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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

20 जनवरी, 2019

परख चौंतीस

कविता रह गई गाँव में!
गणेश गनी

हमारे गांव के घर में भी एक बन्दूक, एक दूरबीन और एक कैमरा हमेशा रहता था। पिताजी वन विभाग में रहे तो उन्हें शिकार का भी जबरदस्त शौक था। उन दिनों पर्यावरण और वन्य प्राणियों के संरक्षण के प्रति कोई बहुत संवेदनशीलता नहीं थी। एक दिन मुझे पिताजी ने बंदूक थमायी और घर के बाहर सटे खेत में दाना चुगते फ़ाखते पर निशाना साधने को कहा। मेरा यह पहला अनुभव था तो ज़ाहिर है उत्सुकता भी थी। मैंने निशाना साधते हुए फायर किया और फ़ाख्ता फड़फड़ाते हुए वहीं ढेर हुआ। पिता जी खुश हुए कि चलो परिवार में बंदूक का कोई तो उत्तराधिकारी है। उस दिन मेरी सम्वेदना ने मुझे परेशान किया। हालांकि उसके बाद भी दोएक बार शिकार पर गया, परंतु यह मुझे एकदम रास नहीं आया।मुझे लगा कि प्रकृति में सुन्दर चीज़ों को देखना चाहिए, दूर या पास से केवल निहारना चाहिए। मुझे अच्छे से एहसास हो गया कि मैं कठोर और सम्वेदनहीनता वाला कोई काम नहीं कर सकता। मेरे अंदर कोमल, सम्वेदनशील, प्रेम, सहानुभूति आदि वाला पक्ष ज़्यादा मजबूत है।


ब्रह्मानंद देवरानी



मैं दूरबीन से पहाड़ों और झरनों की सुंदरता को निहारता, कैमरे में कुछ सुंदर नज़ारे और चीजें कैद करता। जब भी शहर से गांव को पत्र लिखता तो कुछ बातों को दृश्यों में ढालकर अलग तरह से लिखने की कोशिश करता। ब्रह्मानन्द देवरानी कवि तो हैं ही और पत्रकारिता के क्षेत्र में रोज़ी रोटी की व्यवस्था करते हैं। कवि हृदय व्यक्ति वैसे ही संवेदनशील होता है। ग्रामीण पृष्ठभूमि होने के कारण नोस्टाल्जिया भी रचना में आना स्वाभाविक है-

बहुत दूर आ पहुंचा मैं
कविता रह गई गांव में
बतियाती सुबह शाम पनघट पर
खेत के मुंडेर पर सुस्ताती
उगी सरसों के पीलेपन में
हवा के साथ उड़ती
शहद की मिठास ढूंढती
मधुमक्खियों के छत्ते के आसपास

कविता रह गई चौपाल पर
बुजुर्गों की अनुभवी हंसी में
महिलाओं के पैरों में पड़ी बिवाइयों में
हल के फाल में,
बैलों के खुरों में
कुएं और बावड़ी के पानी की शुद्धता में
भ्यूंल की रस्सी से बंधे बछड़े के गले को
पुचकारती

दराती और चूड़ियों के खनकते सुरों में
अपने अल्हड़पन के साथ
काट रही घास वह
पूरे गांव की खुशहाली के लिए दुआ मांगती
अपने किसी अंजान प्रेमी के लिए मधुर गीत गाती
चूल्हे की पास आग सेक रही कविता

खेतों की मिट्टी, दादी के किस्सों में
समय काट हंसती रोती
वहीं कहीं मुझे ढूंढती कविता।

मां पर कविता लगभग सब कवियों ने लिखी है, जैसे प्रेम पर लिखते हैं, लगभग वैसे ही। हालांकि दोनों पर कविता लिखना बेहद मुश्किल और खतरनाक है। खतरनाक इसलिए कि चूक जाने की सम्भावना बहुत है। कवि ने कहा कि माँ कविता नहीं जानती। बिल्कुल ठीक कहा अनाज के दाने भूख नहीं जानते, फूल अपनी मिठास नहीं जानते, नदी प्यास नहीं जानती, तो माँ भी ठीक वैसे ही कविता नहीं जानती, मगर माँ है तो कविता का अस्तित्व है। यानी माँ कविता से कहीं बड़ी है, सम्पूर्ण है, विराट है-

मां नहीं जानती थी कविता
पिता ने काफी कोशिश की समझने की
एक दिन कविता आई मेरे सपने में
और बोली, तुम मत रुकना
रचते रहना मुझे
मैं जानती हूं क्या होती है मां
और कितनी गहरी होती है उसकी सम्वेदना
कितना विराट होता है उसका प्रेम
उसके आगे तो मैं हाथ जोड़े खड़ी रहती हूं
कविता फिर बोली, मैं जानती हूं
पिता की कभी न खत्म होने वाली पीड़ा
उसका पहाड़ जैसा मनोबल
उसकी सागर जैसी चिंताएं
उसके आकाश जैसे सपने
मैं हमेशा समझना चाहती हूं पिता के मन को।
जब तक मैं सवाल पूछता
कविता जा चुकी थी सपने से बाहर।

कवि का जीवन व्यावसायिक पत्रकारिता से जुड़ा है। इसका असर भी कविताओं में दिखेगा। कभी कभी कविता में घटनाओं और कविता के विषयों पर प्रोफेशनल एप्रोच का प्रभाव दिखाई देता है। कवि दृश्य क्रिएट करता है, यह अच्छा है, मगर कभी कभी कविता की आत्मा इन दृश्यों के पीछे रह जाती है, दिखाई नहीं देती। कवि ने हर शेड की कविताएं लिखी हैं-

क्यों डरें उनसे
जो डर जाते हैं
स्कूल के छोटे-छोटे बच्चों से

क्यों डरें उनसे
जिनकी नींद उड़ जाती है कागज़ पर उगते सूरज को देखकर
स्कूल के रास्तों को
जो चाहते हैं बन्द करना

उनसे क्या डरना
जो जीते हैं घुट घुट कर
डर के साए में
भागते हैं अपनी जड़ों से दूर

और क्यों डरें उनसे भला
जो हारे हुए हैं
नहीं चाहते जीतना
मन जन का
डरे हुए लोग
मन से हारे हुए होते हैं।

समय जटिल तो है ही, ऊपर से बचा ही नहीं लोगों के पास। जिसे भी पूछो, तो कहेगा बस समय नहीं है उसके पास। देवरानी कहते हैं, सिर्फ भावना ही बची है तुम्हारे लिए-

समय तो बिक चुका है पहले ही
सिर्फ तुम्हारे लिए भावना बची है
पृथ्वी के अपनी धुरी पर
एक चक्कर के समय मे से
बस चंद घड़ियां ही
निकाल पाता तुम्हारे लिए
उस समय भी कुछ समस्याएं अपनी
कुछ तुम्हारी मिलकर हो जाती हैं दुगनी
इन समस्याओं के बीच निकाल लेता हूं
तुम्हारे लिए थोड़ा सा प्यार
तुम्हें निहारता हूं, पढ़ता रहता हूं तुम्हारे चेहरे के हावभाव
ढूंढ़ता हूं तुम्हारी मुस्कराहट के पीछे
छिपे सवालों, चिंताओं और सपनों को
क्या तुम बताओगे इन्हें छुपाने का
सलीका तुमने सीखा कहां से
बस, यही ढूंढते बीत जाता है समय
कितनी अनमोल धरोहर तुम्हारे पास
कहीं गुम न हो जाए यह धरोहर
इसलिए कुछ बोलने से भी डरता हूं
अथाह प्यार उड़ेल देता हूं अपने आंसुओं से भीतर ही भीतर।



गणेश गनी




एक जगह अंतिम पाठ में कवि कुछ कह गया। उसने मौन में भी सबकुछ सुन लिया। धैर्य तो माँ का दूसरा नाम है। जहां शब्द असफ़ल हो जाते हैं, वहाँ मौन बोलता है-

हां याद आया
तुम ही कहा करती थी
कठिन दौर में धैर्य नहीं खोना पड़ता
शायद यही पाठ दोहरा गई तुम
कितनी धन्य हो तुम
मौन में भी संवाद
मौन में ही उत्तर
मौन में रहकर सिखा दिया तुमने एक और पाठ।
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परख की पिछली कड़ी नीचे लिंक पर पढ़िए


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