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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

28 अगस्त, 2020

लहर का अद्भुत संपादक : प्रकाश जैन

  

             
सतीश छिम्पा

                            

  

   (आज प्रकाश जैन का जन्म दिन पर उन्हें याद करते हुए...... प्रकाश जैन हिंदी की राजस्थान ही नहीं बल्कि भारतीय भाषाओं के बेहतरीन कवि जो कविताओं के लिए नही बल्कि लहर के संपादक के रूप में ही जाने गए थे।) 

- सतीश छिम्पा

 

                               




   

     प्रकाश जैन का जन्म 28 अगस्त, सन 1926 ई. जोधपुर में हुआ था।  बहुत समय पहले ( शायद दशक भर हो ही गया होगा।) किसी कार्यक्रम में भाग लेने अजमेर गया था। मेरी समझ भी उस समय कोई विकसित या समझदारी वाली नहीं थी कि उस समय इन बातों का सही निचोड़ निकाल सकता है कि हकीकतन ये है क्या या इनका निहितार्थ क्या है ? राजस्थान के तमाम बड़े छोटे लेखक वहां मौजूद थे। इसी कार्यक्रम में पहली बार नाम सुना था प्रकाश जैन का। वो भी खास तरह का नहीं बल्कि उड़ता उड़ता सा, जैसे किसी कुंठित व्यक्ति ने अपनी नाकामयाबी पर उछाली हो गाली।

 

       इस एक नाम को जो इसके बाद अनेक बार मैंने पढ़ा, सुना और उनकी कविताएं और 'लहर' की तलाश में संपादन के कौशल के बारे में भी जाना।  बहुत बार जो हम सृजन सरोकारों के गिर्द स्थायित्व का पट्टा लगाते हैं, अक्सर बिखरता ही रहता है। यह विडंबना ही है कि किसी ऐसे महत्वपूर्ण और ठोस साहित्यिक शख्सियत को बिसरा दिया गया, बिसराना से अर्थ है आम पाठक वर्ग तक नही पहुंच पाना। और किसी द्वारा भी उनकी कोई भी सामग्री शोधार्थी या किसी अन्य प्रशंसक को उपलब्ध ना करवाना, साजिशाना भद्दा काम है।

 

      प्रकाश जी का जन्म जोधपुर में हुआ था और 'लहर' जिसके संपादक के तौर पर वे बहुत प्रसिद्ध भी हुए थे -- वो 'लहर' जोधपुर से लक्ष्मीमल्ल सिंघवी निकलते थे पहले (हेमंत जी की किसी रचना में जिक्र था इसका) । गजब की बात तो है कि एक बहुत जरूरी, अद्भुत और अलग तरह के कवि की छवि संपादन के विराट  फैलाव में दब गई , कवि के बजाए संपादक की ज्यादा बन गई थी।

              


    लघु पत्रिका आंदोलन के समय जिन लघु पत्रिकाओं की तूती बोला करती थी उनमे लहर मुख्य थी। राजस्थान से गैर सरकारी लघु पत्रिकाओं में लहर ने राजस्थान की सीमा का अतिक्रमण किया और भारत भर में स्थापित हो गयी थी। इसके पीछे  सिर्फ संपादन कौशल ही था। उस समय बड़े से बड़ा और नवांकुर तक सभी का मन लहर में छपने का होता था। 'लहर' में छपना मतलब स्थापित हो जाना। वरिष्ठ कवि हेमंत शेष की पहली कविता लहर में ही छपी थी। (हेमंत शेष के लिखे संस्मरण इस आलेखनुमा गद्य के भी काम आए हैं।) यह वो समय था जब राजस्थान से अणिमा (शरद देवड़ा, बिंदु (नंद चतुर्वेदी), वातायन (हरीश भदानी) संबोधन, (कमर मेवाड़ी) और मूल प्रश (वेददान सुधीर) जैसी पत्रिकाएं प्रकाशित हुआ करती थी।

 

        ‘‘लहर’' का हिंदी की लघु पत्रिकाओं में प्रतिबद्धता के साथ ही गंभीर साहित्यिक बहसों के नजरिये से जो स्थान था उसे उस समय के लेखकों में से कोई बिसरा नही सकता है। उस समय 'लहरमें छपना बहुत बड़ी बात थी। तब हर पत्रिका की अपनी एक अलग ही ठसक, विचारधारा और लाइन हुआ करती थी। इस उवभोक्तावादी कमजोर, धुंधले से समय मे जब निराश पसर रही थी तब लहर राजस्थान की छाती से लहराती थी, जिसकी सुगंध पूरी हिंदी पट्टी में ली जाती थी।

 

          हिंदी पट्टी तो ख़ैर है ही, राजस्थान के भी अधिकांश युवा रचनाकारों और पाठकों को नहीं पता होगा कि एक जमाने मे प्रकाश जैन की कविताओं ने हिंदी साहित्य में धूम मचा दी थी। हिंदी साहित्य के केंद्र में आज जो बहुत से असामाजिक धनाढ्य साहित्यिक स्थापित है- उन सबसे सिरे थे प्रकाश जैन।   अजमेर (राजस्थान ) से लहर पत्रिका का संपादन प्रकाशन किया करते थे। जिसके उच्च स्तर तक का क्या अंदाजा लगाया जा सकता है  हाँ, किसी समय मे जब ज्ञानरंजन जी की 'पहल'  की तूती बोलती थी और 90 के दशक में जो रुतबा राजेन्द्र यादव संपादित 'हंस' का था करीब वैसा ही लहर का था। कोई भी पत्रिका तभी सफल मानी जाती है जब उसके माध्यम से बेहतरीन रचनाकारों का जन्म हो और इस पक्ष को देखते हुए आज तक कोई भी पत्रिका 'लहर' की बराबरी नहीं कर पाई है। उस जमाने मे लहर में छपने का मतलब था साहित्य में स्थापित हो जाना। बाद में 'सारिका' और 'धर्मयुग' जैसी व्यावसायिक साहित्यिक पत्रिकाओं का यह रुतबा नहीं था।

 

 



  

     प्रकाश जैन के देहांत के बाद उनके सम्मान में तत्कालीन  अकादमी अध्यक्ष प्रकाश 'आतुर' ने मनमोहिनी (प्रकाश जैन की जीवन साथी) जैन के आतिथ्य सम्पादन में मधुमती का अंक भी निकाला था। दुःखद तो यह है कि समकालीन युवा लेखकों के संज्ञान में जैन का नाम ही नहीं है। आत्ममुग्ध समय मे अपनी सभी अपनी अपनी कच्ची पक्की चीजों को लिखने और छपवाने में लगे हैं जबकि ज्यादा जरूरी हैं अपने पुरोधाओं को जानना।

 

      प्रकाश जैन को बिसरा देने का मतलब है कि अपने गरिमामय अतीत को भूल जाना। 'बनास जन' संपादक साथी पल्लव ने भी एक बार बातो बातो में बताया कि लहर के अंक मिल नहीं रहे। उन पर अलग से  बड़ा काम किया जा सकता है।

 

          प्रकाश जैन  'लहर' के प्रति प्रतिबद्ध उसी तरह थे जैसे जीवन के प्रति ईमानदार थे । लघु पत्र पत्रिकाओं को लगातार चलाए रखने में आर्थिक हालात का जो भट्ठा बैठ सकता है, वे तमाम काले दिन उनके सामने आए और आते भी रहे थे लगातार। अजमेर का एक कवि, संपादक जो तमाम मुश्किलों को सहकर पत्रिका का निरन्तर संपादन कर रहा था, दरअसल संपादन प्रकाशन के नए आयाम भी स्थापित कर रहा था। उस दौर में उनका जो समय संघर्ष का  था वह हिंदी लघु पत्रिकाओं और लघु पत्रिका आंदोलन के सर्वोच्च दिनों का सबसे बेहतरीन समय रहा, क्योकि उसी समय बिंदु, वातायन आदि बेहतरिन पत्रिकाएं भी स्थापित हो रही थी। 

 

      कोई भी रचनाकार ऊंचे कद का कब होता है, जब वह लोकधर्मी और जीवन के प्रतिबद्ध होता है। विद्रोह के हल्के मायनो को छोड़कर गहरे गंभीर भीतर उतरना और शब्द को बल की तरह स्थापित करना ही ऊंचे कद का रचनाकार बनाता है। रचनाकार है तो वो ही जीवन का प्रिय  पात्र हैं।  कोई भी घटन यूं ही नहीं घटित नहीं होती है उसके पीछे बहुत गहरे कारक  होते हैं। द्वंद्वात्मक विश्लेषण के बिना तर्क के गहरे अर्थो तक पहुंचना नामुमकिन होता है।

  



      प्रकाश जैन के अलावा तत्कालीन और  भी वरिष्ठ कवि इसी श्रेणी में रखे जा सकते है। यह अदालत लोक की है, क्योंकि यह मूल्यांकन मठाधीश नहीं, पाठक श्रोता करते हैं। कितनी बड़ी विडंबना है कि किसी भी समर्थ योग्य कवि रचनाकार को अपने तुच्छ अहम के चलते ये लोग उसकी साहित्यिक हत्या की फिराक में या कहें बिसरा देने के लिए प्रयासों में रुचे रहते हैं।        

 

          प्रकाश जैन व्यक्तिशः नहीं बल्कि सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया के दौरान सामने आने वाले मूल्यों को अपने दृष्टिकोण की गहराई से माप कर सोशल डेमोक्रेसी के विस्तार को उसी रूप में द्वंद्व के साथ उपस्थित करते है वो  शोषित वर्ग, बच्चों, युवाओ और जीवन के हर एक दमित हिस्से या अंश की पीड़ाओं या व्यंजनों के समावेश से सामाजिक मूल्यों को स्थापित करते हैं जहाँ कविता अपने सर्वोच्च रूप में थिर रहती है।  असमानता और गरीबी, आसमान वितरण, द्वन्द्वात्मक दीठ को सटीक प्रश्नों और उत्तर से पुख्ता करने की प्रक्रिया बहुत सधी हुई होती है। साथ और सत्तर के दशक और महान इंकलाबी उभार ने मेहनतकश और  सामाजिक जीवन राजनीति को एक क्रांतिकारी अदबी विरासत सौंपी थी।  प्रकाश जैन की कविता गुस्से को स्टेटमेंटिय तरीके से फैंक कर नहीं मारती है बल्कि वैज्ञानिक द्वंद्ववादी दृष्टिकोण यहां स्थापित होता है। 

 

            जीवन के प्रति प्रतिबद्धत मानवीय सरोकारों के साथ हर एक पदार्थ और भाव और विचार के साझा गुंफन का अद्वितीय प्रयोगकर्ता थे। सच्चा लोकधर्मी कवि और संपादक।

 

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राह में गर्त है

दर्द की पर्त है

जिंदगी की मगर 

प्यार ही शर्त है

 

मान लो आज तुम

गीत के साज़ तुम

जिंदगी के लिए

टूटना व्यर्थ है

 

  मार्ग में जो मिला 

क्या हँसी क्या गिला

सृष्टि का है यही

कुछ अजब सिलसिला

 

दर्द को तुम सहों 

मत अधर से कहों

गुनगुनाता चले

प्यार का काफिला

 

       उनकी कविताओं ने जो स्वर विद्रोही मगर गंभीर रूप शांत तासीर के हुआ करता था उसकी वजह से वे जीवन के परिपक्व सिपाही की तरह गम्भीरता से वर्जनाओं के पार नवीन दीठ को स्थापित करते हैं। कविता का वैसा स्वर इन पिछले चार दशकों में किसी कवि का नहीं है। यह अलग बात है कि उनकी कविताओं का मूल्यांकन हुआ ही नहीं लेकिन वे बात को भाव को शब्द और अर्थ को बहुत नज़दीकी से परखते थे। देखिर

 

बात 

कथा-सी

काव्य-सी

जाने कैसे स्पर्श करती है

भर जाती है रस से

जगा जाती है 

अभिनव संवेदन 

बात की महिमा है।

 

    उनके संपादन में 'लहर' साहित्याकाश में लहरा ही रही थी।  वे संपादन कौशल के तो लूंठे थे ही, बहुत गहरे डूब प्रतिबद्धता के साथ निभा भी रहे थे। तभी तो इस विशिष्ट कवि के मौलिक रचनाकर्म पर वरिष्ठ कवि हेमंत शेष ने लिखा है कि "उनके जीवन काल में बहुत बाद में उनकी कविताओं की एक छोटी सी किताब ही छपी ...उनका पहला काव्य-संकलन 'कभी-कभी ', ही छप पाया और दूसरा मृत्योपरांत  "यह बर्फ क्यों नही पिघलती?"  वीर सक्सेना जी के एक प्रशंसात्मक आलेख, 'मधुमती' के प्रकाश जैन स्मृति विशेषांक में छपी उनकी प्रमुख रचनाओं,  उन के देहावसान के बाद में उनके इंजीनियर पुत्र संगीत लोढ़ा द्वारा छपवाए एक बेहतरीन ढंग से प्रकाशित कविता-संग्रह-कहाँ खो गयी है कविता ?’  में संकलित कविताओं को भी आलोचक की निगाह से अगर देखें तो कह सकते हैं हिंदी कविता की मुख्य-धारा के कवि वह कभी भी नहीं गिने गए- उनकी कविता में भले एक व्यक्तिगत आर्तनाद, बेचैनी, अवसाद, चीज़ों के पकड़ से छूटने आदि का कष्ट, पछतावा आदि भाव हों, शुद्ध कविता वहां कम दिखती है- शिल्प के प्रति मौलिक चेष्टाएं या फॉर्म की नवीनता का उत्साह भी ज्यादा नहीं ! कविता जैसे उनके लिए  वैयक्तिक अभिव्यक्ति जैसी ही निहायत प्राइवेट चीज़ थी |"" 


 


  

     उसके विशेषांक बहुत स्तरीय और चर्चित होते थे- जिनको आज भी पल्लव भाई जैसे संपादक- आलोचक तलाश ही रहे हैं। बहुत दुखद है यह कि एक खबर के अनुसार बाढ़ या अतिवृष्टि के कारण 'लहर' के बहुत से अंक बर्बाद हो गए थे। मुझे आज तक लहर के अंकों की ना केवल तलाश है बल्कि प्यास है। मैं आज भी उन्ही की तलाश में भटक रहा हूँ।

 

 

     राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर की मासिक पत्रिका 'मधुमती' ने प्रकाश जैन पर जो स्मृति अंक निकाला उसमे से कुछ यादें........

 


 


 

 

:- मनमोहिनी देवी 

 

( लहर संपादक प्रकाश जैन की जीवन साथी और सहयोगी)

 

क्या कहूँ उनसे ? और क्या कहूँ किसी से ? फिर भी शायद कुछ कहना ही पड़ेगा कि सोचा नही था कि वर्षों तक जिनकी कविताओं की प्रथम श्रोता  रही..... जिनके साथ वर्षो तक कंधे से कंधा मिलाकर चलती रही कि लहर हमारी आत्मजा चिरायु हो..... वे यूं चल देंगे और उनके साथ ही मौन हो जाएंगी लहर की धुन भी। हां जिस दायित्व को हम दोनों ही नही सम्हाल पा रहे थे। उसको अकेले ही वहन कर ले जाने की बात सोचना भी हिमाकत होती। यह सब जल्दी ही समझ आ गया था। उन पर केंद्रित एक अंक निकालने की इच्छा जरूर थी। मुझसे वैसी अपेक्षाएं भी की गई थी। आवश्यक भी था यह, किंतु पुराने अनुभव मैं भूली नही थी। पुराने अनुभवो से सीख लेना गलत भी नही है।

     कुछ समय बाद यह स्पष्ट भी हो गया कि  वैसा करना, पीड़ा और कष्ट दायक ही होता। जिन्होंने सहयोग देने की बात कही थी, उन्होंने अंत तक अपने लेख नही भेजे। बहुतों ने भेजे, मगर तब जब निराशा मुझे घेरने लगी। और क्या लेखन के अलावा यहां और किसी चीज की जरूरत नही होती क्या.....?

     मैं आभारी हूँ राजस्थान साहित्य अकादमी के प्रति, विशेष रूप से डॉ. प्रकाश आतुर के लिए कि मुझे यह अवसर प्राप्त हो गया। मैंने सोचा था कि लहर से पूर्व तक कि उनकी यात्रा पर भी कुछ कहा जा सकता, मगर यह संभव नही हो सका।

    मैं आभारी हूँ उन सभी के लिए जिन्होंने मेरे आग्रह को मान दिया। यह उन सभी का स्नेह ही है कि यह अंक आज हमारे हाथों में हैं।

 

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  नंद चतुर्वेदी :-

 

 (राजस्थान ही नही बल्कि भारतीय स्तर के महत्वपूर्ण कवि चिंतक)

 

    सन 1957 से प्रकाश जैन लहर का संपादन करने लगे और इतनी उमंग से कि बाद के वर्षों में उन्हें 'लहर' वाले प्रकाश की तरह ही सब जानने लगे। हम यानी उनके नजदीक के साथियों को भी यह याद नही रहा कि लहर के संपादक के अलावा भी उनकी कोई हैसियत है- एक कवि की, प्रकाश ने भी यह दावा करना आवश्यक नही समझा। इतने वर्षों की मैत्री के बावजूद भी उन्होंने कोई रचना नही सुनाई। यदा-कदा वे किसी समारोह या आकाशवाणी की किसी गोष्ठी में कविता पाठ के लिए आते थे मगर बाद की उनकी सारी बातचीत 'लहर' को लेकर ही चिंतित रहते। के साथ ही होती थी। प्रायः वे उसकी आर्थिक दिक्कतों को लेकर चिंतित रहते या उसके लिए लिखने को कहते थे।

      बहरहाल वीर सक्सेना ने प्रकाश जैन पर जो आलेख लिखा। प्रकाश जैन की रचनाओं और उनके व्यक्तित्व को कोई एक पंक्ति रेखांकित करती है तो बस यही कि, "अपने विपरीत चलते हुए एक लंबा उदास यात्रा।"

       उन पर लगाए जाने वाले आक्षेप, आरोप, मित्रों के साथ जुड़ी आत्मीयता, उत्तेजना, बहसें और उसको तोड़ने वाली सामाजिकता जिसमे वह कभी पूर्णता गलत या कभी सही साबित होने की चेष्टा किया करता था। यही सब रचना के स्तर पर उसकी प्रक्रिया रही है।

 

 

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एक खुशबू का नाम था प्रकाश जैन...

    

    ● स्वयं प्रकाश

 

प्रकाश जैन एक ऐसे कवि का नाम है जो कवि हृदय पर सम्पादकीय विवके का पहरा कभी ढीला नहीं होने देता। प्रकाश जैन, यानी एक जिद्दी और जुझारू जीव जो अपना सबकुछ लहरनाम की लघु-पत्रिका के लिए झोंक देता है। प्रकाश जैन यानी एक पगलैट अवधूत जो केंद्रीय सचिवालय से लेकर विश्व विद्यालयों की सीनेटों तक में अपने मुरीद होते हुए भी किसी से अपने लिए कुछ नहीं मांगता-खसोटता। जो मांगता है लहर के लिए। प्रकाश जैन, यानी एक सिरफिरा सूफी जो सरकारों की सरगर्मियों के साथ अपने सरोपे नहीं बदलता....एक संकल्प को सुमिरनी की तरह थामें रहता है। प्रकाश जैन यानी एक फक्कड़ फकीर जो अपनी पत्रिका में न भाविष्य-फल छापता है...न लड़कियों की तस्वीरें...न कैदी कविराय की कुंडलियां न संजय गांधी के हवाई करतब...जो भाऊ समर्थ के चित्र छापता है और मुक्तिबोध की कविताएं...जो धर्मवीर भारती को नहीं, राजकमल चैधरी को छापता है और इप लेखकों की मौतों को फिर नहीं भुनाता। प्रकाश जैन यानी एक पागल प्रेमी जो प्यार करता ही नहीं, उसे आखिरी सांस तक निभाता भी है...प्रेमी की तरह नहीं, योद्धा की तरह। प्रकाश जैन यानी एक प्यारा पिता जिसकी संतान किच्चू और कल्पना ही नहीं हिंदी की सबसे लंबे समय तक निकलने वाली लघु-पत्रिका लहर‘  भी है। प्रकाश जैन यानी हिंदुस्तान का एक औसत आदमी जिसे पंजाब बीमार कर देता है और भिवंडी बद्हवास...और प्रकाश जैन यानी एक भोला अव्यवहारिक शालीन सौम्य नागरिक जिसे न रिश्वत खिलाना आता है न चंदा खाना। लेकिन जिसे अपने पेषे और हुनर पर नाज है और महारत है। जो संपादक है और जिसे सम्पादन करना आता है और जो अपने पेशे के साथ किसी कीमत पर समझौता या गद्दारी करने को तैयार नहीं होता। 

प्रकाश जैन यानी छल फरेब से भरी दुनिया में उजाले की एक पतली सी लकीर...जो कहीं अपने से छोटों को आष्वस्त करती है कि चतुर होना अस्तित्व की अनिवार्य शर्त नहीं,  इसके बगैर भी जिया जा सकता है और स्व्भिमान से। और प्रकाश जैन यानी एक मासूम मिठास इस दर ममतीले मजाक करती है कि आप जो एक बार उसे जंच जाएं तो उसकी आत्मीयता के हाथों बिक कर रह जाएं।

                       


 

 


प्रकाश जैन के देहांत के बाद आए कुछ पत्र                                          

 

       भाई प्रकाश के देहवसान का समाचार पत्रों में पढ़कर वज्रपात सा हुआ। मेरा मन बहुत दुः,खी है। काल प्रबल है, इस सत्य को स्वीकार करने के लिए हम सब विवश है। 

                  कन्हैयालाल सैठिया, कलकता

 


  प्रकाश जैन के देहावसान का सुनकर बहुत दुख हुआ 

                     हरिवंश राय बच्चन

 


बहुत गहरा धक्का लगा, बड़ी निष्ठा और लगन के साथ उन्होंने वर्षों तक लहर का संपादन किया । अजमेर में हुई उनसे भेंट की स्मृति सँजोए हुए हूँ। 

           भीष्म साहनी

 


    स्तब्ध रह गई। अचानक यह सब कैसे ?  प्रकाश भाई चले गए, लेकिन लहर तो हमेशा हमारे बीच रहेगी ना ? बस उसी में अब उन्हें खोज खोज तसल्ली करेंगे।     

       मन्नू भंडारी

 


   मेरे तीन सबसे प्रिय मित्र नही रहे, राजकमल, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और अब प्रकाश....  

        मुद्राराक्षस

 



    भाई प्रकाश  की एक लहर रही हिन्दी साहित्य में, कई दशको तक उनके ऋण को कैसे चुकाया जा सकता है। मेरे जैसे लेखक -एक पुरी पक्ति उनके उर्जा और उजास भरे सम्पादन की उपज है। उन्होंने कभी किसी से कुछ नही मांगा, कुछ नही चाहा पर दिया इतना कि हमसे आज भी सारा का सारा समेटा नही जा रहा है। मैं जब कल्पना में था, एक पत्र के उतर में मैने उन्हे लिख था कि जहाँ कल्पना की सीमा नजर आती है वहां से शुरू होती है लहर की असीम संभावनाओं से भरी ध्वनियां। जवाब मे मेरे शालीन और बहुत लो प्रोफाईल रख कर चलने वाले बड़कु भाई ने टिप्पणी की थी। - कल्पना कुछ जाने माने लागों की पत्रिका है, किन्तु लहर तो तुम लागों का अपना मंच है, तुम सब तय कर लोगे वही लहर मे होगा। यह किसी की निजि सम्पति नही है। मेरी तो बिल्कुल नही

                    ● मणि मधुकर, नई दिल्ली

    


      कुछ महीनों पहले जब मैंने हमारे पुरोधा श्रंखला पर काम करते हुए एक लेख का अंश फेसबुक पर लगाया तो- अविश्वसनीय तरीके से सराहना हुई तो हुई, मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि वे लोग जो उस समय युवा रहे या उनके सानिध्य में रहे-- सबके सब जैसे मेरे कृतज्ञ हुए जा रहे हैं। शर्मसार ही हुआ मैं, शब्द भी नही बचे, ख़ैर उससे थोड़ा पहले की पोस्ट पर कुछ अग्रजों की प्रतिक्रियाएं दे रहा हूँ यहां ::---

 

     लहर पत्रिका और प्रकाश जैन मेरे रचनात्मक लेखन की पहली पाठशाला रहे हैं।1958 से 1961 के बीच उन्होंने मुझसे बहुत लिखवाया।कविता,कहानी,एकांकी वे कुछ भी प्रस्ताव कर बैठते।एक पंक्ति का उनका पोस्टकार्ड आता,प्रिय ममता कहानी कब तक भेज रही हो।तुम्हारा प्रकाश जैन।

में तभी लिखने बैठ जाती।20 पैसे की डाकटिकट लगाती। पोस्ट बॉक्स 82 अजमेर मुझे पता अभी तक याद है।याद नहीं कि कभी कोई रचना वापस आयी हो।इंदौर के दिनों में लहर में लिखना ,लेखन की कार्यशाला करने जैसा था।कभी मनमोहिनी जी कभी प्रकाश जैन अपने पोस्टकार्डों से मेरा हौसला बढ़ाते रहते।जैसे मेरी सभी चीजें खो जाती हैं,लहर के अंक भी ,खानाबदोश ज़िन्दगी ने निगल लिए। आज आपने यह भूला हुआ फसाना याद दिला दिया सतीश जी 

           ● ममता कालिया

 


महात्मा गाँधी रोड़,अजमेर स्थित उनके निवास पर दो बार उन से मिला था |वे नवोदित कवियों से बहुत प्यार करते थे |"लहर" में मेरी कवितायें भी उन्होंने छापीं |प्रकाश जैन एक प्रतिबध्द कवि और सम्पादक थे |उनकी स्मृतियों को नमन |

                ● कैलाश मनहर

 


मेरी कवितायें और लेख लहर में छपते रहे और उन पर चर्चा भी होती रही। मैं बहुत श्रद्धा से प्रकाश जी का स्मरण करता हूँ। लहर के बहुत अंक मेरे पास थे, मेरे स्थायी

आवास नगर कालपी में अभी भी होंगे। 

● बजरंग बिश्नोई

 

 

आपने प्रकाश जी के अवदान को ठीक  रेखांकित किया है। यह मुहावरे की भाषा नहीं अपितु वास्तविकता है कि उन्होंने अपना पूरा जीवन साहित्य को समर्पित किया। 

यह बर्फ क्यों नहीं पिघलती उनके जीवन काल में ही प्रकाशित हुआ था। अजमेर के साहित्यिक व बुद्धिजीवी वर्ग ने मिलकर उनका षष्ठिपूर्ति समारोह आयोजित किया था।  अजमेर ने उन्हें प्यार भी  बहुत किया।उन्हें चाहने व समझने वाले आज भी बहुत लोग हैं। 

● अनंत भटनागर

 




 

  

प्रकाश जैन की कुछ कविताएं

 

कविता जन्म लेती है

 

भोर की पहली किरण

किसी कविता को

जन्म देती है

आंगन से मुंडेर तक फैली 

नीम की टहनियों पर 

चहचहाती हैं चिड़ियाएं 

और तोतों की 

हवा को चीरती

उड़ती चली जाती है

 

जब छह वर्षीया शालू

चाय का मग लिये

धीरे धीरे आती है तो 

कविता 

एक नये अन्दाज में 

मुस्कुराती है

हवा में तैरते हैं

अजान के शब्द 

गुरुवाणी का पाठ 

पीपल पर जल चढ़ाकर

मन्दिर में 

बजा जाते हैं घण्टियां 

अनेकानेक श्रद्धालु

पवित्रता का एक गहरा अहसास लेता है । मन में हिलोरे 

नयी सम्भावना लेती है करवट ताजे खिले फूलों से

बतियाती है हवा

और कविता महकने लगती है

 

: कहाँ खो गई है कविता 

पता नहीं

कहाँ खो गई है कविता 

आओ मित्र

उसे खोजें

 

अंधेरी गलियों

दुर्घटना ग्रस्त चौराहों

और 

जिंदगी के उदास रास्तों

के विषय में सोचें

 

भेड़ - बकरी की तरह मिमियाने और अकाल मृत्यु को

समर्पित हो जाने से 

अच्छा है

कि झपटते हुए

बाज के पंखों को नोचें

 

पता नहीं 

कहाँ खो गई है कविता

आओ मित्र 

उसे खोजें

 

जीवन के लिए

: कविता जन्म लेती है

भोर की पहली किरण

किसी कविता को

जन्म देती है

आंगन से मुंडेर तक फैली 

नीम की टहनियों पर 

चहचहाती हैं चिड़ियाएं 

और तोतों की 

हवा को चीरती

उड़ती चली जाती है

 

जब छह वर्षीया शालू

चाय का मग लिये

धीरे धीरे आती है तो 

कविता 

एक नये अन्दाज में 

मुस्कुराती है

हवा में तैरते हैं

अजान के शब्द 

गुरुवाणी का पाठ 

पीपल पर जल चढ़ाकर

मन्दिर में 

बजा जाते हैं घण्टियां 

अनेकानेक श्रद्धालु

पवित्रता का एक गहरा अहसास लेता है । मन में हिलोरे 

नयी सम्भावना लेती है करवट ताजे खिले फूलों से

बतियाती है हवा

और कविता महकने लगती है

 

 



 


जिंदगी के लिए

 

राह में गर्त है

दर्द की पर्त है

जिंदगी की मगर 

प्यार ही शर्त है

 

मान लो आज तुम

गीत के साज़ तुम

जिंदगी के लिए

टूटना व्यर्थ है

 

  मार्ग में जो मिला 

क्या हँसी क्या गिला

सृष्टि का है यही

कुछ अजब सिलसिला

 

दर्द को तुम सहों 

मत अधर से कहों

गुनगुनाता चले

प्यार का काफिला

 


मेरे पाँव यात्राएं नहीं मांगते मेरे ही सामने 


मुझे सूली पर टांग दिया है 

और मेरी जुबान

मेरी आँखों . . . और कानों में ठोंक दी गई हैं 

कीलें 

पर रक्तका एक कतरा भी

नहीं बहा 

शायद जम कर सूख गया है 

अब मेरे पाँव

यात्राएं नहीं मांगते

उल्टी लटकी हुई इच्छाएँ उफनाती नहीं 

भीतर ही भीतर

दम घोट दिया है 

शब्दों के अर्थ ही नहीं

रेखाएँ भी धुंधला गई हैं

मैं जो कहलाता था 

आदमी की सन्तान

आदमी नहीं बन सका

मैं जो कहलाता था 

हिमालय का वंशज

एक क्षण को भी

नहीं तन सका

आह ! भेड़ियों के बीच

छोड़ड़ दिया गया है। अकेला तौड़ दिया गया है। अकेला बैजुबान पाखुरी की तरह

      

 


बात 


बात 

कथा-सी

काव्य-सी

जाने कैसे स्पर्श करती है

भर जाती है रस से

जगा जाती है 

अभिनव संवेदन 

बात की महिमा है।

 

बात

कड़वी नीम-सी

कंटीली बबूल-सी 

गहरे तक बींधती है 

लगती है मृत्यु के दंश-सी 

बात ही की तो महिमा है।

 



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