image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

08 मार्च, 2018

महिला दिवस पर विशेष:

सत्ता और बाज़ार के जाल में फंसता महिलाओं के संघर्षो का प्रतीक "महिला दिवस"

उषा सिंह

एक बार फिर 8 मार्च आ गया है। 8 मार्च जो पूरे विश्व मे महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है।
लगभग पूरे विश्व की सरकारें महिला दिवस को सरकारी तौर पर मनाती है। आज सुबह से ही महिला दिवस की शुभकामनाएं शोशल मीडिया पर मिलनी शुरू हो गयी है। सरकार भी हर साल की तरह महिला दिवस पर बधाई संदेश देगी।
उषा सिंह

अभी 4 दिन पहले पूरा देश होली मना रहा था। शोशल मीडिया होली के बधाई संदेशों से पटा हुआ था। सरकार और बाज़ार भी होली-होली कर रहे थे। आज सत्ता, बाज़ार और आप सब महिला दिवस-महिला दिवस कर रहे हो।
क्या इन दोनों दिनों में कोई फर्क नही है या आपको मालूम नही है इन दोनों दिनों का इतिहास या आप दोगलापन कर रहे हो।
होली जो एक महिला को जिंदा जलाने का त्यौहार है वहीं अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस महिलाओ के संघर्षो की दास्तना है।
महिला दिवस महिलाओ के संघर्षों का प्रतीक है। महिलाओं द्वारा राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक आजादी के लिए किए गए संघर्ष की दास्तना है महिला दिवस। हजारो महिलाओ ने अपनी जान कुर्बान की है इस संघर्ष में, खून बहाया है। पूरे विश्व मे ये लड़ाइयां बराबरी की मांग को लेकर लड़ी गयी।
इसलिए आप दोनों दिनों को बधाई सन्देश कैसे दे सकते हो और अगर कोई ऐसा कर रहा है। उसको जरूर सोचना चाहिए कि होली महिला के अस्तित्व के खात्मे का त्यौहार है तो महिला दिवस महिलाओं की मौजूदगी का दिन है।

"आकर्षक उपहार का प्रलोभन देकर महिला मुद्दों को गुमराह करता बाजार द्वारा प्रायोजित महिला दिवस"



लेकिन आज महिला दिवस की प्रसंगिगता ही खात्मे के कागार पर है। क्योंकि महिला दिवस जिन महिला संघर्षो के मैदान में पैदा हुआ। जंग के मैदान में जो दुश्मन वर्ग था।
आज वो दुश्मन वर्ग ही महिला दिवस मनाने का ढोंग किये हुए है। उसने बड़ी चतुराई से महिला दिवस का औचित्य ही बदल दिया है। दुश्मन वर्ग जो सत्ता में बैठा है जिसका प्रचार के साधनों पर कब्जा है। उसके व्यापक प्रचार के कारण महिला दिवस एक त्यौहार बन कर रह गया है। जैसे और त्यौहारों का हम बेसब्री से इंतजार करते है। वैसे ही 8 मार्च का भी ये ही हाल हो गया है। आज महिला फरमाइस करती है अपने पति या प्रेमी से की हमारा महिला दिवस है इसलिए आज हमको ये खरीददारी करनी है। जन्मदिन पर महँगा तोहफा, शादी पर ढेरों तोहफ़े, ये प्रलोभन, ये बाज़ार का जाल महिला को इस बात को सोचने से ही दूर कर दे रहे हैं कि महिला दिवस मनाने का औचित्य क्या है। बाज़ार ने महिला दिवस को नाम दिया है खरीददारी करने की आजादी



FM रेडियो से लेकर tv पूरा प्रचार तंत्र बाज़ार के पक्ष में माहौल बनाता है कि 8 मार्च महिला दिवस है इसलिए महिला को आजादी हो, आजादी खरीदने की, आजादी खुद को बेचने की, आजादी खुद को वस्तु बनाने की, इसलिए बाज़ार में आइए और महिलाओं के इस पावन त्यौहार पर स्कूटी, कार खरीदिये, सौन्दर्य का सामान खरीदिये, अच्छे होटल बार मे जाइये, खाइये, पीईये और फूल मस्ती कीजिये क्योकि आज आपका दिवस है।

महिलाओं ने काम के घण्टे 10 करने, पुरुष के बराबर वेज देने, सामाजिक बराबरी के लिए 8 मार्च 1857 न्यूयार्क शहर के कपड़ा और गारमेंट्स उधोग से आंदोलन की शुरुआत की, उस समय की सत्ता ने भी इस आंदोलन को कुचलने में कोई कसर नही छोड़ी। महिलाओ के इस आंदोलन से पुरुषवादी सत्ता हिल गयी। महिलाओ ने एकजुट हो आवाज जो उठाई थी। इसलिए इस चिंगारी को बुझाने के लिए दमन भी व्यापक तौर पर किया गया।

महिला जिसकी आज से 160 साल पहले लड़ाई आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक बराबरी की मांग को लेकर थी। आज सैंकड़ो साल बाद ये लड़ाई जो बहुत ज्यादा व्यापक होनी चाहिए थी। उन्होंने लड़ाई की मशाल जिस जगह हमको दी थी हमको उसे आगे ले जाना चाहिए था। उस मशाल से आग लगा देनी चाहिए थी दुश्मन की सत्ता को, लेकिन हुआ इसके उल्ट हमने बाजार, दुश्मन वर्ग और उसकी सत्ता के जाल में फंस कर उस मशाल को उस लड़ाई से बहुत पीछे की तरफ के गए। आज जो मशाल हम पकड़े हुए है वो मशाल दुश्मन वर्ग की है। उसमें ईंधन बाजार ने डाला है। इसलिए वो आग भी हमको ही लगा रही है।
आज सभी सरकारी-गैरसरकारी संस्थाए महिला दिवस मनाने की औपचारिकता करते है। महिला संघर्षो पर बात करने की बजाये महिलाओ के नाच गाने करवाते हैं, बाजार ओरियन्तिड प्रोग्राम करते है। किसी भी महकमे के सरकारी दफ्तरों में महिला चित्र सजा कर महिला दिवस मनाना महिला के खिलाफ एक साजिश है, एक भद्दा मजाक है



महिला दिवस कोई खुशी मनाने का त्यौहार नही है। महिला दिवस तो संघर्षो की समीक्षा करने और लड़ाई की आगे की रणनीति बनाने का दिन है। उन महिलाओं की कुर्बानियों को याद करने और लड़ाई के लिए खुद को कुर्बान करने की प्रेरणा लेने का दिन है। महिला दिवस पूरे विश्व की महिलाओ के संघर्षो का प्रतीक है। ये महिला दिवस उन महिला और पुरुषों को मनाना चाहिए जो महिलाओं की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक बराबरी की बात करता हो।

महिला दिवस की खुशी तभी सार्थक है जब समाज में उसकी सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक बराबरी की बात करता हो, संपूर्ण समानता। क्या महिला के काम का बँटवारा लिंग के आधार पर खत्म हो चुका है? क्या वो अभी शिक्षा के अधिकार से वंचित नहीं, उसका सम्पत्ति में बराबरी का हक है? अपना जीवन साथी चुनने का अधिकार है? उसको तो अपनीभावी संतान चुनने का अधिकार भी नही है। महिला को कितने बच्चे करने है, कब करने है, लड़का या लड़की में से क्या पैदा करना है इन सब मामलों में महिला को फैंसले लेने का अधिकार ये सब पुरुषवादी शता तय करती है। जब आपको खुद के शरीर के बारे में भी फैसले लेने तक का अधिकार नही है तो कोनसी खुशी में पगलाए हुए हो।


महावीर वर्मा


बाज़ार जो झूठे सपने दिख कर हमको फंसा रहा है अगर इसमें थोड़ी सी भी सच्चाई होती तो समाजिक संस्थाये, साहित्य, सिनेमा, अखबार, पत्रिकाएँ  चीख कर महिला की आज की स्थिति से अवगत ना करवाती, हर दिन अखबार भरे मिलते है कि महिलाओ से बलात्कार की घटनाओं से 1 साल की बच्ची से 80 साल तक कि महिला के साथ बलात्कार की घटनाएं हो रही है। महिलाओ पर तेजाब फेंकने की घटनाएं, छेड़छाड़ आम बात है। आज जब पूरे विश्व मे खासकर भारत मे महिलाओ के हालात बहुत बुरे है। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक बराबरी तो अभी बहुत दूर का सपना है।



आज भी महिला की स्थिति संकटर्पूण है। रूढ़िवादी धारणा की ताकत का प्रभाव उस पर पूरी तरह व्याप्त है उसे दूर करना होगा। एक ऐसे महिला आंदोलन की जरूरत है जो इन क्रीटिकल मुद्दों से रूबरू करवा सके। महिला आमूल परिवर्तन की दिशा जो आज उपभोक्तावादी बना दी गई है उसके लिए आंदोलन जरूरी है। हमे विचार विमर्श से एक मजबूत सपोर्ट बनानी होगी जो महिला की राजनीतिक सक्रियता और सीविल सोसायटी के लिए आवाज उठाने हेतू खुला स्थान दिला सके ताकि हमारे परिवर्तन की दिशा में जो सार्थक प्रयास है,उद्देश्य है वो पूरे हो सके। इस आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी के साथ साथ जरूरी है Male feminist रवैये की।
इसलिए आज जरूरत है महिला दिवस को बाज़ार और सत्ता के चंगुल से निकाल कर उसके असली रूप में लाने की, बराबरी के समाज का निर्माण करने के लिए कुर्बान हुई हजारो महिलाओं के सपनो को पूरा करने के लिए इस लड़ाई की मशाल को अंत तक ले जाने के लिए संघर्ष करने की।
००



परिचय :
Usha Singh स्वतन्त्र लेखन करते है।  सिरसा (हरियाणा) में रहते हैै। मजदूर, किसान, महिला, दलित मुद्दे पर लिखते और संघर्ष करते है।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें