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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

14 मार्च, 2019

अनुराधा अनन्या की कविताएँ



अनुराधा अनन्या



तीर्थयात्रा पर औरतें 

एक बड़े रेवड़ की तरह
चली जा रही हैं
मूर्ख मालिकों के पीछे-पीछे

लाठी से हांकता हुआ मालिक
गिन-गिन कर जमा रहा है रेवड़ को
रेवड़ पार करता है  व्यवस्थित ढंग से
तीर्थ स्थल तक पहुंचने वाली सड़क को

रेवड़ भेड़ों का नहीं,औरतों का है
औरते घूंघट में हैं
घूंघट से निहारती
शहर को,शहर के नज़ारे को
नए रंग उतर जाते हैं
पर्दें में छिपी नज़रों में
इसी तरह सार्थक हो जाती है यात्रा भी तीर्थ की .






तीर्थस्नान में औरतें

पानी में उतर रही हैं औरते
पानी की तरह ही दिख रही हैं उनकी देह
बिल्कुल पारदर्शी
अपनी देह के साथ पूरी-पूरी आज़ाद औरते
बिना किसी शर्म के, बिना किसी गर्व के

एक-दूसरे का हाथ पकड़े
गोल घेरे में
फूल की व्यवस्थित पत्तियों की तरह
डूबकी लगाती, तैरती जा रही है लहरों के साथ

 जीवित औरते पानी की गोल जलतरंगों सी
आपसी तालमेल से रच रही है मधुर संगीत

कितना जीवंत दृश्य है
मटमैले तीर्थ के पानी का
ये कोई तीर्थ की महिमा नहीं
अंदरूनी रंग है  जो साझे संयोजन से
सुंदर बना रहे हैं दृश्य को

कितने मूर्ख है वो जो जिन्हें नज़र नहीं आता
आज़ाद तरंगों के संगठन
और बात कर रहे हैं तीर्थ से सुनिश्चित होने वाले आभासी मोक्ष की








कीर्तन 

अलग-अलग पीढ़ी की औरते
एक मंच पर बैठी कर रही हैं कीर्तन
अपने-अपने समय की व्यथाओं
कथाओं को भुलाकर
कुछ देर अवकाश पाकर खुश हैं

मुझे सुनाई दे रही है उबाऊ गीतों के पीछे छिपी
सम्भावनाओं की ध्वनियाँ
एक धुन में सजा रही है धीमे सुरों से
आपसी तालमेल का कमाल का अभ्यास है
इनके पास

भजन की धुनों पर थिरकते
बेफिक्र मदमस्त
एक ही मंच पर नाच रही है
एक ही समय में .
एक साथ सारी पीढियां
देह भुलाकर, देह के अनुपात भुलाकर
उम्र भुलाकर,रिश्तों के अनुपात भुलाकर
एक समुदाय में तब्दील हो रही
अलग-अलग कोठरियों,कोठियों की अकेली औरते

अपने देवताओं को चकमा देती
मना रही है ये आज़ादी उत्सव है अनजाने में ही
अपने बहनापे के रंग को महसूस करती

इसी तरह सामूहिक अभ्यास से
जान सकती है भगवान की बनावट के असली रहस्य
बस एक सही योजना की दरकार
और समूह को संगठन के अर्थ तक पहुंचने तक की देर है




अँधेरे से उजाले की ओर

मूहँ अँधेरे उठकर
घर के काम निपटा कर
विद्यालय जाती बच्चियाँ

विद्यालय जिसके दरवाज़े पर लिखा है
“ अँधेरे से उजाले की ओर”

घर से पिट कर आई शिक्षिका
सूजे हुए हाथ से लिख रही है बोर्ड पर
 मौलिक अधिकार

आठवीं कक्षा की गर्भवती लड़की
प्रश्नोत्तर रट रही हैं  विज्ञान के “प्रजनन” पाठ से

मंच से महिला पंच ने
घूंघट में ही भाषण दिया
महिला उत्थान का
 तालियाँ  बजी बहुत ज़ोर से
सहमति और उल्लास के साथ
भाषण  पर नहीं , सूचना पर
जो चिपक कर आई थी भाषण के साथ ही
सूचना जो “करवाचौथ” के अवसर पर आधे दिन छुट्टी की थी

लौट रही हैं बच्चियाँ,गर्भवती लड़की, पिटकर आई अध्यापिका और घूंघट में महिला पंच
अपने-अपने घर वापस
विद्यालय से, जिसके दरवाज़े पर लिखा है
अँधेरे से उजाले की ओर

लौट रही हैं सब एक साथ
ख़ाली हाथ उजाले के मन्दिर से
बिना उजाला लिए







साथ

मैं किसी लुप्त नदी सी
मेरे साथ रहता था
एक उदास जंगल

तुम थे
एक मनचले समंदर से
शायद कोई ख़ाली
जगह बची थी कहीं
तुम्हारे भीतर
वहीं से उतरती गई मैं
दिमाग सहित
तुम्हारी गहराईयों में।






आधी दुनिया आधा जीवन 

एक 

सालो बाद सहेलियों से बात हुई
सहेलियाँ जो बचपन में जीती थी
अधूरा जीवन
आधी दुनिया में

ये आधी दुनिया जो उनके पिताओ की थी,परिजनों की थी

सहेलियाँ बड़ी हुई आधी दुनिया के इंतज़ार में
जो मिलनी थी उन्हें पतियों के पास

मैंने उन्हें रंग ओढ़ते देखा
ख़्याल बुनते देखा
जो किसी सन्दूक से निकालती थी
और रख देती थी बड़ी हिफ़ाज़त से
अपनी आधी दुनियां के सफ़र के लिए

कितनी ही इच्छाएँ
कितनी ही आशाएँ
स्थगित कर दी थी उन्होंने
आधी दुनिया की कल्पना में
पूरा होने के वहम के साथ



आज फिर बात हुई
उन्हीं सहेलियों से
जो ज़िन्दा हैं अभी भी, आधी दुनिया में ही
अधूरी सी

बताती हैं अपने पतियों
और बच्चों के इर्द-गिर्द के जीवन को पूरा-पूरा

तलाश करती हैं मरने तक
बाक़ी की आधी दुनिया का
ईश्वर के  चरणों में

और इस तरह छिपा रहता है
आधी दुनिया, आधा जीवन का पूरा-पूरा सच




दो

एक औरत जो चुप रहती है
एक औरत जो कोसती रहती है
एक औरत जो सोचती भी है
आधी दुनिया के बीच

उनके कोसने
चुप रहने,सोचने में दिखती हैं
यात्राएं,योजनाएं, आशाएं
आधे जीवन के सफ़र की
जो खटकर जिया जा चुका है पूरा-पूरा

फिर भी खोजती हैं बाक़ी आधी दुनिया
अधूरे जीवन को पूरा करने की अधूरी आस लिए

अधूरी आस
जो ना फल सकी
पिता की दुनियां में
पति की दुनिया में
अधूरी ही रही जो
बच्चों की दुनियां में भी




तीन 

औरतों के कोसने,सोचने और चुप रहने की प्रक्रिया में
छलक उठती है भरपूर जीवन की दबी इच्छा
अधूरी दुनिया मे भी

यकायक ही संवाद के रूप में
बुदबुदाने में

कथाओं में,गीतों में
झुंड में रचे गए स्वांग में

या जब कह उठती है
कोई बूढ़ी कि कट गया हमारा जीवन तो ऐसे ही
या कहती है कोई ब्याहता
कि कहीं भाग जाने का जी करता है

ये औरतें, अलग-अलग रिश्तों में
खपाए गए पूरे-पूरे जीवन के बारे में बताती हैं
कभी पूरा-पूरा कभी आधा-अधूरा
फिर भी तैयार करती हैं पीढ़ी दर पीढ़ी
सम्भावित पत्नियां, भाभियां
या कोई और









आधी दुनिया के आदमी

अधूरे जीवन जीते हुए
पैदा करते हैं नई नस्ल को
अपने बुने हुए अधूरे सपनों को सौंप देते हैं

अपने बच्चों की आंखों को पूरा करने के लिए
नवजात बच्चे पैदा होते ही
बन जाते हैं उत्तराधिकारी आधी दुनिया के
और बीताते हैं अपना पूरा जीवन
माता पिता के अधूरे सपनों को
पूरा करने में

आधा जीवन,आधी दुनिया,आधे सपने बच जाते हैं फिर से विरासतों के ख़ज़ानों में






आंखों देखी

आज के दिन
एक लिजलिजा आदमी
देख रहा है
लिजलिजी आंखों से
गुलाब बेचती बच्ची को
अपने लिजलिजे दिमाग़ मे बुनता है कुछ
उसकी आवाज़ सुनकर


वो गुलाब बेचने वाली बच्ची
जो बता रही है
आज प्रेम दिवस और प्रेम की महिमा के बारे में।
गुलाब ख़रीदे जाने की उम्मीद में





प्रेम कविता

ओ मेरे प्रेम सखा
कुछ कविताएं की है मैंने प्रेम की

अब तुम भी पढ़ो
कुछ जादू नहीं उड़ेला
मैंने भी इन कविताओं में

जो था वही लिखा

एक दूसरे को कोसने
और न छोड़ने की जद्दोजहद

दूर हो-हो कर
वापस लौटने का सफ़र

रोजमर्रा के संघर्ष
और जीवन चलाने की
रोज़ की योजनाएं

चलता-फिरता जीवन
जीवन किसी चक्र सा
चक्र की धुरी में घूमता
प्रेम भी

प्रेम जो पनपता है
बार-बार ख़त्म होकर भी

और ख़त्म हो जाता है टूटते तारे सा
चमककर

और हम तुम
मेले में गुम हुए बच्चे की तरह
खोजते हैं
एक -दूसरे के
 क़ीमती स्पर्श को
और सुरक्षित हो जाते हैं
आलिंगन से

रूठे हुए मित्रों के जैसे
कोसते हैं,गलियाते हैं

बतलाते हैं दिन भर की खपत,
और तपिश की कहानी
थके हुए यात्रियों के  जैसे

धीरे- धीरे डूबता है
होशोहवास का सूरज
उनींदे से हम-तुम
उतरते हैं
देह से आत्मा के सागर में

इसी तरह का प्रेम हमारा
इसी तरह की प्रेम कविताएं भी
देख सकते हो सादे कागज़ पर




००



नाम-अनुराधा अनन्या 
जन्मस्थान- जींद (हरियाणा) 
लेखन-कविता,यात्रा वृतांत,लेख

पोस्टल एड्रेस-  Anuradha annanya
B4/58,second floor, Partham education foundation
safdarjung enclave near kamal cenema.
pin-code- 110029
Ph-8285235674
anuradha.annanya@gmail.com.

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