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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

31 जनवरी, 2019

 कभी-कभार पांच

अश्वेत कवयित्रियाँ और उनकी चेतनासंपन्न अभिव्यक्तिर्याँ 

अनुवाद: विपिन चौधरी


मैरी वेस्टन फोर्डम
(1844-1905)

मैरी वेस्टन फोर्डम का जन्म साउथ कैरोलिना, अमेरिका में हुआ. उनके जीवन के बारे में अधिक जानकारी नहीं मिलती. सिविल वार के समय निडरता से आपने अपना स्कूल चलाया और रिकंस्ट्रक्शन के समय भी उन्होंने साउथ कैरोलिना में शिक्षिका की नौकरी की. उनकी कविताओं में पारिवारिक ढांचा और अकाल-मृत्यु ग्रस्त बच्चों का बखूबी वर्णन मिलता है. उनका एकमात्र कविता-संग्रह ‘मैगनोलिया लीव्स’ 1897 में प्रकाशित हुआ. 1904 में चार्ल्सटन में उनका देहावसान हुआ. 



भावी स्त्री


केवल देखो , यह है 'पिछले  सवा छह  का प्रेम
और यहां तक कि वह आंच  भी नहीं पकड़ पाया
खैर, आप जानते हैं कि मुझे  होना चाहिए दफ्तर में
लेकिन, हमेशा की तरह   देर हो जाएगी मुझे नाश्ते में

अब जल्दी करो और जगाओ बच्चों को
और  उन्हें तैयार करों तुरंत
'बेचारे मेरे लाड़ले ' मुझे पता है कि वे पड़ जाएंगे सुस्त
मेरे प्यारे, कितना सुस्त हो व्यर्थ समय गंवाने वाले इंसान
लेना, मुंह की छोटी पसलियों के नीचे से गोमांस, बढ़िया और रसेवाला
टोस्ट भूरे और मक्खन भी लेना दुरुस्त
और सुनिश्चित करों कि आप कॉफी को भी कर सको व्यवस्थित
 देखना कि चांदी का बर्तन भी हो स्वच्छ

जब सब तैयार हो जाए, तेज़ी से बड़ों और आवाज़ दो मुझे
आठ बजे, जाती हूँ मैं दफ्तर
कदाचित गरीबी या निर्दयता से बढ़ जाते हैं हम आगे
जानते  हो तुम
 ''इस उपजीविका के लिए

स्टॉक  नीचे गिर सकता है,
मेरे बॉन्ड अंकित मूल्य से गिर सकते हैं नीचे
तो निश्चित रूप से, मैं शायद ही कभी छोड़ सकती हूँ तुम्हें
एक गिल्ट या सिंगार के लिए

सब तैयार है ?  अब, जबकि मैं बैठ गयी हूँ खाने
बस मेरी कार को ले आओ मेरे दरवाजे पर
फिर सफा करो बर्तन   और  ध्यान दो अब
चार बजे तुरंत कर लो भोजन

हमारा  महिला सम्मेलन है,आज रात
और मालूम है तुम्हें
मैं पहली वक्ता  हूँ
पुरुष ने हमें एकांत के अधिकृत कर दिया है
दुनिया  के सामने मगर  चिल्लाते हैं वे ,
 'ऐसा ही है।'

तो 'खुदा हाफ़िज़' -  द्वार पर दस्तक होने पर, मेरे प्रिय
 देखो तुम दरवाजा खोलने से पहले
अजी ! किसी पुरुष बावर्ची के बिना
एक सभ्य महिला का अस्तित्व कैसा



ओलिविया वार्ड बुश-बैंक
(1869-1944)

ओलिविया वार्ड बुश-बैंक


ओलिविया वार्ड बुश-बैंक का जन्म 23 मई, 1869  को साग हार्बर, लॉन्ग आइलैंड, न्यूयॉर्क में हुआ.वार्ड ने लेखन के तौर पर कविता और गद्य लेखन को अपनाया। वह कलर्ड अमेरिकी मैगज़ीन में  नियमित तौर पर लिखती रही, इसके साथ ही उन्होंने  'न्यू रोशेल;, 'न्यूयॉर्क पब्लिकेशन', 'वेस्टचेस्टर रिकॉर्ड-कूरियर' के लिए  भी नियमित तौर पर स्तंभ लिखे। 1930 के दशक में उन्होंने एक कला स्तंभ लिखा और वेस्टचेस्टर रिकॉर्ड-कूरियर के लिए कला संपादक के रूप में कार्य किया।
वार्ड ने कई नाटक और लघु कथाएं लिखीं, जिनमें से अधिकांश कभी प्रकाशित नहीं हुईं, क्योंकि उन्होंने इनमें अंतरजातीय संस्कृति के मुद्दों को व्यक्त किया था. 1944 में ओलिविया वार्ड बुश बैंक की मृत्यु हुई।


 खेद

कहा मैंने एक दिन एक बेपरवाह  शब्द
एक प्रियजन ने सुना और पधार गया दूर
रोई मैं  "कर दो मुझे माफ़, हो गई थी  मैं विवेकशून्य
नहीं पहुँचाऊँगी कभी चोट मैं या नहीं होऊंगी कभी  निर्दयी"
लंबे समय से कर रही थी मैं  इंतजार
अपने प्रियजन को दोबारा मोह लेना  व्यर्थ हुआ
देर हो चुकी है बहुत
आह ! रोने और करने के लिए विनती
मौत का हुआ आगमन; आयी वह लेने मेरे प्रियजन को
उस दशा में, कैसा है  मेरा पीड़ादायक भाग्य
कोई भी भाषा नहीं कर सकती मेरा  दु:ख परिभाषित
गहरे अफसोस के आँसू बात को नहीं सकते बदल
बोलै था उस दिन मैंने जो  एक विचारशून्य शब्द


आवाज

तिरोहित होते दिन और वर्ष में
खड़ी हूँ मैं  भूतिया प्रेतों से घिरे मैदान पर
और  कदापि  इसकी उदासीन बर्बादी के ऊपर
कुछ अजीब, उदास आवाज सुनती हूँ मैं
छायादार अतीत से बाहर की कुछ ;
और एक पुकार पर पछताती हूँ मैं
और जानती हूँ मैं हैं ये गलत खर्च किया हुआ समय
किसकी याददाश्त अभी तक है ठहरी हुई

फिर शिकस्त बोलती है  कडवे स्वर  और दुःख में
और  इसकी सभी संतापों, ग्लानि के साथ बोलती है
जिसके हैं गहरे और बेरहम  डंक
मेरे दुखदाई विचार होते हैं उद्घाटित
इस ढब से  करती हैं  ये आवाजें  मुझसे बातें
और उड़ जाती हैं  अतीत की छाया सी
मेरी आत्मा लड़ती है निराशा में
और बहते हैं मोटे और घने आँसू

लेकिन जब, मैं खड़ी हूँ
भविष्य के दिनों और सालों के व्यापक इलाके  में
और सूर्य के प्रकाश से भरी समतल भूमि पर
सुनती हूँ मैं  एक मीठी आवाज़
अंधेरे अतीत से मुक्ति पाने
और वह याददाश्त कुचलने  का देती हैं आदेश
खुश हो सुनूंगी मैं
और  मानूंगी आज्ञा
सही  समय की पुकार की 




क्लारा एन थॉम्पसन
(1869-1949)

क्लारा एन थॉम्पसन  ऑहियो में एक गुलाम परिवार में  हुआ. अपने खाली समय में क्लारा कविताएं लिखती थी. 1908 में उनका  पहला कविता-संग्रह "सांग्स बाय द वेस्टसाइड' प्रकाशित हुआ. दूसरा कविता-संग्रह ए गारलैंड ऑफ़ पोयम्स( 1926) में प्रकाशित हुआ. कुछ संचयन में शामिल होकर वे हेर्लम पुनर्जागरण का हिस्सा बन गयी थी.

क्लारा एन थॉम्पसन


उम्मीद

हमारे पास है विषादपूर्ण  दिन की पूर्व संध्या
सबसे अन्धकारमय  रात, एक सुबह;
सोचिए मत, जब हों बादल घने और काले ,
तुम्हारा रास्ता भी है बहुत सूना

सारे बादल जो उगे थे कभी ,
जीवन के उजले रास्ते को चमकाने के लिए,
और दर्द की बेचैन रात
और सभी थकाऊ  दिन

लाएंगे तुम्हारे लिए उपहार, होगा जिनका मूल्य अधिक
होंगे क्योंकि तुम्हारे नज़दीक उनका मूल्य अधिक
आत्मा जो मूर्छित नहीं होती  तूफान में
उभरती हैं हो  उज्ज्वल और स्पष्ट


विभक्त

कहा उसने कर दिया है माफ़
मुझे
देखा आँखों में उसकी
और था परिचित कि सच थी उसकी बातें
एक आनंदित क्षण वास्ते
लगा मुझे बढ़ गयी हैं मेरी उम्मीदें
और सोचा मैंने
अपनी  सौगंध को  बदलने बारे

लेकिन, कुछ कमी महसूस की मैंने
उसकी शांत, स्थिर, टकटकी में,
पहुंचा दिया प्रेमिल शब्दों को मृत्यु के पास, वे आए;
हालांकि, था उनका अनुरागी हृदय
इसलिए माफ़ किया मुक्त हृदय से ,
फिर भी, जानती थी मैं
वह नहीं था पहले सा

एक ज़माने में, वह निर्मल हृदय
सब कुछ था, लेकिन था मेरा अपना
वैसे मालूम था मुझे  कि कैसे तेज़ होती थी इसकी धड़कन
कैसे वो प्यारी, सौम्य, आँखें,
एक नरम आभा  के साथ, चमचमाती थी ,
मेरे पदचाप  की  थाप  पर
०००

विपिन चौधरी


कभी-कभार चार  नीचे लिंक पर पढ़िए

https://bizooka2009.blogspot.com/2019/01/30-1852-1916-1849.html?m=1



लेख:

उत्तर कोरिया-रहस्य रोमांच से भरी राजनीति का रक्तरंजित इतिहास
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 जसबीर चावला 


कोरिया प्रायद्वीप पर जापान का शासन १९१० से रहा था.१९४५ में द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया.कोरिया दो हिस्सों में बाँटा गया.उत्तर में तात्कालिक रूप से सोवियत संघ और दक्षिण में संयुक्त राष्ट्र ने सत्ता संभाली.दोनों हिस्सों के पुनर्मिलन पर अनेक बार वार्ताएँ हुई पर विफल रही.अंत: में १९४८ दो अलग-अलग सरकारें बनी,उत्तरी क्षेत्र के कोरिया में 'समाजवादी लोकतांत्रिक जनवादी गणराज्य' और दक्षिण में 'कोरिया का पूंजीवादी गणराज्य'.





बँटवारे के बाद जल्दी ही उत्तर कोरिया नें दक्षिण कोरिया पर सैन्य आक्रमण कर दिया.यह युद्ध १९५० से १९५३ तक चला,जो इतिहास में 'कोरिया युद्ध' के नाम से जाना जाता है.लंबे युद्ध के बाद दोनों के मध्य युद्ध विराम हो गया.हाँलाकि किसी शांति समझोते पर हस्ताक्षर नहीं किये गये.आज तक दोनों देशों के बीच जबरदस्त तनातनी रही है और दोनों तरफ सेनाएँ सीमा पर मुस्तेद हैं.

उत्तर कोरिया स्वयँ को एक आत्मनिर्भर समाजवादी राज्य मानता है,जहाँ औपचारिक रूप से चुनाव होते हैं,लेकिन सच तो यह है कि देश किम इल-सुंग और केवल उनके परिवार के द्वारा शासित एक देश है.सभी संस्थाओं पर उनके ही परिवार का सतत क़ब्ज़ा रहा है.'श्रमिक पार्टी'और 'कोरिया के पुनर्मिलन के लिए बने डेमोक्रेटिक फ्रंट' पर उनका ही क़ब्ज़ा है.सत्ता का सारा ताना बाना किम परिवार के आभा मंडल को महिमा मंडित करने का रहा है.उनके शब्द ही कानून है.उत्तर कोरिया में मानवाधिकारों का उल्लंघन आम हैं.वहाँ ९५ लाख सक्रिय,आरक्षित और अर्धसैनिकों की बड़ी फौज है,जिसमें १२ लाख से अधिक सक्रिय सैनिक है.चीन,अमेरिका और भारत के बाद यह दुनिया की चौथी सबसे बड़ी है सेना है.उत्तर कोरिया के पास परमाणु हथियार हैं और यह देश आये दिन अंतरमहाद्विपीय बेलेस्टिक मिसाईलों को दाग कर सारे संसार में सनसनी फैलाता रहा है.

उत्तरी कोरिया पर किम वंश का तीन पीढ़ियों से शासन है.पहले नेता किम इल-सुंग ने १९४८ में सत्ता संभाली.उनकी मृत्यु बाद पुत्र किम जांग-इल १९९४ में और उसकी मौत के बाद उसका बेटा किम जोंग-उन २०११ से सत्ता पर काबिज हैं. किम जाँग-उन से कुछ महिनों पहले सिंगापुर में अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प और दक्षिण कोरिया की बातचीत हुई है.इस बातचीत से कोरिया प्रायद्वीप के बीच चली आ रही कलह के सुलझनें के आसार हैं.रासायनिक-आणविक हथियारों के नष्ट करनें की मंशा से न केवल अमेरिका से संबंध सुधरेंगे बल्कि संसार में भी शांति का आग़ाज़ होगा.

किम इल सुंग के शासन के दौरान हमारे देश के समाचार पत्रों में पूरे पृष्ठ के प्रचारात्मक विज्ञापन छपा करते थे.किम ख़ानदान के तीनो दादा,पुत्र और पोते नें अक्सर संसार को अपनी कई हैरत अंगेज़ हरकतों से चौंकाया है.तीनों व्यक्ति वादी रहे हैं और सत्ता में अधिनायक बने रहनें के लिये अनेक दुस्साहसी कारनामें किये हैं.यहाँ सत्ता के लिये हत्या,टार्चर,जेल में डालना,अपहरण खूब हुए हैं.

बात करते हैं किम ख़ानदान की कुछ चर्चित घटनाओं की. १९६६ में किम जांग-इल अपनें पिता के शासन काल में उत्तर कोरिया के पब्लिसिटी-प्रापेगण्डा विभाग का प्रमुख और मोशन पिक्चर एंड आर्ट डिवीज़न का निदेशक बना.अपनें पिता किम इल-सुंग की कथित फिलासफी को उभारनें के लिये उसनें कला के हर रूप का खूब इस्तेमाल किया.लेखक आर्मस्ट्रांग की पुस्तक 'टायरेनी ऑफ़ द वीक: नॉर्थ कोरिया एंड द वर्ल्ड १९५०-१९९२' में लिखा है कि किम जांग-इल उत्तर कोरियाई की हर विधा को ऐसी दिशा में ले गया जिसे विशेष रूप से उसके पिता की प्रशंसा करने के लिए ही डिज़ाइन किया गया था.वहाँ फ़िल्मे मात्र प्रचार फ़िल्में ही बन रही थी.किम जाँग-इल को लगा कि कुछ अंतरराष्ट्रीय स्तर की फ़ीचर फिल्में बनना चाहिये.उसके पास 'वीसीआर' पर चलने वाली १५००० विडीयो केसट का ज़ख़ीरा था जिनमें हॉलीवुड की भी ढेरों चर्चित केसट थी.

वह 'जेम्स बाँड' और उसकी फिल्मों का दीवाना था,और जेम्स बाँड जैसे कारनामें करने के लिये बाँड का ही तरीक़ा अपनाया.उसनें दक्षिण कोरिया के प्रसिद्ध फिल्म निदेशक शिन सांग-ओक और उसकी खूबसूरत अभिनेत्री पत्नी चोई इन-हे के अपहरण का प्लान बनाया.दक्षिण कोरिया में शिन दंपत्ति का 'शिन फिल्म स्टूडियो' था जहाँ ६० के दशक में कई प्रसिद्ध फिल्में बनी.

शिन की अभिनेत्री पत्नी 'चोई इन-हे' उन दिनों हांगकांग में फिल्म बना रही थी.२२ जनवरी १९७८ को उसका अपहरण किम जाँग-इल के एजेंटों द्वारा हांगकांग से कर उसे उत्तरी कोरिया के नाम्पो हार्बर ले आये.उसे एक आलिशान विला में रखा गया.एक शिक्षक उसे किम इल-सुंग की फिलासफी,उनके कथित जीवन दर्शन को पढ़ाता था.चोई को किम इल सुंग से जुड़े सभी कर्मस्थलों-संग्रहालयों में ले जाया गया.किम जांग-इल उसे फिल्मों, ओपेरा,संगीत,और पार्टियों में ले गया.चोई से बेहतर फिल्में बनानें के लिये राय माँगी.चोई जानती थी कि हांगकांग से उसका अपहरण उसके पति शिन को भी उत्तरी कोरिया लानें के लिया किया गया है.

चोई के गायब हो जाने के बाद उसरे पति शिन सांग-ओक ने उसकी गहन खोज की.उसकी एक और पत्नी भी थी.चोई की कोई खबर न मिलनें पर छे महिनों बाद उसनें उसे तलाक दे दिया.शिन उन दिनो अपनी दक्षिण कोरिया सरकार के साथ भी संघर्ष कर रहा था क्योंकि सरकार ने 'शिन स्टूडियो' का फिल्म लाइसेंस निरस्त कर दिया गया था.

अपनी फिल्मों को पुन:विश्व पटल पर लानें के लिये शिन दुनिया की यात्रा पर निकला.१९८० में शिन हांगकांग में था.वहाँ से उसका भी अपहरण कोरियाई जासूसों द्वारा कर के उसे भी उत्तरी कोरिया लाया गया.उसे भी भव्य आवास और सारी सुविधाएँ दी गई लेकिन उसे उसकी पत्नी चोई के बारे में कुछ नहीं बताया.शिन ने दो बार भागने का प्रयास किया.उसे कारावास में डाल दिया गया.२३ फरवरी,१९८३ को उसे  जेल से रिहा किया गया और ७ मार्च,१९८३ को किम जोंग-इल द्वारा आयोजित एक पार्टी में चोई के अपहरण के ५ साल बाद शिन और चोई दोनों मिले.

किम जोंग-इल नें दोनों को वैश्विक स्तर की फ़िल्में  बनाने के निर्देश दिए.शिन के लिये 'प्योंगयांग' के 'चॉसन फिल्म स्टूडियो' के दरवाजे खोल दिये गये.किम जानता था कि उनकी प्रचारात्मक फिल्मों से अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं के दर्शक प्रभावित नहीं होते.उसनें दंपत्ति को उन विषयों का चयन करने की अनुमति दी जो विदेशों में स्वीकार्य हों.शिन ने अक्टूबर १९८३ को काम करना शुरू किया.उन्हें चेकोस्लोवाकिया के एक फिल्म फ़ेस्टीवल में अपनी फिल्मों में से एक के लिए पुरस्कार मिला.किम जाँग-इस खुश हुआ.(मोगाम्बो खुश हुआ) उन्होंने किम जोंग-इल की आभा मंडित करनें के लिये एक मँहगी और अंतिम फिल्म 'पुलगासरी' बनाई जो तब कि लोकप्रिय 'गोडजिला' फिल्मों से प्रभावित थी.

शिन दंपत्ति का उत्तरी कोरिया में दम घुटता था.उन्होंने भागने का फैसला किया.किम जांग-इल उन पर खूब विश्वास करता था.उसनें उनसे १९८४ में बेलग्रेड मे उन दोनों को मिडीया को यह बताने के लिये भेजा कि वे स्वेच्छा से उत्तरी कोरिया क्यों आये हैं,और क्यों खुश हैं.

'पुलगासरी' फिल्म के बाद,किम ने उनको १९८६ में वियना भेजा.वहाँ अपने गार्ड से आँख बचाकर दोनों भाग कर अमेरिकी दूतावास चले गये और राजनैतिक शरण माँगी.अमेरिका ने दोनों को शरण दी.शिन अमेरिका जाकर वर्षों तक हॉलीवुड मे फिल्मों से जुड़े रहे.बाद में दोनों दक्षिण कोरिया लौट गये.उनके दक्षिण कोरिया लौटने पर उत्तरी कोरिया नें दावा किया कि उनके देश ने उनका अपहरण नहीं किया था.वे दोनों स्वेच्छा से अधिक धन कमाने के लालच से उत्तरी कोरिया आये थे.
उत्तर कोरिया ने एक और दुस्साहसी कारनामा दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति चुन डू-ह्वान की हत्या के षड़यंत्र का किया.९ अक्टूबर १९८३ को दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति चुन डू-ह्वान बर्मा (म्यांमार) की राजधानी रंगून की यात्रा पर गए.यात्रा में उन्हें वहाँ १९४७ में स्वतंत्र बर्मा के सँस्थापकों में से एक 'आंग सैन' की स्मृति में बने 'शहीद मक़बरे' पर  पुष्पांजलि अर्पित करना थी.राष्ट्रपति के कर्मचारी मकबरा स्थल पर वक्त से इकट्ठा होना शुरू हुए.तभी छत में छिपा कर रखे तीन बमों में से एक का जबरदस्त विस्फोट हुआ.विस्फोट से छत उड़ गई और वहाँ खड़े लोगो पर जा गिरी.इस हादसे में २१ लोगों की मौत और ४६ लोग घायल हुए.मरनें वालों में चार वरिष्ठ दक्षिण कोरियाई मंत्रियो के अलावा राष्ट्रपति के सुरक्षा सलाहकार,अधिकारी थे.तीन पत्रकारों सहित चार बर्मी नागरिक भी मारे गये.
राष्ट्रपति चुन डू-ह्वान भाग्य से ही बचे.यातायात की अव्यवस्था से उनकी कार कुछ मिनट देर से पहुँची.बिगुल वादक ने उनके आनें के वक्त अनुसार वक्त के पहले बिगुल बजा दिया और षड़यंत्र कारियों नें बिगुल सुनकर विस्फोट कर दिया.जाहिर है ये बम उत्तर कोरिया के एजेंटों द्वारा प्लांट किये थे.

उत्तर कोरिया के शासकों नें एक और घृणित कारनामा किया.२९ नवंबर १९८७ को दक्षिण कोरिया की 'कोरियन एयर फ्लाइट 858' जो बगदाद, इराक और सियोल के बीच नियमित उड़ान भरने वाली एक अंतरराष्ट्रीय यात्री उड़ान थी,उसके यात्री केबिन में दो एजेंटों ने अबू धाबी के पहले स्टॉप ओवर के दौरान विमान में डिवाइस और बम लगाये.विमान जब भारतीय सीमा अंडमान सागर के ऊपर से बैंकाक के दूसरे स्टॉप ओवर के लिये उड़ान पर था तो बम विस्फोट हो गया.इस विस्फोट में सभी १०४ यात्रियों और ११ चालक दल के सदस्य (ज्यादा दक्षिण कोरियाई नागरिक थे) मारे गये. 

बाद में विस्फोटक रखने वाले उत्तरी कोरिया के दो एजेंटों में एक महिला और एक पुरुष बहरीन में पकड़े गये.पकड़े जाने पर उन्होंने सिगरेट में छुपे सायनाइड के केप्सूल खा लिये.पुरुष की मौत हो गई लेकिन महिला किम ह्योन-हुई बच गई.किम ह्योन-हुई ने बाद में एक किताब,'द टियर्स ऑफ़ माई सोल' लिखी,जिसमें उसनें बताया कि सेना द्वारा चलाए जा रहे एक जासूसी स्कूल में उसका गहन प्रशिक्षण किया गया.मुकदमें के दौरान उसने स्वीकार किया कि उसका पूरी तरह ब्रेन वाश किया गया था.उस वक्त उत्तर कोरिया में किम उल सुन का शासन था.किम जोंग-इल जो उसका वारिस बना,यह उसकी साज़िश थी.हुई को मौत की सुनाई गई लेकिन दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति रोह ताई-वू ने मृत्युदंड से बदल कर आजन्म कारावास कर दिया.उधर किम जोंग-इल ने हुई को उत्तरी कोरिया का ग़द्दार घोषित किया.

ऐसे ही उत्तरी कोरिया ने अमेरिका का एक जहाज़ 'युएसएस पुएब्लो' को २३ जनवरी १९७८ को 'रायो द्वीप'के पास गश्त करते हुए हमला कर पकड़ लिया.उसके ८३ लोगों के चालक दल को बंदी बना लिया.इस कार्रवाही में एक अमेरिकी सैनिक की मौत हो गई.कोरिया का कहना था कि यह एक जासूसी जहाज़ हे जो उसकी सीमा में अनाधिकृत घुसा है.अमेरिका कहना था कि वह पर्यावरण अनुसंधान में लगा जहाज है,खुले समुद्र में था,और कोरिया ने उस पर आक्रमण किया है.अमेरिका तब विएतनाम युद्ध में उलझा था और वहाँ राष्ट्रपति लिंडन बी जानसन थे.जहाज और चालक दल को बंदी बनाये रखनें संसार में तनाव बढ़ गया.शीत युद्ध छिड़ गया.कोरिया की तरफ चीन-रूस का ब्लाक था और अमेरिका के साथ दक्षिण कोरिया और अन्य पश्चिमी देश.
ग़ौरतलब है कि आज भी वह जहाज उत्तरी कोरिया के क़ब्ज़े में है और उसे प्योंगयांग में पॉटोंग नदी में 'विक्टोरियस युद्ध संग्रहालय' के रूप में रखा गया है.अमेरिका ने अपने इस जहाज को जहाज़ी बेड़े से औपचारिक रूप से ख़ारिज नहीं किया.उसके स्थान पर दूसरा जहाज इसी नाम का बेड़े में है.यह देखना दिलचस्प होगा कि ट्रम्प-किम जाँग-उन की किसी वार्ता में क्या कभी इस जहाज को वापस माँगा जायेगा ?



१९५३ की शांति संधि के बाद दोनों कोरियाओं के मध्य विसेन्यीकृत क्षेत्र बना.एक तरफ उत्तर कोरिया दूसरी तरफ संयुक्त राष्ट्र की सेना,जिसमें दक्षिण कोरिया और अमेरिकन सैनिक थे.विसेन्यीकृत क्षेत्र युद्ध के दौरान बनाये बंदियों के वापस अपनें देशों में जानें के लिये 'पनमुंजम' स्थान पर एक पुल बना था.पुल से एक बार गुजर जाने के बाद वापस लौटा नहीं जा सकता था.इसे 'ब्रिज ऑफ नो रिटर्न' कहा जाता था.दोनों देशों के सैनिक अपनें अपनें क्षेत्रों की अपनी चौकियों पर मुस्तेद रहते थे.उस विसेन्यीकृत जगह पर एक ऐसा 'पापलर प्रजाति' का घना पेड़ था जो दक्षिण कोरिया को उत्तरी कोरिया की गतिविधियाँ देखने में बाधक था.उस पेड़ की अमेरिका के सैनिक कुल्हाड़ी से डालियों की छँटाई कर रहे थे तो उत्तरी कोरिया ने हमला कर अमेरिका के दो सैनिकों को मार दिया और कुल्हाड़ी छीन कर ले गये.इतिहास में इसे 'पनमुंजम एक्स मर्डर इंसिडेंट' के नाम से जाना जाता है.उत्तर कोरिया का कहना था कि इस पेड़ को किम इल-सुंग द्वारा लगाया गया है.इसे काटा नहीं जा सकता.तीसरे दिन दक्षिण कोरिया और अमेरिकी सेना ने पूरी तैयारी के साथ इस पेड़ का केवल २० फुट लंबा तना याद दिलाने के लिये छोड़कर,पूरी तरह से छँटाई कर दी.उत्तर कोरिया ने बाद में इन हत्याओं की जवाबदारी स्वीकार की.छीनी गई कुल्हाड़ी को उसने अपनें संग्रहालय में रख दिया.इस सैन्य कार्यवाही में दक्षिण कोरिया के सैनिकों में शामिल मून जेई-इन भी थे जो बाद में दक्षिण कोरिया के २०१६-१७ में राष्ट्रपति रहे.१९९७ में पेड़ के उस तनें के स्थान पर एक स्मारक बना दिया गया.
उत्तरी कोरिया के किम ख़ानदान के इतिहास में अनेकों कारनामें हैं,जिन्होने अंतरराष्ट्रीय राजनीति में बहुत उथल पुथल मचाई है.देखना है कि वर्तमान राष्ट्रपति किम जाँग-उन जो २०११ से ही चर्चा में है,संसार में शांति के लिये क्या कोई सकारात्मक कदम उठाते हैं ?

०००





30 जनवरी, 2019

समकालीन विश्व में गाँधी जी की प्रासंगिकता

( गाँधी जी की 150 वीं जयंती पर विशेष )

सुधांशु धर द्विवेदी




सुधांशु धर द्विवेदी


भारत के दो महान विचारकों का सर्वाधिक वैश्विक प्रभाव रहा है  वे हैं बुद्ध और गांधी जी । दोनों सत्य और अहिंसा के प्रहरी रहे हैं। इनमें से गांधी जी के प्रति सभी तरह के कट्टरपंथी तबकों की खास कुदृष्टि रही है। चाहे वह हिन्दू कट्टरपंथी हों या मुस्लिम अथवा वामपंथी या अम्बेडकर वादी.... ये सभी गांधी जी से घृणा करते हैं क्योंकि गांधी जी का दर्शन प्रेम, अहिंसा, सहिष्णुता , समरसता के भारतीय आदर्शों पर आधारित है पर हर तरह का कट्टरपंथी विचार किसी न किसी के प्रति घृणा के विचार पर आधारित है। हिन्दू कट्टरपंथी मुस्लिमों-ईसाईयों-दलितों , मुस्लिम कट्टरपंथी सभी तरह के काफिरों , वाम कट्टरपंथी कथित बुर्जुआ लोगों और अम्बेडकरवादी कट्टरपंथी सवर्णों के प्रति घृणा प्रदर्शित करके अपने विचार को आगे बढ़ा सकते हैं ....ऐसे में प्रेम और अहिंसा से पगा गांधी विचार उनके आड़े आ जाता है, और चूंकि गांधी ने अपना कोई कल्ट स्थापित नहीं किया तो वे बड़े आसानी से इन विचारधाराओं के निशाने पर आते रहते हैं और इससे किसी की " आस्था आहत नहीं होती "....खासकर संघी गांधी से विशेष खिन्न रहते हैं क्योंकि गांधी दुनिया को हिंदुत्व का ऐसा पाठ देते हैं जो वसुधैव कुटुम्बकम की प्राचीन भारतीय आदर्श से परिचालित होता है। गांधी पूना समझौते के बाद हिन्दू धर्म को विभाजन से बचाने वाले महानायक बनकर उभरते हैं और ईश्वर अल्ला तेरे नाम और वैष्णव जन जैसे गीत जनगीत बन जाते हैं। इससे मुस्लिम-ईसाई-दलित घृणा के रथ पर सवार बौने चितपावन ब्राह्मणों के संघ को सबसे ज्यादा दिक्कत आती है तो वे अपने लाखों मुखों से प्रतिदिन गांधी विरोध के सैकड़ों झूठ प्रसारित करने में लग जाते हैं और आज के डिजिटल युग मे इंटरनेट पर ऐसे करोड़ों झूठ पड़े गंधा रहे हैं और भारतीय शिक्षा प्रणाली की असमर्थता ने हमारे करोड़ों युवाओं को भी इस असह्य बदबू ने अपने आगोश में ले लिया है ( यहाँ तक 10 साल तक मुझसे दूर रही मेरी बेटी अनन्या भी इस दुर्गंध से दुष्प्रभावित हो चुकी है )......इसलिए भारतीय विचारों व भारतीय आत्मा के इस सबसे महान आत्मा के बारे में नए सिरे से आमलोगों को परिचित कराने की सबसे बड़ी जरूरत है वरना समुदायों के बीच घृणा की राजनीति हमारे देश व समाज को कहीं का नहीं छोड़ेगी!






मेरे क़ातिल , ये जिस्म है इसे जाना था कभी
मेरे सपनों का अगर क़त्ल कर सको तो करो !
ध्रुव गुप्त



     आज मेरे हिसाब से हिंसा की बढ़ती प्रवृत्ति , पर्यावरण का नाश, राजनीति का प्रदूषण , गरीब अमीर के बीच बढ़ती खाई, परिवार और समुदाय का विघटन , गाँव और कृषि का विनाश , मूल्यहीन और फलहीन शिक्षा, गंदगी , बढ़ते रोग ..... जैसी तमाम चीजों से भारत ही नहीं पूरी दुनिया आक्रांत है। उपभोक्ता वाद और उदारीकरण ने मानवता के ऊपर व्यापार को वरीयता दे रखी है। इसी व्यापार ने ( खासकर खनिज तेल , हथियारों आदि के व्यापार ने ) इराक , सीरिया , अफगानिस्तान, यमन, नाइजीरिया , लीबिया जैसे अनेक देशों को या तो नष्टप्राय कर दिया है या फिर ऐसी कोशिश हो रही है। गाँधी जी का कहना था कि " यह धरती हमारी ज़रूरतें पूरी कर सकती है हमारे लोभ नहीं " .....पर लालच में अंधे होकर हम धरती धन को नष्ट करने में जुट गए हैं। कालिदास की तरह जिस डाल पर बैठे हैं उसी को काट रहे हैं। यदि हम गांधी जी के स्वराज का सही अर्थ समझ सकें, जिसका वास्तविक अर्थ है आत्मनियंत्रण तो हम सिर्फ आवश्यकता भर लें और अपनी जरूरतें सीमित करना भी सीख लें , यही मूल मंत्र होगा अपनी धरती को बचाने का।  दुनिया के विभिन्न राष्ट्रों, धर्मों , समुदायों के बीच हिंसक तनाव ने युद्ध और आतंकवाद को जन्म दिया है। यदि हम गांधी विचार के अनुसार धर्म के उत्स को जान सकें और अहिंसा के विचार को अपना सकें तभी इन कुप्रवृत्तियों को रोका जा सकेगा। हथियार से लड़ा जाने वाला आतंकवाद के विरुद्ध कोई युद्ध स्थायी परिणाम नहीं दे सकेगा। हमें जानना होगा कि अहिंसा कायरता नहीं बल्कि वीरता की पराकाष्ठा है। यह अहिंसा ही हमारे समाज, देश और फिर विश्व को घृणा से पूरित हिंसा से बचा सकती है। हिंसा का जवाब प्रतिहिंसा के रूप में देने पर दोनों पक्ष हिंसा अनंतकाल तक झुलसते हैं पर कोई हल नहीं निकलता। कश्मीर जैसे विवादों को भी अंततः ऐसे ही हल किया जा सकेगा। कश्मीरी लोगों को समझना होगा कि अब भारत को तोड़ना संभव नहीं है और भारतीय लोगों को भी कश्मीरी लोगों को दिल मे जगह देनी होगी। ....भारत की सबसे बड़ी समस्या है दुष्ट लोगों का शासन पर प्रभुत्व! यदि भारत के लोगों को राजनीति में धर्म की गांधी जी विचारधारा समझ मे आ जाये तो अधर्मी राजनेता लोगों से दूर हो जाएंगे। थॉमस पिकेटी,डेविड हार्वे , स्पिलिट्ज जैसे अर्थशास्त्री आय की असमानताओं को दुनिया की शांति के लिए सबसे बड़ा खतरा मान रहे हैं। गाँधी के आर्थिक विचार भले ही कुछ लोगों को अप्रासंगिक दिखें पर उनमें असमानता से लड़ने की अभूतपूर्व ताकत है। खेती, पशुपालन, बागवानी, शिल्प कर्म , कुटीर उद्योग आदि पर आधारित गांधी वादी मॉडल रोजगार और विषमता से लड़ने में आज भी सबसे बड़ा हथियार हो सकता है। वंदना शिवा, नाना जी देशमुख, कमला देवी चटोपाध्याय जैसे अनेक लोगों ने गांधी विचार से प्रेरित होकर ऐसे तमाम सफल प्रयोग भी किए हैं। आज भी हज़ारों की संख्या में गांधीवादी पर्यावरण, रोजगार, शिल्पकर्म , शिक्षा आदि क्षेत्रों में निःस्वार्थ तरीके से सक्रिय हैं। नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग जूनियर , आँग सान सू की जैसे अनेक अनुयायी विश्व भर में गांधी विचार की अलख जगा रहे हैं। आज जब सत्ता गांधी जी को महज एक सफाई कर्मी बना देने पर तुली हुई है , हमें गांधी जी के विचारों के मर्म को जानकर बदलाव लाने होंगे। हमें गांधी को महज कॉंग्रेस से जोड़ने की जड़ प्रवित्तियों से बचना होगा और अपनी अगली पीढ़ी के लिए, अपनी धरती के लिए गांधी विचारों को स्वयं धारण करना होगा और अपनी आने वाली पीढ़ियों को भी इसके लिए तैयार करना होगा।

यही गांधी जी को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

संक्षिप्त परिचय

सुधांशु धर द्विवेदी

437, भाई परमानंद कॉलोनी , मुखर्जी नगर , दिल्ली - 110009


फ्री लांस लेखन व शिक्षण

27 जनवरी, 2019

किसान-चेतना के दो छोर
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अनिल अविश्रांत 

अनिल अविश्रांत

मैं अपने लेख की शुरुआत 'धरा के अभागे'(रेचड आफ दी अर्थ) की भूमिका में लिखे गये सार्त्र के इस वाक्य से करना चाहता हूँ कि--" जब एक खेतिहर हथियार उठाता है तो यह कर्म उसकी महानता का प्रतीक है।" किसान जीवन के सबसे बड़े कथाकार प्रेमचंद भी अपने लेख'महाजनी सभ्यता'में बहुत साफ लिखते हैं कि--"वह(मेहनतकश)यह नहीं देख सकता कि उसकी मेहनत की कमाई पर दूसरे मौज करें और वह मुँह ताकता रहे।" दो बड़े रचनाकारों की यह स्थापना किसानों-मजदूरों की मास-मीडिया द्वारा बना दी गई-कमजोर ,बेचारगी से भरी पस्तहिम्मत छवि का प्रत्याख्यान है। कई बार अनजाने ही साहित्यकार भी किसान की इसी छवि का पिष्टपेषण करने लगते हैं । किसान के दुख, उसकी तकलीफ़ों पर बहुत सी कहानियाँ हैं ।अखबारों में किसान-आत्महत्या की खबरें उसकी पस्तहिम्मती को बयां करती हैं। लेकिन यथार्थ का दूसरा पहलू जिसे लगातार रेखांकित करने की जरूरत है ,वह है -'किसान की संघर्ष चेतना'। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि अन्याय और शोषण के खिलाफ किसानों के संघर्ष की एक सशक्त और शानदार परम्परा रही है जिससे किसानों की वर्तमान पीढ़ी को जुड़ना और सबक लेना चाहिए। यह ध्यान रखने की जरुरत है कि 'शोषण का इतिहास जितना पुराना है, उतना ही पुराना उससे संघर्ष का इतिहास भी है।' हिन्दी के कई कथाकारों ने किसान की संघर्ष चेतना को केन्द्र में रखकर महत्वपूर्ण कहानियाँ लिखी हैं ।इस लेख में हाल ही में प्रकाशित दो कहानियों के हवाले से किसान कीचेतना के दो छोरों की पड़ताल करते हुए उसकी जिजीविषा और उसकी आंदोलनधर्मी चेतना पर बात की जायेगी।


कथाकार साथी संदीप मील की हाल ही में छपी कहानी 'बोल काश्तकार '(पल प्रतिपल83) उस चेतना की वाहक है।संदीप मील स्वयं किसान आन्दोलन से जुड़े रहे हैं । सामन्ती भू संबंधों से लेकर पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के रूपान्तरण और उसकी जटिलताओं पर संदीप की गहरी नजर है। एक दृष्टि से भारतीय सन्दर्भों में यह कृषि संस्कृति का इतिहास भी है जिसे पूरे कौशल के साथ संदीप मील ने साधा है और उसे बिल्कुल आज के जलते सवालों से जोड़ दिया है। 'जमीन की लूट' किसानों से उसके एकमात्र संसाधन की ही लूट नहीं है बल्कि उसे पूरी तरह संस्कृति विहीन कर देना है। इस पर गहरी चिंता 'रंगभूमि' में प्रेमचंद ने भी व्यक्त किया था।लेकिन संदीप मील आज के कथाकार हैं ।कार्पोरेट विगत की तुलना में आज बहुत ताकतवर हो चुका है और सत्ता खुलकर दलाली की भूमिका में है ऐसे में लड़ाई कठिन है। सत्ता और पूँजी के गठजोड़ ने लोभ-लाभ के तमाम बनावटी अवसर उपलब्ध कराये हैं ।'राजगढ़' के किसान भी इसमें फँसते हैं ।
"राजगढ़ के बगल में सीमेंट की फैक्टरियां लगने वाली थीं ।वहाँ पर सीमेंट बनने वाला पत्थर निकला था।जिन जमीनों को कल तक कोई पूछता नहीं था, आज वे कीमती हो चली थीं।"

पूंजीवादी विस्तार के दौर में जमीनें मूल्यवान एसेट हैं। आवासीय कालोनियां, हाई वे -एक्सप्रेस वे का निर्माण रातों रात जमीनों का चरित्र बदल देते हैं।'जमीन किसान के श्रम- संसार को और रचनात्मक बनाने की बजाय अधिक मुनाफा कमाने और सुविधाजीवी होकर अपनी श्रमशीलता से ही हाथ धो बैठने का जरिया हो जाती है।'(विनोद शाही : सर्वाधिक जमीनी चेतना का आत्मघात) फौरी तौर पर जमीन की मिल्कियत रखने वाले किसानों का रूपान्तरण भी होता है।अचानक मिला पैसा व्यक्ति को विवेकहीन उपभोक्ता में बदल देता है जिसे अमेरिकी चिंतक रेम्सेक क्लार्क ने 'विध्वंसक हथियारों से भी अधिक खतरनाक' माना है। संदीप मील ने इसे अपनी कहानी में दर्ज किया है-
"पैसों से जेबें भर गए।सबने एक से एक शानदार गाडियां खरीदीं ।कुछ ने शहर में प्लाट खरीदे।मकान बनाये और पूरी आराम की जिंदगी जीने लगे।अधिकांश ने गांव ही छोड़ दिया। अब ये काश्तकार से अमीर बने लोग हर चीज स्टैंडर्ड की करते हैं ।बच्चे महंगे स्कूलों में पढ़ते हैं ।महंगी शराब पीते।खाना घर में कम और होटलों में ज्यादा खाते।कई विदेश घूम आये।तेल का रोज का खर्च भी कम नही होता ।कमाते कुछ नहीं थे। पैसा था धीरे-धीरे खत्म भी हो गया।"

इसलिये अपनी शुरुआती भूलों का परिमार्जन करते हुए नीर और उसके साथी पडोसी गांव 'नोपगढ़' के किसानों की लडाई में शामिल होते हैं।वे अब इस ठोस निष्कर्ष पर पहुंच चुके हैं-

" जमीन बचाने के लिए संगठित रहना पडेगा!"

यह संगठन ही किसानों को पस्तहिम्मती से बचायेगा।नीर के खुद के हालात अच्छे नहीं हैं ।वह स्वयं गहरे मानसिक अन्तर्द्वन्द्व से घिरा रहा है।संदीप मील इसे जानते हैं इसलिए लडाई के मोर्चे बनाते हुए वह आधी दुनिया की बाशिन्दों को भी शामिल करते हैं। कोई भी आन्दोलन स्त्रियों की सक्रिय भागीदारी के बिना अधूरा ही है।साथ ही आन्दोलन की मुक्तिकामी चेतना पूरी लडाई को और व्यापक और लोकतांत्रिक बनाती है।पितृसत्ता की चौहद्दियां भी इसमें टूटती हैं और समतामूलक, लोकतांत्रिक धरातल का निर्माण भी होता है।

'सिर्फ जमीन बचाने से कुछ नहीं होगा,हमें अपने आप को भी बदलना है।बिना बदले अगर जमीन बचा भी ली तो वह फिर कोई हड़प लेगा।हमें बराबरी से रहना होगा।'

यही जनान्दोलनों की तासीर है जो हमें भीतरी और बाहरी दोनों स्तरों पर मुक्त करती चलती है ।

कहानी का आखिरी हिस्सा सत्ता के हिंसक चरित्र को उजागर करता है।मंदसौर से लेकर तूतीकोरिन तक में घटित घटनाएं ज़ेहन में बिल्कुल ताजा हैं।लांग मार्च पर निकले किसानों के जत्थे इस बात का प्रतीक हैं कि मेहनतकश अपनी मेहनत की लूट को अब और ज्यादा दिन बर्दाश्त नहीं करेगा।
संदीप मील की कहानी 'बोल काश्तकार' के पसन्द आने का एक बड़ा कारण कथाकार द्वारा रेखांकित 'किसान की संघर्ष चेतना' है। यह चेतना ही सामूहिकता का निर्माण करती है।सामूहिकता किसानी जीवन की मूल विशेषता है। यह संघर्ष के लिए अनिवार्य शर्त है। 'बोल काश्तकार 'के दूसरे छोर पर एक दूसरी कहानी ' गुहार' (परिकथा,जुलाई-अगस्त अंक18) है।शिव किशोर जी की यह कहानी सद्धन और वासुदेव की है।ये किसान परस्पर मित्र हैं ।लेकिन ध्यान देने की बात है कि इनमें न तो कोई वर्गीय चेतना है और न ही संघर्ष का कोई माद्दा। दोनों प्राकृतिक आपदा में नष्ट हुई फसल के लिए सरकारी राहत न मिल पाने से दुखी हैं । वासुदेव कहता है-

"साहब लोगों, मेरी सब की सब फसल बर्बाद हो गयी है।मेरे खेत देख लिए जायें ।मेरा जो सबसे बड़े रकबे वाला खेत है,उसमें गेहूँ बोया था।उसकी बची खुची फसल को मैंने हाथ भी नहीं लगाया है।कुछ हाथ लगने वाला भी नहीं था।मैं बहुत मुसीबत में हूँ ।मुझे कोई भी राहत राशि नहीं मिली है।"

वासुदेव का यह दुख जेनुइन है लेकिन वह अपनी समस्या का हल फौरी तौर पर ही खोजता है। वह नहीं जानता कि राहत के नाम पर वितरित राशि किसी भद्दे मजाक की तरह है जिससे कुछ हल निकलने वाला नहीं है।

सबसे बड़ी बात जो अखरती है वह यह कि मित्र होने के बावजूद सद्धन लगातार छह दिनों तक वासुदेव का कोई हालचाल नही लेता है। जबकि दोनों एक ही जैसी समस्या से ग्रस्त हैं।उन्हें अपने जैसे दूसरे किसानों से मिल जुलकर एका बनाने की जरूरत है और साझे मोर्चे पर संघर्ष करने की जरूरत है।'किसान यूनियन' और 'किसान सभा' जैसे संगठन उन्नाव और आस पास जिलों में खुब सक्रिय भी हैं ।किसानों के छोटे-बड़े मुद्दों पर उन्हें अनशन,धरना और प्रदर्शन करते मैंने खुब देखा है।बावजूद इसके कहानी में इसकी कहीं झलक नहीं मिलती।यहां वासुदेव का कथन उसकी बढ़ती हताशा को व्यक्त करता है-

" दुनिया अपने में मगन है।दुनिया की हँसी-खुशी दुनिया को अपने में मगन रखे हुए है...और हमारी मजबूरी हमें अपने में मगन रखे हुए है!"

इस व्यक्तिवादी मध्यवर्गीय प्रवृत्ति का गांव-गिरांव तक फैलाव खतरनाक है।जन संगठनों से कटाव किसानों के लिए आत्मघाती है। क्योंकि उनकी लड़ाई व्यक्तिवादी दायरों के बाहर की लड़ाइयाँ हैं ।यह पूरी- की -पूरी संस्कृति को बचाने का मामला है और इसे फौरी तौर पर नहीं लड़ा जा सकता। लगातार छह दिनों तक ड्रम पीटता वासुदेव अपनी समस्याओं के सही कारणों तक नहीं पहुंच पाता और अन्ततः आत्महत्या कर लेता है। उसकी आत्महत्या के लिए जो व्यवस्था जिम्मेदार है उसी के नुमाइन्दों के सामने सद्धन की 'गुहार' --"साब ,यह धन दूसरे की आत्महत्या पर भी देगें?" हमें विचलित तो करती है पर सत्ता के उन असंवेदनशील प्रतिनिधियों के लिये कोई खास मायने नहीं रखती।

अब मैं फिर संदीप मील की कहानी 'बोल काश्तकार ' की ओर चलता हूँ । यहाँ किसान की बढती समस्याओं की सही पड़ताल मिलती है।

"इन दिनों खेती के खर्चे बढ गये थे।आमदनी नहीं बढ़ी थी। तेल की कीमतों के बढ़ने के कारण बुवाई और कढ़ाई महंगी हो गई ।खाद के भाव भी कम नहीं थे।"

संदीप मिल 


किसानी का संकट कितना बड़ा है यह यहां समझ में आता है।यह अपने चरित्र में वैश्विक है। इसके पीछे बाजार का मुनाफा है,उसके दलाल हैं और सरकारी नीतियाँ हैं जो लगातार खेती को अलाभकारी पेशा बनाने की साजिश में शामिल हैं । दरअसल उनकी निगाह खेतों पर है उसे छीनने -झपटने और भूमाफियाओं को सौंप देने की चाल है।'कारपोरेट फार्मिंग' की अवधारणा पर सरकारें काम कर रही हैं ।जागेराम के हवाले से संदीप इस सच को बेनकाब करते हैं-

"मेरे बच्चों, तुम्हें हमारे से ज्यादा मुसीबतों का सामना करना पड़ेगा।खेत में मालिक तो रह जाओगे, लेकिन खेती का मालिक कोई और हो जायेगा।बिना खेती के मालिकाना तुम्हारे खेत ही तुम्हारी कब्रगाह बन जायेंगे ।"
किसानों की यह समझदारी ही उन्हें संगठित होने और संघर्ष करने की प्रेरणा देती है।
"जमीन हमारी ....लूट तुम्हारी
नहीं चलेगी..........नही चलेगी"
यह अकारण नहीं है कि संदीप मील की इस कहानी में आत्महत्या की खबरें तो हैं लेकिन कोई किसान स्वयं आत्महत्या नहीं करता। हाँ ,वे लड़ते हुए जेल जरूर जाते हैं ।
काश 'गुहार' के वासुदेव और सद्धन भी इस बात को समझ पाते।
००


अनिल अविश्रांत का एक लेख और नीचे लिंक पर पढ़िए



संदर्भित कहानियाँ-
बोल काश्तकार---संदीप मील
(पल प्रतिपल 83 में प्रकाशित)
गुहार---- शिव किशोर
(परिकथा---जुलाई-अगस्त,2018 में प्रकाशित)
परख पैंतीस

कविता की ऋतु में!


गणेश गनी

अमरजीत कौंके ने कविताएं अपने भीतर ठहर गई उस खामोशी के नाम लिखी हैं जो कभी टूटती ही नहीं। कवि ने अपनी कविताएं लिखी हैं मोहब्बत के उस एहसास के लिए जो जीवन की स्याह अंधेरी रातों में किसी जुगनू की तरह टिमटिमाता है। कवि पृथ्वी पर जीवन के मूल्य को जानता है और पृथ्वी के उपकार को भी भली-भांति समझता है-


अमरजीत कौंके


मैं कविता लिखता हूं
कि पृथ्वी का
कुछ ऋण उतार सकूं।

कवि अमरजीत के जीवन में यादों के कई मौसम एक साथ तब आते हैं जब कविता की ऋतु दस्तक देती है। दरअसल मौसम कोई भी हो, वो तभी खुशी देता है जब कोई अपना करीब हो-

जब भी
कविता की ऋतु आई
तुम्हारी यादों के कितने मौसम
अपने साथ लाई ....

कविता की ऋतु में
तुम हमेशा
मेरे पास होती...।

सम्वेदनाओं से भरा हृदय हमेशा खूबसूरत होता है। कविता तो अक्सर ऐसे हृदय में ही बसती है। जहां कविता बसती है वहां कभी कठोरता नहीं ठहरती। बस फूलों जैसी कोमलता घर कर जाती है। अमरजीत की एक खूबसूरत और कोमल कविता की बानगी देखें-

तितली
उड़ती उड़ती आई
आकर एक पत्थर पर
बैठ गई

पत्थर उसी क्षण
खिल उठा
और
फूल बन गया।

कवि ने भरोसे पर जो कहा है, वो याद रखने लायक है। भरोसा जीवन में इंसान को कहां से कहां पहुंचा सकता है। बस एक ही शर्त है कि यह टूटना नहीं चाहिए-

उसको
अपने गीत पर कितना भरोसा है
कि इस समय में
जब दो कौर रोटी के लिए
वह बहुत सारे काम कर सकती है
किसी की जेब काट सकती है
भीख मांग सकती है
देह बेच सकती है
या और ऐसा बहुत कुछ
जो करने से उसे आसानी से
इससे ज्यादा पैसे मिल सकते हैं

लेकिन उसे अपने गीत पर
कितना भरोसा है!

कवि ने एक जगह बड़ी शानदार बात साधारण शब्दों में समझा दी। कोई प्रवचन नहीं, कोई भाषण नहीं, कोई दर्शन नहीं, बस सात पंक्तियों में पूरी बात-

इतिहास सदा
ताकतवर हाथ लिखते
इसीलिए इतिहास में
कमजोर सदा पृष्ठभूमि में चले जाते

जो वास्तव में इतिहास बनाते
उनका इतिहास में
कहीं नामोनिशान भी नहीं होता।

कवि ने सारा दर्शन भी इन चार पंक्तियों में समेट दिया। प्रेम और चाहत पर लम्बी लम्बी बातें कई बार लिखी जा चुकी हैं। अमरजीत कौंके कहते हैं-

तुम्हें पकड़ने की
इच्छा मैं ही
शायद मेरी सारी भटकन
छुपी हुई है।
००
गणेश गनी



परख चौंतीस नीचे लिंक पर पढ़िए
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रोहित ठाकुर की कविताएं

रोहित ठाकुर



यादों को बाँधा जा सकता है गिटार की तार से 

प्रेम को बाँधा जा सकता है 
गिटार की तार से 
यह प्रश्न उस दिन हवा में टँगा रहा
मैंने कहा -
प्रेम को नहीं 
यादों को बाँधा जा सकता है 
गिटार की तार से  
यादें तो बँधी ही रहती है  -
स्थान , लोग और मौसम से
काम से घर लौटते हुए
 शहर ख़ूबसूरत दिखने लगता था 
स्कूल के शिक्षक देश का नक्शा दिखाने के बाद कहते थे 
यह देश तुम्हारा है 
कभी संसद से यह आवाज नहीं आयी 
की यह रोटी तुम्हारी है
याद है कुछ लोग हाथों में जूते लेकर चलते थे
सफर में कुछ लोग जूतों को सर के नीचे रख कर सोते थे 
उन लोगों ने कभी क्रांति नहीं की 
पड़ोस के बच्चों ने एक खेल ईज़ाद किया था 
दरभंगा में 
एक बच्चा मुँह पर हथेली रख कर आवाज निकालता था  -
आ वा आ वा वा
फिर कोई दूसरा बच्चा दोहराता था 
एक बार नहीं दो बार -
आ वा आ वा वा 
 रात की नीरवता टूटती थी 
बिना किसी जोखिम के 
याद है पिता कहते थे  -
दिन की उदासी का फैलाव ही रात है  |








शहर 

उसने धीरे से कहा -
शहर यहीं से शुरू होता है 
और हम लोगों के चेहरों पर दिखा भय 
हम ने एक दूसरे का नाम पूछा 
हम ने महसूस किया की
 घर से चलते समय हमने जो
 सत्तू पी वह कब की सूख चुकी 
हम घर से छाता लाना भूल गये थे
हम ने मन ही मन आकाश से की प्रार्थना 
हम दोनों अलग-अलग दिशाओं में बढ़ रहे हैं 
हमारी जमा पूंजी हमारी प्रार्थनायें हैं 
किसी ने कहा था  - शहर की भीड़ में हमारा गाँव - घर बहुत याद आता है 
यहाँ सिर्फ गर्म हवा बह रही है   
कोलतार की सड़क पर चलते हुये हमारे पाँव पिघल रहे हैं   
एक दिन हम इस अनजाने शहर में भाप बनकर उड़ जायेंगे    ।।


गुलमोहर के फूल ज्वालामुखी के संतान हैं      

मुझे दिखाई देता है 
सड़क के किनारे हवा में हिलता
 गुलमोहर का फूल 
इस तरह भ्रम होता है 
आकाश में फैला हुआ है 
किसी का खून 
इस समय गुलमोहर का खिलना 
संशय पैदा करता है 
इस समय सारे फूल झंडे में न बदल जाए 
इस समय कोई झंडा बहुत आसानी से 
बदल सकता है किसी जगह को युद्ध क्षेत्र में  
इस समय गुलमोहर के फूल 
किसी ज्वालामुखी के संतान हैं 
यकीन करो एक दिन सभी फूल झंडों में बदल जायेंगे   ।।



कविता 


यूरोप में बाजार का विस्तार हुआ है 
कविता का नहीं 
कुआनो नदी पर लम्बी कविता के बाद 
कई नदियों ने दम तोड़ा 

लापता हो रही हैं लड़कियाँ 
लापता हो रहे हैं बाघ
खिजाब लगाने वालों की संख्या बढ़ी है 

इथियोपियाई औरतें इंतजार कर रही हैं 
अपने बच्चों के मरने का 
संसदीय इतिहास में भूख 
एक अफ़वाह है 
जिसे साबित कर दिया गया है 

सबसे अधिक पढ़ी गई प्रेम की कविताएँ 
पर उम्मीदी से अधिक हुईं हैं हत्यायें 
चक्रवातों के कई नये नाम रखे गये हैं 
शहरों के नाम बदले गये 
यही इस सदी का इतिहास है  
जिसे अगली सदी में पढ़ाया जायेगा
 इतिहास की कक्षाओं में 

राजा के दो सींग होते हैं 
सभी देशों में 
यह बात किसने फैलायी है 
हमारी बचपन की एक कहानी में 
एक नाई था बम्बईया हज्जाम उसने  ।


हम सब लौट रहे हैं  


हम सब लौट रहे हैं 
त्यौहार के दिनों में खाली हाथ 
हम सब भय और दुःख के साथ लौट रहे हैं 
हमारे दिलो-दिमाग में गहरे भाव हैं पराजय के 
इत्मीनान से आते समय अपने कमरे को भी नहीं देखा
बिस्तर के सिरहाने तुम्हारी बड़ी आँखों वाली एक फोटो पड़ी थी 
बंद अंधेरे कमरे में अब भी टँगी होगी 
रोटी के लिए फिरते हमारे जैसे लोग 
जो दूर प्रदेश गये थे 
वे थके और बेबस मन लौट रहे हैं 
महीने का हिसाब अभी बकाया था 
हम सब बिना मजदूरी के लौट रहे हैं 
हिम्मत अब टूट गई है 
सर पर जो महाजनों का कर्ज है 
उसे बिना चुकाये घर लौटना शायद मरने जैसा है 
हम सब मरे हुए लोग घर लौट रहे हैं  |


उसने कहा

उसने कहा सुख जल्दी थक जाता है 
और दुःख एक पैसेंजर ट्रेन की तरह है
उसने सबसे अधिक गालियाँ 
अपने आप को दी 
उसका झगड़ा पड़ोस से नहीं 
उस आकाश से है जो
तारों को आत्महत्या के लिए उकसाता है
उसने सबसे डरा हुआ आदमी
 उस पुलिस वाले को माना
जो गोली मार देना चाहता है सबको 
वह चाहता है कि एक
 धुँआ का पर्दा टंगा रहे 
हर अच्छी और बुरी चीज़ों के बीच 
ताकि औरतों और बच्चों के सपनों पर 
चाकू के निशान न हों  |






एक पीला पत्ता गिरता है 


एक पीला पत्ता गिरता है 
एक मजदूर थक कर गिरता है 
एक आदमी भूख से गिरता है 
एक राजा सत्ता के नशे में गिरता है 
एक बच्चा चलना सीख रहा है 
एक बच्चा चलने के यत्न में गिरता है 
एक बच्चा 
गिरने में जो निराशा का भाव है
उसके पार जाता है  |


भाषा   

वह बाजार की भाषा थी
जिसका मैंने मुस्कुरा कर 
प्रतिरोध किया 
वह कोई रेलगाड़ी थी जिसमें बैठ कर 
इस भाषा से
 छुटकारा पाने के लिए 
मैंने दिशाओं को लाँघने की कोशिश की
मैंने दूरबीन खरीद कर 
भाषा के चेहरे को देखा 
बारूद सी सुलगती कोई दूसरी चीज 
भाषा ही है यह मैंने जाना 
मरे हुए आदमी की भाषा 
लगभग जंग खा चुकी होती है 
सबसे खतरनाक शिकार 
भाषा की ओट में होती है  |



एक जाता हुआ आदमी  

एक जाता हुआ आदमी 
जब गुज़रता है किसी शहर से
उस शहर की छाया 
उसके मन पर पड़ती है 

एक जाता हुआ आदमी 
अपने साथ थोड़ा शहर ले जाता है 
एक जाता हुआ आदमी 
थोड़ा सा शहर में रह जाता है 

न आदमी शहर को कुछ लौटाता है 
न शहर आदमी को 
दोनों धंसे रहते हैं 
देनदारी में  |





घर  

कहीं भी घर जोड़ लेंगे हम
बस ऊष्णता बची रहे 
घर के कोने में  
बची रहे धूप 
चावल और आंटा बचा रहे 
जरूरत भर के लिए 

कुछ चिड़ियों का आना-जाना रहे
और 
किसी गिलहरी का 

तुम्हारे गाल पर कुछ गुलाबी रंग रहे 
और 
पृथ्वी कुछ हरी रहे
शाम को साथ बाजार जाते समय 
मेरे जेब में बस कुछ पैसे  |
०००

सभी चित्र: कुंअर रवीन्द्र जी के हैं।



परिचय


नाम  रोहित ठाकुर 

जन्म तिथि - 06/12/ 1978

शैक्षणिक योग्यता  -   परा-स्नातक राजनीति विज्ञान

विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित  ।

   वृत्ति  -   सिविल सेवा परीक्षा हेतु शिक्षण  

रूचि : - हिन्दी-अंग्रेजी साहित्य अध्ययन 

पत्राचार :- जयंती- प्रकाश बिल्डिंग, काली मंदिर रोड,

संजय गांधी नगर, कंकड़बाग , पटना-800020, बिहार 

मोबाइल नंबर-  7549191353

ई-मेल - rrtpatna1@gmail.com



नीचे लिंक पर सुनिए आशुतोष दुबे का कविता पाठ




24 जनवरी, 2019


हूबनाथ के दोहे

भाग - एक 

हूबनाथ 

1..


काल कुकुर रपटा रहा,
भाग सके तो भाग।
जीवन रोटी बाजरी,
झपट पड़ेगा काग।।


2..

कांटों के झंखाड़ में,
भटकैया के फूल।
बिधना चतुर सुजान तू,
ऐसी भारी भूल।।



प्रेम बर्फ़ की कब्र है,
प्रेम आग का फूल।
सूली ऊपर सेज है,
जिगर धंसा इक शूल।।


4

नेता,हाकिम, धर्मगुरु,डाक्टर और वकील।
टुटही पनहीं में छिपी,
इक मुर्चहिया कील।।


5...

दिन अगोरते बीतता,
बज्र हो गई रात।
तन चुहिया की जान तो,
मन बिल्ली के घात।।


6...

तुम जनमे जिस भूमि तहं,
नफ़रत का ब्यौपार।
ये रावण के बाप हैं,
कौन करे संहार।।


7...

राम तुम्हारी गूंज से,
कांपे सूखे पात।
रावण के मुख जा बसे,
बिन सीता के नाथ।।


8...

क्यों प्रकटे,क्या कर रहे,
तनिक न सोचा नाथ।
जनता को दुख दे रहे,
मिल रावण के साथ।।



9...

देह नदी की धार में,
बढ़ती जाए रेत।
बाड़ लगाए क्या हुआ,
मेड़ खा गए खेत।।


10...

मन मिर्ज़ा तन साहिबां,
जग अंधियारा कूप।।
दुख का सागर सामने,
डूब सके तो डूब।।


11..

सूखी नदिया प्यार की,
घाट लगी है आग।
गिद्धों के वर्चस्व में,
गौरैयों के भाग।।







12...

एक बीज के गर्भ में,
बरगद पीपल आम।
जिसकी गहरी जड़ गई,
 उभरा उसका नाम।।


13...

गांजा रिक्शा झोंपड़ी,
गुटखा बीड़ी पान।।
बबुआ एमे पास है,
बॉस अंगूठा छाप।।



14...

बुढ़िया पैंड़ा ताकती,
गोरिया जोहे कॉल।
छोरा दलदल में फंसा,
रात अगोरे मॉल।।



15...

दरिया तरसे आब को,
अंखियां तरसे खाब।
गांव बसा श्मशान में,
शहरों में असबाब।।


16...

बढ़िया चावल मॉल में,
भूसी खाय किसान।
सूरज उनके बैंक में,
इनको नहीं बिहान।।



17....

जग जीतन को आय थे
बिके वासना हाथ
मन बौराया तन थका
बची  अधूरी साध


18...

समय सांस शक्ति सुधन
सबकी कसी लगाम।
जिसने रेखा पार की
उसको नहीं विराम।।



।।गंवार।।

19...

पाहुन अपने द्वार हो,
नहीं पूछते ज़ात।
भूख प्यास पहचानते,
मानुस की औकात।।


20..

मिठवा चउरा चोंपिया,
सिंदूरी अभिराम।
कभी न बदलें स्वाद ये
कभी न बदलें नाम।।


21...

शाम न पाती तोड़ते,
हरी न तोड़ें डार।
पूरी बांस न काटते,
कहते उसे गंवार।।








22..

चिड़िया का कौरा अलग,
भोजन को परनाम।
ये गंवार हैं जानते,
सबके दाता राम।।


23...

पर्यावरण न जानते,
ना जानें विज्ञान।
तुलसी पीपल आम में,
इनके हैं भगवान।।


24...

जंगल में दीमक लगे,
घुन गोचर के भाग।
पोखर में घड़ियाल है,
टूटी मड़ई आग।।


25..

शहर खा रहे गांव को,
मुखिया नदी तलाब।
खेती बारी खा गए,
उन्नति के सैलाब।।


26..

रिश्ता तिल का बीज है,
जब तक उसमें तेल।
तब तक उसकी आरती,
फिर घूरे पर ठेल।।


27..

सबकी मंज़िल एक है,
मरघट क़ब्रिस्तान।
जिसकी गति जितनी अधिक,
उतना किस्मतवान।।


28...

नए बीज के सामने,
हर किसान मजबूर।
अमृत में विष घोलता,
वह बजार से चूर।।



29...

आग लगा कर देश को
दिया कबीरा रोय
राजनीति के पाट बिच
साबित बचा न कोय


30..

ना आस्था ना प्रेम है
बस केवल व्यापार
रामलला प्रॉडक्ट है
राजनीति बाज़ार


31..

मन तो अटका रूप में
खाक मिलेंगे राम
नानक दरिया इश्क में
साहिल का क्या काम

32..

मंदिर मस्जिद खेल हैं
राजनीति के हाथ
राजा जी के पाप हैं
परजा जी के माथ






33..

अल्लाह जीजस राम रब,
सब  छूछे अल्फ़ाज़।
शबद परे जब जाएगा,
तब होगा आगाज़।।


हूबनाथ का साक्षात्कार नीचे लिंक पर पढ़िए

https://bizooka2009.blogspot.com/2018/12/blog-post_28.html?m=1





कहानी:

सेफ़्टी वॉल्व
अमित कुमार मल्ल




अमित कुमार मल्ल 




छोटी गोल, बड़ी गोल करते करते आठवीं पास होने तक , मैं गांव के प्राइमरी पाठशाला और जूनियर हाई स्कूल में पढ़ता रहा । प्राइमरी पाठशाला में पटिया , नरकट की कलम , दूधिया की दवात तथा किताब लेकर जाता था।यह माना जाता था कि निब वाली पेन से लिखने में , हैंडराइटिंग खराब हो जाती है। इसलिये मैं पाठशाला में कभी निब वाला पेन लेकर नही गया। प्राइमरी पाठशाला के हर क्लास का मैं टापर था । प्राइमरी पाठशाला के हेडमास्टर साहब ने क्लास डकाने के लिये , बाबूजी से कई बार कहा था लेकिन बाबूजी का कहना
 था -
-बिना मजबूत नीव के ,इमारत अच्छी नही बनती है।
 इसलिये , उन्होंने मुझे क्लास नही  डकाया। फिर उस समय क्लास पांच में बोर्ड परीक्षा होती थी । यू पी बोर्ड नही , जिले वाला बोर्ड। मैं क्लास 5 में ब्लॉक के सभी प्राइमरी पाठशालाओं में टॉप किया।
जूनियर हाई स्कूल में बैठने के लिये बोरा नही ले जाना पड़ता था। वहाँ पर टाट मिलती थी । पाटिया , नरकट की कलम  से पीछा छूटा। अब निब वाली पेन , स्याही वाली दावत, कॉपी , लेकर जाना होता था । इन सभी को बस्ता कहा जाता था। आठवीं में भी स्कूल टॉप किया । खुशी में घर वाले लड्डू बाटे।
बाबूजी मेरी पढ़ाई से खुश थे। वो मुझे डिप्टी कलक्टर बनाना चाहते थे।सोच विचार कर मुझे नवी में पढ़ने के लिये ,पास के कस्बे में नही , दूर के शहर में भी नही ,बल्कि बहुत दूर के, बहुत  बड़े शहर में भेजा गया।
बड़े शहर में खर्चा बहुत पड़ता , इसलिये तय किया गया कि मैं स्कूल व बस अड्डे के पास ,किराये का क्वार्टर ले लू। गांव से , रोज एक बस , सुबह इस बड़े शहर आती और शाम को गांव लौट जाती । इसी  बस से सब्जी आदि हर दूसरे तीसरे  दिन आ जाया करेगा।
गांव के एक चाचा ,जो  पट्टीदारी में थे ,का , इस बड़े शहर में बस अड्डे के पास मकान खाली पड़ा था । उन्होंने बाबूजी से कहा -
-अपने बेटे को मेरे मकान में रख दो , उसका किराया बच जाएगा और मुझे घर को रखाने के लिये ,किसी को रखना नही पड़ेगा।
सभी के लिये यह फायदे मंद था। मैं बड़े शहर में , पट्टीदार के मकान के एक कमरे में जम गया। गांव से आटा, चावल , दाल , तेल तो मैं ही लाता था ।हर तीसरे दिन , साइकल से , बस अड्डे जाकर , गांव की हरी सब्जी और कभी कभार दूध दही भी लाता था, जो बाबूजी से बस के ड्राइवर चाचा के हाथ से भेजते थे । 12 से 5 बजे तक स्कूल चलता अर्थात दूसरी पाली का स्कूल था।
धीरे धीरे मैं बड़े शहर व पढ़ाई में रम रहा था ।एक दिन जब सब्जी लेने बस अड्डे पहुँचा तो बस ड्राइवर चाचा ने कहा ,
- तुम्हारे बाबू जी ने कहा कि कोई पेट का डॉक्टर पता कर लो। बालेन्द्र की दुल्हन को दिखाना है।
बालेन्द्र मेरा  भाई था और मुझसे बड़ा था। मैंने दो तीन दिन तक सायकिल से घूम घूम कर डॉक्टर का नाम पता किया। सोमवार को गांव वाली बस से बालेन्द्र भइया व भाभी आये। मैं सायकिल से बस अड्डे पहुंच था ।मैंने बताया ,
- डॉक्टर दोपहर और शाम को देखते है । सुबह 10 से डेढ़ और फिर शाम को 4 से 8 बजे तक।
- यहाँ से कितनी दूर है ?
बालेंदु भइया पूछे।
- रिक्शे से करीब आधा पौन घंटा लगेगा।
मैंने बताया ।
-इस समय साढ़े 10 बज रहे हैं। पहुंचते पहुचते साढ़े ग्यारह बजेंगे। ... यह बस पकड़ने के लिये , सुबह 5 बजे से जगे है। बीच मे .. स्टेशन पर ,एक एक प्याली चाय ही पियें है। और तुम्हारी भाभी भी वही चाय पी  है।
भइया बोले।
- बस अड्डे पर कैंटीन है। आप मेरे साथ चलकर कुछ खा लीजीये। भाभी के लिये, वही से नाश्ता लेते आएंगे , या हम तीनों कैंटीन चलते हैं ,वही नाश्ता कर लेंगे।
मैंने निदान बताया ।
भाभी पहली बार रिएक्ट करते हुए ,भइया की ओर देखी।
- तुम तो जानते हो ,इस बस से गांव के बहुत से लोग आते हैं। अगर उन्होंने तुम्हारे भाभी को कैंटीन या शेड में खाते देख लिया , तो गांव में जाकर बात का बतंगड़ बनाएंगे।
भईया ठंडेपन से बोले।
- यह बात तो सही है ।... तो क्या भाभी को भूखे ही दिखाने ले चलना है ।
मैं ने पूछा।
भइया कुछ पल सोचते रहे । फिर बोले ,
- तुम्हारे कमरे चलते हैं। ... वही कुछ खा  लिया जाएगा और तुम्हारी भाभी भी कमर सीधी कर लेंगी।फिर डॉक्टर को दिखाएंगे।
- अच्छी बात है ... आप लोग रिक्शे पर बैठे। मैं साईकल से आगे आगे चलता हूं।
मैं बोला।
रिक्शे में भइया , भाभी और उनका समान रखा गया। रिक्शे के आगे आगे मैं साईकल चला रहा था । आधे घंटे में हम लोग  ,मेरे क्वार्टर पर पहुचे। समान भीतर रखकर बगल की दुकान पर जाकर इमरती, समोसा ,चाय लाया ।
- कुँवर साहब , इतना कुछ बेकार में लाये । परेशान हुए । ... अभी आपके भइया जाते तो ले आते।
पहली बार भाभी बोली।
- आप पहली बार यहाँ आई है।
मैं बोला।
फिर भाभी मेरा हाल चाल पूछने लगी । जैसे ही मैंने बताया कि मेरे क्लास 12 बजे से है।
भाभी बोली,
- आप स्कूल जाइये     ...कुँवर साहब की पढ़ाई का नुकसान न हो , हम लोग शाम को डॉक्टर को  दिखा लेंगे।
मैंने पास का खाने वाला होटल ,भइया को दिखा दिया ,और होटल वाले से कह दिया कि टिफिन भिजवा देना।
शाम को क्वार्टर पर लौटने पर देखा, तो भइया भाभी घर वाले ड्रेस में , आराम से बातें कर रहे थे। मैंने पूछा,
- अभी तक आप लोग तैयार नही हुए ... डॉक्टर को दिखाने चलना है न?
भइया सोचते हुए , भाभी से बोले,
- यह स्कूल से थका हारा आया है...कुछ खिलाओ ।
- डॉक्टर 7 बजे उठ जाएगा। आज दिखाना है .. तो आप लोग जल्दी तैयार हो जाओ।
मैं बोला।
- 6 घण्टे से आप बिना कुछ खाये पियें है। पहले आप कुछ खा लिजिये..... अगर आज देरी हो गयी है , कल दिखा लेंगे। कौन हम लोग सड़क पर है ?हम लोग तो कुँवर साहब के क्वार्टर पर है।
भाभी बोली।
भाभी ने मेरे लिये , शाम को भइया द्वारा लाये गए समोसे में से 2  बचा कर रखे थे , जो मुझे दिए। नाश्ते करने के बाद क्या किया जाय - यह हम लोग विचार विमर्श कर रहे थे कि, भाभी बोली ,
 - अब ,इस समय  डॉक्टर को तो दिखाना नही है , फिर घूम ही लेते हैं ।





भइया और मैंने सहमति जताई ।फिर हम तीनो रिक्शे में बैठकर बाजार  घूम आये।
रात में तय हुआ कि अगले दिन जल्दी उठकर,
डॉक्टर को दिखाने चलेंगे ।लेकिन रात मे देर तक इधर उधर की बाते हुई- रिश्तेदारों की , गांव की , भाभी के मायके की , मेरे यहाँ रहने की  । लगभग 3 बजे सब लोग सोये तो सबेरे उठते उठते 9 बज गया।
- भइया ! आप लोग जल्दी तैयार हो लीजिये, डॉक्टर को दिखा दिया जाय ।
मैंने कहा।
- तुमने सिनेमा कब देखा था?
भइया पूछें।
मैं समझ नही पाया , यहां सिनेमा की बात कहां से आ गयी। जबाब तो देना ही था।
- दो महीने पहले।
- तुम्हारी भाभी भी शादी होने के बाद से , कोई पिक्चर नही देखी है... न कही घूमने गयी , .. तुम भी पिक्चर नही देखे हो ।
भइया , हम दोनों की ओर देखकर बोले,
-  आज , तीनो साथ सिनेमा देखेंगे , होटल में खाना खाएंगे।
फिर हम तीनों रिक्शे पर बैठकर सिनेमा  देखने गए और खाना भी होटल में खाये। बाजार घूमें । भाभी  के लिये खरीददारी हुई।शाम तक क्वार्टर पर , हम लोग लौटे ।
अगले दिन गांव वाली बस से सब्जी , दूध आना था  । भईया ने अनुमान लगाया कि डॉक्टर को दिखाकर अभी तक , गांव न लौटने पर पूछ ताछ संभव है ।  इसलिए भइया ने कहा,
- यदि बस वाले ड्राइवर चाचा पूछे कि  क्यो हम लोग डॉक्टर को दिखा कर , गांव नही लौटे ? तो क्या बताओगे ?
-  जो , बताइये।
मैं बोला।
-तुम कहना कि , डॉक्टर के यहाँ बड़ी भीड़ थी , दिखाने का समय ही नही मिला । आज डॉक्टर साहब से समय मिला है। डॉक्टर को दिखा कर कल तक लौट आएंगे।
भइया के  सिखाये - बताये पर मैंने हामी भरी।
अगले दिन बस अड्डे पर पर , गांव वाली बस के ड्राइवर  चाचा ने दूध सब्जी देते हुए पूछा,
-तुम्हारे भइया भाभी डॉक्टर को दिखा कर गांव काहे नही लौटे।.... तुम्हारे बाबूजी  पूछ रहे थे।
- डॉक्टर के यहाँ बड़ी भीड़ थी । नम्बर नही लग रहा था । आज दिखा कर , भइया भाभी कल तक गांव पहुँच जाएंगे।
मैंने जबाब दिया।
शाम को भाभी को डॉक्टर को दिखाया गया।डॉक्टर ने दवाइयां लिखी और दो महीने बाद फिर चेकअप के लिये बुलाया । अगले दिन , दिन में शहर के मंदिर में , भइया भाभी ने दर्शन किये ,और शाम वाली बस से, वापस गांव लौट गए।
     यह चार दिन मेरे पढ़ाई के लिहाज से  खराब थे।मैंने केवल एक दिन ,स्कूल अटेंड किया, बाकी दिन भइया भाभी के साथ सिनेमा देखा , कुल्फी खाई, चाट खाया , नॉन वेज खाया , बाजार घूमा -, ऐश ही ऐश। भइया भाभी के जाने के बाद मन लगा कर फिर पढ़ाई में जुट गया।
एक महीना बीता होगा कि , एक दिन बस अड्डे पर , ड्राइवर चाचा बोले,
- तुम्हारे बाबूजी ने कहा है कि इंद्रजीत (यह हमारे सगे पट्टीदार थे , हमारे चाचा लगते थे । इनके पिताजी और हमारे बाबा एक ही थे )के बहू को दिखाना है। बढ़िया डॉक्टर पता कर लेना तथा एक ठीक ठाक होटल भी रुकने के लिये देख लेना।
- मेरे क्वार्टर पर नही रुकेंगे क्या ?
मैंने पूछा।
ड्राइवर चाचा बोले,
- तुम्हारे बाबूजी जो कहे थे , बता दिये। परसो इसी बस से दोनों लोग आएंगे।। पता कर लेना।मैंने उसी दिन डॉक्टर और होटल के बारे में पता कर लिया।
परसो दोनो लोग -,चचेरे भाई व भाभी ,आए। रिक्शे में बैठकर होटल गए। उनके रिक्शे के आगे आगे सायकिल से मैं रास्ता दिखाता रहा। जब होटल के रूम में समान रख गया तो मैंने भइया से पूछा,
- कब डॉक्टर को दिखाने चलना है।
भइया बोले ,
- आज ,तो .... हम  लोग थक गए है। कल चलेंगे। ..... लेकिन  .. आज शाम को जब तुम स्कूल से छूटना , तो इधर ही आना । .. साथ मे बाजार चलेंगे , शहर घूमेंगे । .. देखेंगे।
-ठीक है ।
बोलकर मैं क्वार्टर पर चला आया ।
 क्वार्टर से स्कूल गया और शाम को स्कूल से लौटकर , मैं होटल पहुँचा ।  फिर हम तीनों बाजार निकले । भाभी ने खरीदारी की और हम लोग खाते हुए होटल लौटे। तय हुआ कि अगले दिन शाम को डॉक्टर को दिखाना है।रात्रि 10 बजे होटल से अपने  रूम पर पहुँचा।
शाम को भाभी को डॉक्टर को दिखाना था , अतः मै कालेज नही गया। शाम को भइया के साथ भाभी को डॉक्टर को दिखाया गया। डॉक्टर ने बताया ,डेढ़ माह बाद ,फिर आना है।
अगले दिन शाम को भइया भाभी को गांव वाली बस में छोड़कर क्वार्टर आ गया।जाते जाते दोनो ने उसकी बहुत तारीफ की । इस बार उतनी ऐश तो नही हुई, लेकिन दो बार मुर्गा खाने ,दो बार चटपटा खाने को मिला और 2 दिन का क्लास छुटा।
फिर मैंने पढ़ाई में मन लगाया। डेढ़  दो माह बाद , फिर मेरे ममेरे भाई , भाभी आये। उन लोगो ने बताया कि उन दोनों लोगो को डॉक्टर को दिखाना है। मैंने पूछा ,
-भइया , आपको क्या रोग हुआ है ?
भइया बोले ,
-तबियत ठीक नही रहती है।
भाभी बोली,
- चाहे  यह जो , खा ले , इनके शरीर को लगता नही।
फिर वही हुआ, जो पहले भी हुआ था। ममेरे भाई भाभी 4 दिन रहे । मैंने इन लोगो के साथ पिक्चर देखा, नॉन वेज खाया, घूमा आदि।
उनके लौटने के बाद , मैंने पढ़ाई में मन लगाया।
इस बार मेरा 4 दिन क्लास छूटा।






मुझे एक बात , अब , परेशान करने लगी थी कि हम लोगो के परिवार में इतनी बीमारियां क्यो है? सारे भइया भाभी युवा है , फिर इतनी बीमारियां क्यो? क्या खान पान में गड़बड़ी है या रहन सहन में या कोई अन्य बात? लेकिन किससे पुछू? जो जबाब भी दे दे और बुरा भी न माने।उसने जब नज़र दौड़ाई तो   सगी भाभी नज़र आई , जो उसकी बात , पूरे ढंग से सुनती है और उसका उत्तर भी देती है , सुलझे ढंग से देती है।
अगली बार की छुट्टी में , जब मैं घर गया तो इस ताक में रहता था कि खुशनुमा माहौल में भाभी से बीमारी वाली यह बात पूछ पाऊँ। एक दिन अवसर मिल गया। दोपहर में भाभी खाना परोस रही थी, उस दिन  बाकी लोग किसी काम से बिलंब से खाने वाले थे।
मैंने पूछा,
- भाभी ! एक बात पूछूँ , नाराज तो नही होंगी?
- पूछिये ।
भाभी बोली।
- मुझे शहर मे रहते करीब 10 महीने हुआ। इस बीच करीब 6 लोग डॉक्टर को दिखाने शहर आये । ... मुझे लगता है कि हम लोग के खान पान में गड़बड़ी है ...या रहन सहन में ...,। क्या कारण है?
मैंने पूछा।
- लगता है , हम लोगो का आना ,आपके यहाँ रुकना , आपको अच्छा नही लगा?
भाभी ने मुस्कराते हुए पूछा।
- ऐसी बात नही है। इसीलिये मैं किसी से यह नही पूछ नही रहा था।... नही बताना है तो छोड़िए।
मैंने कहा।
- छोड़ ही दीजिये। ... जब बीमार होता है , तभी दिखाने शहर जाता है। .. खाना जल्दी खत्म करिये। अभी बहुत काम है। अभी  घर के आधे से अधिक लोगो को  खिलाना है। फिर , रात के खाने के लिये आटा चावल दाल सब्जी सब निकालना है...
बोलते हुए भाभी ने अधूरे स्थल पर बात खत्म कर दी।
मुझे  उत्तर तो नही मिला , लेकिन मालूम नही क्यो मेरे मन मे यह आशंका हो गयी कि मेरे प्रश्न से कहीं भाभी को ऐसा तो नही लगा कि मुझे, भइया भाभी का शहर के मेरे क्वार्टर पर आना,रुकना मुझे बुरा लगा। इसलिये, भाभी को ऑब्जर्व करने लगा कि जब भी अवसर मिले , मैं अपनी स्थिति साफ कर दूं कि केवल जिज्ञासा वश मैंने यह प्रश्न पूछा था , मेरा अन्य कोई मकसद नही था।
ऑब्जरवेशन करने पर ,मुझे मालूम हुआ कि , भाभी की दिनचर्या अत्यन्त कठिन व दुरूह है। भाभी सुबह 4 बजे उठती है  , जब बैलो को खिलाने वाले खली और चोकर लेने घर  के बड़े लोग भीतर आतेऔर रात में सबको खाना खिलाकर, जब घर का दरवाजा बंद करती तो रात के 11 बज रहे होते । सुबह से उठने के बाद , दिन भर वह आराम नही कर पाती। दिन भर कुछ न कुछ काम रहता। संयुक्त परिवार के सभी सदस्यों को चारों टाइम खाना , नाश्ता , खरमेटाव परोसना, उसकी  तैयारी कराना, कपड़ो का हिसाब रखना , बच्चो से खेलना , अम्मा चाची के सिर में तेल लगाना , गांव के लोगो से यथोचित व्यवहार करना ,नेवता का हिसाब रखना ,और न जाने क्या क्या। जब जब मौका मिला, मैंने भाभी से अपनी बात कही। और शहर आते आते ,मैं भाभी से यह आश्वासन ले आया कि वे नाराज नही है और जब भी  अगली बार डॉक्टर को दिखाने , भइया के साथ आएंगी , मेरे क्वार्टर पर ही रुकेंगी।
गांव से लौटकर , मैं अपनी दिनचर्या में लग गया। एक माह बाद , भइया भाभी आये , डॉक्टर को दिखाने। इस बार भइया ने बस अड्डे पर बुलाया नही । सीधे भइया भाभी क्वार्टर आये। गांव की घटना से, मैंने अपने को थोड़ा और समेट  लिया। मुझे लगा कि मुझे नही पूछना चाहिये कि कब दिखाना है? जब भइया कहेंगे , तब मैं डॉक्टर का अपॉइंटमेंट लूंगा।
फिर पहले की भांति घूमना , पिक्चर देखना , खाना शुरू हुआ। भइया को तो नही लगा , लेकिन भाभी को यह जरूर लगा कि इस बार ,मैं संभल कर बोल रहा हूँ।
जब भइया बाथरुम गए तो भाभी ने पूछा ,
- कुँवर साहब कुछ कम नही बोल रहे हैं?,
- नही भाभी । ऐसी बात नही है।
मैंने उत्तर दिया।
बात खत्म हो गयी । तीसरे दिन हम लोग ,भाभी को डॉक्टर को दिखा लाये। चौथे दिन सुबह भइया को , शहर में ही किसी से मिलना था, इसलिये वह निकल गए।
भाभी ने फिर पूछा,
- लगता है , कुँवर साहब को बीमार पड़ने वाली वही बात खाये जा रही है, इसलिये संभल कर बोल रहे हैं।
- भाभी , आपको गलतफहमी है।.. ऐसी बात नही है। उस समय मन मे एक प्रश्न उठा तो पूछ लिया।और आपसे इसलिये पूछ लिया कि क्योकि आप सबसे सुलझी है।
मैंने उत्तर दिया।
- जब आपकी शादी हो जाएगी और,.. . आपकी बीबी गांव के घर आ जायेगी , तब पता चल जाएगा कि क्यो हम लोगों के क्षेत्र में बीमारिया ज्यादे है?
भाभी ने बात को समझाने की कोशिश की।
- जी।
मैं बोला।
- अच्छा , कुँवर जी , बताइये। इस बार तो , आपने ध्यान से देखा । गांव में ,मेरी दिनचर्या क्या रहती है?
भाभी ने पूछा।
- आपकी दिनचर्या बहुत कठोर है। सुबह 4 बजे से रात 11 बजे तक ,आप घर के कार्यो में लगी रहती है। वो भी  घूंघट निकालकर। कहने को तो बर्तन माजने के लिये भी कामवाली है ,, सब्जी काटने के लिये भी कामवाली है - फिर भी आप 15- 16 घंटे चूल्हे चौके में लगी रहती है। अनाज रखवाना , कपड़ो का काम , और न जाने कितने काम करने की  आपकी दिनचर्या  थी। कितने लोगों को अटेंड करती है। मेहमानों की खातिरदारी में भी लगी रहती है।संयुक्त परिवार के सभी बच्चों , महिलाओं का ध्यान रखना।
मैंने अपना ऑब्जरवेशन बताया।
- अब बताओ , ऐसे दिनचर्या में आराम कहाँ है , फुर्सत कहाँ है , मनोरंजन कहाँ है , कब है?
भाभी ने पूछते हुए , बात आगे बढ़ाई,
- आराम मिलता नही ।इसका असर शरीर पर ,तो पड़ता ही है  ।मनोरंजन के नाम पर ,घूमने के नाम पर क्या घर वाले छुट्टी देंगे?, ..... इसीलिये, हम डॉक्टर को दिखाने के निमित्त पति पत्नी निकलते हैं। डॉक्टर के नाम पर छुट्टी मिल जाती है। ..,  तभी हम लोग जब यहाँ आते हैं तो डॉक्टर को दिखाने के साथ साथ ,दो तीन दिन  घूमते ,टहलते, खाते, पिक्चर देखते है खरीददारी करते  हैं। तुम्हारे लिए , हो सकता है यह गैर जरूरी हो या न समझ आ रहा हो  ,लेकिन मेरे लिये , और मेरे जैसे अन्य लोगो के लिये यह तनाव का सेफ्टी वाल्व है।
००

अमित कुमार मल्ल की एक कहानी और नीचे लिंक पर पढ़िए

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परिचय 
1.नाम  - अमित कुमार मल्ल
2  जन्मस्थान - देवरिया
 3 शिक्षा - एम 0 ए 0, (हिंदी ),
               एल 0 एल 0 बी0
4  पद -   सेवारत
5  रचनात्मक उपलब्धियां-

प्रथम काव्य संग्रह - लिखा नहीं एक शब्द , 2002 में प्रकाशित ।
प्रथम लोक कथा संग्रह - काका के कहे किस्से , 2002 मे प्रकाशित ।वर्ष 2018 में इसका  , दूसरा व पूर्णतः संशोधित  संस्करण प्रकाशित।
दूसरा काव्य संग्रह - फिर , 2016    में प्रकाशित ।
2017 में  ,प्रथम काव्य संग्रह - लिखा नही एक शब्द का अंग्रेजी अनुवाद not a word was written प्रकाशित ।
काव्य संग्रह - फिर , की कुछ रचनाये , 2017 में ,पंजाबी में अनुदित होकर पंजाब टुडे में प्रकाशित ।
तीसरा काव्य संग्रह - बोल रहा हूँ , बर्ष 2018 के जनवरी  में प्रकाशित ।
कविताये , लघुकथाएं , कहानी  व लेख , देश कई ब्लॉग व वेबसाइट  तथा प्रमुख समाचारपत्रों व पत्रिकाओं में प्रकाशित ।

6, पुरस्कार / सम्मान -
राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान , उत्तर प्रदेश द्वारा 2017 में ,डॉ शिव मंगल सिंह सुमन पुरस्कार , काव्य संग्रह , फिर , पर दिया गया ।
सोशल मीडिया पर लिखे लेख को 28 जन 2018 को पुरस्कृत किया गया ।

8,मोब न0 9319204423
इ मेल -amitkumar261161@gmail.com