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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

29 अगस्त, 2019

नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताएँ





नरेन्द्र पुण्डरीक




कविताएं



पापा, आप अपना ध्यान रखना
         
लड़कियाँ जो शादी के पहले
पिता से नहीं डरीं
भाइयों से बराबर लड़ीं
माँ से मुँह की मुँह लेकर
लाँघ जाती रही
बार-बार घर की देहरियाँ,

वे डरती हैं पतियों से
वे ब्लॉक करने लगती हैं
अपने प्रिय लोगों के नम्बर
गायब करने लगती हैं मैसेज,

वे डरते-डरते करती हैं
माँ और पिता से बात
कहती हैं सब ठीक है,

सब अच्छा है
मैं बहुत खुश हूँ
पापा, आप अपना ध्यान रखना
मैं अभी नहीं आ पाऊँगी
वे आफ़िस जाते हैं
उन्हें देखना पड़ता है
सुबह उठकर जल्दी
तैयार करना पड़ता है नाश्ता खाना,

पापा, माँ ठीक है न
उन्हें बता देना मैं खुश हूँ
अब देर तक नहीं सोती
अंधेरों से घबड़ाकर
सूरज के उठने के पहले ही उठ जाती हूँ।




पौरुष की समाप्ति का समय
        
समय ने मेरे हाल-चाल कुशलक्षेम
उस समय ले लिए थे जब
घी तीन रुपये किलो था
मैं पट्टी बोरका लेकर
बैजनाथ मुखिया के पिछवाड़े की दलान में
पढ़ने जाता था जिसमें रात में
मुखिया के जानवर बाँधे जाते थे और
दिन में समय हमें बाँधे रखता था,

इस दलान में पढ़ते हुए हमने
नदी की कगार से समय को
रेलगाड़ी में बैठकर पहली बार
कानपुर जाते हुए देखा था
सही मायने में यह दिल्ली का नहीं
कानपुर का समय था जो
अब दिल्ली की मार से कराह रहा है,

मुंशी रामनारायण भट्ट जो काफ़ी बूढ़े थे
झोले में स्कूल और हाथ में बेंत लेकर शहर से आते थे
अब तक मैंने शहर को नहीं देखा था
मुंशी रामनारायण भट्ट के चेहरे से कुछ
शहर की सूरत का अन्दाज़ लगाता था
कुछ उन शब्दों से जो पढ़ाते समय
हमारे भीतर तड-तड़ करके गिरते थे
हमारा स्कूल देर से खुलता था और
बन्द होने के समय से पहले बंद हो जाता था
समय की चाल हमारे साथ शुरू से ही ऐसी थी,

दोपहर में जब खाने-पीने की छुट्टी होती
हममें से कुछ लोग अपने बोरके में
कीच कांदौ का पानी भरकर
अपने शब्दों में रोशनाई भरते और
कुछ लौटकर ही घरों से नहीं आते
और रेलगाड़ी में बैठा हुआ समय
हमारे यहाँ से हो-हो करता कानपुर चला जाता,

यह मेरा समय से सीधा साक्षात्कार था
जो नदी में बने रेल के पुल की खड़खड़ाहट से
कभी मुंशी रामनारायण भट्ट की
कलाई में बंधी घड़ी से चलता था
जो इस समय गाँव की अकेली घड़ी थी,

इस समय ज़्यादातर लोग
समय को अपने बीते से नाप कर रखते थे
वैसे भी इस समय का समय
बैलों के सींग की चमक पर टिका था
जो अब शहर की सड़कों में
समय की झिल्लियाँ चबाते हुए अपने
अन्तिम समय से गुजर रहे हैं
जाने मुझे क्यों लगता है कि
बैलों की तरह ही यह
आदमी के भी पौरुष की समाप्ति का समय है
जो उसके मूक होने की परिणति से पैदा हुआ है।




बच्चों की आँखों से
                
एक औेरत के रोने की आवाज़ से
टूट गई थी पिता की नींद
पिता के आवाज़ मारने पर
रोने वाले के पड़ोस से आई थी आवाज़
भिखुवा के घर में बच्चा नहीं रहा,

बच्चे के न रहने की आवाज़ से
हमारे घर में जगहर हो गई थी
बच्चे के न रहने की सुनागन से
टूट गई थी मोहल्ले की नींद
बच्चे के न रहने से
पूरे गाँव में रतजगा हो गया था,

मैं सोच रहा हूँ कि
जिस शहर में डेढ़ सौ बच्चे मरे
उसमें भी रहते होंगे आदमी
कैसे प्यार करते होंगे वे अपने बच्चों को
जिस शहर में डेढ़ सौ बच्चे मरे
कैसा लगता होगा बच्चों को
अपने माँ-बाप का प्यार
औैर कैसे लगते होंगे उन्हें अपने पिता,

मैंने कहीं पढ़ा था
जिनके बच्चे नहीं होते
उन्हें नहीं सौंपे जाते
जीवन के सरोकार और
दूर रखा जाता है उन्हें राज-पाट से
क्योंकि वे नहीं जानते बच्चों के दुख
जो बच्चों के दुख को नहीं जानते
वे कैसे रच पाएँगे जीवन के सुख,

नेहरु इसलिए बड़े नहीं थे कि
उन्होंने भाखड़ा नांगल बनवाया था
भिलाई औैर दुर्ग में
खड़े किए थे इस्पात उद्योग
नेहरु इसलिए बड़े थे कि
वे बच्चों के साथ खड़े होकर
बच्चों की आँखों से दुनिया देखते थे
औैर एक दिन बच्चों के ही हाथों में
खुद को सौंपकर चले गये थे।



वह स्त्री मुझे यहीं कहीं मिली थी

वह स्त्री मुझे यहीं कहीं मिली थी
जिसे मैं प्यार करता हूँ
बाकी स्त्रियों की तरह खटती हुई
जूझती हुई समय से
समय के साथ उसका जूझना
मुझे अच्छा लगा था,

अच्छा लगा था मुझे
उसका समय को ललकारना
समय के साथ दो-दो हाथ करना
मुझे अच्छा लगा था,

अच्छा लगा था मुझे उसका
समय की कठोर छाती को
पाँव से रौंदना

जिन पाँवों को माँ ने कभी
पालने से नीचे नहीं उतरने दिया
पिता रखे रहे हमेशा कंधों में
पिता की लाई जूतियों में
समा नहीं सके ये पाँव,

समय से लड़ते हुए मुझे
वह कभी पराजित नहीं दिखी
लेकिन थकी दिखी कई-कई बार,

उसने कहा मेरे सिर में दर्द है
ज़रा सहला दो इसे
ज़रा-सा दबा दो मेरे हाथ पैर
उसके हाथ-पैर दबाते हुए मुझे लगा
यही वह स्त्री है
जिसे मैं खोज रहा था
जो एक पुरुष से कह सके
दबा दो मेरे हाथ पैर।



ये स्त्रियाँ

मैं उन रास्तों से
शहर रोज़ आता रहा
जिन रास्तों में घास लकड़ियाँ
लाती हुई स्त्रियों के पाँव की छापें थी,

इन पाँवों की सुघर छापों में
अपन पाँव रखते हुए अक्सर मुझे लगता रहा
इनसे सुन्दर दुनिया में कुछ भी नहीं है,

ये पाँव दुनिया को 
सुन्दर बनाने वाले पाँव हैं
जब ये शाम को घर लौटते हैं
लौट आती है घरों की हँसी
जब ये घर से बाहर जाते हैं
घर उदास हो जाते हैं
ये स्त्रियाँ घरों में
आत्मा की तरह रहती हैं,

जबकि घर में इनका कोई खाता नहीं होता
न होती है इनकी
हिसाब-किताब की कोई बही
सब इनकी देह में अंकित
औैर मन के आले में रखा होता है,

इनके अनन्त यात्रा में निकलते ही
उन लोगों की यात्राओं की तिथि तय हो जाती है
जो समय का हाँका लगाते थे
खुदा की दी हुई इनकी
आधी हड्डी धरती की हर ऊँचाई में
चढ़ी दिखाई देती है
पर ये अपने में जितना जोड़ती हैं
उससे कई गुना
हर बार तोड़ दी जाती हैं।
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नरेन्द्र पुण्डरीक की कुछ कविताएं और नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/10/blog-post_63.html?m=1


प्रस्तुति: अमेय कांत

०००

परिचय

नरेन्द्र पुण्डरीक


जन्म - 15 जुलाई 1953, बांदाग्राम – कनवारा, केन किनारे बसे गाँव में
समकालीन हिन्दी कविता के महत्वपूर्ण कवियों में सेकविता के महत्वपूर्ण आयोजनों में भागीदारी

कविता संकलन - ‘ नंगे पाँव का रास्ता’ (1992),  सातों आकाशों की लाड़ली’ (2000) इन्हें देखने दो इतनी ही दुनिया (2014), ‘ इस पृथ्वी की विराटता में’ (2015)इन हाथों के बिना’ (2018), केरल राज्य सरकार की केरलपाठावली में हाईस्कूल के पाठ्यक्रम कविता संग्रहीत वर्ष 2016, शंकराचार्य वि.विकालड़ी में एम.. में चुनी हुई कविताएँ और केदार: शेष-अशेषपाठयक्रम में स्वीकृत। पंजाबी, बांगला अंगेज़ी एवं मलयालम आदि भाषाओं में कविताओं का अनुवाद प्रकाशित। 

आलोचना - ‘ साहित्य: सवर्ण या दलित’ (2010) मेरा बल जनता का बल है’
(
2015) केदार नाथ अग्रवाल के कृतित्व पर केन्द्रित।

संपादन- छोटे हाथ (2007),  मेरे साक्षात्कार (2009) चुनी हुई कविताएँ - केदारनाथ अग्रवाल (2011केदारः शेष-अशेष (2011), कविता की बात (2011)उन्मादिनी (2011),  कहानी संग्रह केदारनाथ अग्रवाल, प्रिये–प्रियमन (2011)केदारनाथ अग्रवाल और उनकी पत्नी के पत्र, आराधक, योध्दा और श्रमिकजन- कविता का लोक आलोक (2011) केदार:शेष -अशेष भाग -(2014)ओ धरा रुको ज़रा, पाब्लो नेरुदा की कविताओं का अनुवाद, केदारनाथ अग्रवाल की विविध बिम्ब धर्मी कविताओं का चयन कर 6 काव्यपुस्तिकाओं का संपादन।

सम्मान- वर्ष 2018 में रास विहारी न्यास द्वारा पहले  रामधारी सिंह दिनकर सम्मान से सम्मानित

वर्तमान में - केदार स्मृति शोध संस्थान बांदा  के सचिव, ‘माटी’ पत्रिका के प्रधान संपादक एवं केदार सम्मान,  कृष्ण प्रताप कथा सम्मान व डॉ. रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान के संयोजक
      
पता – डी. एम. कॉलोनी, सिविल लाइन, बांदा - 210001
        मो 9450169568 / 8948647444
ईमेल:  pundriknarendr549k@gmail.com



08 अगस्त, 2019

कभी-कभार नौ       


और मैं प्रेम की एकदम नई विद्यार्थी

विपिन चौधरी

 

कवयित्री सोनिया सांचेज का जन्म विलसोनिया बनिता  ड्राइवर  में 9 सितंबर, 1934 को हुआ.  सोनिया, ऐसी विलक्षण अफ्रीकी-अमेरिकी कवि हैं जिन्हें अक्सर  अश्वेत कला आंदोलन में उनकी महत्वपूर्ण भागीदारी को लेकर याद किया जाता है. उनके खाते में कविता की एक दर्जन से अधिक पुस्तकें,  लघु कथाएँ,  कई महत्वपूर्ण निबंध और बच्चों की किताबें शामिल हैं. googleआज सोनिया सांचेज़ की उम्र लगभग 84 वर्ष की है और वे अपने युवा दिनों वाले पुराने तेवर के साथ साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक vक्षेत्रों में लगातार सक्रिय हैं.


सोनिया सांचेज़



1 प्रेम गीत
( स्पेनिश के लिए )

मेरी हंसी के लिए
माफ़ी
प्रेम पर है तुम्हें अगाध विश्वास
इतनी युवा तुम
और मैं प्रेम की एकदम नई विद्यार्थी

हवा में फट पड़ती यह बारिश
प्रेम है
घास अपनी हरी मोम उलीच रही है
वही प्रेम है
और पत्थर
प्रेम के लौट गए क़दमों की याद में है
यही है प्रेम
मगर तुम
काफी युवा हो प्रेम के लिए
और मैं काफी बुजुर्ग

एक बार
क्या फर्क पड़ता है
कब और कौन
जाना था मैंने प्रेम को
मैंने अपनी देह की किया ठीक
उसके अनुसार
और चली गई
सोने प्रेम में
मिटा दिए गए मेरे सभी निशान

मुझे माफ़ कर दो अगर मैं मुस्कुराऊ
अनावृत सपनों की युवा उताराधारिणीं
तुम हो इतनी जवान
और मैं प्रेम की सीख के लिए बहुत वृद्ध


2 स्टर्लिंग ब्राउन के लिए लिखी एक कविता

  ( न्यूयॉर्क टाइम्स के एक लेख को पढ़ने के बाद, जिसमें
               एक ममी को  300 साल तक  संरक्षित रखने के बारे में लिखा गया था)

मुझे तुम्हारे प्रेम के  कुछ mummmmmiममी टेप मिले हैं
3000 साल या उससे भी jajayjaydjaydaजायदा समय तक
उनकी रक्षा करने वाली हूँ mamaimain मैं
दुनिया को बताने वाली हूँ mamaimainमैं कि देखो तुम dudunsusunसुन rarahraheरहे hoहो प्रेम का ब्लू शैल डांस सुन रहे हो
मैं तुम्हारे प्रेम में  कुलदेवता के खंबे पर जीन के कसे घोड़े पर सवारी करने वाली हूँ
पर्वतों पर तुम्हारी छवि को sasamsambsambhsambhasambhalsambhaltsambhalteसँभालते हुए
समुंदर की नींद को मोड़ते हुए
प्राचीन युग के इंद्रधनुष के तार से तुम्हारी आह को कसते हुए 
mamasmamarmarumarusmarushmarushtmarushtamarushtmarushmarusmarustmarustamarustalmarustalimarustaliymarustalimarustalmarustamarustmarusthmarusthamarusthalmarusthalimarusthaliyमरुस्थलीय लोगों और समय के मध्य
उड़ने koको huhunहूँ tataytayatayaatayaarतैयार mamaimainमैं
lalanlanglanghlanghtlanghteलांघते huhuyhuyeहुए तुम्हारी लाल/ उकाब/ हँसी ke



3 कविता
    1
तुम कहते रहो तुम हमेशा से  थे
करते हुए मेरे मिलन का इंतज़ार
कहा था तुमने
पीली हरी तितली पर सवार हो
तुमने पार की थी सैन फ्रांसिस्को की पहाड़ियां
और छुआ था मेरे बालों को जैसे हूँ मैं एक  योद्धा-बच्चा
तुम कहते रहे
हमेशा वहीँ थे तुम
थामे हुए मेरे नन्हें हाथ
जैसे बिना झुके
चल रही हूँ मैं इंडिआना की गलियों में
अपने अगल-बगल कुछ न देखते हुए
और तुम उग रहे थे काले पहाड़ के मोड़ में से
और मैं घूमी और दुबारा हुई मृदुल
तुम हमेशा कहते रहे तुम सदा से थे वहां
दोहराते मेरा नाम मधुरता के साथ
जैसे सो रही हूँ मैं धीमें पिट्सबर्ग  संगीत में और
तुमने मुझे मीठी रात का सपना बनाया
नाचता रहा जो सुबह की बारिश के लाल अवसाद में
तुम कहते रहे तुम हमेशा वहाँ थे
कहते रहे तुम तुम सदा थे वहां
प्रेम क्या तुम ठहरे हो  वहीँ
अब जब मैं हूँ यहाँ ????

   2

बटोर लेती हूँ मैं
सभी आवाज़ें
तुम्हारी छोड़ी हुयी
और उन्हें फैला देती हूँ तुम्हारे बिस्तर पर
हर बार
मैं तुम्हारी सांस लेती हूँ
और  हो जाती हूँ
मदहोश
००

विपिन चौधरी



कभी-कभार आठ नीचे लिंक पर पढ़िए

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टोनी मॉरीसन का बिलवड : अफ़्रो-अमेरिकन ला योरोना

विजय शर्मा

“जब तुम्हें एक औरत मिलती है जो तुम्हारे मन की दोस्त है, तुम जानते हो, यह अच्छा।”  
– टोनी मॉरीसन ‘बिलवड’

जब किसी ने एक साक्षात्कार के दौरान टोनी मॉरीसन से कहा कि वे आत्मकथा क्यों नहीं लिखती हैं तो उनका उत्तर था कि उनके जीवन में आत्मकथा योग्य कोई सामग्री नहीं है, यह तो उनकी कल्पना है जो ध्यान देने योग्य है। उनकी कल्पना वास्तव में अभूतपूर्व है लेकिन उनका जीवन भी कम दिलचस्प नहीं है। उनके जीवन में आत्मकथा के योग्य भरपूर सामग्री उपलब्ध है। उनके कुछ उपन्यासों में उनके जीवन की झलकियाँ मिलती हैं। शायद किसी दिन वे आत्मकथा लिखें अभी तो उनकी कल्पना उपन्यास विधा को समृद्ध करने में जुटी हुई है।


टोनी मॉरीसन


टोनी मॉरीसन का जन्म ओहायो के लोरैन नामक स्थान में १८ फ़रवरी १९३१ को हुआ। उनका जन्म का नाम चोल एंथोनी वोफ़ोर्ड है। उनके पिता का नाम जॉर्ज रमाह वोफ़ोर्ड और माँ का नाम एला रमाह वोफ़ोर्ड है। वे चार बच्चों में से दूसरे नम्बर पर हैं। उनका बचपन काफ़ी गरीबी में बीता, एक बार वे लोग घर का किराया न दे पाए तो मकान मालिक ने उनके घर में आग लगा दी। मगर परिवार हँसमुख और उत्साही था। वे एक नए घर में रहने चले गए। उनके पिता खूब मेहनती व्यक्ति थे। वे यू एस स्टील में वेल्डर का काम करते थे। उन्होंने टोनी की पढ़ाई का खर्च निकालने के लिए तीन-तीन स्थानों पर काम करना शुरु कर दिया। उनकी माँ भी काम करने लगीं क्योंकि उस समय उनकी बहन भी पढ़ रही थी। टोनी मॉरीसन ने अपनी हाईस्कूल की शिक्षा लोरैन हाई स्कूल से पाई और कॉलेज की शिक्षा हॉवर्ड विश्वव्द्यालय तथा कॉर्नेल विश्वविद्यालय से प्राप्त की। उन्होंने टैक्सस, हॉवर्ड विश्वविद्यालयों में शिक्षण कार्य किया। बारह साल की उम्र में कैथोलिक धर्म स्वीकारते समय उन्हें एंथोनी नाम मिला उसी के संक्षिप्त रूप टोनी का वे उपयोग करने लगीं। उन्होंने एक जमैकन आर्किटेक्ट हेरॉल्ड मॉरीसन से १९५८ में विवाह किया। उनके बेटों के नाम हेरॉल्ड फ़ोर्ड तथा स्लेड केविन हैं। बरसों तक टोनी मॉरीसन ने रैंडम हाउस में एडीटर की हैसियत से काम किया। टोनी मॉरीसन अश्वेत गुलामों की वंशज है, उन्होंने गुलामों के दारुण दु:ख-कष्ट, आशा-निराशा, जीवन-मरण को अपने साहित्य में वाणी दी है। अपने सृजनात्मक कार्य के द्वारा अफ़्रो-अमेरिकन इतिहास को नवीन रूप दे कर दुनिया के समक्ष पहुँचाने का महती काम किया है। शुरु-शुरु में उनकी और उनके साहित्य की खूब उपेक्षा हुई। उनके पहले उपन्यास द ब्लूएस्ट आई’ को प्रकाशित करने के लिए कोई राजी न था, उन्हें कई प्रकाशकों के पास से निराश लौटना पड़ा परंतु बाद में प्रकाशक उनके चक्कर काटने लगे। मॉरीसन ने अफ़्रो-अमेरिकन साहित्यकारों को आगे बढ़ाने भरपूर सहायता की, उनके काम प्रकाशित करने में महत भूमिका अदा की है।
‘द ब्लूएस्ट आई’, ‘सूला’, ‘सॉन्ग ऑफ़ सोलोमन’, ‘टार बेबी’, ‘बिलवड’, ‘पैराडाइज़’, ‘लव’, ‘जाज़’ तथा ‘द मर्सी’ उनके नौ उपन्यास हैं। इसके अलावा उन्होंने तमाम आलेख लिखें हैं और बच्चों के लिए लेखन किया है। १९६५ में अपने दूसरे बेटे के जन्म के समय ही उनका अपने पति से तलाक हो गया। टोनी मॉरीसन को नोबेल पुरस्कार के अलावा इतने ज्यादा पुरस्कार-सम्मान मिले हैं अगर सूचि बनाई जाए तो कई पन्ने भर जाएँगे। अफ़्रो-अमेरिकन लेखकों के बीच वे मातामही के रूप में सम्मानित हैं। जीवन के आठवें दशक में भी वे खूब सक्रिय हैं। उनके नाम पर बनी टोनी मॉरीसन सोसाइटी साहित्य के क्षेत्र में खूब सक्रिय है। उन पर और उनके काम पर आज सैंकड़ों किताबे उपलब्ध हैं। तमाम लोग उनके काम पर शोध कार्य कर रहे हैं। वे अपने साहित्य में अफ़्रीकी, इण्डियन-अमेरिकी, यूरोपियन मिथकों का भरपूर प्रयोग करती हैं। मिथकों को वे ज्यों-का-त्यों लेती हैं, साथ ही जरूरत पड़ने पर उसका पुनर्सृजन करती हैं इतना ही नहीं यदि जरूरत पड़ी तो नए मिथकों का निर्माण भी करती हैं। वे स्वयं कहती हैं कि उन पर विलियम फ़ॉक्नर, वर्जीनिया वुल्फ़ तथा जेम्स जॉयस का प्रभाव है। मगर उन्होंने अपनी स्वतंत्र शैली विकसित की है जो एक ओर तो बहुत सरल और आकर्षक है, दूसरी ओर कई स्तरों पर चलने वाली जटिल शैली है। ‘बिलवड’ उनका सर्वाधिक लोकप्रिय, सम्मानित और प्रसिद्ध उपन्यास है। यह मानवता, मातृत्व की पराकाष्ठा को प्रदर्शित करने वाला कार्य है। उनकी इस एक किताब पर अब तक न मालूम कितनी समीक्षाएँ, आलोचनाएँ तथा अध्ययन हो चुके हैं। इस पर फ़िल्म भी बनी है।
उनका १९७९ में आया उपन्यास ‘द ब्लूएस्ट आई’ एक छोटे से अश्वेत समुदाय की कहानी है। इसमें सारे पात्र अश्वेत हैं। वे १९६६ में लेखकों के एक समूह के साथ काम कर रही थीं। यहीं पढ़ने के लिए उन्होंने इसे एक कहानी के रूप में लिखा था, बाद में उसका विस्तार कर उपन्यास का रूप दिया। अश्वेत कैसे खुद को श्वेत मूल्यों पर तौलते हैं, कैसे उन्हें अपने से बेहतर मानते हैं यही इस दर्दनाक कहानी के पीछे की सच्चाई है। जब उन्होंने इसे कहानी के रूप में लिखा था उस समय मॉरीसन तलाक और उससे उत्पन्न प्रभाव को झेल रही थीं। इस उपन्यास की पिकोला ब्रीडलव अभिनेत्री शर्ली टेम्पल की नीली आँखों से प्रभावित है वह खुद वैसी ही आँखें पाने की प्रार्थना रोज रात को किया करती थी। उसका विश्वास था कि यदि उसे नीली आँखें मिल गई तो उसकी और उसके परिवार की सारी समस्याएँ मसलन माता-पिता की नितदिन की तकरार, भाई का घर से बार-बार भागना, पिता का पीना सब सुधर जाएगा, वह सुंदर हो जाएगी। ग्यारह बरसों में किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया है वह चाहती है कि लोग उस पर ध्यान दें, सब उसे देखने लगें। कथावाचिका मैक्टीर पिकोला नायिका के नष्ट होते जाने की प्रक्रिया की गवाह है वह इस प्रक्रिया को समझने का यत्न करती है।
टोनी मॉरीसन गुलाम परिवार की संतान हैं मगर वे खुद कभी गुलाम नहीं रहीं। आज भी वे अमेरिका के सामाजिक जीवन से बहुत प्रसन्न नहीं हैं। यहाँ तक कि बराक ओबामा के राष्ट्रपति बनने से भी उनके अनुसार रंगभेद की समस्या समाप्त नहीं हुई है। अपने प्रसिद्ध उपन्यास पैराडाइज में वे एक ऐसे शहर की कल्पना करती हैं जहाँ मात्र श्वेत लोग रहते हैं। काफ़ी समय तक अमेरिका में ऐसा ही था। अश्वेतों के पढ़ने-लिखने पर पाबंदी थी। बाद में भी इसके लिए कोई सुविधा नहीं थी। १९०७ के आसपास अश्वेत बच्चों के लिए वाशिंग्टन में पहला स्कूल बना। खुद मॉरीसन जब हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय गई तो यह  केवल अश्वेत छात्रों के लिए आरक्षित था। बाद में यह प्रथा टूटी। मॉरीसन ने विलियम फ़ॉक्नर तथा वर्जीनिया वुल्फ़ के कार्यों में आत्महत्या’ विषय पर अपना डॉक्टरेट किया है। खुद उन्होंने फ़िक्शन राइटिंग पर अध्यापन किया है मगर मानती हैं कि लेखन के कुछ आयामों का शिक्षण किया जा सकता है मगर प्रतिभा नहीं सिखाई जा सकती है, न ही किसी को जबरदस्ती नजरिया प्रदान किया जा सकता है। सीखने वालों की सहायता की जा सकती है। ये खुद खूब मेहनती हैं अपने छात्रॊ से भी ऐसी ही अपेक्षा करती थीं। खुद उन्होंने जीवन भर मल्टीटास्किंग की है। एक साथ लेखक, शिक्षक, संपादक, माँ, नेत्री की भूमिकाएँ सफ़लतापूर्वक निबाही हैं।
टोनी मॉरीसन का पाँचवाँ उपन्यास ‘बिलवड’ एक गाथा है, अश्वेत गुलाम स्त्री के मातृत्व, शिशु हत्या, बलात्कार, क्रूरता, अत्याचार, पागलपन, अलगाव, शक्तिहीनता, पश्चाताप, बुद्धिमता, प्रेम, आशा-निराशा, संस्कृतियों, मिथकों और आध्यात्म की। इसमें जहाँ तमाम नकारात्मक बातें हैं, वहीं कुछ सकारात्मक बातें भी हैं। दुनिया के हर देश की भाँति अमेरिका में भी सत्ताहीन लोगों को हाशिए पर ढ़केलने की प्रवृति रही है मगर अपने व्यक्तित्व, लेखन और अपने साक्षात्कारों के द्वारा टोनी मॉरीसन ने सिद्ध कर दिया है कि यह गलत है। ये लोग वास्तविक रूप से प्रमुख समुदाय होते हैं। इनके बिना अमेरिका का अस्तित्व नहीं है। इसी तरह इनके बारे में अथवा इन पर लिखना बहुत समय तक कमतर माना जाता रहा है। यहाँ भी अपने काम से टोनी मॉरीसन ने दिखा दिया है कि ऐसा है नहीं। उनका और उन जैसे कई अश्वेत साहित्यकारों का काम मात्र अश्वेत पाठकों के बीच ही लोकप्रिय नहीं है वरन यह नस्ल और देश के पार जाता है। सार्वकालिक तथा सार्वदेशीय है। वे दिखाती हैं कि जिन्हें हाशिए पर ढ़केला जाता रहा है वे भी मनुष्य हैं, इन्हें भी दु:ख-दर्द व्यापता है, उनके भीतर भी आशा-निराशा व्याप्ति है और ये भी प्रेम-घृणा करते हैं, पैदा होते-जीते और मरते हैं। आज यह सिद्ध हो चुका है कि अश्वेत नस्ल हाशिए पर रहने वाली नहीं है न ही इनका साहित्य किसी अन्य साहित्य से किसी तरह कम है।
ओप्रा विन्फ़े ने जबसे ‘बिलवड’ पढ़ा वे उसे परदे पर लाने के लिए बेताब थीं। १९९६ में उन्होंने अपना प्रसिद्ध और लोकप्रिय बुक क्लब प्रारंभ किया और तभी घोषणा कर दी कि उनके क्लब का दूसरा चुनाव टोनी मॉरीसन का ‘सॉन्ग ऑफ़ सोलोमन’ होगा। तुरंत मॉरीसन की किताबों की बिक्री बढ़ गई। ओप्रा के बुक क्लब की यह खासियत है उनके यहाँ नाम आते ही रचनाकार का सम्मान बढ़ जाता है, उसकी किताबों की बिक्री तेज हो जाती है। मॉरीसन के प्रकाशक ने भी चमत्कार दिखाया, उसने सजिल्द प्रतियों का दाम कम कर दिया ताकि ज्यादा-से-ज्यादा पाठकों तक किताब की पहुँच हो सके। ओप्रा और मॉरीसन का एक साझा और लम्बा संबंध कायम हुआ। १९९८ में इस क्लब ने टोनी मॉरीसन के एक और उपन्यास ‘पैराडाइज’ को चर्चा के लिए चुना, २००० में इस क्लब की नजर में ‘द ब्लूएस्ट आई’ और २००२ में इस क्लब ने ‘सूला’ को अपने टॉक शो में रखा। हर बार टोनी मॉरीसन स्टूडिओ में ऑनलाइन उपस्थित हो कर चुने हुए अपने पाठकों से विमर्श करती हैं।
१९७४ में टोनी मॉरीसन ने एक योजना पर काम करना प्रारंभ किया। यह योजना थी तीन सौ साल की अमेरिकी अश्वेत गुलामी का लेखा-जोखा तैयार करना। यह स्मृति एलबम उन्होंने ‘द ब्लैक’ नाम से बनाया। इस इतिहास को दर्ज करने का अनुभव उनके आगे के कामों की पूँजी बना। यहाँ से उन्हें अपने लेखन की थीम, भाव, प्रतीक, बिम्ब, छवि, प्रतिमाएँ प्राप्त हुए। यहीं से उन्हें  ‘बिलवड’ के बीज मिले। इसी शोध के सिलसिले में उन्हें उन्नीसवीं सदी की एक पत्रिका की कतरन मिली जिससे ‘बिलवड’ की सेथ का जन्म हुआ। दस साल की मेहनत, चिन्तन-मनन का परिणाम है यह उपन्यास ‘बिलवड’।
साहित्य की आलोचना एक बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है। हर विधा और हर तरह के साहित्य की आलोचना के लिए भिन्न प्रकार के उपकरण की आवश्यकता है। अमेरिकी साहित्य और अफ़्रो-अमेरिकी साहित्य को एक ही तुला पर नहीं तौला नहीं जा सकता है। इसके लिए एक अलग कसौटी की जरूरत है। यही कारण है कि प्रारंभ में अकसर मॉरीसन के काम का उचित मूल्यांकन नहीं हुआ और कई बार अपने काम की समीक्षा देख कर वे बहुत दु:खी, परेशान और निराश हुई। उनके ‘बिलवड’ की तुलना एक टीवी धारावाहिक से कर दी गई। वे अपनी तुलना अन्य अफ़्रो-अमेरिकी साहित्यकारों से किए जाने का भी बुरा मानती हैं। बात सही है जैसा वे लिखती हैं वैसा दूसरे अफ़्रो-अमेरिकन साहित्यकार नहीं लिखते हैं। कोई भी दो रचनाकार एक जैसा नहीं लिखते हैं। जरूरी नहीं पर जाहिर सी बात है जब तुलना होगी तो किसी एक को कमतर दिखाया जाएगा। मॉरीसन को आलोचकों की बुद्धि पर तरस आता है। समीक्षक तय कर लेते हैं तब उसी बँधी-बंधाई बातों को रचना में देखना चाहते हैं। प्रारम्भ में मॉरीसन से वे चाहते थे कि वे अश्वेत चित्रण उनके मनमाफ़िक करें, अपने अनुभव और कल्पना के आधार पर नहीं। कुछ आलोचक उनके काम से खुश नहीं थे क्योंकि मॉरीसन अश्वेतों को प्रचलित मान्यता के अनुसार कमजोर, बुद्धिहीन, दबा हुआ, डरा हुआ, गुलामी में ही खुश नहीं दिखाती थीं। उनके अश्वेत गुलाम जिजीविषा से भरपूर, स्वतंत्रचेता, स्वतंत्रता के आकांक्षी, स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले, दमन-शोषण का विरोध करने वाले होते हैं। उन पर लगने वाले आरोप पहले की बातें हैं। आज स्थिति पूरी तौर पर बदल चुकी है। अपने लेखन की गुणवत्ता से उन्होंने खुद को सिद्ध कर दिया है, अब ऐसी बेवकूफ़ी भरी हिमाकत करने की किसी की हिम्मत नहीं होगी। इसी तरह जब आलोचक बिना पुस्तक पढ़े समीक्षा करते हैं तो मॉरीसन को बड़ी निराशा होती है, एक बार ‘द न्यू यॉर्क टाइम्स’ में ऐसा ही हुआ। इसे वे अपना अपमान मानती हैं, यह उन्हें व्यथित करता है। वक्त बदलने के साथ अश्वेत लेखन को परखने की स्वतंत्र कसौटियाँ बन गई है। मॉरीसन के साथ अन्य अफ़्रो-अमेरिकन लोगों के कार्य पर भी बौद्धिक विमर्श होने लगा है। मॉरीसन की हस्ती आज इतना ऊँचा स्थान रखती है कि उनके द्वारा समलिंगी, अश्वेत, अश्वेत महिला साहित्य सबके लिए नई कसौटियाँ बन रही हैं और इन्हें मान्यता मिल रही है।
टोनी मॉरीसन कभी अपने लिखे से संतुष्ट नहीं रहीं, उन्हें सदैव लगा कि काफ़ी कुछ जोड़ा-घटाया जा सकता है, जोड़ा-घटाया जाना चाहिए, सुधार किया जाना चाहिए। अगर एक बार संतुष्टि आ जाए तो विकास रुक जाता है। वे खुद को किसी वाद में नहीं बाँधना चाहती हैं, वाद रचनाकार को संकुचित करता है। नारीवादी कहलाना उन्हें पसंद नहीं है, वे किसी वाद का माउथपीस नहीं बनना चाहती हैं। जब पैराडाइज’ पर नारीवाद का ठप्पा लगा तो उन्होंने जोरदार तरीके से इसका खंडन किया, कहा, “बिल्कुल नहीं। मैं कभी भी किसी वाद’ में नहीं लिखुँगी। मैं वाद’ के उपन्यास नहीं लिखती हूँ।” वे स्वतंत्र रहना चाहती हैं, जो भी लिखती हैं विस्तार से लिखती हैं, द्वार खोलने के लिए लिखती हैं इसी कारण वे अपने उपन्यासों का अंत खुला रखती हैं जहाँ पाठक को अपनी कल्पना की उड़ान भरने की सुविधा रहती है। वे खुद कहती हैं कि वे पितृसत्तात्मकता को मान्यता नहीं देती हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे मातृसत्तात्मकता को मानती हैं। उनके अनुसार पितृसत्तामकता का स्थानापन्न मातृसत्तात्मकता नहीं है।
उनके लिए उपन्यास सदैव एक खोज का विषय रहा है, वे लिखने के पहले काफ़ी शोध करती हैं। अतीत में जिन्दगी कैसी थी, वर्तमान पर अतीत का कितना और कैसा असर पड़ा है यह सब वे अपने कार्य में दिखाती हैं। उनके अनुसार जीवन एकरेखीय नहीं होता है। जीवन की जटिलता उनकी विषय वस्तु होती है। उनकी माँ श्वेत-अश्वेत, स्त्री-पुरुष के भेदभाव के विरुद्ध थीं, थियेटर में भी यह भेदभाव नहीं होने देती थीं। ऐसी माँ की बेटी कैसे नारीवादी हो सकती है। बच्चे पैदा करना, उनका पालन-पोषण करना, घर चलाना ये सब काम उन्हें नारीवादी काम नहीं लगते हैं। बचपन से वे भरेपूरे घर में अपनी माँ, दादी-नानी को सब काम करती देखती आई हैं, उन्होंने देखा है कि औरतें पुरुषों की बनिस्बत औरतों का साथ अधिक खोजती हैं। वे जब दोस्ती करती हैं तो यह देख कर नहीं करती हैं कि सामने वाला स्त्री है अथवा पुरुष है। उनकी कुछ महिला मित्र भी हैं, कुछ लेखक मित्र हैं, ये लोग मित्र हैं क्योंकि ये विशिष्ट हैं इसलिए नहीं कि ये स्त्री या पुरुष हैं। हेमिंगवे को जब पुरुषवादी नहीं माना जाता है, केवल रूस पर लिखने के लिए जब सोल्ज़ेनित्सिन पर आरोप नहीं लगता है तो वे पूछती हैं कि कैसे नारीवादी हो गईं।
मॉरीसन का उपन्यास ‘सुला’ (१९७३) ओहियो शहर में रेहने वाली दो अश्वेत लड़कियों, सहेलियों की कहानी है। शैशव, बचपन, किशोरावस्था तथा बाद में भी वे संग रहती हैं। लेकिन जीवन में दोनों बिल्कुल अलग राह चुनती हैं। नेल राइट ओहियो में ही रह जाती है। शादी करती है, उसके बच्चे होते हैं। वह अपने अश्वेत समुदाय की रीढ़ बन जाती है। दूसरी ओर सुला पीस विद्रोह में इन सबको त्याग देती है। वह कॉलेज जाती है, और शहर के जीवन में खुद को डुबो देती है। एक विद्रोही, अपने समुदाय का मखौल उड़ाने वाली, बिना नैतिकता के सेक्स का प्रयोग करने वाली के रूप में वह अपनी जड़ों की ओर लौटती है। दोनों के अपने दु:ख हैं, संघर्ष और परेशानियाँ हैं। दोनों अपनी विपरीत जीवन शैली के बावजूद एक-दूसरे से बेहद प्रेम करती हैं। इसमें मॉरीसन दिखाती हैं कि अमेरिकी समाज में एक अश्वेत स्त्री के लिए अस्तित्व बचाए रखना का अर्थ है, इसके लिए उसे कौन-कौन से मूल्य चुकाने पड़ते हैं। इस उपन्यास के लिए उनको नेशनल बुक क्रिटिक्स अवॉर्ड मिला था।
गुलामी आदमी के लिए भयंकर है लेकिन औरत के लिए और अधिक भयंकर है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से समृद्ध उपन्यास ‘बिलवड’ ने कृतिकार को प्रसिद्ध दी और चर्चित कर दिया। उन पर पुरस्कारों और सम्मानों की वर्षा होने लगी हालाँकि उन्हें यह सब आसानी से न मिला। उनसे ज्यादा उन्हें चाहने वालों लोगों ने उनके पुरस्कारों के लिए प्रयास किया। १९८८ में उन्हें रिज़-हेमिंग्वे, नेशनल बुक, नेशनल बुक क्रिटिक पुरस्कारों के लिए नामित किया गया, मगर मिला एक भी नहीं। एक साहित्यकार के रूप में उनको अनदेखा किया गया इससे तमाम पाठक, आलोचक और अन्य कई साहित्यकार क्षुब्ध हुए। वे लोग चुप नहीं बैठे। कवयित्री जून जोर्डन के नेतृत्व में सारे प्रमुख अखबारों में विरोध दर्ज कराया गया। एलिस वॉकर, माया एंजेलो और तमाम लेखकों ने खुले पत्र लिखे। इसके अलावा ४२ अन्य सहयोगियों ने विरोध प्रदर्शित किया। टोनी मॉरीसन इस सहयोग से अभिभूत और चकित दोनों थीं।
अंतत: १८ सप्ताह तक बेस्टसेलर की सूचि में रहने वाले ‘बिलवड’ को ३१ मार्च १९८८ को पुलित्ज़र दिया गया। फ़िर तो जैसे पुरस्कारों-सम्मानों की झड़ी लग गई। उनके अनुसार पुरस्कार मिलना उन्हें अच्छा लगा, उन्हें लगा कि उनकी ताजपोशी हुई है। टोनी मॉरीसन १९९३ में साहित्य का नोबेल पुरस्कार ग्रहण करने वाली प्रथम अश्वेत साहित्यकार थीं। उस अवसर पर उन्होंने कहा कि यह पुरस्कार वे केवल अपने लिए न लेकर तमाम अश्वेत और महिला रचनाकारों के लिए ग्रहण कर रही हैं। यह मात्र उन्हें नहीं बल्कि ‘हमें’ मिला है। आज उनके साहित्य का श्वेत और अश्वेत दोनों तरह के छात्रों के पाठ्यक्रम में अध्ययन के लिए प्रयोग होता है। वैसे कुछ लोगों को लगता है कि ‘द ब्लूएस्ट आई’ और ‘बिलवड’ जैसी क्रूर अत्याचार की रचनाएँ बच्चों को पढ़ने के लिए नहीं देनी चाहिए। उनका उपन्यास ‘सॉन्ग ऑफ़ सोलोमन’ और ‘पैराडाइज़’ कई जेलों की लाइब्रेरी में आज भी प्रतिबंधित है, कारण बताया जाता है कि इसके पढ़ने से कैदी विप्लव कर सकते हैं। टोनी हँसते हुए कहती हैं कि इससे अच्छी बात एक लेखक के लिए क्या हो सकती है। एक कृति यदि विप्लव करा दे तो यह उसकी सबसे बड़ी सफ़लता कहलाएगी। एक प्रकाशान ने ‘पैराडाइज़’ की पांडुलिपि पाँच कारण बताते हुए नकार दी थी, उसमें एक कारण यह था। अस्वीकृति के इस पत्र को उन्होंने मढ़ा कर अपने घर में टाँग रखा है, दूसरी दीवाल पर टोनी मॉरीसन ने नोबेल पुरस्कार के सम्मान पत्र को मढ़ा कर टाँग रखा है।
कई अफ़्रो-अमेरिकन महिला रचनाकार सिविल राइट्स मूवमेंट में शामिल थीं, टोनी मॉरीसन ने उसमें शारीरिक रूप से भाग नहीं लिया। इसका मतलब यह नहीं था कि वे इसके विरोध में थीं अथवा इससे अपरिचित थीं। असल में उनके छात्र इसमें प्रमुख भूमिका निभा रहे थे। स्टॉकली कारमाइकल उनका छात्र था, वे उसकी मेंटर थी। आगे चलकर वह ‘स्टूडेंट नॉनवायलेंट कॉ-ओर्डिनेटिंग कमेटी’ का प्रणेता बना। यह कमिटी ‘सिविल राइट्स आंदोलन’ का प्रमुख अंग थी। उनके इसी पूर्व छात्र ने ‘ब्लैक पावर’ का कान्सेप्ट भी दिया। जिसका अर्थ था अश्वेत गर्व, अलग अश्वेत समाज की स्थापना, अश्वेत राष्ट्रीयता, अश्वेत स्वायत्ता। इस अलग अश्वेत समाज, अलग अश्वेत राष्ट्रीयता के विचार से टोनी मॉरीसन सहमत नहीं थीं। वे अलगाव नहीं समन्वय चाहती हैं। वे ‘ब्लैक इज़ ब्यूटीफ़ुल’ नारे के भी खिलाफ़ थीं क्योंकि उन्हें लगता था कि ऐसा कह करके वे लोग श्वेत परिभाषा को पूरी-पूरी छूट दे रहे हैं। इससे श्वेत लोगों की दी परिभाषा अश्वेतों के लिए महत्वपूर्ण हो जा रही है। ऐसी दिखावटी सुंदरता मूल मुद्दों से ध्यान बँटाती है। टोनी मॉरीसन का विचार है कि शारीरिक सौंदर्य को खोजना अच्छा है और यह करने योग्य कार्य है। लेकिन इसके लिए दूसरों के विचारों को आँख मूँद कर स्वीकारना उचित नहीं है।
‘ब्लैक पॉवर’ के विपरीत टोनी मॉरीसन ने अफ़्रो-अमेरिकन इतिहास को पुनर्भासित, पुनर्परिभाषित  किया। उन्होंने अपनी जड़ों को तलाशा और अपनी सभ्यता-संस्कृति को साहित्य में उचित स्थान दिलाने का अथक प्रयत्न किया। इन्होंने दिखाया कि जब तक हम दूसरों की निगाह से खुद को देखते-तौलते रहेंगे हमारी समस्याएँ बढ़ेंगी, घटेंगी कदापि नहीं। अमेरिका का ओहायो राज्य जहाँ उनका बचपन बीता १८०३ से ही गुलामी के विरोध में रहा। यह स्थान ‘अंडरग्राउंड रेलरोड’ से भागते समय गुलामों की शरणस्थली था। बाद में यहाँ तमाम स्थानों के अनेक लोग आकर बसे। अफ़्रो-अमेरिकन जब तक दक्षिण में गुलाम के रूप में थे वे कठिन परिश्रम करते थे और उनका जीवन दमन, असुरक्षित और अस्थिर था। अफ़्रो-अमेरिकन गुलाम स्त्रियाँ ओवरसीयर, मालिक तथा अन्य गोरे और अक्सर काले लोगों के बलात्कार का भी शिकार होती थीं। वे अपने मालिकों के लिए खेतों में कपास, भुट्टे की खेती करती, उनके घर में खाना बनाती, आया का काम करतीं। जब भाग कर या गुलामी की प्रथा समाप्त होने के बाद ये उत्तर की ओर बढ़े तब भी इनका जीवन आसान न हुआ। इनके लिए खासकर स्त्रियों के लिए कोई सुनिश्चित कार्य उपलब्ध न था। ये लोग ज्यादातर अशिक्षित थे, किसी काम में प्रशिक्षित न थे अत: इनमें से बहुत सारी स्त्रियों के लिए क्लब-बार में गाना, नाचना और वेश्यावृति जैसे काम ही उपलब्ध थे। यहाँ भी इनका अपने लोगों द्वारा शोषण होता था। बहुत कम गुलाम ऐसे थे जिन्हें ‘बिलवड’ की सेथे की भाँति उत्तर दिशा ओहाओ राज्य के सिनसिनाटी के एक कस्बे में आने पर घर नसीब होता था, प्रेम मिलता था, परिवार मिलता था। मॉरीसन अश्वेतों को अपने लेखन द्वारा आमंत्रित करती हैं कि वे अपने परिवारों में, अपने समुदाय में और सबसे ज्यादा जरूरी है कि खुद अपने आप में ताकत खोजें।
खुद टोनी मॉरीसन ने यही किया। जब उनका दूसरा बच्चा गर्भ में था उनका तलाक हो गया वे अपने परिवार में लौट आई। उनका परिवार उनके इस निश्चय के साथ था। जब वे अपने दो छोटे बेटों को लेकर नौकरी करने न्यूयॉर्क गई तो बहुत सारे लोगों को लगा कि वे अकेलापन अनुभव करेंगी। मगर उनका कहना था कि आप अपने साथ अपना गाँव लेकर चलते हो। अगर समुदाय की अनुभूति आपके भीतर है तो किसी बाह्य समुदाय की जरूरत नहीं है। उन्होंने अपने भीतर ताकत खोजी और इस ताकत ने उन्हें दुनिया का एक सबसे बड़ा रचनाकार बनने में सहायता दी। उन्होंने फ़िर दोबारा कभी शादी न की। उनका छोटा बेटा लिखने में उनके साथ है दोनों ने मिल कर बच्चों के लिए खूब लिखा है। पीछे छोड़ आए परिवार और समुदाय से निकटता स्थापित करने की इच्छा का परिणाम है उनका लेखन । जब भी वे दो छोटे बच्चों, अपनी नौकरी के तथा अन्य उत्तरदायित्वों को लेकर परेशान होती तो सदा अपनी दादी को याद करतीं। उनकी दादी ने अपने सात बच्चों को लेकर अकेले संघर्ष किया था। तब उन्हें लगता कि दादी की अपेक्षा उनकी कठिनाइयाँ कुछ नहीं हैं। इस सोच से उन्हें साहस और बल मिलता।
बहुत सारे लोग टोनी मॉरीसन के तलाक लेने और दोबारा शादी न करने के निश्चय से प्रसन्न नहीं हैं। अक्सर वे अपने विचारों में शादी और परिवार संस्था के पक्ष में नहीं है, स्त्री-पुरुष के यौन संबंध की आलोचना करती हैं। इसलिए कुछ लोग मानते हैं कि उनके काम में चेतन या अचेतन रूप से स्त्री समलैंगी संबंध दिखाई पड़ते हैं। उनका उपन्यास ‘सूला’ स्पष्ट रूप से स्त्री समलैंगी संबंधों को चित्रित करता है। सूला और नेल का संबंध ऐसा ही है जबकि वे पुरुषों से भी यौन संबंध कायम करती हैं। अफ़्रो-अमेरिकन महिला रचनाकारों के काम में यह नजर आता है। एलिस वॉकर के उपन्यास ‘द कलर पर्पल’ में भी सीली और शुग आपस में यौन संबंध रखती हैं, इसी संबंध के कारण सीली अपनी यौनिकता को पहचानती है, अपने नारीपन को अनुभव करती है। अन्यथा बलात्कार के बाद उसे यौनक्रिया से अरूचि हो गई थी, अलबर्ट जब भी उसके पास आता उसे कोई अनुभूति नहीं होती थी। टोनी मॉरीसन के यहाँ यह केवल ‘सूला’ में ही नजर आता है।
‘बिलवड’, ‘जाज़’ और ‘पैराडाइज़’ उनकी उपन्यास त्रयी है। उपन्यास त्रयी की पहली कड़ी ‘बिलवड’ में टोनी मॉरीसन विस्तार से दिखाती हैं कि गुलामी मनुष्य की कोमल भावनाओं को नष्ट कर देती है। स्त्री से उसके माँ बनने का नैसर्गिक अधिकार छीन लेती है। बलात्कार से उपजी संतान के प्रति मातृत्व भावना वही नहीं होती है जो प्रेम से उत्पन्न संतान के प्रति होती है। अत्याचार-गुलामी में स्त्री की भावना अपनी संतान के प्रति मिश्रित होती है। जहाजियों, ओवरसीयरों, मालिकों के लिए गुलाम स्त्रियाँ मनुष्य न हो कर बच्चे पैदा करने वाली मशीन होती हैं। उन्हें सीधे-सीधे ‘ब्रीडर’ कहा जाता था। गुलाम स्त्री से जितने अधिक बच्चे पैदा होते मतलब उतने अधिक गुलाम, अर्थात उतने अधिक काम करने वाले लोग, काम करने के लिए उतने अधिक हाथ। ‘बिलवड’ एक जटिल उपन्यास है। यह रहस्य-रोमांच का उपन्यास नहीं है, स्वीकार तथा सहन करने की पराकाष्ठा का उपन्यास है। यह उपन्यास पूछता है कि एक आदमी को कितना सहन करना चाहिए, कितना लेना चाहिए, कहाँ हद होती है। इस उपन्यास को समझने के लिए पृष्ठभूमि चाहिए। अमेरिकी-अफ़्रीकी इतिहास की थोड़ी-बहुत जानकारी होनी आवश्यक है। इसके लिए गुलामी की क्रूर दास्तान से परिचित होना जरूरी है।
हालाँकि टोनी मॉरीसन पहली रचनाकार नहीं हैं जिसने अपने उपन्यास में ममता की पराकाष्ठा में माँ को अपने बच्चे की जान लेते हुए दिखाया है। यह सही है कि इस उपन्यास के बीज सच्ची घटना में निहित हैं। साहित्य में इसके पूर्व ऐसी घटनाओं का विवरण मिलता है। १८६१ में हैरिएट जैकब्स ने आत्मकथात्मक लेखन किया था। वह स्वयं गुलाम थी उसने ‘इंसिडेंट्स इन द लाइफ़ ऑफ़ ए स्लेव गर्ल’ नाम से आत्मकथा लिखी। इस किताब में उसने अपनी पहचान छुपाने के लिए एक दूसरा नाम लिंडा ब्रेंट रखा। लिंडा ब्रेंट पूरी जिंदगी अपने बच्चों की स्वतंत्रता के लिए काम करती है। वह अपने बच्चों की सुरक्षा के बिना खुद पलायन नहीं करना चाहती है। बराबर सोचती है कि यदि वह अपने बच्चों को मार डाले तो वे गुलामी की गलीच जिंदगी से बच सकते हैं। लिंडा ऐसा सोचती है पर अपने विचार को अंत तक कार्य रूप में परिवर्तित नहीं करती है। इसी किताब में प्रु का बच्चा जब मर जाता है तो वह सोचती है कि चलो अच्छा हुआ मर कर गुलाम जिंदगी बिताने से बच गया। वह खुद मर कर इस क्रूरता भरे जीवन से छुटकारा पाना चाहती है। लेकिन सेथे अपने बच्चों को गुलामी की जंजीर से दूर रखने के लिए मार डालती है, यह दीगर बात है कि दोनों बेटे और डेनवर बच जाती है और घुटनों चलने वाली बच्ची (बिलवड) मारी जाती है। इस तरह वह अपने बच्चों पर अपना दावा सिद्ध करती है। एक अन्य लेखिका ऐसी ही स्थिति अपने उपन्यास में दिखाती है। यह रचनाकार अश्वेत नहीं है पर इसने अश्वेतों के दु:ख को अनुभव किया। इसके लेखन का अमेरिका में बहुत गहरा प्रभाव हुआ। अश्वेतों को गुलामी से उबारने वालों के लिए इस स्त्री का लेखन प्रेरणा बना। एक पादरी की बेटी हैरिएट बीचर स्टोव ने विश्व प्रसिद्ध उपन्यास ‘अंकल टॉम्स केबिन’ लिखा। इस उपन्यास की एक पात्र केसी अपने दो बच्चों के बिक जाने के बाद अपने तीसरे बच्चे को मार डालती है। फ़र्क यह है कि केसी को अपना बच्चा मारने का कभी अफ़सोस नहीं होता है, बल्कि वह खुश है कि अब उसके इस बच्चे को कभी गुलामी का दर्द न होगा। वह अपने बच्चे की भलाई के लिए यह जघन्य कार्य करती है। सेथे भी बच्चों की भलाई के लिए यह कदम उठाती है पर बाद में वह सदैव अपराधबोध से भरी रहती है। टोनी मॉरीसन मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अधिक सटीक हैं। उनके और हैरिएट बीचर स्टोव के बीच एक सौ साल से अधिक का अंतराल है। टोनी मॉरीसन ज्यादा शिक्षित हैं, समय बदल चुका है।
उपन्यास ‘बिलवड’ का यह समय उन्नीसवीं सदी का उत्तरार्द्ध है। १८०८ में गुलामी के व्यापार को रोकने की कानूनन बात हुई। १८७० में पंद्रहवें संशोधन द्वारा अमेरिकी संविधान ने अश्वेतों को अमेरिकी नागरिकता दी। मगर रंगभेद औअर नस्लवाद पूरी तरह कायम था। कानून बना कर सामाजिक बुराइयों को रोकना आसान नहीं है। लोगों के नजरिए का बदलना प्रमुख बात है। अधिकाँश अमेरिकी लोगों, खासकर अमेरिका के दक्षिण के श्वेत लोगों का नजरिया अश्वेतों के प्रति ज्यों-का-त्यों बना हुआ था। अगर अमेरिकी इतिहास पर दृष्टि डालें तो हम पाते हैं कि इस काल में ‘द अण्डरग्राउंड रेलरोड’ की सहायता से करीब १,००० गुलाम प्रति वर्ष दक्षिण अमेरिका से उत्तर अमेरिका की ओर पलायन कर रहे थे। इनमें से बहुत सारे पुन: पकड़ लिए जाते, बहुत सारे रास्ते में भूख, सर्दी, बीमारी से नष्ट हो जाते, कुछ थोड़े से स्वतंत्र जीवन का स्वाद चखने के लिए उत्तर पहुँच पाते। गुलामी प्रथा के विरोधी गुलामों की स्वतंत्रता को लेकर बँटे हुए थे। कुछ लोग शांतिपूर्ण आंदोलन चाहते, थे बाकी लोग सशस्त्र आंदोलन के पक्ष में थे। हैरिएट बीचर स्टोव दासों की स्थिति दिखाने वाला अपना प्रसिद्ध काम ‘अंकल टॉम्स केबिन’ प्रकाशित कर चुकी थीं। श्वेत होते हुए भी उन्होंने अश्वेत गुलामों के जीवन का मार्मिक चित्रण किया था। १८६० में अब्राहम लिंकन के राष्ट्रपति चुनाव में जीतने से और सशस्त्र विद्रोह से दक्षिण के श्वेत गुलाम मालिकों को पता चल चुका था कि अब वे और उनकी गुलाम प्रथा पहले की तरह सुरक्षित नहीं है। पहली जनवरी १८६३ की लिंकन की ‘मुक्ति घोषणा’ से करीब तीन मिलियन लोग स्वतंत्र हो गए थे। दक्षिण के लाखों गुलाम अमेरिकी सेना में भरती हो कर गुलामी से छूट रहे थे। फ़िर भी दक्षिण में गुलामों की खाल उधेड़ने का काम बदस्तूर चल रहा था। सेथे की कहानी गुलामी से भाग निकली जिस वास्तविक स्त्री मार्गरेट गारनर पर आधारित है उसे १८५० में लागू काले एक्ट, ‘फ़्यूजिटिव स्लेव एक्ट’ के तहत दोबारा उसका मालिक पकड़ कर ले गया था।
ऐसे नारकीय जीवन के बीच बाइबिल की कथाओं, अश्वेत लोकगीतों, मिथकों को कथा में समायोजन कर टोनी मॉरीसन लड़ाई-झगड़े, परिवार, उत्तरदायित्व की कथाएँ बुनती हैं और प्रेम एवं आशा का संदेश देती हैं। उनका इथोज, नजरिया निराशा का न होकर आशा का है। टोनी मॉरीसन गुलाम मातृत्व की जटिलता को इस उपन्यास में विस्तार से दिखाती हैं। नायिका का नाम सेथे बाइबिल के सेथ से मिलता-जुलता है। सेथ एडम और ईव का वह बच्चा है जो उनके पहले बच्चे एबेल का स्थान लेता है। एबेल को केन ने मार डाला था। ईडन का प्रतीक ‘स्वीट होम’ स्कूलटीचर के आने से दूषित हो गया है। स्कूलटीचर अपने साथ ज्ञान – लिखने-पढ़ने की सामग्री लिए चलता है। ‘स्वीट होम’ के दूषित होते ही एक-एक कर सब वहाँ से चले जाते हैं। पॉल डी, सेथे, तीनों बच्चे सब वहाँ से बच निकलते हैं और स्वतंत्रता का स्वाद पाते हैं। उनको इसकी कीमत चुकानी होती है, वे यह कीमत चुकाते हैं। बाकी सब नष्ट हो जाते हैं। सिक्सो जिंदा जला दिया जाता है। उम्मीद है कि पॉल ए तथा हाले जीवित हैं। दास प्रथा मनुष्य के साथ क्या करती है इसका एक उदाहरण बेबी शुग्स है। यह बेबी शुग्स की जिजीविषा है जो उसे बचाए रखती है वरना गुलामी ने उसके पैर, पीठ, सिर, आँखें, हाथ, किडनी, गर्भाशय, जीभ सब नष्ट कर दिया था। वह अपने हृदय के बल पर जीती है और दूसरों को भी यही उपदेश देती है कि अपने हृदय के लिए जीओ।
गुलामी की क्रूरता व्यक्ति से उसकी संवेदनशीलता छीन लेती है। वह अनुभव करने में असमर्थ हो जाता है। जब फ़िर से जीवन में कोमलता-प्रेम मिलता है तब भी व्यक्ति को उसकी अनुभूति नहीं होती है। पॉल डी को देखकर सेथे को स्कूलटीचर के भतीजों का अत्याचार याद आता है, वह एक लम्बे समय से पुरुष स्पर्श से वंचित है। पॉल डी जब उसे स्पर्श करता है, उसकी पीठ पर कोड़ों की मार से बने चोकचेरी पेड़ को चूमता है तो सेथे को कोई संवेदना नहीं होती है। बरसों से उसकी पीठ की त्वचा मर चुकी थी। पॉल डी के आने पर सेथे अतीत में उतरना शुरु करती है। पॉल डी उसके साथ ‘स्वीट होम’ में था। वे दोनों सह जीवन के भागीदार थे। अत: उसके आने पर वे लोग अपने पिछले जीवन की बातें करते हैं। सेथे पॉल डी को भी सारी बातें नहीं बताती है। बता नहीं पाती है। अतीत टु कड़ों-टुकड़ों में पाठक के सामने खुलता है।
यह एक निर्विवादित सत्य है कि मनुष्य के विकास में, उसके आत्मनिर्भर बनने में, उसके स्वतंत्र होने में अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखने में शिक्षा का महत्वपूर्ण हाथ होता है। सत्ताधारी अपनी सत्ता की रक्षा के लिए जन को अनपढ़ बनाए रखना चाहते हैं। गुलामों के मालिक नहीं चाहते थे कि उनके गुलाम लिखना-पढ़ना सीखें। इसलिए बहुत दिनों तक अफ़्रो-अमेरिकन गुलामों के पास केवल वाचिक परम्परा थी। इन जीवन विरोधी स्थितियों में भी कुछ गुलामों ने लिखना पढ़ना सीखा। लिख पढ़ कर अपनी कहानी लिखी। अपनी बात को दुनिया के और लोगों तक पहुँचाया। फ़्रेडरिक डगलस एक ऐसा ही व्यक्ति था जिसने गुलामी के दौरान खुद को शिक्षित किया और फ़िर अपनी कहानी लिख कर दुनिया तक पहुँचाई। एकाध नरम दिल मालिक की कृपा से किसी गुलाम का पढ़-लिख जाना एक अपवाद की तरह था। अश्वेत गुलामों के बच्चों के लिए शिक्षा की संस्थागत कोई व्यवस्था न थी। वाशिंगटन में अश्वेत बच्चों के लिए पहला स्कूल १८०७ में खुला था। दक्षिण में इनकी शिक्षा की कोई व्यवस्था न थी। उत्तर में भी श्वेत-अश्वेत का भेदभाव शिक्षा में बहुत काल तक बना रहा। खुद मॉरीसन अश्वेतों के विशेष कॉलेज हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय गई, यह १९४९ का काल था। एक साक्षात्कार में वे बताती है कि उनके लिए शिक्षा का क्या अर्थ है। उनके अनुसार शिक्षित होने का अर्थ मुद्रित सामग्री को पढ़ पाना, उसके शब्दों का अर्थ समझ पाना है। मगर शिक्षा का अर्थ मुद्रित सामग्री का पढ़ पाना ही नहीं है। शिक्षा का अर्थ विस्फ़ोटक है, यह विस्फ़ोटक कानून के विरुद्ध नहीं कानूनन सही, कानून के भीतर विस्फ़ोटक है। शिक्षा का अर्थ मुद्रित और गैर मुद्रित अर्थात संकेतों, स्वादों, ध्वनियों, स्पर्शों, सूंघने की संवेदना जाग्रत करना है। यह अशिक्षितों के लिए जरूरी है साथ ही शिक्षितों के लिए भी आवश्यक है। कई बार शिक्षित लोगों के लिए भी लिखा हुआ पढ़ना संभव नहीं होता है, जैसा कि खुद टोनी मॉरीसन के साथ ब्राजील में हुआ। वे वहाँ की भाषा और लिपि नहीं जानती थी। उनके लिए शिक्षा का अर्थ मनुष्य का संवेदनशील होना है।
टोनी मॉरीसन अपने उपन्यास ‘बिलवड’ में शिक्षा को महत्वपूर्ण स्थान देती हैं। मिश्रित नस्ल की लेडी जोन्स स्कूल चलाती हैं। खुद उसकी शिक्षा पेनसिलवेनिया के अश्वेत लड़कियों के स्कूल में हुई थी। उसने अपने पाँचों बच्चों को पहले खुद अन्य बच्चों के संग पढ़ाया फ़िर आगे पढ़ने के लिए विल्बरफ़ोर्स भेजा। अपने पार्लर में वह स्कूल चलाती जिसमें वे बच्चे आते जो अभी काम करने के लायक बड़े नहीं हुए थे। काम करने लायक होने से पहले अश्वेत बच्चे मिट्टी में लोटते-खेलते रहते। इन्हीं बच्चों को पढ़ा कर वह अपनी शिक्षा का ऋण अदा कर रही थी। मॉरीसन एक तरह से कटाक्ष करती हैं कि सिनसिनाटी में अश्वेतों के दो कब्रिस्तान और छ: चर्च थे पर न तो एक स्कूल था न ही एक भी अस्पताल था। वे घर में ही जो सीखना होता सीखते और घर में ही बीमार पड़ कर अथवा ऐसे ही उम्र होने पर मर जाते। ऐसे वातावरण में लेडी जोन्स एक नियामत थी जो इन बच्चों को प्यार करती थी और शिक्षा देती थी। इसी के यहाँ बचपन में डेनवर पढ़ने जाती थी। जल्द ही समाज से काट दिए जाने के कारण उसका जाना रुक गया था। यहीं बाद में फ़िर वह सबसे पहले जाती है। यहीं से शिक्षा पा कर उसमें दुनिया का सामना करने का आत्मविश्वास पैदा होता है। मॉरीसन दूसरी ओर यह भी दिखाती हैं कि स्कूलटीचर के नाम पर ऐसे लोग भी होते हैं जो मनुष्यता के नाम पर कलंक हैं।
टोनी मॉरीसन अश्वेत कला के लिए पूर्वजों की उपस्थिति को प्रमुखता देती हैं। उनके लिए पूर्वज समयातीत लोग हैं जिनका कथा के पात्रों से मासूम संबंध बना रहता है। वे निर्देश देते हैं, सुरक्षा करते हैं और खास तरह का ज्ञान प्रदान करते हैं। उनके लेखन में एक प्रमुख पूर्वज पात्र ‘सॉन्ग ऑफ़ सोलोमन’ की पिलैट है। यह होशियार हीलर दूसरों को प्रेम करने वाली है। वह अपने परिवार से गहरा लगाव और संबंध रखती है और सामाजिक मान्यताओं के लिए उसके मन में खास सम्मान नहीं है। उसका अपने मृत पिता से निकट का संबंध है। वह लोककार्यों, रीति-रिवाजों की जानकार है, वह उन पर बल देती है। ‘बिलवड’ में सेथे निरंतर अपनी सास के संपर्क में है। उसकी कही बातों को सदैव याद करती है। मॉरीसन का मानना है कि अफ़्रो-अमेरिकन उपन्यास में अफ़्रीकी जीवन, रीति-रिवाज, तौर-तरीके, मूल्य आने ही चाहिए। इन्हीं मूल्यों, विश्वासों ने इस समुदाय के लोगों को अमानवीय दमन की भयंकर परिस्थितियों में जिलाए रखा। शोषण के बावजूद उनकी जिजीविषा को कायम रखा।
अश्वेत कलाओं का आंदोलन (ब्लैक आर्ट्स मूवमेंट) अफ़्रो-अमेरिकन जीवन को ताकत देने के लिए चलाया गया था मगर इस आंदोलन में पुरुषों का वर्चस्व था। यह पुरुषों से जुड़े मुद्दों संबंधित था। इसीलिए इस आंदोलन से टोनी मॉरीसन परेशान और खफ़ा थीं। यहाँ पुरुषों के बीच संघर्ष था। स्त्रियाँ और उनसे जुड़े मुद्दे की इन लोगों को परवाह नहीं थी। इन पुरुषों के लिए स्त्रियों से जुड़े मुद्दे मुद्दे ही नहीं थे। अमीरी बराका, विलियम वेल्स ब्राउन (क्लोटेल या द प्रेसिडेंट्स डॉटर) जैसे लेखक पुरुषसत्ता के संकुचित घेरे में थे। ये लोग श्वेत समुदाय, श्वेत पाठकों के लिए लिख रहे थे। अश्वेत पाठक, खासकार अश्वेत स्त्री पाठक स्वयं को इनके साहित्य में अनुपस्थित पाता। रैल्फ़ एलीसन के उपन्यास पर टोनी मॉरीसन प्रश्न करती हैं कि ‘इनविजिबल मैन’ किसके लिए अदृश्य है? यह अश्वेत व्यक्ति श्वेत लोगों के लिए अदृश्य है, अश्वेतों के लिए नहीं। इस लेखन में अश्वेत समुदाय, उसकी आंतरिक समस्याएँ नदारद हैं। टोनी मॉरीसन, एलिस वॉकर, टोनी कैड बाम्बारा, लूसील क्लिफ़्टन, जून जोर्डन ने स्त्री से जुड़े मुद्दों को बाद में अपने साहित्य में उठाया। इन लेखिकाओं ने यह काम बीसवीं सदी के उत्तर्राद्ध में किया। इनके लेखन के विषय और शैलियाँ अश्वेत पुरुष रचनाकारों से भिन्न थीं फ़िर भी इन लोगों ने अपने तरीके से दमनकारी सामाजिक सिस्टम जैसे नस्लवाद, लिंगवद और वर्गवाद जैसे मुद्दे साहित्य में उकेरे। इन रचनाकारों के साथ बौद्धिक और सामाजिक कार्यकर्ता स्त्रियाँ और बाद में कुछ पुरुष भी जुड़े। इसका नतीजा हुआ सामाजिक परिवर्तन, स्त्री-पुरुष के संबंधों में निकटता, अश्वेत अस्मिता, आत्मसम्मान, आत्मनिर्भरता का उदय। टोनी मॉरीसन का साहित्य इसका एक प्रमुख उदाहरण है।
टोनी मॉरीसन ‘बिलवड’ उपन्यास में एमी डेनवर को लाकर दिखाना चाहती हैं कि श्वेत-अश्वेत का साझा जीवन संभव है। खासकर दोनों समुदाय की स्त्रियों का साझा जीवन संभव है। एमी डेनवर सेथे की उसके कठिन समय में, प्रसव में सहायता करती है, नवजात शिशु को अपने कपड़ों में लपेटती है। यह संकेत है भविष्य में श्वेत लोगों द्वारा अश्वेतों पर हुए अत्याचार के मोचन का। बाद में सेथे अपनी बेटी डेनवर के जन्म की बात पॉल डी को बताती है, वह बताती है कि एमी डेनवर ने मेरी सहायता की। इस पर पॉल डी कहता है कि ऐसा करके उसने अपनी सहायता की है। एमी डेनवर सेथे के साथ परिवार की भूमिका निभाती है, वह नवजात को अपना नाम देती है। सेथे की इस बेटी का नाम डेनवर है। डेनवर आगे चल कर एक स्वावलंबी, स्वाभिमानी युवति के रूप में विकसित होती है। डेनवर का घर से बाहर निकल कर शिक्षा और काम प्राप्त करके आत्मनिर्भर होना इस उपन्यास को सकारात्मकता प्रदान करता है। वह कड़ी है अश्वेत-श्वेत के बीच की। वह शुभाकांक्षा है मनुष्यता के भविष्य की।
अश्वेत लोग श्वेत लोगों पर विश्वास नहीं करते थे। उनका अनुभव इसका प्रत्यक्ष कारण है। मगर श्वेत लोग भी अश्वेत लोगों पर विश्वास नहीं करते थे उनसे भयभीत रहते थे। हर दमनकारी भीतर से डरा रहता है। उसे सदैव लगता रहता है कि जिनका वह शोषण कर रहा है वे कभी भी उस पर आक्रमण कर सकते हैं। ‘बिलवड’ में टोनी मॉरीसन कहती हैं कि श्वेत लोग मानते थे कि हर काली चमड़ी के नीचे एक भयानक जंगल है, मतलब कि ये बहुत खतरनाक लोग हैं। मगर ये जंगल अश्वेत लोग अपने साथ लेकर नहीं आए थे। वे इसे अफ़्रीका से अपने साथ नहीं लाए थे। यह जंगल उनके भीतर श्वेत लोगों ने ही रोपा था। चीखता हुआ बबून श्वेत लोगों की चमड़ी के भीतर है, लाल मसूढ़े उनके ही हैं। श्वेत लोगों के दमन-शोषण और अत्याचार ने अश्वेतों को विद्रोह के लिए उकसाया, उन्हें श्वेत लोगों के खिलाफ़ उठ खड़े होने पर मजबूर किया।
कुछ श्वेत लोग भले ही अश्वेतों की सहायता करते हों, उनके साथ नरम-अच्छा व्यवहार करते हों। पर गुलामों के प्रति किए गए उनके क्रूर व्यवहार को कैसे भुलाया जा सकता है। जिन्होंने उस अमानुषता को भोगा है वे कैसे उन्हें माफ़ कर सकते हैं। अश्वेत बेबी शुग्स कहती है, श्वेत लोगों ने मुझसे सब छीन लिया, जो मेरे पास था, या जो स्वप्न मैंने देखा था। उन्होंने मेरा दिल तोड़ दिया। दुनिया में श्वेत लोगों से बढ़ कर कोई दुर्भाग्य नहीं है। इसी तरह सेथे बिलवड को अपने जघन्य कार्य की पीछे की अपनी मंशा स्पष्ट करती है, वह बताती है कि यदि वह अपनी बच्ची को न मार डालती तो इसकी पूरी-पूरी संभावना थी कि उसे गुलामी का जीवन और गुलामी के अत्याचार सहने पड़ते और वह यह कभी नहीं चाहती थी कि उसके बच्चे उसकी तरह का नारकीय जीवन बिताएँ।
ओप्रा विन्फ़्र ने ‘बिलवड’ पर अपने क्लब में विमर्श नहीं किया बल्कि इस पर फ़िल्म बनाने का निश्चय किया। खुद को उन्होंने प्रमुख भूमिका में तय किया और डैनी ग्लोवर को पॉल दी की भूमिका में रखा। ओप्रा ने टोनी के साथ मिलकर स्क्रिप्ट तैयार की और कई फ़िल्म निर्देशकों के पास भेजी। वे सेथ और गुलामी की कहानी वृहतर दर्शकों तक ले जाना चाहती थीं। अकादमी पुरस्कृत निर्देशक जोनाथन डेम ने इस पर फ़िल्म बनाने की हामी भरी। ओप्रा विन्फ़्रे की फ़िल्म कम्पनी ने इस फ़िल्म को प्रोड्यूस किया। दस साल के एक लम्बे समय के बाद फ़िल्म बन कर तैयार हुई। फ़िल्म की शूटिंग के समय एकाध बार टोनी मॉरीसन सेट पर गई फ़िर उन्हें लगा कि वहाँ उनका कोई खास काम नहीं है। उन्होंने निर्देशक और ओप्रा विन्फ़्रे पर सारा काम छोड़ दिया। ओप्रा विन्फ़्रे और डैनी ग्लोवर ने बहुत अच्छा काम किया है। स्पेशल इफ़ैक्ट कहानी को आधिकारिक बनाते हैं। पूरी फ़िल्म उपन्यास के प्रति ईमानदार है। अकोसुआ बुसिया, रिचर्ड लाग्रेवेंस, एडम ब्रुक्स तीन लोगों ने मिल कर फ़िल्म की कहानी लिखी। संगीतकार रेचल पोर्टमैन का काम फ़िल्म को विशिष्टता प्रदान करता है। मगर फ़िल्म को बॉक्सऑफ़िस पर पर्याप्त सफ़लता न मिली। फ़िल्म प्रदर्शन के पूर्व खूब पब्लिसिटी की गई थी। ‘टाइम’ तथा ‘वोग’ मैगज़ीन ने इसे अपनी कवर स्टोरी बनाया, ओप्रा विन्फ़्रे ने अपने टॉक शो में इसे चर्चित किया फ़िर भी परिणाम कुछ खास न निकला। समीक्षकों का कहना है कि विषय की जटिलता के कारण ऐसा हुआ। हालाँकि फ़िल्म बहुत अच्छी बनी है फ़िर भी चली नहीं। जो भी हो टोनी मॉरीसन ने इसकी अधिक परवाह नहीं की और अपने लेखन के काम में जुटी रहीं।
टोनी मॉरीसन के अनुसार एक लेखक का जीवन और कार्य मानवता के लिए उपहार नहीं है। वह मानवता की आवश्यकता हैं। ‘बिलवड’ उपन्यास के विषय में उनका कहना है कि यह किताब किसी एक व्यक्ति के बारे में न होकर हर पढ़ने वाले के बारे में है। भले ही इसकी मुख्य घटनाएँ बहुत पहले घटी हों, जो पहले हुआ और जो बाद में हुआ वह हमारे सबके जीवन का अंग है। क्योंकि स्मरण करना समझने का पहला सोपान है। यह किताब इस तरह से डिजाइन की गई है कि यह पाठक को अमेरिकी जीवन के उस दौर में यात्रा पर ले जाती है जब जितनी घृणा थी उतना ही प्यार था, जितना क्रोध था उतनी ही आशा थी, जितने हीरो थे उतने ही कायर लोग भी थे।
टोनी मॉरीसन किसी वाद के तहत लिखना पसंद नहीं करती हैं, उनके अनुसार वाद व्यक्ति को संकुचित कर देता है। आदमी के दृष्टिकोण को तंग बना देता है। यदि व्यक्ति रचनाकार हुआ तो उसकी रचनाएँ उस खास वाद का नारा बन कर रह जाती हैं। वे किसी वाद में विश्वास नहीं करती हैं, विशेष रूप से खुद को नारीवादी तो बिल्कुल नहीं मानती हैं। उनके न चाहने के बावजूद उनके उपन्यास ‘पैराडाइज’ पर नारीवादी उपन्यास होने की मोहर लगी। मॉरीसन ने इस ठप्पे का जोरशोर से खंडन किया। उस समय एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि वे किसी वाद के तहत कभी नहीं लिखेंगी। वाद बाँधते हैं और वे स्वतंत्र होना चाहतीं हैं, स्वतंत्र रहना चाहती हैं। वे विस्तार के लिए लिखती हैं, बंधन के लिए नहीं। अक्सर वे खोलने के लिए, चिंतन-मनन को उकसाने के लिए लिखती हैं। इसीलिए उनके उपन्यासों का अंत खुला होता है। पाठक अपनी कल्पना से, अपनी बुद्धि से उसे विस्तार देने को स्वतंत्र होता है। अंत में वे सोच-समझ कर पाठकों के लिए थोड़ी-सी गुंजाइश छोड़ती हैं। ‘बिलवड’ का अंत भी खुला है, बहुत स्पष्ट रूप से इसे समाप्त नहीं किया गया है। क्या सेथे जीवित और स्वस्थ मानसिकता के साथ बची रहेगी? क्या उसके दोनों बेटे जिंदा हैं? तमाम बातें पाठक के लिए छोड़ दी गई हैं।
वे खुद को ‘काव्यात्मक लेखक’ कहा जाना भी नापसंद करती हैं। उनको लगता है कि जो लोग उन्हें काव्यात्मक लेखक मानते हैं वे उनकी प्रतिभा को कम करके आँकते हैं। उनकी कहानियों की शक्ति और उसकी प्रतिध्वनि को पूरी तरह समझते नहीं हैं, ठीक से मूल्यांकित नहीं करते हैं। अपने लेखन की लोकप्रियता और आलोचनात्मक प्रशंसा के कारण आज वे उस मुकाम पर हैं जहाँ वे चुनाव कर सकती हैं। वे चुन सकती हैं कि किस प्रशंसा को स्वीकारे और किसे नकारे। वे खुद पर बनाए सारे श्रेणीगत विभाजन को नहीं नकारती हैं। उन्हें खुद को ‘ब्लैक वूमन राइटर’ कहे जाने से कोई एतराज नहीं है। वे खुद भी अपने लिए इस विशेषण का प्रयोग करती हैं। कुछ आलोचक उन्हें अश्वेत चेतना का डी एच लॉरेंस कहते हैं। उनकी भाषा की प्रशंसा करते हुए नोबेल अकादमी ने अपनी अनुशंसा में मॉरीसन को ‘प्रथम श्रेणी की साहित्यिक कलाकार’ की संज्ञा दी है। समिति ने उन्हें भाषा में प्रवेश करने वाली, भाषा को नस्ल की जंजीरों से स्वतंत्र कराने वाली तथा काव्य द्युति से संबोधित करने वाली कहा है। ‘बिलवड’ उनका ऐसा कार्य है जिसे २००६ में अमेरिका के साहित्य के पिछले पच्चीस वर्षों में सर्वोतम रचना के रूप में प्रतिष्ठा मिली।
टोनी मॉरीसन अपने विशिष्ट उपन्यासों के लिए जानी जाती हैं, उपन्यास लिखने के अलावा उन्होंने बहुत सारे दूसरे काम किए हैं। उनका आलोचनात्मक और कलात्मक क्षेत्र में अप्रतिम योगदान है। उनका कार्य अश्वेत लोगों के जीवन से जुड़ा है, फ़िर भी निराशा नहीं, आह्लाद उत्पन्न करता है। उन्होंने एडीटर का काम करते हुए तमाम अफ़्रो-अमेरिकन रचनाकारों का काम प्रकाशित कराने में सहायता की। ओप्रा विन्फ़्रे के बुक क्लब के द्वारा बहुत सारे अफ़्रो-अमेरिकन लेखकों के काम को प्रचारित-प्रसारित किया। राष्ट्रीय स्तर पर नस्ल और शोषण के मुद्दों पर चल रहे विमर्श में सक्रिय भागीदारी की। अपनी सम्मानित बौद्धिक स्थिति से उन्होंने राष्ट्रीय पहचान में अफ़्रो-अमेरिकन की उपस्थिति दर्ज करवाई। अकादमिक और सामाजिक, कला और राजनीति, सैद्धान्तिकी और दैन्नदिन के जीवन को निकट लाने, उनके समायोजन का काम भी किया। उनका प्रभाव बहुत असरदार है, उनके नाम पर बिना लाभ वाली एक ‘टोनी मॉरीसन सोसाइटी’ है। यह सोसाइटी उन पर काम करने वाले स्कॉलर और उनके पाठकों ने मिल कर बनाई है। उनके ‘बिलवड’ लिखने का एक कारण यह भी क्योंकि अमेरिका में दासता का कोई स्मारक नहीं था। सड़क के किनारे कोई बेंच ऐसी नहीं थी जिस पर इन दमित-दु:खी लोगों, दासता की क्रूरता से मरने वाले लोगों का उल्लेख हो। कहीं ऐसे लोगों का कोई चिह्न नहीं है, जो उनकी याद दिलाता हो। कोई ऐसा स्थान नहीं है, जो उनके संघर्ष, उनके दु:ख-दर्द-दमन को प्रदर्शित करता हो, जो बताता हो कि कितने इस राह से चले, कितने रास्ते में समाप्त हो गए, कितने अंत तक पहुँच सके। यह उपन्यास खुद तो दासता का स्मारक है ही, ‘टोनी मॉरीसन सोसाइटी’ ने समुद्र तट पर भौतिक रूप से बैंच बनवाई हैं। जहाँ राहगीर बैठ कर सुस्ता सकें। अमेरिका में गगनस्पर्शी इमारतें हैं, मगर कोई स्मारक, कोई पट्ट, कोई दीवाल, कोई पार्क, कोई लॉबी इन दमित-शोषितों के नाम पर कहीं नहीं है। कोई तीन सौ फ़ुट का टॉवर नहीं है इसलिए उन्होंने यह किताब लिखी और उनके नाम पर चलने वाली संस्था ने २००८ में ‘बेंच बाई द रोड’ बनवाई। यह दक्षिण कैरोलीना तट पर बनी और इसके उद्घाटन के लिए स्वयं टोनी मॉरीसन इस पर बैठीं। इस छ: फ़ीट लम्बी, छब्बीस इंच गहरी काले स्टील की बेंच सोसाइटी ने नेशनल पार्क सर्विस के सहयोग से बनवा कर लगाई। इस स्थान के चुनाव करने का विशिष्ट कारण है। जब अफ़्रीका के लोग गुलाम बना कर अमेरिका लाए जाते थे करीब ४०% लोग इसी स्थान से अमेरिका में दाखिल होते थे। यही वह प्रमुख सलीवान टापू था, गुलामों को अमेरिका में प्रवेश कराने का। सलीवान टापू की बेंच पहली थी, सोसाइटी इस तरह की दस और बेंच उन स्थानों पर लगाने वाली है जो अफ़्रो-अमेरिकन इतिहास में प्रमुख स्थान हैं। इनमें हारलम का फ़िफ़्थ एवेन्यू, मिसीसिपी में एमेट टिल का हत्या स्थान, अंडरग्राउंड रेलरोड की निशानी के तौर पर के ओबेर्लिन, ओहाओ में मॉरीसन के घर के निकट लोरैन चुने गए हैं। इन लोगों ने एक बैंच वॉशींगटन विश्वविद्यालय में भी प्रदान की है।
वॉशिंगटन डी सी के वॉशिंगटन विश्वविद्यालय में पहले अश्वेत छात्रों का प्रवेश नहीं था, यह वर्जना बाद में टूटी, इस उपलक्ष्य में सोसाइटी ने एक बेंच वहाँ भी प्रतीक स्वरूप रखी है और इसके उद्घाटन अवसर पर टोनी मॉरीसन स्वयं वहाँ प्रमुख अतिथि और वक्ता थीं। उनका कहना है कि जीवितों के लिए ताली बजाना और मृतकों का आदर करना कभी भी किया जा सकता है, जो लोग मृतकों का सम्मान करते हैं उनकी प्रशंसा की  जानी चाहिए। मॉरीसन उस बैंच पर बैठीं जिसका उन्होंने स्वप्न देखा था। उन्होंने भाषा और अफ़्रो-अमेरिकन जीवन की प्रतिबद्धता के एवज में लिखा और इस तरह के प्रोजेक्ट को बढ़ावा दिया। बैंच उदाहरण और प्रतीक है मॉरीसन की लेखनशक्ति का और इस बात का कि कैसे उन्होंने अमेरिकी समाज और जीवन को प्रभावित किया है। ये बैंच केवल अश्वेतों के लिए ही नहीं हैं। ये बैंचें उनके उपन्यासों की भाँति सबके लिए उपलब्ध हैं। ये अतीत, मनुष्य के जटिल स्वभाव, और उन कहानियों का प्रतीक है जो हमे चिंतन-मनन करने और सीखने का अवसर देता है।
टोनी मॉरीसन ने नौ उपन्यास, कई कहानियाँ, लेख, नाटक लिखे। एडीटर के रूप में कार्य किया। इसके अलावा उन्होंने टेक्सास सदर्न विश्वविद्यालय, हॉवर्ड विश्वविद्यालय, स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ़ न्यू यॉर्क, प्रिंसटन विश्वविद्यालय आदि विभिन्न विश्वविद्यालयों में शिक्षण कार्य किया। उन्होंने ओपेरा के लिए गीत-संगीत लिखा। २००९ में उन्होंने पी ई एन संस्था के लिए ‘बर्न दिस बुक: पी ई एन राइटर्स स्पीक आउट ऑन द पॉवर ऑफ़ द वर्ड’ का संपादन किया। उन्हें भाषण देने के लिए जगह-जगह से बुलावे मिलते हैं।
मॉरीसन का लेखन बताता है कि प्रकृति के प्रति मनुष्य की दो दृष्टि हो सकती है। एक है उसे समझने और उसका सम्मान करने की, दूसरी उसे वश में करने और अपने उद्देश्यों के लिए उसका शोषण करने की। पहली प्रवृत्ति दूसरे नजरिए से हर हाल में उत्तम है। प्रकृति के बिखराव में भी एक संतुलन है, प्रकृति को ज्यों-का-त्यों रहने देना चाहिए, उसे पालतू बनाने का, तोड़-मरोड़ कर सही करने प्रयास नहीं करना चाहिए। प्रकृति स्वयं में पवित्र और परिपूर्ण है, उसे छेड़ना नहीं चाहिए। इससे भी अधिक उनके सृजन में हमें यह दिखाई देता है कि अलग-अलग समुदाय द्वारा प्रकृति के प्रति विभिन्न दृष्टिकोण हैं। उनका लेखन दीखता है कि कई दबंग-बलशाली समुदाय इस दृष्टिकोण के तहत प्रकृति और मनुष्य को दमित कर अपना गुलाम बनाना चाहते हैं। वे प्राकृतिक दुनिया के प्रति सांस्कृतिक नजरिए के संघर्ष को निरंतर अपने लेखन में दिखाती हैं और इस बात पर बल देती हैं कि प्रकृति के प्रति नजरिया सांस्कृतिक प्रभाव का प्रतिफ़ल है, व्यक्ति का प्राकृतिक-स्वभावगत सत्य ऐसा नहीं है।
‘बिलवड’ नस्ल के एकाकीपन को दिखाता है। अफ़्रो-अमेरिकन अन्य लोगों से घुलमिल नहीं सकते थे। डेनवर जिंदगी में अकेली है, १२४ ब्लूस्टोन पूरे समाज से कटा हुआ है। विलवड जन्म के समय से ही समाज से कट जाती है, उसके चलते सेथे का पूरा परिवार दुनिया से कट जाता है। पॉल डी बरसों बरस अकेला भटकता है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है वह अकेला नहीं रहना चाहता है। समाज उसकी इस कमजोरी को जानता है और सामाजिक नियंत्रण के लिए समुदाय से बाहर करना सबसे बड़ी सजा है और इसकी धमकी इमोशनल ब्लैकमेल का साधन। ‘बिलवड’ में लोग अकेले नहीं रहना चाहते हैं। बेबी शुग्स अपने बेटे हाले के तीन बच्चों को रखती है। सेथे अपने बच्चों के साथ के लिए गर्भावस्था में अकेली निकल पड़ती है, रास्ते में तमाम कठिनाइयाँ झेलती हुई अपनी सास और बच्चों से मिलती है। पॉल डी का भटकना सेथे से मिलने के बाद रुकता है। वह डेनवर और सेथे के साथ परिवार बनाता है। वे लोग कार्नीवाल में अपने समुदाय से हँसी-खुशी से जुड़ते हैं। डेनवर पॉल डी को स्वीकार लेती है, बहुत प्रसन्न है। इसी समय बिलवड अपने एकाकीपन से घबरा कर १२४ ब्लूस्टोन में संग-साथ के लिए आती है। बिलवड पूरे परिवार को एक-दूसरे और दूसरों से दूर कर देती है। हॉवर्ड और बर्गलर उसके कारण घर छोड़ कर भागते हैं। बिलवड के आने से एक बार फ़िर पॉल डी परिवार से दूर कर दिया जाता है। मगर फ़िर वह लौट आता है। डेनवर अंतत: समुदाय से सहायता लेने जाती है और समुदाय से डेनवर और सेथे जुड़ती हैं। एकाकीपन व्यक्ति को तोड़ देता है यह व्यक्ति, परिवार, समुदाय और देश सबके लिए खतरा है। व्यक्तिवाद, लालच, हवस, स्वार्थ परिवार को तोड़ता है। ‘बिलवड’ उपन्यास के पात्र मिल कर रहना चाहते हैं। सामूहिक प्रयास से तोड़ने वाली शक्तियों को तोड़ा जा सकता है। पहले पॉल डी उस शक्ति की पहचान करके उसे अकेले भगाने का प्रयास करता है। इस प्रयास में वह सफ़ल रहता है। पर पूरी तरह से इस विघटन करने वाली शक्ति से लड़ नहीं पाता है। जब पूरा समाज जुड़ता है, चाहता है, तभी विनष्टकारी शक्ति से छुटकारा मिलता है। टोनी मॉरीसन अफ़्रीका की संस्कृति की एक विशेषता सामूहिकता को यहाँ प्रस्तुत करती हैं यह ‘बिलवड’ उपन्यास की एक थीम है। एक बार बिलवड चली जाती है तो उसे कोई याद नहीं करता है। जिन लोगों ने उससे बात की थी, उसके साथ रहे थे, उसके प्रेम में पड़ गए थे वे भी उसे याद नहीं करते हैं। वह अतीत का प्रतीक है, उसे छोड़ कर जीवन आगे बढ़ जाता है। आगे बढ़ने का ही नाम जिंदगी है। रचनाकार अश्वेत लोगों की मुक्ति का उपाय सुझाती है।
टोनी मॉरीसन कहती हैं कि वे ग्रामीण साहित्य लिखती हैं, जो ग्रामीणों के लिए है, उनके कबीले के लिए है। अपने लोगों के लिए वे इस साहित्य का होना आवश्यक मानती हैं, उनके अनुसार यह न्यायसंगत है। उनका साहित्य इस बात का गवाह है और सुझाव देता है कि कैसे कानून उनके लोगों को समाप्त कर रहा था, निगलता जा रहा था। जिन लोगों ने कानून तोड़ा वे लोग बच निकले, उनमें से कुछ अंत तक अपने लक्ष्य तक पहुँचे। कुछ रास्ते में समाप्त हो गए। वे दिखाती हैं कि ये लोग किन परिस्थितियों में रहते थे, क्यों ऐसे रहते थे। इस समुदाय के भीतर कानूनन क्या सही था और इस समुदाय के बाहर का कानून कैसा था। वे अफ़्रो-अमेरिकन साहित्य को अमेरिकी राष्ट्रीय साहित्य का अनिवार्य अंग मानती हैं। उनके अनुसार अमेरिकी साहित्य और पहचान के केंद्र में नस्लगत विभिन्नता है।


विजय शर्मा



शुरु में लोग टोनी मॉरीसन से अपेक्षा कर रहे थे कि वे अश्वेत चरित्रों को वैसा दिखाएँगी जैसा वे देखना चाहते हैं, यानि असहाय, अनपढ़, असमर्थ। लोग चाहते थे कि वे पोलिटिकली करैक्ट उपन्यास लिखें। उनके अनुसार ‘बिलवड’ राजनैतिक उपन्यास नहीं है, यह गुलामी प्रथा को दिखाने वाला उपन्यास भी नहीं है। यह तो मानवता और अमानवीयता को दिखाने वाला कार्य है। यह उपन्यास टोनी मॉरीसन ने साठ मिलियन  और उससे ज्यादा लोगों को समर्पित किया है। इस उपन्यास की प्रशंसा में पत्र-पत्रिकाओं के पन्ने रंगे हुए हैं। इस पर तमाम शोध हुए हैं, बहुत सारी किताबें लिखी गई हैं। टोनी मॉरीसन के काम पर बहुत काम हुआ है सबसे ज्यादा इसी उपन्यास पर काम उपलब्ध है। उन्होंने कभी आलोचकों की परवाह नहीं, वे सदैव अपनी संवेदना के प्रति ईमानदार रहीं। उन्होंने लेखन की चुनौतियों को स्वीकारा, अपने भीतर उठने वाले प्रश्नों का उत्तर अपने तरीके से पाना चाहा, अपने ढ़ंग से दिया। सबसे बड़ी बात है अपनी रूचियों के अनुसार लिखा। किसी आलोचक अथवा पाठक को खुश करने के लिए लेखन नहीं किया। आजकल वे जानना चाह रही हैं कि गुलामों के मालिक का व्यक्तित्व कैसा होता था। इसके लिए वे इनमें से कुछ मालिकों की डायरी का अध्ययन कर रही हैं। जिसमें रोजमर्रा का जिंस का, काम-धंधे का हिसाब-किताब है ऐसी डायरी नहीं हैं ये। इन डायरियों में दास मालिकों ने खुद को खोला है, अपनी भावनाओं को, अपनी संवेदनाओं को अभिव्यक्त किया है। इस अध्ययन से उन्हें ज्ञात हो रहा है कि गुलामी का, दूसरे मनुष्यों पर क्रूरता-अत्याचार करने वाले लोगों पर इसका क्या प्रभाव होता था। जब आप दूसरों को नष्ट कर रहे होते हैं आप खुद भी कहीं नष्ट हो रहे होते हैं। खुद भी कहीं अपना अपमान कर रहे होते हैं। जिस पर आप अत्याचार कर रहे हैं वे मनुष्य हैं, जानवर नहीं। डायरियाँ बताती हैं कि ये लोग क्रूरता करते थे पर ये सारे लोग क्रूर मनुष्य नहीं थे। आशा है शीघ्र हमें टोनी मॉरीसन से दास मालिकों के ईमानदार विचारों का पता चलेगा। वे जो भी लिखती हैं खूब शोध-अध्ययन करके प्रतिबद्धता और ईमानदारी के साथ लिखती हैं। इसी ईमानदारी, इसी प्रतिबद्धता, इसी धोध-अध्ययन का नतीजा है कि आज वे विश्व भर में समादृत हैं, अमेरिका में साहित्यकारों के बीच मातामही के रूप में आदर पाती हैं।
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