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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

31 मार्च, 2018

बुरांस के सानिध्य में महादेवी वर्मा जयंती पर गोष्ठी


पंखुरी सिन्हा

महान कवयित्री महादेवी वर्मा की एक सौ ग्यारहवीं जयंती पर, २६ मार्च २०१८ को, महादेवी सृजन पीठ रामगढ में एक भव्य दिव्य काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया. इस अवसर पर छठा महादेवी वर्मा स्मृति व्याख्यान देते हुए लब्ध प्रतिष्ठित लेखिका मृदुला गर्ग ने महादेवी की काव्य चेतना में आधुनिक नारीवादी तत्वों को रेखांकित किया।


इसके बाद वर्तमान स्त्री और लेखन के विषय पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए, उन्होंने स्त्री के आगे की कई चुनौतियों का विश्लेषण किया। लेकिन, उन्होंने कहा कि एक विकसित समाज में स्त्री किसी भी दृष्टि से पुरुष से कम नहीं, उसकी संवेदनाएं उतनी ही सूक्ष्म होंगी जितनी कि एक पुरुष की होंगी। कई उपन्यासों और कहानियों की पटकथाओं  की चर्चा करते हुए उन्होंने स्त्री की राह में बाधक कई विरोधाभासों का ज़िक्र किया। यहाँ स्त्री के भावनात्मक शोषण का उन्होंने विशेष उल्लेख किया, और उदहारण के तौर पर, अल्पना मिश्र की कहानी 'स्याही में सुर्खाब के पंख' को पेश किया। साथ ही, क्षमा शर्मा और गीतांजलि श्री के उपन्यास की भी चर्चा हुई, अन्य कई कृतियों के साथ.
इसी सत्र में विख्यात और वरिष्ठ कवि, मंगलेश डबराल ने अपना स्त्री और लेखन सम्बन्धी व्याख्यान देते हुए, स्त्री की बराबरी, आज़ादी और उसके श्रम की महिमा को रेखांकित किया। ईसिस सिलसिले में उन्होंने गीतांजलि श्री के उपन्यास की विस्तृत चर्चा की. साथ ही, उन्होंने कई दलित महिलाओं की आत्म कथाओं का उल्लेख किया, जिसमें स्त्री की लम्बी विकास यात्रा के कुछ संघर्षशील पदचिन्ह देखे जा सकते हैं। कन्नड़ लेखिका वैदेही की बातों को उद्धृत करने के साथ-साथ, उन्होंने कई विभिन्न भाषा भाषी लेखिकाओं की बातों से श्रोताओं का ज्ञान एवं उत्साह वर्धन किया। इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे, वरिष्ठ लेखक सतीश जायसवाल जी ने बाज़ारवाद के प्रति आगाह करते हुए कई गंभीर बातें कहीं और साहित्य की गंभीरता को अक्षुण्ण रखने का आग्रह किया।


इसके बाद दूसरे सत्र में चर्चित कवयित्री सुमन केशरी समेत अनेक विद्वानों ने स्त्री और लेखन के बेहद संवेदनशील, ज्वलंत और ज़रूरी मुद्दे पर अपने विचार और तर्क रखे. सुमन केशरी जी ने कहा कि आज की औरत खुद अपना वजूद ढूढ़ना चाहती है, न वह पहले की आदर्श नारी की गढ़ी हुई परिभाषा में समाना चाहती है, न मर्दों की नकल करना चाहती है. ओसाका यूनिवर्सिटी जापान में एक लम्बे समय तक अध्यापन कर चुकी, महादेवी की प्रिय और करीबी शिष्या डॉ यास्मीन सुल्ताना नक़वी जी ने महादेवी जी के संस्मरणों का सुंदर पाठ कर समूची महफ़िल को भाव विभोर कर दिया। उन्होंने महादेवी की एक करीबी झलक ही नहीं दिखाई बल्कि, उनके अनुशासन, और व्यक्तित्व के कुछ अनूठे पक्षों का दर्शन करवाया। साथ ही, दूधनाथ जी के निर्देशन में महादेवी जी पर ही अपने शोध प्रयास प्रसंग को लेकर उन्होंने समूचे विश्व विद्यालय और साहित्यिक परिवेश और समय को जीवंत बना दिया।
भोजनो परान्त तीसरे सत्र में, एक बार फिर स्त्री और लेखन के मुद्दे पर ज़ोरदार बहस हुई. इस सत्र में सहभागिता करने वालों में मुकेश नौटिआल, शशांक शुक्ल, रिया शर्मा और पंखुरी सिन्हा थे, सञ्चालन सिद्धेश्वर सिंह ने किया। शशांक शुक्ल ने स्त्री लेखन के विभन्न जटिल पक्षों की बढ़िया और बारीक विवेचना करते हुए कहा कि स्त्री जैसा बोलती है, वैसा ही लिखती है, अर्थात उसके पास एक विचार सम्पृक्त आवाज़ भी है, दृष्टि भी, दर्शन भी. आलोचना के सम्बन्ध में, शशंक जी ने एक बड़ा ही अहम सवाल उठाया कि अगर मुक्ति बोध के मैं का आसानी से समष्टि में विलय हो जाता है तो अमृता प्रीतम, न हन्यते की मैत्रेयि देवी अथवा अन्य स्त्री रचनाकारों का क्यों नहीं हो पाता? अपने भाषण के अंत में उन्होंने मृदुला गर्ग की बात को पुनः याद किया कि "मैं सर्जक हूँ, मर्द नहीं होना चाहती।"
इन्हीं बातों को आगे बढ़ाते हुए, पंखुरी सिन्हा ने कहा कि स्त्री पुरुष की संवेदनाएं भले एक हों, उनकी परिस्थितियां एक नहीं हो पायी हैं. काम के क्षेत्र में भी उनकी अलग ज़रूरतें भी होती हैं, जिनका बाकायदा सम्मान ज़रूरी है, जैसे की अँधेरे के बाद स्त्री किसी भी सड़क पर सुरक्षित नहीं। स्त्री और पुरुष की बायोलॉजिकल क्लॉक्स का अंतर् भी बड़ा है और बतौर विदेशी, बतौर इमिग्रेंट उनकी ज़िंदगिओं को अलग ढंग से प्रभावित करता है. महादेवी वर्मा की कविताओं पर अपना पेपर प्रस्तुत करते हुए, युवा लेखिका पंखुरी सिन्हा ने महादेवी की लोकप्रियता पर ज़ोर दिया और उनकी कविताओं के छायावादी सौंदर्य को उद्धृत किया।
इसी सत्र में सुनील भट्ट ने साहिर लुध्यानवी के गीतों और उनके जीवन पर एक शान दार परचा प्रस्तुत किया, जिसमें उनके छात्र कालिक प्रेम का भी ज़िक्र किया, जो अमृता प्रीतम से इतर किसी अन्य सिख लड़की के साथ था.


इन तीन विचार गोष्ठियों के सत्र के बाद, तीन उम्दा कविता सत्र भी हुए जिनमें अल्मोड़ा, और आस पास के क्षेत्रों से आये विभन्न कविओं के साथ, बाहर से आये कई कवियों ने हिस्सा लिया। इनमें साहित्य अकादेमी से सम्मानित मंगलेश डबराल, वनमाली तथा अन्य सम्मानों से सम्मानित सतीश जायसवाल , कुंवर रविंद्र, नन्द किशोर नौटियाल , गीता गैरोला , सिद्धेश्वर सिंह , शैलेय असम्भव , आशा शैली , मृदुला शुक्ल , नीलिमा शर्मा,  नूतन डिमरी गैरोला, पंखुरी सिन्हा, कविता कृष्ण पल्लवी, अर्चिता पंत, उमेश पंत, अनिल कार्की, सुनील भट्ट, राकेश सकलानी, सुभाष तराण, संदीप तिवारी,  डॉ ललित जोशी, डॉ तेजपाल सिंह, डॉ ममता एवं डॉ रचना अग्रवाल समेत अनेक कवियों ने भागीदारी की. सृजन पीठ से जुड़े हुए प्रोफेसर पोखरियाल और मोहन रावत जी ने कई सत्रों का सञ्चालन तो किया ही, उनके सक्रीय मार्गदर्शन ने कार्यक्रम को अधिक गरिमा प्रदान की. खिले हुए बुरांस के मौसम में, महादेवी साहित्य चर्चा के साथ-साथ, हिंदी साहित्य के अतीत, वर्तमान, भविष्य पर एक सार्थक बैठक मुकम्मल हुई.

 ०००

30 मार्च, 2018


जया घिल्डियाल की कविताएँ




जया घिल्डियाल 




कविताएँ

एक 
आशा /अपेक्षा कल का हिस्सा  है
जो है ही नहीं
उसे छोड़  कर
बेहतर  जिया जा सकता है ना !

तुम्हें  जानना
आशाओं /अपेक्षाओं  की अन्तर्यात्रा नहीं  है
तुम्हें  जानना अज्ञात की यात्रा है !


दो 

कुछ काम अगर नहीं भी होते
तो याद रहे
नहीं रुकते हैं, इस संसार का काम  !

हो जाती हैं विलुप्त भाषाएँ और सभ्यताएँ भी |

"काल किसी को अपना प्रवक्ता नहीं बनाता ! ”


तीन 

आप अपने बारे में उतना ही जानते हैं
जितना आप होते हैं
और जितना आप नहीं हो सकते !

लोग आपके बारे में उतना ही जानते हैं
जितने आप "नहीं हो सकने " से पहले बचे रहते हैं
और
जो आप होना चाहते हैं !


चार 

सीढ़ियाँ
दोनों ओर से शुरू होती हैं
खत्म भी होती हैं
दोनों ओर से ही !

प्रेम
सीढ़ियाँ नहीं है !








पांच 

नन्दलाल बसु से जब पूछा  :
“ आप भी तो कला के बड़े आचार्य हैं
आप में और गुरुदेव में क्या अंतर है ? “

 नन्दलाल बोले :
“ मुझे आग कभी-कभी लगती है ,
गुरूदेव को हमेशा लगी रहती है । “

निर्माण  की अदम्य इच्छा
एक सतत प्रक्रिया  है
प्रेम  ही इसे पोषित  और संरक्षित  कर पाता है ।


छ:
प्यार करने वालों को
अपनी साँस पर नियंत्रण होना चाहिए
ताकि जब लें चुम्बन;
इक  सदी तक उसकी आवाज से
आकाश थरथराता रहे  !


सात 

सब लोग ही  मिले-जुले  हैं
मिश्रित  वर्ण व्यवस्था है ये
वासना /शरीर  का ज्वर कुछ  देखता है भला !
वासना से ही हिंसा  बँधी है |

प्रेम सर्वोपरि है
वही सब मर्यादित करता है ।

रामकृष्ण  परमहंस  ने शूद्र रानी के यहाँ  जा कर पूजा की थी |







आठ 

एक कविता कहो ना इस पल
अभी?
हाँ, अभी
तुम  सामने होते  हो
तो कविता उतनी ही मुश्किल  लगती है
 जितना सत्रह  का पहाडा़
सरल भी  उतनी ही
जितना बताना
प्रेम  का विलोम  शब्द !


नौ 

मिलूँगी तुमसे पहली बार
सफेद कुर्ता पहन कर
कि रह जायें उसमें आलिंगन के छापे
कुछ सलवटें बाहों के इर्द-गिर्द
और कांधे पर तुम्हारे चुम्बन का निशान
कुर्ते की बखिया पर लिखवाऊँगी कविता फिर
कि जब जाऊँ घर वापस
तो देख सके दुनिया
मैं कितनी प्रेम में थी !
कितनी बागी !




दस
प्रेम करने से बेहतर हैं कई काम 

जैसे कुछ ख़्वाब बोना
घर के उस कोने में
जहाँ रखे हैं सारे वाद्ययंत्र
या कुछ टेबल लैम्प के नीचे ।

जिससे पहले तुम असभ्य दिखो
जिससे पहले तुम चीख पडो़ - " भाड़ में जाओ प्यार ! "
उससे पहले ये जान लो –
 प्रेम करने से बेहतर है , इक नई भाषा सीखना



कुछ और कविताएं

एक

तुम्हारे जाने के बाद

तुम नहीं हो
तो जीवन यूँ भी दुश्वार नहीं
भूख लगती ही है
नींद आती ही है
बस इक  सन्नाटा सा रहता है
सब्ज़ी मंडी में ,मेले  में ..
शादियों में बजते बाजे .....मुझे सुनाई नहीं देते
आस -पास कोई हँसता  है
तो लाचारी सी लगती है कि ये काबिलियत तो मुझमें भी थी |

बाकी ..
बसंती गुलाब
पीला नर्गिस
सब सूख गए हैं
मैने भी नहीं सोचा
कि सहेजूँ /सींच लूँ इन्हें
जैसे तुमने भी नहीं सोचा
जाने से पहले....
यूँ भी कोई जाता है क्या ?
कि मैं शाम की सैर से घर आया
और तुम ना थी !
हाँ  !
गमले वहीँ हैं सीढ़ियों पर
सूखे
जगह -जगह से चटके
बेरंग ....
००

दो 

कल एक साल हुआ  तुम्हें गए और जिन्दगी  ने नया "अ"  लिखा
मैनें  उसे कभी तुलसी को अर्घ्य  देते हुए
कभी संध्या  दीप जलाते हुए
"अकेला" पढ़ा...."अ " से अकेला ।

जीवन की इस नयी वर्णमाला  में
"अ" के बाद वर्ण भी तो नहीं  होते  !
पुकार होती है इक ; "आ .......
और इक लाचारी
जब खुद  खरीदने जाता हूँ  एडल्ट डाइपर ।

सरला ! अब जीवन का "अ"  सीखना भी बेहद मुश्किल  है
तुम थीं तो जीवन के अनगिनत रंग ,एक सतत वर्णक्रम में  व्यवस्थित थे
लेकिन मैं भी  अब चप्पल हमेशा  जोड़े  में  रखनी सीख गया हूँ..
बिस्तर  से उठते ही सलवटें  हटा देता हूँ ...
बाथरूम  में  वाइपर चला देता हूँ...

"अ " से अनुशासन  सीख रहा हूँ
और
अनवरत तलाश में  हूँ  उस प्लुत स्वर के  कि तुम्हें पुकार सकूँ ।
००







तीन

बदरीनाथ  गया 

मन माणा के पास उफनती  सरस्वती  सा होने लगा
फिर भीम पुल के पल्ली  छोर  भी देखा
कुछ  दिन से तुमने पुकारा  नहीं !

गांव  वापस आया
घंटो बैठा रहा उस गदेरे*  के पास
कभी होती थीं  उसमें  ढेरों- ढेर मछलियाँ ....
मैं पत्थर पे पत्थर  लगा
मोड़  देता था इक धारा
बिना पानी बिछी  पड़ी  होतीं सैकड़ों  मछलियाँ ....
तड़पती धार के उस पार |

बाबू जी गुस्सा  होते :
“ म्लेच्छ! यूं तड़पते हो। जीव खाते हो ।
क्यों तुम ब्राह्मण पैदा हुए ?

 यूँ अब कम हैं  मछलियाँ
आठ-दस दिखतीं बस
उन्हें  निहार  रहा हूँ
बचपन  में जिन्हें मैंने तडपाया था
उन्हीं बची-खुचीं  मछलियों की संततियां हों ये  शायद !

कुछ  दिन से मन  बचपन में  तड़पती मछलियों सा है
कुछ  दिन से तुमने पुकारा  नहीं !
००


गदेरा - जल श्रोत है ,जो प्रायः बारिश के पानी या पहाड़ों के सोतों से बहे पानी से बनता है ।


जया घिल्डियाल 
मूल निवासी – श्रीनगर गढ़वाल , उत्तराखंड 
हाल निवासी – पुणे , महाराष्ट्र 
स्नातकोत्तर कार्बनिक रसायन 
रसायन विज्ञान अध्यापिका 


jayayashdeep2000@gmail.com
फ़िल्म अम्बर्टो इको: 

रोचक लेकिन आसान नहीं

विजय शर्मा



विजय शर्मा 



कुछ साल पहले एक फ़िल्म देख रही थी। खूब मजा आ रहा था। अपराध, हत्याएँ, रहस्य, जासूसी, भला किसे अच्छा न लगेगा? भूल-भुलैय्या वाला प्राचीन मठ, लंबे-लंबे गलियारे, काले, भूरे, कत्थई लबादों में लिपटे घूमते-फ़िरते पादरी और नोविस (पादरी बनने की प्रक्रिया में)। धार्मिक और दार्शनिक बहस करते पादरी। खूब बड़ी लाइब्रेरी। महान रचनाकार बोर्खेज की याद दिलाता अंधा लाइब्रेरियन (बाद में पता चला यह पात्र बोर्खेज की तर्ज पर ही गढ़ा गया है), हत्या के कारण और हत्यारे की खोज में आया एक और पादरी और उसके लबादे की किनारी पकड़े उसके पीछे-पीछे, कभी संग-संग चलता एक नोविस। जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है मठ के कई अन्य सदस्यों की रहस्यमय तरीके से एक-पर-एक होती हत्याएँ। पहली बार देख रही थी, कुछ समझ में आया, कुछ नहीं भी आया। लेकिन मजा आया। कानन डायल के शरलक होम्स की प्रशंसक मुझको इस फ़िल्म में शरलक होम्स की झलक मिली वैसे भी नायक, सन्यासी-जासूस का नाम उसी की शैली पर विलियम ऑफ़ बास्करविल है। इस भूमिका को कुशल अभिनेता शॉन कोनरी ने निभाया है। फ़िल्म के कई दृश्य फ़िल्म विधा की थाती हैं।
पता चला कि यह फ़िल्म अम्बर्टो इको के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित है। अपने इस पहले उपन्यास में अम्बर्टो इको कहानी को १३२७ में स्थापित करते हैं। इसका लोकेशन इटली का एक धार्मिक मठ है। इस मठ में एक आत्महत्या होती है, जो वास्तव में एक हत्या है। इस ऐतिहासिक हत्या की गुत्थी सुलझाने के साथ-साथ इको इस उपन्यास में बिब्लिकल विश्लेषण, मध्यकालीन यूरोप में अध्ययन-अध्यापन की परम्परा, हँसने की कीमत, तथा साहित्यिक सिद्धांतों को भी विस्तार से स्थान देते हैं। इसमें पुस्तकालय में भीषण आग लगने और कुछ लोगों का किताब बचाने का प्रयास करते हुए होम होने का भी चित्रण है। यह पुस्तकालय मात्र पुस्तकालय न होकर अपने आप में एक भूलभुलैया था। फ़िल्म और उपन्यास में जिस किताब को बचाने के लिए यह सारी मारा-मारी हो रही थी वह शायद कब की नष्ट हो चुकी है।








कुछ दिन बाद एक एक बार फ़िर से यह फ़िल्म देखी, इधर-उधर से इस फ़िल्म की कुछ समीक्षाएँ पढ़ीं। इस बार थोड़ा कुछ और समझ में आया। फ़्रेंच फ़िल्म निर्देशक जीन-जैक्स अनाउड की बनाई फ़िल्म है यह और नाम है, ‘द नेम ऑफ़ द रोज’। जिस उपन्यास के नाम और कथानक पर यह फ़िल्म बनी है, उसके लेखक हैं, विश्व के प्रसिद्ध रचनाकार बहुमुखी प्रतिभा के धनी अम्बर्टो इको। अम्बर्टो इको से यह मेरा पहला परिचय था। उनकी ओर आकर्षित हो कर उनका उपन्यास पढ़ना शुरु किया। रोचक होते हुए भी आसान न था इसे पढ़ना। अभी भी नहीं है। इसमें उन्होंने एक साथ सेमिओटिक्स, बिब्लिकल विश्लेषण, मध्यकाल का अध्ययन तथा साहित्यिक सिद्धांत का मिश्रण किया है।
पहली रचना ही कई बार इतनी विशिष्ट होती है कि बाद में आने वाली रचनाओं को ढ़ंके रहती है। अम्बर्टो इको के १९८० में प्रकाशित ‘द नेम ऑफ़ द रोज’ उपन्यास के साथ कुछ ऐसा ही हुआ है। उपन्यास के रूप में अम्बर्टो इको की यह पहली रचना है, हालाँकि इसके पूर्व वे और बहुत कुछ साहित्येतर लिख चुके थे। मगर उनकी ख्याति सामान्य पाठकों के बीच उपन्यासकार के रूप में ही है। अपने इस उपन्यास को वे १४ वीं शताब्दी में बेनेडिक्टिन विहार में स्थापित करते हैं। विलियम ऑफ़ बास्करविल को अपराध और अपराधी की छानबीन के लिए उन्होंने प्राचीन इटली के एक मठ में पहुँचा दिया है और यह सन्यासी-जासूस नायक शरलक होम्स की भाँति स्कॉटलैंड यार्ड से नहीं बल्कि इंग्लैंड से आता है। खुद उपन्यासकार के अनुसार यह ऑर्दर हेली के पात्र का अवतार है।
कठिन होते हुए भी इस उपन्यास की सफ़लता और प्रसिद्धि का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि ३० से अधिक भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ है और १० मिलियन प्रतियाँ बिक चुकी हैं। इस लेखक को पढ़ना और समझना आसान नहीं है। अब जो व्यक्ति चार-पाँच विदेशी भाषाओं का धड़ल्ले से प्रयोग करता हो, इन भाषाओं में भाषण देता हो, लैटिन, ग्रीक जैसी प्राचीन भाषाएँ जानता हो, सेमिओटिक्स जैसा अजीबो-गरीब विषय पढ़ाता हो, साहित्यिक सिद्धांत के इस विषय पर किताबों (‘दि अब्सेंट स्ट्रक्चर’ तथा ‘दि ओपेन बुक’) का प्रणेता हो उसके लिखे को पढ़ने के लिए अगर बार-बार शब्दकोश और विश्वकोश देखना पड़े तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। जब खुद लेखक का काम के बीच आराम करने के लिए डिक्शनरीज (बहुवचन में) पढ़ना शगल हो, तब क्या कहा जाए! अम्बर्टो इको के अनुसार उनके एक घर में करीब तीस हजार किताबों का भंडार है। निश्चय ही उनके बाकी दोनों घरों में भी होंगी ही। उनके घर के गलियारे में जमीन से ले कर छत तक अलमारियों में किताबें अटीं पड़ी हैं। किताबों को देखने से यह भी पता चलता है कि उनका बराबर प्रयोग होता रहा है। वे तेज गति से पढ़ते थे और उनकी स्मृति बहुत चकित करने वाली थी। अपनी कई किताबों का उन्होंने खुद अन्य भाषाओं में अनुवाद किया। कई भाषाओं (चीनी, जापानी, अरबी आदि) के लिए वे जरूर दूसरे अनुवादकों पर निर्भर करते थे।
लेखक का अनुभव बताया है कि यदि वे सरल लिखते हैं तो उन्हें लोग पढ़ना नहीं चाहते हैं। एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया कि उन्हें सदैव बहुत पाण्डित्यपूर्ण और फ़िलॉसॉफ़िकल, बहुत कठिन लेखक के रूप में देखा  जाता रहा है। अत: उन्होंने बिना पाण्डित्य के, सरल भाषा में अपना उपन्यास ‘द मिस्ट्रियस फ़्लेम ऑफ़ क्वीन लोआना’ लिखा। और लो! क्या हुआ इसका नतीजा? उनके उपन्यासों में से इस उपन्यास की सबसे कम बिक्री हुई। उनका कहना है कि शायद वे स्वपीड़कों के लिए लिखते हैं। वे स्वीकारते हैं कि उनको पढ़ना आसान नहीं है। लेकिन जब लोग उनसे पूछते कि आपके कठिन उपन्यास इतने सफ़ल कैसे हैं? तो वे बुरा मान जाते, उन्हें लगता यह पूछना ऐसे ही है जैसे किसी स्त्री से पूछना कि पुरुष आपमें क्यों रूचि लेते हैं? फ़िर व्यंग्योक्ति के साथ जोड़ते हैं कि वे स्वयं सरल किताबें पसंद करते हैं क्योंकि ये किताबें उन्हें तत्काल सुला देती हैं। पाठक यदि थोड़ी तैयारी के साथ अम्बर्टो इको को पढ़े तो उनके लिखे की रोचकता में डूब सकता है। उन्हें यूरोपियन बुद्धिजीवियों का मॉडल ऐसे ही नहीं कहा जाता है जिसने ‘द डा विंची कोड’ का पूर्वानुमान कर लिया था।






इटली के इस बुद्धिजीवी (कुछ लोगों के अनुसार सूडो बुद्धिजीवी) का जन्म ५ जनवरी १९३२ को उत्तरी इटली के छोटे-से औद्योगिक शहर एलेसैन्ड्रिया में हुआ था। उनके पिता, गिउलिओ इको स्थानीय लौह कंपनी में चीफ़ एकाउंटेंट थे। माँ का नाम जिओवाना था, वे एक ऑफ़िस में काम करती थीं। बचपन में वे बेनिटो मुसोलिनी के प्रशंसक थे और उन्हें उसकी फ़ासिस्ट यूनिफ़ॉर्म बहुत भाती थी। गुंटर ग्रास को भी बचपन में नाजी अच्छे लगते थे। दस वर्ष की उम्र में अम्बर्टो ने यंग इटैलियन फ़ासिस्ट निबंध लेखन में भाग लिया और प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया। लेकिन जल्द ही मोहभंग हो गया। जब उत्तरी इटली जर्मन द्वारा अधिकृत कर लिया तो उन्होंने भूख का अनुभव किया। वे एसएस, फ़ासिस्टों एवं अंधभक्तों के बीच चलती गोलियों से बचने के प्रयासों का स्मरण करते हैं। बचपन में वे अपने बाबा के सेलर में बैठ कर उनके संग्रह से जूल्स वर्न, मार्को पोलो, बाल्ज़ाक, एलेक्ज़ेंडर डुमा और चार्ल्स डार्विन तथा एडवेंचर कॉमिक्स पढ़ा करते। उनकी नानी बहुत पढ़ी-लिखी नहीं थीं परंतु खूब किताबें पढ़ा करती थीं। किशोरावस्था में उन्होंने अमेरिकन साहित्य और जाज़ का अध्ययन किया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद १४ साल की उम्र में कैथोलिक यूथ ऑगनाइज़ेशन में भर्ती हुए और २२ वर्ष के होते-न-होते इस संगठन के नेशनल लीडर बन गए। लेकिन कोई भी स्वतंत्रचेता व्यक्ति बहुत लंबे समय तक किसी संगठन में नहीं बना रह सकता है। संगठन के भीतरी विरोधाभास का पर्दाफ़ाश होता है, तो मोहभंग होना स्वाभाविक है। १९५४ में पोप पायस द्वादश की कट्टरपंथी नीतियों के विरोध में उन्होंने अपने इस पद से इस्तीफ़ा दे दिया। इतना ही नहीं बाद में उन्होंने कैथिलिक धर्म को ही तिलांजलि दे दी।
बचपन से उनका लालन-पालन रोमन कैथोलिक धार्मिक वातावरण में हुआ था और उनकी स्कूली शिक्षा भी सेलेसियन संघ के स्कूल में हुई थी। उनके बाबा को शहर के अधिकारियों ने ‘एक्स कैलिस ओब्लाटस’ की उपाधि दी थी। इस लैटिन शब्द का अर्थ होता है, ‘स्वर्ग का उपहार’ (ए गिफ़्ट फ़्रॉम द हेवन)। यही से उनका सरनेम ‘इको’ आता है। पिता की इच्छा थी कि बेटा कानून की पढ़ाई करे। लेकिन बेटे की रूचि कहीं औअर थी, वह ट्रम्पेट बजाने में कुशल था। कैथोलिक धर्म छोड़ने के बावजूद चर्च से अम्बर्टो इको का मजबूत रिश्ता बना रहा। इसीलिए उन्होंने कॉलेज में मीडिवल फ़िलॉसफ़ी एंड लिटरेचर की पढ़ाई की और टुरिन यूनिवर्सिटी से डॉक्टरेट करते हुए अपना विषय सेंट थॉमस एक्वीनास चुना। इसी थीसिस को उन्होंने बाद में ‘दि एस्थेटिक्स ऑफ़ थॉमस एक्वीनास’ नाम से प्रकाशित कराया। उनका यह कार्य मध्यकाल की लैटिन सभ्यता के प्रमुख एस्थेटिक विचारों का अध्ययन है। थॉमस एक्वीनास मध्यकाल का एक प्रमुख फ़िलॉसफ़र तथा कैथोलिक डोमिनिकन प्रीस्ट था। वे यूरोप के मध्यकाल को अंधकाल न मान कर संभावनाओं का काल मानते हैं। १९५६ से १९६४ तक अम्बर्टो इको ने इटली के रेडिओ-टेलिविजन (आरएआई) के लिए बतौर कल्चरल एडीटर काम किया। इसी दौरान वे टुरीन यूनिवर्सिटी में शिक्षण भी कर रहे थे। १९५९ में अम्बर्टो इको बोम्पिआनी प्रकाशन हाउस में एडीटोरियल कंस्लटेंट बन गए और यही उन्होंने सेमिओटिक्स पर अपने विचारों को मूर्त रूप देना प्रारंभ किया।
१९७५ में यूरोप की प्राचीनतम बोलोग्ना यूनिवर्सिटी सेमिओटिक्स प्रोफ़ेसर के रूप में उनकी नियुक्ति हुई। सेमिओटिक्स के क्षेत्र में विशेषज्ञ के रूप में उनकी ख्याति फ़ैल गई। उनका मूल सिद्धांत है कि कोई भी कार्य संकेतों के अनंत क्रम से बना होता है। यह एक नयी फ़िलॉसफ़ी है जिसमें वैज्ञानिक या कलात्मक मौखिक-लिखित संप्रेषण के महत्व का विश्लेषण किया जाता है। सेमिओलॉजिस्ट के रूप में उन्होंने फ़ंतासी और यथार्थ के बीच कड़ी खोजने का महत्वपूर्ण कार्य किया। इस विषय पर लेक्चर देने के लिए उन्हें विभिन्न यूनिवर्सिटी से निमंत्रण मिलते थे। उनके अनुसार किताबें विश्वास करने के लिए नहीं वरन खोज के लिए होती हैं। वे इस विषय की ओर आकृष्ट हुए क्योंकि वे संस्कृति के विभिन्न स्तरों का एकीकरण करना चाहते थे। वे मानते हैं कि मास मीडिया के द्वारा तैयार की गई कोई भी चीज सांस्कृतिक विश्लेषण की वस्तु हो सकती है। इसीलिए एक ओर वे ‘ब्यूटी’ पर लिखते हैं तो दूसरी ओर उन्होंने ‘अगलीनेस’ पर भी कलम चलाई है। सेमिओटिक्स सारी संस्कृतियों को संकेतों का जाल मानता है, जिसका छिपा अर्थ जानने के लिए इन संकेतों को डिकोड करना होता है। उनका मानना है कि संस्कृति के हाशिए की अभिव्यक्ति को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। उदाहरण स्वरूप वे बताते हैं कि १९वीं शताब्धि में टेलेमान बाख से बड़ा कम्पोजर माना जाता था। इसी तरह हो सकता है कि २०० साल बाद पिकासो को कोकोकोला के कमर्शियल्स से कमतर माना जाए। मजाक करते हुए वे कहते हैं कि कौन जानता है कि किसी दिन ‘द नेम ऑफ़ द रोज’ को हेरॉल्ड रोबिन्स के उपन्यासों से कमतर माना जाए। (हेरॉल्ड रोबिन्स का लोकप्रिय साहित्य मेरी दृष्टि में कहीं से कमतर नहीं है)






१९६३ में अम्बर्टो इको इटली के आवाँ गार्द आंदोलन ‘ग्रुप ६३’ के सदस्य बन गए, इस समूह में लेखक, कलाकार, संगीतज्ञ थे और इनका उद्देश्य अभिव्यक्ति की नई शैली की खोज करना था। इसी से प्रभावित हो कर उन्होंने अपना लेखन किया। कैंसर से जूझते हुए ८४ वर्ष की पकी उम्र में अम्बर्टो इको का इसी साल, १९ फ़रवरी २०१६ को निधन हो गया। वे अंत-अंत तक लिखते रहे। जर्मन मूल की उनकी पत्नी रेनाटे रामजे इको आर्ट टीचर हैं। १९६२ में दोनों की शादी हुई थी। इस दम्पति के दो बच्चे हैं, एक बेटा स्टेफ़नो और एक बेटी कारलोटा। “मैं एक फ़िलॉसफ़र हूँ, केवल सप्ताहांत में उपन्यास लिखता हूँ।” कहने वाले इस रचनाकार को उपन्यासों से ख्याति मिली। ‘द नेम ऑफ़ द रोज की प्रसिद्धि का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सेंट्रल पार्क में जोगिंग करने वाले अपने वॉकमैन पर गाना न सुन कर इसे ही सुना करते। और उनके इंग्लिश अनुवादक विलियम वीवर ने अपने टुस्कान घर में इको चैम्बर बनवाया। १९८८ में उनका दूसरा उपन्यास ‘फ़ूकोज पैंडुलम’ आया। यह भी थ्रिलर है, इसमें लोक संस्कृति और पल्प फ़िक्शन के प्रति उनके रुझान को देखा जा सकता है। मिलान में स्थित इस उपन्यास के तीन एडीटर प्रत्येक षडयंत्र सिद्धांत की कड़ी इतिहास से जोड़ते हैं








दशकों पहले इसी में उन्होंने ‘द डा विंची कोड’ का पूर्वानुमान किया और एक पत्रकार के पूछने पर उन्होंने खुद बताया कि डॉन ब्राउन एक काल्पनिक चरित्र है और उन्होंने ने ही उसका इजाद किया है। इस उपन्यास में वे एक विस्तृत षडयंत्र का जाल रचते हैं। इस एन्साइक्लोपेडिक डिडेक्टिव कहानी की प्रेरणा का स्रोत १९ वीं सदी में फ़्रेंच भौतिकशास्त्री लिओन फ़ूको द्वारा बनाया गया एक पैंडुलम है, यह लोलक पृथ्वी के घूर्णन को दिखाता है। इसमें उन्होंने कबालाह, गणित और डिज़्नी के पात्रों को प्रस्तुत किया है। कई सदियों, कई भाषाओं तथा ढ़ेर सारी सूचनाओं से लैस यह उपन्यास उनके पहले उपन्यास-सी ख्याति न पा सका, असल में उनके अन्य छ: उपन्यासों में से कोई भी अन्य उपन्यास वह प्रसिद्ध हासिल न कर सका। ‘फ़ूकोज पैंडुलम’ पढ़ना कठिन है तो आसान नहीं रहा होगा इसे लिखना भी। पृथ्वी पर सत्ता-शक्ति और पृथ्वी की सत्ता-शक्ति हासिल करने का प्रयास (उपन्यास की थीम) सरल हो भी नहीं सकता है। अंत में इस सत्य का संधान घातक होता है। आलोचकों ने अम्बर्टो इको के कठिन उपन्यासों के इंग्लिश अनुवादक विलियम वीवर की खूब तारीफ़ की है। आज का समय होता तो शायद उन्हें मैन बूकर इंटरनेशनल पुरस्कार (नए नियमों के अनुसार) की एक बड़ी राशि भी प्राप्त होती। सात उपन्यासों के साथ-साथ अम्बर्टो इको की २० नॉनफ़िक्शन की किताबें भी हैं।
‘फ़ूकोज पैंडुलम’ के साथ एक मजेदार घटना जुड़ी है। सलमान रुश्दी को यह उपन्यास पसंद नहीं आया और उन्होंने बहुत मुखर रूप से इसे जाहिर भी कर दिया। ‘द लंडन ऑबजर्वर’ के लिए पुस्तक समीक्षा करते हुए उन्होंने कहा: “पाठक, मैं इससे नफ़रत करता हूँ।” उन्हें यह हास्यविहीन, पात्रों के बिना और बेकार उपन्यास लगा। भला अम्बर्टो इको क्यूँ चूकते। २००८ में उन्हें न्यू यॉर्क के एक साहित्यिक कार्यक्रम में सलमान रुश्दी के साथ मंच साझा करने का अवसर मिला और मौके का फ़ायदा उठाते हुए अम्बर्टो इको ने अपने इसी उपन्यास ‘फ़ूकोज पैंडुलम’ के कुछ अंशों का पाठ किया। उनका यह उपन्यास कैथोलिक शक्ति-गढ़, वतिकान को भी नहीं जँचा। वहाँ के अखबार ने ‘फ़ूकोज पैंडुलम’ को धर्मनिंदा, अवमानना, ईशनिंदा, भँड़ैती, गंदगी को घमंड और दोषदर्शिता के खरल में घोंटा गया कहा। लेकिन मजे की बात है कि लॉयला और लेउवेन जैसे कैथोलिक विश्वविद्यालय ने उन्हें ऑनररी डिग्री दी हैं।
उनका अगला उपन्यास ‘दि आइलैंड ऑफ़ द डे बिफ़ोर’ और भी पाण्डित्यपूर्ण है। पढ़ने पर यह भावनाओं तथा अभिव्यक्ति की कम और शैली की कवायद अधिक लगता है। इतिहास से प्रेम करने वाले अम्बर्टो इको ने इसे १७वीं सदी में रखा है। भग्न जहाज का नाविक तैरना नहीं जानता है और इसी कारण वह पास के उजाड़ टापू तक नहीं पहुँच पा रहा है। उसके टापू तक न पहुँचने का एक और कारण है। कारण है कि यह टापू अंतरराष्ट्रीय डेट लाइन के पार है। समय और स्थान की पहेलिका यह उपन्यास, इसमें वे मध्यकाल के चिरपरिचित कथानक को त्याग कर १७वीं शताब्दि के यूरोप की फ़िलॉसफ़ी, राजनीति और अंधविश्वासों की ओर रुख करते हैं।
वे एक-एक पन्ने को दर्जनों बार लिखते हैं। गुंटर ग्रास की तरह वे भी अंतिम रूप देने से पहले अपने लिखे को जोर-जोर से पढ़ कर देखते हैं और टोन के सही होने पर संतुष्ट हो कर ही रुकते हैं। उनके उपन्यास ‘कमिंग ऑफ़ एज’ से जुड़े हैं, जिसमें भावुकता और सैक्स होना माना जाता है। लेकिन अम्बर्टो इको के मात्र दो उपन्यासों – ‘द नेम ऑफ़ द रोज’ तथा ‘बौडोलीनो’ में सेक्स आता है। पूछने पर उनका मजेदार उत्तर है: “मैं सेक्स को तरजीह देता हूँ बनिस्बत इसे लिखने के।” अपने चौथे उपन्यास ‘बौडोलीनो’ में एक बार फ़िर से वे यूरोप के मध्यकाल में उतरते हैं। इस उपन्यास को उन्होंने बाइज़ंटाइन कॉन्स्टान्टिनोपल में स्थापित किया है। प्रकाशित होते ही इटली की जनता ने इसे हाथों-हाथ लिया। यहाँ भी अन्वेषण-कथा है। इसमें भी अंकों का खेल, फ़ुटनोट्स, उनका सनकीपन है। इसका नायक छोटा मिथ्याभाषी है जो बड़े-बड़े झूठ गढ़ता है, जिसके वर्णन ऐतिहासिक सत्य पर प्रश्न खड़े करते हैं।
उपन्यासकार के रूप में उनकी प्रतिभा पर शक नहीं किया जा सकता है, लेकिन वे खुद को प्रमोट करना भी जानते थे। और इस प्रसिद्धि की कीमत उन्हें चुकानी पड़ती। उन्हें लगता था कि वे अपनी ही प्रसिद्धि में “ट्रैप्ड” हो गए हैं। पत्र-पत्रिकाएँ अपनी ओर से उनके लिए तरह-तरह की गोषणाएँ कर दिया करती, जैसे एक बार ‘इटैलियन वोग’ ने दावा किया कि वे मोज़ार्ट पर एक उपन्यास लिखने जा रहे हैं। उन्होंने प्रतिवाद करते हुए कहा कि यह सत्य नहीं है। उन्हें लगता था कि पत्रकार और उनके प्रकाशक उन्हें ब्लैकमेल कर रहे हैं। उन्हें लगता कि वे खुद को भी ब्लैकमेल कर रहे हैं। वे खुद को स्वतंत्र नहीं अनुभव करते थे। कभी-कभी वे स्वयं से प्रश्न पूछते कि वे नई किताब लिख रहे हैं क्योंकि वे इसे लिखना चाहते हैं, अथवा उनसे इसे लिखे जाने की अपेक्षा की जाती है।
“बहुत हो गया। पाँच काफ़ी है।” २००४ में अपने पाँचवें उपन्यास ‘द मिस्टीरियस फ़्लेम ऑफ़ क्वीन लिआना’ के प्रकाशन के अवसर पर उन्होंने कहा। हालाँकि वे रुके नहीं। इस उपन्यास का कथानक उन्होंने इटली में अपने युवावस्था के युद्धानुभवों से लिया है। उपन्यास का शीर्षक फ़ासिस्ट दौर में निकलने वाली एक कॉमिक बुक से लिया गया है। बचपन में वे इसे खूब पसंद किया करते थे। २००८ में वे बोलोग्ना यूनिवर्सिटी से सेवा निवृत हुए और इसके बाद उन्होंने दो और उपन्यास लिखे। २०१० में उनका उपन्यास ‘द प्राग सिमेट्री’ तथा मृत्यु से एक वर्ष पूर्व २०१५ में ‘नुमेरो ज़ीरो’ प्रकाशित हुआ। ‘द प्राग सिमेट्री’ में पात्र परेशान करने वाली एंटीसेमिटिक बातें करते हैं, खूब मुखर दोषारोपण इसकी विशेषता है। जबकि ‘नुमेरो ज़ीरो’ को अम्बर्टो इको ने आज के समय, १९९२ के मिलान में स्थापित किया है। यह भी एक धारदार थ्रिलर है, इसमें उन्होंने बीसवीं सदी की इटली के श्याम पक्ष को उकेरा है। इटली की सीक्रेट सर्विस के अधिकारी कैबिनेट मिनिस्टर को इस तरह नचाते हैं कि आतंकवाद और फ़ासिस्टवाद का एक बार फ़िर से आगमन होता है। यह पॉऔलर प्रेस पर किया गया व्यंग्य है। जाहिर-सी बात है एक बार फ़िर से वे बेस्टसेलर की सूचि में थे। वे बार-बार षडयंत्र और रहस्य के लिए क्लासीकल इटैलियन उत्साह दिखाते हैं।







अम्बर्टो इको फ़्रेंच निबंधकार और काउंटरकल्चर गुरु रोलैंड बार्थ्स से प्रभावित हैं। इस निबंधकार ने वाशिंग पाउडर, ग्रेटा गार्बो के चेहरे पर लिखा तो अम्बर्टो इको ने भी वर्ल्ड कप, लुई वुइटो हैंडबैग, अमेरिका के पोर्न स्टार और वाइस प्रेसीडेंट की उम्मीदवार मरिलिन चैम्बर्स पर लिखा। वे एक साप्तहिक पत्रिका के लिए स्तंभ लिखते थे, पाठक इसे खूब पसंद करते। उनके यही लेख बाद में ‘ट्रेवल्स इन हाइपररियालिटी’ तथा ‘हाऊ टू ट्रवल विथ साल्मोन एंड अदर एसेज’ नाम से प्रकाशित हुए। क्षणिक चीजों को साहित्यिक जामा पहनाने में वे कुशल हैं। एक उदाहरण देखें: “मेरे नए जीन्स के साथ जिंदगी पूरी तौर पर बाह्य थी: मैंने मेरे और मेरे पैन्ट्स के बीच के संबंध, मेरे पैन्ट्स और जिस समाज में रहता हूँ के संबंध को सोचा...मैंने एपीडेमिक आत्म-साक्षात्कार किया।” उन्होंने प्लास्टिक काँटे से मटर कैसे खायें से ले कर सुंदरता के बदलते अर्थ जैसी छोटी-बड़ी तमाम बातों पर अपना मत व्यक्त किया।
अपने तरह-तरह के लेखन के साथ अम्बर्टो इको ने जेम्स बॉन्ड के उपन्यासों, पीनट्स एंड पल्पी स्ट्रिप कार्टून्स का कूट खोला (डिकोड)। उनके अनुसार मिकी माउस उसी तरह परिपूर्ण हो सकता है जैसे जापानी हाईकू। यूरोप के बौद्धिक जगत का यह अनोखा सदस्य बच्चों के लिए भी लिखता था। इस विशिष्ट विद्वान के पास एक ओर जहाँ अतीत की खास समझ थी वही भविष्य देखने की अकूत क्षमता भी थी। वे जितनी आसानी से यूरोप के मध्यकालीन इतिहास पर बोल सकते थे उतने ही उत्साह से जेम्स बॉन्ड की फ़िल्म पर भी बात कर सकते थे। इको का मानना था कि किताबें सदैव दूसरी किताबों के बारे में बोलती हैं और कहानी वह कहती है जो पहले कहा जा चुका है। बहुप्रतिभाशाली अम्बर्टो इको को एक छोटे-से लेख में समेटना संभव नहीं है। फ़िर भी इस सीमित लेख द्वारा प्रभात खबर और अपनी ओर से इटली के इस कानन डायल, पोस्टमॉडनिस्ट लेखक को भावभीनी श्रद्धांजलि!
०००



डॉ. विजय शर्मा, ३२६, न्यू सीतारामडेरा, एग्रिको, जमशेदपुर ८३१००९

ईमेल: vijshain@gmail.com

28 मार्च, 2018

कृष्ण समिद्ध की कविताएँ



कृष्ण समिद्ध


कविताएँ



एक 

मैं

मैं
और
उसका कमरा.

सलीके से रखा हर कोना
उसका हर कपड़ा
उसके मरने के बाद भी
उसके जैसा लगता है।

दरवाजा खुलेगा
वह आ जायेगी अंदर
अपने भीँगे बालों को पोंछते हुए।

हँसते हुए,
और अनंत तक रुक जाएगें
मैं
और
उसका कमरा
सलीका से रखा हर कोना
और उसकी गंध में
अनंत बजता हुआ मैं.





दो 
 न जाने  कितनी  देर


तुम्हारे साथ चुप रहा  न जाने  कितनी  देर।

नीला  आकाश चुपचाप अचानक
और नीचे आ गया
चाँदनी  अपने हाथों में लिये।

हम एक दूसरे के कितने करीब थे ,
दो  सुखे फूल की आत्माओं  की  तरह
जो खाद बन रहे थे अपने ही  जड़ों में।

फूल पर सोये भँवरे की  तरह
जो एक शरीर की  तरह 
झूल रहे थे हवाओं में झूले।

और
सब चुप थे,
वह सृजन का समय था।



एम एफ़ हुसेन 




तीन 

शिकारी

प्रकृति में आदमी हत्यारा था,
शिकारी था।

पहला किसान
पहले एक शिकारी था।

इतना धैर्य कि महीनों का इंतजार
इतना श्रम कि दिन रात काम
सब लक्षण बेहतरीन शिकारी के हैं।

किसान ने खोजा
हत्याओं के भोजन का विकल्प ।
खेत में साम्राज्य उगे
औऱ
पेड़ पर उगने लगा किसान,
सभ्यता का सबसे बड़ा शिकारी किसान।





चार 

गाँव का कवि 

मैं गाँव का कवि  नहीं  ।
मेरे लिए गाँव मेरे दादाजी थे
जो  साल में दो  तीन बार आते थे ।
कभी  बेढंगे आम का  बोरा  लिए
तो  कभी  सब्जी   , कभी  गन्ना-मकई।

मेरे लिए गाँव
विदाई के वक्त मिले दस रुपये की काली नोट है
जो है, पर नहीं है चलन में ।

मेरे लिए गाँव     गर्मी  की  छुट्टी  है,
जो अजन्में आम के मंजर के साथ रही खत्म।

नहीं मैं गाँव का कवि  नहीं  ,
मैं उस गाँव कवि हुँ जो शहर में रहता है।





पांच 

जोड़ा

आमों  की  अमराई  का  गंध
उसमें तैरता
मेरा मन।

नीचे
काली  मीट्टी  महक रही  है
रात भर बरसी  थी अमराई।

दूर रह-रह आ रही   कोयल की तान
कहीं आत्मा से आत्मा टकरा  रही  है ।

खेत में नाच रहे थे  सूखते गेहूँ के भूत।

ठीक पड़ोस में
सुखे लंबे साँप से गढ्ढे में
दादाओं के दादाओं  के जमाने से
बह रही थी सूखी नदी...बाघमती।

पहले
गंधाकाश में
नदी  के तट पर आम झुका रहता था,
सैकड़ों  सालों  तक चुंबनरत।

बीच में
नदी  नहीं  रहीं ,
बौराये सी  महकती है आम की  अमराई  ।

दादी  कुछ इस तरह खत्म करती  थी  किस्सा
नदी  अब भी बहती  है आम के नीचे पाताल तक
इसलिए तो  माँ  के दूध की  तरह महकती है
अमराई ।

27 मार्च, 2018

कसम का द्वितीय राज्य सम्मेलन सम्पन्न

प्रस्तुति: तुहिन

( आज के दौर में सांस्कृतिक प्रतिरोध की भूमिका पर संगोष्ठी आयोजित )



क्रांतिकारी सांस्कृतिक मंच (कसम, छत्तीसगढ़ ) पिछले दो दशक की निरंतरता में एक वैकल्पिक संस्कृति के विकास पथ पर पूरी सक्रियता से अग्रसर है।इसके मददेनजर कसम द्वारा 25 मार्च  को अपना द्वितीय राज्य सम्मेलन तथा “आज के दौर में सांस्कृतिक प्रतिरोध की भूमिका ‘‘ पर सेमीनार गौरी लंकेश नगर (वृंदावन हॉल,सिविल लाईन) रायपुर में संपन्न हुआ। सम्मेलन में मुख्य वक्ता साहित्यकार व जन संस्कृति मंच के सदस्य  कैलाश वनवासी थे। अध्यक्ष के रूप में लेखक संजीव खुदशाह, कसम के अ.भा. संयोजक तुहिन, शिक्षाविद व जाति उन्मूलन आंदोलन से जुड़ी अंजू मेश्राम तथा समाजसेवी अखिलेश एडगर उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन कसम की राज्य संयोजक चंद्रिका एवं आभार स्वाति  ने किया। सम्मेलन में प्रबुद्ध बुद्धिजीवीगण, प्रो.एच.सी. रब्बानी, निसार अली, ऑरोदिप, दीपिका, टिकेश्वर, तेजराम विद्रोही , दीपा, रविन्द्र कुमार,  कंचन (ट्रांसजेंडरों के अधिकार के लिए सक्रिय) ने भी अपनी बात रखी। इस अवसर पर बिपाशा राव, शिवानी मैत्रा,  चंद्रिका व कसम के सांस्कृतिक दल द्वारा कविता व जनगीतों को प्रस्तुत किया गया। सम्मलेन में इस अवसर पर नारा दिया गया की भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की साजिश का प्रतिरोध करो, विचार, खानपान और सांस्कृति की आजादी के लिए संघर्ष करो । इस अवसर पर तर्कशील पत्रकार गौरी लंकेश, लेखक षणमुखम पुल्लापट्टा (केरल), कवि अजमेर सिंह औलोख (पंजाब ),कवि केदारनाथ सिंह , कवि चन्द्रकांत देवताले व कवि कुंवरनारायण का श्रध्दापूर्वक स्मरण किया गया ।


कार्यक्रम में “आज के दौर में सांस्कृतिक प्रतिरोध की भूमिका ‘‘ जैसे ज्वलंत विषय पर सेमीनार में मुख्य वक्ता के रूप में वक्तव्य देते हुए साहित्यकार कैलाश वनवासी ने कहा कि सांप्रदायिक ताकतों के मंसूबो को समझने की जरूरत है। देश में गंगा-जमुनी तहजीब को खत्म करने तथा लोगों के अधिकारों पर चोट करने की साजिश की जा रही है। असहिष्णुता की समस्या का समाधान खोजने के बजाय एकता को खंडित करने का प्रयास किया जा रहा है। इसे प्रबुद्ध लोगों को समझने और इसका सामना करने के लिए विवेकपूर्ण निर्णय के साथ तैयार होने की जरूरत है। एक ऐसे समय में जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में है और ऐसी ताकतें जो किसी भी प्रकार के विरोध को गवारा करना न चाहती हांे, सामाजिक जीवन के सभी क्षेत्रांे में विशेषकर प्रगतिशील सांस्कृतिक क्षेत्र व साहित्यकारों संस्कृतिकर्मियों पर कायराना हमले किए जा रहे हैं। ये ताकतें जो किसी भी प्रकार के स्वतंत्र विचारों के प्रति असहिष्णु हैं, लोगों की भोजन शैली व पहनावे के अधिकार को भी नकार रही हैं। हमारे देश की गंगा-जमुनी तहजी़ब और बहुलतावादी परंपराओं को ये ताकतें ध्वस्त करना चाहती हैं। ये ताकतें हमारे देश के इतिहास व संस्कृति का सांप्रदायीकरण व विकृतिकरण करना चाहती हैं। इस नवउदारवादी, नवउपनिवेशिक सांस्कृतिक हमले के खिलाफ प्रतिरोध व वैज्ञानिक चेतना को बढाएं  ।




कार्यक्रम में प्रारंभिक वक्तव्य रखते हुए तुहिन ने कहा कि वर्तमान समय में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरा मंडरा रहा है। अपने विचार व्यक्त करने की आजादी बाधित हो रही है। धर्म और जातिगत विद्वेष फैलाने तथा समाज को अलग-अलग वर्गों में बाटने का कुचक्र चल रहा है जिससे अनेकता में एकता की हमारी बुनियाद को कमजोर किया जा रहा है। इस कठिन दौर में देश के बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, समाजसेवियों को समाज को जोड़ने व सुगठित करने का पुरजोर प्रयत्न करना चाहिए। ऐसी गंभीर परिस्थिति में कर्नाटक में तर्कशील पत्रकाए, गौरी लंकेश की  कट्टर सांप्रदायिक तत्वों ने हत्या की है । हम 14-15 अप्रैल 2018 को क्रांतिकारी सांस्कृतिक मंच की ओर से  प्रगतिशील सांस्कृतिक महोत्सव तथा अखिल भारतीय सम्मेलन का आयोजन  भोपाल (म.प्र.)में कर रहे हैं। यह सम्मेलन गौरी लंकेश, डॉ. एम.एम. कलबुर्गी, डॉ. नरेंद्र दाभोलकर, कॉ. गोविंद पंसारे तथा वो सभी जिन्होंने धर्मनिरपेक्ष, जनवादी, सांस्कृतिक मूल्य तथा वैज्ञानिक चेतना पैदा करने की मुहिम में अपनी कुर्बानी दी उनकी स्मृति में सच्ची श्रद्धांजलि होगी। यह सम्मेलन फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टीट्यूट पूना, जादवपुर, जे.एन.यू., बी.एच.यू. टीस के विद्यार्थियों के तथा इस प्रकार की तमाम ताकतों जो मौजूदा थोपे गए सांस्कृतिक आतंक के खिलाफ उठ खड़े हुए हैं, के बहादुराना संघर्ष के प्रति सम्मान प्रदर्शित करना होगा। साथ ही साथ इस तरीके से प्रतिक्रियाशील ताकतों के खिलाफ प्रतिरोध विकसित करने तथा वैकल्पिक जन संस्कृति विकसित करने के लिए रास्तों की तलाश कर रही प्रगतिशील ताकतों को करीब लाने का अवसर भी मिलेगा ।

अध्यक्षताकर रहे संजीव खुदशाह ने कहा कि देश में एक बड़ा जनसमूह, धार्मिक अल्पसंख्यक एवं दलित-आदिवासी-पिछड़ा वर्ग भय में जीवन गुजार रहा है। ऐसे लोगो पर तो तलवार लटकी हुई है जो तर्कशील हैं, अंधविश्वास विरोधी हैं, सच्चाई के साथ हैं। गौरी लंकेश प्रों. कलबुर्गी और कॉ. पंसारे की हत्या के बाद जिस प्रकार से कट्टरवादी ताकतों ने इसकी जिम्मेदारी ली है और तर्कशील कार्यकर्ता प्रो भगवान को हत्या की धमकी दी गई है। उससे अंदाजा लगाया जा सकता है की भारत में तर्कशील, प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष लोगों की मनःस्थिति क्या होगी? हमें समतावादी भारत, एक भाईचारे का भारत बनाए, हिन्दू-मुस्लमानो की उपस्थिति को सहर्ष स्वीकारें व मुस्लमान हिन्दुओं की। सारे ऊंच-नीच, जाति-भेद, लिंग भेद को तोड़कर एक भेद-भाव मुक्त भारत की कल्पना ही सहिष्णु भारत है।



अंजू मेश्राम ने कहा कि बुद्धिजीवियों की जिम्मेदारी है कि वे सच बोलें और झुठ को नंगा करें। गौरी लंकेश नरेन्द्र दाभोलकर, पंसारे, कलबुर्गी के साथ-साथ व हिंदू दक्षिणपंथी समूहों ने जीतेजी पेरूमल मुरूगन की हत्या कर दी। मुरूगन के अंदर छिपे हिंदू दक्षिणपंथी विरोधी लेखक ने लिखना बंद कर दिया है। उनके उपन्यास ‘मदोरूभागन’ को ‘समन्वय भाषा सम्मान’ से नवाजा गया हैं। असहिष्णुता के हालातों के कई सम्मुख नामचीन लेखको व पत्रकारों ने अपने पुरस्कार लौटा दिए। कॉर्पाेरेट मिडिया, देश की गलत तस्वीर दिखता है। बाज़ार, महिलाओं को उपभोक्ता वस्तु के रूप में बनाकर पेश कर रहा है ।

अखिलेश एडगर ने कहा कि वर्तमान समय में केवल विचार व एक्शन से कुछ नहीं होगा। हमें समन्वय ढूंढना है अपने विचारों में, लेखन में, गलत बातों का विरोध सभी को मिलकर करना होगा। धुर दक्षिणपंथी, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता पर बड़ा हमला कर रहें है । हमे साझा प्रतिरोध करना है तथा सरल भाषा में जनता को समझाना है ।

कार्यक्रम में  शिवानी मैत्रा ने ‘क्यों लोग बन गए असहनीय’, बिपाशा राव ने ‘एकला चलो रे’, निसार अली ने ‘दमदम मस्त कलंदर’, चंद्रिका ने ‘कलम उठी तो क्रांति होगी’ कविता व गीतों के माध्यम से समसामयिक मुद्दों व समाज की वर्तमान स्थिति को उठाया।

सम्मेलन में क्रांतिकारी सांस्कृतिक मंच की  राज्य स्तरीय समिति द्वारा 2 वर्ष का प्रतिवेदन, कार्यक्रम एवं सांगठनिक विधान पर चर्चा की गई एवं 18 सदस्यीय राज्य स्तरीय समन्वय परिषद् का गठन किया गया । सम्मेलन में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर होने वाले बर्बर हमलों, इतिहास व संस्कृति के विकृतिकरण, सांप्रदायीकरण व शिक्षा के भगवाकरण, दिन प्रतिदिन बढ़ रही गरीबी, मंहगाई व बेरोजगारी, किसानों की बिगड़ती गंभीर हालातों, जातिगत उत्पीड़न, महिलाओं, आदिवासियों, अल्पसंख्यक समुदाय व मेहनतकश वर्ग के खिलाफ बढ़ते उत्पीड़न सहित सहारनपुर के चंद्रशेखर  (रावण) को तथा निरपराध मुस्लिम युवाओं को सिमी के नाम पर जेल में प्रताड़ित करने के खिलाफ व शीघ्र रिहा करने के समर्थन में भी पर प्रस्ताव पारित किए गए।



सम्मेलन में 14-15 अप्रैल 2018 तक भोपाल (म,प्र.) में होने वाले कसम के तृतीय सम्मेलन अखिल भारतीय सम्मेलन एवं प्रगतिशील सांस्कृतिक महोत्सव में भाग लेने का आह्वान किया गया। इस अवसर पर  छत्तीसगढ़ के विभिन्न जिलों से बड़ी संख्या में  सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधि, लेखक, साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी, बुद्धिजीवी व विद्यार्थीगण  उपस्थित थे।


26 मार्च, 2018

 राजकिशोर राजन की कविताएं

राजकिशोर राजन 


जँतसार

पसीने से थकबक देह हो तो
उसकी आत्मा से  फूटता है
आदिम संगीत
यह नहीं करता सिर्फ
आटे को मुलायम और  जीवन रस से परिपूर्ण
बल्कि जोड़ता है जीवन को मिट्टी और धरती से भी

मैंने पूछा था  माँ से कि
पत्थरों के बीच गेहूं के दाने को पीसते
कैसे जनमता है! गीत
और माँ  ने हंस  दिया था , कि चल यह भी कोई प्रश्न हुआ बे सिर -पैर का

सचमुच यह कोई प्रश्न है!
कि कोई फूल से पूछे की
तुम खिलते हो कैसे!
नदी से कि बहती हो कैसे!
और जीवन से कि
इस  नामुराद दुनिया में वो भरा क्यों रहता है उछाह से

पता नहीं किस ग्रह का प्राणी हूँ
जँतसार को भी थोडा समझ पाया
कविता की तरह
तो जीवन के चालीस साल बाद।





 कई कई आशंकाओं के बीच

भटकता गांव
हारे हुए योद्धा की तरह किसान
दोपहर बाद लौटते सरेह से
कभी बाढ़,कभी सुखाड़, कभी बीज
कभी खाद
इन्हीं के बीच उपजती
आशंकाओं की फसल भी

बूढ़े शोकाकुल,यह सोच कर कि
अब नहीं बचेगा गांव
किसी के पैर टिकते नहीं यहाँ
दूध के दांत टूटे नहीं कि
हाजिर हो जाता सूरत,लुधियाना
दिल्ली सपने में

गांव का दक्खिन अभी भी अदेख
रोपनी-सोहनी जैसे काम छोड़
शेष दिन उसे कहाँ माना जाता गांव!

विश्वास में विष का वास है!
कहता है,ललधरवा का छौंड़ा
और दनदनाता हुआ निकलता है
पूरब से पश्चिम चकाचक फटफटिया से

तरह-तरह की आशंकाओं के बीच
एक और दिन,
आत्महत्या कर लेता बँसवारी में

कौन जाने रात्रि में भटकता हुआ गांव
आपको नहीं मिले उस स्थान पर
जहां छोड़ आप निकले थे बाहर
दिन में।









सरसों फूलने के मौसम में

इसी मौसम में बिंदेसर सधाएंगे रामजस बाबू का करजा
नगीना महतो कराएंगे बीमार बाप का इलाज
माकुर साव की दुकान में चन्द्रिका राय भी बेचेंगे सरसों और कटायेंगे टिकट लुधियाना का
इसी फ़सल को बेंच
खरीदेगी साबुन-सोटा रमरतिया की माई
बकिया रखेगी कहीं मड़ई में लुकाकर

सभी ओर खेतों में फूला है सरसों
बिखर रही धनिये की तेज़ गंध
और बीच में निस्पृह,सबकुछ को अदेख कर
अपने दुःख में डूबा है गाँव

यहाँ कुछ भी नहीं बदला
बस, दिन तनिक छोटे
रातें कुछ लंबी
बँसवारी से चिहा कर देखती है साँझ

वसंत को भी अब तक कोई नहीं मिली पगडंडी
कि किसी एक दिन वह पहुंचे इस गाँव

सरसों फूलने का मौसम है
और मेरे गाँव को
इधर-उधर ताकने की फ़ुरसत नहीं।





 इस दुर्दिन में दोस्त

यह वक्त ही ऐसा
जो हर परिभाषा के बाहर
पानी -सा रिस जाता दूसरे दिन
कोई लाख घेरना चाहे
जाता निष्फल,निरर्थक
हलक में सूख जाता थूक भी
ऐसे में कुछ दोस्त ही हैं
जो सुई धागे की तरह
सफ़ेद रुमाल पर काढ़ देते
एक सुर्ख़ गुलाब का फूल

इस अंतहीन ख्वाहिशों की सदी में
भले ये दोस्त इतने हलकान
और अपनी दुनिया में आत्ममुग्ध कि
किसी से भेंट होती बरसों बाद
इतवार के दिन सब्जी बाजार में
या किसी स्टेशन के
खचाखच भरे प्लेटफार्म पर

ये दोस्त शायद ही कभी काम आते
गाढ़े वक्त में
इन्होंने रट लिया है बहानों का ककहरा
जैसे कि किसी को हुलास से इत्तिला
करो कि
मैं पहुंच रहा हूँ दिल्ली परसों
तो वह एक ही साँस में उत्तर देगा
एक जरूरी काम से
मुझे आज ही निकलना है पटना
बड़े अफ़सोस की बात है
इस बार तुमसे भेंट नहीं होगी दोस्त

ये दोस्त तिल का ताड़ बनाते
शिकायतों की एक मोटी किताब रखते
दोस्ती कम,अपनी चालाकियों
मक्कारियों के कारण
अधिक याद आते
पर सब कुछ के बावजूद
इस दुर्दिन में
उम्मीद के मेघ की तरह दिखते
भीग जाते भीतर से हम
और फेर लेते
सूखे होठों पर जीभ।








 हमने बचाया

हमने अपने समय में
बड़े से बड़ा काम भाषा में किया

भाषा में क्रांतिकारी बने
भाषा में देशभक्त
हुए भाषा में सभ्य
किया भाषा में अन्याय का प्रतिकार
प्रेम भी किया तो भाषा में
दरअसल,हमारे समय में अपने को
मांज रहे थे सभी भाषा में ही
और हम हो गए थे इतने निपुण
कि भरने लगे थे पेट से लेकर देश तक को भाषा से ही

हमारे समय में भाषा उस उरूज का कर रही थी स्पर्श
कि एड़ी उचकाएं तो ठेक जाए उंगली आकाश

हम बचा रहे थे भाषा में ही
अपनी मर रही दुनिया को।
   

ईश्वर की सर्वोत्तम रचना

कितनी अजीब बात है
जब उचारा आपने
कि मनुष्य, ईश्वर की सर्वोत्तम रचना है
तो मुखमंडल आपका दिपदिपाने लगा
पर जब कहा मैंने
कि ईश्वर, मनुष्य की सर्वोत्तम कल्पना है
तो मुखमंडल आपका स्याह हो गया

सैकड़ों-हजारों साल हुए
आपको अब तक भरोसा नहीं मनुष्य पर
ईश्वर की सर्वोत्तम रचना होने के बाद भी।





दूब, गुलाब, तितली और मैं

दूब को देखा मैंने गौर से
और हथेलियों से सहलाता रहा
दूब तो दूब ठहरी
लगी थी पृथ्वी को हरा करने में निःशब्द

सुबह का खिला गुलाब था
उसकी रंगत, कंटीली काया और सब्ज पत्तों को देखा
पता नहीं, सांझ तक रहे कि झरे
बाँट जाना चाहता था पृथ्वी को सुगंध निःशब्द

मैंने एक तितली का पीछा किया
वह फूलों से अलग बैठी थी बंजर जमीन पर
बेरंग हो रही पृथ्वी को करने में लगी थी रंगीन निःशब्द

मेरे पास उतने ही शब्द थे और भाव
जिनसे लिखी जा सकती थीं बमुश्किल कुछ कविताएं
उस दिन मुझे भरोसा हुआ
दूब, गुलाब, तितली की तरह
मेरे पास भी कुछ है, देने के लिए पृथ्वी को
और उनकी तरह
मेरी भी जगह है पृथ्वी पर।





पक रही है कविता

एक-एक कर पक रहे
शेष बचे दाढी-मूँछ के बाल
धीरे-धीरे घट रही आँखों की ज्योति
हथेली में भरे जल की तरह बूँद-बूँद रिसते
पता नहीं कब रिक्त हो जाए जीवन

कितना कुछ छुट गया
अदेखा, अजाना, अचीन्हा इस जगत में
उन्हें देखने, जानने, चीन्हने के लिए
हो रहा भरसक यत्न
और टूट रही देह

पहले पाहुन थीं बिमारियाँ
अब आती हैं तो नहीं लेतीं जाने का नाम
जो अपने थे उनमें बिछड़ गये कितने
कभी-कभार ही दिखते पुराने दिनों के यार-दोस्त

बाहर तेज है धूप बहुत
और खेतों में पक रहा है धान
पगडंडियों से गुजर रहा मैं
माथे पर गमछा बाँध

बहुत दिन हुए एक कविता को काट-कूट करते
सोचते-विचारते
कविता भी पक रही है
जैसे पक रहा है धान।




यक्षिणी

(1)
यह मुस्कान जो तिरती है होठों पर
है व्यथा-कथा, अश्रुपूरित
इतिहास में मेरी

जिसे नहीं चाहिए अलकापुरी का वैभव
कुबेर का स्वर्ग, पृथ्वी की संपदा
देवी होने का ऐश्वर्य

पर उसे सब कुछ समझा गया
सिर्फ नहीं समझा गया
एक स्त्री कभी

(2)
क्या तुम्हें पता है
किसने बनायी मेरी मूर्ति
और इसके साथ
क्या नाता है मेरा

तुम मुझे देखते हो किस तरह उत्कंठित
निर्मित करते सैकड़ों धारणाएँ
पर आज तक नहीं समझ पाए
तुम लाख जतन कर लो
एक स्त्री का अनुवाद असंभव है






(3)
जैसे ही उलझ गए तुम
मेरी कदली स्तंभ-सी जंघाओं
क्षीण कटि, उन्नत नितंबों में
इस जनम में ढूंढते ही रह जाओगे मुझे

जीवित हूँ सैकड़ों साल से
प्रेम के स्वप्निल संसार में इनके पार

(4)

पृथ्वी की भांति प्रायः गोलाकार
आम्र तरू-अस लदी झुकी मैं
न जाने कितने जनमों से
फिर भी, देखोगे किसी भी कोण से मुझे
तो लगूँगी तुम्हें
आनंदकंद में आकंठ निमग्न

सौंदर्य तो इसी आरोहण का नाम है
जिसमें वह होता है एक साथ
विनम्र और गर्वित
एक लंबी चुप्पी के साथ

(5)

तुम्हें कैसे पता होगा
मैं चामरग्राही यक्षिणी
तुम्हारी आत्मा पर पड़े धूल को झाड़ती हूँ
इसीलिए तो शेष रह गई
क्योंकि ज्यों-ज्यों विजयी बनोगे तुम
जमा होती जाएगी तुम्हारी आत्मा पर त्यों-त्यों
धूल की परत

तुम्हारे लिए ही तो
अनावृत्त हूँ मैं, तुम्हारे सम्मुख
अगर तुम श्रद्धावनत नहीं हुए तो
आपादमस्तक निर्वस्त्र हो जाओगे तुम भी

तुम्हे कैसे समझाऊँ
तुम जब निहारते हो मुझे निर्निमेष
मैं तुम्हें एक शिशु-सा
अभिनव बनाना चाहती हूँ

(6)

तुम्हारी यक्षिणी हूँ मैं
सौंदर्य की देवी नहीं
नहीं तो हर वर्ष क्यों हहरती-तरसती
आषाढ़ के प्रथम मेघ में
नख-शिख तक अहरह भीगने के लिए

वायु के झकोरों में धुलती मेरी हँसी
दुनिया के तमाम रंगो से सराबोर
मैं बादलों के संग उड़ना चाहती
चिड़ियों के साथ चहकना चाहती
फूलों के सुगंध की तरह तैरना चाहती
तुम मुझे पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण भी कह सकते हो
जिसने दुनिया को जोड़ रखा है।





विलाप

अब तुम कहोगे मर रही हैं नदियाँ
विलुप्त हो रहे तालाब, कुएँ, वन, पशु-पक्षी
कट रहे जंगल और संताप से भरे खड़े हैं पहाड़

शाम को शहर के न्यू मार्केट में उमड़ी
यह ठसा-ठस भीड़
लोगों की नहीं, धनपशुओं की है
और यह समाज पाउडर-क्रीम लगाया
बजबजाता हुआ सूअर का खोभाड़ है

अब तुम कहोगे, देखो नỊ
शहर के इने-गिने, नामी-गिरामी बुद्धिजीवी
अलग-अलग विषयों पर छाँट रहे व्याख्यान
उनमें एक से बढ़ कर एक मोटे-ताजे सत्ता के जोंक
अपनी सुविधा के लिहाज से
चुन लिए हैं पक्ष-प्रतिपक्ष
वो भी सिर्फ दिन भर के लिए
रात को आ जाते अपने-अपने बिल में

अब तुम कहोगे कितना निर्लज्ज और क्रूर समय है
स्टेशन के पीछे खड़ी रहने वाली चार-पाँच वेश्याएँ
एक-दूसरे को फूटी आँख न सुहाने पर भी
इन दिनों खौफ से बहनापा निभाते 
रहने लगी हैं साथ-साथ

अब तुम कहोगे, मुक्त व्यापार के साथ इस देश में
सब कुछ होता जा रहा मुक्त
वहीं विचारों पर क्यों पसरती जा रही घास-पात
एक अघोषित समझदारी विकसित हो गयी है
हम बोलते रहेंगे, लिखते रहेंगे, परिवर्तन के पक्ष में
पर खूँटा हमारा जस का तस रहेगा


ऐसे ही तुम कहोगे और भी बहुत कुछ
और फिर कहोगे
हम लोग कर ही क्या सकते हैं!

पहली बार नदियों के सूखने
बजबजाते सूअर के खोभाड़
और उन वेश्याओं के नकली बहनापे से
बुरा लग रहा, तुम्हारा विलाप।





[
बेहतरीन रचनाओं के लिए मिला ‘कलमकार’ पुरस्कार


प्रस्तुति: उमा


जयपुर। कलमकार मंच की ओर से सलीम कागजी फाउंडेशन और रावत एजुकेशनल ग्रुप के सहयोग से राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित कलमकार पुरस्कार प्रतियोगिता के विजेताओं को जगतपुरा स्थित सुरेश ज्ञान विहार यूनिवर्सिटी में उनकी बेहतरीन रचनाओं के लिए ‘कलमकार’ पुरस्कार से नवाजा गया। इस अवसर पर ‘कहानी आज’ और ‘कविता आज’ विषय पर आयोजित सत्र में प्रबुद्ध साहित्यकारों ने संवाद किया। यूनिवर्सिटी परिसर में मौजूद आचार्य पुरषोत्तम उत्तम भवन सभागार में देर रात तक चले मुख्य समारोह में द शुक्रान बीट्स बैंड के कलाकारों ने फ्यूजन म्यूजिक की स्वरलहरियां सूफीयाना अंदाज में प्रस्तुत कर दाद बटोरी। इस अवसर पर प्रतियोगिता के प्रतिभागियों की रचनाओं से सुसज्जित पत्रिका ‘कलमकार’ के कवर पेज का विमोचन भी किया गया।


कलमकार पुरस्कार समारोह की शुरूआत कालिंदी सभागार में प्रसिद्ध कथाकार दूधनाथ सिंह को समर्पित ‘कहानी आज’ सत्र से हुई, जिसमें वरिष्ठ पत्रकार ईशमधु तलवार, कथाकार चरणसिंह पथिक, फिल्म निर्देशक गजेंद्र श्रोत्रिय एवं युवा साहित्यकार तसनीम खान ने कहानी लेखन पर संवाद किया। सत्र का संचालन अविनाश त्रिपाठी ने किया। विख्यात व्यंग्यकार सुशील सिद्धार्थ को समर्पित ‘कविता आज’ सत्र में दूरदर्शन के पूर्व निदेशक नंद भारद्वाज, मध्य प्रदेश के जाने माने रचनाकार बहादुर पटेल, युवा लेखिका उमा ने परिचर्चा की।
‘कहानी आज’ सत्र के मुख्य वक्ता ईश मधु तलवार ने कहा कि प्रतियोगिताएं लेखक के काम को स्थापित करने का काम करती हैं। इससे उनका हौसला बढ़ता है और वे लेखन की ओर प्रेरित होते हैं। आज जो कहानियां लिखी जा रही हैं वो युवाओं की कहानियां हैं, आज के समय को पकड़ती हुई कहानियां हैं। वहीं लेखक चरण सिंह पथिक ने कहानी कहने की विधा के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि यदि कहानी किसी को सोचने पर मजबूर न करें, उसे झकझोरे नहीं, उसे पढऩे में आनंद न आए तो वह कहानी नहीं। फिल्म निर्देशक गजेंद्र एस क्षोत्रिय ने कहा कि फिल्म के लिए कहानी की कलात्मकता से ज्यादा उसका प्लॉट महत्वपूर्ण होता है। जो कहानी शुरू से आखिर से पढऩे में रोचकता बनी रहती है, वही कहानी की सम्पन्नता होती है। वहीं युवा कथाकार तसनीम खान ने कहा कि गांवों में शहरों की तुलना में ज्यादा कहानियां हैं।
दूसरे सत्र ‘कविता आज’ में मुख्य वक्ता नंद भारद्वाज ने कहा कि कई प्रतिष्ठित कथाकारों ने अपने गद्य में कविता को प्रमुखता से स्थान दिया है। उनका यह भी मानना है कि लेखन की अलग-अलग विधाओं में परस्पर आवाजाही रहती है। फिर भी उनके बीच तुलना नहीं की जा सकती। उन्होंने कविता की यात्रा पर भी बात की। सत्र के दूसरे प्रमुख वक्ता बहादुर पटेल ने कहा कि कलमकार प्रतियोगिता की सराहना करते हुए कहा कि इस तरह की प्रतियोगिता से नए लेखकों को मंच मिलता है। इस सत्र का कवितामय संचालन दुष्यंत ने किया, जो कि स्वयं जाने-माने कवि हैं।
समकालीन कविता और आलोचना के सशक्त हस्ताक्षर केदारनाथ सिंह को समर्पित मुख्य समारोह में पुरस्कार वितरण से पहले द शुक्रान बीट्स बैंड ने इलयास खान के निर्देशन में माहौल को संगीतमय बना दिया। गायक फैजल खान ने ‘इश्क जुनू जब हद से बढ़ जाए’ से शुरूआत करने के बाद ‘तेरी दीवानी’, ‘लग जा गले’, ‘रश्के कमर’ की दमदार प्रस्तुतियों के साथ ही सूफीयाना अंदाज में जुगलबंदियां पेश कर दर्शक-श्रोताओं को झूमने पर मजबूर कर दिया। फिल्म ‘चोरी चोरी’ फेम गायिका फरीदा खानम ने शुरूआत ‘आज जाने की जिद न करो’ की सूफीयाना प्रस्तुति से की। जैसे ही उन्होंने अपनी दमदार आवाज में ‘दमादम मस्त कलंदर’ की प्रस्तुति दी, सभागार में बैठा हर शख्स झूम उठा।


समारोह में सलीम कागजी फाउंडेशन के चेयरमैन अमीन कागजी, रावत एजुकेशनल के निदेशक नरेंद्र रावत, सुरेश ज्ञान विहार यूनिवर्सिटी के चेयरमैन सुनील शर्मा, फिल्म निर्माता-निर्देशक गजेंद्र श्रोत्रिय, कलमकार मंच के संयोजक निशांत मिश्रा, कथाकार चरणसिंह पथिक, बहादुर पटेल एवं प्रेस क्लब के कोषाध्यक्ष राहुल गौतम ने प्रतियोगिता के विजेताओं को स्मृति चिह्न, प्रशस्ति पत्र और पुरस्कार राशि प्रदान की। समारोह के अंत में कलमकार मंच के संयोजक निशांत मिश्रा ने सभी प्रतिभागियों और आगुन्तकों का आभार व्यक्त किया। मंच संचालन कविता माथुर और आयुषी मिश्रा ने किया।
इस प्रतियोगिता के लिए देशभर से कहानी एवं लघुकथा श्रेणी में कुल 87 और गीत, कविता एवं गजल श्रेणी में कुल 144 रचनाएं प्राप्त हुईं थीं। निर्णायक मंडल में प्रो. सत्यनारायण, पाखी के संपादक प्रेम भारद्वाज, विख्यात लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ, वरिष्ठ पत्रकार ईशमधु तलवार, दूरदर्शन के पूर्व निदेशक नंद भारद्वाज, कहानीकार चरणसिंह पथिक, साहित्यकार डॉ. अनुज कुमार और मध्यप्रदेश के जाने माने साहित्यकार बहादुर पटेल, प्रदीप जिलवाने, उमा, तसनीम खान और भागचंद गूर्जर शामिल थे। प्रतियोगिता की कहानी एवं लघुकथा श्रेणी का प्रथम पुरस्कार सतना, मध्यप्रदेश निवासी वंदना अवस्थी दुबे की कहानी ‘जब हम मुसलमान थे’ को और द्वितीय व तृतीय पुरस्कार क्रमश: मुंबई के दिलीप कुमार की कहानी ‘हरि इच्छा बलवान’ और वड़ोदरा, गुजरात के ओमप्रकाश नौटियाल की कहानी ‘शतरंजी खंभा’ को दिया गया। गीत, गजल, कविता श्रेणी का प्रथम पुरस्कार कोटा, राजस्थान के ओम नागर की रचना ‘हँसी के कण्ठ में अभी रोना बचा है’ को और द्वितीय व तृतीय पुरस्कार क्रमश: नई दिल्ली की मानवी वहाणे की रचना ‘प्यारी दीदी के लिए’ और देवास, मध्यप्रदेश के मनीष शर्मा की रचना ‘अटाला’ को और दिया गया। मनोहरपुर, जयपुर के जाने माने कवि कैलाश मनहर और युवा शायरा शाइस्ता मेहजबीन को उनकी रचना के लिए सांत्वना पुरस्कार दिया गया। दोनों श्रेणियों में दस-दस सांत्वना पुरस्कार भी दिये गए।


भास्कर चौधुरी की कविताएं



भास्कर चौधुरी 



 कविताएँ

बच्चे

सोचता हूँ
जब कभी देखता हूँ
उन बच्चों को
क्या सोचते होंगे वे
मेरे बारे में

मैंने जब भी देखा उन्हें
मुस्कुरा कर
वे भी बस मुस्कुरा दिए

जब कभी भी हाथ हिलाया
हाथ हिलाया बच्चों ने भी

मैंने देखा गुस्से से
आंखें तरेरकर
वे देखने लगे मेमने की तरह ..





सुनो तो

सुनो तो
क्योंकि तुम मेरे हो
क्योंकि तुमने कहा था कभी
प्रेम करते हो तुम मुझसे
अपने प्राणों से अधिक

सुनो तो
क्योंकि तुम मेरे बच्चों के पिता हो
क्योंकि तुमने भी सात फेरे लिए थे मेरे साथ
मेरा हाथ अपने गरम हाथों में लेकर तुमने
बुदबुदाया था
पंडित जी के पीछे-पीछे
कि खयाल रखोगे मेरा
अपने प्राणों से ज़्यादा
सुनोगे मेरी अच्छी बुरी
सुनोगे मेरा चाहा अनचाहा
क्या हुआ तुम्हें
इन दिनों जबकि मुझे तुम्हारी
सबसे ज़्यादा ज़रूरत है
तुमने मुझे सुनना छोड़ दिया है

सुनो तो
लोगों को कहते हुए सुना है मैंने
कि तुम अच्छे कवि हो
और इंसान भी अच्छे हो
कि तुम अच्छा सुनते भी हो

सुनो तो... !!




मनुष्य

तुम्हारे चेहरे में जो
उदासी का रंग है
ऐसा बहुत कम होता है
उन्हें
जब मैं
पढ़ पाता हूँ
हाँ जो रंग
खुशियों के संग हैं
जो रंग ताज़ा हैं
जो अभी फीके नहीं पड़े हैं
अक़्सर मैं उन्हें
ताड़ लेता हूँ ..

ऐसा कब होगा
मैं जब
इन रंगों के भेद को पढ़ पाउंगा
एक साधारण सा कवि से
अच्छा मनुष्य बन पाउंगा ...



कविता

कितनी बड़ी है दुनिया यह
यह समुद्र
यह पहाड़
इतना पानी
इतनी मिट्टी
अथाह और अनंत
जाने क्या क्या
और कितना कुछ
समा जाए इनमें
इस दुनिया में
बाप रे बाप
पर
देखो तो उस कविता को
कितनी जगह है उसमें
समो लेने की
पूरी की पूरी दुनिया !
समुद्र !!
पहाड़ !!!










धुंध

धुंध सामने हो आंखों के तो
दिखाई नहीं देती हैं
गगनचुंबी इमारतें
इमारतों के सामने खड़ी
आधी-पूरी झोपड़ियाँ
दंगों में जले सरकारी दफ़तर
स्कूल और कॉलेज
दंगो के पीछे की राजनीति
राजनीति सरहदों पर और
सरहदों के भीतर
दिखाई नहीं देती हैं

धुंध हो सामने तो
कुछ भी साफ नहीं होता

चाहती हैं सरकारें
छाई रहे धुंध
पड़ी रहे पट्टी हमारी
आँखों पर !!




समाचार

प्रधानमंत्री का भाषण
मंदिर का उद्घाटन
हिंदू
और मुस्लिम
राम मंदिर
बाबरी मस्ज़िद
गड़ा हुआ धन
सेक्स
बाबा
कोहली
प्रेम
ख़ून
बलात्कार
नक्षत्र
तारे
अंगूठियां
कोरिया
किम जोंग-उन
यही है
कुल जमा
आज का समाचार
चलो चाटें
टीवी और अखबार !!



भास्कर चौधुरी
रोज़गार अधिकार रैली

योगेश स्वामी

हज़ारों आंगनवाड़ी महिलाओं, नौजवानों, छात्रों और मज़दूरों ने किया संसद भवन का घेराव!
उठाई "भगतसिंह राष्ट्रीय रोजगार गारण्टी कानून" को पारित करने की माँग!
देश भर से आये बेरोजगार नौजवानों-मज़दूरों ने रामलीला मैदान से संसद तक निकाली विशाल ‘रोजगार अधिकार रैली'! मोदी सरकार पर रोज़गार के अधिकार को मूलभूत अधिकारों में शामिल करने के लिए बनाया दबाव!




 नई दिल्ली, 25 मार्च़, रविवार । आज देश भर से आये सैंकड़ों नौजवानों-मज़दूरों, आँगनवाड़ी महिलाकर्मियों ने रोज़गार के पक्के अधिकार के लिए रामलीला मैदान से संसद तक विशाल 'रोज़गार अधिकार रैली' निकाली। देश भर में बेरोजगारी की समस्या से जुझ रहे हजारों नौजवान-मज़दूरों-महिलाओं ने केन्द्र सरकार से ‘भगतसिंह रोजगार गारण्टी कानून' को पारित करने की माँग उठाते हुए विशाल रैली का आयोजन किया। रोज़गार के अ़़धिकार को मूलभूत अधिकारों में शामिल करवाने के लिए पिछले 3 महीनों से देश के अलग-अलग राज्यों में नौजवान भारत सभा, दिशा छात्र संगठन व अन्य जन संगठनों के बैनर तले 'भगतसिंह राष्ट्रीय रोज़गार गारण्टी कानून' अभियान चलाया जा रहा था। आज उसी अभियान की कड़ी में रामलीला मैदान से हज़ारों की संख्या में इकट्ठा होकर 'रोज़गार अधिकार रैली' की शुरुआत की गयी। हाथों में अपनी माँगों का बैनर लिए सैंकड़ों की संख्या में आँगनवाड़ी महिलाकर्मियों, उनके बच्चों और परिवारवालों ने रैली की शुरुआत की जिसके पीछे तमाम नौवजवानों-मज़दूरों का हुज़ूम नारे लगाते हुआ और आम जनता में परचा वितरण करते हुए रामलीला मैदान से निकला। 'हर हाथ को काम दो वरना गद्दी छोड़ दो', 'भगतसिंह राष्ट्रीय रोज़गार गारण्टी कानून पारित करो!', 'शिक्षा और रोज़गार हमारा जन्मसिद्ध अधिकार', 'हर घर में है बेरोज़गार कौन है इसका ज़िम्मेदार!, टाटा-बिड़ला-अम्बानी-अदानी की सरकार यह सब इसके ज़िम्मेदार !' जैसे गगनभेदी नारे लगाते हुए बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ एकजुट प्रदर्शनकारियों ने पूरे अनुशासन से अपनी रैली निकाली। दिल्ली, हरियाणा, महाराष्ट्र और बिहार के अलग-अलग इलाकों से आये हज़ारों नौजवानों-मज़दूरों और दिल्ली की हज़ारों आँगनवाड़ी महिलाकर्मियों ने रैली का समापन संसद के पास एक महा जन-सभा में किया।
 'भगतसिंह राष्ट्रीय रोज़गार गारण्टी कानून' संयोजन समिति के सदस्य सनी सिंह, जो लम्बे समय से स्टील मज़दूरों को संगठित कर रहे हैं ने कहा कि "अगर रोज़गार के अधिकार को जीने का अधिकार कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। लेकिन देश के अन्दर लम्बे समय से बेरोज़गारी का संकट बढ़ता ही चला जा रहा है। तमाम सरकारें आयी और चली गयी किन्तु आबादी के अनुपात में रोज़गार बढ़ने तो दूर उल्टा घटते चले गये"। उन्हों ने कहा कि "देश के प्रधानमंत्री से लेकर सरकार के आला मन्त्री-गण बेरोज़गारी का दंश झेल रही इस देश की गरीब-मेहनतकश आबादी के प्रति बहुत ही असंवेदनशील रवैया इख़्तियार करते हुए उन्हें 'पकौड़े तलने' और 'भीख मांगने' को कह रहें हैं। इसी से साबित हो जाता है कि बेरोज़गारी को दूर करने और नए रोज़गार पैदा करने के प्रति सरकार कितनी तत्पर है। सनी सिंह ने आगे कहा कि "नई सरकारी नौकरियाँ नहीं निकल रही हैं, सार्वजानिक क्षेत्रों की बर्बादी जारी है। केन्द्र और राज्यों के स्तर पर लाखों-लाख पद खाली पड़े हैं। भर्तियों को लटकाकर रखा जाता है, सरकारें भर्तियाँ करके भी नियुक्ति (‘जोइनिंग) नहीं देती हैं। परीक्षाएँ और इण्टरव्यू देने की प्रक्रिया में युवाओं के समय और स्वास्थ्य का तो नुकसान होता ही है किन्तु आर्थिक रूप से तो कमर ही टूट जाती है। ऐसे में आज संविधान के अनुछेद 14 और 21 की गरिमा तभी बनी रह सकती है जब हर व्यक्ति के पास रोज़गार का अधिकार हो। इसीलिए आज हम लोग यहाँ इकठ्ठा हुए हैं ताकि देश की संसद में बैठे नेताओं और मंत्रियों को यह याद


दिला दे कि जिनके वोट से जीतकर वो सरकार में आये है और आज संविधान की रक्षा करने का दावा करते है वो जनता अब अपने अधिकारों के लिए उठ खड़ी हुई है और अपना अधिकार लेकर रहेगी।"

इस अभियान की दिल्ली संयोजन समिति की शिवानी (जो दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एंड हेल्पर्स यूनियन की अध्यक्ष भी हैं) ने कहा कि कुछ रिपोर्टों और आँकड़ों पर नज़र डालने पर रोज़गारहीनता के मामले में हम कम-से-कम स्वयं को तो कोसना बन्द कर देंगे! राज्यसभा में उठे एक सवाल के जवाब में कैबिनेट राज्य मन्त्री जितेन्द्र प्रसाद ने माना खुद कि खुद अकेले केंद्र में कुल 4,20,547 पद खाली पड़े हैं। देश भर में प्राइमरी-अपर-प्राइमरी अध्यापकों के क़रीब 10 लाख पद, पुलिस विभाग में 5,49,025 पद खाली पड़े हैं। दिल्ली में 2013 में 9.13 लाख बेरोज़गार थे जोकि 2014 में बढ़कर 10.97 लाख हो गये यही नहीं 2015 में इनकी संख्या 12.22 लाख हो गयी थी। नोटबन्दी और जीएसटी के बाद के हालात तो हम सब के सामने हैं जब दिल्ली में ही लाखों लोगों के मुँह से निवाला छीन लिया गया। आम आदमी पार्टी ने 55,000 खाली पदों को तुरन्त भरने और ठेका प्रथा ख़त्म करने की बात की थी किन्तु रोज़गार से जुड़े तमाम मामलों में आम आदमी पार्टी की सरकार भी औरों से अलग नहीं है।"


मज़दूर अख़बार 'मज़दूर बिगुल' के संपादक अभिनव ने सभा में बात रखते हुए कहा कि "मोदी सरकार का मज़दूर विरोधी चेहरा आज इस देश की मेहनतकश-गरीब अवाम के सामने बिलकुल बेपर्दा हो चूका है। 'अच्छे दिनों' की बात करते हुए जो सरकार हमारे बीच "बहुत हुई महंगाई की मार, अब की बार मोदी सरकार" जैसे नारों के जुमले उछालते हुए आयी थी उसने सत्ता हासिल करते ही मज़दूर और गरीब विरोधी नीतियाँ पारित करना शुरू कर दिया। हमारे देश के प्रधान सेवक उर्फ़ प्रधान मंत्री खुद को 'मज़दूर न-1' कहते हैं लेकिन इस देश के मज़दूरों को न्यूनतम वेतन जैसे श्रम कानूनों को सख़्ती से लागू करवाने की जगह वो कहते है कि भारत में लेबर इंस्पेक्टरों के पदों को ही ख़त्म कर देना चाहिए। हाल ही में 16 मार्च 2018 को मोदी सरकार द्वारा एक गज़ेट निकाल कर 'इंडस्ट्रियल एम्प्लॉयमेंट (स्टैंडिंग ऑर्डर्स) सेंट्रल रूल्स, 1946 में बदलाव कर टेक्सटाइल और कपड़ा उद्योग में निश्चित अवधि के रोज़गार को समाप्त कर दिया है। जिसके बाद खारख़ानेदार जब चाहे जिसे चाहे काम पर रखे और जब मन आये बिना किसी नोटिस के काम से निकाल बाहर करें। इस कदम से कितने लाख मज़दूर एक झटके में बेरोज़गार हो सकते है इसकी चिंता किये बिना मोदी सरकार ने यह आदेश जारी कर दिया। आज हमारे देश में 25 करोड़ से ज़्यादा आबादी बेरोज़गारी से त्रस्त है और अगर सरकार इसी तरह मज़दूर-विरोधी नीतियाँ लागू करती रहेगी तो यह संख्या और भी बढ़ जायेगी। एक बात जो हमारे देश के नौजवानों और मज़दूरों को अच्छी तरह समझ लेने चाहिए वो यह है कि बेरोज़गारी पूँजीवादी व्यवस्था का ही एक अंग है। पूँजीपति अपनी ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने की हवस को पूरा करने के लिए मज़दूरों को उनका जायज़ वेतन नहीं दते। मज़दूरों से उनके श्रम का पैसा छीन कर पूंजीपति अपनी तिजोरियां भरते हैं। ऐसे में पूँजीपतियों को हर हमेशा सड़क पर चप्पल फटकार कर घूमती हुई बेरोज़गारों की फ़ौज की ज़रूरत होती है। ताकि अगर काम कर रहे मज़दूर उनसे अपना हक़ माँगें तो वो तुरंत उन्हें काम से निकाल कर बेरोज़गारों की फ़ौज में से नयी भर्ती कर ले। इसी कुचक्र के चलते आज बेरोज़गारी ने इतना भयावह रूप इख़्तियार कर लिया है। इसीलिए आज सभी नौजवानों-मज़दूरों के लिए यह आवश्यक बन जाता है कि वो संगठित होकर एक साथ खड़े हो और अपने हक़ों के लिए एकजुट होकर संघर्ष करें।
प्रदर्शनकारियों ने अपनी माँगों का ज्ञापन प्रधान मंत्री को सौपा और उनसे अपील की कि वो बिना किसी विलम्भ के इन माँगों को संज्ञान में लेकर तुरंत उन्हें पूरा करने की दिशा में कदम उठाये।


मोदी सरकार को दिए गए ज्ञापन में संघर्षरत प्रदर्शनकारियों की निम्नलिखत माँगें शामिल थी:

1. हरेक काम करने योग्य नागरिक को स्थायी रोज़गार व सभी को समान और नि:शुल्क शिक्षा'  के अधिकार को संवैधानिक संशोधन करके मूलभूत अधिकारों में शामिल किया जाए।

2. ‘भगतसिंह राष्ट्रीय रोज़गार गारण्टी क़ानून' पारित करो। गाँव-शहर दोनों के स्तर पर पक्के रोज़गार की गारण्टी, रोज़गार न देने की सूरत में सभी को न्यूनतम  10,000 रुपये प्रतिमाह गुजारे योग्य बेरोज़गारी भत्ता प्रदान करो।

3. नियमित प्रकृति के कार्य पर ठेका प्रथा तत्काल प्रतिबन्धित की जाये, सरकारी विभागों में नियमित प्रकृति का कार्य कर रहे सभी कर्मचारियों का स्थायी किया जाये और ऐसे सभी पदों पर स्थायी भर्ती की जाये।

4. केन्द्र और राज्यों के स्तर पर जिन भी पदों पर परीक्षाएँ हो चुकी है उनमें उत्तीर्ण उम्मीदवारों को तत्काल नियुक्तियाँ दो।

5. केन्द्र और राज्यों  के स्तर पर तुरन्त  प्रभाव से जरूरी परीक्षाएँ कराके सभी खाली पदों को जल्द से जल्द भरो।


रोज़गार अधिकार रैली में नौजवान भारत सभा, दिशा छात्र संगठन, क्रा‍न्तिकारी मज़दूर मोर्चा, दिल्ली स्टेट आंगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन आदि संगठनों ने ‘भगतसिंह राष्ट्रीय रोज़गार गारण्टी क़ानून' को पारित करवाने के लिए शिरकत की। नौजवान भारत सभा की सांस्कृतिक टोली द्वारा क्रान्तिकारी गीतों की प्रस्तुति भी की गयी।
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25 मार्च, 2018



संयोजक
योगेश स्वामी
भगतसिंह राष्टीलय रोजगार गारण्टीं क़ानून अभियान
9289498250

24 मार्च, 2018

राष्ट्रवाद, प्रसाद और स्पृहणीय अवज्ञा की अवधारणा

डा. ललिता यादव         
                                                       

आजादी के लम्बें अंतराल के बाद ‘राष्ट्रवाद‘ एक व्यापक बहस का विषय बना हुआ है। तमाम राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियां, अखबारों के संपादकीय और पत्र- पत्रिकाओं के आलेख इस मुहिम में शामिल हैं। ‘प्रसाद के साहित्य में राष्ट्रीय स्वर’ विषयक एक राष्ट्रीय संगोष्ठी को राष्ट्रवादी बहस की श्रृखंला की एक कड़ी के रूप में देखते हुए, प्रसाद के नाट्य साहित्य के पृष्ठों को पलटने के क्रम में कुछ ऐसे सूत्र हाथ लगे कि वर्तमान संदर्भों में प्रसाद के नाटकों में निहित राष्ट्रवाद की प्रासंगिकता का विश्लेषण एवं विवेचन एक जरूरी विमर्श प्रतीत होने लगा। ‘‘राष्ट्रनीति दार्शनिकता और कल्पना का लोक नहीं है।

डॉ. ललिता यादव


इस कठोर प्रत्यक्षवाद की समस्या बड़ी कठोर होती है।‘‘1 इस सूत्र वाक्य के रचयिता जयशंकर प्रसाद के ऐतिहासिक नाटकों में देश प्रेम अथवा राष्ट्रवाद की धारा अविरल रूप से प्रवाहित है। न कोई शोर गुल, न रुदन। जिस शाइस्तगी से प्रसाद राष्ट्र के मुद्दों पर अपनी बात कहते हैं, आज के गलाकाट भौंपू राष्ट्रीयता के दौर में अर्थपूर्ण एवं प्रासंगिक हो उठती है। हालांकि यह भी सच है कि प्रसाद के नाटक पराधीनता की जिस कालावधि ;1907-1933द्ध में लिखे गए, उस समय  राष्ट्रवाद की परिकल्पना आज के प्रचलित अर्थों में नहीं थी। फिर भी वह अपने नाटकों में  इतिहास के माध्यम से आधुनिक युग की समस्याएं, राष्ट्रीय चिंतन एवं स्वातऩ्त्र्य के प्रश्नों को गम्भीरता से उठाती हैं। ’‘धार्मिक मतवाद, जाति- उपजातियों के झगड़े, सांप्रदायिक समस्याएं, धर्मोन्माद, देश के छोटे- छोटे टुकड़ों में विभाजन की प्रवृतियों के बहुपक्षीय समाधान नाटकों में खोजने  का प्रयत्न उनकी विशेषता है।’’2 आपने लिखा है-‘‘ इतिहास में प्रायः घटनाओं की पुनरावृत्ति होते देखी जाती है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि इसमें कोई नयी घटना होती ही नहीं किन्तु असाधारण नयी घटना भी भविष्यत में फिर होने की आशा रखती है।‘‘3 प्रसाद के समय का भारत विषम सांस्कृतिक राजनीतिक संकट का काल था। आज उसके विपरीत भारत सांस्कृतिक राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करने की जद्दोजहद के दौर में है।


डा. मंजुला दास कहती हैं- ’’वैचारिक क्रांति की सतत जागरूकता उनके नाटकों की अंतश्चेतना कही जाने योग्य है, जो क्रांति के तत्व का अग्रभाव है।’’4 हजारीप्रसाद द्विवेदी अनुसार ‘‘प्रसाद के नाटकों से भारतवर्ष की अंतश्चेतना के दर्शन का सिंहद्वार अनावृत हो गया है।’’ इस दृष्टि से वर्तमान संदर्भों में प्रसाद का मार्गदर्शन अवश्य कुछ मार्ग प्रशस्त करता है।

‘‘भारत की राष्ट्रीयता उदार भावों से युक्त रही है तथा विदेशी आक्रान्ताओं की संस्कृति के सद्गुणों को भी इसने प्रारम्भ से ही ग्रहण किया है। यह गर्व की बात है कि आधुनिक युग में आकर भी भारतीय राष्ट्रीयता का यह रूप विकृत नहीं हुआ है।’’5  विगत कुछ वर्षो में यह परम्परा विछिन्न हुई दिखती है। ‘‘आज राष्ट्रवाद का प्रश्न नए सिरे से बहस के केन्द्र में है। राष्ट्र की पहचान के विविध रूपों में से केवल राष्ट्र के प्रतीकात्मक रूपों को चुन कर उस पर बहस हो रही है। जो लोग इन प्रतीकों से बाहर के दायरे में आते हैं उन्हें राष्ट्र की परिसीमा से बाहर माने जाने पर जोर दिया जा रहा है।‘‘6 प्रतीक पूजा के इस दौर में राष्ट्रवाद का अर्थ संकुचित होता जा रहा है। वस्तुतः राष्ट्र की संकल्पना राष्ट्र की जनता के लगाव पर आधारित होती है। ‘जिस मानवतावाद का शाश्वत आदर्श’ प्रसाद के नाटक प्रस्तुत करते हैं आज के समय में भी हमारी चेतना का हिस्सा नहीं बन सका है। ‘भारत समग्र विश्व का है और सम्पूर्ण वसुधंरा इसके प्रेम-पाश में आबद्ध है। अनादि काल से ज्ञान की मानवता की ज्योति यह विकीर्ण कर रहा है।’ ऐसी विराट, उदात्त और भव्य कल्पना हमारे संकुचित राष्ट्रवाद में अटती नहीं दिखती।                     
‘‘यूनानी इतिहास में चन्द्रगुप्त को शूद्र समझने की भूल का निराकरण पहली बार प्रसाद करते हैं। उन्होंने सबल प्रमाणों द्वारा नन्द को शूद्र और चन्द्रगुप्त को क्षत्रिय सिद्ध किया है।‘‘7 वस्तुतः प्रसाद ‘इतिहास के गौरवशाली खंड़ों की ऐतिहासिकता को नकारने वाली इस मान्यता को लेकर बहुत दुखी थे कि ‘भारतियों का कोई राजनैतिक या सांस्कृतिक इतिहास नहीं है बस किस्से कहानियां ही हैं।’ वह भारतीय वैभव और वीरत्व से ओत- प्रोत इतिहास के कालखंड़ों के माध्यम से भारतीय संस्कृति की पुनप्रर्तिष्ठा करना चाहते थे। वह सबल प्रमाणों के द्वारा चन्द्रगुप्त को क्षत्रिय और नन्द को शूद्र सिद्ध करते हैं। यद्यपि प्रसाद का यह प्रयास ‘जन्मना जायते शूद्रः/संस्कारात् भवेत द्विजः।‘ जैसी महत उक्ति के संदर्भ में अर्थपूर्ण नहीं रह जाता है। बचाव में भारतीय नाट्य शास्त्र की नायक विषयक रूढ़ि के निर्वाह का प्रश्न भी उठाया जा सकता है।  वर्तमान समय में हम अस्तित्ववादी विमर्शों के स्वर्णिम दौर में है, इसके विपरीत आज भी प्रत्येक महत चरित्र के संदर्भ में कुलीनता सिद्धि की यह प्रवृति देखी जा सकती है। किन्तु इस तरह की धारणाओं के खंडन मंडन में प्रसाद जिस तरह तर्को का सहारा लेते हैं, गहन शोध और अन्वेषण करते हैं, आज के समय के वाक्वीरों और लट्ठवीरों के लिए प्रेरणास्पद है।
’‘राज्य किसी का नहीं! सुशासन का है।‘‘ वे हम भारतीयों के ही युद्ध थे, जिनमें रणभूमि के पास ही कृषक- स्वच्छन्दता से हल चलाता था।  आजादी के सत्तर वर्ष बाद भी यदि कर्ज और कंगाली से बड़ी संख्या में अन्नदाता किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं, तब हमें सोचने की जरूरत अवश्य है कि क्यों हम उनके हित संरक्षित नहीं कर सके। ‘‘अन्न पर स्वत्व है भूखों का और धन पर स्वत्व है देशवासियों ..विलास के लिए उनके पास पुष्कल धन है और द्ररिद्रों के लिए नहीं?‘‘8 गरीबी, बेरोजगारी तो है ही, भारत में भुखमरी की स्थिति भी अत्यन्त गंभीर है। अंतरराष्ट्रीय खाद्य अनुसंधान संस्थान के ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत 100वें स्थान पर पहुंच गया है। वर्ष 2016 में भारत की रैंकिंग 97वें स्थान पर थी। इस स्थिति में आजादी से पहले और बाद के भारत का क्या अर्थ रह जाता है?  कौन से ‘राष्ट्रोदय’ की तैयारी में हम निमग्न हैं? ‘सच्चे क्षत्रिय मूर्धाभिषिक्त हैं’ फिर ‘जनता की आर्तत्राण परायण’ आवाजें क्यों सुनाई पड़ रहीं हैं। ‘‘ ब्राह्मण न किसी के राज्य  में रहता है और न किसी के अन्न से पलता है। स्वराज्य में विचरता है और अमृत होकर जीता है।‘‘ स्वराज्य ही काफी नहीं है, स्वराज्य में विचरने का संकल्प भी अहम है। ब्राह्मण अर्थात प्रबुद्ध वर्ग के संदर्भ में यह संकल्प विचारने और अभिव्यक्त करने की स्वतन्त्रता के अलावा और क्या है? ‘‘मौजूदा लोकतंत्र में प्रतिपक्ष की अवधारणा निरंतर छीजती चली जा रही है, जबकि सशक्त प्रतिपक्ष जनतंत्र की प्राथमिक शर्त है।’’9 सत्ताधारी दल  बौद्धिक और मजे हुए प्रतिपक्ष को खत्म करने में सारी ऊर्जा लगा देते हैं। प्रतिपक्षी होना देशद्रोह की श्रेणी में ला दिया गया है। सरकार की कार्यप्रणाली पर प्रश्न करने वाले लोग चाहे वे पत्रकार, देश के नागरिक अथवा विद्यार्थी कोई भी हो सकते हैं, देश के दुश्मन हैं, ऐसा प्रमाद फैलाया जा रहा है।


‘‘विद्यार्थी और कुचक्र! असम्भव ये तो वे ही कर सकते हैं जिनके हाथ में अधिकार हो- जिनका स्वार्थ समुद्र से भी विशाल और सुमेरु से भी कठोर हो, जो यवनों की मित्रता के लिए स्वयं वाल्हीक तक...........’’10  अभी हाल में देश के प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों के विद्यार्थियों के संदर्भ में सिंहरण की इन पंक्तियों को पढ़ना पीड़क आन्नद से भर देता है। तक्षशिला गुरुकुल के छात्र के रूप में गर्व से परिचय देने वाला सिंहरण राजकुमार आंभीक को दुर्विनीत लगता है। राजकुमार आंभीक के कु्रद्ध होने पर अलका कह उठती है - ‘‘वन्य निर्झ्रर के समान स्वच्छ और स्वछन्द हृदय में कितना बलवान वेग है। यह अवज्ञा भी स्पृहणीय है। जाने दो।‘‘  गांधी जी की सविनय अवज्ञा से हमारा साक्षात्कार पुराना है पर यह ‘स्पृहणीय अवज्ञा’ क्या चीज है? राज्य या प्रधान अधिकारी की किसी ऐसी व्यवस्था या आज्ञा को न मानना जो अन्याय मूलक प्रतीत हो अवज्ञा है। जब यह न मानना भद्रतापूर्वक हो तो सविनय और इसका विपरीत या इतर पक्ष ही स्पृहणीय अवज्ञा है। स्पृहणीय अवज्ञा हंसी में उड़ा देने वाली बात नहीं हुआ करतीं, हम ऐसी स्पृहणीय अवज्ञाओं का संज्ञान अब जरूरत से ज्यादा लेने लगे हैं।  गत वर्ष एक ऐसी ही स्पृहणीय अवज्ञा का आनंद देश के तमाम लोगों ने अवश्य लिया, जब चर्चित छात्र नेता के भाषणों को सुना होगा। उद्धत, राष्ट्र हित में कुछ भी करने को तत्पर उत्साही वीर युवकों के साथ प्रसाद दायित्व एवं दिशाविहीन युवक युवतियों के चित्र भी प्रस्तुत करते हैं। ज्योतिषी मुद्गल कहता है ‘‘जहां देखो वही ये प्रश्न होता है; मुझे उन बातों को सुनने में भी संकोच होता है-मुझसे रूठे हुए हैं? किसी दूसरे पर उनका स्नेह है? वह सुन्दरी कब मिलेगी? मिलेगी या नहीं?-इस देश के छबीले छैल और रसीली छोकरियों ने यही प्रश्न गुरुजी से पाठ में पढ़ा है। अभिसार के लिए मुहूर्त पूछे जाते हैं।’’ जगत गति से असमपृक्त देश के छबीले छैल और रसीली छोकरियों के समानान्तर जब देश की समस्याओं के प्रति जागरूक प्रतिक्रियाशील युवाओं को रखते हैं तब स्पृहणीय अवज्ञा का महत्व स्पष्ट होता है। ‘जड़ता में आछन्न, निर्मम उदासीनता में किसी तरह की बौद्धिक उत्तेजना को देखकर’ किसे प्रसन्नता नहीं होगी? आत्म सम्मान के लिए मर मिटने वाले, स्वावलम्बी, कर्मण्य वीर जो दिन रात ‘युद्धस्व विगतज्वरः’ का शंखनाद सुना करते हैं, प्रसाद की श्रद्धा के पात्र हैं। जिस देश में ऐसे वीर युवक हों उसका पतन असम्भव है। दूसरी ओर नीच, दुरात्मा, निराली धज वाले विलास के नारकीय कीड़े जो कुल वधुओं का अपमान देखकर भी अकड़ कर चलते हों के संदर्भ में कह उठते हैं- ’’जिस देश के नव युवक ऐसे हों उसे अवश्य दूसरे के अधिकार में जाना चाहिए।’’ किसी ‘राष्ट्र के लिए जैसे नृशंसता स्पृहणीय नहीं वैसे ही कायरता भी अभीष्ट नहीं हो सकती।‘ प्रसाद जी अपने नाटकों में उग्र युवाओं की क्षमताओं का जैसा उपयोग देशोत्थान में करते दिखते हैं श्लाघनीय और अनुकरणीय अवश्य है।
‘‘जिसका जो मार्ग है उस पर वह चलेगा। ............. देखती हूं प्रायः मनुष्य, दूसरों को अपने मार्ग पर चलाने के लिए रुक जाता है, और अपना चलना बंद कर देता है।‘’ कब वह दुर्दन्त, पशु से भी बर्बर और पत्थर से भी कठोर, करुणा के लिए निरवकास हृदय वाला हो जाएगा, नहीं जाना जा सकता।‘‘ अथवा ‘‘क्या इसी लिए राष्ट्र की शीतल छाया का संगठन मनुष्य ने किया था!‘‘‘ विद्या और परिष्कृत विचारो’ की आवश्यकता आज भी राष्ट्र की प्राथमिकता नहीं। ‘राजकोष का रुपया व्यर्थ ही स्नातकों को शिक्षित करने में लगता है या उसका सदुपयोग होता है।‘ आज भी हम इसका निर्णय कैसे हो ? जैसे प्रश्न से हम जूझ रहे हैं। प्रतिउत्तर में कोई राक्षस कह उठता है- ‘‘केवल सद्धर्म की शिक्षा ही मनुष्यों के लिए र्प्याप्त है।‘‘ उच्च शिक्षा की दुर्दशा इसका प्रमाण है। ‘प्रचंड शासन‘ के इस दौर में भयभीत ‘मूर्ख जनता धर्म की ओट में’ एक बार फिर नचायी जा रही है। धर्मान्धता से प्रेरित राजनीति आंधी की तरह चल रही है। धर्मान्धता में प्राण ले लेना आम बात हो चली है। ‘जिस वस्तु को मनुष्य दे नहीं सकता, उसे ले लेने की स्पर्धा’। ‘‘लूट के लोभ से हत्या व्यवसायियों को एकत्र करके उन्हें वीर सेना कहना, रणकला का उपहास करना है।‘‘ क्या ये बातें किसी सुदूर अतीत के ऐतिहासिक नाटक के संवाद मात्र हैं?


‘‘राजनीति ही मनुष्यों के लिए सब कुछ नहीं होती है। राजनीति के पीछे नीति से भी हाथ न धो बैठो, जिसका विश्व मानव के साथ व्यापक से संबंध है।’’11 नीति की बात कौन करे, जब राजसत्ता के लिए सुव्यवस्था नहीं- हत्या, रक्तपात और अग्निकाण्ड जैसे उपकरण जुटाने में राजनेताओं को आनन्द आता हो। कर्म में प्रगाढ़ आस्था के कारण ही वह बौद्ध धर्म की करुणा को गृहीत करते हुए भी प्रवज्या का विरोध करते हैं। बौद्ध भिक्षुणी इरावती के संदर्भ में एक सैनिक कहता है-‘‘यह किस क्रूर कर्मा का विधान है जिसे उषा की उल्लसित लालिमा में विकसित होना चाहिए, उसे तुम- नहीं तुम्हारे धर्म- दम्भ ने दिनान्त की सन्ध्या के पीलेपन में डूबने की आज्ञा दी है।‘‘ वह जीवन के सहज विकास की बात करते हैं। ‘संघ की मृत्यु शीतल छाया‘ हो या ‘वह धर्म जिसके आचरण के लिए पुष्कल स्वर्ण चाहिए जन- साधारण की सम्पत्ति नहीं हो सकता।’ धर्म के आड़बर पर कहते हैं-‘‘जो पारस्य देश की मूल्यवान मदिरा रात में पी सकता है, वह धार्मिक बने रहने के लिए प्रभात में एक गो- निष्क्रिय  भी कर सकता है। ‘धर्म को बचाने के लिए किसी राज्य शक्ति की आवश्यकता नहीं’ है। धर्म इतना निर्बल नहीं कि वह पाशव बल के द्वारा सुरक्षित होगा। एक युद्ध करने वाली मनोवृत्ति की प्रेरणा से उत्तेजित होकर अधर्म करने एवं धर्माचरण की दुन्दुभी बजाने वालों से कहते हैं- ’’हम लोग व्यर्थ आपस में झगड़ते हैं और आत्तायियों को देखकर घर में घुस जाते हैं। हूणों ;विदेशी आक्रान्ताओंद्ध के सामने तलवारें लेकर इसी तरह क्यों नहीं अड़ जाते?’’ ‘चन्द्रगुप्त’ नाटक में चाणक्य कहता है- ‘‘परिणाम में भलाई ही मेरे कामों की कसौटी है।’’ प्रजातांत्रिक व्यवस्था में यह आम नागरिकों पर भारी है। ‘श्रेय के लिए सबकुछ त्याग की दरकार भी आम आदमी से।


सिंहरण और अलका, ’मालव’ और ‘तक्षशिला’ से ऊपर उठ ंकर ‘आर्यावर्त’ के बालक बालिका के रूप में एक दूसरे को चीन्हते हैं। प्रसाद अनार्य कन्या कार्नेलिया को आर्यावर्त की साम्राज्ञी सहज रूप में स्वीकारते कहते हैं- ‘‘दो बालुकापूर्ण कगारों के बीच में एक निर्मल-स्रोतस्विनी का रहना आवश्यक है।’’ लव जिहाद, हॉरर किलिंग और वेलेन्टाइन वीक की गुत्थियों में उलझे हम अपने बच्चों के ‘प्रणय के साथ अत्याचार’ करते, उन्हें भारत के बालक- बालिका के रूप में देखने की तमीज विकसित नहीं कर सके। मालव और मगध को भूल कर केवल ‘आर्यावर्त‘ का नाम लेने की बात है वहां प्रान्तीयता को भूल कर अखंड भारत के हित की कामना है। देश की मर्यादा के साथ प्रसाद जी कोई समझोता नहीं करते। सिकंदर से ‘भूपालों का- सा व्यवहार‘ मांगने वाले कुलीन, बहुप्रशंसित पर्वतेश्वर या पोरस को वह खल पात्र के रूप में प्रस्तुत करते हैं। प्रसाद राष्ट्रीयता तक ही नहीं रुके रहते वह विश्व प्रेम तक पहुंचते हैं।
पुष्यमित्र के प्रश्न के उत्तर में पतंजलि कहते हैं-‘‘यही तो संसार सबसे बड़ा प्रश्न है। मैं क्या करूं? इस पर विचार और कर्म से पहले मनुष्य अपना शरीर, मन और वाणी शुद्ध कर ले।’’12 चाणक्य कहता- ‘‘भाषा ठीक करने से पहले मैं मनुष्यों को ठीक करना चाहता हूं।’’ मनुष्य के ठीक होने पर भाषा का ठीक हो जाना कठिन कार्य नहीं।देश में सार्वजनिक संवाद की हालत इतनी दयनीय हो गई है कि शीर्ष राजनेताओं तक के उपचार के लिए किसी चाणक्य की आवश्यकता है। कौन करेगा ये उपचार ? जब प्रबुद्ध वर्ग को ‘लोहे और सोने के सामने सिर झुकाने में ही जीवन का चरम सुख प्राप्त हो रहा है। लोभ से, सम्मान से या भय से किसी के पास न जाने वाले दाण्ड्यायन अदृश्य हैं। आज की अलकाएं राजभवनों से भयभीत नहीं दिखती। ‘कोमल शय्या पर लेटे रहने की प्रत्याशा में स्वतन्त्र्ता का विसर्जन’ और ‘मानसिक कारावास’ घाटे का सौदा नहीं रहा। ‘‘राजनीति महलों में नहीं रहती, इसे हम लोगों के लिए छोड़ देना चाहिए।’’ राक्षस की यह उक्ति आज भी आत्म सजग, स्वतन्त्र, चेतना संपन्न स्त्रियां को राजनीति के खेल में हिस्सेदारी से रोक लेती है। राजनीति में महिलाओं को हिस्सेदारी देने के नाम पर चुनावी रणनीति का हिस्सा बन चुका ‘संसद में 33 फीसदी आरक्षण विधेयक’ सालों से लटका पड़ा है।
भ्रष्टाचार और बेरोजगारी झेलते, निकम्मे और नाकारा होते बच्चे के जीवन का सहज विकास अवरुद्ध है। नागरिकों के ‘जीवन के सहज विकास को रोकने वाले नियम राष्ट्र की उन्नति को भी रोकते हैं।’ बच्चे, बड़े और युवकों को देश की भलाई में प्रस्तुत करने की क्षमता विकसित करने में अक्षम हम, उन्हें स्वच्छता का ककहरा पढ़ाने में ऐसे जुते हैं कि देश की ज्वलन्त समस्याएं हमें अधीर नहीं करतीं। ‘हम देश की प्रत्येक गली को झाड़ू देकर ही इतना स्वच्छ कर‘ दे रहे हैं कि उस पर चलने वाले राजमार्ग का सुख पाएं। ‘‘चाणक्य सिद्धि देखता है साधन चाहे कैसे ही हों।‘‘  चाणक्य की सिद्धि का लक्ष्य बड़ा था। आज सत्ता में बने रहना के समीकरण साध लेना ही अंतिम लक्ष्य दिखता है।
ऐसे विकट समय में प्रसाद के नाटकों में निहित राष्ट्रवाद पर चर्चा की अत्यन्त आवश्कता है ताकि राष्ट्रवाद की संकीर्ण धारणाओं से राष्ट्र के विकास को अवरुद्ध होने से बचाया जा सके।
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सन्दर्भ सूची :
1- ‘स्कन्दगुप्त‘ ’प्रसाद के सम्पूर्ण नाटक एवं एकांकी’ सम्पा0 सत्य प्रकाश मिश्र‘ पृ0 462 लोक भारती     
    प्रकाशन, इलाहाबाद
2- प्राक्कथन, सत्य प्रकाश मिश्र ’प्रसाद के सम्पूर्ण नाटक एवं एकांकी’, पृ0 462 लोक भारती     
    प्रकाशन, इलाहाबाद
3- अजातशत्रु कथा-प्रसंग पृ0 199
4- प्रसाद के नाटक और भारतीय अस्मिता, संपादक सुरेशचन्द्र गुप्त, पृ0 71  पराग प्रकाशन दिल्ली, 1990
5- वही, पृ0 67
6- सुधा सिंह, ‘राजनीतिः समावेशी राष्ट्रवाद बनाम प्रतीकवाद’, ‘जनसत्ता‘ 14 मार्च 2016
7- गिरीश रस्तोगी, ‘हिन्दी नाटक का आत्मसंघर्ष’, पृ0 31 लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद
8- ‘स्कन्दगुप्त‘ पृ0 545
9- ‘अमर उजाला’ दैनिक पत्र संपादकीय 13 दिसम्बर 2016
10- ‘चन्द्रगुप्त’, पृ0 622
11- वही, ‘धुवस्वामिनी’ पृ0 76
12- वही, ‘अग्निमि़त्र’ पृ0 790
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परिचय

डा०० ललिता यादव
एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी
नानकचंद ऐंग्लो संस्कृत महाविद्यालय, मेरठ में 2001 से अध्यापन एवं शोध निर्देशन
'समकालीन लेखिकाओं के उपन्यासों में स्त्री विमर्श' विषय पर शोध कार्य
परिकथा, कथाक्रम, समावर्तन, समालोचन आदि विविध पत्र पत्रिकाओं में शोध आलेख एवं कहानियां प्रकाशित
ईमेल lalita.yadav09@gmail.com
मो०न० 9897410300