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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

31 मार्च, 2019


कभी-कभार सात


हार्लेम पुनर्जागरण की सांस्कृतिक नायिकाएं

विपिन चौधरी

एलिस मूर डनबर-नेल्सन (1875-1935)

एलिस डनबर-नेल्सन का नाम पुनर्जागरण की पीढ़ी के अश्वेत कवयित्रियों की संरक्षक कवियत्रियों के रूप  में लिया जाता है. गृहयुद्ध के पश्चात दक्षिण में जन्म लेने वाली पहली पीढ़ी के बीच, एलिस हार्लेम पुनर्जागरण के कलात्मक उत्कर्ष में शामिल प्रमुख अफ्रीकी अमेरिकियों कवयित्रियों  में से एक थीं.

एलिस डनबर-नेल्सन

उन्होंने अफ़्रीकी समाज में व्याप्त  उत्पीड़न के कई रूपों को अपनी राजनीतिक सक्रियता में समाहित किया: कविताओं के अलावा  कथा-लेखन और पत्रकारिता के अलावा उन्होंने महिलाओं के मताधिकार, शांति-संगठनों और एंटी-लिंचिंग अभियानों में योगदान दिया।

संयुक्त राज्य अमेरिका के नीग्रो किसानों से

ईश्वर  अपने पसंदीदा लोग
जिनकी पीठ  झुकी हुई है पृथ्वी की तरफ
की आत्माओं और हृदयों को  करता है साफ़
उनपर आरोपित की गई अनिच्छा  जो चुका रही है  बदला कठिन परिश्रम  से
शांत तौर-तरीकों और सही बिनाई से
परमेश्वर की रख दी है तुम्हारे हाथों में दी है
मीठी मेहनत
विफलता के लिए तुम्हारा श्रेष्ठ उपहार
जीवन की कर्मठता  में नग्न-दांत की  भूख रुपी लोमड़ी की वास्ते
फिर भी सभी बहुत कम
तुम्हारी शानदार टोली
प्रकृति के हृदय से साफ कूदा हुआ
हजारों भूखों की उम्मीद, जिनके हृदय में
बसाती है डर कि होना चाहिए तुम्हे असफल
ईश्वर ने तुम्हारे हाथों में नहीं रखी युद्ध की कोई बर्छी
मगर एक शिखा में बंधे  हुए
आँसू, प्रशंसा, प्रेम, आनंद, को शुरू करने की शक्ति
प्रतापी, बहादुर तुम्हें पहनाने  को ताज

बैठ मैं कर रही हूँ सिलाई

बैठी मैं सिलाई कर रही हूँ, जान पड़ता है यह बेकार सा काम
मेरे हाथों में बढ़ रही है थकन, मेरा सिर सपनों के भार से थक गया है
युद्ध के आड़ में, पुरुषों की जंगी प्रवृति
निर्दयी- चेहरे, कड़ी- नज़रों, पहुंच से परे कमतर उन  आत्माओं पर टकटकी लगाना
जिनकी आँखों ने  देखी नहीं है मृत्यु
न ही सीखा है उन्होंने अपने जीवन को
बस एक सांस की तरह थामना
लेकिन - मेरे लिए अनिवार्य है बैठना और सिलाई करना

मैं आराम से करती हूँ सिलाई- कामनाओं से दुखता है मेरा हृदय
यह भयावह तमाशा, वह जमकर लगने वाली आग  बर्बाद हो चुके खेतों पर,
और  झटपटाती हुई विचित्र आग
एक दफा इंसान, मेरी आत्मा हाथ बढाती है  करुणा की  तरफ
रोती है करती है याचना, तड़पती है जाने के लिए
वहां नरक के उस प्रलय में जाने के लिए, शोक के उन इलाकों में
लेकिन-मुझे बैठना और सिलाई करना चाहिए

थोड़ी निरर्थक सी सीवन, बेकार सा यह पैबंद
मैं क्यों देखती हूँ सपने अपने घर के छप्पर नीचे
जब वे वहां रहते हैं  सीली मिट्टी और बारिश में
करुणापूर्वक रूप से बुलाते हुए मुझे, फुर्तीले और मारे गए लोग?
आपको मेरी ज़रूरत है, यीशु ! यह कोई गुलाबी  सपना  नहीं है
वह बुलाती है मुझे इशारे से- यह सुंदर निरर्थक सिलाई
यह मेरा गला दबाती है - भगवान, क्या मुझे बैठ कर सिलाई करने की जरुरत है

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एंजेलिना वेल्ड ग्रिमके  (1880-1958)



एंजेलिना वेल्ड ग्रिमके


एंजेलिना वेल्ड ग्रिमके का जन्म 27 फरवरी को बोस्टन में हुआ. हार्लेम पुनर्जागरण  पहली अश्वेत लेखिका थी जिनके नाटक का सार्वजनिक प्रदर्शन किया गया  था.  अपनी कविताओं में प्रकृति को वे प्रतीक के तौर पर प्रयोग करती थी. हार्लेम पुनः जागरण शुरू होने से पहले  ग्रिमके  की रचनाएँ प्रकाशित होती रही थी. उन्हें रचनात्मक जागरण के अग्रदूत के रूप में देखा गया. आने वाली पीढ़ियों के लिए वे एक रचनात्मक अग्रणी पथवाहक के रूप में वे सदा मौजूद रही. अपने समलैंगिक रुझान के चलते  उन्होंने इस विषय पर कई कविताएं लिखी।उस दौर में इस तरह की कामुकता की बात खुले तौर पर नहीं कि जाती थी क्योंकि इस तरह के संबंध स्वीकार्य नहीं थे. 'अप्रैल में'  शीर्षक इस कविता में  वक्ता का स्त्री-देह  के प्रति आसक्ति और होमोसेक्सुअल कामुकता  दर्शाने के लिए खिले हुए  फूलों के रूपक का सहारा लिया गया है.

अप्रैल में

ठेल दो अपने  समलैंगिक सिर
भूरी लड़की पेड़
उछाल दो अपने समलैंगिक प्यारे सिर
हिलाओ अपनी भूरी पतली देह
खींचों अपनी भूरी छरहरी देह को
फैला दो अपने भूरे दुर्बल पाँव
अपनी काली, गहरी देह के संग
हम से बेहतर कौन जानता है
इसका क्या अभिप्राय है
जब अप्रैल आता है एक हंसी और एक रुदन के साथ
एक बार फिर
हमारे हृदयों  में?

क्षणभंगुरता

नीले वसंत की शाम
तुम हो
एक पीले बैंगनी फूल की मानिंद

तुम पीले तारे से
उदीयमान  और  बहते हुए
खूबानी आकाश में

तुम आवाज़ की खूबसूरती
याद किया जाता है जिसे
मृत्यु -पश्चात

तुम
गिरते हुए
और
बहते हुए नीचे
सफ़ेद, सुन्न  बेज़ुबान मेरी  आत्मा पर

अँधेरा  और सूनापन

दिन से, एक पेड़  है वहाँ
कि रात को  है  उसकी परछाई
लंबी ऊंगलियां के साथ एक काला विशाल हाथ
लगातार अंधियारे में
श्वेत व्यक्ति के घर के विपरीत

हलकी चलती हवा में
काले हाथ तोड़ते और बीनते जाते हैं
ईंटों पर
ईंटों का रंग है लहू के रंग सा
और हैं वे बहुत छोटी
क्या यह काले हाथ हैं
या यह है एक छाया

*छोटा, गोल, एक सदाबहार शंकुधारी पेड़
०००

विपिन चौधरी


कभी-कभार की पिछली कड़ी नीचे लिंक पर पढ़िए


21 फ़रवरी, 2019 कभी-कभार छः पुनर्निर्माण काल (1865-1900) में एफ्रो-अमेरिकी स्त्री-कविता का परिदृश्य विपिन चौधरी संयुक्त राज्य अमेरिका में कई जातीय समूहों में से सबसे बड़े समूह में से एक अफ्रीकी अमेरिकी समुदाय पुनर्निर्माण युग 1863 से 1877 तक की अवधि के बाद, कई लेखकों ने अपनी मौखिक बोलियों को उनके साहित्य में विलय करके लेखन को विकसित करने की कोशिश की. इसी समय अफ्रीकी अमेरिकी गुलामों को आज़ादी मिली। वे शिक्षा का लाभ उठाने ;लगे और अपने नाम पर ज़मीन भी खरीद सकते थे. स्त्री कविता को भी कई नए आयाम मिले और सृजना का फलक और साफ़ और सुंदर हुआ जब एक साथ कई अश्वेत रचनाकारों ने अपनी कलम को पैना किया और अमेरिका के नस्लीय भेदभाव के खिलाफ लेखकीय एकता को साझा किया। शेष नीचे लिंक पर पढ़िए https://bizooka2009.blogspot.com/2019/02/1865-1900-1863-1877.html?m=1



युद्ध, युद्ध और सिर्फ युद्ध


इतिहास की महाभारत हो या आज की महाभारत, जनता न जगी तो जनता का विनाश सम्भव है

उदय चे

          महाभारत युद्ध शुरू होने की महक फिजाओ में गूंज रही है। शहरों से लेकर गांव और गांव के मोहल्लों में चर्चाओं का दौर जारी है। जहाँ भी दो लोग इकठ्ठा हो रहे है बस एक ही चर्चा
युद्ध, युद्ध और सिर्फ युद्ध
          पूरे वातावरण में एक डर का माहौल व्याप्त है। युद्ध होगा तो कौन जीतेगा, कौन हारेगा। किसको कितना नुकसान होगा, किसको कितना फायदा होगा। किसके खेमे में कौन धुरंदर है। गद्दी किसको मिलेगी। सारा गणित लगाया जा रहा है इसके अलावा भी बहुत सी चर्चाएं चल रही है।
कोई दुर्योधन को ठीक बता रहा है तो कोई युधिष्ठिर को,
गद्दी का असली वारिस कौन, दुर्योधन का अपमान से लेकर द्रोपती चीरहरण, जुआ, लाखशाह ग्रह, वनवास सब मुद्दों पर चर्चाये है। लोग बंटे हुए है खेमो में। चर्चाये दबी जुबान चल रही है क्योंकि लोकतंत्र थोड़े ही है जो आप खुल कर आवाज बुलंद करो।


उदय चे


          कुछ लोग इनसे अलग भी चर्चाये कर रहे है। वो दोनों खेमों  की आलोचना करते हुए बोल रहे है कि ये जो युद्ध होने वाला है ये सिर्फ सत्ता पर कब्जे के लिए होने वाला है। इसमें सबसे ज्यादा नुकशान पशुपालक, किसान, दस्तकार मतलब आम जनता का ही होगा। इनकी सत्ता की लालसा में जो मारे जायेगे वो आम लोग होंगे। ये लड़ाई कोई धर्म की लड़ाई नही है। ये लड़ाई गद्दी की लड़ाई हैं। दोनों खेमे ही लुटेरे है। इसलिए लड़ाई ही लड़नी है तो अपने लिए लड़े।
ऐसे लोगो की बाते अनसुनी की जा रही है। ऐसे लोगो को धर्मद्रोही, देश द्रोही की संज्ञा दी जा रही है। ऐसे लोगो को जेल में डाला जा रहा है या मरवाया जा रहा है।
          दोनों खेमो द्वारा गांव, कस्बो के मुखियाओं को अपनी तरफ करने के लिए मीटिंगे की जा रही है। राजशाही है तो जिधर मुखिया उधर वहां की जनता ये तो लाजमी है, फोन मत रखना अभी पिक्चर बाकी है।
          युद्ध के खर्चे के लिए किसानों का लगान बढ़ा दिया गया है। हथियार फैक्ट्रियों में जबरदस्ती नौजवानों की भर्तियां की जा रही है। युद्ध का उन्माद जोरों पर है। धर्म के धुरंधर, धार्मिक प्रवर्तक अपने-अपने खेमे के पक्ष में माहौल तैयार कर चुके है। प्रचार भोंपू जिनका काम तो था जनता को सच्चाई बताना लेकिन उन्होंने भी सत्ता की मलाई खाने के चक्कर में जनता से गद्दारी करते हुए जनता की आँखों पर काली पट्टी बांधने का काम किया।
अब वो दिन भी आ ही गया जिस दिन युद्ध होगा। आचार संहिता लग गयी। नियम कानून सुना दिए गए। दोनों खेमों की सेनाएं आमने-सामने आ डटीं है। सेनाओं में सैनिक जो कुछ दिन पहले किसान या मजदूर था लाल आँखे किये पुरे उत्साह में दुश्मन खेमें को हराने के लिए लालायित खड़े है। सेना में भी दोनों तरफ रिश्तेदार आमने-सामने है। किसी का जीजा इस तरफ है तो साला उस तरफ है, किसी का ससुर उस तरफ है तो दामाद इस तरफ है। लेकिन युद्ध का उन्माद जिसको धर्म की लड़ाई की संज्ञा दी गयी थी उसने सब रिश्ते नातो को ताक पर रख कर एक दूसरे की जान लेने के लिए लोगो को अँधा बनाकर आमने-सामने ला खड़ा किया है। युद्ध शुरू हो चूका है दोनों तरफ से लाशें गिर रही है। मरने वाले दोनों तरफ से आपसी रिश्तेदार है। चारो तरफ मातम पसरा हुआ है। महिलाएं विधवा हो रही है। किसी का बेटा मर रहा है तो किसी का बाप मर रहा है। चारो तरफ चिताएं जल रही है। लाशों को ढोने के लिए कंधे कम पड़ गए है। आँखों से आँशु सूख गए है। गांव मोहल्लों में सिर्फ महिलाएं और बुजर्ग बचे हुए है, मातम मनाने के लिए वो एक दूसरे के मर्गत में भी जा रहे है। मर्गत में बैठने, सात्वना देने इसके साथ ही उलाहना देने भी, कोई बोल रहा है कि मेरे बेटे को तो उसके जीजा ने, उसके फूफा ने या उसके साले ने मारा है। इस सब में सबसे पीड़ित है, वो है महिलाएं जिनके मरने वाले भी और मारने वाले भी दोनों ही परिवार से ही है।






          किसी के पति को उसके भाई ने ही मारा है तो किसी के भाई, भतीजे को पति ने मारा है। जो अपँग हुआ है वो इलाज के लिए कराह रहा है। युद्ध ने लोगो का सब कुछ छिन लिया है। लोगो की आँखों से युद्ध की काली पट्टी धीरे-धीरे खिसक रही है। उनको अब वो देश द्रोही, धर्म द्रोही याद आ रहे है। लेकिन अब पछताये क्या होत है, जब चिड़िया चुग गयी खेत।।।
          तीर कमान से निकल चुका था जो विनाश करके ही वापिस लौटेगा। विनाश हो चूका था। जिधर देखो उधर विधवा, उधर लाशें, उधर अपँग
          जीतने वालो को गद्दी मिल गयी। गद्दी पर बैठते ही शासक ने जनता पर नए-नए कर थोप दिए। नये-नये जनता विरोधी फरमान जारी कर दिए गए।
          महाभारत से लेकर आज तक कितने ही युद्ध हुए है। उन्होंने सिर्फ विनाश ही किया। लेकिन एक भी युद्ध जनता के लिए नही लड़ा गया। युद्ध अपनी लूट को जारी रखने या लूट तंत्र पर कब्जे के लिए लड़ा गया। जनता को प्रत्येक युद्ध ने विनाश के कगार पर ही पहुंचाया है।
          कासिम, गजनी, गोरी, बाबर, अकबर, सिंकदर, पृथ्वीराज, सुग्रीव, विभीषण, सांगा, महाराणा प्रताप, मान सिंह,  या अंग्रेज सबने युद्ध गद्दी के लिए किये। कोई धार्मिक चोला पहन कर आया तो कोई व्यापारी बन कर आया। लेकिन ध्ये सिर्फ एक, सत्ता पर कब्जा।
          समय बदला इस समय को बदलने में देश द्रोहियो, धर्म द्रोहियो का अहम रोल रहा, जनता भी कुछ जागरूक हुई की इन युद्ध में सबसे ज्यादा नुकसान हमारा और फायदा लुटेरे शासक का होता है।
          अब नए समय में नया कानून बना। कानून कहता की सत्ता पर कब्जे के लिए तलवार की जरूरत नही होगी, सत्ता लूट के लिए नही बनी, सत्ता लुटेरो को लगाम लगाने के लिए होगी। सत्ता बहुमत मेहनतकश आवाम की रक्षा के लिए होगी। सत्ता हाशिये पर खड़े लाइन के आखिरी इंसान के लिए भी होगी। सत्ता सबकी होगी। सत्ता का चुनाव जनता करेगी। अब राजा आसमान से उतरकर नही आएगा,  राजा जनता के अंदर से ही होगा।
          जनता खुश हुई। वो खुशियां मना रही थी। वो फूल बरसा रही थी। अबकी बार फूलो की बारिस आसमान से नही जमीन से ही हो रही थी क्योंकि ये जनता की जीत थी, आसमानी लोगो की नही
अब न युद्ध होगा और न कोई अपनों को खोयेगा। अपनी है धरती अब अपना वतन है, अपनी है सत्ता अपना है चमन
          लेकिन आसमान से आने वालों और उनके समर्थक धार्मिक पर्वतको में बैचनी, विचलन चल रही थी। अब उनको भी खाना खाने के लिए मेहनत करनी पड़ेगी। उनको भी आम जनता की तरह आम जिंदगी व्यतीत करनी पड़ेगी। उनको भी पालकी की जगह जमीन पर चलना पड़ेगा। हल-फावड़ा चलाना पड़ेगा, मजदूरी करनी पड़ेगी। घोर कलयुग आ गया ऐसे शब्द इन आसमानी लोगो के मुंह से सुने जा रहे रहे। आँखों के आगे अँधेरा छा रहा था। लेकिन इसी अँधेरे में जाति, धर्म, अंधराष्ट्रवाद ने एक नई आशा जगाई, अँधेरे में एक नई रोशनी की किरण दिखी। बस लुटेरे को अपना चोला बदल कर आम आदमी वाला चोला पहनना था बाकि काम जाति, धर्म, अंधराष्ट्रवाद ने करना था।
          नई व्यवस्था पहले वाली से हजार गुणा बेहतर है लेकिन इसमें भी लुटेरा शासक अपनी जगह अप्रत्यक्ष तौर पर बनाये हुए है। उसने अब भी गद्दी के लिए समय-समय पर युद्ध करवाये, जातिय, धार्मिक दंगे करवाये। युद्ध का विरोध करने वाले अब भी देश द्रोही, धर्म द्रोही की संज्ञा से नवाजे गये। अब भी जेल से लेकर मौत तक उनका दमन जारी है।
          एक बार फिर 2019 में सत्ता के लिए युद्ध का शंखनाद हो चुका है। धर्म-जात के प्रवर्तक जनता की आँखों पर पट्टी बांधने के लिए मैदान में पहुंच चुके है। प्रचार भोंपू भी लुटेरी सत्ता के प्रति अपना फर्ज ईमानदारी से निभा रहे है। जनता की पट्टी का काला रंग और काला करने के लिए सैनिको का बलिदान दिया जा रहा है। दोनों ही खेमे इस युद्ध को भी धर्म की रक्षा, राष्ट्र की रक्षा की जीत का नाम देकर मैदान में आ डटे है। मन्दिरो में आरती- घन्टाल बजाये जा रहे है, मस्जिदों, गुरद्वारों में मत्थे टेके जा रहे है।






          “बुढ़ापे के कारण महाभारत में दादा भीष्म की और वर्तमान में अडवाणी की अवस्था नगण्य हो चुकी है। अब वो चला हुआ कारतूस के समान हो चूके है। जिस दादा भीष्म ने इस साम्राज्य को मजबूत खड़ा किया। आज वो तीरों की सन्यां पर लेटा हुआ अपने साम्राज्य के आखिरी दिन देख रहा है। अपनी ताकत का लोहा पुरे भारतवर्ष में मनवाया। उसकी आज हालात देखने लायक है। बुढ़ापा बैरी होता है सुना था, आज देखा भी जा रहा है। कोई आँशु भी पोछने नही आएगा ऐसा तो सपने में भी नही सोचा था। चलो छोड़ो इनको क्योकि जैसा बोयेगा वैसा ही काटेगा।”
हम जनता पर आते है -
          जनता भी खेमों में बंट कर मंदिर-मस्जिद, कश्मीर, भारत-पाकिस्तान पर उलझी हुई है। वो अपनी रोजमर्रा की जिंदगी की जरूरी मुलभुत समस्याओं को भूल गयी है।
उसको न शिक्षा चाहिए, न रोजगार और न इलाज चाहिए। उनको न पूरी मजदूरी चाहिए न पूरा फसल का दाम चाहिए और न ही रोटी-कपड़ा-मकान चाहिए।
उनको  युद्ध, युद्ध और सिर्फ युद्ध चाहिए।।।
युद्ध जब विनाश कर चुका होगा तब ये देश द्रोही, धर्म द्रोही की संज्ञा से नवाजे हुए मुसाफिर याद आएंगे।


उदय चे का एक लेख और नीचे लिंक पर पढ़िए


https://bizooka2009.blogspot.com/2019/03/2019-5-5-2014.html?m=1


परख चौवालीस

कतरा-कतरा पिघलता है दिन!
गणेश गनी

हमारे समाज की यह भी कितनी बड़ी विडम्बना है कि सामाजिक बन्धनों, पारिवारिक जिम्मेदारियों, लैंगिक भेदभाव आदि के चलते कितनी महिलाओं के सपनें और शौक चकनाचूर हो जाते हैं। जीवन बीत जाने के बाद पता चलता है कि अरे मैं तो चित्रकारी भी कर सकती थी, मैं तो  गा सकती थी, मैं तो कविता लिख सकती थी। बहुतों को अवसर ही नहीं मिल पाता। बहुत कम हैं जो अपनी हॉबी को जी रही हैं। कवयित्री प्रियंका पांडेय ने लिखा है-


प्रियंका पाण्डेय


उम्र के बेहद संजीदा
और एकरस समतल मन की जमीन पर
रोटियां
गोल बेलने की जद्दोजहद में
पीछे छूट गए कहीं
अल्हड़ मन के अनगढ़ सपने।

कवयित्री कहती है फिर भी कि नई कोंपलों को मिला जीवन चलते रहना चाहिए और मिट्टी में मिला देने चाहिए जो पीले पत्ते झड़ जाते हैं ताकि जीवन की निरंतरता बनी रहे।
प्रियंका कहती हैं कि रोज़ गलियारों से गुजरता है दिन कभी सुस्त कदमों से कभी वक्त से बहुत तेज-

कतरा कतरा पिघलता है दिन
लम्हा लम्हा ढलता है दिन
बंद आंखों के चंद ख्वाब की तरह
रोज ही बनता बिगडता है दिन
किसी भटके मुसाफिर की तरह
रोज उन्हीं गलियारों से गुजरता है दिन

तमाम पल फिर गिनता है दिन
हर पहर छुडा लेता है हाथ
बारी बारी से
फिर भी मुस्कुराता टहलता है दिन
यूं ही तो नहीं गुजर जाया करता।

हर लोक की अपनी कहावतें हैं, अपनी कथाएं हैं। चलते-चलते पहले आप एक कथा सुनो और फिर कवि की कविताएँ पढ़ना। आप पूछ सकते हैं कि कथा क्यों सुनें। तो आप सीधे कविता पर चले जाना, यदि जा पाओ तो। पर एक बात बताऊं, यह लोककथा है और लोककथाओं में सच्चाई होती है! बाकी तो आपकी मर्जी।
एक बार की बात है। एक पहाड़ी गांव के एक घर में एक बहुत बूढ़ा व्यक्ति रहता था। जैसे जैसे उसके हाथ-पांव काम के नहीं रहे, वैसे-वैसे घर में उसका महत्व भी दिन प्रतिदिन कम होने लगा। उसे घर वाले अब बोझ समझने लगे। कहते हैं कि एक दिन उस बूढ़े के बेटे ने उसे दूर घने जंगल में फैंक देने का निर्णय लिया। जैसे ही आधी रात हुई, बेटे ने बूढ़े बाप को किल्टे में डाला और पीठ पर उठाकर चलने लगा। पास ही सोए छोटे बच्चे की नींद खुल गई।
उसने पूछा, पिताजी आप दादा को कहां ले जा रहे हैं?
बहुत समझाने पर भी बच्चा नहीं माना और साथ चलने की ज़िद्द कर बैठा।
गांव से दूर और वीरान घने जंगल में पहुँचकर उसने किल्टा पीठ से उतारा और वहीं छोड़कर लौटने लगा तो बच्चे ने पूछा, पिताजी आप दादू को यहां क्यों छोड़ रहे हैं? उन्हें कोई जानवर खा जाएगा।
पिता ने कहा, बेटे जब कोई बूढ़ा हो जाता है तो उसे ऐसे ही जंगल में छोड़ देते हैं। चलो, अब हम निकलें यहां से।
पिताजी किल्टा तो साथ ले चलो।
नहीं बेटा, इसकी अब ज़रूरत नहीं है।
नहीं पिताजी, इसकी ज़रूरत है, जब आप बूढ़े होंगे तो मैं आपको इसी में लाऊंगा इधर जंगल में फैंकने।
कहते हैं कि उस रात नन्हें बालक की बात सुनकर एक पिता का हृदय परिवर्तन हुआ और वह अपने बूढ़े पिता को घर वापिस लाया।
प्रियंका रिश्तों को बहुत अहमियत देती हैं, ख़ासकर अपनी माँ से उनका लगाव बहुत गहरा है।

तुम थीं
तो उदासी से घिरे बेरंग मन को
जादू से कभी इंद्रधनुष
कभी तितलियों से रंग लेकर
हौले से पीठ थपक
जाने कब रंग जाया करती थीं

आगे की पंक्तियों में इस प्रेम की अभिव्यक्ति देखें-

घड़ी की सुइयां चली हैं
कैलेंडर बदले हैं
पर
तुम अब भी वहीं हो

सपनें अच्छे लगते हैं मगर सपनों की नींव मजबूत होनी चाहिए, वरना बिखरने का डर रहता है-

अपने हिस्से की हवा और पानी
सपनें एक मुट्ठी सुख लेकर
सहलाते हैं भविष्य का माथा
पर चकनाचूर हो जाते हैं
सच्चाई के पत्थरों से टकराकर
मंजिल तक कहां ले जा पाती हैं
छिछले पानी की नावें।

रिश्ते बहुत नाज़ुक तो होते ही हैं, साथ में उन्हें निभाना तो उससे भी कठिन होता है। प्रियंका रिश्तों की अहमियत जानती हैं और उन्हें गहरे तक जाकर महसूस भी करती हैं-

ओस की बूंदों की तरह नाजुक
खिल उठते हैं थोडी सी नमी पाकर
और खो देते हैं समूचा अस्तित्व
थोडे ही ताप से
हम अक्सर सोचते हैं
इन्हें मुटठी में कैद करके
कि बांध लिया हमेशा के लिए
पर कब भाप बन उड़ जाते हैं
पता ही नहीं लगता

अपनी मंजिलो की तलाश में
हम भी निकल गए बहुत दूर
याद तो बहुत आई
पर वक़्त कहाँ था।

कवयित्री की सम्वेदनाएं उसकी कविता में स्पष्ट झलकती हैं। मुश्किल दौर में भी अपने लिए कुछ पल खुशी ढूंढ लेना भी एक कला है-

लिखना तो था
फूल पत्ती चाँद तारे हवा
रौशनी जुगनू ख्वाब
और जाने क्या क्या
पर
हवाओं में उड़ते विचरते भी
ज़मीन तो सख्त ही हुआ करती है
मौन हो जाते हैं शब्द
सिसकती हैं संवेदनाएं

वहीं कहीं से छनकर
कोई किरण इंद्रधनुष सजा
कह उठती है
आ ज़िन्दगी
कुछ पैबंद सी लेते हैं
घडी भर ही सही थोड़ा तो
जी लेते हैं।
०००





गणेश गनी

परख तिरयालिस नीचे लिंक पर पढ़िए



कुछ मुश्किल से बिताई गई रातें!

गणेश गनी


https://bizooka2009.blogspot.com/2019/03/blog-post_24.html?m=1



29 मार्च, 2019

पुनर्पाठ: आधा गांव (1966)


भारत का अविभाज्य मानवीय भूगोल


विनोद शाही


“अब एक युग समाप्त हो रहा है और एक युग आरंभ, तो क्या हर युग एक भूमिका की मांग नहीं करता?” (‘आधा गांव”से )


‘आधा गांव’ युग संक्रमण के भंवर में घूम रहे अपने समय के आख्यान को डूबने से बचाने की भूमिका है। यह भूमिका इतनी भव्य है कि इस उपन्यास को पढ़ जाने के बाद हमें यह देखने जानने की फिक्र नहीं होती कि इस भंवर में कौन डूबा, कौन बचा। हम बस इतना तय कर पाते हैं कि यह   एक ऐसा उपन्यास है, जो आधे गांव की कथा हो कर भी मुकम्मल भारत की कथा की तरह खुलता है। यह जो आधा गांव है, वह आधा तो है, मगर अधूरा नहीं है। आधा होने का मतलब यह होता है कि वह कभी भी दूसरे आधे हिस्से का पूरक हो कर , एक पूरी बात में बदल सकता है। पर आधा हो कर अधूरा रह जाना त्रासद है। इसीलिये उपन्यास का आधा गांव जब तक आधा है, कोई समस्या नहीं है। परंतु भारत विभाजन के बाद जब गांव , आधा ही नहीं, अधूरा भी हो जाता है  , तो उसका वह आधा होना भी अधूरे हो जाने की नियति का हेतु हो जाता है। फिर कुछ पहले जैसा नहीं रहता। अधूरा बनाने वाला इतिहास, आधे रह गये समय को अभिशाप में बदलने लगता है। विखंडित यथार्थ में अपने अपने हिस्से का सच लिये हमारे अपने टुकड़े , दूसरों के सिर फोड़ देने को आमादा पत्थरों में बदल जाते हैं। अखंडता की बात अतीत में देखे गये काल्पनिक स्वप्न जैसी मालूम पड़ने लगती है और उसके आईने में हम खुद को किसी दुःस्वप्न की तरह घटित होता पाते हैं। फिर भी अपने आप को कभी खोते नहीं। दुस्स्वप्न बेशक हमारे वुजूद की तरह घटित होता है, परंतु वह अपने में  एक पूरा युग हो कर गुज़र जाता है । फिर जैसे ही हम इस बुरे सपने से जागते हैं, पाते हैं कि हम अपनी ज़मीन पर अब भी पहले की तरह पुख्तगी से खड़े हैं। न हम खोये हैं, न हमारी ज़मीन।
‘युग एक बिना जिल्द  की किताब की तरह एक खुले मैदान में पड़ा हुआ है। यह कहानी कहने के लिए मैं प्रथम पुरुष का इस्तेमाल कर रहा हूं, ताकि वह
अपने सफे स्वयं न उलट सके। ताकि क्रम शेष रहे और मैं यह देख सकूं कि क्या था।’



विनोद शाही



‘आधा गांव’की उपर्युक्त पंक्तियां इस बात की तरफ इशारा करती हैं कि लेखक ने यहां एक जटिल शिल्प की मदद से अपनी यह कथा कही है। शिल्प की जटिलता, गहरे में कथ्य की जटिलता का ही घनीभूत रूप है। दरअसल यहां ‘अपने समय’ की कथा को, एक ‘युग‘ की कथा की तरह लिखने की कोशिश हुई है। इसलिये लेखक बार बार समय के क्रम को तोड़ता है। वह इतिहास को वर्तमान के बोध में बदलता है और अपनी ज़मीन को भविष्य का भूगोल बनाना चाहता है। युग की चाल अनेक दफा इससे मेल नहीं खाती। तब वह प्रथम पुरुष को अपने एक पात्र की तरह उतारता है। वहां समय तरल हो सकता है। इस तरह यह उपन्यास एक बड़े कथ्य को एक नये प्रयोगशील शिल्प के ज़रिये अभिव्यक्ति के लायक बनाता है।

‘आधा गांव’  आधे से अधूरे हो जाने के इतिहासाख्यान  को, भारतीय मुसलमानों की मार्फत, फिर से मुकम्मल होने की ज़मीनी हकीकत की कथा में बदलता हैं।
ज़मीनी हकीकत  समय के भीतर के समय में प्रवेश करने से उदघाटित होती हैं। वह जो समय के भीतर का समय है, वह  एक हिंदू के लिये सुदूर अतीत के पुनरुत्थान की तरह है। अखंडता के इस महाख्यान को भारतीय मुसलमान गैर-पुनरुत्थानवादी रूप में देखता है। उस  की चेतना इसे अपने समय के आख्यान की अपनी तरह की परिणति तक ले जाती है। वह अपने इसी समय के अंतर्विरोधों से जद्दोजहद करती हुई मुकम्मल होने की असफल कोशिश करती है।
इस लिहाज से यह उपन्यास भारत की आत्मा से एकाकार होने की दिशा में अपनी तरह से आगे बढ़ता है। इसे देखते हुए कहा जा सकता है कि यहां जो है, वह खालिस भारतीय ही नहीं, उसके व्यक्तित्व की तरह विराट भी है। यह विराटता इतिहास की अनवरतता   की तरह इस उपन्यास में मौजूद है। भारतीय मुसलमान को यहां मुकम्मल होने की ज़रूरत की अनिवार्यता के साथ जीते हुआ दिखाया गया है।
दूसरी बात यहां यह रेखांकित करने लायक है कि भारतीय मुसलमान के लिए इतिहास और जीवन जैसे एक ही सिक्के के दो पहलुओं की तरह है। इतिहास की इस तरह की जीवनमूलक मौजूदगी इस उपन्यास को पश्चिमी उपन्यासों से अलग एक भारतीय उपन्यास की तरह हमारे सामने लाती है।
पश्चिम में इतिहास वर्चस्वी इतिहास के ऐसे रूपों की तरह होता है, जो वहां के उपन्यासों के पात्रों और उनकी सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक स्थितियों को नियंत्रित करता है। वे उपन्यास इस नियंत्रण के खिलाफ जद्दोजहद करते हैं और इस तरह की रचनाशीलता को प्रस्तुत करने की कोशिश करते हैं, जो इतिहास का विकल्प हो सके।
भारतीय संदर्भ  में हमारी कथा की रचनाशीलता इतिहास को एकदम अलग तरह से ग्रहण करती है। परंपरागत रूप में इतिहास और जीवन की एकात्मता को दिखाने के लिए हमारी कथाओं के पात्र पूर्व जन्म की कथाओं में लौटते थे। इस तरह इतिहास पात्रों के जन्म जन्मांतरों की कथाओं के रूप में विविध तरह के आख्यानों की शक्ल लेता है। परंतु आधुनिक काल की कथा में पूर्व जन्म की बजाए पूर्वजों से जुड़ी स्मृतियों को जीते जागते पात्रों की चेतना में लगातार डोलते और उन्हें प्रभावित करते देखा और दिखाया जाता है। ‘आधा गांव’ के भारतीय मुसलमान इस लिहाज से एक अलहदा और दिलचस्प दास्तान हमारे सामने रखते हैं। यहां सब कुछ समय की अनवरतता में खुद को बार बार नयी शक्ल में दौहराता है। समय के बदलाव के साथ सब बदल जाता है, फिर भी कुछ है जो नहीं बदलता। वह इस बदलाव का साथी है, जो किसी के मोह में नहीं पड़ता , पर सब को अपना मानता है । उपन्यास की कुछ पंक्तियां देखें :
कई बूढ़े मर गए। कई जवान बूढ़े हो गए। कई बच्चे जवान हो गए। कई बच्चे पैदा हुए। यह कहानी उम्र के ऐसे हेरफेर की है। यह कहानी उन मकानों की है, जो खंडहर हो गए और उन खंडहरों की है जो कभी मकान थे।

इस उपन्यास के आरंभ में ही हम विविध तरह के इतिहास खंडों और उनके विविध चरणों को अपने समय में मौजूद प्रतीकों की तरह देखते हैं। उनके बीच से होकर बहने वाली जीवन की सतत धारा को उन्हें जोड़ने वाली चेतना की तरह यहां साफ देखा जा सकता  हैं। वे पात्र जो ऊपर से देखने पर सामान्य इतिहास में शिरकत करते नज़र आते हैं, वे गहरे में व्यापक इतिहास के भीतर लगातार आवाजाई करते रहते हैं। वह इतिहास पीछे से एक अनवरत धारा की तरह उन तक आता है । वह उन्हें सींचता है। इस इतिहास धारा में लगातार बहते रहने की गुंजाइश को हासिल किए बिना उनका जीवन निरर्थक हो जाता है।





‘आधा गांव’ उत्तरप्रदेश के एक गांव गंगौली की कथा है। यह गांव गाजीपुर शहर से दस बारह कोस परे है। गाजीपुर से लेकर गंगौली तक का यह जो यथार्थ है, वह जितना समकाल में घटित होता है, उतना ही इतिहास के अब तक के अनेक चरणों के विविध समयों में। उपन्यास के आरंभ में ही हम गाजीपुर के एक मध्यकालीन किले में दाखिल होते हैं, जिसकी दीवारों के ऊपर चढ़ कर बाहर झांकते ही हम अचानक उस मध्यकाल से प्राचीनकाल में लंबी छलांग लगाने लगते हैं :
गाजीपुर के पुराने किले में एक स्कूल है, जहां गंगा की लहरों की आवाज़ तो आती है लेकिन इतिहास के गुनगुनाने या ठंडी सांस लेने की आवाज नहीं आती।
इस शहर को कभी यह ख्याल नहीं आता कि गंगा के किनारे  पाठशाला में बैठकर अपने पुरखों की कहानियां सुने।
किले की दीवार से बाहर देखते हुए यह असंभव नहीं कि गांव का मैदान और खेत घने जंगलों में बदल जाए और वहां तपोवन में ऋषियों की कुटियां दिखाई देने लगें।”

आधा गांव में राही मासूम रज़ा अपने समकाल की सतह को तोड़कर भीतर  उतरने वाली इतिहास बोध की जिस गहरी संरचना के ताने बाने को कथा के माध्यम से बुनते हैं, वह उन्हें विश्व के बड़े रचनाकारों के बरअक्स रखने के लिए पर्याप्त है। वे इतिहास का विकल्प खोजने के लिए प्रयास नहीं करते, अपितु इतिहास के भीतर उतर कर उसकी गहराई में लगातार डुबकी लगाते रहते हैं। वे वहां पहुंचते हैं,  जहां सब कुछ एक शाश्वत धारा की तरह बहता है, इसलिये अखंड है। इतिहास की इस अनवरतता को वे यहां गंगा के रूप में देखते हैं। गंगा काल का शाश्वत प्रवाह है, पर समकाल के अंतर्विरोधों वाले इतिहास का साक्षी होना उसे पसंद नहीं है। बढ़ती जाती सांप्रदायिकता को देख कर वह रुष्ट ही नहीं, कुपित भी हो जाती है और समय के इस कचरे को अपनी बाढ़ में डुबो कर अपने साथ बहा ले जाना चाहती है उपन्यास में यह कुछ यों दर्ज है ;
“गंगा  इस नगर के सिर पर और गालों पर हाथ फेरती रहती है। जैसे कोई मां अपने बीमार बच्चे को प्यार कर रही हो। परंतु जब इस प्यार की कोई प्रतिक्रिया नहीं होती , तो गंगा बिलख बिलख कर रोने लगती है। और यह नगर उसके आंसुओं में डूब जाताहै। लोग कहते हैं कि बाढ़ आ गयी।”
“मुसलमान अज़ान देने लगते हैं। हिंदू चढ़ावे चढ़ाने लगते हैं। अपने प्यार की इस हतक पर गंगा झल्ला जाती है। वह किले की दीवार पर अपना सिर टकराने लगती है। उसके उजले सफेद बाल एक दूसरे में उलझ कर दूर तक फैल जाते हैं। गंगा जब यह देखती है कि उसके दुख को कोई नहीं समझता तो वह अपने आंसु पोंछ डालती है।”
गंगा को देखते ही वह अचानक भारत के इतिहास की समग्रता के जीवंत अनवरत धाराप्रवाह रूप के साथ जुड़ जाता है। इस तरह यह गंगा हमें अचानक भारत के प्राचीन दौर तक सहज ही ले जाती है। परंतु यह गंगा प्राचीन काल में रुकी हुई कोई प्रतीक धारा नहीं है, वह पीछे से निकलकर वर्तमान में चली आई है। वह वर्तमान में आकर वर्तमान की विसंगतियों के साथ सीधे सीधे मुखातिब होती है। प्रतीत होता है जैसे कि गंगा मध्यकाल के  वीरान हो गए इतिहास के भीतर से पैदा होने वाले जिन्नात के खिलाफ अपनी कोई आवाज बुलंद कर रही हो। वह हमें हमारे वर्तमान दौर के अंतर्विरोधों के लिए दंडित करना चाहती है, लेकिन मां की तरह अपनी करुणा का इजहार किए बिना भी वह कभी वापस नहीं जाती। फिर ‘आधा गांव’ के लेखक की दृष्टि अपने समय के सांस्कृतिक कर्मकांडों में उलझे लोगों तक जाती है, जो देवी देवताओं को चढ़ावा चढ़ाने या अज़ान देने में लगे रहते हैं। उन्हें लगता है कि उनकी आज़ान और उनके चढ़ावे कभी व्यर्थ नहीं जाते। इसे लेखक सांस्कृतिक विडंबना की तरह पेश करता है। वह देखता है कि इतिहास कैसे वास्तविक इतिहास बोध न बनकर हमारे दौर में सांस्कृतिक कर्मकांड होकर मिथ्या चेतना को जन्म देने वाला हो जाता है। परंतु लेखक और उसकी कृति  को तो गंगा से मतलब है।

यहां सत्ता और संस्कृति की तमाम तरह की विभाजनकारी विद्रूपताओं  के बावजूद वह जो गहरी चेतना में गंगा की तरह बहता है, वह भारत की आत्मा के बेहद करीब मालूम पड़ता है। इस उपन्यास को उस अर्थ में पढ़ते और देखते हुए हम अचानक भीतर से खुद भी मुकम्मल होने के एहसास से भर जाते हैं। जहां विभाजनकारी प्रवृत्तियों का सवाल है, उन्हें यह कृति भारत-पाकिस्तान के ऐतिहासिक विभाजन की तरह ही नहीं देखती, अपितु शहर और ज़िमीदार-कामगर वाले समाजशास्त्रीय और आर्थिक संबंधों की संरचनाओं के रूप में भी पढ़ती है।
‘गाजीपुर के बच्चे कोलकाता जाते हैं। कोलकाता एक शहर का नाम नहीं विरह का नाम है। कोलकाता, कानपुर, मुंबई या ढाका इन शहरों से इन बच्चों का रिश्ता ऐसा है जैसे आकाश में उड़ने वाले गुब्बारों की डोर केंद्र से बंधी रहती है, पर अब डोर टूट गई है और मरी हुई डोरी लिये लोग यहां घूम रहे हैं।’

‘आधा गांव’ उपन्यास की कथा में गुंथे हुए मुस्लिम शासकों के दौर के इतिहास को यहां थोड़े विस्तार से देखना समझना ज़रूरी लगता है। गाजीपुर के बाहर स्थित जिस  किले का दृश्य उपन्यास के आरंभ में आता है, यह अब वीरान पड़ा है। इस किले को हम भारत के मुस्लिम दौर के मध्यकालीन इतिहास के खंडहर की तरह देख सकते हैं। मध्यकाल का इस इस्लामी शासन वाला दौर अब हिंदुस्तान का  अतीत है। वह आधुनिक काल में वीरान हो गया है। फिर उसके औपनिवेशिक दौर में आधुनिकीकरण से जुड़े सीमित इस्तेमाल की कोशिश होने लगी है। उसे एक पाठशाला चलाने के लिए जगह की तरह चुन लिया गया है। पाठशाला को एक वीरान किले में खोलने का मतलब साफ है। औपनिवेशिक दौर में पाठशाला आधुनिक काल के शहरीकरण वाले विकास  की मुख्यधारा का हिस्सा नहीं है। वह एक वीरान जगह के इस्तेमाल की ऐसी कोशिश है, जिसे हम आधुनिक होने की एक आधी अधूरी कोशिश की तरह देख सकते हैं। यह अतीत के भीतर से आधुनिक होते भविष्य की ओर देखने जैसा है। परंतु लेखक हमें उस पाठशाला में नहीं ले जाता। वह हमें पाठशाला के कक्ष से उठाकर किले की उस दीवार तक ले जाता है, जहां से पीछे की तरफ बहती हुई गंगा दिखाई देती है। लेखक और उसकी कृति  को तो गंगा से मतलब है। गंगा यहां प्रतीक रूप में इतिहास की उस अंतर्धारा की तरह है, जिसे हम इस उपन्यास में लगातार लोगों के जीवन के भीतर से बहता हुआ देखते हैं। लेकिन फिर यह गंगा और गाजीपुर का किला पीछे छूट जाते हैं। ‘आधा गांव’ का आख्यान उससे 10-12 कोस दूर स्थित गंगौली गांव पहुंच जाता है।
गंगोली गांव पहुंचकर हम गाजीपुर और गंगोली के वास्तविक इतिहास से परिचित होते हैं। लेखक हमें बताता है कि इन दोनों जगहों के ये नाम अपने भीतर किस इतिहास को छिपाए हुए हैं। लेखक बताता है कि गाजीपुर पहले गादीपुर था।  इतिहास का यह वृत्तांत इस उपन्यास में संक्षेप में कुछ इस प्रकार दर्ज है :
‘तुगलत के एक सरदार सैयद मस्जिद गाजी ने गादीपुर पर हमला किया और बाढ़ में आई गंगा को पार करके उसे जीत लिया। तब से यह गाजीपुर हो गया। पर गाजीपुर गाज़ीपुर ना होता तो ग़ादीपुर होता और लोग खुद को गादीपुरी कहते। पर इससे क्या फर्क पड़ता ?  इसलिए मुझे पाकिस्तान बनने के बाद भी पाकिस्तान का मतलब समझ में नहीं आता। । अगर अली को गढ़ से और गाजी को पुर से अलग कर दिया जाएगा, तो बस्तियां वीरान हो जाएंगी। और अगर इमाम को बाड़े से निकाल दिया दिया जाएगा तो मोहर्रम कैसे होगा ?
मस्जिद अली के बेटे नूरुद्दीन ने गंगौली को फतह किया। उसी नूरुद्दीन शहीद की समाधि वहां पर है। वह सैयद था पर सैयदों के पांव वहां  जमने के बावजूद गंगौली गंगौली ही रही। गंगौली का नाम वहां के राजा गंग के नाम पर पड़ा था।’
नूरूद्दीन की समाधि गंगोली में है। यह समाधि कैसे बनी इसका कारण इस उपन्यास में नहीं मिलता। परंतु कब्र की जगह एक समाधि का होना अपने आप में गहरे अर्थ छोड़ जाता है। गंगौली का नाम राजा गंग के इतिहास से जुड़ा हुआ है। नूरुद्दीन की समाधि उसी इतिहास में एक नये अध्याय की तरह जुड़ती है, तो इससे इतिहास की अनवरतता में कोई खलल नहीं पड़ता।  इस तरह गंगौली में हमें प्राचीन काल के इतिहास के साथ-साथ मध्यकाल के इतिहास का एक टुकड़ा एक प्रतीक की तरह मौजूद दिखाई देने लगता है।
राजा गंग, नूरुद्दीन की समाधि  और गिलक्रिस्ट का कारखाना- ये सब इतिहास के विविध चरणों के प्रतीक है। इन्हें हम ठीक से एक जगह व्यवस्थित करें, तो हम एक अद्भुत किस्म की समन्वयात्मक सांस्कृतिक चेतना के साथ जुड़ जाते हैं। इस सांस्कृतिक चेतना की जो गहरी संरचनाएं वहां उस ज़मीन के भीतर पड़ी है। इसके तीन मूल प्रतीक गंग, गंगा और गंगोली के रूप में हमारे सामने मौजूद होते हैं। यह गंग, गंगा, गंगौली की ज़मीन इस गांव की सनातन ज़मीन है, जो यहां रहने वाले सभी लोगों को उनका वास्तविक अर्थ प्रदान करती है। इस जमीन से उखड़ जाने का अर्थ है, अपनी आत्मा, अपनी चेतना और अपने व्यक्तित्व को खो देना। इस संदर्भ में  हिंदू या मुसलमान होने से कोई फर्क नहीं पड़ जाता। मुसलमान लोग शहीद नूरुद्दीन की समाधि के साथ जुड़े हुए दिखाई देते हैं। उसे एक शहीद माना जाता है। उसकी कब्र को समाधि में बदल दिया गया है। इसलिए वह केवल मुसलमानों के लिए ही एक नायक के रूप में वहां मौजूद नहीं है। उस की समाधि पर जो मेला लगता है, उसमें सारे गंगौली वासी एक साथ उपस्थित देखे जा सकते हैं।






वैसे यह पूरा गांव दो हिस्सों में विभाजित है, जिसे दक्षिण पट्टी और उत्तर पट्टी कहा जाता है। पूरा गांव मुस्लिम बहुल है। परंतु लेखक ने अपने कथानक को दक्षिण पट्टी में केंद्रित किया है। इस लिहाज़ से यह आधे गांव की कथा है। परंतु उत्तर पट्टी और दक्षिण पट्टी के बीच जो विभाजन है, वह ‘इस कथा की तरह  न धार्मिक है ना राजनीतिक’। वह न हिंदू केंद्रित और मुस्लिम केंद्रित पार्टियों में विभाजित है और न ही मुस्लिम बहुल होने के संदर्भ में वह शिया सुनियो में विभाजित है। इस गांव का यह दक्षिणपट्टी वाला हिस्सा विभाजन-पूर्व स्थितियों में आधा होकर भी दूसरे आधे हिस्से के साथ पूरक की भूमिका में दिखाई देता रहा है। परंतु फिर  धीरे धीरे विभाजनकारी प्रवृत्तियों के घिर आने पर गांव के लोगों में एक अन्य किस्म का अंतर्विभाजन इस आधेपन को अधूरेपल में बदल देता है। भारत के 1947 के सांप्रदायिक विभाजन की छाया इस गांव पर भी पड़ती है। उस के असर से इस गांव पर भी सांप्रदायिक प्रवृतियां थोड़े अलग रूप में हस्तक्षेप करने लगती हैं। ये अनुमान लगने लगते हैं कि पाकिस्तान कब बनेगा। यह प्रश्न भी उठता है कि जिन्ना को अलीगढ़ वाले फिर से सियासत में वापस ले आए हैं, ताकि वे मुसलमानों की रहनुमाई करें और उन्हें एक अलग मुल्क हासिल करने में मदद करें। परंतु गांव वालों को कभी यह समझ में नहीं आता कि जब उनका देश गंगौली है, तो कोई भी मुल्क क्यों न बन जाए, वह उनके लिए परदेस ही रहेगा। वे मुसलमानों के लिए अलग मुल्क बनाने की वजह पर भी अक्सर टिप्पणी करते हैं। उन्हें यह बात उपयुक्त मालूम नहीं पड़ती कि मुसलमानों को एक अलग मुल्क की ज़रूरत है या होनी चाहिये। वे पूछते हैं कि हमें अगर अलग मुल्क चाहिए तो क्यों चाहिए? क्या इसलिए कि वहां नमाज पढ़ने की सुविधा अधिक होगी? या इसलिए कि वहां केवल मुसलमान होंगे? इस तरह के जवाब उनके गले से नीचे नहीं उतरते। वे पूछते हैं कि नमाज़ पढ़ने की आजादी तो उन्हें अपने गांव गंगौली में भी है, फिर गंगौली छोड़कर दूसरे मुल्क जाकर यह आजादी हासिल करने का क्या मतलब है ? जब यह दलील दी जाती है कि मुसलमानों के मुल्क में मुसलमानों का विकास अधिक तेजी से हो सकेगा, तो वे गांव में अपने सैयद होने की ओर देखते हैं और पाते हैं कि वे यहां भी वर्चस्व में ही हैं।  वे अपने लोगों में से ज्यादातर के जिम्मीदार होने की स्थिति की ओर भी देखते हैं और पाते हैं कि गांव में वह पहले से ही बाकियों के मुकाबले काफी विकसित है और गरीबों की मेहनत की कमाई पर मुफ्त की ऐश करने की हालत में है। तब ये सारी जिम्मीदारियां छोड़कर पाकिस्तान जाने का औचित्य क्या हो सकता है? ये ऐसे सवाल होते हैं जो उन्हें सिर उठा रही सांप्रदायिकता से उबारते और बचाते रहते हैं।
फिर भी बाद में जब पाकिस्तान बन जाता है और गांव के कुछ नौजवान अपनी मर्जी से गांव छोड़कर पाकिस्तान चले जाते हैं, तब उन्हें एक और हकीकत का पता चलता है। उन्हें एहसास होता है कि पाकिस्तान तो सुन्नी मुसलमानों का है। तब उन्हें लगता है कि वे जो यहां पर शियाओं की अधिकता वाले गांव में रह रहे हैं, उनके लिए पाकिस्तान में इससे बेहतर जगह भला कैसे मिल सकेगी? भारत विभाजन के हालात सामने आने से पहले गांव में सांप्रदायिक विभाजन भी दिखाई नहीं देता। यहां तक कि भारत के विभाजित हो जाने पर भी गांव के कुछ मुसलमान महत्वपूर्ण हिंदुओं के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं। जैसे  फुस्सू मियां है, वे अपनी हिमायत से परसराम एमएलए को जीतने में मदद करते हैं। आजादी से पहले के हालात में भी उनकी पृथ्वी पाल सिंह के साथ जो मित्रता रही है, वह भी देखने लायक है। मियां फुस्सू को देशभक्त तो नहीं कहा जा सकता, परंतु वे अपनी गंगौली गांव की मित्रता को निभाने की वजह से पृथ्वी पाल सिंह और अशफ़ाकउल्ला के साथ मिलकर एक थाने को जला डालने में बड़ी भूमिका निभाते हैं। उस घटना में उनका बेटा मुन्ताज़ मारा जाता है। वे उसे शहीद कहते हैं, परंतु उनके बेटे की उस शहादत का उन्हें विभाजनकारी हालात में कोई मूल्य पढ़ता हुआ दिखाई नहीं देता। शहर में शहीदों की याद में जो जलसा होता है, वहां शहीद होने वाले अन्य लोगों को याद किया जाता है, परंतु मुन्ताज़ की बात कोई नहीं करता। ऐसे में वे खुद उठकर मंत्री जी को याद दिलाते हैं कि उनका बेटा भी उस वारदात में शहीद हुआ था। परंतु उनकी वह आवाज़ उस भीड़ में एक तनहा आवाज़ की तरह गूंज कर व्यर्थ चली जाती है। ऐसे में लेखक इस उपन्यास के माध्यम से यह टिप्पणी करता है कि अब गगौली में गंगौली वाले कम, शिया, सुन्नी और हिंदू अधिक हो गए हैं।
“गंगौली में गंगौली वाले कम रह गए हैं। यहां सुन्नी शिया और हिंदू ज्यादा हो गए हैं। तन्नू, बद्दन, कैसर, अख्तर आदि कई लोग पाकिस्तान चले गए। पर नूरुद्दीन की समाधि अभी गगौली में  ही है।”
इस उपन्यास की अंतः संरचना में हम वहां के निवासियों की  जमीनी हकीकत के साथ उस बावस्तगीब देख सकते हैं जो हमेशा एक अंतर्धारा की तरह भीतर  बहती रहती हैं। ऊपर के सारे अंतर्विरोध बाहर की घटनाओं से जुड़े हुए जैसे समय और इतिहास की सतह पर उठने वाली लहरों की तरह दिखाई देते रहते हैं। जब कि गहराई में एक ही बात नजर आती है कि घूम फिर कर गंगौली वाले गंगौली में लौटते हैं। वे, गंगौली के साथ उनकी जो ज़मीनी आपसदारी है, उसी में अपनी जिंदगी के अर्थ तलाशते दिखाई देते है। ऐसे में हमें यह देखना और खोजना पड़ता है कि गंगौली में गंगौली वाला होने का असल अर्थ क्या है? इस अर्थ की खोज तब शुरू होती है, जब उस गांव को छोड़ कर पाकिस्तान गया एक नौजवान एक दिन अचानक अपने उसी गांव में लौटता है :
“सद्दन पाकिस्तान से गंगौली में लौटा तो उसे ख्याल आया कि वह गैर-मुल्क में कैसे हो सकता है? गंगोली एक गैर मुल्क कैसे हो सकती थी?। वह पाकिस्तान का हो गया था। पर था वह गंगौली का ही। इसलिए अब वह अपने नए मुल्क पाकिस्तान में पनाह गुज़ीन कहा जाता था। आज से पहले उसने यह नहीं सोचा था कि वह किस से भागकर वहां पनाह लेने पहुंचा था। उसका साल तो गुजर जाता , लेकिन जैसे ही मोहर्रम आता, वह उदास हो जाता।”
मोहर्रम , नूरूद्दीन की समाधि, इमामबाड़े और गंगा मैया के साथ गंगौली में रहने वालों का जो रिश्ता है, वही उन्हें गंगौली वाला बनाता है। परंतु भारत के विभाजित होकर आजाद हो जाने के बाद कुछ राजनीतिक दलों के चुभने वाले  सवाल हमारे सामने उभरते है। जनसंघ की इस धारणा को भारतीय मुसलमानों के लिए एक फिक्र वाली चिंतनीय बात की तरह प्रस्तुत किया गया है कि उन लोगों के मुताबिक भारतीय मुसलमान गहरे में भारत के नहीं है, अपितु वे भारत में बाहर से आए हुए लोग हैं। इसलिए उन्हें अब पाकिस्तान चले जाना चाहिए।
दूसरा मत मुस्लिम लीग के संबंध में है। पाकिस्तान बन जाने के बाद जो नौजवान गांव छोड़कर पाकिस्तान चले जाते हैं, वे पाकिस्तान बन जाने के संबंध में हुई महान ऐतिहासिक भूल के बारे में संकेत  देते हैं । जैसे सद्दन लौटकर जब गांव में आता है तब यह बात साफ होने लगती है कि उसका पाकिस्तान जाना ही गलत नहीं था, अपितु पाकिस्तान का बनना ही अपने आप में एक गलती थी। इस संदर्भ में गांव वाले लोग एक अन्य जगह  यह सवाल उठाते हैं कि कहीं ऐसा तो नहीं कि उन्होंने मुस्लिम लीग को जो वोट दिए थे, उस वजह से वे लोग खुद भी गलत नहीं हो गए थे। मुस्लिम लीग को विजयी बनाकर और उसे पाकिस्तान बनाने में मदद करके उन्होंने खुद एक गलती को मूर्त रूप दे दिया था। वे पाकिस्तान गए पात्र को भारत लौटने के लिये भी कहते हैं। कि उसे अपनी गलती सुधार लेनी चाहिए और भारत में अपने घर में वापसी कर लेनी चाहिए। इस पर  वह कहता है कि अब जो फैसला हो गया, वह हो गया। अब इस भूल को सुधारा नहीं जा सकता। अब यह हमारे अपने निर्णय की बात नहीं रही। अपितु सरकारों के निर्णय पर निर्भर होने वाली बात हो गई है। तब फिर से एक दलील गांव वालों की ओर से सामने आती है कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि वहां गए हुए तमाम लोग इकट्ठे होकर अपनी भूल सुधारने के लिए आवाज़ उठाएं और विभाजन को रद्द करने में अपनी भूमिका निभाना आरंभ कर दें। तब यह हकीकत सामने आती है कि वे लोग जो पाकिस्तान गए, उन्हें पाकिस्तान में भी बाहर से आए हुए लोगों की तरह पनाह गुज़ीन कहा जाता है। शरणार्थियों की आवाज़ कौन सुनता है। ऐसे में उनके हाथ अब केवल एक पछतावा ही रह जाता है।
राजनीतिक दलों से संबद्धता  के संदर्भ में मूल सवाल अब यह सामने आता है कि भारतीय मुसलमान का अपना घर कौन सा है? यह उपन्यास भारतीय मुसलमान की मार्फत उसकी जड़ों की गहरी तलाश में निकलता है। इस उपन्यास का एक अध्याय है जिसका नाम ‘भूमिका’ है। यह भूमिका युग बदलने की भूमिका की तरह कथा का हिस्सा बनकर कथा के बीच में दिखाई देती है। यह भारत विभाजन की पृष्ठभूमि में भारतीय मुसलमान के आत्मचिंतन की भूमिका है। वहां यह सवाल उठाया गया है कि भारतीय मुसलमान का अपना घर कौन सा है? यों एक तरीके से देखा जाये तो यह कोई सवाल नहीं है, भारतीय मुसलमान का हाहाकार है, उसके हृदय की वेदना को अभिव्यक्ति देने वाला मार्मिक चीत्कार है:
अक्सर मैं सोचता हूं मैं कहां का रहने वाला हूं? आजमगढ़ का या गाजीपुर का? मेरा घर गाजीपुर के एक गांव गंगौली में है? या आजमगढ़ के एक गांव बिजौली में, जिसे मैंने आज तक देखा तक नहीं? मेरे दादा बिजौली के थे। बिजौली के उस घर से मेरा कोई रूहानी संबंध नहीं है।
हो सकता है मेरे अब्बा की वफादारी बिजौली और गंगोली के बीच तक्सीम हो, पर मेरी वफादारी तकसीम नहीं है।
यहां यह बात रेखांकित होती है कि भारतीय मुसलमानों के दादा परदादा, हो सकता है कहीं बाहर से आए हों, परंतु वे खुद इसी ज़मीन के और इसी मिट्टी के भीतर से पैदा हुए। उन्हें अपनी इस ज़मीन से कौन अलहदा कर सकता है।
“मेरे दादा आए होंगे आजमगढ़ से क्योंकि सभी के दादा परदादा कहीं न कहीं से तो आए ही होंगे।”
पर बुनियादी सवाल यह भी नहीं है कि किस के दादा परदादा कब कब कहां कहां से आये हैं ?
जहां तक इस्लाम की संस्कृति का सवाल है, भारत में उसका रूप भी मध्य एशियाई न रहकर भारतीय किस्म का हो गया है। भारतीय ढंग के इस इस्लाम को समझना हो तो हमें यहां के शहरों और यहां की इमारतों के नामों पर ध्यान देना होगा। जैसे कि यदि इस्लाम के  अली को हिंदू इतिहास वाले शब्द गढ़ से अलहदा कर दिया जाए, तो अलीगढ़ की हैसियत क्या रह जायेगी? ऐसे ही गाजी को अगर भारतीय मूल वाले पुर से अलहदा कर दिया जाए, तो न गाजी का कोई अर्थ बचता है, न पुर का। इतना ही नहीं गंगौली गांव में जो मस्जिद बनाई जाती है, वह इमाम हुसैन की याद में इमामबाड़ा कहलाती है। वह इमाम इस्लामी संस्कृति से ताल्लुक रखता है, परंतु बाड़ा तो खास  हिंदुस्तानी है। भारतीय मुसलमान अपनी मध्य एशियाई जड़ों को भारत में लाकर यही की जमीन में लगाता है और उससे उगने वाले जो पौधे हैं, वे खालिस भारतीय हैं। उस पर आने वाले फूल और फल खालिस भारतीय आबोहवा की देन हैं। तब भारत से जुदा होने का सवाल ही कैसे उठता है? भारतीय मुसलमान को लगता है कि उसका घर अब यह हिंदुस्तान है। पाकिस्तान जाने की बात उसे गुमराह होने की बात लगती है। इसे वह कभी स्वीकार नहीं कर पाता है। यह जो भारतीय मुसलमान है वह मध्य एशियाई मूल के लोगों और उनकी संस्कृति को भारत के रंग में ढालकर पूरी तरह भारतीय बनाता है। जबकि तुलनात्मक रूप में औपनिवेशिक दौर के अंग्रेज बहुत बरस भारत पर राज करने के बावजूद पराए ही रहते हैं और एक दिन खुद भारत छोड़ कर चले जाते हैं। तब यह देखना और समझना ज़रूरी हो जाता है कि वह जो भारतीय है या जो भारतीय हो गया है, उसे अपने मूल के कारण  अभारतीय सिद्ध करने के पीछे क्या अर्थ हो सकता है? वह अपनी ही जड़ों पर कुठाराघात करने जैसा है। गांव गंगोली के इस घर से जुदा होने को भारतीय मुसलमान इसलिए राजी नहीं है क्योंकि मकान तो दूसरी जगह हो सकता है पर घर जहां है वही रहता है। इसलिए पाकिस्तान गए हुए गांव के लोग भी लौट कर आते हैं तो पाते हैं कि उनका घर पीछे छूट गया है और दूसरी तरफ गांव में जो नूरुद्दीन समाधि की तरह का एक और इतिहास खंड पड़ा है, वह अब उस ऐतिहासिक हकीकत को बयान करता है जो भारतीय और अभारतीय की पहचान के लिए एक कसौटी का काम कर सकता है। गंगौली एक गांव भर नहीं, वह एक भारतीय मुसलमान का घर भी है। उपन्यास में यह बताया गया है कि वह घर कौन सा है, जो उसे अपना लगता है :
मैं नील के उस गोदाम का हूं जिसे गिलक्रिस्ट ने बनवाया था।।मैं उस गढ़ी का हूं जिसने गंगा की तरह गंगोली को अपनी गोद में रखा है। मैं पांचवी और आठवीं मोहर्रम की गश्त  का हूं । मैं करघों की उन आवाज़ों का हूं जो दिन रात चलते रहते हैं। जो कभी नहीं रुकते। मैं गया अहीर, हरिया बढई और कोमिला चमार का हूं । ‌
बेशक घर को घर बनाने वाली ये तमाम चीज़ें अभी भी गांव में हैं, पर विभाजन के बाद के हालात में इनकी रौनक चली जाती है। वीरान पड़ा नील का कारखाना जैसे अब उस गांव में गिलक्रिस्ट को याद कर अपना सिर धुनता रहता है।  नूरुद्दीन की समाधि की तरह वह कारखाना अब एक दर्शनीय खंडहर में बदलता जाता है।
“नूरूद्दीन की समाधि अब  कस्टोडियन की निगरानी में है। समाधि पूर्व में है। दक्षिण में कर्बला है और पश्चिम में तालाब। उसके एक ओर टीले हैं जहां मोहर्रम की नमाज़ अदा की जाती थी। “
इतिहास के अनेक टुकड़े  इस तरह यहां स्थानीय भूगोल के नक्शे में बदल गये है। इन प्रतीक स्थलों पर अब कम ही लोग  जाते हैं। इसका अर्थ यह है कि इतिहास के उन टुकड़ों में अब किसी की दिलचस्पी नहीं रह गई है। परंतु नूरुदीन की समाधि के बेरौनक हो गये मेले में शरीक होने वाले लोगों में अब भी  हिंदू और मुसलमान दोनों होते हैं। गांव ने नूरुद्दीन को एक भारतीय प्रतीक की तरह आत्मसात किया है। जबकि गिलक्रिस्ट अपने कारखाने की तरह अब पूरी तरह अजनबी है। शायद इसलिये कि गिलक्रिस्ट के उस कारखाने का इतिहास किसानों और कामगरों के शोषण का इतिहास है। दूसरी तरफ नूरुद्दीन की समाधि की जो धरोहर है वह समावेशी संस्कृति से ताल्लुक रखती है। नूरुद्दीन के वंशज सैयद मुसलमानों ने गांव में एक तालाब भी बनवाया था। वह तालाब आज भी वहां है। एक कर्बला भी है जो आज भी इमाम साहब को एक बाड़ा दिये हुए है। इसी तरह शहीद नूरुद्दीन वहां सभ्यता और संस्कृति के दोनों तरह के प्रतीकों की तरह बाद के समय में, चाहे जैसा भी हो, मौजूद नजर आता है। जबकि गिलक्रिस्ट इतिहास से बाहर हो गया अतीत का एक अजनबी खंडहर भर हो गया है।

‘आधा गांव’ की कथा के सांस्कृतिक ताने-बाने में जहां गंगा, किला, गढ़ी, तालाब, कर्बला और समाधि जैसी चीजें महत्वपूर्ण है, वहां इसके कथानक के ताने-बाने को एक सूत्र में पिरोने वाली चीज़ है मोहर्रम। ‘आधा गांव’ का एक पात्र है मीर अतहर हुसैन। इस शख्स ने अपनी जिंदगी जैसे मोहर्रम को समर्पित कर दी  है। सारा साल मोहर्रम की तैयारियों में बीत जाता है। यह आदमी नौहों के लिये तरह तरह की धुनें तैयार करता है। ताजियों को बनाने में मदद करता है। पूरा गांव उस के बनाए हुए नोहे सुनने के लिए बेताब रहता है। मोहर्रम इस्लामी संस्कृति का केंद्रीय पर्व है। इसमें मातम मनाया जाता है। यह मातम इमाम हुसैन की शहादत से ताल्लुक रखता है। इराक के कर्बला में यह शहादत हुई थी, परंतु गंगौली का कर्बला यहां का अपना इमामबाड़ा है। ऐसे इमामबाड़े हिंदुस्तान में जगह-जगह दिखाई दे जाते हैं। इस तरह इमाम हुसैन एक भारतीय पैगंबर के रूप में हमारे सामने उभरते हैं। गांव के लोग यह कहते देखे जाते हैं कि गांव के सैयद मुसलमान जो अपने आप को कुलीन समझते हैं और गरीबों की परवाह नहीं करते, इमाम हुसैन उनके नहीं है। इमाम हुसैन सामान्य जन के मसीहा हैं। गांव के कई लोग उन्हें भारतीय मानते हैं। इस तरह एक शख्स इराक से उठकर जैसे हिंदुस्तान की ज़मीन का हिस्सा हो जाता है और उस की शहादत के बारे में बनाए जाने वाले ताजियों में भारतीय मुसलमान अपने तरीके से शरीक होते हैं। उपन्यास के आरंभ में मोहर्रम पर निकाले जाने वाले ताज़िये एक तरह की प्रतिस्पर्धा के रूप में दिखाई देते हैं। गांव के लोग बढ़-चढ़कर बाकियों से बेहतर ताजिए निकालने में जुटे रहते हैं। लेकिन जैसे ही उपन्यास भारत विभाजन के साथ जुड़ी घटनाओं की ओर मुड़ता है, इस की कथा मोहर्रम को एक नये अर्थ में गहराने लगती है। साथ ही मोहर्रम का  मातम भी गहरा कर व्यापक हो जाता है।
भारत विभाजन के बाद गांव के कई नौजवान पाकिस्तान चले जाते हैं, तो उसके बाद का मोहर्रम बेहद मार्मिक और कारुणिक हो उठता है। यह इस तरह का मोहर्रम हो जाता है, जहां मातम सब ओर तारी है। लेकिन हर एक का अपना अलग मातम भी है। वह व्यक्तिगत मातम से ऊपर उठता हुआ जैसे पूरे युग पर फैले हुए मातम की शक्ल लेने लगता है।
इस संबंध में उपन्यास में हम कथा कहने की एक खास तकनीक को अपने सामने प्रस्तुत होता पाते हैं। पश्चिम में इस तकनीकी या युक्ति को दृष्टिकोण-मूलक युक्ति कहा जाता है। वहां एक ही स्थिति के विविध कोणों को पात्रों की विविध प्रतिक्रियाओं के द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। इससे कथा स्थितियों की जटिलता अपने अनेकार्थी और विविध आयामों को हमारे सामने उद्घाटित करने लगती है। इस से हम समझ पाते हैं कि कथा में कोई भी स्थिति इकहरी नहीं होती।। अपितु उसके बहुत से अर्थ और बहुत से रूप हो सकते हैं।
परंतु यह उपन्यास इस तकनीक का एक अलग ही तरीके का इस्तेमाल करता है। इसे हम कथा कहने की रागधर्मी दृष्टि की  युक्ति कह सकते हैं। जैसे हम एक शास्त्रीय राग में यह देखते हैं कि मूल बंदिश एक ही तरह की होती है, परंतु उसमें अभिव्यक्ति के तल पर, पर्याप्त भावमूलक  विविधता के लिये गुंजाइश रहती है। राग में तमाम तरह की विविधताएं अंततः महाराग की मूलधारा में विलय हो जाते हैं। इस तरह यहां हम एक अलग तरह की तकनीक को प्रकट होता देखते हैं। यहां व्यक्तिगत नज़रियों की विविधता प्रस्तुत की गयी है, परंतु वे सारे व्यक्तिगत नज़रिए व्यापक परिप्रेक्ष्य में किसी एक युगबोधक परिदृश्य के महाराग में विलीन होकर अपनी अलग स्थिति को गंवाते हुए भी दिखाई देते हैं। यह तकनीक इस उपन्यास के चित्रणों को जहां एक तरह की काव्यात्मकता  देती है, वहां इसे शैली और कथ्य की एकाकारता की दृष्टि से इतनी ऊंचाई पर उठा देती है कि हम इस कृति को सहज ही एक वैश्विक स्तर की कृति की तरह देखने के लिए बाध्य हो उठते हैं। इस तकनीक का इस्तेमाल हमें इस उपन्यास के ‘तनहाई’ नामक अध्याय में खास तौर पर दिखाई देता है। ऊपर हमने मीर हुसैन के मोहर्रम के प्रति समर्पण की बात की है। यह मीर हुसैन भारत के विभाजन के बाद के मोहर्रम में अपना नोहा जैसे ही प्रस्तुत करते हैं, सारी मजलिस में मातम छा जाता है। वह मातम ऐसा होता है कि न रोने वाले भी रोते नज़र आते हैं। जिस तन्हाई की बात उस नोहे में कही जाती है, वह व्यापक परिदृश्य के महाराग की तरह सारे वातावरण पर तारी नज़र आती है। परंतु उसमें हर व्यक्ति अपना अलग सुर लगाता है। हर एक की अपनी अलग तन्हाई है। हर एक का अपना अलग मातम है। परंतु व्यापक परिदृश्य में सभी के मातम जैसे किसी एक महाराग की धारा में  प्रवाहित होते हुए दिखाई
देते हैं।
नीचे उस प्रसंग को यथावत  प्रस्तुत किया जा रहा है:
“आज शब्बीर पर क्या आलमे तन्हाई है। हुसैन अली मियां ने पहला ही मिसरा पढ़ा था कि मजलिस उलट गई। हद तो तब हुई जब कभी न रोने वाले हकीम अली कबीर भी रोने लगे। फुम्मन मियां की सफेद मूंछें आंसुओं से भीग गई। …. हम्माद मियां और  हकदार मियां के अलावा तमाम लोग रोने लग पड़े थे , क्योंकि इन तमाम लोगों के गले में पाकिस्तान की कटी हुई नाल फांसी की तरह पड़ी हुई थी। तमाम लोगों के दम घुटे जा रहे थे।अब इन तमाम लोगों को मालूम हो गया था कि आलमे तन्हाई कहते किसे हैं। हकीम साहब के लिए आलमें तन्हाई के मानी थे कि उनका इकलौता बेटा पाकिस्तान में था। फुस्सू मियां  को सल्लो की तन्हाई डस रही थी। फुम्मन मियां उस रोज़ बिल्कुल अकेले हो गए थे जिस दिन शहीदों की समाधि का उद्घाटन हुआ था। जलसे में जब उन्होंने यह कहा था कि उनका बेटा भी शहीद हुआ था तो वह अपनी आवाज की तन्हाई पर खुद चौंक उठे थे। कायनात भांएं भांएं करने लगा। जैसे उनके सिवा दूर-दूर तक कोई मौजूद ही ना हो। हर कैफियत अकेली थी। हर जज्बा तन्हा था। दिन का रात से और रात का दिन से ताल्लुक टूट गया था।”

मोहर्रम का मातम यहां  भारतीय मुसलमान की रूहानियत की सांस्कृतिक  जमीन की तरह हमारे सामने प्रस्तुत होता है। यह जमीन जितनी वास्तविक है, उतनी ही  भावात्मक भी। ‘मार्क्सवाद और साहित्य’ के संबंध में लिखी अपनी किताब में रेमंड विलियम्ज़ ने ‘भावों की जमीनी संरचनाओं’ की बात उठाई है। भाव केवल चित्तगत नहीं होते, अपितु समाज-सांस्कृतिक संबंधों और आर्थिक आधारों में उनकी जड़ें होती  है। इन से जुड़ी संस्थाएं उन भावों को अपने मुताबिक अलग शक्ल दिया करती हैं। इस तरह भाव जितने व्यक्तिगत होते हैं, उतने ही संस्थानिक होकर भी हमारे सामने अपने सामाजिक अर्थ प्रकट करते हैं । यहां मातम का यह जो भावगत परिदृश्य है, वह जितना व्यक्तिगत है उतना ही संस्थागत भी है। सामाजिक संस्थाओं के अंतर्गत इस  मातम का मूल आधार हमारे परिवार हैं। परिवारों से जुड़ी वंशपरंपरा है। उसे धार्मिक-सांस्कृतिक संस्थाएं , ज़मीनी रूप में सांप्रदायिक न बना कर, सभ्यतामूलक रूप प्रदान करती हैं। इस तरह भाव का एक जातीय और सभ्यतामूलक ढांचा तैयार होता है, जो हमें भावों के भीतर की गहरी संरचना में मौजूद नजर आता है। इस बात को लेखक ने अपनी ‘भूमिका’ वाले अध्याय में और स्पष्ट किया है। वह बताता है कि इस उपन्यास के पात्र भारत विभाजन के बाद अपने परिवारों के कुछ सदस्यों के पाकिस्तान चले जाने के कारण, अपनी जातीय वंशमूलक परंपरा को खतरे में पड़ा हुआ अनुभव करते हैं। लेखक स्पष्ट करता है कि भारत विभाजन के कारण गांव में जो मातम है, वह इसलिए नहीं है कि गांव के किसी व्यक्ति को पाकिस्तान जाकर अपनी जाति के निम्न होने की बात को छिपाने का मौका मिल गया है और वह खुद को सैयद कहने लगा है। इसके उलट यहां के लोगों की फिकर यह है कि वे लोग जो पाकिस्तान चले गए हैं उनकी वंशपरंपराएं अपनी जातीय पहचान को खंडित होने से कैसे बचाएगी?  और वह विखंडन उनके संबंधों को क्या रूप देगा? आईए इस संबंध में इस उपन्यास के एक अंश को देखते हैं:
“यह दुखदाई नहीं कि सफिरवा  पाकिस्तान जाकर सैयद हो गया। मैं तो सल्लू और उसकी बेटी शाहिदा के लिए परेशान हूं कि शाहिदा  बड़ी होकर कैसी मां बनेगी। सवाल यह भी है कि कुद्दन ने पाकिस्तान में एक और शादी कर ली है तो हिंदुस्तान में हकीम अली कबीर के पोते और पोतियों की पूरी खेप का क्या बनेगा?”

ऊपर किए गए विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि ‘आधा गांव’ जितना सतह के ऊपर विकास करता है, उससे कहीं अधिक वह अपनी भीतर की संरचनाओं में खुलता और व्यापक होता चला जाता है। यह उपन्यास सतह को तोड़कर गहराई को मुखर बनाने का एक अनूठा प्रयोग करता है। सतह पर जो इतिहास खंडित होता नज़र आता है, गहराई में उसके खंड आपस में टकराते हुए शोर करते हैं, चीजों को, पात्रों को और उनकी मनःस्थितियों  को और अधिक तोड़ते हैं, लेकिन अंततः उन भग्नावशेषों के पुनरुद्धार से एक नई मानवीय भाव भूमि को एक भव्य संरचना में बदल देते हैं। वहां सतह पर समय का जो भी विभाजन है, भूगोल का जो टूटना है और उसके कारण भारतीय मुसलमान पात्रों का जो टूटकर बिखर जाना है, वह गहराई में अपने वास्तविक इतिहास की खोज में मुब्तिला होता है। गहराई में अपने आप को पाने की कोशिश में वह अपनी सभ्यतामूलक और जातीय आत्मा को पहचानने के करीब चला जाता है। और इस तरह भारत की उस अनवरत अखंडता के साथ एकाकार हो जाता है, जिससे भारत के किसी व्यक्ति को उखाड़ना या अलहदा करना किसी तौर पर संभव नहीं होता।  इसलिए इस उपन्यास में लेखक यह प्रश्न उठाता है कि यदि उसके दादा परदादा बाहर के हैं, तो भी वह खुद तो भारत का है। यही उसका घर है और इस घर से उस को कोई भी अलग नहीं कर सकता है। यह घर उसकी अपनी ज़मीन से संबद्धता की नींव पर उसरता है। वहीं उसकी जड़े हैं और वहीं से खाद पानी प्राप्त करके वह अपने व्यक्तित्व का विकास करता है। ऐसा करने से उसे एक अलग तरह की आत्मा की प्राप्त होती है, जो विशुद्ध भारतीय आत्मा होती है। फिर यह किसी राजनीतिक दल के बस की बात नहीं रह जाती कि ऐसे भारतीय मुसलमान से कोई उसका ऐसा गहरी नींव वाला घर छीन सके :
“जनसंघ का कहना है कि मुसलमान यहां के नहीं है।मगर यह कहना ही पड़ता है कि मेरा गंगौली से संबंध अटूट है। वह एक गांव ही नहीं है वह मेरा घर भी है। घर, यह शब्द कितना मज़बूत है। क्योंकि यह शब्द जिंदा है। मैं गाजीपुरी का ही रहूंगा। चाहे मेरे दादा कहीं के रहे हो।”

कथा की संरचना का बुनियादी ताना-बाना एक रिवायती मोहर्रम से आरंभ होता है और फिर उस मोहर्रम तक पहुंचता हैं जो पूरे युग और इतिहास पर तारी हो जाता है। फिर वह पूरे भारतीय परिदृश्य को अपने में समेट लेता है। परंतु उपन्यास मोहर्रम से आरंभ करके उस महा-मोहर्रम तक पहुंच कर भी समाप्त नहीं होता। वह इसकी उत्तरकथा का भी बयान करता है। ऐसे उत्तरकांड को कथा का हिस्सा बनाने की परंपरा भारतीय महाकाव्यों में अक्सर दिखाई देती रही है। वह आधुनिक कहे जाने वाले पश्चिमी ढंग के उपन्यासों में दिखाई नहीं देती। वहां जब हम किसी मुकाम तक पहुंचते हैं, वहां उपन्यास को पूरा हुआ मान लिया जाता है।
परंतु यह उपन्यास इस भारतीय सोच और समझ को हमारे सामने प्रस्तुत करता है कि कोई भी कथा मुकम्मल हो कर भी मुकम्मल नहीं होती। कथा के भीतर से दूसरी कथाएं निकलती रहती है। फिर एक नई कथा शुरू होती है। ठीक उसी तरह जैसे पुरानी कथाओं के भीतर से मुख्यकथा हमारे सामने नये नये रूपों में प्रकट होती रहती है। इस तरह विभाजन के बाद की उत्तरकथा में हम पुनः  स्थितियों के सामान्य होते हुए हालात को देख पाते हैं। हालात बदले हुए हैं। परंतु उन्हें हम न बदतर कह सकते हैं, न बेहतर कह सकते हैं। परिवर्तन अपनी राह पर जैसे निरपेक्ष रूप में आगे बढ़ता चला जाता है। वह लोगों के मुताबिक नहीं होता, परंतु उनके खिलाफ भी नहीं होता। इसलिये उसे हम न यथास्थितिमूलक कह पाते हैं, न क्रांतिकारी। जिमीदारी खत्म हो जाती है, तो सैयद मुसलमानों का गांव में वर्चस्व भी चला जाता है। आजादी मिलने के बाद के परिदृश्य में हिंदू एमएलए वहां का प्रतिनिधित्व करता दिखाई देता है, तो उसका साथ मुसलमानों के भीतर से आए हुए कई पात्र देते हैं। राजनीति का वह निस्वार्थ रूप जो भारत को आजाद कराने में दिलचस्पी लेता था, वह भारत के सांप्रदायिक विभाजन के अभिशाप को ढोता हुआ स्वयं भी अपराधीकरण का शिकार हो जाता है। इस उपन्यास के दो महत्वपूर्ण पात्रों फुम्मन और झिंगुरिया की हत्या हो जाती है। विकास अपनी रफ्तार पकड़ता है। सड़कें पक्की होने लगती है। परंतु लोगों के हिस्से में बहुत कुछ नहीं आता। सामंतीयत्ता के टूट जाने पर नई तरह के सत्ता समीकरण अपनी नई तरह की पतनशीलता के साथ प्रस्तुत हो जाते हैं। इससे लगता यह है कि जैसे यथार्थ पुनः अपनी सामान्य चाल पर चलने लगा है। आजादी मिल गई है, परंतु इसके बावजूद गहराई में बहुत कुछ नहीं बदला है। जो सांप्रदायिक अंतर्विभाजन भारत के भौगोलिक विभाजन तक ले गया था, वह अब रूप बदलकर वोटों की राजनीति का आधार हो जाता है। मुसलमान अब अपने भारतीय होने की पहचान को नए अर्थ में और नई शक्ल में गढ़ने के लिए बाध्य होते हैं। नए परिदृश्य में वे पहले से थोड़े अधिक अजनबी और मुख्यधारा के लिए एक अलग इकाई की तरह, एक नई शक्ल लेते नजर आते हैं। अब यथार्थ उनके लिये  नई तरह की जद्दोजहद का पर्याय है। लेकिन उपन्यास भारतीय मुसलमान की अपनी ज़मीन से जुड़े रहने की आस्था को हमारे सामने रखता हुआ उन्हें जहां खड़ा करता है, वहां से उन्हें अलहदा करने का न तो कोई प्रयोजन बचता है और न सरोकार। राजनीतिक सरोकारों का स्वार्थमय पाखंड अलहदा चीज़ है, वह आजादी से पहले भी था, बाद में भी है। बस उसकी शक्ल बदल गई है। लेकिन भारतीय मुसलमान के भारत को ही अपना देश समझने की जो बात यहां हमारे सामने आती है, वह भारत से पाकिस्तान गए लोगों के अपनी गलती पर पुनर्विचार के लिए भी एक वजह की तरह हमारे सामने आती है। पाकिस्तान गया एक पात्र जब अपने गांव वालों से मिलने के लिये गंगौली आता है, तो एक गंगौली वाले की ये पंक्तियां गहरा कर युगबोधक अर्थ ग्रहण करती प्रतीत होती हैं :
“तो उस घर में लौट आ, जो तेरा अपना घर है जिसे तेरे दादा परदादा ने बनाया था।”







इस पूरे विमर्श में गहरे यथार्थ की कसौटी पर अंततः पाकिस्तान को पाकिस्तान के रूप में स्वीकार करना और उसे अपने मुल्क की तरह देखना भारतीय मुसलमान के लिए किसी तौर पर संभव प्रतीत नहीं होता; क्योंकि पाकिस्तान उसका अपना घर कभी नहीं हो सकता। यहां  हम भारतीय उपमहाद्वीप के सांस्कृतिक और जातीय आधार पर पुनरेकीकृत होने की तरफ कदम बढ़ाते दिखाई देते हैं। बेशक यह बात चेतना के धरातल पर ही मुमकिन है। परंतु यदि चेतना है, तो उस की ज़मीनी हकीकत भी कहीं ना कहीं तो मौजूद होगी ही। इस लिहाज से यह उपन्यास एक बड़ी गहरी आश्वस्ती प्रदान करने वाला उपन्यास बन जाता है, जो किसी भी तरह के विभाजन के खिलाफ है। यह एक मनुष्य को, मनुष्य के तौर पर, उसका वास्तविक घर दिलाने के लिए प्रतिबद्ध नजर आता है। एक मुसलमान के लिये, इस तरह मनुष्य की तरह सोचते हुए,  भारत की पहचान यहां अपने घर की पहचान की शक्ल लेती है और भारतीयता जीवन की उस अनवरतता के रूप में हमारे सामने आती है, जिसकी समन्वयात्मक धारा में अंततः हमारे सारे अंतर्विरोध विलीन हो जाते हैं।
०००


विनोद शाही जी का एक लेख और नीचे लिंक पर पढ़िए

मैं क्यों लिखता हूं
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/09/blog-post_24.html?m=1



24 मार्च, 2019

कुमार मंगलम की कविताएं



मैं मरूँगा सुखी, मैंने जीवन की धज्जियां उड़ाई हैं
                                                            अज्ञेय


कुमार मंगलम



कविताएं




मैं मृत्यु को चाहता हूँ
आधो-आध

मेरे जीवन की कहानी
प्रभावों की कहानी है
मैंने अबतक जो भी किया
अधूरा ही किया

मैं अधूरा होकर
अधूरा ही चाहाता रहा
मुझे अब तक जो मिला
अधूरा ही मिला

मैंने हरेक चीज को अधूरा ही बरता
और इस तरह से अधूरा ही रहा
मैंने अधूरा जिया
अधूरा ही मरना चाहता हूँ

अधूरेपन का हरेक विन्यास ही
मेरे मृत्यु और जीवन को
मेरे घृणा और चाह को
पूर्णता देगा

मैं मरूँगा
पूरा
मैंने जीवन को अधूरा जिया है।

दो


जीवाशा

अंधेरी रातों के निचाट
सूनेपन में
तानपुरे की सी
झींगुर की आवाज
जीवाशा है।

जेठ की भरी दुपहरी में
जब गर्म हवाओं का शोर है
चारो-ओर
तभी बर्फ-गोले वाले की
घंटी की आवाज
जीवाशा है।

ठिठुरती सर्द रातों में
मड़ई में रजाई में पड़े पड़े
जब अपनी दाँत ही
कटकटा रही हो
रोते कुत्ते की करुण रुलाई
जीवाशा है।

जीवन के कठिनतम समय में
भी
बची रहती है
एक जीवाशा।



तीन


तुम किसमें हो कुमार
तुम कहाँ हो कुमार बाबू

एक तो वह है
जिसे अभी अभी उसकी नौकरी से
बाहर निकाल दिया गया

एक दूसरा भी है
जिसके सारे बाल झड़ गए
नौकरी के उम्मीद में
शादी भी नहीं हुई
और उसके लिए दिल्ली बहुत दूर है

तीसरा नौकरी के उम्मीद में
घर से बाहर रहकर तैयारी कर रहा है
और देश के किसी
संस्थान में उसके लिए
अभी तक कोई जगह नहीं बनी है

चौथे का तो बुरा हाल है
एम.ए. कर पीएचडी के इंतज़ार में
चार साल बिता दिए उसने

पांचवां अब दिहाड़ी मजदूरी करने लगा है
छठवां गायब हो गया है दोस्तों के बीच से
लापता, किसी को नहीं पता
कहाँ बिला गया है वह

सातवें का बाप मर गया
भाई भी
माँ भी दवाई पर चलती है

तुम किसमें हो कुमार
किसकी जय जयकार कर रहे हो तुम अनवरत।




यादवेन्द्र



चार


छल

जब भी कविताएं लिखीं मैंने
छल किया शब्दों से
झूठ बोला बिम्बों से
छलावे थे सभी
कोरा यथार्थ कुछ न था
गल्प था गप्प
कल्पित किया
गेहूँ को
और रोटी बना उदरस्थ कर लिया

सोचता हूँ क्या उस दिन
जब मेरे छल का
होगा पर्दाफाश
क्या होगा उस दिन
जिस दिन
गेहूं कविता लिखेगा
उस दिन वह मुझे
कहाँ खड़ा करेगा।



पांच



क्षमा

क्षमा करो कि अब तक जो कहा
क्षमा करो उसके लिए कि भी
मेरे मरने के बाद भी जो कुछ कहा जायेगा

क्षमा भी एक किस्म की मौत है
जिसे माँगने वाला कई बार मरता है
इस महादेश में जब मृतकों पर राजनीति होती है
धर्म और राष्ट्र  जब व्यक्ति केंद्रित हो जाये
एक लेखक अपने मौत की घोषणा करता है
कहता है क्षमा करो हे महादेश

क्षमा मृत्यु है
और क्षमा मांगने के बाद क्षमाप्रार्थी की देह जिंदा रहती है
चेतना मर जाती है


छः

चलो
कि चलने का वक्त है

चलो की चलते जाना है
चले चलो कि
मंजिल अभी नहीं आयी है

राह है कि पता नहीं
पर चलो

चलो पर देखो कि
जिस राह पर चल रहे हो
वह किस ओर जाती है

हत्या हो तो चलो
मर जाओ तो चलो
चलो जब झूठ अपनी सारी हदें पार कर जाये
चलो किसी मृतकभोज में
चलो किसी उत्सव में और दो कौर उठाओ

चलते चलो कि मंजिल करीब नहीं
तुम्हारे उद्धार के लिए कोई भागीरथी नहीं
चलो चलो कि
चलते चले जाना है
मर जाना है
जीते जीते
या मरते मरते भी चले जाना है

चलो कि हमारी कोई मंजिल नहीं
बस चलो

सात



वसंत यहां जल्दी आता है

शीघ्रता में भी एक लय है
जल्दी-जल्दी हो जाने का लय
वसंत के आते ही
सभी पीले होने लगते हैं

पीले पात, पीले गात

पीलेपन की यह सामूहिकता
शीघ्रता की लय में घटित होती है

कुछ पत्ते पीले होकर डाल से झूलते रहते हैं
और कुछ पीलेपन की निस्तेज छटा के साथ
धरती से आ मिलते हैं।

शाम में डूबता सूर्य शीघ्रता के क्रम में
पीला होता है और फिर
काली और लम्बी रात में तब्दील हो जाता है

अचानक पीलेपन का सौंदर्य मोहने लगता है
लेकिन यह भी शीघ्रता में घटित होकर
लंबी उदासी या ऊब पैदा करता है।



आठ

हवा से चलते-फिरते माँग लिया एक श्वांस
आग से थोड़ी गर्मी मांग ली
अन्न से माँग लिया भोजन
फल से थोड़ा सा हिस्सा ले लिया उधार
और फूल से गंध

जीवन में जीते हुए
दुराशा से मांग ली थोड़ी लापरवाही
प्रत्याशाओं ने घेरा
और मुझे अकर्मण्य बना दिया

पहाड़, नदियाँ, प्रकृति आदि ने
मुझे दिया खुलेपन का उपहार दिया
मैं यूँ ही जीता गया
परजीवी होकर, उधार का खाया
उधार का जिया
उधार का हिसाब बन गया समंदर
एक दिन समंदर के लहर ने
दरवाजा खटखटाया
और कहा मेरे उधार को चुकता करो

कैसे चुकता करता
दुब की नोक भर हरियाली
दिए का टिमटिमाता प्रकाश
अंधेरे के गान का शोर
उजास की शांति
यह मेरे अकेलेपन, असमंजस की कथा
अकुलाहट में सहम कर चुप हुआ

बंद हुए सब दरवाजे
हर आहत का खटका
सूदखोर के आने का संकेत

यूँ भाग-भाग और डर-डर कर
उधार हुआ अपना जीवन
मैं रहा कृतघ्न
मैं मरा अकेले
प्यार विहीन

उस उधार के बदले
दे देता प्रति-प्यार का
राई भर




यादवेन्द्र



नौ

हवा चली है पुरवाई
और महक उठा है कमरा
रजनीगंधा के सुगंध से

पूरब की तुम थी
और जब भी बहती है पुरवा
तुम्हारी देह गंध को महसूस करता हूँ



दो


मेरे कमरे में
मेरी पत्नी ने गुलदान में रख दी है रजनीगंधा

रजनीगंधा के फूल जैसे आंखें हो तुम्हारी
उसे देखता हूँ तो लगता है
उनमें कुछ अनुत्तरित सवाल हैं
जिनके जबाब मेरे पास है


तीन

रजनीगंधा की फूल
मेरे मन को सहलाती हैं
और
याद आता है वो पल
जब तुम्हारी उंगलियां मेरे बालों को सहलाती थी


चार

प्रेम के सबसे अकेले क्षण में
जब हम केलिरत थे
लाज छोड़ सिमट गई थी तुम मुझ में

तुम्हारे उन्नत उरोजों पर
फूलों की पंखुड़िया चिपकी रह गयी थी


पांच

हम दोनों को
एक समान रूप से पसंद है
रजनीगंधा

जाने तुम ने नफरत से
या मुझे छोड़ देने के लिए
नहीं स्वीकारा था उस अंतिम मुलाक़ात में
गुच्छों में बंधे रजनीगंधा को

सड़क किनारे फेंक दिया था उसे
गुस्से में आकर
वहीं उस सूखते, कुचलते, सड़ते, उपेक्षित
गुच्छे में मेरा प्यार और
हमारा संबंध दम तोड़ दिया

तुम तो हर रोज उस रास्ते से गुजरती हो
क्या वहां मेरा उपेक्षित प्यार
कभी तुम्हें रोकता नहीं है
क्या तुमने कभी ठिठक कर देखा नहीं



दस


जब मैं तुम तक आया
अंधा होकर आया
मेरे चारो ओर
तुम्हारे दिग्विजय का शोर था

चारो तरफ सिर्फ तुम ही तुम थे

जब मैं तुम तक आया
आक्रांत होकर आया
मेरे चारो ओर
तुम्हारे धर्म रक्षक होने का शोर था

चारो तरफ सिर्फ तुम ही तुम थे

जब मैं तुम तक आया
भक्त बन कर आया
मेरे चारो ओर
तुम्हारे भगवान होने का शोर था

तुम भगवान होकर हत्यारे हो गए

अब जब मैं तुमसे विलग हो रहा हूँ
तुम सा हो गया हूँ
तुम तक आते आते
मैं बिल्कुल अकेला हो गया हूँ।



ग्यारह

जैसे मैं तुझसे प्यार करता हूँ
और तुम तक आता हूँ हर बार

तुम मुझसे प्यार करो
और मुझे भूल जाओ

तुम मुझे वैसे ही किनारे से
लौटा दो
जैसे समुद्र से उठती लहरें
किनारों को छूकर
लौट आती है।





यादवेन्द्र




बारह

दिन ढ़लते
शाम
तट पर पानी में पैर डाले
नदी किनारे
रेत पर
औंधा पड़ा है

दो

नदी किनारे
रेत के खूंटे में
बजड़ा बंधा है

नदी के
प्रवाह में प्रतिबिम्बित
एक बजड़ा और है

यूँ नदी ने
बजड़े का चादर ओढ़ रखा है


तीन


नदी के बीच धारा में
लौटते सूर्य की छाया

नदी के भाल को
सिंदूर तिलकित कर दिया है

यूँ नदी
सुहागन हो गयी है।



चार


नदी के तीर
एक शव जल रहा है

अग्नि शिखा
जल में
शीतलता पा रही है।


पांच

सूर्योदय के वक्त
पश्चिम से
पूर्व की ओर देखता हूँ

नदी के गर्भ से
सूर्य बाहर आ रहा है।




छः


नदी किनारे
एक लड़की
जल में पैर डाले

बाल खोले
उदास हो
जल से अठखेलियाँ खेलती है

यूँ नदी से
हालचाल पूछती है।

सात

बीच धारा में
नहीं ठहरती हैं
नावें


आठ

नदी
को देखा आज नंगा

पानी उसका
कोई पी गया है

नदी अपने रेत में
अपने को खोजती

एक बुल्डोजर
उस रेत को ट्रक में भर कर

नदी को शहर में
पहुंचा रहा है।





यादवेन्द्र




नौ


नदी की अनगिनत
यादें हैं मन में

नदी अपने प्रवाह से
उदासी हर लेती है

उसकी उदासी को
हम नहीं हरते


दस


शाम ढले
उल्लसित मन से
गया नदी से मिलने नदी तट

नदी मिली नहीं
शहर चुप था
उसे अपने पड़ोसी की
खबर नहीं थी

नदी में जल था
प्रवाह नहीं था

नदी किनारे लोग थे
शोर था
चमकीला प्रकाश था

नदी नहीं थी

लौटता कि
आखिरी साँस लेती
नदी सिसकती मिल गयी

उसने कहा
यह आखिरी मुलाक़ात हमारी

दर्ज कर लो
तुम्हारे प्यास से नहीं
तुम्हारे भूख से मर रही हूं

यूँ एक नदी मर गयी

और मेरी नदी कथा
समाप्त हुई

भारी मन से
प्यासा ही
घर लौट आया।
००


कुमार मंगलम की कुछ कविताएं और नीचे लिंक पर पढ़िए


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