नहीं ? नाश्ते के बाद हम बगल के रंगरेज की दुकान पर पहुँचे..हाथ में हमारे बड़ा सा कपड़े का गट्ठर देख परवीन खाला खिल गयीं। रेहाना सब समझा रही थी .....खाला ! चुनरी डिजाइन के पचास दुपट्टे छब्बीस जनवरी से पहले चाहिए।वह दुपट्टे गिन एक तरफ रख बोलीं ....हो जाएगा।रेहाना से हाल चाल, दुआ सलाम खत्म हुआ तो हम चलने को हुए।रेहाना अपनी गली में हमें छोड़कर मुड़ गयी।हम अटक गये....डर से माथे पर पसीने की चुहल कदमी बढ़ी और मैं अनयास ही .पीछे मुड़ कर देखने लगी ,इस उम्मीद में कि कोई आकर हाथ थाम इस गली से बाहर निकाले....भय के स्वेद बिन्दू सबके माथे पर रेंग रहे थे कि  अंजुमन खाला मुस्कुराती खड़ी मिलीं....हमें समझ में नहीं आ रहा था आगे किधर मुडें. ..चलो बच्चियों,मैं चौराहे तक जा रही ।खाला ने नकाब का पर्दा उठाकर मुस्कुराते हुए कहा।शायद वह माजरा समझ चुकी थी़ं।हमने अपना भय समेटा और चुपचाप उनके पीछे हो लिए। वह आगे -आगे हम पीछे -पीछे रेल के डिब्बे की तरह पतली गली में चले जा रहे थे....किनारे के घरों से कुछ औरतें पर्दे की ओट से खाला को टोकतीं....मेरी सलवार कमीज हुई की नहीं बाजी?.....वह चलते हुए कहतीं....हो गया ....किसी को भेज कर मंगा लो। हम लगभग बीस मिनट पर चौक चौराहे पर पहुँचे,जानी पहचानी सड़क देख कर जान में जान आई। खाला को सलाम कर हम अपने अपने घरों को रिक्शे से रवाना हुए।
                       दुपट्टे रंग गये और रेहाना सना के साथ जाकर ले आई। हमारी हिम्मत पस्त थी गली की घुमावदार तिलस्म के नाम पर। छब्बीस जनवरी का वह रंगारंग कार्यक्रम आज भी याद आता है तो मन रोमांच से भर जाता है जिसमें चार चाँद बाँधनी के  सतरंगी ओढ़नी ने लगाया था। इसी बहाने गली का प्रचार हमारे हिन्दू मुहल्लों तक आया और औरतें कभी पुरानी साड़ियों की रंगाई तो कभी चादरों पर चुनरी डिजाइन रंगाने रंगरेज गली में आने लगीं।
धीरे -धीरे अंजुमन खाला के हुनर का भी प्रचार हुआ और परवीन से ज्यादा भीड़ इधर जुटने लगी। सना मेरी अम्मा के ब्लाऊज़ के कपड़े और नाप धीरे से बस्ते में रख, ले जाती और सिला कर चुपचाप मेरे बस्ते में ला रख देती।अम्मा खाला की सिलाई की ऐसी मुरीद हुई की खाला के जीते जी साथ नहीं छोड़ा।

                       इधर परवीन का हाले आलम यह था कि टोना टोटका पीर मज़ार सब छानती फिरती की अंजुमन का धन्धा बैठ जाऐ.....किन्तु जहाँ मेहनत है बरकत होती ही होती है।घर का पिछला हिस्सा पक्का बनावाने का ख्वाब लिए रहमान मियाँ अल्ला को प्यारे हो गये थे....खाला ने पीछे एक नम्बर का पाँच कमरों का मकान बनवाया....बड़ी अक़ीदत से क़ुरानखानी करा सबको दावत दी। परवीन के कलेजे पर डाह की नागिन कुण्डली मारे बैठ गयी ....लगी सबसे कहने"जरुर रहमान कोई तस्करी -वस्करी का धन्धा करता था....इतना रुपया गड़ा था कि मरते कोठी उठ गयी।ज़रुर लाले को धन्धेबाजों ने मारा होगा कहते हुए अफवाहों का बाज़ार गर्म करती। सरपीली रंगरेज गली में गोल -गोल घूमतीं बातें खाला के घर पहुँची....सास बड़ी बहू से जा भिंड़ी ....बूढ़ी सास दरवाजे पर खड़ी हो चिल्ला रही थीं.....तेरे आँख में मिर्च झोंकूं मूईsss,ज़बान में कीड़े पड़ें रेsssss
सोई तो सोई रह जा कि तेरी ज़बान जल जाए हरामी,जो मेरे फरिश्ते से बेटे पर तोहमत लगाती है।
परवीन रसोईं में खाना पका रही थी,कान में सास की आवाज पड़ी तो तमतमाते हुए कलछुल फेंक कर चली.....हाथ लहराते आकर मुँह के पास सट कर खड़ी हो गयी....हाँ क्यों नहीं अम्मी! गालियाँ तो मुझे ही दोगी, धम्म से दरवाजे के चबूतरे पर बैठ गयी,....छाती पीटते हुए...बदुआऐं मेरे हिस्से और रक़म रहमान मियाँ ,हायsssss मेरी तो क़िस्मत फूटी थी जो इस कलमुही को देवरानी बना लाई अल्लाह । हायsssssss
परवीन का हाय तौबा सुन मुहल्ला जुट गया ,लोग खुसुर -फुसुर करने लगेे।सना और सबा दादी को पकड़ कर अन्दर लाईं।खाला मशीन में गर्दन गड़ाए किसी के ब्याह की पियरी में गोटा लगा रहीं थीं ,चुपचाप ,जबकि  सारी आवाजें साफ कानों में पड़ रही थीं। सास चौकी पर बैठ सिसक -सिसक के रो रही थीं ,बेटियाँ भी। खाला एक दम से सिलाई छोड़ सास के सीने से जा लगीं ....औरतों के सामुहिक रुदन से माहौल मातमी हो गया पर अंजुमन खाला की ज़बान नहीं खुली,वही पुरानी रवायत ....एक चुप हजार चुप।

हम इण्टर में पहुँचे,अब तक रंगरेज गली हमारी सबसे प्रिय गली बन चुकी थी,कारण थीं अंजुमन खाला....बस एक नज़र भर देख कर नाप के कपड़े उतार कर रख देतीं। हम इशारे में समझाते कपड़े की डिजाइन और वह चुप देखती रहतीं और लो तैयार हो गया डिजाइनर लिबास। इसी साल सना का निकाह हुआ ,सना की दादी अड़ी हुई थीं बेटी के निकम्मे बेटे से सना के निकाह के लिए ,उम्र में दस साल बड़ा जावेद अव्वल नम्बर का निकम्मा था ।इधर एक साल से आए दिन ननिहाल चला आता और नानी की खिदमत कर चापलूसी बजाता रहता । इसमें भी परवीन की चाल थी,जबसे मकान बना था सीने पर साँप लोट रहा था,एक दिन मौक़ा देख ननद को चढ़ाया कि अंजुमन के पास खज़ाना गड़ा है,इससे पहले की दूसरी बेटियों के शौहर आकर जमें ,बेटे का निकाह कर नकेल डाल लो । ननद माँ के कान भरने लगी...."ज़माना बड़ा खराब है अम्मी, इससे पहले की बिन मर्द के घर में कोई अनहोनी हो सना का ब्याह कर हज कर आओ।
बुजु़र्ग औरत इन दिनों मर्दों सी बेधक अंजुमन को फैसले लेते देख रही थी, उनके लाख मना करने पर भी खाला ने घर के आगे का हिस्सा गिरवा कर एक तरफ दुकान बनवा बाकी हिस्से में चाहरदीवारी उठवा फ़ाटक लगवा दिया था ,जैसा रहमान मियाँ चाहते थे। दुकान काफी बड़ा हो गया था,एक साथ चार मशीनें खड़खड़ाने लगीं थीं.....आगे पर्दा तन गया था।जवान बेटियाँ किताबें पढ़ डिजाइन बनाने लगी थीं। लगन ,तीज ,त्योहारों में सोने की फुर्सत नहीं मिलती।ननद रोज़ दुकान में नोटों से भरा गल्ला देखती और माँ के कान भरती की अंजुमन रुपये गांठ कर उसे बड़ी परवीन के घर भेज देगी....अनपढ़ औरतों को अक़ल ही कितनी होती है....उस रोज़ से जो ज़िद लेकर बैठी ,निकाह करा कर ही चैन लिया। चाँद सी सना ,अन्धेरी रात सा स्याह जावेद,बेचारी रो- रो मरी जा रही थी।हम सब ने खाला को समझाया,गली के सैकड़ों लड़के उसके नाम पर ज़हर खालें,ऐसी दिवानगी।कई की माऐं सुनते दौड़तीं आईं रिश्ता लेकर पर खाला की बेबसी का आलम यह था कि बेटी के सामने मुस्कुरातीं,पीछे दम भर रोतीं,एक बार फिर वह मौन साध गयीं,एक चुप हजार चुप। अन्तत: सना का निकाह जावेद से रोते, गाते हो गया।हम सब उस रात एक फूल सी लड़की की अनचाही शादी के गवाह बने....एक ने तो जावेद से मज़ाक ही मज़ाक में कह भी दिया।लंगूर के हाथ हूर लगी.....।
अभी हाथ की मेंहदी भी नहीं छूटी थी ससुराल में सना की ,कि जावेद उसे ले ससुराल में आ जमा।दिन भर किवाड़ भिड़का कमरे में सोता शाम को सास से बिना पूछे गल्ले से सौ पचास निकाल सैर सपाटे पर चल देता। अंजुमन खाला ने ननद को बुला मशविरा किया और घर के पीछे बड़ा सा हाल बनवा दमाद के लिए लुंगी की बुनाई का पावरलूम बिठवा दिया।न चाहते जावेद को हाथ रोकना पड़ा,अन्दर ही अन्दर सास से चिढ़े रहते और आए दिन सना से मार पीट करते।अगर गलती से दुकान पर सना किसी मर्द से बात कर लेती ,तुरन्त उसके चरित्र पर लांछन लगाने लगते।तीन बरस में सना दो बच्चों की माँ बन गयी।एक बेटा ,एक बेटी।इधर सिलाई करना भी बन्द कर दिया था।चेहरा धीरे- धीरे अपनी रौनक़ खोता जा रहा था। इस बीच हम बी.ए.पास कर एम.ए.में आ गये पर रंगरेज गली का आकर्षण कम नहीं हुआ,कारण थीं अंजुमन खाला।
इस साल सबा का भी निकाह हो गया,इनके मियाँ जावेद से भी आगे निकले ।वलीमे के दूसरे दिन ही ससुराल आ धमके और पूरी रवायत से लूम में अपनी हिस्सेदारी तय कर ली। झगड़ा बढ़ता देख खाला ने लूम में मशीनें बैंक से लोन ले बढ़ा दीं और खट कर भरने लगीं।उनकी मुश्किलों से परवीन के कलेजे को खूब ठण्डक मिलती।दामादों को आए दिन दावत देती और सास को तंग कर रुपये ऐंठने के नुस्खे बताती। इतना सब कुछ चुप सहती खाला के माथे पर कभी सिकन नहीं देखा और सोचती रही कि उन्हें गुस्सा क्यों नहीं आता? मैं सोचती रही और जिन्दगी बढ़ती रही सरपट रेस के घोड़े की तरह । किसी को ठहर कर दो पल फुर्सत नहीं थी सोचने की, कि आखिर क्यों कर अंजुमन इतना ज़ुल्म सहती है बहन का।




                         

एम.ए.अन्तिम साल में पहुँचते मेरी शादी की तलाश में पिता जी ज़मीन आसमान एक करने लगे ,कहीं बात बनती तो लड़की दिखाने का उपक्रम शुरु होता ,और मेरी पैकिंग महंगे गिफ्ट पैकेट की तरह होने लगती। पार्लरवाली ने अम्मा से कहा....."आंटी जी जब दिखाईएगा पीली जार्जेट की भारी बार्डरवाली साड़ी में दिखाईएगा,साँवली लड़कियों का रंग निखर कर आता है लाईटिंग में।अम्मा परेशान साड़ी की तलाश में दुकान -दुकान भटकती फिर रही थीं कि बाजार में सना से टकरा गयीं ।सना ने हाल चाल पूछा तो परेशानी का सबब जान हँस पड़ी....चच्ची इतनी सी बात पर आप इतनी परेशान हैं,कोई पुरानी बनारसी साड़ी और पीली जार्जेट की प्लेन साड़ी लेकर आईएगा ,फिर देखिएगा जादू।वह कहते हुए हँस रही थी। मेरे पास जादू की छड़ी है.....समझीं। इतना सुनते अम्मा को चैन पड़ा।अगले दिन माता जी बक्से खोल बनारसी साड़ी छांटने लगी। कोई डाल की तो नइहर की तो कोई बिदाई की कह निकालती और रखती।उन साड़ियों के प्रति उसका मोह देखते ही बनता था ,.....समझ सकती हूँ कि कलेजे पर पत्थर रख कर अम्मा ने लाल बनारसी साड़ी निकाली होगी। हम अगले दिन अपनी प्रिय रंगरेज गली में घुसे .....उस तंग गली में जिन्दगी गमकती थी.....घुसते शेख चचा की मिठाई की दुकान जिस पर शहर की सबसे मशहूर कचौड़ी मिलती थी ,हम वापसी में दस बीस ज़रुर लेकर आते,..कढ़ाई में गोल गोल फुल कर नाच रही थी....एक तरफ चूड़िहारिन एक औरत की कलाईयाँ दबा दबा चूड़ियाँ पहना रही थीं,कुछ इन्तजार में बैठी थीं।पूरी गली करघे की खटखट नाद से खटकती ज्यों एकतारे पर जोगी जीवन का श्रमगीत गा रहा हो।बच्चे हाथ में गुल्ली डण्डा लिए कहीं दिखते तो कहीं पजामें का नाड़ा सम्हालते नाक पोंछते गोली खेलते। कुछ छत पर पतंग ले पेंचा लड़ाते,हाँ लड़कियाँ बाहर नहीं दिखतीं इस गली में....छोटी से छोटी लड़की मऊवाली साड़ी के पीछे के तार काटने का काम घर घर करतीं इस लिए।हर हाथ व्यस्त था ,इतना की सर उठे तो बस नमाज़ और घर के दूसरे ज़रुरी काम के लिए....हम चल रहे थे ,लगन के दिन,दुकान पर भीड़ दूर से दिखाई दे रही थी।मैं गेट खोल सीधे घर में घुस गई,सलमा ने भाग कर सना को आवाज दी....बाजी ssss देखो प्रिया बाजी आई हैं । सब्बो ने आगे के बैठक में हमें बिठा दिया और अन्दर चली गई ।सना गोद में अपनी गोल मटोल बेटी को लेकर आई और दादी के पास लेकर गई । दादी क़ुरान में सिर झुकाए बैठी थीं।मैंने धीरे से आदाब कहा तो मुस्कुराकर पोथी बन्द कर माथे से लगा एक तरफ रख दिया।माँ ने नमस्ते किया और हम उनके कहने पर पास की चौकी पर बैठ गये।सना ने साड़ी का पैकेट ले दादी को खोल कर दिखाया .....बनारसी साड़ी को दिखाते हुए .....इसका बार्डर पीली साड़ी पर चढ़ाना है। उन्होंने माँ से पूछा....कब ज़रुरत है? माँ ने कहा अगले शुक तक हर हाल में चाहिए।शनिवार को लड़के वाले आ रहे हैं।वह मुस्कुराकर चुप रह गयीं।माँ का अगला सवाल था.....पैसे.....बात पूरी भी नहीं हुई कि वह डपट पड़ी....बस यही रह गया है,जैसी मेरी सना वैसी ये।ये काम छोड़े तो जमाना हो गया बेटी, मेरी तरफ देख कर, पिरिया की बात है तो कर दूंगी । माँ चुप हो गयी।
                    सब्बो ट्रे में चाय नाश्ता लेकर आई... माँ ने व्रत का बहाना कर टाल दिया ।मैं खा पीती रही और माँ घूरती रही। आज प्रत्यक्ष को प्रमाण की ज़रुरत नही थी कि मैं उनकी सबसे बड़ी वादाखिलाफ बेटी थी उन दिनों। मेरी टिफिन कभी रसोईं में नहीं जाती थी इस आरोप के साथ कि मियाँ मकुनी सबका खाती खिलाती है।मैं धोती ...मैं ही रखती,मजाल की किसी बर्तन से छुला जाए।खैर मैंने इन्हीं लड़कियों से वेज बिरयानी,जर्दा,मूंग चने दाल का हलवा,सेवईं बनाने की विधियाँ सीखीं ,जिसके दम पर ससुराल में बेस्ट बाबर्ची घोषित हुई। साड़ी सना सब्बों संग आकर पहुँचा गयी,माँ ने उसके बच्चों के हाथ पर वापसी में पचास पचास के नोट धर एहसास कराया कि वह भी मेरे घर में अपनों जैसी है ,जैसा उसके घर में मेरा मान था ....मान दिया। माँ का ये बदलाव मुझे उस दिन इतना अच्छा लगा कि सना के जाते मैं लिपट कर उसके गालों को चुमने लगी.....माँ ने मेरे लिए आज धर्म की सकरी गली की थोड़ी सी चौड़ाई बढ़ाई थी .....दिलों की भी।ये हुनरमंद औरतें मेरे देखते देखते धर्म की गलियों से निकर मनुष्यता की सड़क पर मिलने लगीं थीं जिसमें रंगरेज गली की अहम भूमिका थी।
शनिवार को मेरी प्रस्तुति सजा धजा कर सास के सामने सराहनीय रही ।कुछ पार्लर के मेकप का असर तो कुछ शानदार बनारसी साड़ी का कमाल था कि ससुराल की औरतें मुग्ध हो गयीं। शादी तय हुई और एक माह के भीतर मैं भी अपने सपनों के अंखुवाने के दिनों में उस धरती से उखाड़ दी गयी जड़ समेत ,जहाँ अंकुरित हो पौधा बनी थी।खैर जो रवायत है रहेगी ही....इस मुद्दे पर प्रलाप का कोई फायदा नहीं।दिन ऐसे भागने लगे जेसे बचपन में हम जेठ की भरी दोपहरी में पुनपुन बाग में भागते थे। देखते देखते दस साल यूँ बीते जैसे आते जाते मौसम..... मैं मऊ जाती और घर से लौट आती। गली दोस्त मुहल्ले हाट बाज़ार सब छूट गये। एक बस मेरे शहर से जाती और आज़मगढ़ मोड़ पर उतार देती.....वहाँ से सटा घर,वापसी भी वहीं से। अम्मा मेरी बिदाई का ब्लाऊज अंजुमन खाला के यहाँ से सिला कर मंगा देती और उधर जाने का बहाना खत्म।इन दिनों शहर तेजी से बदला था..पैराडाइज सिनेमा हाल बन्द हो चुका था....अली बिल्डिंग में पूरा बाजार समाता जा रहा था....मुन्शीपुरा की औरतों को चौक बाजार जैसे था ही नहीं,.... जैसा हाल,...जब पूरा शहर बाजार लिए घर के मुहाने पर सिमट गया हो ,भला रंगरेज गली को कौन पूछे। मैं भी अपनी दुनिया में रमती बसती बढ़ रही थी...कि इकलौते भाई की शादी पड़ी।पहली बार शादी के बाद मैं शहर के भूले बिसरे दुकानों पर माँ और बहन के साथ युद्धस्तर पर खरिद्दारी करने में मशगूल थी....अली बिल्डि़ग में भाभी की डाल की साड़ियों की मैचिंग चूड़ियाँ ढूढते हम दुकान दुकान घूम रहे थे कि एक दुकान से कुछ पहचानी सी आवाज आई.....प्रिया बाजीsss
मैंने पलट कर देखा....सामने इण्टर में पढ़नेवाली सना सी सक्लो सूरत की लड़की हाथ हिला कर बुला रही थी.....मैं नज़दिक पहुँची.....तुम सलमा हो न?...लड़की चहक उठी... बाजी!....आप तो ईद का चाँद हो गयीं।... दुकान में खासी भीड़ थी,एक इकहरे बदन का लड़का औरतों को रैक से मैचिंग चुड़ियाँ निकाल कर दिखा रहा था।मैं चौंकी....उसे गौर से देखते हुए सलमा से पूछा...ये असलम है न?...वह लजा गयी। चेहरे पर लाज की लाली समेटे शिकायत किया,क्या बाजी ,अपनी दुकान छोड़ यहाँ वहाँ घूम रही हैं...हाथ से साड़ियों का पैकेट झट ले एक लड़के को पकड़ा कर कहा...सबसे बढ़ियाँ मैचिंग लगा ...और दूसरे को हमारे मना करने के बाद भी चाय के लिया दौड़ा दिया।नन्हीं सलमा हमारे सामने कुशल दुकानदार बन गयी थी। सिर का  दुपट्टा बार बार ठीक करती और ग्राहकों से रस मिसरी घोल बतियाती सलमा को देख सना अनायास याद आ जाती,वह अपना काम करते करते पूरे घर का हाल बताती रही और मैं आदतन मुस्कुराती चुप सुनती रही।असलम मियाँ ने बड़ी सुघड़ता से चूड़ियों के सेट तैयार कर सामने रख सलमा से मुस्कुराकर कहा....हिसाब ढ़ंग से लगाना,..सलमा भी उसी अदा से बोली...लो जी,बाजी मेरी हैं की आप की?
हिसाब की पर्ची देख माँ और बहन खुश हो गयीं।चूड़ियाँ बाजार भाव से काफी सस्ती थीं।चलते वक्त उसने वादा लिया ,घर जरुर आइएगा।मैं खुश थी आज ,....इस लिए नहीं की चूड़ियाँ सस्ती मिलीं थीं,बल्कि खुशी कारण सलमा और असलम की प्यारी जोड़ी थी।बातों ही बातों में उसने अपनी शादी की कहानी भी बता ड़ाली....बाजी इनकी अम्मी तो सुनते सदमें में आ गयी कि असलम मुझसे निकाह करना चाहते हैं।खूब कुहराम मचा और अन्त में सना बाजी के समझाने बुझाने पर ना जाने कैसे मान गयीं।मैं उस भोली लड़की की मासूम कहानी सुनती रही और समझती भी कि परवीन खाला जरुर इस तरह भी अंजुमन खाला को नीचा दिखाना चाहती रही होंगी।
               उनकी निगाह पहले से उनकी जगह ज़मीन पर थी और भोली लड़की उनके बनावटी विरोध को सच समझ बैठी होगी। खैर जो हुआ ,अच्छा हुआ था....सलमा खुश दिखी थी,जिस खुशी से सना और सबा को महरुम रहना पड़ा था सलमा के चेहरे पर सहज था।औरत जीवन में एक अदद मोहब्बत ही तो चाहती है मर्द से,बदले में उसके लिए खुशी खुशी कुर्बान हो जाती है। मैं उन लड़कियों और अंजुमन खाला में उलझी जाकर छत पर एकान्त पा चारपाई पर लेट गयी।नीचे शादी के घर की चहल पहल जारी थी।मैं लौट रही थी रंगरेज गली की स्मृतियों में....एक सुनहरा शहर फड़फड़ाकर पंख फैला उड़ रहा था.....अजान और आरती की एक साथ गूंजती आवाजों वाला शहर मऊ.....मऊवाली साड़ी....वनदेवी का विशाल नौरात्रों का मेला....मालिकताहिर बाबा की मजार से सटा मुख्य चौक बाजार और करघे की खटखट धुन पर थिरकती कर्मनिष्ठ उंगलियों का लय में नर्तन एक एक कर चलचित्र की तरह उभरने लगा।राग/विराग की गहरी खूंट यहीं कहीं गड़ी है आज भी मेरी,जिसके सहारे  चलती है  मेरी जिन्दगी .....एक टूटे सितार सी पड़ी स्मृतियों की डायरी में दर्ज यौवन के संगीतमय दिन की तलाश और बिखरे सपनों को समेटने की धुन रह गयी आज भी मन के किसी कोने में शेष....।
नीचे औरतें ब्याह का गीत गा रही थीं.....
बन पइठी खोजिहा ए बाबा चन्दन हो लकड़िया
देश पइठी खोजिहा ए बाबा पढ़ल हो पंड़ितवा.........







अचानक आँगन में से माँ की आवाज गूंजी...प्रियाsssssssss
मन भारी था....थकान से नींद भी आ रही थी। मैं बेमन से नीचे लौटी...माँ अपने कमरे में पलंग पर अपनी बिदाई की पीली बनारसी खोले सिर पर हाथ रखे दुखी बैठी थी। जाते ही.....ये देख प्रिया ,ड्राई क्लीन कराते खिसक गयी....वह रुआंसी थी। माँ इकलौते बेटे के परछन पर वही पहनना चाहती थी .....चालीस साल पुरानी साड़ी के रेशम के तन्तु कट गये थे।मैं चुप खड़ी देख रही थी कि माँ का फरमान जारी हुआ....कल अंजुमन बी के घर लेकर जाओ और उसी तरह दूसरी साड़ी पर आँचल बार्डर चढ़वा कर लाओ जैसा तुम्हें दिखाते समय बनवाया था। बारात तीन दिन बाद उठनी थी....मैंने लम्बी साँस छोड़ते हुए धीरे से कहा....उनकी सास तो कबकी मर खप गयीं,अब कौन करेगा?....साड़ी के प्रति गजब का मोह था माँ को,तन कर बैठ गयीं....मैं कुछ नहीं जानती,.....कल तुम लोग रंगरेज गली जाओ ....जरुर कोई मिलेगा।
अगले दिन समझा बूझा कर हम थक हार गये....माँ अड़ी रही।मैं छोटी बहन के साथ अन्तत:  बारह साल बाद रंगरेज गली में घुसी....कदम रखते पहले तो मुझे लगा कि हम किसी और गली में जा रहे हैं पर ध्यान देने पर पाया कि नुक्कड़ की शेख चचा की कचौड़ी की दुकान शेख स्वीट्स हाऊस में बदल गयी है। अगर आगे काउंटर पर बूढ़े शेख चचा न होते तो हम पहचान भी न पाते कि ये उनकी दुकान है।दुकान बहुत बड़ी थी....शायद घर का नीचे का पूरा हिस्सा तोड़ कर दुकान में उनके बेटों ने बदल दिया था।हाँ आगे की तरफ कढ़ाई में तैरती नाचती कचौड़ियों की पुरानी खुशबू जरुर आ रही थी।मैं दम साधे खड़ी थी कि बहन ने तन्द्रा तोड़ा....क्या देख रही है?...जल्दी चलिए।
गली पहले से चौड़ी हो गयी थी....दोनों तरफ के मकान ,दुकान में बदल गये थे। अच्छा खासा बाजार में बदल गया था रंगरेज गली। हम आगे बढ़ रहे थे ....न भट्ठियाँ दिख रही थीं न रंगों के रंगीन हण्डे। जिस गली में करघे की खटखट पूरे दिन सुनाई देती थी वहाँ आज कोई आवाज थी तो फिल्मी गीतों की ,....हम चले जा रहे थे,सामने रहमान टेलर का बोर्ड देख कदम ठिठके और हम यन्त्रवत गेट खोल घर में दाखिल हो गये।
घर के बाहरी हिस्से में गहन सन्नाटा पसरा था..दरवाजे पर दस्तक दे हम खड़े हो गये....अन्दर से तेज आवाज आई....आती हूँsssss,दरवाजा खोलने वाली बड़बड़ा रही थी,दरवाजा खोलने की ड्यूटी केवल मेरी है....सबको सीढ़ियाँ उतरने नानी याद आती है।कमर टेढ़ी होती है...मैं नौकरानी हूँ क्या सबकी?.....दरवाजा खोलते प्रश्न दाग वह बिना हमारी सूरत देखे मुड़ गयी और दनदनाती सीढ़ियाँ चढ़ती वापस चली गयी। अन्दर एक बड़े से बरामदे में हम खड़े हो सोचने लगे क्या करें ?बरामदे के दोनों कोने से सीढ़ी ऊपर के तल्ले पर गयी थीं।शायद मकान चार हिस्से में बंट गया था ।दो बहने नीचे,दो ऊपर की कल्पना में उलझी सोच विचार रही थी कि सामने की खिड़की से एक नेह भरी लरजती आवाज कानों में पड़ी .....अरेsss! पिरिया.....और सामने का दरवाजा खटाक से खुला।सफेद झक्क सलवार कुर्ते में सामने अंजुमन खाला मुस्कुराते खड़ी थीं ,जैसे कह रही हों कि अब रंगरेज गली की संवेदनाऐं सुफैद हो गयी हैं बच्ची। ......हमें इशारे से बुलाकर अन्दर ले गयीं.... चौकी पर बिठा आवाज लगाई.....सनाss । बगल के कमरे से पर्दा सरका एक दुबली पतली बीमार बेवा सामने आ खड़ी हो गयी...मैं आवाक उसे ताकती एसी चकराई की कमरा आँखों के सामने नाचने लगा। सना धीरे से कुर्सी खींच आ कर हमारे सामने बैठ सुबकने लगी....मैं रोती रही....उफ्फ! ये सेमल की रुई सी सुकोमल लड़की क्या से क्या हो गयी ,सनाsss
वह उठ कर मुझसे लिपट गयी ...हम फूट पड़े...जैसे तपती धरती की दरारें स्याह बादलों की प्रतीक्षा में हूकती हैं ,सना को सौहर के लिए हूकते देख मैं तड़प उठी।सना के तीनों बच्चे आकर माँ से लिपट गये। दोनों बेटियों के बीच में बेटा , घर का मर्द,.....एक ना समझ दस साल का बच्चा अपनी माँ से लिपटा पूरी तरह दिलाशा दिला रहा था कि वह सब सम्हाल लेगा। खाला ने बताया...गलत संगत ने जावेद को असमय मौत के मुँह में ढ़केल दिया। वह पछतावे की आग में गीली लकड़ी सी सुलग रही थीं कि क्यों कर सास की बात मान सना को जावेद से ब्याहा।खैर जो होना था सो हो चुका था....घर की फूट साफ झलक रही थी....बेवा माँ बेटी एक बार फिर नए संघर्ष पथ पर थीं।हमने ढ़ाढ़स बँधा आने का कारण बताया ....अंजुमन खाला ने भारी मन से मुस्कुराने की कोशिश की....अम्मी जाते -जाते अपना हुनर और करघा सना को सौंप गयीं पिरिया!...आज कल इसी से घर चल रहा है। लोग खोजते हुए आते हैं इधर ,नम आँखो में बची अन्तिम उम्मीद की ड़ोर थामें अंजुमन खाला हमें अन्दर के कमरे में लेकर आईं ।मेज पर साड़ी फैलाकर देखा और हँस कर कहा ...गोटे को छोड़ सब झर गयी है।मैं आदतन मुस्कुराकर रह गयी। छोटी ने पूछा ....परसों तक हो जाएगी न खाला? कल आकर ले जाना ...उन्होंने पीठ ठोंकते हुए कहा।तुम्हारी माँ हमेसा घोड़े पर चढ़ कर काम भेजती है।हम सब हँस पड़े।सना की बेटियों ने बड़े प्यार से चाय नाश्ता कराया।अन्दर बनारसी साढ़ियों का ढ़ेर देख कर शूूकुन मिला कि चलो रोटी की किल्लत नहीं है खाला और सना को। हम घर लौटने लगे तो बच्चियों ने दुबारा आने का प्यार भरा न्योता दिया ।मैंने तीनों के हाथ पर पचास पचास की नोट रख टॉफी खाने का आग्रह किया और सना नाराजगी जताती रही कि यह सब क्यों कर रही हो ?खाला एक बार फिर रो पड़ी ....इन तीनों को खाला का मतलब तो आज पता चला है पिरिया ....वरना अपनी पेटजात तो चवन्नी ईदी तक हाथ पर नहीं रखतीं।सना चुप थी।हम फाटक से बाहर निकले तो ऊपर देखा ....चहल पहल थी ....रौनक भी।नीचे मातमी सन्नाटा ।खाला मौन .....सना भी ।मैं एक बार फिर सोच में पड़ गयी कि इतना सब कुछ बिखर गया और खाला ने किसी को कुछ भी बुरा नहीं कहा ,बदले में खुद को कोशती रहीं।आखिर उन्हें गुस्सा क्यों नहीं आता? सोचते चली जा रही मैं बिजली के खम्भे से टकराते टकराते बची,.....छोटी मेरी आदत जानंती थी।भनभनाते रिक्शा रोक मुझे हाथ पकड़ बिठाया और पूरे राश्ते फालतू बातें न सोचने की नसिहत देती रही।
                       एक दिन बाद मैं भाई संग बाईक से सना के घर साड़ी लेने पहुँची। आज उसकी छोटी बेटी खिलखिलाती हुई दौड़ कर मुझे देखते आई और हाथ पकड़ कर अन्दर ले चली....भाई ने पहले ही हड़का दिया था कि बैठना मत ,शादी का घर है। अन्दर पहले से साड़ी तैयार लिफाफे में पड़ी थी।सना ने मुस्कुराकर लिफाफा बढ़ा दिया । खाला भी सूचना पा बाहर निकलीं ...मैंने पाँच सौ की नोट बाजार भाव को ध्यान में रख खाला की तरफ बढ़ा दिया। खाला नाराज हो गयीं...दिमाग खराब है क्या तुम्हारा....जैसी सना वैसी तू मेरे लिए...पैसे  से तौलने लगी,हाथ थाम लिया और पैसे लौटा कर नम आँखों से देखती रहीं....नमी इतनी गहरी थी कि मैं डूबने लगी....सना भी नाराज हो रही थी।बाजार अपने चरम पर ,..रिश्ते रेडीमेट लिफाफों में सजे धजे जब बिक रहे हों पैसे के नाम पर ,खाला का प्रेम पाकिजगी की हद तक मुझे भींगोए लिए जा रहा था।मैं खाला के जीवन संघर्ष और हौसले की गवाह एक बार फिर सना के साथ उसी चौराहे पर उन्हें खड़ी देख रही थी ,जहाँ बरसों पहले  मिली थी । मैं खाला को पकड़ कर रो पड़ी।भाई बाहर बाईक पर बैठा बार -बार हार्न बजाए जा रहा था।शादी में आने का न्यौता दे मैं सना की छोटी बेटी के हाथ पर पाँच सौ की नोट रख चलने लगी...पैसे देते देख ऊपर से दनदनाती सब्बो उतरती हुई आई ....मैं बढ़ रही थी,कानों में सब्बो की आवाज साफ सुनाई दे रही थी....जो मिले सबकी रहमत इन्हीं के बाल बच्चों की है...हम तो जैसे शौतेले हैं आपके....ठूसों तुम्हीं लोग इनकी कमाईsssssssss
पीछे एक बार फिर मैं एक परवीन और अंजुमन की कहानी नए सिरे से उभरती छोड़े जा रही थी।मन में आज भी द्वन्द शेष था कि अंजुमन खाला को गुस्सा क्यों नहीं आता?
०००



परिचय

सोनी पाण्डेय
कृष्णानगर
मऊ रोड़ , सिधारी 
आज़मगढ , उत्तर प्रदेश
पिन -276001

प्रकाशित पुस्तक - मन की खुलती गिरहें (कविता सग्रह) ,सारांश समय का (साझा काव्य सग्रह)।
कथादेश ,कथाक्रम, कृतिओर ,संवेदन,पाखी,बाखली,शैक्षिक दखल,इन्द्रप्रस्थ भारती ,सृजनलोक ,संप्रेषण , जनसत्ता,दैनिक हिन्दुस्तान , नई दुनिया , जन संदेश टाइम्स ,दैनिक भास्कर,दबंग दुनिया आदि में कविताऐं..कहानी ,लेख प्रकाशित ।
हिन्दी समय ,स्त्रीकाल ,हमरंग ,अनुनाद ,सिताबदियारा , पहलीबार,इण्टरनेशनल ब्लाग ,लाईव इण्डिया बेबसाईट आदि ब्लागों पर निरन्तर कविता कहानी लेखों का प्रकाशन
ईमेल....pandeysoni.azh@gmail.com

23 अप्रैल, 2018

कथा का समकाल:-पन्द्रह कहानीकार
 डॉ ऋतु भनोट 



डॉ ऋतु भनोट                  


हम जिस समय में से होकर गुज़र रहे है, यह हमारा समकालीन है या यूं भी कहा जा सकता है कि एक ही काल खंड में उपस्थित मनुष्य समकालीन होते हैं। समकाल की अवधारणा मात्र कालखंड पर अवस्थित न होकर उस काल विशेष की विभिन्न प्रवृत्तियों, सामाजिक-राजनीतिक क्रियाओं-प्रतिक्रियाआें, जन मानस के भीतर खदबदाती आकांक्षाओं और उन आकांक्षाओं के बरक्स खौलती सच्चाइयों का समपुंज भी होती है। ‘‘कथा कहना यानी चिंतन से अनुभव तक और अनुभव से सीधे जीवन तक आना होता है।’’1 कथाकार कथा के माध्यम से अपने युग बोध  के आधार पर संचित अनुभवों को शब्दों में पिरोकर अपनी रचनाधर्मिता का परिचय देता है। साहित्यकार की रचना उसकी कल्पनाशीलता, सपनों की अभिव्यंजना में सिद्धहस्तता और शाब्दिक अभिव्यक्ति के पैनेपन से चालित-परिचालित होती है। साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में आधुनिक युग कथा काल है और इस कथाकाल की निर्मिति में स्थापित रचनाकारों के साथ-साथ अपनी जगह तलाशते युवा रचनाकारों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। ‘‘समकालीन कहानीकारों ने क्राइसिस को आर-पार देख, भोग कर मानवीय संवेदनाओं से लबरेज़ नई भाव-भूमि पर नवीन कथा-सूत्रों से पगी हुई कहानियां रची हैं। बेशक समकालीन कहानीकार भावना या आदर्शीकरण की रौ में बहकर किन्ही आरोपित समाधानों की तलाश में स्थिति की भयावहता को कमतर करके नहीं देखता लेकिन अमानवीय स्थितियों के साथ मानवीय संवेदनाओं की टकराहट से उत्पन्न होने वाली अनुगूंजों को भी अनसुना नहीं करता। ‘‘ 2



विमल चंद्र पांडेय कृत मस्तूलों के ईद-र्गिद, उमाशंकर चौधरी कृत कट टु दिल्ली और अन्य कहानियां, कैलाश वानखेड़े कृत सत्यापन, सत्यनारायण पटेल कृत काफिर बिजूका उर्फ़ इब्लीस, ज्योति चावला कृत  अंधेरे की कोई शक्ल नहीं होती, राकेश मिश्र कृत लाल बहादुर का इंजन, वंदना राग कृत ख़यालनामा, प्रत्यक्षा कृत एक दिन मराकेश, तरुण भटनागर कृत जंगल में दर्पण, कबीर संजय कृत सुरखाब के पंख, शिवेन्द्र कृत चाकलेट फ्रेंड्स और अन्य कहानियां, नीलाक्षी सिंह कृत इब्तिदा के आगे खाली ही, किरण सिंह कृत यीशू की कीलें, मनोज पाण्डेय कृत खजाना और आशुतोष कृत उम्र पैंतालीस बतलाई गई थी इत्यादि कुछ ऐसे कहानी संग्रह हैं जो मात्र कहानी के समकाल के प्रति रचनात्मक समझ पैदा करने में सक्षम ही नहीं अपितु इनमें शिल्प की नई गढ़न, भावों की अभूतपूर्व उड़ान और अपने युग-समाज की सच्चाइयों का बेबाक साक्षात्कार दर्ज है। इन कथाकारों की कहानियां अपने समय की बर्बर अमानुषिकताओं में दबे-घुटे अंतिम व्यक्ति की चीख भी हैं और अंसभव परिस्थितियों से टकरा कर संभावनाआें की उर्वर भूमि तैयार करने का अदम्य संकल्प भी।




शिवेन्द्र का कहानी संग्रह ‘चॉकलेट फ्रेंड्स एवं अन्य कहानियां’ में राजकुमार घुटरू, नटई तक माड़-भात खाने वाली लड़की और बूढ़ा लेखक, चॉकलेट फें्रड़्स, लव जिहाद तथा कहनी नामक पाँच कहानियां संकलित हैं। पारम्परिक शैली के विपरीत शिवेन्द्र की कहानियां मिथकीय शैली में कथा का ऐसा समकाल रचती हैं जहां कहानी प्राचीन काल से प्रकट होकर समय के झरोखे से चुपचाप झांकती हुई वर्तमान में उपस्थित रहती है और लोक-कथाओं के ताने-बने में सिमटे-लिपटे कितने ही कथा सूत्र लुका-छिपी के खेल की मानिंद कभी उजागर हो उठते है और कभी रहस्यात्मकता के आवरण में छिप जाते हैं। स्वप्नलोक के बाशिंदे राजकुमार घुटरू का मृत्युलोक के लुटेरों द्वारा सर्वस्व लूट लेना जहां उसे नामविहीन, पहचान-शून्य एक आम व्यक्ति में तब्दील कर देता है वहीं उसके सामने यह कड़वा सत्य भी उजागर करता है कि मनुष्य का महत्त्व उसके गाँठ के पैसों और वैभव के प्रदर्शन मात्र से ही आंका जाता है।

   ‘नटई तक माड़ भात खाने वाली लड़की’ सपने देखने की हिमाकत करने वाली और उन सपनों को पूरा करने पर बजिद एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो प्रेम चाहती है, सम्मान चाहती है, संभावनाओं के आकाश में पंख पसार कर उड़ जाने की आजादी चाहती है। वह अपने भीतर क्रांति के बीज वैसे ही समाए है जैसे उसकी अँकुआती कोख में जीवन पाती संभावनाएं। सागर की लहरों से बतियाते चारों युगों की परिक्रमा करके उक्त कहानी के लेखक की तलाश जिस लड़की पर पूरी होती है, वह उस देश की निवासी है जहां ‘इतिहास एक कविता है और लड़की मिथक‘। (पृ 36) एक अंसभव की तलाश करती यह कहानी प्रत्येक संभावना को अपनी शक्ति बनाने की जिद का ही परिणाम है।

  ‘चॉकलेट फ्रेंड्स’ कहानी हमारे आस-पास बसने वाले लोगों के साधारण जीवन और उस जीवन से जुड़ी अनेकानेक समस्याओं को जादुई स्ांस्पर्श से सहलाते हुए कभी परियों की बात छेड़ती है, कभी वंडरलैंड वाली एलिस के साथ हंसती-बतियाती है, कभी आँसुओं के तालाब में ऊब-चूब करते हुए भविष्योंन्मुखी सपने बुनती है और कभी जादूगर के भीतर जलते -बुझते जादू के द्वारा एक-एक कर घर छोड़ जाने वालों को अपनी जड़ों तक लौटा लाने की असंभव सी कोशिश को अंजाम देना चाहती है।        कंक्रीट के जंगल में विलुप्त हो रही गोरैया के प्रति अपने सरोकार की बौद्विक जुगाली करने वाले उत्तरआधुनिक युग के मानव और प्रकृति में उत्तरोत्तर बढ़ते अंतराल की कहानी है-‘लव जिहाद’। हम ऐसे खतरनाक समय में जिंदा हैं जब सपने मर रहे हैं, प्रेम मुरझा चुका है, स्वार्थ फल-फूल रहा है और अस्तित्व के संकट से जूझता हुआ मनुष्य जीवन की सभी खूबसूरत अभिव्यक्तियों से खाली होता जा रहा है।

‘कहनी’ कहानी राजकुमारी भागवंती और राजकुमार के माध्यम से पितृसत्ता के हाथों शोषित स्त्री की सार्वकालिक कथा है। सौतिया डाह की नई परिभाषा गढ़ती यह कहानी पुरुष सत्ता के अभेद्य दुर्ग में सेंध लगाने वाली स्त्री को स्त्री के ही विरू़द्ध खड़ा करने के सनातन षड्यंत्र का पर्दाफाश करती है। जादूगर, राजकुमार, रानियों और पारियों वाले कथा- वितान को रचते हुए शिवेन्द्र आधुनिक युग की समस्याओं का इतना सूक्ष्म ब्योरा प्रस्तुत करते हैं कि जहां उनकी कहानी कहने की कला चमत्कृत करती है वहीं अपने परिवेश और समय के प्रति उनकी वचनबद्धता स्वतः ही ध्यान आकृष्ट करती है।



कहानी के समकाल का समर्थतम हस्ताक्षर ‘किरण सिंह’ का कहानी संग्रह ‘यीशू की कीलें, निषेधों और वर्जनाओं का अतिक्रमण करते हुए मनुष्य की जिजीविषा की पक्षधरता करता है। ‘‘यीशू की कीलें’ परंपरा, इतिहास, विचार-तीनों के अंत की घोषणा के बीच तीनों को पुनर्जीवित करने का हठीला आख्यान है। समय किसी एक पल या खंड की नोक पर सवार होकर इन कहानियों में झिलमिला कर गायब नहीं होता, अपने पूरे कालचक्र के साथ उपस्थित होकर व्यवस्था की गुंजलकों से टकराता है।’’3  

द्रोपदी पीक, कथा सावित्री सत्यवान की, ब्रह्म बाघ का नाच, जो इसे जब पढ़े, यीशू की कीलें, हत्या, देश-देश की चुडैलें तथा संझा नामक आठ कहानियां इस सग्रह में संगृहीत हैं। उक्त संग्रह की सर्वश्रेष्ठ कहानी ‘द्रोपदी पीक’ दो समानान्तर कथा बिन्दुओं पर एक साथ आगे बढ़ती है-घुंघरू की कथा और पुरुषोत्तम की कहानी। द्रौपदी पीक की आरोहण यात्रा में घुंघरू और पुरुषोत्तम संन्यासी के मन जैसे निर्विकार प्रदेश में प्रकृति के विराटत्व का साक्षात्कार करते हुए अपनी-अपनी मनोग्रन्थियों के उलझे धागों को सिरे से खोलने की चेष्टा करते हैं। पंथहीन, पदचिह्नहीन और सम्बंधविहीन ऊर्ध्वता की यह यात्रा सांसारिकता के आवरण को भेदती हुई द्रोपदी और घुंघरू के भीतर साक्षीभाव का आह्वान करती है और इस आह्वान से मंत्रबिद्ध, आवेष्टित पाठक भी अपने अन्तर्मन को खंगालते हुए जीवन की नंगी सच्चाइयों से परिचय पाता है।
 ‘संझा’ कहानी थर्ड जेंडर के माध्यम से व्यक्ति के भीतर उमड़ती-घुमड़ती जिज्ञासाओं, जीवन एवं अस्मिता से जुडे़ प्रश्नों और उन प्रश्नों के उत्तर ढूंढने की प्रक्रिया में लहूलुहान होती संवेदनाओं को उकेरते हुए ‘संझा’ के माध्यम से जन्मजात शारीरिक व मानसिक कमियों की पड़ताल के पश्चात् इस निष्कर्ष पर जाकर परिणति को प्राप्त होती है कि परफेक्शन अथवा सम्पूर्णता नाम की कोई चीज इस दुनिया में नहीं है। मनुष्य को अपने इस अधूरेपन के साथ ही जीना और निबाहना होता है।
 ‘कथा सावित्री सत्यवान की’ स्थूल रूप से स्त्री की उस छवि को परोसती है जो देह को हथियार बना कर पुरुष का शिकार करने और उसका मनमाना लाभ उठाने में सिद्धहस्त है परंतु सूक्ष्म रूप से यह कहानी स्त्री विमर्श की एक नवीन परिभाषा गढ़ते हुए स्त्री के भीतर विराजमान उस अदृश्य शक्ति का बयान है जो यदि अपने पक्ष में खड़ी हो जाए तो पितृसत्ता की चूलें हिला सकती है।
‘बह्मबाघ का नाच’ कहानी वर्चस्व की महत्त्वाकांक्षा के भीतर अदृश्य रूप से पनपने वाले उस भय का वृत्तांत है जिसमें अकर्मण्य, रीढ़विहीन और अपने पैरों पर खड़ा हो पाने में अक्षम हमारी भावी पीढ़ियों द्वारा किसी आदर्श की अनुपस्थिति में अपनी अस्मिता के संघर्ष को भूल कर भटकाव का शिकार हो जाने की परिकल्पना है।
‘यीशू की कीलें’ राजनीतिक परिदृश्य में स्त्री के संघर्ष और युग समाज में उसकी कठपुतली समान उपस्थिति की भयावह सच्चाई का उद्घाटन करने के साथ-साथ प्रत्येक दर्द के पीछे ताकत बन कर खड़ी होने वाली उसकी स्त्री सुलभ संवेदनशीलता, दुर्दम्य जिजीविषा और सवप्नशीलता की बानगी भी प्रस्तुत करती है। किरण सिंह का कहानी संग्रह ‘यीशू की कीलें’ कथा के समकाल में कालचक्र की विविध गतियों को मापता, भांपता एक ऐसा आख्यान गढ़ता है जिसकी मिसाल अन्यत्र दुर्लभ है।

प्रत्यक्षा का कहानी संग्रह ‘एक दिन मराकेश’ समकालीन समय में कई युगों को कलमबद्ध करते हुए स्वप्न और यथार्थ दोनों धरातलों पर एक साथ यात्रा तय करता है। फैंटेसी रचती यह कहानियां एब्सट्रेक्ट के झीने पर्दे से निकल कर कभी छम से हमारे सामने आ उपस्थित होती हैं और कभी रहस्यलोक के सुरमई अंधेरे-उजाले में विलीन हो जाती हैं। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक प्यास है, एक अतृप्ति है, एक खोज है जो उसके आत्मबोध से उपजती है और आत्म साक्षात्कार पर जाकर पूर्ण होती है। यही उसका मराकेश है। मनुष्य की अरूप भावनाओं को शब्दबद्ध करती प्रत्यक्षा कहती हैं, ‘‘मराकेश का मतलब सपनों के संसार से है। एक ऐसी दुनिया जहां हम होना चाहते हैं। मराकेश वो सब लोग हैं जो हम होना चाहते हैं। हमारे जीवन का सबसे चमकता सितारा, सपनों का ध्रुवतारा, बचपन का टिनटिन, हमारी जवानी के देव आनंद, सबसे सुहाना गाना, हमारा पहला और दूसरा प्यार और इसके बाद की अनगिनत मोहब्बतें। ये सब कुछ ही है मराकेश।’’4
प्रस्तुत संग्रह में छोटी-बड़ी 12 कहानियां संगृहीत हैं। ‘मीठी ठुमरी’ स्त्री-पुरुष सम्बंधों में आने वाले अंतराल की कहानी है, ऐसा अंतराल जो दिखाई नहीं देता परन्तु धीरे-धीरे सब कुछ लील जाता है। प्रेम, अपनत्व, सम्बंधों की ऊष्मा, और तो और अपनी पहचान भी वक्त के चाक पर घूमते हुए कहीं खो जाती है। इस गुमशुदा की पहचान को कोई वक्त के झरोखे से झाँक कर टटोले या फिर समय में व्याप्त अंतराल की झिर्रियों में, यह एक बेबूझ पहेली है।

‘दिल दो लड़कियाँ और एक इतना सा नश्तर’ दो विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों से सम्बंधित लड़कियों शर्मिला व नदीन की ऐसी कथा है जो स्त्री के अन्तर्मन की टकराहटों, पुरुष से परे अपने अस्तित्व को तलाशने की जिद, अपनी पहचान टटोलने के क्रम में बार-बार टूटने और टूट कर फिर साबुत जुड़ पाने की शक्ति की ईमानदार अभिव्यक्ति है। 

‘भीतरी जंगल’, ‘ईनारदारा’, ‘हाय गजब कहीं तारा टूटा’, ‘सपने का कमरा उर्फ रात में कभी-कभी दिन भी होता है’ स्त्री-मन के उस एकांत की कहानियां हैं जहां सपने पलते हैं, कल्पना के रंग सजते हैं और तमाम बाधाओं से परे मन प्रेम के हिंडोले पर झूलते हुए सतरंगी फुहारों से भीग-भीग जाता है। प्रत्यक्षा की कहानियां कविता जैसे कलेवर में सपनों की महीन बुनावट से बुनी हुई मनुष्य के अंतर्जगत की अभिव्यक्ति हैं, तभी तो उनमें एक साथ फैंटेसी, कविता, भावनाओं का आरोह-अवरोह और एक गहरी छटपटाहट दर्ज है जो अपने मराकेश की प्राप्ति पर ही शांत होती है।
‘‘जीवन की तीन प्रमुख गुत्थियों स्मृति, इंतज़ार और मृत्यु को हर गंभीर रचनाकार अपनी रचना का विषय बनाता है और आजीवन अपनी रचनाशीलता के जरिए अनवरत उनसे जूझता है। नीलाक्षी सिंह ऐसे ही रचनाकारों में से एक हैं कहानी की जमीन पर वह तकनीक, समाज और राजनीति की नई अवधारणाओं, विकसित भाषा कें औजारों का बखूबी इस्तेमाल करती हैं।’’5



‘इब्तिदा के आगे खाली ही’ नीलाक्षी सिंह द्वारा रचित ऐसा कहानी संग्रह है जिसमें कुल जमा तीन लम्बी कहानियां हैं- ‘इब्तिदा के आगे खाली ही’, ‘लम्स बाकी’ और ‘बाद उनके।’ नीलाक्षी सिंह की कहानियां बाजारवाद के दौर में चकाचौंध से ऊबे हुए महानगरीय जीवन की भीड़ में अकेले छूट गए युवाओं की पीड़ा भी दर्ज करती हैं और संवेदनाशून्य सम्बंधों को ढोने की विवशता को बयान करने के साथ-साथ शिक्षा के व्यावसायीकरण और चिंदी-चिंदी हो रही मानवीय आस्था को सहेजने की सार्थक पहल की पक्षधरता भी।

 ‘इब्तिदा के आगे खाली ही’ में कुकुरमुत्ते की मानिंद देश में जगह-जगह खुले हुए तकनीकी शिक्षण संस्थानों, उनके लुभावने विज्ञापनों और बढ़िया नौकरी के सपने बुनते युवाओं के साथ प्लेसमेंट के नाम पर होने वाली धोखाधड़ी का पर्दाफाश किया गया है। बैंकों से कर्जा लेकर इन शिक्षण संस्थानों की मोटी फीस चुकाने वाली युवा पीढ़ी डिग्रीधारक तो बन जाती है परंतु हाथ खाली ही रह जाते हैं। कर्जे का दुष्चक्र, सपनों का व्यापार और अंततः खाली छूट जाने की पीड़ा की कसक ही इस कहानी का मूल कथानक है।
कहानी ‘लम्स बाकी’ दो ऐसे अजनबियों की कहानी है जो सामना होने पर हमेशा एक-दूजे की खिलाफ़त करते हैं मगर भाग्य उन्हें अनजान राहों पर बार-बार मिलवाता रहता है। नियति अपना पांसा फैंकती है और दोनों को शनैः-शनैः परस्पर प्रेम हो जाता है। ऐसा प्रेम जो प्रतिदान नहीं चाहता, सीमारेखा नहीं खींचता, जो देना जानता है, उलीचना चाहता है और जो ना कुछ होने में ही पूर्णता अनुभव करता है।

‘बाद उनके’ कहानी की पात्र कौशिकी सक्सेना बाहर की दुनिया के लिए एक ब्रोकर है लेकिन अपने निजी एकांतिक संसार में वह मूर्तिकार है। बाहर की दुनिया की सारी कड़वाहट को बटोर कर वह मूर्तियों के रूपाकार गढ़ती है, मन की अतृप्ति से मूर्तियों को जीवंतता प्रदान करती है। उसकी भीतरी दुनिया में एक ऐसा व्यक्ति घुसपैठ करता है जो सजायाफ़्ता है और पैसों के तराजू में ही सारी भावनाओं को तौलता है। एक तीसरा पात्र भी है जो शेष दोनों पात्रों के जीवन की संभावनाओं को पलट कर रख देता है। स्व को पाने की छटपटाहट और अपने अस्तित्व के मायने तलाश कर उनसे जीवन की सूनी कैनवास में रंग भरने की कवायद इस कहानी का मूल स्वर है। अर्धनारीश्वर अर्थात् नारी में नर और नर में नारी का समभाग है, इस समभागिता की स्वीकारोक्ति लेखिका कहानी के अंत में यो दर्ज करती है, ‘‘वह प्रतिभा एक साथ आदमी और औरत दोनों के होने का भ्रम दिला रही थी। एक उम्र के बाद आदमी और औरत अपना शारीरिक अंतर खो देते हैं।’’6


मनोज कुमार पाण्डेय एक सजग और गहरे भाव बोध से परिपूर्ण कहानीकार हैं। धर्मगत षड्यंत्र, राजनीतिक दाँव पेंच और परिवेशगत चुनौतियों के प्रति उनकी लेखकीय प्रतिबद्धता उन्हें कथा के समकाल में विशिष्ट बनाती है। मनोज कुमार का कहानी संग्रह ‘खजाना’ सामाजिक और राजनीतिक जकड़बंदी के विरुद्ध असहमति दर्ज करता हुआ कहानी-दर-कहानी अपनी सर्जनात्मक सामर्थ्य के द्वारा न सिर्फ चमत्कृत करता है अपितु शैल्पिक सधाव के नवीन मानक गढ़ कर एक नई संभावना का संवाहक भी जान पड़ता है। ‘‘बेहद सूक्ष्म अभिव्यंजना की कहानियां है ‘खजाना’ कहानी संग्रह की सभी कहानियां। मानो समय, समाज व्यवस्थाओं और मान्यताओं की सारी विडंबनाओं को अपने नैरेटर में गूंथ दिया हो लेखक मनोज कुमार पाण्डेय ने। दरअसल नैरेटर के रूप में मनोज कुमार पाण्डेय जिस चरित्र को कथा के केंद्र में रखते हैं, वह उनके लेखकीय मंतव्य का संवाहक और भविष्य का विमर्शकार भी है। इसलिए अपनी तमाम सजगता और संवेदना को उसके चरित्र में गूंथ कर वे उसे अपने से पार देखने की गहरी अंतर्दृष्टि भी देते हैं।’’7 उक्त संग्रह में कुल आठ कहानियां हैं-चोरी, टीस, मदीना, खजाना, कष्ट, अशुभ, घंटा, मोह। अधिकतर कहानियों में नेरेशन का प्रयोग किया गया है।
‘टीस’ कहानी अध्यापकीय आदर्शों से रहित एक ऐसे अध्यापक और परिस्थितियों का शिकार विद्यार्थी पर केन्द्रित है जिनके बीच सम्मान अथवा श्रद्धा का सम्बंध न होकर भय का ही नाता है। विद्यार्थी की शारीरिक एवं मानसिक परेशानियों से असम्पृक्त यह अध्यापक उस नासूर जैसा है जो न तो पक कर फूटता है और न ही दब कर बैठता है, बस लगातार टीसता रहता है।
इस संग्रह की एक अन्य महत्त्वपूर्ण कहानी ‘खजाना’ समय में परिवर्तन के साथ लोगों की बदली हुई मानसिकता को उकेरती है जिसके तहत लोग मेहनत के बल पर सफलता प्राप्त करने के स्थान पर किसी गुप्त धन को पाने अथवा किसी चोर खजाने को हासिल करने के सपने पालते हैं। ऐसे सपने जीवन में निराशा और हताशा का संचार करते हैं और यह हताशा आत्महंता परिस्थितियों को रचते हुए जीवन को नर्कतुल्य बना देती है। ‘कष्ट’ कहानी अवसरों के अभाव में रचनात्मक प्रतिभाओं द्वारा भोगे जाने वाले कष्ट को शब्दबद्ध करते हुए अपने मनमाफिक फैसले ना ले पाने की स्थिति में हीन भावना का शिकार होकर मन ही मन घुटने वाले नैरेटर की पीड़ा का आख्यान भी रचती है।
‘मदीना’ कहानी पर्यावरण चेतना पर आधारित ऐसी कहानी है जो आधुनिक युग में मनुष्य की धर्मांधता और अंधविश्वासों की  कलई खोलते हुए हमारी तथाकथित आधुनिकता पर करारी चोट करती है। शुभ-अशुभ की अदृश्य तलवार हम सबके सिर पर लटकती रहती है और जब-तब जीवन की छोटी-बड़ी खुशियों को काट कर हमसे अलग करती रहती है। ‘अशुभ’ कहानी भी हमारे समाज में प्रचलित धार्मिक मान्यताओं पर व्यंग्यात्मक प्रहार करती है और हमारे विभिन्न अंधविश्वासों पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए उनकी गिरफ्त से बाहर होकर जीवन जीने की हिमायत करती है।
‘घंटा’ कहानी सत्ता पर काबिज होने के षड्यंत्रों का ईमानदार बयान है। आधुनिक युग में सत्ता हथियाने के नाम पर जो दुष्चक्र चलाए जाते हैं और जो दुरभिसंधियां की जाती हैं, शिवराज सिंह के रूप में मनोज कुमार ने उनकी तह तक जाकर राजनीतिज्ञों की अवसरवादिता और पैंतरेबाजी की पर्तें उधेड़ कर रख दी हैं। ‘चोरी’ कहानी मनोविज्ञान पर आधारित है। मनोविज्ञान का नियम है कि मनुष्य स्वयं को जो समझता है वह समझ उसकी निजी मनःस्थिति न होकर उसके आस-पास रहने वाले लोगों के अभिमत पर अधिक निर्भर करती है। कहानी का नैरेटर परिस्थिति विशेष का शिकार होकर चोरी करता है और अपने अध्यापक, परिवार और अपने आस-पास के लोगों द्वारा चोर समझे जाने पर अपने अन्तर्मन में स्वयं को चोर ही समझने लगता है। ‘‘इस संग्रह की कहानियां बेचैन करने वाली कहानियां हैं। ये कहानियां न तो हमें अतीत से मोहग्रस्त होने देती हैं और न ही वर्तमान से गाफिल। मनोज हमें हमारी उन पहचानों की ओर खींचते हैं हम जिनसे बचकर निकलना चाहते हैं।’’8

आशुतोष का कहानी संग्रह ‘उम्र पैंतालीस बतलाई गई थी’ मनुवादी सामाजिक संरचना में बदलाव की पैरवी करते हुए उस समाज की छवि चित्रित करता है जहां अभी भी सवर्णो का वर्चस्व है, परम्परा की बेड़ियों में जकड़ कर स्त्री का बदस्तूर शोषण जारी है, जहां अभी भी अंधविश्वासों का बोलबाला है और प्रेम तथा विवाह पर जाति, वर्ग और वर्ण के पहरे हैं। संग्रह में ‘उनके पर जानें और यह आसमाँ जानें’, ‘यही ठइयाँ नथिया हेरानी....’,  ‘अगिन असनान, ‘आखिरी कसम‘, ‘घड़े का दुःख’, ‘ उम्र्र पैंतालीस बतलाई गई थी’ नामक छः कहानियां दर्ज हैं।
‘उनके पर जाने और यह आसमाँ जाने’ ब्राह्मणों और राजपूतों के परस्पर जातिगत वैमनस्य के परिदृश्य में वैशाली और अभिजीत के प्रेम सम्बंधों को वोट बैंक का मोहरा भर बना दिए जाने के कूटनीतिक षड्यंत्र के माध्यम से छात्र राजनीति के कुत्सित चेहरे को सामने लाती है। ‘अगिन असनान’ कहानी उत्तरआधुनिक युग में मीडिया द्वारा दिन-रात परोसे जा रहे उस झूठ को उजागर करती है जो सच-झूठ को ऐसे गड्ड-मड्ड करके लोगों के समक्ष परोसता है कि सत्य की प्रमाणिकता पर ही संदेह होने लगता है। मीडिया के इस खेल में सत्तासीन वर्ग, व्यापारी समुदाय और प्रशासन तंत्र की भी सक्रिय भागीदारी होती है और सब इसे अपनी-अपनी तरह से भुनाने की कोशिश करते हैं। परम्परागत भारतीय समाज में जहां मर्द होना औरत को दबा-कुचल कर जब-तब उस पर धौल-धप्पा जमा कर अपना प्रभुत्व बनाए रखना ही माना जाता है वहां मगरु और सुनैना का प्रेम आधारित दाम्पत्य समाज की आंखों की किरकिरा बन व्यवस्था के हत्थे चढ़ जाता है। बंधे-बंधाए सामाजिक विधि-विधानों में रत्ती भर भी बदलाव व हस्तक्षेप की कीमत आज भी जान देकर ही चुकानी पड़ती है।

‘घड़े का दुख’ कहानी भारत में सरकारी कार्यालयों की सुस्त कार्यप्रणाली और बेकार की कागजी कार्रवाई पर व्यंग्य कसते हुए स्वतंत्र भारत के कार्यालयों का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करती है। घड़ा खरीदने का छोटा सा कार्य कार्यालीय कार्यप्रणाली की पेचीदगियों का शिकार होकर एक से दूसरे कार्यालय तक महीनों फाइलों में ही बंद होकर घूमता रहता है और अन्ततः तीन हजार सात सौ बयासी पृष्ठ की एक लम्बी चौड़ी फाइल में तब्दील हो जाता है। इस फाइल की टिप्पणियों पर टिप्पणियां जुड़ती रहीं, कागजों का पुलिंदा बड़ा होता गया परंतु घड़ा सिरे से ही नदारद रहा।
‘उम्र पैंतालीस बतलाई गई थी’ में सवर्ण प्रभुता वाले समाज में अस्पृश्य समझी जाने वाली डोम जाति के दलित युवक के प्रेम और समानता के स्वप्न का हश्र दिखाया गया है। दलित लोगों को लुभावने नारों के प्रपंच में उलझाकर सवर्ण मात्र उन्हें बहलाए रखना चाहते हैं। किसी दलित द्वारा शिक्षा प्राप्त कर ऊँचे पद पर आसीन होने और सवर्ण वर्ग में ब्याहे जाने की संभावना को भी वह अंकुरित होते ही मसल देते हैं। समाज के पास कई मुखौटे हैं जो वक्त, परिस्थिति और परिवेश की मांग के अनुरूप बदलते रहते हैं। इन मुखौटों के पीछे छिपा वास्तविक चेहरा बहुत घिनौना और घृणास्पद है। ‘‘सत्ता का चूंकि वर्चस्व धन की ताकत और धर्म की महिमा के बिना नहीं चल सकता इसलिए चक्की में पिसने के लिए बस वही एक वर्ण! आशुतोष की यह कहानी पढ़ने के लिए नहीं गुनने के लिये हैं।’’9

वंदना राग समकालीन कहानीकारों में प्रतिष्ठित नाम हैं। उनके कथानक और पात्र यथार्थ जीवन को प्रतिबिम्बित करते हैं और इनकी कहानियों में किस्सागोई की विशेषता उसमें रोचकता का पुट भर देती है। ‘‘सूक्ष्म अंतर्दृष्टि और गहरे भावनात्मक प्रवाह और परिपक्व भाषा वाली वंदना जिस तरह जीवन की विडम्बनाओं और छवियों को रचती हैं, वह अनूठा है। ‘ख़यालनामा’ में ख्यालों चुप्पियों, शोर, शरारतों और जीवन के व्यापक यथार्थ को समेटती हुई कहानियां हैं।’’10 आज रंग है, आँखें, सिनेमा के बहाने, दो ढाई किस्से, ख़यालनामा, क्या देखो दर्पण म,ें उस साल, सब हार गए नामक सात कहानियों के इन्द्रधनुषी रंगों से सजा कहानी संग्रह ‘ख़यालनामा’ वंदना राग की लेखकीय प्रतिबद्धता का जीवंत उदाहरण है।
‘आज रंग है’ और ‘सिनेमा के बहाने’ हमारे समाज की राजनैतिक उठा-पटक और प्रपंचों पर केन्द्रित कहानियां है। हमारे समाज में प्रेम जैसे व्यक्तिगत सरोकार भी राजनैतिक हस्तक्षेप से अछूते नहीं हैं। राजनैतिक पद की ठसक के बहाने मनमानी करने की छूट राजनेताओं का जन्म सिद्ध अधिकार है, इसी अधिकार का गैर वाजिब प्रदर्शन ‘आज रंग है’ में खुल कर हुआ है। ‘सिनेमा के बहाने’ कहानी दो स्तरों पर खुलती है, जिसमें एक मुद्दा प्रवासी बिहारियों के महाराष्ट्र विस्थापन से जुड़ा हुआ है और दूसरे स्तर पर शलभ, राजीव व माधव नामक तीन पात्रों द्वारा सिने जगत में अपना स्थान बनाने की जद्दोजहद और उस जद्दोजहद को असंभव बनाने वाले राजनैतिक दबावों का किस्सा दर्ज है। ‘और उस साल सब हार गए’ 1942 में महात्मा गांधी द्वारा छपरा जिले में किए  गए राजनीतिक आन्दोलन को केन्द्र में रख कर तत्कालीन सामंतों के दोगलेपन और अंग्रेजों के अत्याचार से संत्रस्त भारतीय जनता की दुःखद स्थिति का कारुणिक चित्र प्रस्तुत करती है।
‘आँखें’ और ‘दो ढाई किस्से’ स्त्री प्रश्न के इर्द-गिर्द घूमने वाली कहानियां हैं। पहली कहानी लड़कियों की परम्परागत छवि से परे मुँह जोर और बेपरवाह किस्म की लड़कियों डेजी, रीना, नेहा, संजना और लफ्फाज के माध्यम से स्मृतियों के वातायन में चोर आंखों से ताँक-झाँक करते हुए लड़के और लड़कियों के होने और बड़े होने के फर्क को बाँचती है। ‘दो ढाई किस्से’ एक ऐसी युवती की कहानी है जिसका पति काम की तलाश में घर से गया और फिर कभी नहीं लौटा। वह स्त्री न तो ब्याहता है, न विधवा, न परित्यक्ता और न ही समाज में समादृत पतिव्रता। ऐसी स्त्री समाज में हेय समझी जाती है और पति रूपी चरित्र प्रमाण पत्र की अनुपस्थिति में समाज उसे चरित्रहीन, कुलटा एवं छिनाल तक कहने से भी गुरेज नहीं करता।
‘क्या देखा दर्पण में’ कहानी धोखे की नींव पर निर्मित रिश्तों के घातक परिणामों से अवगत कराते हुए संबंधों के जटिल समीकरणों से हमारा परिचय करवाती है। ‘‘कहा जा सकता है कि वंदना के पास कहानियों का अपना खजाना है और कहन का खास अंदाज़। वन्दना राग का कहानीकार अपनी ओर से बहुत जजमेंटल नहीं होता। वह अपने पात्रों में से किसी एक के साथ खड़ा होने में यकीन नहीं रखता। ....अतः पाठकों को वहां गलदश्रु भावुकता कम ही मिलती है।’’11
अपने पहले कहानी संग्रह से हिन्दी कथा जगत् में विशेष स्थान बनाने वाली ज्योति चावला से हिन्दी साहित्य का परिचय एक कवियत्री के रूप में हुआ था। उनका काव्य लेखन जितना प्रौढ़ और परिपक्व है, उनकी कहानियों में भी जीवन की नब्ज टटोलने की वही क्षमता दिखाई देती है। ‘‘ज्योति के पास अपने समय को लेकर बहुत कन्सर्न हैं और चिंताएं भी इसलिए ये कहानियां अपने समय की धड़कन सी बन गई हैं।’’12 ज्योति चावला की कहानियां स्त्री मन का प्रतिबिम्ब हैं। इन कहानियों में स्त्री पीड़ा, स्त्री का शोषण और समाज की विभिन्न पितृसत्ताक संस्थाओं से स्त्री के संघर्ष के बयान ही नहीं अपितु इन सब टकराहटों के बीच निरन्तर सशक्त होती स्त्री की विभिन्न छवियां भी अंकित हैं। बंजर जमीन, खटका, तीस साल की लड़की, अंधेरे की कोई शक्ल नहीं होती, बड़ी हो रही है मीताली, सुधा बस सुन रही थी, वह उड़ती थी तो तितली लगती थी, वह रोज़ सन्नाटा बुनती है नामक आठ कहानियां संगृहीत हैं।
 ‘बंजर ज़मीन’ की पम्मी अपने पति मलकीत की अयोग्यता के कारण मातृत्व सुख से वंचित है परंतु पुरुष वर्चस्व चालित हमारा समाज प्रत्येक परिस्थिति में दोष का ठीकरा स्त्री के सिर पर ही फोड़ता है। शारीरिक सुख से वंचित, पति का स्नेह स्पर्श पाने को आकुल पम्मी घर के भीतर ज्यों मछली बिन पानी तड़पती है और घर के बाहर ‘बंज़र ज़मीन’ कहलाती है। पत्नी की दिन-रात की छटपटाहट से अनभिज्ञ मलकीत समाज की नज़रों में उसे दोषी ठहराकर अपने झूठे दंभ को सहलाने में तुष्ट है ।
‘खटका’ कहानी राजीव और अनुष्का के सपनों की बुनावट में आधुनिक जीवन के तनावों, प्रश्नों और सरोकारों का जीवंत दस्तावेज़ कही जा सकती है। संघर्ष और परिश्रम के बल पर खुशहाल जीवन जीने की नन्हीं सी आशा उन्हें कैसे पल-पल तोड़ती चली जाती है और किस प्रकार जीवट साधे यह युगल प्रत्येक बाधा के पार निकल जाने की हर संभव कोशिश करता है, कहानी का यह ताना-बाना हमारे आस-पास घटित होने वाले रोज़मर्रा जीवन का ही अंश प्रतीत होता है। संतान सुख को टालने की विवशता अनुष्का के मन में दिन-रात खटकने वाली फांस बन जाती हैं, जहां बच्चे के जन्म से सम्बंधित उम्र की धारणाएं उसे चैन नहीं लेने देती और हजार-हजार आशंकाओं के बीच ऊब-चूब करते हुए वह अपने संघर्ष की सार्थकता टटोलती है।
‘तीस साल की लड़की’ कहानी में शुभांगी के माध्यम से समाज की उन जड़ परम्पराओं पर चोट की गई हैं जहां लड़की के शिक्षित और आत्मनिर्भर होने की अपेक्षा उसके शादीशुदा होने को अधिक तरजीह दी जाती है। एक विशेष उम्र पार कर जाने पर लड़की का अविवाहित होना उसके माता-पिता के लिए शर्म का बायस बनता है और लड़की के साथ कई प्रवाद जोड़ कर उसकी खामियां ढूँढने का सामाजिक कर्तव्य। इस कहानी में शुभांगी तमाम प्रतिरोध पार कर अपने पैरों के नीचे की जमीन खुद बनाती है और अपने पक्ष में खड़ी होती है।
‘वह उड़ती थी तो तितली लगती थी’ कहानी में उषा माँ न बन पाने की स्थिति में पारिवारिक दबाव में विभिन्न प्रकार के प्रयोगों को आज़माने की प्रयोगशाला बना दी जाती है। वह अपने पति से बहुत प्रेम करती है इसलिए सब चुपचाप सहर्ष सहने के लिए स्वयं को मनाती है लेकिन एक दिन उसका धैर्य चुक जाता है और वह प्रयोगशाला का चूहा बनने से साफ इनकार कर देती है।
‘अंधेरे की कोई शक्ल नहीं होती’ 1984 के दंगों की पृष्ठभूमि पर लिखी एक ऐसी कहानी है जो धार्मिक उन्माद में उजड़ते घर-परिवारों के साथ-साथ बलात्कार के रूप में बार-बार उजड़ती लड़कियों की पीड़ा को शब्दबद्ध करती है। प्रत्येक युद्ध स्त्री की देह पर अवश्य लड़ा जाता है, इसकी बानगी देश-विदेश में समय-समय पर होने वाले युद्ध, गृह-युद्ध और साम्प्रदायिक दंगों में देखने को मिलती है। उक्त कहानी में हरप्रीत 1984 के दंगों में अपने माता-पिता को खो देती है, बलात्कार का शिकार होती है, नाना-नानी के परिवार में आश्रय पाती है परंतु वहां पर भी मामा द्वारा उसके साथ वही अनहोनी दोहराई जाती है। ज्योति चावला के शब्दों में, ‘‘सच पूछा जाए तो स्त्री की देह की इस आहुति के लिए किसी दंगे की जरूरत नहीं। उसके लिए तो चौरासी कभी खत्म नहीं हुई।’’13
‘बड़ी हो रही है मीताली’ कहानी संवादहीनता के दौर से गुजर रहे रिश्तों में आपसी प्रेम और स्नेह की ऊष्मा टटोलने की सार्थक पहल है और ‘सुधा सब सुन रही थी’ एक ऐसी लड़की के जीवन को शब्दबद्ध करती है जो अपने जीवन के तीन महत्त्वपूर्ण पुरुषों-पिता, पति और प्रेमी द्वारा मंझधार में छोड़ दिए जाने पर अपनी नैया को तूफान के हवाले न करके खुद उसकी खेवनहार बनती है और जीवन को एक दिशा प्रदान करती है।
‘वह रोज़ सन्नाटा बुनती थी’ महानगरीय जीवन में सूखते परिचय स्रोतों के बीच आत्मालाप और एकालाप की दुर्वह स्थिति से जूझ रही राधा के माध्यम से चमक-दमक से लैस आधुनिक जीवन शैली की नींव में दबे अंधेरों का आख्यान है। अन्ततः यही कहा जा सकता है कि ज्योति चावला की कहानियां निराशा के अंधेरे टुकड़ों को जोड़कर यथार्थ का मुकम्मल चेहरा गढ़ने की सार्थक कोशिश हैं।

समकालीन कहानीकारों में चर्चित और समर्थ कहानीकार हैं तरुण भटनागर। विषय की विविधता और कहन का एक विशिष्ट अंदाज़ उन्हें विशिष्ट साहित्यकारों की जमात से जोड़ता है। ‘‘नगरीय जीवन की जटिलताएं हों या उससे अलग आदिवासी-जनजातीय जीवन के अदेखे-अजाने पहलू, तरुण उन सब पर पकड़ बनाए रखते हैं। वास्तव में वह मानवीय जीवन में आ रहे उन बदलावों को पूरी शिद्दत से रेखांकित करते है, जिन्होंने ‘आदमी को इनसान’ नहीं रहने दिया है।’’14 ‘जंगल में दर्पण’ तरुण भटनागर का लोकप्रिय कहानी संग्रह है जिसमें रोना, ज़हर बुझे तीर के बाद, जंगल में दर्पण, प्रथम पुरुष, दवा, साझेदारी और एक आदमी, टेबिल और गुम नामक सात कहानियां संकलित हैं जो जनजातीय जीवन, जंगल, पूंजीवादी वर्ग के ब्योरे पर ही समाप्त नहीं होती अपितु इतिहास और मिथकों के जादुई संसार को भी अपने कलेवर में समेट लेती हैं।
‘रोना’ कहानी मशीनीकरण के युग में कुंद संवेदनशीलता की भावभूमि पर मशीनी जीवन जी रहे मनुष्य की भयावह तस्वीर उकेरती है। किसी प्रियजन की मृत्यु पर किराए के रोने वालों का बंदोबस्त जहां हमारे भीतर सूख रही भावनाओं को दर्शाता है वहीं भविष्य के उसे सवेदनाशून्य समाज की ओर इंगित भी करता है जब मानवोचित संवेदनाओं के अभाव में मनुष्य चलती-फिरती मशीन मात्र बनकर रह जाएगा।
‘ज़हर बुझे तीर के बाद ’ बस्तर के जंगलों से जुड़ी वह अकथ कहानी है जिसमें आधुनिक सभ्यता के घटकों की घुसपैठ और सियासती चालाकियों की सेंधमारी के बावजूद जंगल के तनावरहित जीवन का खाका तैयार किया गया है। जंगल को मिटाकर विकास के नाम पर सम्पदा को हड़प लेने की लगातार रची जा रही साजिशों का पर्दाफाश करते हुए यह कहानी जंगल में जीवन की संभावनाओं को नई दृष्टि से टटोलती है। ‘जगल में दर्पण’ कहानी इतिहास के पन्नों में महानता के नाम पर दर्ज होने से महरूम बस्तर के जंगल के अदेखे-अजाने सच को उजागर करती है। स्वार्थ के नाम पर युद्ध और मार-काट से अनजान यह सभ्यता अभी भी जंगल के कायदे-कानून से ही चलती है। क्षुद्र लालसाओं से चालित बाहर की दुनिया के षड्यंत्र उन पर काबिज होने की ताक में है लेकिन जंगल इस पैंतरेबाजी से अछूता रहकर अपने नैसर्गिक स्वरूप में ही उपस्थित है इसीलिए महान सभ्यताओं में उसका नामोनिशान भी देखने को नहीं मिलता।

‘प्रथम पुरुष’ कहानी लिंगों पेन नामक एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो संगीत का अन्वेषक, स्वप्नद्रष्टा, नवीनता का पक्षधर और सपनों की उड़ान भरने वाला आदिम सभ्यता का प्रथम पुरुष है। परिवर्तन की हिमायत करने वाला प्रत्येक व्यक्ति समाज की नजर में दोषी होता है, लिंगो पेन भी इसका अपवाद नहीं। पेट और शरीर की आदिम भूख मात्र को जीने वाली आदिम सभ्यता में लिंगो पेन को खतरा समझा जाता है, क्योंकि आदिम युग में और आज भी दुनिया परम्पराभंजक और नवीनता के प्रति आग्रह रखने वाले व्यक्ति को स्वीकार नहीं करती, उसे अपने युग-समाज का बहिष्कार झेलना ही पड़ता है।
‘दवा, साझेदारी और एक आदमी’ भूख की बेबसी के बीच जीवन की संभावनाओं को तलाशने का ईमानदार प्रयास है। गरीब व्यक्ति परिस्थितियों के चक्रव्यूह में इस प्रकार से घिरता है कि एक ओर उसे दायित्वबोध खींचता है और दूसरी ओर रोटी की अनिवार्यता। जीवन की पक्षधरता का हिमायती होकर भी वह भूख के सामने लाचार है। इस कहानी का प्रमुख पात्र कैमिस्ट भूख, जीवन और सिद्धान्तों की आर-पार की लड़ाई लड़ने वाला ऐसा बेबस व्यक्ति है जिसकी पीड़ा दुनिया के सभी गरीबों की साझी तकलीफ है।
‘टेबिल’ कहानी डॉक्टर राजन के माध्यम से केन्द्रीकृत शक्तियों की मनमानियों के चलते साधारण व्यक्ति की विवशता को रेंखांकित करती है और भारतीय परिप्रेक्ष्य में कार्यालीय जीवन की औपनिवेशिक शक्तियों का असली चेहरा उद्घाटित करती है। बाल मनोविज्ञान की दृष्टि से तरुण भटनागर की ‘गुम’ कहानी विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है। कहानी में श्रवण, कांता और सनेही का पड़ोस के घर में ही गुम हो जाना बाल मनोविज्ञान के संदर्भ में आधुनिक जीवन की कई समस्याओं की पर्ते उधेड़ता है। अतः समग्र रूप से हम यही कह सकते हैं कि तरुण भटनागर अपनी कहानियों में समसामयिक समस्याओं की शिनाख्त करते हुए जंगल, जमीन, शहर और महानगरीय जीवन के सूक्ष्म संवेदनों की बड़ी बारीकी से पहचान करते हैं।



सत्यनारायण पटेल समकालीन हिन्दी कथा साहित्य में किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उनका तीसरा कहानी संग्रह ‘काफिर बिजूका उर्फ़ इब्लीस’ उनकी विलक्षण लेखन प्रतिभा का परिचायक है। सत्यनारायण पटेल की कहानियां ग्रामीण परिवेश में रची-बसी अपने समय से संवाद रचाती ऐसी कहानियां हैं जिनकी किस्सागोई बेमिसाल है और कहन का ढंग लाजवाब। बकौल लेखक, ‘‘मैं अपनी कहानियों के पात्रों को वास्तविक जीवन से ही चुनता हूं। वास्तव में देखा जाए तो यथार्थ और कल्पना के मिश्रण से ही कहानी बनती है लेकिन कल्पना उतनी ही होती है जितनी आटा गूंथनें के लिए पानी की जरूरत होती है अथवा स्वाद के लिए नमक की।’’15
पर पाजेब न भीगे, घटृ वाली माई की पुलिया, एक था चिका एक थी चिकी, ठग, न्याय, काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस नामक छह यथार्थपरक कहानियां उक्त कहानी संग्रह में संकलित हैं। ‘‘ स्याह अंधेरों को अपने हौसलों के बूते चीर देने का विश्वास इस संग्रह की कहानियों की ताकत है जो सबसे पहले अपने भीतर पसरे अंधेरों को चीन्हने की तमीज देता है। शायद इसीलिए बिजूका की तरह अपने मानवीय वजूद का उपहास सहता आम आदमी उनकी कहानियों में क्रमशः निखरता हुआ व्यवस्था की कठमुल्ला ताकतों के लिए पहले काफिर बन जाता है और फिर इब्लीस।’’16
‘पर पाजेब न भीगे’ तथाकथित विकास की आड़ में अपनी ज़मीन से बेदखल किए जा रहे लोगों की व्यथा-कथा बंजारा बांध के ज़रिये उद्घाटित करती है। विकास योजनाओं से लाभान्वित होने वालों में पूँजीपतियों की जमात शामिल है लेकिन जिन लोगों को स्वत्वहीन बनाकर इन योजनाओं का खाका तैयार किया जाता है, उन्हें मात्र विकास के झूठे नारों के शोर में ठगा जाता है। ऐसी तथाकथित विकास परियोजनाओं पर सवालिया निशान लगाती हुई कहानी वास्तविक विकास और कागजी विकास के अंतर की सूक्ष्म पड़ताल करती है।
घटृ वाली माई की पुलिया कहानी लोक जीवन के उन अनाम नायक-नायिकाओं की कहानी है जो इतिहास में अपनी जगह नहीं बना पाते परंतु अपने दृढ़ संकल्प और परहितकारिता के सदके वह एक ऐसा आदर्श कायम कर देते हैं जो सदियों तक निराशा के स्याह अंधेरों में आशावादिता का उजास फैलाता रहता है।
‘एक था चिका एक थी चिकी’ कहानी चिड़े और चिड़िया की प्रतीकात्मक कथा के माध्यम से पारिवारिक स्तर पर स्त्री की अधीनस्थ स्थिति और पुरुष की प्रभुतासम्पन्नता का कथा सूत्र बुनती है, जहां समय की धूल से मटमैले पड़े रिश्ते प्रेम के स्थान पर अधीनता और वर्चस्व के समीकरणों में तब्दील हो जाते हैं और तब स्त्री के हिस्से में न दो गज जमीन बचती है और न मुट्ठी भर आसमान ।

‘ठग’ कहानी दो ठगों की ठगी से आंरभ होकर होशियार की होशियारी से चमत्कृत करती हुई किस्सा-दर-किस्सा तिलस्मी कहानियों के समान आगे बढ़ती है। उक्त कहानी का कथानक बहुत सीधा परंतु इसका निहित अर्थ बहुत गहरा और विलक्षण है। मनुष्य की लिप्सा का कोई ओर-छोर नहीं और अपनी अनंत लालसाओं की पूर्ति हेतु वह जंगल, जमीन, हवा, पानी तक को भी बेचने से गुरेज़ नहीं करता। लालसा और लालच की यह अंधी दौड़ न जाने कहां जाकर थमेगी और न जाने किस-किस को लीलकर तुष्ट होगी ?
‘न्याय’ कहानी कथा-नायक आमिर के माध्यम से जन-विरोधी समय में न्यायतंत्र, राजनीतिक षड्यंत्रों, झूठ के प्रपंच और कार्यप्रणाली की असफलता पर प्रहार करते हुए आमिर जैसे साधारण जन के आक्रोश और अंसतोष को उद्घाटित करती है।
‘काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस’ धर्म की आड़ में होने वाले शोषण का आख्यान है। इस शोषण का पग-पग पर शिकार होते हुए व्यक्ति का अस्तित्व कभी बिजूका की तरह उपहासास्पद जान पड़ता है और कभी भ्रष्ट व्यवस्था के हाथों ठगे जाकर वह काफ़िर बनने की ओर उद्यत होता है और अन्ततः इब्लीस अर्थात् शैतान बन जाता है। ‘‘सत्यनारायण पटेल की कहानियाँ मात्र पढ़ने के लिए नहीं, नागरिक दायित्वों के आलोक में अपनी भूमिका को जाँचने-परखने के लिए भी हैं कि हम इब्लीसों की जमात से कितने अलग हैं।’’17



कहानी के समकाल में अपनी सशक्त उपस्थिति से आश्वस्ति का भाव थमाने वाले बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न कहानीकार उमा शंकर चौधरी अपना परिचय स्वयं है। उनकी कहानियों का भावबोध बहुत गहरा है और कथा-वितान अत्यंत विस्तृत। ‘कट टु दिल्ली और अन्य कहानियां’ इनका दूसरा कहानी संग्रह है, इस संग्रह की कहानियों में भूमंडलीकरण के दौर में मनुष्य का शनैः-शनैः बाजारवाद का शिकार होना, उपभोक्तावादी संस्कृति में दरकते रिश्तों, भूख से उपजने वाले जुर्म की अनकही सच्चाइयां और अपने समय के चौंधियाते उजालों में पसरे हुए अंधेरों को पहचानने का उपक्रम है। इस संग्रह में ‘ललमुनिया मक्खी की छोटी सी कहानी,’ कन्हैयालाल वल्द रामरतन सिंह,’ मिसेज वाटसन की भुतहा कोठी,’ पोटृम, हरे पत्ते और दिल्ली की उमस भरी वह शाम,’ ’कट टु दिल्ली : कहानी में प्रधानमंत्री का प्रवेश’ नामक पाँच कहानियां संगृहीत हैं। उनकी प्रयोगधर्मिता की बानगी संग्रह की पहली कहानी की प्रमुख पात्र मक्खी और अंतिम कहानी में प्रधानमंत्री को केन्द्रीय पात्र के रूप में चित्रित करना है।‘‘उमा शंकर चौधरी जिस पीढ़ी के लेखक है, उसमें भाषा और शिल्प के स्तर पर खूब प्रयोग हुए लेकिन शायद वे अकेले ऐसे लेखक हैं जिन्होनें अपने यहाँ भाषा और शिल्प के साथ-साथ विषय के स्तर पर भी खूब प्रयोग किए।’’18

‘ललमुनिया मक्खी की छोटी सी कहानी’ देवाशीष नामक एक ऐसे युवक की कहानी है जो महानगरीय चमक-दमक से चमत्कृत होकर ऐश्वर्यपूर्ण जीवन के सपने संजोता है परंतु पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में बिना पूँजी के सपनों का भुरभुरा कर ढहना उसकी नियति का ही हिस्सा है। यदि किसी दिन जीवन अलादीन के चिराग जैसे जादू के बल पर मनचाही दिशा में चलता भी है तो अर्थंव्यवस्था की मंदी ऐसे अनेक प्रतिभासम्पन्न नवयुवकों पर गाज सी गिरती है और एक ही झटके में देवाशीष स्वयं को उसी चौराहे पर खड़ा पाता है जहाँ से जीवन शुरू किया था। कहानी में एक सुखद संयोग के रूप में देवाशीष की कोल्ड ड्रिंक की बोतल में मरी हई मक्खी का मिलना और उसकी भरपाई के तौर पर कम्पनी द्वारा हरजाना देना किसी चमत्कार से कम नहीं परंतु प्रश्न यह उठता है कि ऐसे चमत्कारों का संयोग भला कितने लोगों के जीवन में बनता है?

कहानी ‘कन्हैयालाल वल्द रामरतन सिंह’ गुरबत की मार झेल रहे लोगों के बच्चों का जुर्म की दुनिया में व्यवस्थागत खामियों के कारण पदार्पण और भ्रष्ट पुलिस तंत्र के हत्थे चढ़ कर हज़ारों निर्दोष लोगों का साल-दर-साल जेल की कोठरियों में घुट कर मर जाने की कष्टदायी परिणति पर एक नए कोण से प्रकाश डालती है। प्रश्न यह उठता है कि परिस्थितिजन्य दबावों ओर परिवेशगत घटकों के प्रभाव से अपराध जगत् में प्रवेश करने वाले लोग क्या सचमुच दोषी हैं? अथवा यह हमारी भ्रष्ट व्यवस्था का दोष है कि एक बार अपराध की सीढ़ी पर कदम रखने के बाद मुख्यधारा में लौटने के सारे रास्ते व्यक्ति पर बंद कर दिए जाते हैं।
‘मिसेज वाटसन की भुतहा कोठी’ कहानी में एक भुतहा कोठी जिसके वंशजों के निःसंतान रह जाने की किंविंदति प्रचलित है, में रहने वाले त्रिलोचन के बड़े बेटे निरंजन और बहू अनुराधा के बेऔलाद रहने पर कोठी के प्रकोप का प्रवाद और भी गहरा जाता है। अनुराधा के रूप में कहानीकार ने हमारी पितृसत्ताक व्यवस्था की उस सोच को भी उजागर किया है जिसमें स्त्री के अस्तित्व की सार्थकता मात्र मातृत्व में ही निहित समझी जाती है। बांझ होने के कलंक को ढोती अनुराधा घर के नौकर के संसर्ग से संतान सुख पाती है और अपने खोए हुए सम्मान को फिर से पा लेती है परंतु सोचना यह है कि बच्चा पैदा करने में अक्षम स्त्री क्या घर परिवार और समाज में मान-सम्मान की अधिकारिणी नहीं है? क्या स्त्री जीवन मात्र मातृत्व का ही पर्याय है?
‘पोट्टम, हरे पत्ते और दिल्ली की उमस भरी वह शाम‘ कहानी केरल के हरे भरे प्राकृतिक परिवेश में पले-बढ़े पोट्टम द्वारा रोज़गार की तलाश में दिल्ली आने और महानगरीय जीवन से तालमेल न बिठा पाने की स्थिति में अवसाद का शिकार हो जाने की त्रासदी पर केन्द्रित है। एक बेहतर जीवन जीने की आशा में छोटे शहरों से महानगरों में आकर बसने वाले लोग महानगरीय आपाधापी से सामंजस्य न बिठा पाने पर निरंतर तनाव में रहते हैं, परिवार को समय न देने पाने की स्थिति में पारिवारिक विघटन की पीड़ा झेलते हैं और जीवन में प्रत्येक फ्रंट पर स्वयं को असफल पाकर मानसिक व्याधियों की चपेट में आ जाते हैं।
संग्रह की अंतिम कहानी ‘कट टु दिल्ली : कहानी में प्रधानमंत्री का प्रवेश’ में प्रधानमंत्री के कमर दर्द और उसके ईलाज के लिए अमेरिका से बुलाए गए डॉक्टर, मल्टीनेशनल कम्पनियों द्वारा चलाए जाने वाले अस्पताल और वैद्य के रूप में बच्चा बाबू द्वारा किए गए उपचार के रूप में सत्तासीन वर्ग की घटिया सियासत, भारत जैसे विकासशील देशों द्वारा अमरीका के तलुवे चाटने की प्रवृत्ति और देश के प्रतिभासम्पन्न नागरिकों को राजनैतिक षड्यंत्रों के चक्रव्यूह में उलझा कर नेस्तनाबूद करने की साजिशों का पर्दाफाश किया गया है। निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि उमा शंकर चौधरी की कहानियां समकालीन जीवन की दरारों में से झाँक कर उपभोक्तावादी संस्कृति के हत्थे चढ़ी प्रतिभाओं की पीड़ा को दर्ज करते हुए महानगरीय जीवन शैली के श्वेत-श्याम चित्रों को जोड़ कर बनाई गई जीवन की विविधता से सुसज्जित कैनवास जैसी हैं।
 विमल चन्द्र पाण्डेय समकालीन कथा परिदृश्य में बेहद चर्चित नाम हैं। इनकी कविताएं और कहानियां अपने समय की खतरनाक सच्चाइयों को अभिव्यक्त करते हुए जीवन की अँकुराती संभावनाओं को खोज लाने की आश्वस्ति से परिपूर्ण हैं। ‘मस्तूलों के इर्दर्गिद’ कहानी संग्रह में युवा मन की जिज्ञासाएं, सेक्स सम्बंधी उत्सुकता और आत्महंता समय में से गुज़रते हुए बेरोज़गारी और असफलता के थपेड़ों से आहत होकर आक्रामकता पर उतारू हो जाना जैसे कई महत्त्वपूर्ण प्रश्न उपस्थित है। ‘‘विमल की इन कहानियों में आज का हमारा पूरा समय अपने सही रूप में रचा गया है --आज के युवाओं की इतनी समृद्ध, रंगारंग और सच्ची दुनिया नए कथाकारों में से शायद ही किसी के पास हो।’’19
उक्त कहानी संग्रह में ‘पवित्र’ सिर्फ एक शब्द है, महानिर्वाण, वंशावलियों के शिलालेखः अ कंट्राडिक्शन, बूमरैंग, मस्तूलों के इर्दर्गिद, प्रेम पखेरू, बाबा एगो हइये हउएं, हाइवे पर कुत्ते नामक आठ कहानियां दर्ज हैं। ‘कहानी ‘पवित्र सिर्फ एक शब्द है’ में पहले प्रेम में ठुकराए जाने पर प्रतिक्रिया स्वरूप कहानी का मुख्य पात्र सुरेश शहर में सक्रिय एक ऐसे गिरोह का सदस्य बन जाता है जो प्रेमी जोड़ों की धर-पकड़ करके उन्हें अपमानित करते हैं और हिन्दू संस्कृति की रक्षा के नाम पर लड़कियों से अपने प्रेमियों को राखी बंधवा कर स्वर्णिम भारतीय परम्पराओं के वाहक होने का दंभ पालते हैं। शहर भर के बेरोज़गार, प्रेम के भूख,े घर-परिवार के तिरस्कार का शिकार युवक समाज से अपनी नाकामियों का बदला लेने का यह तरीका अपनाते हैं। युवावस्था में ऊर्जा से भरपूर युवकों का कुछ गैर सामाजिक तत्वों के बहकावे में आकर इस प्रकार स्व-घातक कार्यो में सम्मिलित होना जहां समाज के लिए हानिकारक है, वहीं युवा शक्ति का भटकाव उनके जीवन को भी अंधकारमय बनाने की राह पर ही अग्रसर करता है ।
‘महानिर्वाण’ कहानी समय के बहाव में बहते हुए एक सरकारी कर्मचारी जीवन लाल द्वारा कविता लेखन में प्रवृत्त होने, साहित्य-जगत में पहचान स्थापित करने के साथ-साथ अनेक सम्मान हासिल करने और प्रसिद्ध साहित्यकारों की पंक्ति में शुमार होने के कथा-बिन्दु से उपजती है। यह कथा बिन्दु विस्तार पाकर एक सार्थक परंतु बेहद चुनौतीपूर्ण प्रश्न में तब्दील हो जाता है कि क्या साहित्य जगत में मान और सम्मान पाने वाला साहित्यकार ही कालजयी होता है? कहानीकार के अनुसार सच्चा साहित्यकार वह है जो अपने समय का साक्षात्कार करते हुए यथार्थ को अभिव्यक्त करता है, अन्याय के विरुद्ध प्रतिरोध दर्ज करता है और असहमति के भय से मुक्त होकर सच को बयान करता है। जीवन लाल ख्यात और जाना-माना रचनाकार होकर भी स्वयं की नज़रों में दोषी है क्योंकि वह जानता है कि उसने साहित्यकार के कर्तव्य का सही ढंग से पालन नहीं किया है।

कहानी ‘वंशावलियों के शिलालेखः अ कंट्राडिक्शन’ रंगमंच से फिल्मों की दुनिया में अपना भाग्य आज़माने पहुँचे तीन दोस्तों-ललित, निलय और आनंद के संघर्ष और उस संघर्ष की असफलता के पश्चात् अपने टूटे हुए सपनों की किरचों की चुभन के साथ तालमेल बिठाने की जद्दोजहद का आख्यान है।
‘बूमरैंग’ कहानी मनोविज्ञान के उस नियम पर आधारित है जिसके अनुसार मुनष्य बार-बार वही गल्तियां करता है और समय बीतने पर पश्चाताप करते हुए ऐसा न करने का संकल्प लेता है परंतु न तो मानव स्वभाव बदलता है और न ही उसका संकल्प कहीं टिकता है। मनुष्य चाहते, न चाहते हुए बार-बार उसी मनःस्थिति में ही लौटता है। कहानी में रवि का अपनी पत्नी से बार-बार झगड़ा करना, पत्नी के गुस्से को निरीह ड्राइवर रामलाल पर उतारना और रात में शराब के नशे में रामलाल पर गुस्सा उतारने के बोझ से मुक्त होने के लिए किसी भी ड्राइवर से माफी मांगना बूमरैंग ही कहा जा सकता है।
कहानी ‘मस्तूलों के इर्द-गिर्द’ रिश्तों से हारे और प्रेम से रूठे हुए सुप्रीमो के मन में नायिका अप्रितम माधुरी के द्वारा प्रेम के लिए आस्था पैदा करने और जीवन में शुभ एवं सुन्दर के अस्तित्व के प्रति आशा का संचार करने का कथानक बुनती है। कहानीकार मरने के कगार पर खड़ी नायिका के हाथों में प्रेम को ही सर्वस्व मानने का जीवन-मंत्र थमाकर संभवतः हमें यह सीख देना चाहता है कि आज के युग की आत्मघाती परिस्थितियों में जीवन की संभावना मात्र प्रेम के ही कारण संभव है।
‘प्रेम पखेरू’ कहानी यौवन की देहलीज पर खड़े दो किशोरों की कहानी है जो किशोरावस्था सुलभ सैक्स के प्रति आकर्षण को लेकर उलझन की स्थिति में हैं। शारीरिक सम्बंधों के कामुक चित्र देखना और मन ही मन आस-पास से गुज़रने वाली युवतियों के विषय में उसी दृष्टि से सोचना जहां उनकी अनगढ़ कच्ची समझ को दर्शाता है वहीं किशोरावस्था में उचित मार्गदर्शन के अभाव में युवाओं के भटकने एवं गलत हाथों में पड़ जाने के खतरों के प्रति भी सचेत करता है।
‘बाबा एगो हइये हउएं’ कहानी मीडिया की भूमिका को कटघरे में खड़ा करते हुए लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ करने वाली पत्रकारिता पर सवाल उठाती है। आधुनिक मीडिया भ्रामक अवसरों का मायाजाल बिछाकर बेरोज़गार लोगों के सपनों को छलता है और सस्ती विज्ञापन बाजी के लिए घटनाओं को ऐसे तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करता है कि वह खबर सनसनी तो पैदा कर देती है परंतु सत्य से उसका दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं होता। कहानी में अनुज श्रीवास्तव उर्फ बाबा मीडिया के झूठे संसार में प्रवेश तो पा लेता है परन्तु उसकी ईमानदारी ही उसका सबसे बड़ा शत्रु बन जाती है और वह न चाहते हुए भी मीडिया की चालबाज दुनिया का एक मोहरा बन जाता है।

‘हाइवे पर कुत्ते’ कहानी बाजारीकरण के दौर में प्रेम की हिमायत करने वाले ऐसे युगल की कथा है जो इस मशीनी समय में भी अपनी जान की कीमत देकर प्रेम को बचाने का हौंसला रखता है। स्वार्थी रिश्तों की भरमार के बीच इक्का-दुक्का ऐसे विलक्षण प्रेमियों की उपस्थिति निराशा की घनघोर अंधेरी रात में टिमटिमाते जुगनुओं जैसी आश्वस्ति थमाती है। अंत में यही कहा जा सकता है कि ‘‘युवा कथाकार विमल चन्द्र पाण्डेय की कहानियों में स्थानीयता अपनी पूरी रंगत में विराजमान रहती है। बनैले यथार्थ को वह कॉमिक प्रतिपक्ष में बदलते हैं और फिर परत-दर-परत उघाड़ते चलते हैं।’’20

हाशियाकृत समुदाय की पीड़ा को किसी विमर्श विशेष के चौखटे में फिट किए बगैर वर्तमान समय के हौलनाक यथार्थ का चित्रण करने में सिद्धहस्त हिन्दी के चर्चित युवा कथाकार श्री कैलाश वानखेड़े हिन्दी कहानी की एक नवीन परिभाषा गढ़ रहे हैं। उनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह ‘सत्यापन’ की सभी कहानियों में वंचित, शोषित और सर्वहारा वर्ग के दमन की मूक चीखे दर्ज हैं और भ्रष्ट सत्तातंत्र की सूक्ष्म साजिशों के प्रति उफनते आक्रोश का कोलाहल। डा. बजरंग बिहारी तिवारी के शब्दों में, ‘‘सत्तातंत्र के पाखंड का सलीके से पर्दाफाश करने वाली ये कहानियाँ हिन्दी कहानी को नवता प्रदान करती हैं और दलित कहानी को दिशा देने का काम करती हैं। रोजमर्रा के अनुभवों का जैसा दलित भाष्य कैलाश के यहां मिलता है वह दलित चिंतन के विकास का साक्षी है, साथ ही जाति की जकड़बंदी के समकालीन जटिल ताने-बाने की विश्वसनीय पड़ताल का दस्तावेज भी है।’’21

उक्त संग्रह में सत्यापित, तुम लोग, अन्तर्देशीय पत्र, घण्टी, महू, स्कॉलरशिप, उसका आना, कितने बुश कित्ते मनु और खापा नामक नौ कहानियां संकलित हैं।

‘सत्यापित’ कहानी आत्मकथात्मक शैली में लिखित है जिसका नायक एक दलित युवक है जो स्वयं को सत्यापित करवाने के लिए दर-दर की खाक छानता है परंतु उसकी पहचान पर मुहर लगाने वाली सत्यापन प्रक्रिया पूरी होने में ही नहीं आती। कार्यालीय कार्यप्रणाली की खाहमखाह की पेचीदगियों पर प्रकाश डालते हुए यह कहानी एक गंभीर प्रश्न उठाती है कि किसी भी व्यक्ति की पहचान को सत्यापित करने का अधिकार किसी और व्यक्ति को कैसे दिया जा सकता है, जो हमें न तो जानता है, न पहचानता है लेकिन फिर भी उसकी कलम के पास यह ताकत है कि वह चाहे तो हमारी पहचान का सत्यापन करे अथवा हमें सिरे से ही खारिज कर दे।

‘तुम लोग’ कहानी मनुष्य के मान-सम्मान के पैमाने महंगे जूते, कपड़े, जेब के माल और रिहायशी इलाके के स्टैंडर्ड पर अवस्थित होने की मानसिकता को उघाड़ती है। अमीर होने या न होने से ज्यादा जरूरी है -अमीर दिखना, नहीं तो सब्जी वाला, कपड़े की दुकान वाला यहां तक कि राह चलता अजनबी भी तू-तड़ाक पर उतर आता है। साधारण दिखने वाले लोग दुनियां की नज़र में मात्र ‘तुम लोग’ ही बन कर रह जाते हैं, उनकी पहचान इन्हीं दो शब्दों के बोझ तले दब कर मर जाती है।

कहानी ‘अन्तर्देशीय पत्र’ मात्र पत्र लिखने की कवायद भर नहीं है अपितु कहानी का निहितार्थ तो लिखने से छूट गए शब्दों और अनकहे-अनसुने अल्फाज़ों में समाया है। स्वतंत्रता के वर्षो बाद भी शिक्षा के अधिकार से वंचित दलित अभवग्रस्त जीवन जीने के लिए बाध्य हैं। इस अभावग्रस्तता की काली छाया न तो शब्दों की पकड़ में आती है और न बोल कर सुनाई जा सकती है। इस तकलीफ को समझने और गुनने के लिए भुक्तभोगी की आंख और हृदय की दरकार है।
‘घंटी’ कहानी मांगीलाल चौहान नामक ईमानदार और कर्मनिष्ठ चपरासी द्वारा अपने बड़े साहब के घर के काम करने से इनकार करने पर टूटे मुसीबतों के पहाड़ को बयान करती है। कार्यलय का सबसे मेहनती चपरासी मांगीलाल इतनी छोटी सी बात की इतनी बड़ी सजा पाता है कि बीमारी की हालत में उसे छुट्टी नहीं दी जाती और तिस पर विभागीय कार्रवाई की धमकी का डर भी दिखाया जाता है। वास्तव में कहानी भारतीय समाज की उस मानसिकता का उद्घाटन करती है जिसके चलते अपने मातहत काम करने वाले व्यक्ति को अधिकारी अपनी जागीर मान बैठते हैं। भारत से गुलाम प्रथा तो कब की समाप्त हो गई परंतु हमारी सोच में घर कर चुकी अफसरशाही खुद को स्वयंभू और अधीनस्थ व्यक्ति को अपने जरखरीद गुलाम से अधिक कुछ नहीं मानती।

‘महू’ कहानी शिक्षण संस्थानों के उस परिवेश को उजागर करती है जहां दलितों की प्रताड़ना ट्रेंड बन चुकी है और उस प्रताड़ना की टूटन आए दिन विद्यार्थियों की आत्महत्याओं की घटनाओं में तब्दील हो जाती है। मुद्दे की बात यह है कि हमारी व्यवस्थागत खामियां और पेचीदगियां जो विद्यार्थियों को आत्मघात के लिए उकसाती हैं, उन्हें हत्या कहा जाए अथवा आत्महत्या माना जाए? विभिन्न स्तरों पर होने वाली यह प्रताड़ना विद्यार्थियों के सपनों पर भारी पड़ती है, जीवन से भरोसा उठने लगता है और संभावनाओं से उमगता-गमकता एक भरपूर जीवन मौत को गले लगा लेता है।
‘स्कॉलरशिप’ कहानी सरकारी जुमलेबाजी की प्रंवचना से परे यथार्थ की ठोस जमीन पर पिछड़ी जाति के लोगों द्वारा शिक्षा प्राप्त करने की पहल से जुड़ी जमीनी सच्चाइयों को प्रतिबिम्बित करती है। कथा के नैरेटर द्वारा पढ़ने के लिए स्कूल जाना और वहां पर अध्यापको द्वारा उसे पढ़ाई के अतिरिक्त और सभी कार्यों में लगाए रखना हमारी उस दकियानूसी परम्परापोषक सोच को उजागर करता है जिसके अन्तर्गत शिक्षा का अधिकार मात्र सवर्णों को है क्योंकि दलित यदि शिक्षित हो जाएगा तो अपने अधिकारों की पैरवी करेगा और सामाजिक विधि-विधानों पर प्रश्न उठा कर अपने शोषण की लड़ाई का कर्णधार स्वयं बन जाएगा।

‘उसका आना’ कहानी भारतीय समाज के स्त्री विरोधी परिवेश में पुरुष वर्चस्व की सामंती ताकतों के समक्ष घुटने टेकने पर मजबूर लोगों की व्यथा-कथा है। आज भी बिना जाँच पड़ताल किए किसी भी लड़की को सुनी सुनाई बात के आधार पर व्यभिचारिणी घोषित कर देना रोज़मर्रा घटने वाली घटना है। आज भी पढ़ने-लिखने वाली लड़की, लड़कों को फांसने में माहिर समझी जाती है और उसके कुल, वंश अथवा स्वयं उसके अस्तित्व को कांटों में घसीटने का विशेषाधिकार समाज के प्रत्येक ठेकेदार की बपौती है।

‘कितने बुश कित्ते मनु’ एक प्रतीकात्मक कहानी है जिसमें किसी की मेहनत का फल किसी और को मिलता है क्योंकि अफसरशाही में योग्यता अथवा परिश्रम का नहीं मात्र पद का सिक्का चलता है। जैसे बुश ने कल्याणकारी योजनाओं की आड़ में ईराक के लोगों से विश्वासघात किया था, वही विश्वासघात कहानी के नैरेटर के साथ उसका बॉस करता है। मनुवादी मानसिकता वाला हमारा समाज आज भी दलित और स्त्री को शिक्षा के अधिकार से वंचित रखने की हिमायत करता है और मात्र सवर्णो, वह भी सवर्ण पुरुषों की शिक्षा-दीक्षा का ही पक्ष लेता है। अतः कहानीकार प्रश्न उठाता है कि अभी कितने बुश और जन्म लेंगे और कितने मनु अभी और सताएगें?

‘खापा’ कहानी में उन गरीब अभिभावकों की पीड़ा का उद्घाटन है जो शिक्षण संस्थानों में निर्धन वर्ग के बच्चों के लिए आरक्षित सीटों के प्रावधान के बावजूद अपने बच्चों को अच्छे शिक्षण संस्थानों में शिक्षा दिलवाने से वंचित रह जाते हैं। स्वर्ग-नर्क और पाप-पुण्य की जकड़न गरीब लोगों के पैरों का फंदा बन जाती है और उन्हें आगे बढ़ने के सपने संजोने से बरज देती है। उक्त कहानी में समर की प्रतिबद्धता के द्वारा लेखक ने यह समझाना चाहा कि पिछड़े और वंचित वर्ग के लोगों को अपने पक्ष में स्वयं खड़ा होगा, अपनी वर्तमान स्थिति को बदलने का बीड़ा उन्हें खुद आगे आकर उठाना होगा। कैलाश वानखेड़े की लेखन कला के विषय में समग्रतः यही कहा जा सकता है कि वह पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति के मौन संघर्ष को आवाज देते हैं। उनकी कहानियां वस्तुतः युग समाज का दर्पण हैं।

कबीर संजय हिन्दी कहानी का प्रतिष्ठित नाम हैं। उनकी कहानियों में बाल मनोविज्ञान का अत्यंत सूक्ष्म चित्रण किया गया है। गहरे भावबोध से भरपूर इनकी कहानियां अपने समय से संवाद करती हुई जान पड़ती है। स्त्री अधिकारों की वकालत, महत्त्वाकांक्षा के मकड़जाल में फंस कर होने वाली आत्महत्याएं और पेट की आग को बुझाने के एवज में जिंदगी की लौ को बुझने देने की बेबसी इनकी कहानियों की मूल संवेदना है। इनके कहानी संग्रह ‘सुरखाब के पंख’ में विभिन्न विषयों पर आधारित ग्यारह कहानियां संगृहीत हैं।

‘मकड़ी के जाले’ कहानी बाल सुलभ जिज्ञासा और प्रश्नों को केंद्र में रख कर बच्चों की नजर से लगातार निर्मम हो रही दुनिया को टटोलने की भोली कोशिश है। अंची और नंदू के द्वारा इस कहानी में इस सत्य का भी साक्षात्कार किया गया है कि अकसर अभिभावकों द्वारा बच्चों पर हाथ उठाए जाने की पीछे अपनी कमज़ोरियों का वह अहसास होता है जिसे खुद से भी छुपाने की गर्ज से वह बच्चों को अपना शिकार बनाते रहते हैं। ‘मरे हुए सांप की खाल’ कहानी में उन तथाकथित संभ्रात लोगों के वहशीपन को उजागर किया गया है जो अपनी कामुकता को अप्राकृतिक ढंग से शांत करने के आदी हैं। कहानी में कुत्तों के प्रति विशेष प्रेम रखने वाला बालक मनु अपने कुत्ते के बीमार होने पर उसे जानवरों के डॉक्टर के पास लेकर जाता है परंतु उस डॉक्टर को कुत्ते के साथ अपनी हवस की पूर्ति करते हुए देखना मनु के बाल मन पर एक ऐसी छाप छोड़ता है जिससे संभवतः वह सारी उम्र बाहर नहीं आ सकेगा।

‘सपना’ कहानी हमारे परिवारों में सूक्ष्म धरातल पर होने वाले बाल-उत्पीड़न का चित्रण करती है। माता-पिता द्वारा बच्चों पर अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को थोपने की कोशिश बच्चों के लिए असह्य बोझ बन जाती है। माता-पिता के बेलगाम दौड़ते सपनों से टकराकर बच्चों के कोमल सपने कैसे बेमौत मरते हैं, इसका प्रमाण ‘सपने’ कहानी का सात्विक है।

कहानी ‘पत्थर के फूल’ हमारे समाज के दोगलेपन पर करारी चोट कही जा सकती है। सिनेमा के कामुक दृश्यां और दोहरे अर्थों वाले अश्लील गानों पर वाहवाही करने वाले लोग दो प्रेमियों के प्रेम को अनैतिक ठहराते हैं और उन्हें सरेआम अपमानित करके एक-दूसरे की पीठ ठोंकते हैं। सिनेमा की प्रेम कहानियां सुपरहिट होती है परंतु वास्तविक जीवन में प्रेम अनैतिक और अमान्य है। उक्त कहानी में पराग और नीलिमा इसी दोमुँही व्यवस्था का शिकार होते हैं और जीवन में कई अनावश्यक समझौते करने की विवशता उनकी नियति बन जाती है।

‘सुरखाब के पंख’ कहानी में कहानीकार ने मुनष्य की आत्मकेन्द्रियता के हवाले से पशु-पक्षियों के प्रति उसकी क्रूरता और संवेदनहीनता को रेखांकित किया है। सुरखाब अथवा किसी भी अन्य पक्षी को अपना शिकार बनाना मनुष्य के लिए आत्मतोष अथवा गर्व का कारण हो सकता है परंतु इस क्रूर आनंद की परिणति पक्षियों की विलुप्त होती प्रजातियों और दिन-ब-दिन बिगड़ रहे पारिस्थितिकी संतुलन में दिखाई देती है।

कहानी ‘प्रयागराज एक्सप्रेस’ इलाहाबाद से दिल्ली की रेलयात्रा के यात्रा-वृत्तांत जैसी है। रेलगाड़ी का नियत समय से लेट दिल्ली पहुँचना, उसमें सवार यात्रियों की समय-सारिणी गड़बड़ा जाने से यात्रियों का उत्तरोत्तर अधीर होते जाना और अनिरुद्ध तथा अभिलाषा का इस सबसे असम्पृक्त धीर और शांत बने रहने का विलोम कई प्रश्न खड़े करता है जिसमें सहयात्रियों का उनके रिश्ते पर संदेह करना और समय को अपनी मुट्ठी में जकड़ कर रखने वाले लोगों के व्यक्तित्व के उथलेपन को उजागर करना प्रमुख है।

‘फिर एक दिन’ कहानी वर्तमान समय के एक बहुत बड़े सच का खुलासा करती है। समाज और परिवार की बंदिशों को तोड़कर प्रेम विवाह करने वाले युगल संघर्षपूर्ण जीवन को बड़ी हिम्मत से गले लगाते हैं परंतु इस विकल्पहीन समय में प्रेम का आधार जीवन जीने के संसाधनों के सामने छोटा पड़ जाता है। आर्थिक मंदी, बेरोज़गारी और परिवार में नन्हें मेहमान के आने से लगातार तनावपूर्ण होते रिश्तों की कारुणिक कथा है ‘फिर एक दिन।’‘ मोम के रंग’ कहानी बाहर से खुशहाल परंतु आंतरिक रूप से कर्ज़ के दीमक से खोखले हो चुके ऐसे परिवार की मार्मिक कहानी है जहां एक पिता अपनी पत्नी और बेटियों की हत्या करके स्वयं आत्महत्या कर लेता है। इस कहानी के द्वारा लेखक उन परिस्थितियों की पड़ताल करता है जिनके कारण मनुष्य हालात के आगे इतना बेबस हो जाता है कि उसे मरने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं सूझता।

कहानी ‘वो हां कहेगी’ स्त्री की निजता के अधिकार पर प्रश्नचिह्न लगाती है। हमारे समाज में स्त्री की सहमति-असहमति, किसी महत्त्वपूर्ण विषय पर निर्णय लेने की स्वतंत्रता के कोई मायने नहीं हैं। उसकी छोटी-मोटी चीजों की तलाशी, कपड़ों की अल्मारी में तांकाझांकी और किताबों के पन्नों से प्रेम पत्र खोज निकालने की गरज से अलटा-पलटी घर के पुरुषों का अधिकार है और स्त्री की निजता का अपमान। कहानी में नायिका अपने भाई की इन्हीं हरकतों के कारण निरन्तर तनाव में रहती है और अपनी निजता बचाने की मुहिम में उसे लगातार अपना आप झोंकना पड़ता है।

‘पापी पेट का सवाल है’ कहानी मीडिया के प्रपंच और गरीब आदमी की भूख का आख्यान है। बस स्टॉप पर गन्ने का जूस बेचने वाला मनोहर टी.आर.पी की होड़ में जुटे मीडिया के षड्यंत्र का शिकार होकर पापी पेट की दुहाई देता है वहीं सनसनीखेज खबर जुटाने के अभाव में नौकरी चले जाने की आशंका मीडिया कर्मियों के पापी पेट का सवाल खड़ा कर देती है। ‘दोगली कहीं की’ कहानी में अंधविश्वासों और धार्मिक मान्यताओं की जकड़न में जकड़े तथाकथित आधुनिक और शिक्षित लोगों की वैचारिक अंधता का खुलासा किया गया है। संतोषी माता के व्रत द्वारा मुँहमांगी मुराद मिल जाती है अथवा काले कुत्ते की सेवा से शनि का प्रकोप टल जाता है, ऐसे कितने ही अंधविश्वास आज भी प्रचलित हैं और उन्हें निभाने के चक्कर में लोग न जाने कैसे-कैसे पापड़ बेलते है, यह इस कहानी को पढ़कर सहज ही समझ में आ जाता है।

अंत में हम यही कह सकते हैं कि हमारे रोज़मर्रा के जीवन से जुड़े छोटे-बड़े कितने ही प्रश्नों, समस्याओं और धार्मिक अंधविश्वासों की टोह लेते हुए कथाकार कबीर संजय समकालीन जीवन को बखूबी शब्दबद्ध करते हैं।
हिन्दी कथा साहित्य में अपनी साफगोई और विशेष कहन शैली के लिए प्रसिद्ध कथाकार राकेश मिश्र अपनी कहानियों की आंतरिक बुनावट में अकादमिक उद्धरणों और विश्वविद्यालयी परिवेश के आकलन के लिए विशेष रूप से चर्चित हैं। राकेश बिहारी के शब्दों में, ”राकेश मिश्र की कहानियों में पाठ और आलोचना के नए औजारों की माँग के समानान्तर बौद्धिकता के आतंक की धमक भी लगातार सुनाई देती है। लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि संभावनाआें और सीमाओं के इन रसायनों से निर्मित कहानियों में आज के समय की त्रासदी भी सुनाई पड़ती है और विडंबनाओं से भरे समकालीन यथार्थ की टीस भी।“22 राकेश मिश्र के कहानी संग्रह ‘लाल बहादुर का इंजन’ का हिन्दी साहित्य में खुले मन से स्वागत हुआ और उनकी यह कृति पुरस्कृत भी हुई। उक्त कहानी संग्रह में शोक, परिवार (राज्य) और निजी सम्पत्ति, स्थगन के शिल्प में, लाल बहादुर का इंजन, अम्बेदकर हॉस्टल, ....बुरा है शैतान और लगभग हमउम्र शीर्षक वाली सात कहानियां सम्मिलित हैं।
‘शोक’ कहानी कथा नायक संदीप द्वारा अपने मित्र संजय की पुत्री के निधन पर शोक व्यक्त करने पैतृक गाँव भुसावल जाने पर आधारित है। छोटे कस्बों और गाँवों में रहने वाले लोगों द्वारा रोज़गार के लिए महानगरों में आकर बसने, खुशी या गमी के अवसरों पर अपनी जड़ों तक लौटने और स्मृतियों के झरोखे से झाँकती पुरानी यादों के बहाने जीवन के पन्ने पलटने के रोमांच को यह कहानी बखूबी बयान करती है।
कहानी ‘परिवार (राज्य) और निजी सम्पत्ति’ धीरज पांडे जैसे कद्दावर नेताओं द्वारा जुगाड़ बिठा कर पैंतरेबाजी के दम पर रातों-रात प्रतिष्ठा के झंडे गाड़ देने और सत्ता की धौंस दिखाकर अपने लिए और अपने चहेतों के लिए पुरस्कार, सम्मान, धन और पद हासिल करने को ही अपना धंधा बना लेने के कथा-बिन्दु पर केन्द्रित है। लेखक एक ओर सत्तासीन नेताओं के हाथों की कठपुतली बन चुकी व्यवस्था की टोह लेता है वहीं शार्टकट अपना कर शिखर छूने का सपना देखने वालों को चेताता भी है कि धरती पर बिना पैर जमाए आकाश छूने वाले एक दिन औंधे मुँह गिरते हैं।

‘स्थगन’ कहानी तीन ऐसे मित्रों की कथा है जो रोजगार पाने के लिए अपने पैतृक क्षेत्र को छोड़कर राजधानी दिल्ली में बस जाते हैं और महानगर की तेज गति से तालमेल बिठाने की आपाधापी में मानो स्वयं के हाथों छूटते चले जाते हैं। रोज़गार के अभाव में महानगरों की ओर कूच करने की बेबसी हमारे तंत्र और व्यवस्था की सबसे बड़ी विफलता है।



‘लाल बहादुर का इंजन’ उच्च शोध संस्थानों में बड़े पैमाने पर होने वाली शोध की उपादेयता पर प्रश्न लगाते हुए लाल बहादुर नामक एक सच्चे शोधार्थी के अनूठे अविष्कार की कथा है। लालबहादुर एक ऐसा इंजन बनाना चाहता है जो हवा से चलेगा और सर्वसुलभ होगा क्योंकि हवा अमूल्य है, वह बेची और खरीदी नहीं जाती अतः सब की पहुंच के भीतर है। परंतु लालबहादुर को उसके सहपाठी साजिश में उलझा कर मानसिक रूप से कमजोर घोषित करवा देते हैं और एक सच्चा प्रतिभावान विद्यार्थी व्यवस्था के कुचक्रों में फंस कर अपने सपने को पूरा करने से वंचित ही रह जाता है।

‘.......बुरा है शैतान’ कहानी प्रेम मनोभाव की मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सूक्ष्म पड़ताल करती है। प्रेम में बार-बार धोखा मिलने पर व्यक्ति आत्म हीनता की दलदल में धंसता चला जाता है, ऐसे व्यक्ति कई बार अपराधी बन जाते हैं, कभी मनोरोगी और कभी शैतान।

कहानी ‘लगभग हमउम्र’ अरुण और रिम्पी नामक दो हम उम्र किशोरों की प्रेम कथा से आरंभ होकर रिम्पी के परिवार की डाँवाडोल आर्थिक स्थिति, रिम्पी के भाई के पागलपन के कारण एक बिजनेसमैन द्वारा खुलेआम आर्थिक मदद और पैसों के बल पर धीरे-धीरे सारे परिवार मुख्यतः रिम्पी पर काबिज होने की मंशा के खुलने पर आगे बढ़ती है। अशोक मंहगे उपहार देकर रिम्पी को अपने जाल में उलझा लेता है और रिम्पी के माता-पिता भी इस मुनाफे के सौदे को चुपचाप मंजूरी दे देते हैं।

अतः कहा जा सकता है कि राकेश मिश्र अपनी कहानियों में आधुनिक युग के बेहद जरूरी सवालों को उठाते हैं और समाधान देने की आदर्शवादिता से परे समस्याओं का यथार्थपरक उद्घाटन करते हैं। सारांश यही है कि, ‘‘हमारे समाज में तीव्र बदलाव को समझने के लिए राकेश मिश्र एक जरूरी और अपरिहार्य कहानीकार हैं।’’23

कहानी के समकाल का युवा परिदृश्य संभावनाओं की उर्वर धरती में अँकुरित हो रहे उन प्रयोगधर्मी रचनाकारों का पर्याय है जिन्होंने विषय कथन और शैल्पिक बुनावट में कथा-जगत् की कई स्थापित परम्पराओं को नकारा है। युवा कहानीकारों पर समय-समय पर कई आक्षेप लगते रहे हैं, कई बार उनके साहित्य को रिपोर्ताज की श्रेणी में रखा गया और कभी उसे अखबारी कह कर खारिज करने की बहस भी सरगर्म रही। यह सही है कि युवा लेखन मात्र आदर्शों को ओढ़ने के लिए तैयार नहीं है, वह इस विघटनकारी वर्तमान के यथार्थ को ज्यों का त्यों अपने साहित्य में प्रतिबिम्बित करना चाहता है परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि उसके लेखन में भावनाओं का स्पंदन अनुपस्थित है अथवा जीवन की सकारात्मकता से रूठ कर वह मात्र नकार की अभिव्यक्ति पर ही बजिद है।

 युवा रचनाकार अपने समय के अंधेरों में रची-बसी रोशनियों के भी हिमायती हैं और प्राचीनता के साथ नवीनता के उद्घोषक भी क्योंकि उनका युग नया है, उनकी सोच नई हैं और सबसे बढ़कर वह स्वयं नए हैं। रोहिणी अग्रवाल के शब्दों में, ‘‘युवा लेखन के पास सिर्फ दलदल नहीं। स्वस्थ सकारात्मक मानवतावादी दृष्टि भी है। क्यों न उसे उकेरा जाए-उन मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए जिनके होने से व्यक्ति अपने भीतर की मनुष्यता को चीन्हता है, पास खड़े दूसरे व्यक्ति में उसका अक्स देखता है और प्रसार करता चलता है दूर तलक।’’24 निस्संदेह कथा का समकाल बहुमुखी प्रतिभाओं का समकाल हैं जिन्होंने कथा-जगत् के प्रचलित मुहावरों को तोड़ कर कहन की एक नई शैली विकसित की है। इस काल के साहित्य के केन्द्र में कहानी विधा है और कहानियों के केन्द्र में जीवन


 सन्दर्भ सूची

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5. चंदन पाण्डेय, आनंद से बाहर के संसार में खुलती खिड़की, नवभारत टाइम्स, 15 फरवरी, 2017
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11. अर्पण कुमार, समालोचन, ब्लॉग स्पाट
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13. ज्योति चावला, अंधेरे की कोई शक्ल नहीं होती, आधार प्रकाशन, पंचकूला, 2014, पृ. 76
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15. वेब दुनिया, देहात की दुर्दशा ने बनाया कथाकार, माहीमीत को दिए गए साक्षात्कार में
16. रोहिणी अग्रवाल, काफिर बिजूका उर्फ़ इब्लीस, आधार प्रकाशन, पंचकूला, 2014, फ्लैप पृ.
17. शिवकुमार यादव, कहानी में समय का सच, समीक्षा संवाद, वागर्थ, अक्टूबर 2017, पृ. 106
18. उमा शंकर चौधरी, कट टु दिल्ली और अन्य कहानियां, आधार  प्रकाशन, पंचकूला, 2013, फ्लैप पृ.
19. विमल चन्द्र पाण्डेय, मस्तूलों के इर्दगिर्द, आधार प्रकाशन, पंचकूला, 2013, फ्लैप पृष्ठ
20. समालोचन, कथा-गाथा, विमल चन्द्र पाण्डेय, समालोचन ब्लॉग   स्पॉट
 21. प्रमोद कोवप्रत, (सं), हिन्दी दलित साहित्य एक मूल्यांकन, डॉ. बजरंग बिहारी तिवारी का आलेख, सत्यापित सत्तातंत्र के पाखंड का पर्दाफाश, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2016, पृ. 39-40
 22. राकेश बिहारी, गद्य कोश, आंदोलन रहित समाज में कहानी का   भविष्य
 23. हिन्दी पुष्प, वर्धा, 22 अप्रैल 2017, फेसबुक.कॉम
 24. रोहिणी अग्रवाल, हिन्दी कहानी : वक्त की शिनाख्त और सृजन   का राग, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2015, पृ. 174-175



डॉ  ऋतु भनोट
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